शुक्रवार, 8 जून 2018

👉 बन्दा सिंह बहादुर का बलिदान

🔶 बन्दा सिंह बहादुर का जन्म 27, 1670 को ग्राम तच्छल किला, पु॰छ में श्री रामदेव के घर में हुआ। उनका बचपन का नाम लक्ष्मणदास था। युवावस्था में शिकार खेलते समय उन्होंने एक गर्भवती हिरणी पर तीर चला दिया। इससे उसके पेट से एक शिशु निकला और तड़पकर वहीं मर गया। यह देखकर उनका मन खिन्न हो गया। उन्होंने अपना नाम माधोदास रख लिया और घर छोड़कर तीर्थयात्रा पर चल दिये। अनेक साधुओं से योग साधना सीखी और फिर नान्देड़ में कुटिया बनाकर रहने लगे।

🔷 माधोदास ने श्री गुरु गोविन्द सिंह जी पर अपना जादू किया पर श्री गुरु गोविन्दसिंह जी पर इसका कोई असर न हुआ तब माधोदास ने  श्री गुरु गोविन्दसिंह जी की महिमा को जान लिया और नतमस्तक हो गया और विनती की कि मैं आपका बंदा बन चुका हूँ। आपकी प्रत्येक आज्ञा मेरे लिए अनुकरणीय है। फिर उसने कहा – मैं भटक गया था। अब मैं जान गया हूँ, मुझे जीवन चरित्रा से सन्त और कर्त्तव्य से सिपाही होना चाहिए। आपने मेरा मार्गदर्शन करके मुझे कृत्तार्थ किया है जिससे मैं अपना भविष्य उज्ज्वल करता हुआ अपनी प्रतिभा का परिचय दे पाउँगा।

🔶 श्री गुरु गोविन्द सिंह जी, माधे दास के जीवन में क्रान्ति देखकर प्रसन्न हुए और उन्होंने उसे गुरूदीक्षा देकर अमृतपान कराया। जिससे माधेदास केशधरी सिंह बन गया। पाँच प्यारों ने माधेदास का नाम परिवर्तित करके गुरूबख्श सिंह रख दिया। परन्तु वह अपने आप को गुरू गोबिन्द सिंह जी का बन्दा ही कहलाता रहा। इसी लिए इतिहास में वह बंदा बहादुर के नाम से प्रसिध  हुआ।

🔷 श्री गुरु गोविन्द सिंह जी ने  उसे पाँच तीर, एक निशान साहिब, एक नगाड़ा और एक हुक्मनामा देकर पंजाब के लिए रवाना के दिया रस्ते में उसने अपने दल का विस्तार करना सुरु कर दिया था और गुरु जी के साथ हुए अत्याचारों का बदलना लेने की लिए उत्सुक था दिहली के समीप सही खजाना लूटा और सेना को मजबूत किया ।

🔶 फिर बन्दा हजारों सिख सैनिकों को साथ लेकर पंजाब की ओर चल दिये।  उन्होंने  श्री गुरु तेगबहादुर जी का शीश काटने वाले जल्लाद जलालुद्दीन का सिर काटा। फिर सरहिन्द के नवाब वजीरखान का वध किया। जिन हिन्दू राजाओं ने मुगलों का साथ दिया था, बन्दा बहादुर ने उन्हें भी नहीं छोड़ा। इससे चारों ओर उनके नाम की धूम मच गयी।

🔷 बाँदा बहादुर गुरु जी के छोटे पुत्रों को दीवार में चिनवाने वाले सरहिन्द के नवाब से बदला लेने के लिए उतावला था जेसा की गुरु जी के चारों पुत्र बलिदान हो चुके थे। बंदा सिंह बहादुर के पराक्रम से भयभीत मुगलों ने दस लाख फौज लेकर उन पर हमला किया और विश्वासघात से 17 दिसम्बर 1715 को उन्हें पकड़ लिया। उन्हें लोहे के एक पिंजड़े में बन्दकर, हाथी पर लादकर सड़क मार्ग से दिल्ली लाया गया। उनके साथ हजारों सिख भी कैद किये गये थे। इनमें बन्दा के वे 740 साथी भी थे, जो प्रारम्भ से ही उनके साथ थे। युद्ध में वीरगति पाए सिखों के सिर काटकर उन्हें भाले की नोक पर टाँगकर दिल्ली लाया गया। रास्ते भर गर्म चिमटों से बन्दा सिंह बहादुर का माँस नोचा जाता रहा।

