मंत्र में छिपी है विघ्न विनाशक शक्ति
इन विक्षेपों में सबसे पहला है- रोग। योगिवर पतंजलि कहते हैं कि रोग का सही मतलब है- जैव विद्युत् के चक्र का अव्यवस्थित हो जाना। इसके प्रवाह में व्यतिक्रम व व्यतिरेक उठ खड़े होना। जैव विद्युत् की लयबद्धता का लड़खड़ा जाना। यही रोग की दशा है। जीवन में जब-जब ऐसी स्थिति आती है, व्यक्ति रोगी हो जाता है। यदि किसी भी तरह से जैव विद्युत् के चक्र को ठीक कर दिया जाय, तो रोग भी ठीक हो जाएगा। योगविज्ञान के अलावा वैकल्पिक चिकित्सा की अन्य विधियाँ भी हैं, जो इस सत्य को समझती हैं और इसी विधि से रोग को ठीक करती हैं। इन्हीं विधियों में से एक है- एक्यूप्रेशर व एक्यूपंचर। इस विधि के प्रवर्तकों ने शरीर में सात सौ ऐसे बिन्दु खोज लिए हैं, जिनसे होकर प्राणविद्युत् सम्पूर्ण शरीर में प्रवाहित होती है।
इन केन्द्रों के माध्यम से ही प्राण विद्युत् भौतिक शरीर का स्पर्श करती है। एक्यूपंचर के विशेषज्ञों का कहना है कि रोग के दौरान प्राण विद्युत् के प्रवाह में बाधा पड़ती है और सात सौ में से कई बिन्दु प्राण विद्युत् से विहीन हो जाते हैं और रोग घटता है। इस विद्या के विशेषज्ञ अपनी विधियों से इस चक्र को फिर से पूरा करते हैं। मंत्र विद्या इस सम्बन्ध में कीं अधिक उच्चस्तरीय प्रयास है। मंत्र के माध्यम से एक ओर तो प्राण विद्युत् के चक्र में आने वाली बाधाओं का निराकरण होता है, तो दूसरी ओर साधक को ब्रह्माण्डीय ऊर्जा का एक बड़ा अंश मिलता है।
दूसरा विक्षेप अकर्मण्यता का है। दरअसल अकर्मण्यता तभी आती है, जब हममें ऊर्जा का तल बहुत निम्न हो जाता है। ऐसी स्थिति में ही हम स्वयं को निर्जीव या शिथिल अनुभव करते हैं। मंत्र जप के माध्यम से ब्रह्माण्डीय ऊर्जा प्रवाह को ग्रहण-धारण करके इस ऊर्जा के तल को ऊँचा उठाया जा सकता हैं और अकर्मण्यता को उत्साह में बदला जा सकता है। तीसरा विक्षेप संशय का है। निश्चितता, दृढ़ता के विरुद्ध है संशय। इससे मानसिक ऊर्जा कई भागों में बँट जाती है। जो साधक मंत्र का प्रयोग करते हैं, उनके अन्तःकरण में संशय का कोई स्थान नहीं रह जाता।
चौथा विक्षेप प्रमाद का रूप लेकर आता है। प्रमाद हमेशा मन का होता है। यह ऐसी अवस्था है, जिसमें कि मन सम्मोहित जैसा हो जाता है। इसे मन की मूर्छा भी कह सकते हैं। होश गँवाया हुआ मन हमेशा ही प्रमादी होता है। अर्थ चिन्तन करते हुए किया मंत्र जप मन को होश में लाने का उत्तम उपाय है। यदि मंत्र का जप मंत्र की भावना के साथ किया जा रहा है, तो फिर मन के प्रमादी होने की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती। हाँ, यदि मंत्र के साथ उसकी भावना जुड़ी हुई न हो, तो फिर यह केवल एक अचेतन क्रिया भर रह जाती है और प्रमाद का सिलसिला चलता रहता है।
.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ ११८
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या