शनिवार, 11 दिसंबर 2021

👉 !! खुशी की वजह !!

जंगल के सभी खरगोशों ने एक दिन सभा बुलाई। बैठक में सभी को अपनी समस्याएं बतानी थीं। सभी खरगोश बहुत दुखी थे। सबसे पहले सोनू खरगोश ने बोलना शुरू किया कि जंगल में जितने भी जानवर रहते हैं, उनमें खरगोश सबसे कमज़ोर हैं।

सोनू बोल रहा था, “शेर, बाघ, चीता, भेड़िया, हाथी सब हमसे अधिक शक्तिशाली हैं। सबसे कोई न कोई डरता है, लेकिन हमसे कोई नहीं डरता।” सोनू की बात सुन कर चीकू खरगोश तो रोने ही लगा। उसने रोते हुए कहा कि खरगोशों की ऐसी दुर्दशा देख कर तो अब जीने का मन ही नहीं करता।

बात सही थी। खरगोश से कोई नहीं डरता था। उन्हें लगने लगा था कि संसार में उनसे कमज़ोर कोई और नहीं। ऐसे में तय हुआ कि कल सुबह सारे खरगोश एक साथ नदी के किनारे तक जाएंगे और सारे के सारे नदी में डूब कर जान दे देंगे। ऐसी ज़िंदगी भी कोई ज़िंदगी है।

सुबह सारे खरगोश इकट्ठा हुए और पहुंच गए नदी के किनारे। जैसे ही वो नदी के किनारे पहुंचे, उन्होंने देखा कि वहां बैठे मेंढ़क खरगोशों को देख कर डर के मारे फटाफट नदी में कूदने लगे।

उन्हें ऐसा करते देख खरगोश वहीं रुक गए। वो समझ गए कि मेंढ़क उनसे डर रहे हैं। बस फिर क्या था, मरना कैंसिल हो गया।

सोनू खरगोश ने वहीं एक सभा की और सभी खरगोशों को बताया कि भाइयों हमें हिम्मत से काम लेना चाहिए। इस संसार में कोई ऐसा भी है, जो हमसे भी कमज़ोर है। ऐसे में अगर हमारे पास दुखी होने की कई वज़हें हैं तो खुश होने की भी एक वज़ह तो है ही।

चीकू खरगोश ने भी कहा कि हां, हमें हिम्मत नहीं छोड़नी चाहिए। हम कमज़ोर हैं, ये सोच कर हमें दुखी होने की जगह ये सोच कर हमें खुश होना चाहिए कि हम सबसे अधिक खूबसूरत हैं और हम जंगल में किसी भी जानवर की तुलना में अधिक तेज़ गति से दौड़ सकते हैं। फिर सारे खरगोश खुशी-खुशी जंगल में लौट आए।

शिक्षा/संदेश :-
“ज़िंदगी में बेशक आपके सामने हज़ार-पांच सौ मुश्किलें होंगी लेकिन आप दुनिया को दिखा दीजिए कि अब आपके पास मुस्कुराने की दो हज़ार वज़हें हैं।”

👉 भक्तिगाथा (भाग ९०)

भक्तों का संग है सर्वोच्च साधना

 भक्त सदा ही अपने भगवान में समाया होता है। उसकी चेतना हमेशा ही भगवान में अन्तर्लीन-विलीन होती है। तभी तो वह सर्वदा भगवान से तदाकार-एकाकार रहता है। भक्त और भगवान में कभी कोई भेद नहीं होता, यह बात सभी की अनुभूतियों में घुल गयी। हिमालय के श्वेतशिखरों की आध्यात्मिक छांव में हो रहे इस भक्ति समागम में सभी श्रेष्ठ, उत्कृष्ट एवं दिव्य थे। हिमालय के धवलोज्जवल शिखरों की ही भांति इन सभी की आत्माएँ भी शुभ्र, धवल व उज्ज्वल थीं। किसी की भी अन्तर्भावना-अन्तर्चेतना में विकारों व विकृतियों के पंकिल छींटे न थे। इनमें से प्रत्येक- तप, ज्ञान, योग, आध्यात्मिक विभूति एवं शक्ति का उत्तुंग शिखर था। उनका यहाँ मिलना परमेश्वर के आध्यात्मिक हिमालय सभी सुमनोहर, आकाश स्पर्शी महाशिखरों के एकजुट होने जैसा था। फिर भी भक्ति के भावप्रवाह में भीगे इन सबके मन में एक त्वरा थी- एक अनूठे भक्त से मिलने की।