🔶 काजियों ने बन्दा और उनके साथियों को मुसलमान बनने को कहा; पर सबने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया। दिल्ली में आज जहाँ हार्डिंग लाइब्रेरी है,वहाँ 7 मार्च 1716 से प्रतिदिन सौ वीरों की हत्या की जाने लगी। एक दरबारी मुहम्मद अमीन ने पूछा – तुमने ऐसे बुरे काम क्यों किये, जिससे तुम्हारी यह दुर्दशा हो रही है। बन्दा ने सीना फुलाकर सगर्व उत्तर दिया – मैं तो प्रजा के पीड़ितों को दण्ड देने के लिए परमपिता परमेश्वर के हाथ का शस्त्र था। क्या तुमने सुना नहीं कि जब संसार में दुष्टों की संख्या बढ़ जाती है, तो वह मेरे जैसे किसी सेवक को धरती पर भेजता है।

🔷 बन्दा से पूछा गया कि वे कैसी मौत मरना चाहते हैं ? बन्दा ने उत्तर दिया, मैं अब मौत से नहीं डरता ; क्योंकि यह शरीर ही दुःख का मूल है। यह सुनकर सब ओर सन्नाटा छा गया। भयभीत करने के लिए उनके पाँच वर्षीय पुत्र अजय सिंह को उनकी गोद में लेटाकर बन्दा के हाथ में छुरा देकर उसको मारने को कहा गया।

🔶 इसके बाद 9 जून 1716 को बंदा सिंह बहादुर की महान कुर्बानी का भी समय आ गया। उनको पिंजरे में से निकालकर जमीन पर बैठाया गया तथा सिख धर्म को त्यागने या फिर मौत दोनों में से एक चुनने को कहा गया। बंदा सिंह ने धर्म त्यागना पर्वान ना किया और जंजीरों में बंधे उस सिंघ सुरमे के एक हाथ को खोला गया। बंदा सिंह बहादुर के चार साल के मासूम पुत्र को बंदा सिंह की गोद में बैठाया गया और बंदा सिंह के हाथ में छूरा पकड़ाकर उसको चार साल के अपने पुत्र को कत्ल करने को कहा गया।

🔷 बंदा सिंह ने कुछ भी ना किया और शांत बैठा रहा। फिर जालिमों ने छुरा पकड़कर उस चार साल के बेजुबान बच्चे की छाती में घुसा दिया। बंदा सिंह बहादुर अभी भी अड़ोल था। फिर तड़पते बच्चे की छाती को फाड़कर उसका धड़कता हुआ दिल बाहर निकाला गया और बच्चे के शरीर के टुकड़े कर दिये गये। इसके बाद बंदा सिंह के पुत्र का दिल बंदा सिंह के मुंह में डाल दिया गया ताकि बंदा सिंह घबरा जाए। परंतु जो सच्चे मन से एक बार सिर गुरू के आगे झुका दे, जिसे गुरबाणी का सच्चा रस प्राप्त हो जाए, जिसे प्रभु के भाणे की समझ आ जाए वह अड़ोलता की अवस्था को प्राप्त कर लेता है। बंदा सिंह का सारा मुंह, चेहरा अपने पुत्र के खून से भर गया।

🔶 इसके बाद बंदा सिंह की दांयी आंख को गर्म चाकु के साथ निकाला गया तथा फिर बांयी आंख को भी निकाला गया। फिर बंदा सिंह के बांये पैर को काट दिया गया तथा उसके बाद दोनों हाथ काटकर शरीर से अलग कर दिये गये। कटे हुए हाथ-पैरों तथा आंखों से बंदा सिंह का खून चारों ओर बह रहा था लेकिन गुरू का सिख अभी भी शांत था और प्रभु को याद कर रहा था। फिर बंदा सिंह के शरीर के मांस को लोहे की लाल गर्म चिमटियों के साथ धिरे-धिरे उतारा गया। इसके पश्चात बंदा सिंह के शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिये गये। वे सभी सिंघ सिखी के लिए कुर्बान हो गये लेकिन गुरू के सिंघों में से किसी ने भी अपना धर्म त्यागना कबूल न किया। बंदा सिंह बहादुर के जीवन से हमें गुरू पर भरोसा रखने की शिक्षा मिलती है। बंदा सिंह बहादुर ने गुरू के आगे अपना सिर इस प्रकार झुकाया था कि सिर एक बार झुकाने के बाद सिर कट जरूर गया लेकिन अपने गुरू को दाग ना लगने दिया।

