गुरुवार, 24 जून 2021

👉 गुरु कौन

बहुत समय पहले की बात है, किसी नगर में एक बेहद प्रभावशाली महंत रहते थे। उन के पास शिक्षा लेने हेतु दूर दूर से शिष्य आते थे।

एक दिन एक शिष्य ने महंत से सवाल किया, स्वामीजी आपके गुरु कौन है? आपने किस गुरु से शिक्षा प्राप्त की है? महंत शिष्य का सवाल सुन मुस्कुराए और बोले, मेरे हजारो गुरु हैं! यदि मै उनके नाम गिनाने बैठ जाऊ तो शायद महीनो लग जाए। लेकिन फिर भी मै अपने तीन गुरुओ के बारे मे तुम्हे जरुर बताऊंगा। मेरा पहला गुरु था एक चोर।

एक बार में रास्ता भटक गया था और जब दूर किसी गाव में पंहुचा तो बहुत देर हो गयी थी। सब दुकाने और घर बंद हो चुके थे। लेकिन आख़िरकार मुझे एक आदमी मिला जो एक दीवार में सेंध लगाने की कोशिश कर रहा था। मैने उससे पूछा कि मै कहा ठहर सकता हूं, तो वह बोला की आधी रात गए इस समय आपको कहीं कोई भी आसरा मिलना बहुत मुश्किल होंगा, लेकिन आप चाहे तो मेरे साथ आज कि रात ठहर सकते हो। मै एक चोर हु और अगर एक चोर के साथ रहने में आपको कोई परेशानी नहीं होंगी तो आप मेरे साथ रह सकते है। वह इतना प्यारा आदमी था कि मै उसके साथ एक रात कि जगह एक महीने तक रह गया! वह हर रात मुझे कहता कि मै अपने काम पर जाता हूं, आप आराम करो, प्रार्थना करो। जब वह काम से आता तो मै उससे पूछता की कुछ मिला तुम्हे? तो वह कहता की आज तो कुछ नहीं मिला पर अगर भगवान ने चाहा तो जल्द ही जरुर कुछ मिलेगा। वह कभी निराश और उदास नहीं होता था, और हमेशा मस्त रहता था। कुछ दिन बाद मैं उसको धन्यवाद करके वापस अपने घर आ गया। जब मुझे ध्यान करते हुए सालों-साल बीत गए थे और कुछ भी नहीं हो रहा था तो कई बार ऐसे क्षण आते थे कि मैं बिलकुल हताश और निराश होकर साधना छोड़ लेने की ठान लेता था। और तब अचानक मुझे उस चोर की याद आती जो रोज कहता था कि भगवान ने चाहा तो जल्द ही कुछ जरुर मिलेगा और इस तरह मैं हमेशा अपना ध्यान लगता और साधना में लीन रहता|मेरा दूसरा गुरु एक कुत्ता था।

एक बार बहुत गर्मी वाले दिन मै कही जा रहा था और मैं बहुत प्यासा था और पानी के तलाश में घूम रहा था कि सामने से एक कुत्ता दौड़ता हुआ आया। वह भी बहुत प्यासा था। पास ही एक नदी थी। उस कुत्ते ने आगे जाकर नदी में झांका तो उसे एक और कुत्ता पानी में नजर आया जो की उसकी अपनी ही परछाई थी। कुत्ता उसे देख बहुत डर गया। वह परछाई को देखकर भौकता और पीछे हट जाता, लेकिन बहुत प्यास लगने के कारण वह वापस पानी के पास लौट आता। अंततः, अपने डर के बावजूद वह नदी में कूद पड़ा और उसके कूदते ही वह परछाई भी गायब हो गई। उस कुत्ते के इस साहस को देख मुझे एक बहुत बड़ी सिख मिल गई। अपने डर के बावजूद व्यक्ति को छलांग लगा लेनी होती है। सफलता उसे ही मिलती है जो व्यक्ति डर का हिम्मत से साहस से मुकाबला करता है। मेरा तीसरा गुरु एक छोटा बच्चा है।

मै एक गांव से गुजर रहा था कि मैंने देखा एक छोटा बच्चा एक जलती हुई मोमबत्ती ले जा रहा था। वह पास के किसी मंदिर में मोमबत्ती रखने जा रहा था।

मजाक में ही मैंने उससे पूछा की क्या यह मोमबत्ती तुमने जलाई है? वह बोला, जी मैंने ही जलाई है। तो मैंने उससे कहा की एक क्षण था जब यह मोमबत्ती बुझी हुई थी और फिर एक क्षण आया जब यह मोमबत्ती जल गई। क्या तुम मुझे वह स्त्रोत दिखा सकते हो जहा से वह ज्योति आई?

