शुक्रवार, 17 जनवरी 2020

👉 सच्ची साधना

पति का अकाल निधन साध्वी रोहिणी पर वज्राघात था, जिसे सहन कर सकना असम्भव था किन्तु पुत्र देव शर्मा के प्रति कर्त्तव्य और ममता ने उसे जीने के लिए विवश कर दिया। अभ्यास नहीं था तो भी उसने घोर परिश्रम किया और बेटे का न केवल पालन पोषण ही वरन् उसे वेदाँग के अध्ययन जैसी उच्च शिक्षा भी दिलाई। देवशर्मा माँ के प्रताप से अपने समय के श्रेष्ठ विद्वानों में गिना जाने लगा।

माँ वृद्धा हो गई थी नीति कहती थी अब बेटे को प्रत्युपकार-करना चाहिये पर दुष्ट कृतघ्नता को क्या कहा जाये-जहाँ भी उसका जन्म हुआ मर्यादायें, नीति और कर्त्तव्य भाव वहीं विश्रृंखलित हुये। संसार में यह जो कलह और अशाँति है कृतघ्नता ही उसका एक मात्र कारण है। बेटे के मन में यह समझ नहीं आई। अपनी मुक्ति, अपना स्वर्ग उसे अधिक आवश्यक लगा सो माँ और छोटी बहन को बिलखता छोड़कर देवशर्मा घर से भाग निकला और तीर्थाटन करते हुये नन्दिग्राम के एक मठ में जाकर तप करने लगा।

एक दिन देवशर्मा प्रातःकाल नदी के किनारे पहुँचे। स्नान कर अपना चीवर सूखने के लिये जमीन पर डाल दिया और स्वयं वहीं पर आसन डालकर ध्यान मग्न हो गये। प्रातःकालीन सन्ध्या समाप्त कर जैसे ही देवशर्मा उठे उन्होंने देखा एक कौवा और एक बकुल चीवर को चोंच में दबाकर उड़े जा रहे हैं। देवशर्मा के क्रोध का ठिकाना न रहा। उन्होंने बड़ी-बड़ी तान्त्रिक सिद्धियाँ प्राप्त की थी। शक्ति का मद बड़ा बुरा होता है। उन्होंने क्रोधपूर्ण दृष्टि से पक्षियों की ओर देखा। आँखों से अग्नि ज्वाला फूटी और दोनों पक्षी जलकर वहीं खाक हो गये। देवशर्मा अपनी सिद्धि देखकर फूले नहीं समाये। उन्हें लगा समस्त भूमंडल पर उन जैसा कोई दूसरा सिद्ध नहीं है।

अहंकार से भरे देवशर्मा मठ की ओर चल पड़े। मार्ग में नंदिग्राम पड़ता था सोचा आज की भिक्षा भी लेते चलें सो देवशर्मा ने एक सद् गृहस्थ के द्वार पर “भवति भिक्षाँ देहि” की पुकार लगाई और भिक्षा की प्रतीक्षा में वहीं खड़े हो गये।

भीतर से आवाज आ रही थी इससे पता चलता था कि गृह स्वामिनी अन्दर ही है पर कोई बाहर नहीं आ रहा यह देखकर देवशर्मा को बड़ा गुस्सा आया। उन्होंने दुबारा तिबारा और चौथी बार भी पुकारा पर हर बार भीतर से एक ही आवाज आई स्वामी जी ठहरिये! मैं अभी साधना कर रही हूँ साधना समाप्त कर लूँगी तक भिक्षा दूँगी तब तक आप खड़े रहिये। देवशर्मा का क्रोध सीमा पार गया। तड़प कर बोले-दुष्टा ! साधना कर रही है या परिहास-जानती नहीं इस अवहेलना का क्या परिणाम हो सकता है।

संयत और गम्भीर स्वर भीतर से बाहर आया- महात्मन् जानती हूँ आप शाप देना चाहेंगे किन्तु मैं कोई कौवा और बलाका नहीं, संत ! जो तुम्हारी कोप दृष्टि से जलकर नष्ट हो जाऊँगी। जिसने तुम्हें जीवन भर पाला उस माँ को त्यागकर अपनी मुक्ति चाहने वाले साधु ! आप मेरा कुछ भी तो बिगाड़ नहीं सकते ?

