गुरुवार, 26 दिसंबर 2019

👉 अद्भुत पात्र Adbhut Patra

एक राजमहल के द्वार पर बड़ी भीड़ लगी थी किसी भिक्षुक ने राजा से भिक्षा मांगी थी राजा ने उससे कहा, जो भी चाहते हो मांग लो दिवस के प्रथम याचक की कोई भी इच्छा पूरी करने का उसका नियम था उस भिक्षुक ने अपने छोटे से भिक्षापात्र को आगे बढ़ाया और कहा बस इसे स्वर्ण मुद्राओं से भर दे'।

राजा ने सोचा इससे सरल बात और क्या हो सकती है लेकिन जब उस भिक्षा पात्र में स्वर्ण मुद्राएं डाली गई तो ज्ञात हुआ कि उसे भरना असंभव था वह तो जादुई था जितनी अधिक मुद्राएं उसमें डाली गई वह उतना ही अधिक खाली होता गया राजा को दुखी देख वह भिक्षुक बोला न भर सकें तो वैसा कह दे मैं खाली पात्र को ही लेकर चला जाऊंगा राजा! ज्यादा से ज्यादा इतना ही होगा कि लोग कहेंगे कि राजा अपना वचन पूरा नहीं कर सके।

राजा ने अपना सारा खजाना खाली कर दिया, उसके पास जो कुछ भी था सभी उस पात्र में डाल दिया गया लेकिन अद्भुत पात्र न भरा, सो न भरा तब उस राजा ने पूछा भिक्षु तुम्हारा पात्र साधारण नहीं है उसे भरना मेरी साम‌र्थ्य से बाहर है क्या मैं पूछ सकता हूं कि इस अद्भुत पात्र का रहस्य क्या है..?

वह भिक्षुक हंसने लगा और बोला कोई विशेष रहस्य नहीं राजा यह पात्र मनुष्य के हृदय से बनाया गया है क्या आपको ज्ञात नहीं है कि मनुष्य का हृदय कभी भी भरा नहीं जा सकता..? धन से पद से ज्ञान से- किसी से भी भरो वह खाली ही रहेगा, क्योंकि इन चीजों से भरने के लिए वह बना ही नहीं है इस सत्य को न जानने के कारण ही मनुष्य जितना पाता है उतना ही दरिद्र होता जाता है हृदय की इच्छाएं कुछ भी पाकर शांत नहीं होती हैं क्यों..? क्योंकि, हृदय तो परमात्मा को पाने के लिए बना है और परमात्मा सत्य में बसता है शांति चाहते हो ? संतृप्ति चाहते हो..?  तो अपने संकल्प को कहने दो कि परमात्मा और सत्य के अतिरिक्त और मुझे कुछ भी नहीं चाहिए......

👉 अन्तराल के परिशोधन की प्रायश्चित प्रक्रिया (भाग १)

कर्मफल एक ऐसी सच्चाई है जिसे इच्छा या अनिच्छा से स्वीकार ही करना होगा। यह समूची सृष्टि एक सुनियोजित व्यवस्था की शृंखला में जकड़ी हुई है। क्रिया की प्रतिक्रिया का नियम कण-कण पर लागू होता है और उसकी परिणति का प्रत्यक्ष दर्शन पग-पग पर होता है।

भूतकालीन कृत्यों के आधार पर वर्तमान बनता है और वर्तमान का जैसा भी स्वरूप है, उसी के अनुरूप भविष्य बनता चला जाता है। किशोरावस्था में कमाई हुई विद्या और स्वास्थ्य सम्पदा जवानी में बलिष्ठता एवं सम्पन्नता बनकर सामने आती है। यौवन का सदुपयोग-दुरुपयोग बुढ़ापे के जल्दी या देर से आने, देर तक जीने या जल्द मरने के रूप में परिणत होता है। वृद्धावस्था की मनःस्थिति संस्कार बनकर मरणोत्तर जीवन के साथ जाती और पुनर्जन्म के रूप में अपनी परिणति प्रकट करती है।