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 9 June 2018


👉 आज का सद्चिंतन 9 June 2018


👉 आत्मचिंतन

🔶 मित्रो ! मन, लोभ, मोह के विचारों, वासना-तृष्णा के धमाचौकड़ी से खाली रहे तो मनुष्य प्रतिभावान, तेजस्वी एवं अग्रगामी महामानवों में गिना जा सकने योग्य तानाबाना बुन सकता है। ऐसे व्यक्ति साधारण परिस्थितियों में भी, साधनों और सहयोगियों का अभाव होते हुए भी अपने व्यक्तिगत चुम्बकत्त्व द्वारा जो आवश्यक है उसे निखिल ब्रह्माण्ड में से अपने लिए खींच बुलाते हैं। ऐसे तेजस्वी व्यक्ति अपने बलबूते आगे बढ़ते हैं और बाँस की तरह झुरमुट बनाते हुए असाधारण ऊँचाई तक जा पहुँचते हैं। यह उनकी आन्तरिक जीवट का प्रतिफल है। इसी को कुण्डलिनी कहते हैं। इसके जाग्रत होने पर मनुष्य निर्भय और निश्चयी बन जाता और कठिनाई, समस्याओं और आक्रमणों के विरुद्ध इस प्रकार लोहा लेता है मानो उसे खेल के मैदान में कला-कौशल भर दिखाना है।

🔷 उत्तम साधक वही है जो दरिद्रता के साथ रहने को कहा जाय तो दरिद्रता के साथ रहे, किसी भी अभाव की वेदना उसे न हो और उसकी दैवी स्थिति के पूर्ण आन्तरिक आनन्द की क्रीड़ा में उससे कुछ भी बाधा न पड़े और वही फिर, वैभव के साथ रहने को कहा जाय तो वैभव के साथ रहे और अपने धन की आसक्ति या वासना में एक क्षण के लिये भी पतित न हो, या उन चीजों से भी आसक्त न हो जिनका वह उपयोग करता है, या उस भोग की दासता में न हो या धन की अधिकारिता द्वारा निर्मित अभ्यासों से दुर्बल की तरह आसक्त न हो।

🔶 एक लगनशील व्यक्ति अपने अनेक साथी-सहचर पैदा कर सकता है। जुआरी, शराबी, व्यभिचारी जब अपने कई साथी पैदा कर सकते हैं तो प्रबुद्ध व्यक्ति वैसा क्यों नहीं कर सकते? डाकुओं के छोटे-छोटे गिरोह जब एक बड़े क्षेत्र को आतंकित कर सकते हैं तो सही लोगों का संगठन क्या कुछ नहीं कर सकते? लगन की आग बड़ी प्रबल है। यह जिधर भी लगती है दावानल का रूप धारण करती है। युग निर्माता महापुरुष अकेले ही चले हैं, लोगों ने उनका विरोध-प्रतिरोध भी खूब किया फिर भी वे अपनी लगन के आधार पर अद्भुत सफलता प्राप्त कर सके-यही मार्ग हर लगनशील के लिए खुला पड़ा है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 THE SUBTLE DETERMINATORS OF HUMAN PERSONALITY

🔶 The dominant influences in the formation of human personality are generally believed to be environment and enterprise. But this belief holds true only to a certain extent. It is a matter of common observation that children born and brought up in similar circumstances develop major mental and emotional differences later. This is primarily on account of the basic life-elements, which go to make the person of an offspring.

🔷 These subtle influences come down over many previous generations from both paternal and maternal sides. They combine to maintain the continuity of hereditary characteristics and also mutate in a strange way to spawn entirely new traits and identities, thereby taking evolution forward.

