गुरुवार, 25 फ़रवरी 2021

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ११६)

सारे नियंत्रणों पर नियंत्रण है—निर्बीज समाधि

नित नये अनुभव कराती अंतर्यात्रा के विज्ञान के प्रयोग चेतना के रहस्यमय शिखरों की झलक दिखाते हैं। इन चेतना शिखरों में हर एक शिखर सम्मोहक है। प्रत्येक का सौन्दर्य अद्वितीय है। चेतना के हर शिखर पर बोध की नयी अनुभूति है, योग की नयी शक्ति की प्राप्ति है। अंतर्यात्रा विज्ञान के इन प्रयोगों में प्रत्येक स्तर पर सर्वथा नयापन है। यह नयापन प्रयोग की प्रक्रिया में भी है और परिणाम की प्राप्ति में भी। जो पहले किया जा चुका है, अगली बार उससे कुछ अलग हटकर करना पड़ता है और इसकी परिणति भी कुछ अलग ही होती है। ज्यों-ज्यों यह सिलसिला चलता है, चित्त के विकार मिटते हैं। प्रत्येक विकार के मिटते ही एक नयी अनुभूति की किरण फूटती है। इन विकारों के मिटने के बाद विचारों के मिटने का क्रम आता है। साथ ही साधक की योग अनुभूति सघन होती है और सबसे अंत में मिटते हैं-संस्कार। सभी तरह के संस्कारों के मिटने के साथ ही योग साधक निर्विचार से निर्बीज की ओर छलांग लगाता है।
 
अनासक्ति स्वाभाविक होती है। अंतस् में न तो विकारों की कीचड़ जमती है और न विचारों का शोर होता है। ऐसे में संस्कारों की छाया और छाप भी स्वभावतः ही हटती-मिटती है। अंतश्चेतना निर्बीज में छलांग लगाने के लिए तैयार होती है।
इस तथ्य का खुलासा करते हुए महर्षि पतंजलि कहते हैं-
तस्यापि निरोधे सर्वनिरोधान्निर्बीजः समाधिः॥ १/५१॥
शब्दार्थ- तस्य = उसका; अपि = भी; निरोधे = निरोध हो जाने पर; सर्वनिरोधात् = सबका निरोध हो जाने के कारण निर्बीजः = निर्बीज; समाधिः = समाधि (हो जाती है)।
भावार्थ- जब सारे नियंत्रणों पर का नियंत्रण पार कर लिया जाता है, तो निर्बीज समाधि फलित होती है और उसके साथ ही उपलब्धि होती है-जीवन-मरण से मुक्ति।

योगर्षि पतंजलि ने इस सूत्र में जिस अनुभूति का संकेत किया है, वह व्यक्तित्व की अद्भुत घटना है। यह है-सृष्टि और जीवन में होने वाले सभी चमत्कारों का सार। यह चेतना का अंतिम शिखर है, जहाँ कोई नियंत्रण और संयम न होने के बावजूद प्रकाश और ज्ञान अपनी सम्पूर्णता में फलित होते हैं। यह वही आलोक लोक है-जिसकी चर्चा करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण ने गीता (१५.६) में कहा है-
‘न तद्भासयते सूर्यो शशांको न पावकः।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥’

