मंगलवार, 1 दिसंबर 2020

👉 साधन और साध्य

एक बार अकबर ने तानसेन से कहा था कि तेरा वीणावादन देखकर कभी—कभी यह मेरे मन में खयाल उठता है कि कभी संसार में किसी आदमी ने तुझसे भी बेहतर बजाया होगा या कभी कोई बजाएगा? मैं तो कल्पना भी  नहीं कर पाता कि इससे श्रेष्ठतर कुछ हो सकता ‘है। 

तानसेन ने कहा,क्षमा करें, शायद आपको पता नहीं कि मेरे: गुरु अभी जिन्दा हैं। और एक बार अगर आप उनकी वीणा सुन लें तो कहां वे और कहां मैं!

बड़ी जिज्ञासा जगी अकबर को। अकबर ने कहा तो फिर उन्हें बुलाओ! तानसेन ने कहा, इसीलिए कभी मैंने उनकी बात नही छेड़ी। आप मेरी सदा प्रशंसा करते थे, मैं चुपचाप पी लेता था, जैसे जहर का घूंट कोई पीता है, क्योंकि मेरे गुरु अभी जिन्दा हैं, उनके सामने मेरी क्या प्रशंसा! यह यूं ही है जैसे कोई सूरज को दीपक दिखाये। मगर मैं चुपचाप रह जाता था, कुछ कहता न था, आज न रोक सका अपने को, बात निकल गयी। लेकिन नहीं कहता था इसीलिए कि आप तत्‍क्षण कहेंगे, ‘उन्हें बुलाओ’। और तब मैं मुश्किल में पड़ुगा, क्योंकि वे यूं आते नहीं। उनकी मौज हो तो जंगल में बजाते हैं, जहां कोई सुननेवाला नहीं। जहां कभी—कभी जंगली जानवर जरूर इकट्ठे हो जाते हैं सुनने को। वृक्ष सुन लेते हैं, पहाड़ सुन लेते हैं। लेकिन फरमाइश से तो वे कभी बजाते नहीं। वे यहां दरबार मे न आएंगे। आ भी जाएं किसी तरह और हम कहें उनसे कि बजाओ तो वे बजाएंगे नहीं। 

तो अकबर ने कहा, फिर क्या करना पड़ेगा, कैसे सुनना पड़ेगा? तो तानसेन ने कहा, एक ही उपाय है कि यह मैं जानता हूं कि रात तीन बजे वे उठते हैं, यमुना के तट पर आगरा में रहते हैं—हरिदास उनका नाम है—हम रात में चलकर छुप जाएं—दो बजे रात चलना होगा; क्योंकि कभी तीन बजे बजाए, चार बजे —बजाए, पांच बजे बजाए; मगर एक बार (जरूर सुबह—सुबह स्नान के बाद वे वीणा बजाते हैं— तो हमें चोरी से ही सुनना होगा, बाहर झोपड़े के छिपे रहकर सुनना होगा।.. शायद ही दुनिया के इतिहास में किसी सम्राट ने, अकबर जैसे बड़े सम्राट ने चोरी से किसी की वीणा सुनी हो!.. लेकिन अकबर गया।

दोनों छिपे रहे एक झाड़ की ओट में, पास ही झोपड़े के पीछे। कोई तीन बजे स्नान करके हरिदास यमुना सै आये और उन्होंने अपनी वीणा उठायी और बजायी। कोई घंटा कब बीत गया—यूं जैसे पल बीत जाए! वीणा तो बंद हो गयी, लेकिन जो राग भीतर अकबर के जम गया था वह जमा ही रहा।

आधा घंटे बाद तानसेन ने उन्हें हिलाया और कहा कि अब सुबह होने के करीब है, हम चलें! अब कब तक बैठे रहेंगे। अब तो वीणा बंद भी हो. चुकी। अकबर ने कहा, बाहर की तो वीणा बंद हो गयी मगर भीतर की वीणा बजी ही चली जाती है। तुम्हें मैंने बहुत बार सुना, तुम जब बंद करते हो तभी बंद ‘हो जाती है। यह पहला मौका है कि जैसे मेरे भीतर के तार छिड़ गये हैं।। और आज सच में ही मैं तुमसे कहता हूं कि तुम ठीक ही कहते थे कि कहा तुम और कहां तुम्हारे गुरु!