🔶 Scientists have been able to uncover the fundamental basis of life of not only human beings but of all the life forms belonging to animal and plant worlds. Since the second half of the 20th century, a great amount of research has been made in this direction and almost daily new findings are published. This rapid and profuse work is propelled by advances in electron microscopy and cybernetics in which information from different fields are collated and integrated into a composite whole.

🔷 All living organisms from the simplest amoeba to the most complex human body have been formed by the same life-chemical, the DNA or deoxyribonucleic acid. The DNA contains in chemically coded form - the blueprint of life, i.e., all the information needed to build, control and maintain a living organism. The DNA has extremely tiny spring-like structures, which can be seen through an electron microscope. The defined stretch of DNA is called genes. The genes have memory banks and they continually feed the body cells with instructions about the formation and functioning of body organs. This way co-ordination among the billions of body cells is achieved.

🔶 DNA is found in every living organism except in human RBC and certain types of viruses. An adult human body has 600 billion “energy packets” of DNA. In shape and chemical composition, all of these are similar whether in humans or animals or even in grass blades. The key to all of life’s diversity is hidden in DNA. The particular order of its constituent bases determines whether an organism is a human or a bird, fish, insect or vegetable. An Indian-American scientist Dr. Hargovind Khurana made path-breaking discoveries about the structure of RNA (ribonucleic acid) and was awarded the Nobel Prize in 1968.

👉 मृतक भोज के सम्बन्ध में इस प्रकार भी सोचें (भाग 3)

🔶 इस पाप-पुण्य की सूक्ष्म बात को छोड़ कर यदि साधारण सामाजिकता की स्थूल बात भी ले ली जाय तब भी मृतक भोज खाने की प्रथा उचित नहीं। अब आज के अर्थाभाव एवं महार्घता के समय में किसी के मरने पर मृतक भोज में इतना धन खर्च कर सकना कौन बुद्धिमानी की बात है। जहां कठिनता से नमक रोटी जुड़ती हो, वहां साधारण स्थिति का कोई व्यक्ति इतने रुपये किस प्रकार बचा कर रख सकता है कि शोक-संयोग आने पर वह घर से तत्काल निकाल कर मृतक-भोज आदि में खर्च कर सके।

🔷 निश्चय ही उसे इस प्रथा पिशाचिनी की भेंट-पूजा के लिये कर्ज लेना होता है और एक बार एक सामान्य आदमी के लम्बी रकम कर्ज लेने का अर्थ है अपने को आजीवन मूल तो दूर ब्याज के हाथ बेच देना। बच्चों के पालन पोषण और परिवार के संचालन के लिए आवश्यक कमाई का अधिकांश नियमित रूप से महाजन के हवाले करते रहना। अथवा अपनी जमीन-जायदाद, गहने, बर्तन बेचने के लिए मजबूर होना। मृतक-भोज की प्रथा ग्रस्त लोगों पर यह आर्थिक आपत्ति आये दिन ही रहती है, जिसको सभी प्रथा पालक देखते-सुनते ही रहते हैं।

🔶 खेद का विषय है कि किसी एक विषय में खुद तो लोग कुछ जानते नहीं, केवल आंख मीचे हुये लकीर पीटे चले आ रहे हैं और यदि कोई विचारशील व्यक्ति उनकी हित चिन्ता से कुछ बता कर सुधार करने का परामर्श देता है तो सुधार करना तो दूर उसकी बात भी ध्यान से नहीं सुनना चाहते। इसे समाज का दुर्भाग्य नहीं तो और क्या कहा जा सकता है?जिन समाजों के सदस्य इस प्रकार के प्रतिगामी समाजों के सुधार के लिये उसके जागरूक तथा सम्पन्न व्यक्तियों को आगे निकल कर सामाजिक मूढ़ता के विरुद्ध सुधार का अभियान छेड़ ही देना चाहिये।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 भारतीय संस्कृति की रक्षा कीजिए पृष्ठ 84

👉 आत्मबल

🔶 महापुरुष की तपस्या, स्वार्थ-त्यागी का कष्ट सहन, साहसी का आत्म-विसर्जन, योगी का योगबल ज्ञानी का ज्ञान संचार और सन्तों की शुद्धि-साधुता आध्यात्मिक बल का निर्झर है। मूल प्रकृति शुद्धात्मा के अधीन है वही आद्य-प्रकृति असम्भव को भी सम्भव कर दिखाती है। मूक को वाचालता तथा पंगु को पर्वत चढ़ने की शक्ति देती है। समस्त जगत इसी शक्ति से निर्मित हुआ है।

