शनिवार, 8 सितंबर 2018

👉 आत्मिक प्रगति के तीन अवरोध (भाग 1)

🔷 आत्मिक प्रगति के पथ पर अवरोध उत्पन्न करने वाली दुष्प्रवृत्तियों में तीन प्रधान हैं। इन्हें ताड़का, सूर्पणखा और सुरसा की उपमा दी जाती है। इन्हें निरस्त किये बिना असुरता के चंगुल में फँसी हुई सीता का-आत्मा का-उद्धार नहीं हो सकता। इन्हें पुत्रेषणा-वित्तेषणा और लोकेषणा कहा जाता है। वासना-तृष्णा और अहंता की प्रवृत्तियाँ ही सबल होने पर इन एषणाओं के रूप में परिलक्षित होती हैं।

🔶 इंद्रिय वासनाओं में यों सभी अपने-अपने ढंग की खींचतान करती हैं। पर उनमें रसना और कामुकता को प्रमुख माना गया है। चटोरपन के कुचक्र में पेट पर अभक्ष्य पदार्थों का अनावश्यक भार लदता है। अपच के फलस्वरूप शरीर में अगणित रोग उत्पन्न होते हैं। दुर्बलता और रुग्णता ग्रसित होकर अकाल मृत्यु का ग्रास बनना पड़ता है। अस्वस्थता की विपत्ति ढाने में जिह्वा का चटोरापन भयंकर शत्रु से भी अधिक आक्रमणकारी और विघातक सिद्ध होता है। वासना की दूसरी प्रवृत्ति है- कामुकता। यौनाचार की कल्पना और क्रिया में उलझा हुआ मस्तिष्क अपनी अति महत्त्वपूर्ण क्षमता को ऐसे जंजाल में फँसा देता है जिसमें, पाना रत्तीभर और गँवाना पहाड़ भर पड़ता है।

🔷 प्रकृति की चतुरता ही कहिए कि उसने प्राणियों की संख्या बनाये रहने के लिए कष्ट साध्य भार उठाने के लिए यौनाचार की सरसता उत्पन्न कर दी। यदि यह उन्माद न चढ़ता तो कदाचित ही कोई प्राणी प्रजनन की अति कठिन और अतीव बोझिल प्रक्रिया को अपने कंधों पर लादने के लिए तैयार होता। वासनाओं में जीभ के चटोरेपन पर रोकथाम करना आवश्यक है। पेट में कोई वस्तु तभी पहुँचने दी जाय जब कड़ाके की भूख उसके लिए तीव्रतापूर्वक माँग करती हो। सात्विक सुपाच्य पदार्थ स्वेच्छापूर्वक शान्त चित्त से सीमित मात्रा में ग्रहण किये जायें। जो खाया जाय औषधि रूप हो। स्वाद की उत्तेजना तो नशेबाजी की तरह है, जिसमें हर दृष्टि से हानि ही हानि उठानी पड़ती है।

🔶 दूसरे यौनाचार लिप्सा के सम्बन्ध में और भी गम्भीरता पूर्वक विचार करने की आवश्यकता है। जो जीवन रस, हमारे ओजस्-तेजस् और ब्रह्म वर्चस् का आधार हैं उसे क्षणिक आवेश में ऐसे ही गँवाते रहने की गलती को सुधारना ही समझदारी है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति अक्टूबर 1977 पृष्ठ 17
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1977/October/v1.17

👉 सँस्कार.................

🔷 "बहू !!!!!!!!!!🤨🤨
घर के काम निपटाने के बाद,अम्मा जी और मेरे पैरों की मालिश कर दिया करो"🤨

🔶 "मम्मी जी मुझसे इतना काम नहीं हो पायेगा, बहुत थक जाती हूँ।"...............😔

🔷 अरे !!!!!!😳😳😳
अभी महीना भर हुआ नहीं तुम्हें आये हुए और तुम जवाब देने लगी हमें, अम्माजी बुजुर्ग हैं, तुम उनके पैर की मालिश करने से मना कर रही हो 🤭🤭

🔶 "आप कर दिया करें उनकी मालिश, आप तो अभी एकदम ठीक हैं।"

🔷 शर्म नहीं आती तुम्हें जवाब देते हुए। यही संस्कार दिए हैं तुम्हारी माँ ने 🤨🤨

संस्कार !! लेकिन वो आपने माँगे कहाँ थे ??