देवशर्मा का सिद्धि का अहंकार चूर-चूर हो गया। कुछ देर बाद गृह स्वामिनी घर से बाहर आई और भिक्षा देने लगी। देवशर्मा ने साश्चर्य पूछा-भद्रे ! आप मुझे यह बतादे कि आप कौन सी साधना करती हैं जिससे बिना देखे ही कौए के जलाने और माँ को असहाय छोड़ आने की घटना जान गई।

गृह स्वामिनी ने उत्तर दिया---कर्त्तव्य की साधना” महात्मन् ! म् अपने पति, अपने बच्चे, अपने परिवार, समाज और देश के प्रति कर्त्तव्यों का निष्ठापूर्वक पालन करती हूँ। उसी की सिद्धि है यह। देवशर्मा का सिर लज्जा से नीचे झुक गया। भीख नहीं ली उन्होंने -चुपचाप जिस घर को छोड़कर आये थे चल पड़े उसी ओर छोड़ी हुई कर्त्तव्य की साधना पूरी करने।

अखण्ड ज्योति दिसम्बर, 1971    

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1971/December/v1.14

👉 दोनों साथ चलें

👉 QUERIES ABOUT JAP AND DAILY UPASANA (Part 3)

Q.7. Should one deliberate on the meaning of the Mantra during the Jap?  
Ans. As regards contemplation on the meaning of Mantra during the Jap, it is recommended that one should only meditate on the deity during Jap. The practical difficulty in thinking about meaning of Mantra at the time of Jap is that it takes time to form imaginary pictures in accordance with the meaning of every word and during this time Jap cannot be interrupted. Jap should be continuous, uninterrupted and non-stop like the flow of oil. Of course, the meaning of Gayatri Mantra should be thoroughly understood. If it is sought to form imaginary pictures of the meanings of different words, this can conveniently be done at some other time but not with Jap.

Q.8. Is taking a bath essential prior to Jap? What should one wear during the Jap?


Ans. It is more appropriate to sit in front of an altar after taking bath, wearing clean clothes and perform worship in the morning with due salutations and reverence. It keeps the mind happily steady and helps in its concentration. But when duty hours are odd, a person is sick or where it is not possible to arrange for water, one can perform mental Jap without the help of Mala. Scriptures recommend cleanliness of body and clothes as a pre-requisite for any religious practice or worship. Since a routine of wearing freshly-washed clothes during each session of Upasana, is to be maintained, one is advised to be clad only in a two-piece garment, one each for covering the upper and lower parts of the body e.g. Dhoti - Dupatta. However, for protection against cold an additional under-garment can be worn.
  
Though the pundits prescribe cleanliness of body and clothes, it is not considered mandatory for all occasions. Situations may arise when the worshipper finds it difficult to adhere to this rule strictly. Under such circumstances, one should not discontinue the routine of worship. Otherwise, the aspirant is totally deprived of even the partial benefit. Besides cleanliness, the objective of these preparatory rituals is to help the worshipper in getting rid of lethargy. A sick or weak person may wash his arms, feet and face, or if possible wipe the body with a wet cloth.  
  
