मंगलवार, 2 जून 2020

👉 Parmatma Ka Karya परमात्मा का कार्य

एक औरत रोटी बनाते बनाते मंत्र जाप कर रही थी, अलग से पूजा का समय कहाँ निकाल पाती थी बेचारी, तो बस काम करते करते ही...।

एकाएक धड़ाम से जोरों की आवाज हुई और साथ मे दर्दनाक चीख। कलेजा धक से रह गया जब आंगन में दौड़ कर झांकी तो आठ साल का चुन्नू चित्त पड़ा था,  खुन से लथपथ। मन हुआ दहाड़ मार कर रोये। परंतु घर मे उसके अलावा कोई था नही, रोकर भी किसे बुलाती, फिर चुन्नू को संभालना भी तो था। दौड़ कर  नीचे गई तो देखा चुन्नू आधी बेहोशी में माँ माँ की रट लगाए हुए है।

अंदर की ममता ने आंखों से निकल कर अपनी मौजूदगी का अहसास करवाया। फिर 10 दिन पहले करवाये अपेंडिक्स के ऑपरेशन के बावजूद ना जाने कहाँ से इतनी शक्ति आ गयी कि चुन्नू को गोद मे उठा कर पड़ोस के नर्सिंग होम की ओर दौड़ी। रास्ते भर भगवान को जी भर कर कोसती रही, बड़बड़ाती रही, हे प्रभु क्या बिगाड़ा था मैंने तुम्हारा, जो मेरे ही बच्चे को..।

खैर डॉक्टर साहब मिल गए और समय पर इलाज होने पर चुन्नू बिल्कुल ठीक हो गया। चोटें गहरी नही थी, ऊपरी थीं तो कोई खास परेशानी नही हुई।...

रात को घर पर जब सब टीवी देख रहे थे तब उस औरत का मन बेचैन था। भगवान से विरक्ति होने लगी थी। एक मां की ममता प्रभुसत्ता को चुनौती दे रही थी।

उसके दिमाग मे दिन की सारी घटना चलचित्र की तरह चलने लगी। कैसे चुन्नू आंगन में गिरा की एकाएक उसकी आत्मा सिहर उठी, कल ही तो पुराने चापाकल का पाइप का टुकड़ा आंगन से हटवाया है, ठीक उसी जगह था जहां चिंटू गिरा पड़ा था। अगर कल मिस्त्री न आया होता तो..? उसका हाथ अब अपने पेट की तरफ गया जहां टांके अभी हरे ही थे, ऑपरेशन के। आश्चर्य हुआ कि उसने 20-22 किलो के चुन्नू को उठाया कैसे, कैसे वो आधा किलोमीटर तक दौड़ती चली गयी? फूल सा हल्का लग रहा था चुन्नू। वैसे तो वो कपड़ों की बाल्टी तक छत पर नही ले जा पाती।

फिर उसे ख्याल आया कि डॉक्टर साहब तो 2 बजे तक ही रहते हैं और जब वो पहुंची तो साढ़े 3 बज रहे थे, उसके जाते ही तुरंत इलाज हुआ, मानो किसी ने उन्हें रोक रखा था।

उसका सर प्रभु चरणों मे श्रद्धा से झुक गया। अब वो सारा खेल समझ चुकी थी। मन ही मन प्रभु से अपने शब्दों के लिए क्षमा मांगी।

भगवान कहते हैं, "मैं तुम्हारे आने वाले संकट रोक नहीं सकता, लेकिन तुम्हे इतनी शक्ति दे सकता हूँ कि तुम आसानी से उन्हें पार कर सको, तुम्हारी राह आसान कर सकता हूँ। बस धर्म के मार्ग पर चलते रहो।"

उस औरत ने घर के मंदिर में झांक कर देखा, लगा भगवान मुस्करा रहे थे।

👉 Yug Parivartan Ka Aadhar युग परिवर्तन का आधार भावनात्मक नव निर्माण (अंतिम भाग)