वह बच्चा हँसा और मोमबत्ती को फूंख मारकर बुझाते हुए बोला, अब आपने ज्योति को जाते हुए देखा है। कहा गई वह? आप ही मुझे बताइए।
 
मेरा अहंकार चकनाचूर हो गया, मेरा ज्ञान जाता रहा। और उस क्षण मुझे अपनी ही मूढ़ता का एहसास हुआ। तब से मैंने कोरे ज्ञान से हाथ धो लिए। शिष्य होने का अर्थ क्या है? शिष्य होने का अर्थ है पुरे अस्तित्व के प्रति खुले होना। हर समय हर ओर से सीखने को तैयार रहना।कभी किसी कि बात का बूरा नहि मानना चाहिए, किसी भी इंसान कि कही हुइ बात को ठंडे दिमाग से एकांत में बैठकर सोचना चाहिए के उसने क्या-क्या कहा और क्यों कहा तब उसकी कही बातों से अपनी कि हुई गलतियों को समझे और अपनी कमियों को दूर करें।

जीवन का हर क्षण, हमें कुछ न कुछ सीखने का मौका देता है। हमें जीवन में हमेशा एक शिष्य बनकर अच्छी बातो को सीखते रहना चाहिए। यह जीवन हमें आये दिन किसी न किसी रूप में किसी गुरु से मिलाता रहता है, यह हम पर निर्भर करता है कि क्या हम उस महंत की तरह एक शिष्य बनकर उस गुरु से मिलने वाली शिक्षा को ग्रहण कर पा रहे हैं की नहीं।

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ३५)

सुख का केन्द्र और स्रोत आत्मा

तीन शरीरों को जीवात्मा धारण किये हुए है। तीनों की तीन रसानुभूतियां हैं। ऊपर दो की चर्चा हो चुकी। स्थूल शरीर की सरसता-इन्द्रिय समूह के साथ जुड़ी हुई है। आहार, निद्रा, भय, मैथुन जैसे सुख इन्द्रियों द्वारा ही मिलते हैं। सूक्ष्म शरीर का प्रतीक मन है। मन की सरसता मैत्री पर, जन सम्पर्क पर अवलम्बित है। परिवार मोह से लेकर समाज सम्बन्ध, नेतृत्व, सम्मिलन, उत्सव, आयोजन जैसे सम्पर्क परक अवसर मन को सुख देते हैं। घटित होने वाली घटनाओं को अपने ऊपर घटित होने की सूक्ष्म सम्वेदना उत्पन्न करके वह समाज की अनेक हलचलों से भी अपने को बांध लेता है और उन घटना क्रमों में खट्टी-मीठी अनुभूतियां उपलब्ध करता है। उपन्यास, सिनेमा, अखबार रेडियो आदि मन को इसी आधार पर आकर्षित करते और प्रिय लगते हैं।

तीसरा रसानुभूति उपकरण है—अन्तरात्मा उसका कार्य क्षेत्र ‘कारण शरीर’ है। उसमें उत्कृष्टता, उत्कर्ष, प्रगति, गौरव की प्रवृत्ति रहती है जो उच्च भावनाओं के माध्यम से चरितार्थ होती है। मनुष्य की श्रेष्ठता और सन्मार्गगामिता प्रखर होती रहे इसके लिए उसमें भी एक रसानुभूति विद्यमान है—उसका नाम है वर्चस्व, यश कामना, नेतृत्व, गौरव प्रदर्शन। उस आकांक्षा से प्रेरित होकर मनुष्य अगणित प्रकार की सफलतायें प्राप्त करता है ताकि वह स्वयं दूसरों की तुलना में अपने आपको श्रेष्ठ, पुरुषार्थी, पराक्रमी, बुद्धिमान अनुभव करके सुख प्राप्त करे और दूसरे लोग भी उसकी विशेषताओं, विभूतियों से प्रभावित होकर उसे यश, मान प्रदान करें।