Woollen or silken clothes do not absorb dirt and perspiration to the extent cotton wears do. Nevertheless, these too require cleaning at certain intervals. Since, now-a-days silk is obtained by boiling live silk worms, silk wears are no longer considered appropriate for a spiritual practice. These are not recommended for Upasana. The same holds true for animal hides. The ancient sages used hides of animals who died a natural death. This is no longer true. Animals are being killed for their hides. Now-a-days a variety of other floor-spreads (woollens, synthetics) are available ,which may be used; and cleaned by washing or through exposure to sun from time to time.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 Gayatri Sadhna truth and distortions Page 52

👉 विचारों का प्रतिफल कर्म

कर्म जो आँखों से दिखाई देता है वह अदृश्य−विचारों का ही दृश्य रूप है। मनुष्य जैसा सोचता है वैसा करता है। चोरी, बेईमानी, दगाबाजी, शैतानी, बदमाशी कोई आदमी यकायक कभी नहीं कर सकता, उसके मन में उस प्रकार के विचार बहुत दिनों से घूमते रहते हैं। अवसर न मिलने से वे दबे हुए थे, समय पाते ही वे कार्य रूप में परिणत हो गये। बाहर के लोगों को किसी के द्वारा यकायक कोई दुष्कर्म होने की बात सुनकर इसलिए आश्चर्य होता है कि वे उसकी भीतरी स्थिति को नहीं जानते थे। इसी प्रकार कोई अधिक उच्चकोटि का सत्कर्म करने का भी आकस्मिक समाचार भले ही सुनने को मिले पर वस्तुतः उसकी तैयारी वह मनुष्य भीतर ही भीतर बहुत दिनों से कर रहा होता है। इसी प्रकार जो व्यक्ति आज उन्नतिशील एवं सफलता सम्पन्न दिखाई पड़ते हैं वे अचानक ही वैसे नहीं बन गये होते वरन् चिरकाल से उनका प्रयत्न उसके लिए चल रहा होता है। भीतरी पुरुषार्थ को उनने बहुत पहले जगा लिया होता है। उनने अपने मनःक्षेत्र में भीतर ही भीतर वह अच्छाइयाँ जमा कर ली होती हैं जिनके द्वारा बाह्य जगत में दूसरों का सहयोग एवं उन्नति का आधार निर्भर रहता है। बाह्य−जीवन हमारे भीतरी जीवन का प्रतिबिम्ब मात्र है। पर्दे के पीछे दीपक जल रहा है तो उसका कुछ प्रकाश बाहर भी परिलक्षित होता है। इसी प्रकार भीतरी पर्दे में जिनमें कुछ अच्छाइयाँ हैं वे ही उनकी कीमत पर बाह्य−जगत में सुख साधनों को खरीद लेते हैं।

अनैतिक प्रकृति के लोग बहुधा अपनी चालाकी से धन कमा लेते या कोई उन्नति कर लेते देखे जाते हैं। इससे उस कमाई का सारा श्रेय अनैतिकता को नहीं दिया जा सकता। माना कि लोगों की कमजोरी और भोलेपन का लाभ कई शैतान उठा लेते हैं पर इस शैतानी के पीछे भी उनकी चतुरता, तीव्र−बुद्धि, तत्परता, सावधानी, लगन, हिम्मत, कष्ट सहिष्णुता आदि अनेक गुण छिपे रहते हैं। डाकुओं में भी पुरुषार्थ, हिम्मत, बहादुरी, कष्ट−सहिष्णुता, चतुरता, सावधानी अपने साथियों के प्रति वफादारी आदि अनेक मानसिक गुण भी होते हैं। यदि यह गुण किसी में न हों और वह केवल बेईमानी से ही कुछ लाभ उठाना चाहे तो उसका प्रयास एक कदम भी सफल नहीं हो सकता। अनैतिक लोगों की सफलता से चकित होकर कई लोग अनैतिकता को लाभ और सफलता का हेतु मानने लगते हैं यह भूल है। अनैतिकता के फलस्वरूप तो उन्हें सर्वत्र अविश्वास, घृणा, तिरस्कार, असहयोग एवं यथा अवसर राजकीय एवं ईश्वरीय दंड ही मिलता है। लाभ का श्रेय तो उस मनोभूमि को है जो प्रयत्नपूर्वक इतनी जल्दी बनाई गई कि अनैतिकता के दंड एवं लोगों की पकड़ से बचते हुए एक प्रकार की सफलता प्राप्त कर ली गई। बेवकूफ एवं आलसी, लापरवाह एवं अड़ियल प्रकृति के लोग अनैतिकता को अपनाकर भी सफलता प्राप्त नहीं कर सकते। यदि पाप से ही कमाई होती हुई होती तो हर दुरात्मा को सफलता मिली होती। फिर जो लाखों अनैतिक मनोभूमि वाले भीख−टूक पर गुजारा करते दिखाई देते हैं वे सब के सब मालदार ही हो गये होते।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1962 पृष्ठ 22