कुछ कर्म तत्काल फल देते हैं, कुछ की परिणति में विलम्ब लगता है। व्यायामशाला, पाठशाला, उद्योगशाला के साथ सम्बन्ध जोड़ने के सत्परिणाम सर्वविदित हैं, पर वे उसी दिन नहीं मिल जाते, जिस दिन प्रयास आरम्भ किया गया था। कुछ काम अवश्य ऐसे होते हैं, जो हाथों-हाथ फसल देते हैं। मदिरा पीते ही नशा आता है। जहर खाते ही मृत्यु होती है। गाली देते ही घूँसा तनता है। दिन भर परिश्रम करते ही शाम को मजदूरी मिलती है। टिकट खरीदते ही सिनेमा का मनोरंजन चल पड़ता है। ऐसे भी अनेकों काम हैं, पर सभी ऐसे नहीं होते। कुछ काम निश्चय ही ऐसे हैं, जो देर लगा लेते हैं। असंयमी लोग जवानी में ही खोखले बनते रहते हैं, उस समय कुछ पता नहीं चलता। दस-बीस वर्ष बीतने नहीं पाते कि काया भी जर्जर होकर अनेक रोगों से घिर जाती है।

समय साध्य परिणतियों को देखकर अनेकों को कर्मफल पर अविश्वास होने लगता है। वे सोचते हैं कि आज का प्रतिफल हाथों-हाथ नहीं मिला तो वह कदाचित भविष्य में भी कभी नहीं मिलेगा। अच्छे काम करने वाले प्रायः इसी कारण निराश होते हैं और बुरे काम करने वाले अधिक निर्भय निरंकुश बनते हैं। तत्काल फल न मिलने की व्यवस्था भगवान ने मनुष्य की दूरदर्शिता, विवेकशीलता को जाँचने के लिए ही बनाई है। अन्यथा वह ऐसा भी कर सकता था कि झूठ बोलते ही मुँह में छाले भर जाय। चोरी करने वाले के हाथ में दर्द होने लगे। व्यभिचारी तत्काल नपुंसक बन जाय। यदि ऐसा रहा होता तो आग में हाथ डालने से बचने की तरह लोग पाप-कर्मों से भी बचे रहते और दीपक जलाते ही रोशनी की तरह पुण्य फल का हाथों-हाथ चमत्कार देखते। पर ईश्वर को क्या कहा जाय। उसकी भी तो अपनी मर्जी और व्यवस्था है। सम्भवतः मनुष्य की दूरदर्शिता विकसित करने एवं परखने के लिए ही इतनी गुंजायश रखी है कि वह सत्कर्मों और दुष्कर्मों का प्रतिफल विलम्ब से मिलने पर भी अपनी समझदारी के आधार पर भविष्य को ध्यान में रखते हुए आज की गतिविधियों को अनुपयुक्तता से बचाने और सत्साहस को अपनाने में जो अवरोध आते हैं, उन्हें धैर्यपूर्वक सहन करे।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)

👉 किमाश्चर्य परमं?

किमाश्चर्य परमं? - ‘सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है?’- युगों पहले यक्ष ने युधिष्ठिर से यह सवाल पूछा था। धर्म का मर्म जानने वाले युधिष्ठिर ने इस सवाल के उतर में यक्ष से कहा था- ‘हजारों लोगों को रोज मरते हुए देखकर भी अपनी मौत से अनजान बने रहना, खुद को मौत से मुक्त मान लेना, जीते रहने की लालसा में अनेकों दुष्कर्म करते रहना ही सबसे बड़ा आश्चर्य है।’ अनेकों शवयात्राएँ रोज निकलती हैं, ढेरों लोग इनमें शामिल भी होते हैं। इसके बावजूद भी वे अपनी शवयात्रा की कल्पना नहीं कर पाते। काश! ऐसी कल्पना की जा सके अपनी मौत के कदमों की आहट सुनी जा सके, तो निश्चित ही जीवन दृष्टि संसार से हटकर सत्य पर केन्द्रित हो सकती है।
  
