मंगलवार, 5 सितंबर 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 5 Sep 2023

🔷 प्रत्येक विचारशील व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह अपने जीवन को सार्थक एवं भविष्य को उज्ज्वल बनाने की आधारशिला-आस्तिकता को जीवन में प्रमुख स्थान देने का प्रयत्न करे। ईश्वर को अपना साथी, सहचर मानकर हर घड़ी निर्भय रहे और सन्मार्ग से ईश्वर की कृपा एवं कुमार्ग से ईश्वर की सजा प्राप्त होने के अविचल सिद्धान्त को हृदयंगम करता हुआ अपने विचारों और आचरणों को सज्जनोचित बनाने का प्रयत्न करता रहे। इसी प्रकार जिसे अपने परिवार में, स्त्री बच्चों से सच्चा प्रेम हो, उसे भी यही प्रयत्न करना चाहिए कि घर के प्रत्येक सदस्य के जीवन में किसी न किसी प्रकार आस्तिकता का प्रवेश हो। परिवार का बच्चा-बच्चा ईश्वर विश्वासी बने। 

🔶 यदि किसी को अधिक भौतिक अधिकार प्राप्त हुए हैं तो इसका यह अर्थ कदापि नहीं होता कि दूसरों का उत्पीड़न किया जाए। आपका स्वास्थ्य उत्तम है तो दुर्बलों को सताइये नहीं। अपनी योग्यताओं का लाभ प्राप्त करिये पर दूसरों के अधिकार तो न छीनिए। संसार में सभी प्राणी स्वतन्त्र और स्वाभाविक जीवन व्यतीत करने के लिए आये हैं, अपने स्वार्थ के लिए दूसरों के कष्ट पहुँचाना अन्याय है। सभी आपकी तरह सुख और सुविधायें प्राप्त करने के अधिकारी हैं। आपकी तरह वे भी अपने प्रयत्नों में लगे हैं, यदि किसी तरह उनकी सहायता नहीं कर सकते तो इतना कीजिये कि आपकी तरफ से उनके प्रयत्नों में किसी तरह की रुकावट न पैदा की जाय।

🔷 महानता की प्राप्ति के लिए हमें महान् आदर्शों एवं महान् सम्बलों का सहारा लेना पड़ता है। सद्गुणों के रूप में महानता का आह्वान करके उसे यदि अपने अन्तःकरण में धारण करें और उन्हीं प्रेरणाओं के अनुरूप अपना जीवन क्रम चलावें तो विकट परिस्थितियों में रहते हुए भी महानता प्राप्त कर सकना सम्भव हो सकता है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य


👉 जीवन का सबसे बड़ा पुरुषार्थ और संसार का सबसे बड़ा लाभ (भाग 5)

आत्मोत्कर्ष की आकांक्षा बहुत लोग करते हैं, पर उसके लिए न तो सही मार्ग जानते हैं और न उस पर चलने के लिए अभीष्ट सामर्थ्य एवं साधन जुटा पाते हैं। दिग्भ्रान्त प्रयासों का प्रतिफल क्या हो सकता है? भटकाव में भ्रमित लोग लक्ष्य तक किस प्रकार पहुँच सकते हैं? आज की यही सबसे बड़ी कठिनाई है कि आत्म-विज्ञान का न तो सही स्वरूप स्पष्ट रह गया है और न उसका क्रिया पक्ष- साधन विधान ही निर्भ्रान्त है। इस उलझन में एक सत्यान्वेषी जिज्ञासु को निराशा ही हाथ लगती हैं।

हमें यहाँ अध्यात्म के मौलिक सिद्धान्तों को समझना होगा। व्यक्ति के व्यक्तित्व में से अनगढ़ तत्वों को निकाल बाहर करना और उसके स्थान पर उस प्रकाश को प्रतिष्ठापित करना है जिसके आलोक में जीवन को सच्चे अर्थों में विकसित एवं परिष्कृत बनाया जा सके। इसके लिए मान्यता और क्रिया क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन प्रस्तुत करने पड़ते हैं। वे क्या हों, किस प्रकार हों, इसका शिक्षण थ्योरी और प्रेक्टिस के दोनों ही अवलम्बन साथ-साथ लेकर चलना होता है।

थ्योरी का तात्पर्य है वह सद्ज्ञान, वह आस्था विश्वास जो जीवन को उच्चस्तरीय लक्ष्य की ओर बढ़ चलने के लिए सहमत कर सके। इसे आत्मज्ञान, ब्रह्म-ज्ञान, तत्वज्ञान और सद्ज्ञान के नामों से जाना समझा जाता है- योग इसी को कहते हैं। ब्रह्म विद्या का तत्त्वदर्शन यही है। प्रेक्टिस- का तात्पर्य है वे साधन विधान जो हमारी क्रियाशीलता को दिशा देते हैं और बताते हैं कि जीवनयापन की रीति-नीति क्या होनी चाहिए और गतिविधियाँ किस क्रम से निर्धारित की जानी चाहिए? साधनात्मक क्रिया कृत्यों का यह उद्देश्य समझ लिया जाय तो फिर किसी को भी न तो अनावश्यक आशा बाँधनी पड़ेगी और न अवांछनीय रूप से निराश होना पड़ेगा।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1976 पृष्ठ 5

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1976/January/v1.5

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