जहाँ सूर्य, चन्द्र और अग्नि का प्रकाश होने के बावजूद प्रकाश है। जहाँ पहुँचकर फिर से वापस नहीं आना पड़ता है, वही मेरा परम धाम है। यही शिव भक्तों का महाकैलाश है और विष्णु भक्तों का वैकुण्ठ। निर्गुण उपासकों को यही ब्रह्म सायुज्य मिलता है। परम योगियों का सत्यलोक यही है।
जीवन में भली-बुरी परिस्थितियाँ हमारे अपने ही किन्हीं भले-बुरे संस्कारों का परिणाम है। इन परिस्थितियों के प्रति हमारे मन में उठने वाले भली-बुरी भाव विचार की प्रतिक्रियाएँ अपनी प्रगाढ़ता में नये संस्कारों को जन्म देती है। इस तरह संस्कारों से परिस्थितियाँ और परिस्थितियों से संस्कार यह सिलसिला अनवरत चलता रहता है। आचार्य शंकर की भाषा में ‘पुनरपि जननं पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी जठरे शयनम्’ यानि कि फिर से जन्म और फिर मरण और फिर दुबारा माँ की कोख में आगमन-शयन। इसका कोई अंत-विराम नहीं। जन्म-मरण का यह सिलसिला अनवरत-अविराम चलता रहता है। यदि इसे कहीं विराम देना है, तो स्वयं ही चेतना पड़ता है और योग साधक को अनासक्ति, सहनशीलता और ध्यान की त्रिवेणी में गोते लगाने पड़ते हैं। इस त्रिवेणी में स्नान करने वाला चित्त ही जन्म-मरण के कालव्यूह से बाहर आ पाता है।

.... कल के अंक में समाप्त
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १९७
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 Khare Vyaktitva Ki Kasuti खरे व्यक्तित्व की कसौटी (भाग 2)

शालीनता उपार्जित करने के लिए शिक्षा की भी जरूरत पड़ती है। अशिक्षित आमतौर से गँवार या मूर्ख होते हैं। उनके व्यवहार में दूसरों को हानि पहुँचा कर अपना लाभ कमा लेने की नीति का समावेश होता है। ऐसा ही वे स्वयं करते हैं और ऐसा ही कर गुजरने के लिए वे दूसरों को परामर्श देते हैं। कारण कि उनका ज्ञान समीप वर्ती, साधारण लोगों तक ही सीमित होता है और औसत आदमी सफल बनने के लिए ऐसे ही तरीके अपनाता है। उनमें से अपवाद रूप में ही भलमन साहत पाई जाती है। जिस पर इस समुदाय का प्रभाव है वे यही समझते हैं कि दुनिया का रीति-रिवाज यही है और इसी रीति-नीति को अपनाने में कोई हर्ज नहीं है।

सुशिक्षित-स्वाध्यायशील व्यक्तियों के सामने ही आदर्श वादियों की कार्य पद्धति होती है। इतिहास में ही ऐसे श्रेष्ठ पुरुष खोजे जा सकते हैं। वे कभी-कभी और कहीं-कहीं ही होते हैं। उन्हें आदर पूर्वक पढ़ने, सुनने और समझने में ही इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि कितने ही लोगों ने प्रत्यक्ष घाटा उठाते हुए भी आदर्शों का परिपालन किया है और सर्व साधारण के सामने अनुकरणीय पथ प्रदर्शन प्रस्तुत किया है। ऐसे लोग यदि भावनाशील हुए और आदर्शों को अपनाने से किस प्रकार महान बना जा सकता है यह समझ सके तो फिर अपने को ढाँचे में ढालता है और समय-समय पर दूसरों को भी वैसी ही सलाह देते हैं। इसी परख पर यह जाना जा सकता है कि यह व्यक्तित्ववान है या नहीं। उसकी शालीनता परिपक्व स्तर की है या नहीं।

व्यक्तित्ववान दूसरों का विश्वास अर्जित करते हैं, साथ ही सम्मान एवं सहयोग भी। ऐसे लोगों को बड़े उत्तरदायित्व सौंपे जाते हैं और वे उन्हें उठाने में प्रसन्न भी होते हैं। क्योंकि महत्वपूर्ण कार्यों को सम्पन्न करने में अनेक लोगों का विश्वास और सहयोग अर्जित करने में ऐसे ही लोग सफल होते हैं। निश्चित है कि महत्वपूर्ण कामों को पूरा करने में सद्गुणी साथी अनिवार्य रूप से आवश्यक होते हैं और वे हर किसी का साथ नहीं देते। कारण कि उन्हें यह देखना पड़ता है कि कहीं ओछे लोगों की मंडली में शामिल होकर हमें भी बदनामी न ओढ़नी पड़े।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति 1986 अप्रैल पृष्ठ 25

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...