अकबर की आंखों से आंसू झरे जा रहे हैं। उसने कहा, मैंने बहुत संगीत सुना, इतना भेद क्यों है? और तेरे संगीत में और तेरे गुरु के संगीत में इतना भेद क्यों है? जमीन—आसमान का फर्क है।

तानसेन ने कहा - कुछ बात कठिन नहीं है। मैं बजाता हूं कुछ पाने के लिए; और वे बजाते हैं क्योंकि उन्होंने कुछ पा लिया है। उनका बजाना किसी उपलब्‍धि की,किसी अनुभूति की अभिव्यक्ति है। मेरा बजाना तकनीकी है। मैं बजाना जानता हूं मैं बजाने का पूरा गणित जानता हूं मगर गणित! बजाने का अध्यात्म मेरे पास नहीं! और मैं जब बजाता होता हूं तब भी इस आशा में कि आज क्या आप देंगे? हीरे का हार भेंट करेंगे, कि मोतियों की माला, कि मेरी झोली सोने से भर देंगे, कि अशार्फेयों से? जब बजाता हूं तब पूरी नजर भविष्य पर अटकी रहती है, फल पर लगी रहती है। वे बजा रहे हैं, न कोई फल है, न कोई भविष्य,वर्तमान का क्षण ही सब कुछ है। उनके जीवन में साधन और साध्य में बहुत फर्क है, साधन ही साध्य है; ओर मेरे जीवन में अभी साधन और साध्य में कोई फर्क नहीं है। बजाना साधन है। पेशेवर हूं मैं। उनका बजाना आनंद है, साधन नहीं। वे मस्ती में हैं।

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ७६)

करुणा कर सकती है—चंचल मन पर काबू

अन्तर्यात्रा विज्ञान हर निर्मल योग साधक की आन्तरिक गुत्थियों को सुलझाता है। उलझे मन के अनेकों धागे इसके जादुई असर से अपने आप सुलझ जाते हैं। अन्तस् की गांठें इसकी छुअन से अपने ही आप खुल जाते हैं।  
साधकों की यह आम समस्या है कि व्यवहार की गड़बड़ियाँ से भी मन इतना चंचल व अस्थिर हो जाता है कि योग साधना की  स्थिति ही नहीं बनती। इस समस्या का निराकरण महर्षि अपने अगले सूत्र में कहते हैं। वे कहते हैं-
मैत्रीकरुणामुदितोयेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्॥ १/३३॥

शब्दार्थ-सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणाम्= सुखी, दुःखी, पुण्यात्मा और पापात्मा, ये चारों जिनके क्रम से विषय है, ऐसी; मैत्रीकुरूणामुदितोयेक्षाणाम्= मित्रता, दया, प्रसन्नता और उपेक्षा की; भावनातः= भावना से; चित्तप्रसादनम्= चित्त स्वस्थ हो जाता है।
अर्थात् आनन्दित व्यक्ति के प्रति मैत्री, दुःखी व्यक्ति के प्रति करुणा, पुण्यवान् के प्रति मुदिता तथा पापी के प्रति उपेक्षा, इन भावनाओं का सम्वर्धन करने से मन शान्त हो जाता है।
    
महर्षि पतंजलि के इस सूत्र में व्यावहारिक जीवन की सभी समस्याओं के समाधान समाहित है। इसे यदि व्यवहार चिकित्सा का आधारभूत तत्व कहें तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। व्यवहार चिकित्सा के द्वारा चिकित्सक न केवल मनोरोगी के आन्तरिक घावों को ठीक करता है, बल्कि उसके व्यवहार को सुधारता व सँवारता है। फिर यह व्यवहार बच्चे का हो या फिर युवक अथवा प्रौढ़ का। महर्षि पतंजलि इस सूत्र में व्यवहार के परिष्कार से चित्त के परिष्कार की विधि सुझाते हैं। इसे यूँ भी कह सकते हैं कि ‘व्यवहार सुधरे तो चित्त सँवरे।’
    
महर्षि के सूत्र में चार आयाम हैं। इनमें से पहला आयाम है मैत्री का। महर्षि कहते हैं कि मैत्री आनन्दित व्यक्ति से। परम पूज्य गुरुदेव इस तत्व की व्याख्या में कहते थे- मैत्री शब्द से तो सभी परिचित हैं, पर अर्थ को प्रायः कोई नहीं जानता। प्रायः लोग मैत्री उससे करते हैं, जिससे कुछ लाभ मिलने वाला हो, जिसमें अपना लोभ टिका हो। इस लाभ और लोभ के बावजूद भी सच्ची मैत्री के दर्शन नहीं हो पाते। बस मित्रता का ऊपरी दिखावा होता है। यथार्थ में तो सुखी और आनन्दित व्यक्ति के प्रति सामान्य मन ईर्ष्या से भर जाता है। दाह और जलन मन को झुलसाने लगते हैं। गुरुदेव कहते थे कि सुखी व आनन्दित से मैत्री का भाव इसलिए होना चाहिए, क्योंकि सुखी रहने की, जीवन जीने की कला सीखी जा सकती है। उससे आनन्दित होने की तकनीकें जानी जा सकती हैं। उसके सहचर्य में जीवन की सही डगर खोजी जा सकती है। बस इस सम्बन्ध में बात इतनी जरूर देख ली जाय कि उसका आनन्द किसी साधन-सुविधा पर न टिका रह कर आत्मा की गहराइयों से उपजा हो।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १३०
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 उपासना की अनिवार्य आवश्यकता