🔷 शादी के पाँच दिन पहले आपने जिन सामानों की लिस्ट भिजवाई थी उसमें संस्कार तो कहीं नहीं लिखे थे 😓😓

🔶 "आपकी माँग को पूरा करने के लिए जब माँ ने अपने गहने और जमीन गिरवी रखे तो मैंने उनके दिए हुए संस्कार भी गिरवी रख दिये।"😭😭

👉 जटायु व गिलहरी चुप नहीं बैठे

🔷 पंख कटे जटायु को गोद में लेकर भगवान् राम ने उसका अभिषेक आँसुओं से किया। स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए भगवान् राम ने कहा- तात्। तुम जानते थे रावण दुर्द्धर्ष और महाबलवान है, फिर उससे तुमने युद्ध क्यों किया ?

🔶 अपनी आँखों से मोती ढुलकाते हुए जटायु ने गर्वोन्नत वाणी में कहा- 'प्रभो! मुझे मृत्यु का भय नहीं है, भय तो तब था जब अन्याय के प्रतिकार की शक्ति नहीं जागती?

🔷 भगवान् राम ने कहा- तात्! तुम धन्य हो! तुम्हारी जैसी संस्कारवान् आत्माओं से संसार को कल्याण का मार्गदर्शन मिलेगा।

🔶 गिलहरी पूँछ में धूल लाती और समुद्र में डाल आती। वानरों ने पूछा- देवि! तुम्हारी पूँछ की मिट्टी से समुद्र का क्या बिगडे़गा। तभी वहाँ पहुँचे भगवान् राम ने उसे अपनी गोद में उठाकर कहा 'एक- एक कण धूल एक- एक बूँद पानी सुखा देने के मर्म को समझो वानरो। यह गिलहरी चिरकाल तक सत्कर्म में सहयोग के प्रतीक रूप में सुपूजित रहेगी।'

🔷 जो सोये रहते हैं वे तो प्रत्यक्ष सौभाग्य सामने आने पर भी उसका लाभ नहीं उठा पाते। जागृतात्माओं की तुलना में उनका जीवन जीवित- मृतकों के समान ही होता है।

📖 प्रज्ञा पुराण भाग 1 पृष्ठ 19

👉 आज का सद्चिंतन 8 September 2018


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 8 September 2018


👉 परिवर्तन के महान् क्षण (भाग 6)

👉 नीतिरहित भौतिकवाद से उपजी दुर्गति  
    
🔷 विज्ञान ने जहाँ एक से एक अद्भुत चमत्कारी साधन उत्पन्न किए वहाँ दूसरे हाथ से उन्हें छीन भी लिया। कुछ समर्थ लोग जन्नत का मजा लूटते और शेष सभी दोषारोपण की सड़न में सड़ते हुए न पाए जाते। विज्ञान के साथ सद्ज्ञान का समावेश भी यदि रह सका होता तो भौतिक और आत्मिक सिद्धान्तों पर आधारित प्रगति सामने होती और उसका लाभ हर किसी को समान रूप से मिल सका होता। पर किया क्या जाए? भौतिक विज्ञान जहाँ शक्ति और सुविधा प्रदान करता है, वहीं प्रत्यक्षवादी मान्यताएँ नीति, धर्म, संयम, स्नेह, कर्तव्य आदि को झुठला भी देता है। ऐसी दशा में उद्दण्डता अपनाए हुए समर्थ का दैत्य-दानव बन जाना स्वाभाविक है। उनका बढ़ता वर्चस्व उन दुर्बलों का शोषण करेगा ही जिन्हें प्रगति ने बहुलता से पैदा करके समर्थों को उदार बनने एवं ऊँचा उठाने का श्रेय देने के लिए पैदा किया है। तथाकथित प्रगति ने इसी नीतिमत्ता का बोलबाला होते देखने की स्थिति पैदा कर दी है।
  