सूफी फकीर शेखसादी के वचन हैं- ‘बहुत समय पहले दज़ला के किनारे एक मुरदे की खोपड़ी ने कुछ बाते एक राहगीर से कही थी। वह बोली थी ः ऐ मुसाफिर, जरा होश में चल। मैं भी कभी भारी दबदबा रखती थी। मेरे ऊपर हीरों जड़ा ताज़ था। फतह मेरे पीछे-पीछे चली और मेरे पाँव कभी जमीन पर न पड़ते थे। होश ही न था कि एक दिन सब कुछ खत्म हो गया। कीड़े मुझे खा गए हैं और आज हर पाँव मुझे बेरहम ठोकर मारकर आगे निकल जाता है। तू भी अपने कानों से गफलत की रूई निकाल ले, ताकि तुझे मुरदों की आवाज से उठने वाली नसीहत हासिल हो सके।’
  
सच में मुरदों की आवाज से उठने वाली नसीहत को जो सुन लेता है, वह जान लेता है कि जन्म के साथ मृत्यु जुड़ी है। उन दोनों के बीच जो है वह केवल जीवन का आभास भर है। यह जीवन की एक छाया भर है। क्योंकि जीवन तो शाश्वत है, और इसकी कभी मृत्यु नहीं हो सकती। जन्म का अन्त है, जीवन का नहीं। और मृत्यु का प्रारम्भ है जीवन का नहीं। जीवन तो इन दोनों से पार है। इसे वही पाते हैं जो अनवरत तप और सतत सत्कर्मों से जीवन की छाया से पार शाश्वत में प्रवेश करते हैं। ऐसे लोग मौत से मुँह नहीं चुराते, बल्कि इसे शाश्वत जीवन का प्रवेश द्वार बना लेते हैं। जो ऐसा नहीं करते, वे जीवित होकर भी जीवित नहीं हैं। और जो करने में समर्थ होते हैं, वे मर कर भी नहीं मरते।

✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ १४६

👉 जीवन-सार्थकता की साधना—चरित्र (भाग १)

मनुष्य जीवन की सार्थकता उज्ज्वल और उद्दात्त चरित्र से होती है। सामाजिक प्रतिष्ठा के भागीदार वे होते हैं जिनमें चारित्रिक बल की न्यूनता नहीं पाई जाती। जिस पर सभी लोग विश्वास करते हों, ऐसे ही लोगों की साख औरों पर पड़ती है। पर-उपदेश तो वाक्पटुता के आधार पर धूर्त व्यक्ति तक कर लेते हैं। किन्तु दूसरों को प्रभावित कर पाने की क्षमता, लोगों को सन्मार्ग का प्रकाश दिखाने की शक्ति चरित्रवान् व्यक्तियों में हुआ करती है। सद्-विचारों और सत्कर्मों की एकरूपता को ही चरित्र कहते हैं। जिसके विचार देखने में भले प्रतीत हों किन्तु आचार सर्वदा भिन्न हों, स्वार्थपूर्ण हों, अथवा जिनके विचार छल व कपट से भरे हों और दूसरे को धोखा देने, प्रपंच रचने के उद्देश्य से चिन्ह पूजा के रूप में सत्कर्म करने की आदत होती है उन्हें चरित्रवान् नहीं कहा जा सकता। सत्कर्मों का आधार इच्छाशक्ति की प्रखरता है। जो अपनी इच्छाओं को नियन्त्रित रखते हैं और उन्हें सत्कर्मों का रूप देते हैं उन्हीं को चरित्रवान् कहा जा सकता है। संयत इच्छा-शक्ति से प्रेरित सदाचार का ही नाम चरित्र है।

विपुल धन सम्पत्ति, आलीशान मकान, घोड़े-गाड़ी, यश, कीर्ति आदि कमाने एवं विविध भाग भोगने की इच्छा आम लोगों में पाई जाती है। बालकों का हित भी इसी में मानते हैं कि उनके लिए उत्तराधिकार में बहुत धन दौलत जमा करके रखी जाय। किन्तु वे यह भूल जाते हैं कि जिस धन से भावी सन्तान आत्म-निर्माण न कर सके वह धन क्या? बिना श्रम उत्तराधिकार में मिला धन घातक होता है। सच्ची बपौती व्यक्ति का आदर्श चरित्र होता है, जिससे बालक अपनी प्रतिभा का स्वतः विकास करते हैं। उज्ज्वल चरित्र का आदर्श भावी सन्तति के जीवन-निर्माण में प्रकाश स्तम्भ का कार्य करता है।