जाति या लिंग के कारण किसी को ऊँचा या किसी को नीचा न ठहरा सकेंगे, छूत- अछूत का प्रश्न न रहेगा। गोरी चमड़ी वाले लोगों से श्रेष्ठ होने का दावा न करेंगे और ब्राह्मण हरिजन से ऊँचा न कहलायेगा। गुण, कर्म, स्वभाव, सेवा एवं बलिदान ही किसी को सम्मानित होने के आधार बनेंगे, जाति या वंश नहीं। इसी प्रकार नारी से श्रेष्ठ नर है उसे अधिक अधिकार प्राप्त है, ऐसी मान्यता हट जायेगी। दोनों के कर्तव्य और अधिकार एक होंगे। प्रतिबन्ध या मर्यादाएँ दोनों पर समान स्तर की लागू होंगी। प्राकृतिक सम्पदाओं पर सब का अधिकार होगा। पूँजी समाज की होगी। व्यक्ति अपनी आवश्यकतानुसार उसमें से प्राप्त करेंगे और सामर्थ्यानुसार काम करेंगे। न कोई धनपति होगा न निर्धन, मृतक उत्तराधिकार में केवल परिवार के असमर्थ सदस्य ही गुजारा प्राप्त कर सकेंगे। हट्टे- कट्टे और कमाऊ बेटे बाप के उपार्जन के दावेदार न बन सकेंगे, वह बचत राष्ट्र की सम्पदा होगी। इस प्रकार धनी और निर्धन के बीच का भेद समाप्त करने वाली समाजवादी व्यवस्था समस्त विश्व में लागू होगी। हराम खोरी करते रहने पर भी गुलछर्रे उड़ाने की सुविधा किसी को न मिलेगी। व्यापार सहकारी समितियों के हाथ में होगा, ममता केवल कुटुम्ब तक सीमित न रहेगी, वरन् वह मानव मात्र की परिधि लाँघते हुए प्राणिमात्र तक विकसित होगी। अपना और दूसरों का दुःख- सुख एक जैसा अनुभव होगा। तब न तो माँसाहार की छूट रहेगी और न पशु पक्षियों के साथ निर्दयता बरतने की। ममता और आत्मीयता के बन्धनों में बँधे हुए सब लोग एक दूसरे को प्यार और सहयोग प्रदान करेंगे।
    
शरीर, मन, वस्त्र, उपकरण सभी को स्वच्छ रखने की प्रवृत्ति बढ़ेगी। शुचिता का सर्वांगीण विकास होगा। गंदगी को मानवता का कलंक माना जायेगा। न किसी का शरीर मैला कुचैला रहेगा न वस्त्र। घरों को गंदा गलीज न रहने दिया जायेगा। मनुष्य और पशुओं के मल- मूत्र को पूरी तरह खाद के लिए प्रयुक्त किया जायेगा। वस्तुएँ यथा स्थान, यथा क्रम और स्वच्छ रखने की आदत डाली जायेगी। मन में कोई छल- कपट, द्वेष- दुर्भाव जैसी मलीनता न रहेगी।
    
एकता, समता, ममता और शुचिता इन चार मूलभूत सिद्धान्तों के आधार पर विभिन्न आचार संहिताएँ, रीति- नीति, विधि व्यवस्थाएँ, मर्यादाएँ और परम्पराएँ बनाई जा सकती हैं। भौगोलिक तथा अन्य परिस्थितियों को देखते हुए उनमें हेर- फेर भी यत्किंचित होते रह सकते हैं। पर आधार उनके यही रहेंगे।
    
यह ध्यान रखने की बात है कि संसार की दो ही प्रमुख शक्तियाँ है- एक राजतन्त्र दूसरी धर्मतन्त्र। राजसत्ता में भौतिक परिस्थितियों को प्रभावित करने की क्षमता है और धर्म सत्ता में अन्तःचेतना को। दोनों को कदम से कदम मिलाकर एक दूसरे की पूरक होकर रहना होगा।
    
नव निर्माण की पृष्ठभूमि धर्म मूलक ज्ञान होगा। इसी के लिए ज्ञानतन्त्र खड़ा किया गया है और ज्ञान यज्ञ का महान अभियान चलाया गया है। स्वल्प साधनों से भी वह जिस द्रुतगति के साथ बढ़ता जा रहा है उसे देखते हुए पूर्व से सूर्योदय होने के और उसका प्रकाश सर्वत्र फैलने की बात पर सहज ही विश्वास किया जा सकता है।

.... समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 Love is Supreme

Divine knowledge and selfless love enlighten every dimension of life, destroy all vices and worries; there remains no feeling of hatred, jealously, discrimination, or fear. And then, one is blessed by the divine sight to see the pure love, justice and equality indwelling everywhere.