🔶 उदाहरण के लिए प्रगति के नाम पर हस्तगत हुई उपलब्धियों को चकाचौंध में नहीं उनकी वस्तुस्थिति में खुली आँखों से देखा जा सकता है। औद्योगीकरण के नाम पर बने कारखानों ने संसार भर में वायु प्रदूषण और जल प्रदूषण भर दिया है। अणु शक्ति की बढ़ोत्तरी ने विकिरण से वातावरण को इस कदर भर दिया है कि तीसरा युद्ध न हो तो भी भावी पीढ़ियों को अपंग स्तर की पैदा होना पड़ेगा। ऊर्जा के अत्यधिक उपयोग ने संसार का तापमान इतना बढ़ा दिया है कि हिम प्रदेश पिघल जाने पर समुद्रों में बाढ़ आने और ओजोन नाम से जानी जाने वाली पृथ्वी की कवच फट जाने पर ब्रह्माण्डीय किरणें धरती की समृद्धि को भूनकर रख सकती हैं।
      
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 परिवर्तन के महान् क्षण पृष्ठ 8

👉 Awakening of Supernormal Faculties Through Sadhana (Part3 )

🔷 The seeker has to mould his thinking as well as activities according to the set goal. Musicians do not become expert in either vocal or instrumental music in a day. They have to make a persistent effort. In the absence of practice, the voice of a vocalist sounds erratic and jarring and the fingers of an instrumentalist lack coordination. A true artist remains indifferent both to the reaction of the audience and to the remuneration paid to him. He feels contented with the joy derived from his daily sadhana of music.

🔶 A true devotee of art would maintain his inner peace even if he does not get any immediate and tangible reward or recognition for his art. He would continue to do his sadhana of music without any lessening of interest, even though he may have to dwell in a hut in a remote forest. The mental make-up of a person practicing atma sadhana should have at least this much dedication and commitment. Dancers, actors, sculptors, etc. know the importance of daily practice to maintain their art. Soldiers participate compulsorily in routine parades to maintain their skills of marksmanship and fighting.

🔷 Fulfilment of an inner resolution (samkalpa) for some worldly purpose may be achieved by performing the specific sadhana of chanting a particular mantra for a fixed number of times. But the mere ritual will not satisfy a true aspirant of atma sadhana. He understands that in order to mine the gems of his hidden talents he must plunge into the silent depths of his inner self daily and persistently. Brushing teeth, bathing, washing the clothes etc. is a part of daily routine. One cannot ignore them. The perturbed and perverse environment of the outer world pollutes the inner-consciousness. If it is not cleaned out every day, pollutants keep on accumulating and ultimately give rise to some serious problems....

📖 Akhand Jyoti, May June 2003

👉 आध्यात्मिक लाभ ही सर्वोपरि लाभ है (अन्तिम भाग)

🔷 आध्यात्मिक जीवन का सबसे बड़ा लाभ आत्मोद्धार माना गया है। अध्यात्मवादी का किसी भी दिशा में किया हुआ पुरुषार्थ परमार्थ का ही दूसरा रूप होता है। वह प्रत्येक कार्य को परमात्मा का कार्य और परिणाम को उसका प्रसाद मानता है। पुरुषार्थ द्वारा परमार्थ-लगन व्यक्ति के ईर्ष्या, द्वेष, माया, मोह, लोभ, स्वार्थ, तृष्णा, वासना आदि के संस्कार नष्ट हो जाते हैं और उनके स्थान पर त्याग, तपस्या, संतोष, परोपकार तथा सेवा आदि के शुभ संस्कार विकसित होने लगते हैं। अध्यात्म मार्ग के पुण्य पथिक के हृदय से तुच्छता दीनता, हीनता, दैन्य तथा दासता के अवगुण वैसे ही निकल जाते हैं जैसे शरद ऋतु में जलाशयों का जल मलातीत हो जाता है। स्वाधीनता, निर्भयता, सम्पन्नता, पवित्रता तथा प्रसन्नता आदिक प्रवृत्तियाँ आध्यात्मिक जीवन की सहज उपलब्धियाँ हैं, इन्हें पाकर मनुष्य को कुछ भी तो पाना शेष नहीं रह जाता। इस प्रकार की स्थायी प्रवृत्तियों को पाने से बढ़कर मनुष्य जीवन में कोई दूसरा लाभ हो नहीं सकता।