समाज का सौन्दर्य, सुख और शान्ति चरित्रवान् व्यक्तियों के द्वारा स्थिर रहती है। दुष्चरित्र और दुराचारी लोगों से सभी भयभीत रहते हैं। उनके पास आने में लोग लज्जा व संकोच अनुभव करते हैं। जो भी उनके सम्पर्क में आता है उसे ही वे अपने दुष्कर्मों की आग में लपेट लेते हैं। ऐसा समाज दुःख, कलह ओर कटुता से झुलसकर रह जाता है। अनेकों प्रकार की भौतिक सम्पत्तियां व सांसारिक सुख सुविधाएं होते हुए भी लोगों को शान्ति उपलब्ध नहीं होती। अधिकतर लोग कुढ़-कुढ़कर जीवन बिताते रहते हैं। यह सब चारित्रिक न्यूनता के कारण ही होता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति अगस्त 1964 पृष्ठ 9

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1964/August/v1.9

http://literature.awgp.org/book/sukh_shanti_ki_sadhana/v1.12

👉 देव संस्कृति की गौरव गरिमा

सभ्यता और संस्कृति इस युग के दो बहु-चर्चित विषय हैं। आस्थाओं और मान्यताओं को संस्कृति और तदनुरूप व्यवहार, आचरण को सभ्यता की संज्ञा दी जाती है। मानवीय सभ्यता और संस्कृति कहें या चाहे जो भी नाम दें मानवीय दर्शन सर्वत्र एक ही हो सकता है, मानवीय संस्कृति केवल एक हो सकती है दो नहीं क्योंकि विज्ञान कुछ भी हो सकता है। इनका निर्धारण जीवन के बाह्य स्वरूप भर से नहीं किया जा सकता। संस्कृति को यथार्थ  स्वरूप प्रदान करने के लिए अन्ततः धर्म और दर्शन की ही शरण में जाना पड़ेगा।
  
संस्कृति का अर्थ है-मनुष्य का भीतरी विकास। उसका परिचय व्यक्ति के निजी चरित्र और दूसरों के साथ किये जाने वाले सद्व्यवहार से मिलता है। दूसरों को ठीक तरह समझ सकने और अपनी स्थिति तथा समझ धैर्यपूवक दूसरों को समझा सकने की स्थिति भी उस योग्यता में सम्मिलित कर सकते हैं, जो संस्कृति की देन है।
  
आदान-प्रदान एक तथ्य है, जिसके सहारे मानवीय प्रगति के चरण आगे बढ़ते-बढ़ते वर्तमान स्थिति तक पहुँचे हैं। कृषि, पशुपालन, शिक्षा, चिकित्सा, शिल्प-उद्योग विज्ञान, दर्शन जैसे जीवन की मौलिक आवश्यकताओं से सम्बन्धित प्रसंग किसी क्षेत्र की बपौती नहीं है। एक वर्ग की उपलब्धियों से दूसरे क्षेत्र के लोग परिचित हुए हैं। परस्पर आदान-प्रदान चले हैं और भौतिक क्षेत्र में सुविधा संवर्धन का पथ-प्रशस्त हुआ है। ठीक यही बात धर्म और संस्कृति के सम्बन्ध में भी है। एक लहर ने अपने सम्पर्क क्षेत्र को प्रभावित किया है। तो दूसरी लहर ने उसे आगे धकेला है। लेन-देन का सिलसिला सर्वत्र चलता रहा है। मिल-जुलकर ही मनुष्य हर क्षेत्र में आगे बढ़ा है। इस सम्पर्क से धर्म और संस्कृति भी अछूते नहीं रहे हैं। उन्होंने एक-दूसरे को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से प्रभावित किया है।
  