If you want to experience the divine joy, make your mind a source of wisdom, firm determination and noble thoughts; let your heart be an auspicious ocean of compassion. Control your tongue, purity and discipline it to speak truth. This will help your self- refinement and inner strengthening and eventually inspire the divine impulse of eternal love.

If you have integrity of character, authenticity in what you talk and do, people will believe you. You will not have to attempt convincing them. The wise and sincere seekers will themselves reach you. If in addition, you are generous and have an altruistic attitude towards everyone, you will also naturally win people’s heart. The warmth, words and works of truth and love never go in the void.

Their positive impact is an absolute certainty. There should be no doubt in your minds that pure love is omnipresent and supreme. It contains the power to accomplish the eternal quest of life. It facilitates uprooting the vices and allaying the agility, apprehensions and tensions of mind. Selfless love is a divine virtue, a preeminent source of auspicious peace and joy.

📖 Akhand Jyoti, Oct. 1943

👉 Yug Parivartan युग परिवर्तन की पृष्ठभूमि और रूपरेखा

आज की परिस्थितियों में सभी परिवर्तन चाहते हैं। अभावों के स्थान पर संपन्नता, अनिश्चितता के स्थान पर स्थिरता, आशांकाओं के स्थान पर आश्वासन अभीष्ट है। द्वेष का स्थान श्रद्धा को मिले – अविश्वास की जड़ ही कट जाय । ऐसी मुखर परिस्थितियों की कल्पना करने भर से आँखें चमकने लगती हैं।

सुविधा-साधन की दृष्टि से हम पूर्वजों की तुलना में कहीं आगे हैं। विज्ञान और बुद्धिवाद की संयुक्त प्रगति ने अनेकानेक साधन ऐसे प्रस्तुत किए हैं, जिनकी सहायता से अधिक सुखी जीवन जी सकते हैं। पूर्वजों की शिक्षा, चिकित्सा, परिवहन, संचार, यातायात,  बिजली, तार, डाक, जहाज आदि अनेकों ऐसे सुविधा-साधन उपलब्ध नहीं थे, जैसे आज हैं। इन उपलब्धियों के आधार पर हमें अधिक सुखी होना चाहिए था, पर देखते है‌ कि स्थिति और भी गई गुजरी हो गई है। चिकित्सा और पौष्टिक खाद्यों की सुविधा वाले दिन-दिन और भी रुग्ण बनते जा रहे हैं। उच्च शिक्षित व्यक्ति भी संतुलन और विवेक से रहित चिंतन करते और विक्षुब्ध रहते देखे जाते हैं। गरीबों का उठाईगीरी करना समझ में आ सकता है, पर जो संपन्न हैं वे क्यों अन्याय-अपहरण की नीति अपनाते हैं, यह समझ सकना कठिन है।

शिष्टाचार और आडम्बर तो बढ़ा, पर आत्मीयता और शालीनता की जड़ें खोखली होती जा रही हैं। चिन्तन और चरित्र के अवमूल्यन ने व्यक्ति और समाज के सामने असंख्य समस्याएं उत्पन्न कर दी हैं। उपलब्ध क्षमताओं का एवं साधनों के एक बड़े भाग का, उपयोग करने तथा उससे बचने की योजना पर ही खर्च होता रहता है। रचनात्मक कार्यों में लग सकने वाले साधन समस्याओं के कारण उत्पन्न उद्विग्नता में ही खप जाते हैं, फिर भी कोई समाधान दीखता नहीं। एक उलझन सुलझने नहीं पाती कि दूसरी नई उठकर खड़ी हो जाती है।. . . आदमी अपनी ही दृष्टि में घिनौना बनता जा रहा है तो फिर दूसरों से श्रद्धा, सम्मान, सद्भाव एवं सहयोग की अपेक्षा कैसे की जाए?   
    
