पति का अकाल निधन साध्वी रोहिणी पर वज्राघात था, जिसे सहन कर सकना असम्भव था किन्तु पुत्र देव शर्मा के प्रति कर्त्तव्य और ममता ने उसे जीने के लिए विवश कर दिया। अभ्यास नहीं था तो भी उसने घोर परिश्रम किया और बेटे का न केवल पालन पोषण ही वरन् उसे वेदाँग के अध्ययन जैसी उच्च शिक्षा भी दिलाई। देवशर्मा माँ के प्रताप से अपने समय के श्रेष्ठ विद्वानों में गिना जाने लगा।
माँ वृद्धा हो गई थी नीति कहती थी अब बेटे को प्रत्युपकार-करना चाहिये पर दुष्ट कृतघ्नता को क्या कहा जाये-जहाँ भी उसका जन्म हुआ मर्यादायें, नीति और कर्त्तव्य भाव वहीं विश्रृंखलित हुये। संसार में यह जो कलह और अशाँति है कृतघ्नता ही उसका एक मात्र कारण है। बेटे के मन में यह समझ नहीं आई। अपनी मुक्ति, अपना स्वर्ग उसे अधिक आवश्यक लगा सो माँ और छोटी बहन को बिलखता छोड़कर देवशर्मा घर से भाग निकला और तीर्थाटन करते हुये नन्दिग्राम के एक मठ में जाकर तप करने लगा।
एक दिन देवशर्मा प्रातःकाल नदी के किनारे पहुँचे। स्नान कर अपना चीवर सूखने के लिये जमीन पर डाल दिया और स्वयं वहीं पर आसन डालकर ध्यान मग्न हो गये। प्रातःकालीन सन्ध्या समाप्त कर जैसे ही देवशर्मा उठे उन्होंने देखा एक कौवा और एक बकुल चीवर को चोंच में दबाकर उड़े जा रहे हैं। देवशर्मा के क्रोध का ठिकाना न रहा। उन्होंने बड़ी-बड़ी तान्त्रिक सिद्धियाँ प्राप्त की थी। शक्ति का मद बड़ा बुरा होता है। उन्होंने क्रोधपूर्ण दृष्टि से पक्षियों की ओर देखा। आँखों से अग्नि ज्वाला फूटी और दोनों पक्षी जलकर वहीं खाक हो गये। देवशर्मा अपनी सिद्धि देखकर फूले नहीं समाये। उन्हें लगा समस्त भूमंडल पर उन जैसा कोई दूसरा सिद्ध नहीं है।
अहंकार से भरे देवशर्मा मठ की ओर चल पड़े। मार्ग में नंदिग्राम पड़ता था सोचा आज की भिक्षा भी लेते चलें सो देवशर्मा ने एक सद् गृहस्थ के द्वार पर “भवति भिक्षाँ देहि” की पुकार लगाई और भिक्षा की प्रतीक्षा में वहीं खड़े हो गये।
भीतर से आवाज आ रही थी इससे पता चलता था कि गृह स्वामिनी अन्दर ही है पर कोई बाहर नहीं आ रहा यह देखकर देवशर्मा को बड़ा गुस्सा आया। उन्होंने दुबारा तिबारा और चौथी बार भी पुकारा पर हर बार भीतर से एक ही आवाज आई स्वामी जी ठहरिये! मैं अभी साधना कर रही हूँ साधना समाप्त कर लूँगी तक भिक्षा दूँगी तब तक आप खड़े रहिये। देवशर्मा का क्रोध सीमा पार गया। तड़प कर बोले-दुष्टा ! साधना कर रही है या परिहास-जानती नहीं इस अवहेलना का क्या परिणाम हो सकता है।
संयत और गम्भीर स्वर भीतर से बाहर आया- महात्मन् जानती हूँ आप शाप देना चाहेंगे किन्तु मैं कोई कौवा और बलाका नहीं, संत ! जो तुम्हारी कोप दृष्टि से जलकर नष्ट हो जाऊँगी। जिसने तुम्हें जीवन भर पाला उस माँ को त्यागकर अपनी मुक्ति चाहने वाले साधु ! आप मेरा कुछ भी तो बिगाड़ नहीं सकते ?