संक्षेप में यह मनुष्य के तीन शरीरों की—तीन रसानुभूतियों की चर्चा हुई। हमारी अगणित योजनायें—इच्छा, आकांक्षायें गतिविधियां इन्हीं तीन मल प्रवृत्तियों के इर्द−गिर्द घूमती हैं। जो कुछ मनुष्य सोचता और करता है उसे तीन भोगों में विभक्त किया जा सकता है। भगवान ने यह तीन उपहार जीवन को सरसता से भरा पूरा रखने के लिये दिये हैं। साथ ही उनका अस्तित्व इसलिये भी है कि व्यक्ति निरन्तर सक्रिय बना रहे। इन सुखानुभूतियों को प्राप्त करने के लिये उसके तीनों शरीर निरन्तर जुटे रहें। आलस्य, अवसाद की उदासीनता, नीरसता की स्थिति सामने आकर खड़ी न हो जाय और जीवन को आनन्द रहित भार रूप न बना दे। सक्रियता के आधार पर चल रहे सृष्टि क्रम को अवरुद्ध न करदे। अन्तरात्मा, मन और इन्द्रिय समूह को यदि सही मार्ग पर चलने का अवसर मिलता रहे तो जीवन हर्षोल्लास के साथ व्यतीत हो सकता है।

भूल मनुष्य की तब आरम्भ होती है जब वह इन तीनों रसानुभूतियों को अमर्यादित होकर—अनावश्यक मात्रा में—अति शीघ्र, बिना उचित मूल्य चुकाये प्राप्त करने के लिये आकुल, आतुर हो उठता है और लूट-खसोट की मनोवृत्ति अपनाकर अवांछनीय गतिविधियां अपना लेता है। विग्रह इसी से उत्पन्न होता है। पाप का कारण यही उतावली है। जीवन में अव्यवस्था और अस्त-व्यस्तता इसी से उत्पन्न होती। पतन इसी भूल का परिणाम है अपराधी, दुष्ट और घृणित बनने का कारण उन उपलब्धियों के लिये अनुचित मार्ग को अपनाना ही है। उतावला व्यक्ति आतुरता में विवेक खो बैठता है और औचित्य को भूलकर बहुत जल्दी—अधिक मात्रा में उपरोक्त सुखों को पाने के लिए असन्तुष्ट होकर एक प्रकार से उच्छृंखल हो उठता है। यह अमर्यादित स्थिति उसके लिए विपत्ति बनकर सामने आती है। सरल स्वाभाविक रीति से जो शान्ति पूर्वक मिल रहा था—मिलता रह सकता था—वह भी हाथ से चला जाता है और शारीरिक रोग, मानसिक उद्वेग—सामाजिक तिरस्कार, आर्थिक अभाव आत्मिक अशान्ति के संकटों से घिरा हुआ जीवन नरक बन जाता है। अधिक के लिये उतावला मनुष्य सरसता स्वाभाविकता को भी खोकर उलटा शोक-संताप, कष्ट-क्लेश एवं अभाव, दारिद्र्य में फंस जाता है। आमतौर से मनुष्य यह भूल करते हैं। इसी भूल को माया, अज्ञान, अविद्या नामों से पुकारते हैं। यह भूल ही ईश्वर प्रदत्त पग-पग पर मिलती रहने वाली सरसता से वंचित करती है और इसी के कारण जीव ऊंचा उठने के स्थान पर नीचे गिरता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ ५७
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

👉 भक्तिगाथा (भाग ३५)

भक्ति एक, लक्षण अनेक
    
सभी का आग्रह सनकादि को भी भाया। वे कहने लगे- ‘‘नारद का कथन सत्य है। इस क्रम में मुझे एक प्रसंग याद हो आया है। उस समय हम चारों सृष्टि पिता ब्रह्मा जी के पास थे। तभी वहाँ सौर्यायणी ऋषि पधारे। सृष्टि के जटिल कार्यों में सदा व्यस्त रहने वाले सृष्टि पिता ब्रह्मा सौर्यायणी ऋषि को देखकर हर्षित हो उठे। उन्होंने मुझसे कहा-वत्स ये ऋषि सौर्यायणी परमात्मा के परम भक्त हैं। भक्ति तत्त्व का जैसा रहस्य इन्होंने जाना है-वैसा शायद ही कभी किसी को अनुभव हुआ हो। स्वयं भगवान सदाशिव इनकी पराभक्ति की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करते हैं। तुम सब इनसे भक्तितत्त्व के निगूढ़ रहस्यों की चर्चा कर सकते हो।
    
