शुक्रवार, 12 अगस्त 2016

👉 समाधि के सोपान (भाग 16) (In The Hours Of Meditation)


🔴 ईश्वर से प्रति ध्वनित हो कर आवाज आई। उसने कहा, अहो ! एक ऐसा प्रेम है जो किसी से नही डरता। जो जीवन से भी महान है। मृत्यु से भी महान है। मैं वही प्रेम हूँ। एक ऐसा प्रेम है जो सीमा नहीं जानता। जो सर्वत्र है, जो मृत्यु की उपस्थिति में तथा है तथा जो केवल कोमलता है। भीषण के मध्य भी जो केवल कोमलता है। मैं वही प्रेम हूँ। वह प्रेम जो अनिर्वचनीय मधुरता है, जो सभी वेदनाओं का, सभी भयों का, स्वागत करता ह, जो सभी प्रकार की उदासीनता को दूर कर देता है, जिसकी खोज तुम कहीं भी कर सकते हो, मैं वही प्रेम हूँ। अहो! मैं उसी प्रेम का सार हूँ। और हे आत्मन्  मैं वह प्रेम हूँ। मैं तुम्हारा आत्मस्वरूप हूँ।  प्रेम ही मेरा स्वभाव है। मैं स्वयं प्रेम हूँ।

 
🔵 ओह! यह एक सर्वग्राही सौंदर्य है। इसमें त्रुटियों और असौन्दर्य के लिए स्थान नहीं है। यह आकाश के समान विस्तृत और समुद्र के समान गंभीर है। यह सौंदर्य सुगंधित उषा तथा अरुणिम संध्या में प्रस्फुटित होता है। पक्षी के कलरव तथा बाघ की गर्जना में यह विद्यमान है। तूफान और शांति में यही सौंदर्य विद्यमान है किन्तु यह इन सबसे अतीत है। ये सब इसके पहलू हैं। मैं वह सौंदर्य हूँ। एक ऐसा सौंदर्य है जो सुख तथा दु:ख से अधिक गहन गभीर हैं। यह आत्मा का सौंदर्य है। मैं वह सोंदर्य हूँ। मैं ही वह सौंदर्य हूँ। सभी प्रकार के आकर्षणों का केन्द्र मैं ही हूँ। मैं चुम्बक हूँ। दूसरी सभी वस्तुएँ लोहे के छोटे-छोटे कण है। कोई इधर आकर्षित होता है तो कोई उधर।  किन्तु सभी आकर्षित होने को बाध्य हैं। मैं ही वह चुम्बक हूँ। मैं ही वह सौंदर्य हूँ। मैं ही वह आकर्षण हूँ तथा आनन्द ही मेरा स्वरूप है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 एफ. जे. अलेक्जेन्डर

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