देवशर्मा का सिद्धि का अहंकार चूर-चूर हो गया। कुछ देर बाद गृह स्वामिनी घर से बाहर आई और भिक्षा देने लगी। देवशर्मा ने साश्चर्य पूछा-भद्रे ! आप मुझे यह बतादे कि आप कौन सी साधना करती हैं जिससे बिना देखे ही कौए के जलाने और माँ को असहाय छोड़ आने की घटना जान गई।
गृह स्वामिनी ने उत्तर दिया---कर्त्तव्य की साधना” महात्मन् ! म् अपने पति, अपने बच्चे, अपने परिवार, समाज और देश के प्रति कर्त्तव्यों का निष्ठापूर्वक पालन करती हूँ। उसी की सिद्धि है यह। देवशर्मा का सिर लज्जा से नीचे झुक गया। भीख नहीं ली उन्होंने -चुपचाप जिस घर को छोड़कर आये थे चल पड़े उसी ओर छोड़ी हुई कर्त्तव्य की साधना पूरी करने।
अखण्ड ज्योति दिसम्बर, 1971
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1971/December/v1.14
माँ वृद्धा हो गई थी नीति कहती थी अब बेटे को प्रत्युपकार-करना चाहिये पर दुष्ट कृतघ्नता को क्या कहा जाये-जहाँ भी उसका जन्म हुआ मर्यादायें, नीति और कर्त्तव्य भाव वहीं विश्रृंखलित हुये। संसार में यह जो कलह और अशाँति है कृतघ्नता ही उसका एक मात्र कारण है। बेटे के मन में यह समझ नहीं आई। अपनी मुक्ति, अपना स्वर्ग उसे अधिक आवश्यक लगा सो माँ और छोटी बहन को बिलखता छोड़कर देवशर्मा घर से भाग निकला और तीर्थाटन करते हुये नन्दिग्राम के एक मठ में जाकर तप करने लगा।
एक दिन देवशर्मा प्रातःकाल नदी के किनारे पहुँचे। स्नान कर अपना चीवर सूखने के लिये जमीन पर डाल दिया और स्वयं वहीं पर आसन डालकर ध्यान मग्न हो गये। प्रातःकालीन सन्ध्या समाप्त कर जैसे ही देवशर्मा उठे उन्होंने देखा एक कौवा और एक बकुल चीवर को चोंच में दबाकर उड़े जा रहे हैं। देवशर्मा के क्रोध का ठिकाना न रहा। उन्होंने बड़ी-बड़ी तान्त्रिक सिद्धियाँ प्राप्त की थी। शक्ति का मद बड़ा बुरा होता है। उन्होंने क्रोधपूर्ण दृष्टि से पक्षियों की ओर देखा। आँखों से अग्नि ज्वाला फूटी और दोनों पक्षी जलकर वहीं खाक हो गये। देवशर्मा अपनी सिद्धि देखकर फूले नहीं समाये। उन्हें लगा समस्त भूमंडल पर उन जैसा कोई दूसरा सिद्ध नहीं है।
अहंकार से भरे देवशर्मा मठ की ओर चल पड़े। मार्ग में नंदिग्राम पड़ता था सोचा आज की भिक्षा भी लेते चलें सो देवशर्मा ने एक सद् गृहस्थ के द्वार पर “भवति भिक्षाँ देहि” की पुकार लगाई और भिक्षा की प्रतीक्षा में वहीं खड़े हो गये।
भीतर से आवाज आ रही थी इससे पता चलता था कि गृह स्वामिनी अन्दर ही है पर कोई बाहर नहीं आ रहा यह देखकर देवशर्मा को बड़ा गुस्सा आया। उन्होंने दुबारा तिबारा और चौथी बार भी पुकारा पर हर बार भीतर से एक ही आवाज आई स्वामी जी ठहरिये! मैं अभी साधना कर रही हूँ साधना समाप्त कर लूँगी तक भिक्षा दूँगी तब तक आप खड़े रहिये। देवशर्मा का क्रोध सीमा पार गया। तड़प कर बोले-दुष्टा ! साधना कर रही है या परिहास-जानती नहीं इस अवहेलना का क्या परिणाम हो सकता है।
संयत और गम्भीर स्वर भीतर से बाहर आया- महात्मन् जानती हूँ आप शाप देना चाहेंगे किन्तु मैं कोई कौवा और बलाका नहीं, संत ! जो तुम्हारी कोप दृष्टि से जलकर नष्ट हो जाऊँगी। जिसने तुम्हें जीवन भर पाला उस माँ को त्यागकर अपनी मुक्ति चाहने वाले साधु ! आप मेरा कुछ भी तो बिगाड़ नहीं सकते ?
देवशर्मा का सिद्धि का अहंकार चूर-चूर हो गया। कुछ देर बाद गृह स्वामिनी घर से बाहर आई और भिक्षा देने लगी। देवशर्मा ने साश्चर्य पूछा-भद्रे ! आप मुझे यह बतादे कि आप कौन सी साधना करती हैं जिससे बिना देखे ही कौए के जलाने और माँ को असहाय छोड़ आने की घटना जान गई।
गृह स्वामिनी ने उत्तर दिया---कर्त्तव्य की साधना” महात्मन् ! म् अपने पति, अपने बच्चे, अपने परिवार, समाज और देश के प्रति कर्त्तव्यों का निष्ठापूर्वक पालन करती हूँ। उसी की सिद्धि है यह। देवशर्मा का सिर लज्जा से नीचे झुक गया। भीख नहीं ली उन्होंने -चुपचाप जिस घर को छोड़कर आये थे चल पड़े उसी ओर छोड़ी हुई कर्त्तव्य की साधना पूरी करने।
अखण्ड ज्योति दिसम्बर, 1971
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1971/December/v1.14