सोमवार, 4 अप्रैल 2016

शिष्य संजीवनी (भाग 29) : स्वयं को स्वामी ही सच्चा स्वामी

शिष्य संजीवनी का सेवन करने वालों का आध्यात्मिक वैभव बढ़ने लगा है। ऐसा अनेकों साधकों की अनुभूतियां कहती हैं। इन अनुभूतियों के हर पन्ने में एक अलग अहसास है। निखरते शिष्यत्व की एक अलग चमक है। महकती साधना की एक अनूठी खुशबू है। समर्पण की सरगम इनमें हर कहीं सुनी जा सकती है। जिन्होंने भी शिष्य संजीवनी के सत्त्व को, सार को पिया है- उन सभी में शिष्यत्व की नयी ऊर्जा जगी है।

कइयों ने गुरुवर की चेतना को अपने में उफनते- उमगते पाया है। कुछ ने गुरुदेव के रहस्यमय स्वरों को अपनी भाव चेतना में सुना है। अनेकों का साधना जीवन उच्चस्तरीय चेतना के संकेतों- संदेशों से धन्य हुआ है। निश्चित ही बड़भागी हैं ये सब जिनका जीवन शिष्यत्व की सघन भावनाओं से आवृत्त हुआ है। उनसे भी धन्यभागी हैं वे जो इन पंक्तियों को पढ़ते हुए सच्चे शिष्यत्व के लिए प्रयासरत हो रहे हैं।

इस प्रयास को तीव्र से तीव्रतर बनाने के लिए शिष्य संजीवनी का यह छठा सूत्र बड़ा ही गुणकारी है। इसमें कहा गया है- ‘शक्ति की उत्कट अभीप्सा करो। लेकिन ध्यान रहे कि जिस शक्ति की कामना शिष्य करेगा, वह शक्ति ऐसी होगी जो उसे लोगों की दृष्टि में ना कुछ जैसा बना देगी। इसी के साथ शान्ति की अदम्य अभीप्सा भी करो।

पर ध्यान रहे कि जिस शान्ति की कामना तुम्हें करनी है, वह ऐसी पवित्र शान्ति है, जिसमें कोई विघ्र न डाल सकेगा। और इस शान्ति के वातावरण में आत्मा उसी प्रकार विकसित होगी, जैसे शान्त सरोवर में पवित्र कमल विकसित होता है। शक्ति और शान्ति के साथ ही स्वामित्व की भी अपूर्व अभीप्सा करो। परन्तु ये सम्पत्तियाँ केवल शुद्ध आत्मा की हों। और इसलिए सभी शुद्ध आत्मा इनकी समान रूप से स्वामी हों।

क्रमशः जारी
डॉ. प्रणव पण्डया
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