नियमित उपासना मनुष्य जीवन में एक अत्यन्त आवश्यक धर्म-कृत्य है। इसकी उपेक्षा किसी को भी नहीं करनी चाहिए। उपासना की जो भी अपनी विधि हो करते हुए दो भावनाऐं मन में बराबर बनायें रहनी चाहिए कि परमात्मा घट−घट वासी और सर्वान्तर्यामी है। वह हमारी हर प्रवृत्ति को भली भाँति जानता है और हमारी भावनाओं के अनुरूप ही वह प्रसन्न-अप्रसन्न होता है अथवा दुख−सुख का दण्ड पुरस्कार प्रदान करता है। वह दयालु होते हुए भी न्यायकारी तथा व्यवस्थाप्रिय है। ईश्वर को हम इसलिए स्मरण रखें कि कुकर्म और कुविचारों से हमें सदा भय बना रहे और ईश्वर की प्रसन्नता के लिए उसके बताये धर्म मार्ग पर चलते हुए या उसकी दुनियाँ में सद्भावना बढ़ाते हुए उसका अनुग्रह प्राप्त कर सकें। “जो सन्मार्ग पर चल रहा है उसके साथ ईश्वर है इसलिए उसे किसी बड़े आततायी से भी डरने की आवश्यकता नहीं है।”

आस्तिकता का प्रतिफल है ‘निर्भयता’ जो हर घड़ी ईश्वर को अपने सहायक के रूप में साथ रहता हुआ अनुभव करेगा वह किसी से क्यों डरेगा। इतना बड़ा बलवान उसके साथ है उसे किसी समस्या या किसी वस्तु से डरने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। ईश्वर महान है। उसकी दया, करुणा, वात्सल्य, दान, न्याय, क्षमा, उदारता, आत्मीयता आदि महानता का स्मरण रखने और वैसे ही स्वयं बनने की चेष्टा करने से ईश्वरीय समीपता एवं महानता प्राप्त होती है, उसी का नाम ‘मुक्ति’ है। इन भावनाओं के साथ की हुई ईश्वर उपासना उपासक की आत्मा में तुरन्त एवं निश्चित रूप से आत्मबल प्रदान करती है।

उपासक उच्चस्तरीय होनी चाहिए आत्मकल्याण के लिए। गायत्री मंत्र में सद्बुद्धि की उपासना है। सद्बुद्धि ही मानव जीवन की सर्वोपरि महत्ता एवं विभूति है। ईश्वर की सद्बुद्धि के, सत्प्रवृत्ति के रूप में उपासना करना ही सच्ची उपासना हो सकती है, यही गायत्री उपासना है। हमारा प्रातःकाल थोड़ा बहुत समय इस कार्य के लिए अवश्य लगता है। यदि अत्यन्त ही व्यस्तता है तो भी उतना तो हो ही सकता है कि प्रातःकाल आँख खुलते ही हम चारपाई पर बैठ कर कुछ देर गायत्री माता का सद्बुद्धि के रूप में ध्यान करते हुए, सत्य−वृत्तियों को जीवन में अधिकाधिक मात्रा में धारण करने की कुछ देर भावना करें। पन्द्रह मिनट इस प्रकार लगाने के लिए समय का अभाव जैसी बात नहीं कही जा सकती। अनिच्छा हो तो बहाना कुछ भी बनाया जा सकता है। जिनके पास अवकाश है वे स्नान करके नित्य-नियमित पूजा अपनी श्रद्धा और मान्यता के अनुरूप किया करें। चूँकि गायत्री मन्त्र भारतीय धर्म और संस्कृति का आदि बीज है, इसलिए उसके लिए अपनी रुचि के साधन क्रम में भी कोई महत्वपूर्ण स्थान अवश्य रखना चाहिए।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जून 1962 

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