शुक्रवार, 30 जुलाई 2021

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ४५)

सत् तत्व का नियामक

इतने पर ही उसके अनुदान समाप्त नहीं हो जाते अग्नि में चिंगारी, पदार्थ में—परमाणु सूर्य में किरणों की तरह वह स्वयं भी मनुष्य की हृदय गुहा में बैठकर उसे प्रतिपल आत्मोत्कर्ष की प्रेरणा देता रहता है। गलत मार्ग पर चलने से पहले ही उसकी प्रेरणा रोकती है, पर मनुष्य अन्तःकरण की उस पुकार को अनसुनी कर स्वेच्छाचारिता बरतता और उस अपराध का दण्ड, रोग, शोक, क्लेश, कलह और मानसिक सन्ताप के रूप में भुगतता रहता है। फिर भी उसकी वासनाएं शान्त नहीं होतीं, वह अपनी वासनाओं की, तृष्णा की, अतृप्त कामनाओं की प्यास बुझाने के लिए मानवेत्तर योनियों में भटकता है, तो भी उसकी दया, करुणा, उदारता एक पल को भी साथ नहीं छोड़ती और उसे निरन्तर ऊपर उठने, कामनाओं से मुक्ति पाकर शाश्वत, सनातन और दिव्य आनन्द की प्राप्ति के लिए प्रेरित करती रहती है। फिर भी इस सत्ता के अजस्र अनुदानों की ओर से आंख फेरकर मनुष्य प्यासा का प्यासा बना रहता है। माया के मूढ़ भ्रमजाल में पड़ा जीवन के बहुमूल्य क्षण मिट्टी के सोल नष्ट करता रहता है।

वैज्ञानिक सृष्टि की नियामक विधि-व्यवस्था प्रत्येक अणु में विद्यमान दिव्य चेतना को नहीं झुठलाती। हर्वर्ट स्पेंसर की दृष्टि में भगवान् एक विराट् शक्ति है जो संसार की सब गतिविधियों का नियन्त्रण उसी प्रकार करता है जिस प्रकार घर का मुखिया, गांव का प्रधान, जिले का कलेक्टर और प्रान्त का गवर्नर। राज्य के नियमों का हम इसलिए पालन करते हैं क्योंकि हमें राजदण्ड का भय होता है। नैतिक नियमों का पालन न करने पर हमें भय लगता है जब कि हम उसके लिए पूर्ण स्वतन्त्र होते हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि संसार में कोई सर्वोच्च सत्ता काम करती है। निर्भीक व्यक्ति, नैतिक व्यक्ति ही हो सकता है इस तथ्य से वह भी स्पष्ट है कि वह प्रजावत्सल और न्यायकारी भी है।

दार्शनिक कान्ट ने इन्पेंसर के कथन को और भी स्पष्ट करते हुये लिखा है—नैतिक नियमों की स्वीकृति ही परमात्मा के अस्तित्व का प्रमाण और पूर्ण नैतिकता ही उसका स्वरूप है। संसार का बुरे से बुरा व्यक्ति भी किसी न किसी के प्रति नैतिक अवश्य होता है। चोर, डकैत और कसाई तक अपने बच्चों के प्रति दयालु और कर्त्तव्य-परायण होते हैं, जब कि वे जीवन भर कुत्सित कर्म ही करते रहते हैं। अपने भीतर से नैतिक नियमों की स्वीकृति इस बात का पुष्ट प्रमाण है कि संसार केवल नैतिकता के लिए ही जीवित है। उसी से संसार का निर्माण पालन और पोषण हो रहा है। इसलिए परमात्मा नैतिक शक्ति के रूप में माना जाने योग्य है।

हैब्रू ग्रन्थों में ईश्वर को ‘‘जेनोवाह’’ कहा गया है जेनोवाह का शाब्दिक अर्थ है—वह जो सदैव सत्य नीति ही प्रदान करता है। दार्शनिक प्लेटो ने उसे—‘‘अच्छाई का विचार’’ कहा है। संसार के प्रत्येक व्यक्ति यहां तक कि जीव-जन्तुओं में भी अच्छाई की चाह रहती है। अच्छाई में ही आनन्द और आत्म-तृप्ति मिलती है। अच्छाई शरीर और सौन्दर्य की जो संयम और सदाचार द्वारा सुरक्षित हो, अच्छाई समाज की जो ईमानदारी, नेकनीयती, विश्वास, सहयोग और परस्पर प्रेम व भाईचारे की भावना से सुरक्षित हो, अच्छाई प्रकृति की जो रंग-बिरंगे फूलों, भोले भाले पशु-पक्षियों के कलरव उनकी क्रीड़ा द्वारा सुरक्षित हैं। इस तरह संसार में सर्वत्र अच्छाई के दर्शन करके प्रसन्नता अनुभव करते हैं। परमात्मा इस तरह अच्छाई का वह बीज है जो आंखों को दिव्य मनोरम और बहुत प्यारा लगता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ ७१
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

