सत् तत्व का नियामक
इतने पर ही उसके अनुदान समाप्त नहीं हो जाते अग्नि में चिंगारी, पदार्थ में—परमाणु सूर्य में किरणों की तरह वह स्वयं भी मनुष्य की हृदय गुहा में बैठकर उसे प्रतिपल आत्मोत्कर्ष की प्रेरणा देता रहता है। गलत मार्ग पर चलने से पहले ही उसकी प्रेरणा रोकती है, पर मनुष्य अन्तःकरण की उस पुकार को अनसुनी कर स्वेच्छाचारिता बरतता और उस अपराध का दण्ड, रोग, शोक, क्लेश, कलह और मानसिक सन्ताप के रूप में भुगतता रहता है। फिर भी उसकी वासनाएं शान्त नहीं होतीं, वह अपनी वासनाओं की, तृष्णा की, अतृप्त कामनाओं की प्यास बुझाने के लिए मानवेत्तर योनियों में भटकता है, तो भी उसकी दया, करुणा, उदारता एक पल को भी साथ नहीं छोड़ती और उसे निरन्तर ऊपर उठने, कामनाओं से मुक्ति पाकर शाश्वत, सनातन और दिव्य आनन्द की प्राप्ति के लिए प्रेरित करती रहती है। फिर भी इस सत्ता के अजस्र अनुदानों की ओर से आंख फेरकर मनुष्य प्यासा का प्यासा बना रहता है। माया के मूढ़ भ्रमजाल में पड़ा जीवन के बहुमूल्य क्षण मिट्टी के सोल नष्ट करता रहता है।
वैज्ञानिक सृष्टि की नियामक विधि-व्यवस्था प्रत्येक अणु में विद्यमान दिव्य चेतना को नहीं झुठलाती। हर्वर्ट स्पेंसर की दृष्टि में भगवान् एक विराट् शक्ति है जो संसार की सब गतिविधियों का नियन्त्रण उसी प्रकार करता है जिस प्रकार घर का मुखिया, गांव का प्रधान, जिले का कलेक्टर और प्रान्त का गवर्नर। राज्य के नियमों का हम इसलिए पालन करते हैं क्योंकि हमें राजदण्ड का भय होता है। नैतिक नियमों का पालन न करने पर हमें भय लगता है जब कि हम उसके लिए पूर्ण स्वतन्त्र होते हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि संसार में कोई सर्वोच्च सत्ता काम करती है। निर्भीक व्यक्ति, नैतिक व्यक्ति ही हो सकता है इस तथ्य से वह भी स्पष्ट है कि वह प्रजावत्सल और न्यायकारी भी है।
दार्शनिक कान्ट ने इन्पेंसर के कथन को और भी स्पष्ट करते हुये लिखा है—नैतिक नियमों की स्वीकृति ही परमात्मा के अस्तित्व का प्रमाण और पूर्ण नैतिकता ही उसका स्वरूप है। संसार का बुरे से बुरा व्यक्ति भी किसी न किसी के प्रति नैतिक अवश्य होता है। चोर, डकैत और कसाई तक अपने बच्चों के प्रति दयालु और कर्त्तव्य-परायण होते हैं, जब कि वे जीवन भर कुत्सित कर्म ही करते रहते हैं। अपने भीतर से नैतिक नियमों की स्वीकृति इस बात का पुष्ट प्रमाण है कि संसार केवल नैतिकता के लिए ही जीवित है। उसी से संसार का निर्माण पालन और पोषण हो रहा है। इसलिए परमात्मा नैतिक शक्ति के रूप में माना जाने योग्य है।
हैब्रू ग्रन्थों में ईश्वर को ‘‘जेनोवाह’’ कहा गया है जेनोवाह का शाब्दिक अर्थ है—वह जो सदैव सत्य नीति ही प्रदान करता है। दार्शनिक प्लेटो ने उसे—‘‘अच्छाई का विचार’’ कहा है। संसार के प्रत्येक व्यक्ति यहां तक कि जीव-जन्तुओं में भी अच्छाई की चाह रहती है। अच्छाई में ही आनन्द और आत्म-तृप्ति मिलती है। अच्छाई शरीर और सौन्दर्य की जो संयम और सदाचार द्वारा सुरक्षित हो, अच्छाई समाज की जो ईमानदारी, नेकनीयती, विश्वास, सहयोग और परस्पर प्रेम व भाईचारे की भावना से सुरक्षित हो, अच्छाई प्रकृति की जो रंग-बिरंगे फूलों, भोले भाले पशु-पक्षियों के कलरव उनकी क्रीड़ा द्वारा सुरक्षित हैं। इस तरह संसार में सर्वत्र अच्छाई के दर्शन करके प्रसन्नता अनुभव करते हैं। परमात्मा इस तरह अच्छाई का वह बीज है जो आंखों को दिव्य मनोरम और बहुत प्यारा लगता है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ ७१
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी