🔹 मनुष्य का स्वभाव ज्यों-ज्यों आत्मिक भाव और आत्मिक जीवन की अभिवृद्धि करता है त्यों-त्यों उसमें सामर्थ्य भी बढ़ते जाते हैं। जैसे-जैसे तुम अपने शरीर के अंग प्रत्यंगों में छिपे सामर्थ्यों को प्रकट करोगे। आविष्कार करोगे-वैसे-वैसे विशेष रूप से महान बनते जाओगे। उच्च विचारों द्वारा जितने अंशों में हम अपने जीवन का विकास कर सकेंगे, उतने ही अंशों में उसका यथार्थ उपभोग कर सकेंगे।
🔸 कहते हैं एक बार एक बड़े भारी व्यापारी की पत्नी तार लिए दौड़ी हुई उसके कमरे में, जहाँ वह बैठा व्यापार की कुछ नवीन योजनाएं सोच रहा था, आई और हाँफते हुए बोली- “प्यारे हमने सब कुछ खो दिया है। हमारे जहाज माल-असबाब इत्यादि डूब गए हैं, सारी उम्र के किये-कराये पर पानी फिर गया है हमारी सब बहुमूल्य वस्तुएं जा चुकी हैं। उफ्फ अब क्या होगा? हाय हाय ! हमें कौन पूछेगा?”
पति ने धैर्य दिखाते हुए कहा - “क्या तुम्हें भी मुझसे छीन लिया गया है?”
वह बोली - पागलों की सी बातें क्यों करते हो, मैं तो सदैव तुम्हारे पास हूँ।
और हमारी आदतें तो कहीं नहीं चली गई हैं?
नहीं ! आदतें भला कहाँ जायेंगी?
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🔹 तब तो निराश होने की तनिक भी आवश्यकता नहीं हैं। हमने अपनी आदतों की कमाई ही खो दी है। संसार की सर्वश्रेष्ठ विभूतियाँ (आशावादिता, स्वास्थ्य, उत्साह, अध्यवसाय, परिश्रम और प्रेम) अब भी हमारे पास हैं। हम शीघ्र ही सब कुछ पुनः प्राप्त कर लेंगे, तुम धैर्य रखो। कहते हैं कि कुछ वर्षों बाद उनका गृह पुनः धन-धान्य से पूर्ववत पूरित हो गया। जब उनसे सफलता का रहस्य पूछा गया तो उन्होंने कहा “मैं कभी उम्मीद नहीं छोड़ता विपत्ति के काले बादलों से चिंतित नहीं होता वरन् हँसते-हँसते उनका सामना करता हूँ। कठिनाई आने से निराशा का चिन्ह मुख मंडल पर दिखाना अच्छे से अच्छे मनुष्य को विफल बना सकता है।”
.... क्रमशः जारी
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1950 पृष्ठ 14