👉 सन्त का सान्निध्य

सन्त का सान्निध्य अनूठा है। इसके रहस्य गहरे हैं। सन्त के सान्निध्य में जो दृश्य घटित होता है वह थोड़ा है। लेकिन जो अदृश्य में घटता है वह ज्यादा है। उसका महत्त्व और मोल-अनमोल है। सन्त का सान्निध्य नियमित होता रहे, इसमें निरन्तरता बनी रहे तो अपने आप ही जीवनक्रम बदलने लगता है। मन में जड़ जमाये बैठी उल्टी आस्थाएँ-मान्यताएँ-आग्रह फिर से उलटकर सीधे होने लगते हैं। सन्त के सान्निध्य में विचार परिवर्तन-जीवन परिवर्तन के क्रांति स्फुलिंग यूँ ही उड़ते रहते हैं। इनके दाहक स्पर्श से जीवन की अवांछनीयताओं का दहन हुए बिना नहीं रहता।
  
सन्त के सान्निध्य में सत् का सत्य बोध अनायास हो जाता है। पर यह हो पाता है सन्त के चित् के कारण, उसके चैतन्य प्रवाह की वजह से। हालाँकि यह अदृश्य में घटित होता है, परन्तु इसकी अनुभूति आनन्द बनकर अस्तित्व में बरसती रहती है। यह आश्चर्यकारी परिवर्तन उन सभी में होता है जो सन्त के सान्निध्य में सजग होकर रहते हैं। यह ऐसा अनुभव है जिसे जब मन करे तभी पाया जा सकता है। बस इसके लिए चाहिए सन्त का सान्निध्य।
  
इस सम्बन्ध में बड़ा पावन प्रसंग है-सन्त फरीद के जीवन का। बिलाल नाम के एक व्यक्ति को कुछ षड्यन्त्रकारी लोगों ने उनके पास भेजा। उसने सन्त फरीद को कई तरह से परेशान करने की कोशिश की, पर वह सन्त शान्त रहे। सन्त की इस अचरज भरी शान्ति ने बिलाल के मन को छू लिया और वह उन्हीं के साथ रहने लगा। उसे सन्त के साथ रहते हुए कई वर्ष बीत गये। इन वर्षों में उसमें कई आध्यात्मिक परिवर्तन हुए। हालाँकि उसने इसके लिए कोई साधना नहीं की थी। बाबा फरीद के एक शिष्य ने थोड़ा हैरान होते हुए इसका रहस्य जानना चाहा। बाबा फरीद ने हँसते हुए कहा-सन्त का सान्निध्य स्वयं में साधना है। सन्त के सान्निध्य में अदृश्य आध्यात्मिक ऊर्जा का प्रवाह उमड़ता रहता है जो न चाहने पर भी पास रहने वाले के व्यक्तित्व के ऊपरी और भीतरी परतों को प्रभावित करता है। यह प्रक्रिया अदृश्य रूप में उसके चित्त एवं चेतना को घेरती है और परिणाम में अपने आप ही सन्त के सान्निध्य में आध्यात्मिक व्यक्तित्व जन्म पा जाता है।

✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ १६२

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...