सृष्टि पिता के इस तरह से कहने पर हम चारों ने सौर्यायणी ऋषि से आग्रहपूर्वक भक्तितत्त्व की जिज्ञासा की। हमारी जिज्ञासा के उत्तर में वह बड़े मधुर व विनीत स्वर में बोले-सभी शास्त्र एवं आचार्यगण भक्ति के स्वरूप के बारे में अगणित मत प्रकट करते हैं। पर यथार्थ में मनुष्य की भावनाएँ जिस भी तरह भावमय भगवान की ओर मुड़ें, उनमें समाहित हों वही भक्ति है, फिर वह चाहे पूजा से हो अथवा पाठ से। इसका माध्यम चाहे कथा बने अथवा संकीर्तन-सभी कुछ को भक्ति कहा जा सकता है। यही क्यों-प्रत्येक वह कर्म, भाव व विचार भक्ति है, जिसे भगवान को अर्पित किया गया है। इसके विपरीत अथवा विमुख जो भी है, वह श्रेष्ठ होने पर भी निकृष्ट है।
ऐसा कहते हुए उन्होंने अपने बचपन का प्रसंग सुनाया। इसे सुनाते हुए वे बोले-मेरा जन्म गरीब ब्राह्मण परिवार में हुआ था। पूर्व जन्मों के कर्मों का संजाल ऐसा था कि जन्म के कुछ ही समय के बाद माता-पिता एक दुर्घटना में मर गये। माता-पिता के न रहने पर जीवन अनगिनत आपत्तियों से घिर गया। जब पेट भरने को अन्न ही न था, तब भला कौन मुझे पढ़ाता-लिखाता। यूँ ही भटकते रहना ही मेरे जीवन का कर्म था। जो कोई कुछ देता, उसे ही भोजन के रूप में ग्रहण कर लेता। बड़े ही अपमान भरे, पीड़ादायक, संत्रास भरे दिन थे। मन सदा खिन्न, विच्छिन्न एवं विक्षोभ से भरा रहता था।
    
एक दिन दोपहर में जब भूख से विकल हुआ मैं भटक रहा था तो एक भक्तिमती गृहिणी उधर से गुजरी। उससे  मेरी यह दशा देखी न गयी। उसने मुझे स्नान आदि कराकर शुद्ध सात्विक भोजन कराया और साथ ही यह बताया कि बेटा! परमात्मा सभी जीवों के पिता हैं। उनकी कृपा सभी पर बरसती है। बस बात उनकी अनुभूति की है। इसके लिए मैं क्या करूँ  माँ? मैंने उस पवित्र नारी से पूछा। वह बोली-कुछ विशेष नहीं बेटा! बस प्रातः जागरण से लेकर रात्रि शयन तक तुम जो भी करते हो उसे प्रभु अर्पित कर दो और जितना बन सके उन्हें पुकारो। उस पवित्र नारी की बात मानकर मैंने यही करना प्रारम्भ किया।
    
समय बीतता गया और इसी के साथ प्रभु के नाम के प्रभाव से मेरे पिछले जन्मों के कर्मों का भार भी घटता गया। मुझे प्रातः से रात्रि तक केवल एक ही बात याद रहती कि मुझे सब कुछ भगवान के लिए करना है और उन्हीं को पुकारना है। भक्ति की यह विधि कुछ ऐसी चमत्कारी थी कि इसके प्रभाव से मुझे गुरु मिले, संतों का सान्निध्य मिला। भक्तवत्सल भगवान सदाशिव की कृपा मिली। सृष्टि पिता ब्रह्मा का स्नेह प्राप्त हुआ और तब मैंने ऋषियों से जाना कि भक्त की भावनाओं के अनुरूप, क्रिया की विधियों के अनुरूप, भक्ति के कई भेद भी हैं।
    
ऋषि सौर्यायणी की यह कथा सुनाकर सनकादि ऋषि बोले-यथार्थ तत्त्व तो भावनाओं के प्रभु अर्पण में है। रही बात भेद की सो यह देवर्षि नारद ही कहें।’’ परम पवित्र ऋषि सनक की वाणी को सुनकर सभी हर्षित हो गये। अब उन्हें प्रतीक्षा भक्ति के नवीन सूत्रोदय की थी जिसे सूर्योदय के बाद ही उच्चारित होना था।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ६७

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...