भक्ति और भक्त की सम्भवतः यही विशेषता है कि इनसे जितना मिलो, इन्हें जितना पाओ, उतना ही इनसे मिलने की, इन्हें पाने की सुखद चाहत तीव्र होती है। उन सबकी यह चाहत हिमालय के हिमकणों में, हिमप्रपातों के जलकणों में, हिमपक्षियों के कलरव-कूजन में मुखर हो रही थी। यह एक ऐसा आह्वान था जो प्रकृति में एक पुकार ध्वनित कर रहा था। यह ध्वनि प्रकृति की विभिन्न परतों में अनेक रूप ले, आकर्षण मंत्र बनकर परिव्याप्त हो रही थी। और यह तो सर्वविदित सत्य है कि प्रकृति अपने अन्तराल में बोये हुए बीजों को और अधिक सुपुष्ट करके कहीं अधिक संख्या में वापस करती है। बोया हुआ कभी निरर्थक नहीं होता, फिर वह कर्म हो अथवा भाव या विचार। प्रत्येक बीज अपनी गुणवत्ता एवं भूमि की उर्वरता के अनुरूप नूतन सृष्टि अवश्य करता है।

हिमवान के आंगन में इस क्षण जो आह्वान स्वर गंूज रहे थे, उस गूंज ने ऋषि रुक्मवर्ण को प्रेरित किया। ऋषि रुक्मवर्ण तप एवं ज्ञान का साकार विग्रह थे। अध्यात्म विद्या की विविध शाखाओं में उन्हें अनुभूतिपूर्ण पारांगतता थी। योग, वेदान्त एवं तन्त्र की सभी उपलब्धियाँ उन्हें सहज प्राप्त थीं परन्तु स्वयं उनको इनमें से किसी से कोई लगाव न था। वह तो बस भगवान् के भावमय भक्त थे। भक्ति ही उनका यथार्थ परिचय थी। वे अहर्निश भगवान में रमते थे। ऐसे परम भक्त आज अनायास और अचानक ही पधार गए। जैसे स्वयं भगवान ने ही उन्हें यहाँ भेज दिया हो। उनका इस तरह से अचानक आगमन सभी को बहुत सुखद व प्रीतिकर लगा। स्वयं सप्तर्षियों ने उनकी अभ्यर्थना की। अन्य सभी ने उनका अभिनन्दन किया। हालांकि इस अभ्यर्थना एवं अभिनन्दन से ऋषि रुक्मवर्ण संकोच में पड़ गए। बस वह विनम्र भाव से इतना कह सके कि मुझे तो आप सबके दुर्लभ सान्निध्य की चाहत यहाँ खींच लायी।

इतना कहने के बाद उन्होंने देवर्षि की ओर देखा और बोले- ‘‘देवर्षि के भक्तिसूत्रों की चर्चा तो आज त्रिलोकी में है। स्वयं भगवान सदाशिव भी इन सूत्रों पर मुग्ध हैं। मैं भी कैलाश जब प्रभु के दर्शनार्थ गया था, तब मैंने इन भक्तिसूत्रों एवं इस भक्ति समागम की ख्याति सुनी। जिसकी महिमा का बखान स्वयं महादेव करें, वह सब कुछ कितना सुमनोहर होगा, यही सोचकर मैं शीघ्रता से यहाँ पहुँच गया। अब तो देवर्षि से प्रार्थना है कि वह हमें अपना भक्तिसूत्र सुनाएँ।’’ ऋषि रुक्मवर्ण के अनुरोध पर देवर्षि ने कहा- ‘‘हम सब आपका दर्शन पाकर अनुग्रहीत हैं महर्षि, और मैं अब अपना अगला सूत्र आपके विचारार्थ प्रस्तुत करता हूँ-
‘तदेव साध्यतां तदेव साध्यताम्’॥ ४२॥

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १७०

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...