यह सभ्यताओं का समन्वय एवं आदान-प्रदान उचित भी है और आवश्यक भी। कट्टरता के इस कटघरे में मानवीय विवेक को कैद रखे  रहना असम्भव है। विवेक दृष्टि से जाग्रत होते ही इन कटघरों की दीवारें टूटती हैं और जो रुचिकर या उपयोगी लगता है, उसका बिना किसी प्रयास या दबाव के आदान-प्रदान चल पड़ता है। इसकी रोकथाम के लिए कट्टरपन्थी प्रयास सदा से हाथ-पैर पीटते रहे हैं, पर यह कठिन ही रहा है। हवा उन्मुक्त आकाश में बहती है। सर्दी-गर्मी का विस्तार व्यापक क्षेत्र में होता है। इन्हें बन्धनों में बाँधकर कैदियों की तरह अपने ही घर में रुके रहने के लिए बाधित नहीं किया जा सकता है। सम्प्रदायों और सभ्यताओं में भी यह आदान-प्रदान अपने ढंग से चुपके-चुपके चलता रहा है।
  
धर्म और संस्कृति दोनों ही सार्वभौमिक हैं, उन्हें सर्वजनीन कहा जा सकता है। मनुष्यता के टुकड़े नहीं हो सके। सज्जनता की परिभाषा में बहुत मतभेद नहीं है। शारीरिक संरचना की तरह मानवी अन्तःकरण की मूल सत्ता भी एक ही प्रकार की है। भौतिक प्रवृत्तियाँ लगभग एक-सी हैं। एकता व्यापक है और शाश्वत। पृथकता सामयिक है और क्षणिक। हम सब एक ही पिता के पुत्र हैं। एक ही धरती पर पैदा हुए हैं। एक ही आकाश के नीचे रहते हैं। एक ही सूर्य से गर्मी पाते हैं और बादलों के अनुदान से एक ही तरह अपना गुजारा करते हैं फिर कृत्रिम विभेद से बहुत दिनों तक बहुत दूरी तक किस प्रकार बँधे रह सकते हैं? औचित्य को आधार मानकर परस्पर आदान-प्रदान का द्वार जितना खोलकर रखा जाय उतना ही स्वच्छ हवा और रोशनी का लाभ मिलेगा। खिड़कियाँ बन्द रखकर हम अपनी विशेषताओं को न तो सुरक्षित रख सकते हैं और न स्वच्छ हवा और खुली धूप में मिलने वाले लाभों से लाभान्वित हो सकते हैं। संकीर्णता अपनाकर पाया कम और खोया अधिक जाता है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 QUERIES ABOUT THE MANTRA (Part 4)

Q.4.  What is the basis of words in Gayatri Mantra adding upto 24 letters?

Ans. The confusion about Gayatri Mantra having a total of 23 letters only, arises mainly because of the word Nayam in Varenyam. In the composition of the Richas (couplets) of Vedas, meanings are subordinate to the syntax of words, which is according to specified musical notations. The chhandas (components of Vedas classified according to number of letters) in the Vedas are composed keeping in view the symphony to be created by the succession of words for a desired objective. Musicians change the pitch and duration of the tones to conform to a Raga. The mystery of difference between the “written” and pronounced Nyam in the Mantra lies in its sonic effect. In this way considering Nyam as a composite of Ni and Yam according to their musical notation, the first, second and third segments of the Mantra add up to 8 words each. Adya Shankaracharya endorses this view. The Pingal Shastra and Mantrartha Chandrodaya also support the grammatical conformity of Gayatri Mantra on the same principle. In this way, the letters in the Mantra are to be counted as follows:

TAT SA VI TU VAR RE NI YAM BHA RGO DEV SYA DHI       1+ 1+  1+ 1+ 1+ 1+ 1+ 1+ 1+ 1+ 1+ 1+ 1+ 1+
MA HI DHI YO YO NAH  PRA  CHO  DA YAT         1+ 1+  1+ 1+ 1+ 1+ 1+ 1+ 1+ 1   =  24

For further reference please refer to the monthly periodical Akhand Jyoti, May 1983 issue.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 Gayatri Sadhna truth and distortions Page 39

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