👉 भक्तिगाथा (भाग ४५)

प्रभु स्मरण, प्रभु समर्पण और प्रभु अर्पण का नाम है भक्ति

ब्रह्मर्षि विश्वामित्र की वाणी ने सभी के अन्तःकरण को छू लिया। यह छुअन इतनी गहरी और कसक भरी थी कि सभी की भावनाएँ पिघल उठीं। देवों की दीप्ति एवं ऋषियों का तेज अनायास ही इसमें घुलने लगा। हिमवान की गोद में एक और सरिता बहने के लिए मचल उठी। इसका दृश्य रूप भले ही सामान्य दृष्टि न निहार पाए, परन्तु इसके अदृश्य प्रभाव से सभी प्रभावित हो रहे थे। यह भक्ति की पावन स्रोतस्विनी थी, जिसे देवर्षि के तप ने सप्तर्षियों के ज्ञान ने और देवों की दिव्यता ने साकार किया था। इस समय के संवेदन कुछ इतने अपूर्व एवं अद्भुत थे, जिन्हें ठीक-ठीक कहा नहीं जा सकता। ऋषि पुलह तो इतने भावमय हो उठे कि उनकी वाणी बरबस फूट पड़ी। वह बोले कि ‘‘भला अनुभूतियों की कोई भाषा होती है। वे तो बस होती हैं। उन्हें कहने चलो तो कभी भी ठीक से नहीं कहा जा सकता। जब भी कोशिश करो, सदा अधूरापन बना रहता है।’’
    
ऋषि पुलह की वाणी के सूत्रों को बड़ी सुकोमलता से सम्हालते हुए देवर्षि ने भक्ति के नए महामंत्र को उच्चारित किया-
‘अस्त्येवमेवम्’॥२०॥
ठीक ऐसा ही है।
    
ऐसा कहने के बाद देवर्षि थोड़े थमे फिर कहने लगे- ‘‘भक्ति की जितनी भी परिभाषाएँ हैं सब की सब ठीक हैं। इन सभी में भक्ति का कोई न कोई पहलू अवश्य उजागर होता है परन्तु सम्पूर्णता फिर भी बाकी रहती है। सारी परिभाषाएँ ठीक होने पर भी अधूरी हैं। बहुत कुछ कह देने के बाद भी काफी कुछ अनकहा रह जाता है। बची रह जाती हैं बातें। क्योंकि भक्ति की व्यापकता किसी सीमा में नहीं समाती। वह तो बस है असीम-सीमारहित, अपने में शून्यता को समेटे और अनन्तता का विस्तार लिए।’’
    
देवर्षि अपने सूत्र की व्याख्या का और विस्तार कर पाते, इसके पहले ही वातावरण में अपूर्व सुगन्धि एवं स्निग्ध प्रकाश व्याप्त हो गये। सभी समझ गए कि किन्हीं विशिष्ट विभूति का आगमन हो चुका है। हालांकि इस भक्तिगंगा के सान्निध्य में यह कोई नयी बात नहीं थी। पहले भी अनेकों विशिष्टजन पधार चुके थे। फिर भी सबकी अपनी -अपनी महत्ता थी। किसी की किसी से तुलना नहीं की जा सकती। सभी अतुलनीय और सभी अनुपमेय हैं। सभी के आगमन ने यहाँ उपस्थित सभी जनों को कृतार्थ किया था। जब कोई आया उसके आगमन से भक्तिगाथा में एक नयी कड़ी जुड़ गयी।
    
पर आज कौन? यह प्रश्न ज्यादा देर तक रहस्य न रह सका। थोड़ी देर में एक विचित्र किन्तु सम्मोहक व्यक्तित्व प्रकट हो गया। ये ऋषि अघोर थे। इनके सान्निध्य को सिद्धजन भी अपने लिए परम सौभाग्य मानते हैं। परम अवधूत, महाज्ञानी, भावमय भक्त, ऋषि अघोर को भगवान् दत्तात्रेय की ही भाँति पूजनीय माना जाता है। हालांकि वे भला कब किसी की पूजा स्वीकार करते हैं। उनका अस्तित्त्व तो मलय पवन के समान सदा प्रवाहित रहता है। वे कब कहाँ, किस को, किस तरह से कृतार्थ कर दें, इसे भला कौन जानता है। सिद्धों के सम्प्रदाय में कहा जाता है कि ऋषि अघोर मेघों की भाँति हैं, जो दैवी प्रेरणा से जाकर अपने कृपाजल की वृष्टि करते रहते हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ८५

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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