वर्तमान की अवांछनीयताओं से निपटने और भविष्य को उज्जवल बनाने के दोनो ही उद्देश्य विचार क्रान्ति अभियान से संभव होंगे। लाल मशाल ने इसी का प्रकाश फैलाने, वातावरण बनाने और भ्रान्तिओं की लंका को जलाने में हनुमान् की जलती पूँछ बनने का निश्चय किया है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 Hmara Chhtni Karyakrm हमारा छटनी-कार्यक्रम और उसका प्रयोजन

आज तो भावनात्मक दृष्टि से खोटे और ओछे व्यक्ति भी अपने निजी लाभ को दृष्टि से हमें घेरे रहते हैं। अधिक भीड़ उन्हीं की रहती है। यह भीड़ छट जाने से जो शक्ति बचेगी उसे सीमित क्षेत्र में अधिक सावधानी से लगाया जा सकेगा और उसका लाभ भी बहुत होगा। छटनी के पीछे एक रहस्यपूर्ण प्रयोजन और भी है जिसकी चर्चा हमने अज्ञातवास से लौटते ही कर दी थी। वह यह कि युग निर्माण का प्रयोजन साधारण मनोभूमि के घटिया, स्वार्थी, ओछे, कायर और कमजोर प्रकृति के लोग न कर सकेंगे। इसके लिए समर्थ, तेजस्वी आत्मायें अवतरित होंगी और वे ही इस कार्य को पूरा करेंगी। सीमेंट, लोहे का लेन्टर डालकर छत्ते पाटी जाती हैं तो उसका वजन उठाने के लिए बाँस-बल्ली का ढाँचा खड़ा कर लेते हैं, छत डालते समय वजन वही उठाता है, पीछे जब छत पक जाती है तब उस ढाँचे को निकाल कर अलग कर देते हैं।

युग परिवर्तन का महान कार्य तेजस्वी, मनस्वी एवं तपस्वी आत्माओं द्वारा सम्भव होगा। हम लोग जो तनिक-सा त्याग, बलिदान का प्रसंग आ जाने पर बगलें झाँकने लग जाते हैं, उतने बड़े कार्य को कर सकने के योग्य नहीं। जिस मिट्टी से हम बने हैं रेतीली और कमजोर है कोई टिकाऊ चीज उससे कैसे बन सकती है। जो एक-दो माला जप करने मात्र से तीनों लोक की ऋद्धि-सिद्धियाँ लूटने की आशा लगाये बैठे रहते हैं और जीवन-शोधन तथा परमार्थ की बात सुनते ही काठ हो जाते हैं ऐसे ओछे आदमी अध्यात्म का क, ख, ग, घ, भी नहीं जानते। आत्मबल तो उनके पास होगा ही कहाँ से।

जिसके पास आत्मबल नहीं वह युग-परिवर्तन की भूमिका में कोई कहने लायक योगदान दे भी कहाँ से सकेगा? इस तथ्य से हम भली प्रकार अवगत हैं। अपनों की नसनब्ज हमें भली प्रकार मालूम है। इसलिए उनसे इतनी ही आशा करते हैं कि छत का लेन्टर बनाने से बाँस-बल्ली की तरह थोड़ी देर अपना उपयोग कर लेने दें तो बाँस बहुत हैं। छत तो सीमेंट, कंक्रीट, लोहे की छड़ आदि के योग से बनेगी और उसे कुशल कारीगर बनावेंगे। बाँस-बल्ली का ढाँचा तो मामूली मजदूर भी बाँध देता है पर लेन्टर को बढ़िया कारीगर इंजीनियर ही ठीक तरह डाल सकते हैं। हम युग-निर्माण योजना के विशाल भवन का ढाँचा खड़ा करने वाले मामूली से मजदूर मात्र हैं। परिजन जिस मिट्टी से बने हैं उसे देखते हुए उन्हें भी हम बाँस-बल्ली मात्र ही मानते हैं। थोड़ा-सा वजन पड़ने पर जो लचक जाय, जरासी परख का अवसर आये तो दाँत निकाल दें, ऐसे लुँजपुँज व्यक्ति युग-परिवर्तन जैसी कठोर प्रक्रिया को कैसे पूरा करेंगे? जिसमें निज की कड़क नहीं वह वजन कैसे उठावेगा ?