🔶 संसार का कोई संकट, कोई भी विपत्ति आध्यात्मिक व्यक्ति को विचलित नहीं कर सकती, उसके आत्मिक सुख को हिला नहीं सकती। जहाँ बड़ा से बड़ा भौतिक दृष्टिकोण वाला व्यक्ति तनिक सा संकट आ जाने पर बालकों की तरह रोने चिल्लाने और भयभीत होने लगता है, वहाँ आध्यात्मिक दृष्टिकोण वाला मनुष्य बड़ी से बड़ी आपत्ति में भी प्रसन्न एवं स्थिर रहा करता है। उसका दृष्टिकोण आध्यात्मिकता के प्रसाद से इतना व्यापक हो जाता है कि वह सम्पत्ति तथा विपत्ति दोनों को समान रूप से परमात्मा का प्रसाद मानता है और आत्मा को उसका अभोक्ता, जब कि भौतिकवादी अहंकार से दूषित दृष्टिकोण के कारण अपने को उनका भोक्ता मानता है। आध्यात्मिक व्यक्ति आत्म-जीवी और भौतिकवादी शरीर-जीवी होता है। इसी लिये उनकी अनुभूतियों में इस प्रकार का अन्तर रहा करता है।

🔷 सुख सम्पत्ति की प्राप्ति से लेकर संकट सहन करने की क्षमता तक संसार की जो भी दैवी उपलब्धियाँ हैं वे सब आध्यात्मिक जीवन यापन से ही सम्भव हो सकती हैं। मनुष्य जीवन का यह सर्वोपरि लाभ है इसकी उपेक्षा कर देना अथवा प्राप्त न करने से बढ़कर मानव-जीवन की कोई हानि नहीं है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति 1967 जनवरी पृष्ठ 4

👉 विधाता के बहुमूल्य उपहार

🔷 एक सच्चे मित्र की तरह जीवन का हर प्रभात तुम्हारे लिए अभिनव उपहार लेकर आता है। वह चाहता है कि आप उसके उपहारों को उत्साहपूर्वक ग्रहण करें। उससे उज्ज्वल भविष्य का शृंगार करें। उसकी प्रतीक्षा रहती है कि कब नया दिन गया है, उसका महत्व समझें और आदर पूर्वक ग्रहण करें।

🔶 किन्तु जो दिया गया है, उसका मूल्य नहीं समझा जाता और कूड़े करकट की तरह फेंक दिया जाता है, तो निराश होकर लौट जाता है। बार- बार अवज्ञा होने पर पुनः अपरिचित राही की तरह आता है और निराश होकर लौट जाता है।

🔷 ईश्वर ने मनुष्य को अपार सम्पदाओं से भरा- पूरा जीवन दिया है, पर वह पोटली बाँधकर नहीं, एक- एक खण्ड के रूप में गिन- गिन कर। नया खण्ड देने से पहले पुराने का  ब्यौरा पूछता है कि उसका क्या हुआ? जो उत्साह भरा ब्यौरा बताते हैं, वे नये मूल्यवान खण्ड पाते हैं। दानी मित्र तब बहुत निराश होता है, जब देखता है कि उसके पिछले अनुदान धूल में फेंक दिये गये।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...