🔷 हमारे पास बाहुबल नहीं है। समग्र सामग्री नहीं है शिक्षा नहीं है, न राज शक्ति ही है। तब किसके बूते पर हम उस कार्य साधन को उद्यत हुए हैं जो प्रबल और शिक्षित यूरोपीय जाति के लिए भी असाध्य जान पड़ता है। लेकिन यह तो सब को स्वीकार करना पड़ेगा कि केवल बाहुबल से किसी महान कार्य का होना असम्भव है। अतः बाहुबल से आत्मबल ही कार्य सिद्धि में अधिक क्षमता रखता है।

🔶 आत्मबल ही बाहुबल को तुच्छ प्रमाणित कर मनुष्य जाति को सिखाता चला रहा है कि यह जगत भगवान का राज्य है। अन्य स्थूल प्रकृति का खाली क्षेत्र नहीं। जिसका आत्मबल विकसित हो चुका है उसके जय की सामग्री आप ही आप सामने उपस्थित हो जाती है। सारी विश्व बाधाएं और विपत्तियाँ स्वयं टूटकर अनुकूल अवस्था को लाती हैं। कार्य का सामर्थ्य स्वयं प्रकट होकर तेजस्वी और वेग गतिवान होता है।

✍🏻 योगी अरविन्द घोष
📖 अखण्ड-ज्योति नवम्बर 1956 पृष्ठ 6

👉 गुरुगीता (भाग 127)

👉 सर्वसंकटहारिणी गुरूगीता की मंत्र साधना

🔶 इस गुरू रहस्य कथा के अन्य आयाम प्रकट करते हुए भगवान् सदाशिव कहते हैं-

अनेन प्राणिनः सर्वे गुरूगीता जपेन तु। सर्वसिद्धिं प्रान्पुवन्ति भुक्तिं मुक्तिं न संशयः॥ १६६॥
सत्यं सत्यं पुनः सत्यं धर्म्यं सांख्यं मयोदितम्। गुरूगीतासमं नास्ति सत्यं सत्यं वरानने॥ १६७॥
एको देव एकधर्म एकनिष्ठा परं तपः। गुरोः परतरं नान्यत् नास्ति तत्त्वं गुरोः परम्॥ १६८॥
माता धन्या पिता धन्यो धन्यो वंशः कुलं तथा। धन्या च वसुधा देवि गुरूभक्तिः सुदुर्लभा॥ १६९॥
शरीरमिन्द्रियं प्राणश्चार्थस्वजनबांधवाः। माता पिता कुलं देवि! गुरूरेव न संशयः॥ १७०॥

🔷 गुरूगीता के जप अनुष्ठान से सारे प्राणी सभी सिद्धियाँ प्राप्त करते हैं, भोग एवं मोक्ष पाते हैं, इसमें कोई संशय नहीं है॥ १६६॥ भगवान् सदाशिव पूरी दृढ़ता से माता पार्वती से कहते हैं- हे वरानने ! यह मेरे द्वारा प्रकाशित धर्मयुक्त ज्ञान है। यह सत्य ,सत्य और पूर्ण सत्य है कि गुरूगीता के समान अन्य कुछ भी नहीं है॥ १६७॥ एक ही देव है, एक ही धर्म है, एक ही निष्ठा और यही परम तप है कि गुरू से परे कोई भी तत्त्व नहीं है, गुरू से श्रेष्ठ कोई तत्त्व नहीं है, गुरू से अधिक कोई तत्त्व नहीं है॥ १६८॥ हे देवि! गुरूभक्त गुरुभक्त को धारण करने वाले माता- पिता, कुल एवम् वंश धन्य होते है, क्योंकि गुरुभक्त्ति अति दुर्लभ है। हे देवि! शरीर- इन्द्रिय, प्राण, धन, माता सभी सदगुण की चेतना का ही तो विस्तार है, इसमें कोई संशय नहीं है।