भारतीय महान गौरव एवं वर्चस्व को पुनः अपने स्थान पर प्रतिष्ठापित करने के लिए अगले दिनों विभिन्न क्षेत्रों में काम करने वाली आत्माएं आवश्यक संख्या में इस देश में अवतरित होंगी। व्यास, वशिष्ठ, भारद्वाज, याज्ञवल्क्य, कपिल, कणाद, विश्वामित्र, दधीच जैसे ऋषि, भीम, अर्जुन, हनुमान, अंगद, जैसे योद्धा, नागार्जुन, रावण, जैसे वैज्ञानिक गाँधी, तिलक, मालवीय, लाजपतराय जैसे नेता, शिवाजी, प्रताप, गोविन्दसिंह, जैसे देशभक्त अरविन्द, विवेकानन्द, रामतीर्थ जैसे ज्ञानी, चरक, सुश्रुत, वागभट्ट जैसे चिकित्सक, सीता, सावित्री, अरुन्धती, अनुसूया, गाँधारी, द्रौपदी, लक्ष्मीबाई, अहिल्याबाई जैसी नारियाँ अगले दिनों अवतरित होंगी। जब कभी भी युग-परिवर्तन के समय आये हैं तब इस महान प्रयोजन को पूरा कर सकने में समर्थ आत्माओं का भी अवतरण हुआ है। अब भी वही होने जा रहा है।

ऐसी आत्माएं जब अवतरित होती हैं जब अपने योग्य वातावरण ढूँढ़ती हैं। मधुमक्खियाँ और भौंरे पुष्प कुञ्जों के आधार पर ही जीवित रहते हैं,मछली को जलाशय चाहिए, यह परिस्थितियाँ न मिलें तो वे जीवित न रहेंगे। महान आत्माएं केवल अच्छे पारिवारिक वातावरण में जन्मती हैं। यदि प्रारब्धवश किसी अनुपयुक्त परिवार में जन्म लेती हैं तो अल्पायु में ही चली जाती हैं। दशरथ और कौशल्या ने भगवान राम को अपनी गोद में खिलाने के लिये तीन जन्मों तक लगातार तप किया था, तब उन दोनों का गुण-कर्म स्वभाव ऐसा बना था कि उसमें उच्च आत्माओं का अवतरण सम्भव हो सके। धन ऐश्वर्य भले ही न हो, गरीबी कितनी ही क्यों न हो,पर भावनात्मक दृष्टि से जहाँ का वातावरण उपयुक्त हैं,वहीं दिव्य आत्माओं का जन्म ले सकना सम्भव होगा। गिद्ध और सियार मृत लाश की गंध पाकर दूर-दूर से इकट्ठे हो जाते हैं इसी प्रकार परिष्कृत पारिवारिक वातावरण की तलाश में दिव्य आत्माएं घूमती रहती हैं और जब उपयुक्त स्थान मिल जाता है तो वे प्रसन्नतापूर्वक वहाँ जन्मती हैं। कहना न होगा कि जिन घरों में ऐसी उच्च आत्माएं जन्में उसके यश, गौरव, महत्व एवं आनन्द का बार-पार नहीं रहता।

अगले दिनों जो दिव्य आत्माएं युगनिर्माण का महान-आयोजन पूरा करने लिए अवतरित होने वाली हैं उन्हें अपने उपयुक्त परिस्थितियों की आवश्यकता पड़ेगी। इस आवश्यकता की पूर्ति हमें करनी चाहिए जिसमें कोई ऊँची जीवात्मा आवे तो वह घुटन अनुभव न करे। जिससे उसे अपने अनुकूल भावात्मक वातावरण मिल सके। जहाँ ऐसा वातावरण बन जायगा, वहाँ फिर इस बात की भी व्यवस्था हो सकती है कि वहाँ कोई महान् विभूति जन्म ले।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखंड ज्योति अगस्त १९६६

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