🔶 भगवान् सदाशिव के ये वचन अकाटय है। कोई भी व्यक्ति इन्हें अपने जीवन में परख सकता है। बस ,बात गुरुगीता की साधना करनें की है। युँ तो साधनाएँ बहुत है, हर एक का अपना महत्त्व है। सभी के अपने- अपने विधान एवं अपने सुफल है, लेकिन लेकिन इन सब की सीमाएँ भी है। प्रत्येक साधना अपना अभीष्ट पुरा करके चुक जाती है। परन्तु गुरुगीता का विस्तार व्यापक है, इससे काम्य अभीष्ट तो पुर्ण होते है, साथ ही वृत्तियाँ भी निर्मल होती है। अंत में सदगुरु एवम् परमात्मा दोनों की प्राप्ति होती है। यह बात इतनी खरी है कि जब कोई जहाँ चाहे इसे आजमा सकता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 192

👉 विवाहोन्माद प्रतिरोध आन्दोलन (भाग 3)

🔶 यह हलका-फुलका धर्म कृत्य मानव-जीवन की एक साधारण-सी आवश्यकता है। जिस प्रकार मुण्डन अन्न प्राशन, विद्यारम्भ, जनेऊ वानप्रस्थ आदि अन्य संस्कार होते हैं, वैसा ही विवाह भी एक साधारण-सा धर्मानुष्ठान है। उसमें संस्कार का कुछ बड़ा आयोजन रह सकता है, हर्ष उल्लास का छोटा-मोटा आयोजन भी रह सकता है, पर वह इतना खर्चीला और उलझन भरा कदापि न होना चाहिए कि आर्थिक दृष्टि से दोनों पक्षों का कचूमर ही निकल जाय। बारातियों की सर्वथा अनावश्यक भीड़ को इधर से उधर ठेले फिरने, उनके ठहराने, अनेक तरह की सुविधाएं जुटाने एवं कीमती प्रीति-भोजों का खर्चीला भार उठाने में किसका क्या लाभ होता है यह समझ में नहीं आता?

🔷 बाराती यह समझते हैं कि हमने अपना वक्त बर्बाद कर के और इतनी किल्लत उठाकर बेटे वाले पर अहसान किया। बेटे वाला बरात के लाने, ले जाने की कष्टसाध्य व्यवस्था जुटाता है। बेटी वाले का तो उनकी आव-भगत में कचूमर ही निकल जाता है। इस मूर्खतापूर्ण हंगामे का उस पवित्र धर्मानुष्ठान के साथ कोई तुक नहीं बैठता, फिर भी बरातों की दौड़ धूप चलती ही रहती है। अनावश्यक गाजे-बाजे, महंगी सवारियाँ, आतिशबाजी, फूल पट्टी आदि में ढेरों पैसा बर्बाद होता है। इस बर्बादी का भारत जैसे गरीब देश के गरीब लोगों पर आर्थिक दृष्टि से कितना बुरा असर पड़ता है इसे हर विचार-शील व्यक्ति आसानी से समझ सकता है।

🔶 इतने से ही काम चल जाता तब भी भुगता जाता। समस्या तो और भी भयानक तब सिद्ध होती है जब वरपक्ष की ओर से मोटी रकम दहेज के रूप में माँगी जाती है, उसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाया जाता है। नकदी, जेवर, सामान के रूप में यह माँग आमतौर से इतनी बड़ी होती है कि औसत आर्थिक स्थिति का कोई कन्या का पिता छाती पर पत्थर रखकर ही उसकी पूर्ति कर सकता है। जिन्हें दो-चार कन्याओं के लगातार विवाह करने पड़े हैं और जिनके पास कहीं से अनाप-शनाप आमदनी नहीं होती, वे जानते हैं कि दहेज किस पिशाच का नाम है और उस कोल्हू में पेले जाने पर लड़की के परिवार का तेल किस करुण क्रन्दन के साथ निकलता है। आज जो लड़के वाला बनकर दहेज माँगता है, कल उसे भी अपनी लड़की का विवाह करने पर उसी चक्की में पिसना पड़ता है। इस दुर्गति को जानते हुए भी न जाने क्यों हमारी आँखें नहीं खुलतीं और रोते कलपते उसी दुर्दशा के कुचक्र में पिलते- पिसते रहते हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जुलाई 1965 पृष्ठ 44

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1965/July/v1.44

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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