रविवार, 5 फ़रवरी 2023

👉 महानता की प्राप्ति और उसके साधन

महानता की प्राप्ति के लिए हमें महान् आदर्शों एवं महान् सम्बलों का सहारा लेना पड़ता है। सद्गुणों के रूप में महानता का आह्वान करके उसे यदि अपने अन्तःकरण में धारण करें और उन्हीं प्रेरणाओं के अनुरूप अपना जीवन क्रम चलावें तो विकट परिस्थितियों में रहते हुए भी महानता प्राप्त कर सकना सम्भव हो सकता है।

ईश्वर महान् है, इसलिए उसकी उपासना भी हमारी महानता को बढ़ाने में सहायक होती है। आवश्यक है कि जिसे महान बनने की आकाँक्षा हो, वह ईश्वर का प्रकाश एवं अनुग्रह प्राप्त करने का प्रयत्न करे।

ईश्वर प्राप्ति के लिए उत्कृष्ट भावनाओं की आवश्यकता पड़ती है। भावनाओं में प्रेम का स्थान सर्वोपरि है। प्रेम को ही भक्ति कहते हैं। भक्ति से भगवान प्राप्त किया जाता है ऐसा शास्त्रकारों का मत है। भक्ति भावना बढ़ाने का अभ्यास किसी न किसी माध्यम से किया जाता है। माता, पिता, पत्नी, पुत्र या मित्र को माध्यम बनाने में एक कठिनाई यह होती है कि इनके साथ अपना व्यावहारिक सम्बन्ध होने से कभी-कभी प्रतिकूल भावनायें भी उठ पड़ती हैं। इनमें ज्ञान, विद्या, सदाचार, दिव्य दृष्टि सात्विकता तथा निःस्वार्थता की भावनायें भी अल्प मात्रा में होने से वैसे आदर्श अपने जीवन में भी उपस्थित नहीं हो पाते अतएव गुरु-भक्ति या ईश्वर भक्ति के माध्यम से अपनी महानता के विकास का प्रारम्भ करते हैं। इस भक्ति रूपिणी साधना से आध्यात्मिक भावनाओं का तेजी से विकास होने लगता है इसलिए हमारे धर्म और संस्कृति में उपासना को सर्वप्रथम और अनिवार्य धर्म कर्तव्य माना गया है।

उन्नति और उत्थान के लिये दूसरे साधनों में “स्वाध्याय और सत्संग” को अधिक फलदायक और सुविधाजनक मानते हैं। स्वाध्याय भी एक प्रकार से विचारों का सत्संग है, किन्तु महापुरुषों की समीपता का मनुष्य के अन्तःकरण पर तीव्र प्रभाव पड़ता है। सन्तजनों की समीपता शीघ्र फलदायक होती है क्योंकि यह लाभ उनकी वाणी, विचार और व्यवहार से निरन्तर मिलता रहता है अतएव प्रगति भी उतनी ही द्रुतगामिनी होती है। आत्म-संस्कार के लिए सत्संग से बढ़कर कोई दूसरा साधन नहीं। बड़े-बड़े दुष्ट दुराचारी व्यक्ति तक सत्संग के प्रभाव के सुधरकर महान आत्मा बने हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1965 पृष्ठ 8

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1965/January/v1.8

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👉 समग्र अध्यात्म

अध्यात्म की त्रिवेणी प्रेम, ज्ञान और बल इन तीन धाराओं में प्रवाहित होती है। इन तीनों का संतुलित अभिवर्धन करने से ही कोई समग्र आध्यात्मवादी हो सकता है। प्रेम हमारे अन्त:करण का अमृत है। जिस प्रकार हम अपने स्वार्थ, सुख, यश, वैभव और उत्सर्ग को चाहते हैं उसी प्रकार दूसरों के लिए भी चाह उठने लगे, तो उसे प्रेम का प्रकाश कहना चाहिए। अपनापन ही सबसे अधिक प्रिय है। अपने शरीर, मन, यश, सुख की चाहत सभी को रहती है। यह अपना आपा जितना विस्तृत होता जाता है, वह उतना ही प्रिय लगता जाता है और उसे सुखी समुन्नत बनाने की परिधि विस्तृत होती जाती है और अपना ‘प्रिय’ क्षेत्र बढ़ता चला जाता है। उसके लिए सेवा सहायता करने की इच्छा होती है और जो सत्कर्म ही बनते हैं। अपनों के साथ दुष्टता कौन करता है? प्रेम भावना की वृद्धि मन में से सभी दुष्प्रवृत्तियों को हटा देती है और मनुष्य सज्जन और सच्चरित्र एवं सहृदय बनता चला जाता है। प्रेम असंख्य सदगुणों का स्रोत है इसलिए उसे अध्यात्म का प्रथम चरण माना गया है।
  
दूसरा घटक है- ज्ञान। यथार्थ को समझना ही सत्य है। इसी को विवेक कहते हैं। जीवन के लक्ष्य को हम भूल जाते हैं। आत्मकल्याण की बात विस्तृत हो जाती है और कत्र्तव्य धर्म का पालन करने की गरिमा समझ में नहीं आती। इन्द्रियों की वासना और मन की तृष्णा पूरी करने के लिए अहंकार की पूर्ति के लिए निरर्थक कार्य करते हुए जीवन बीत जाता है और पाप की गठरी सिर पर लद जाती है। यह सब अज्ञान का फल है। अपने को शरीर नहीं आत्मा मानकर चलें। आत्मकल्याण की दृष्टिï से जीवन क्रम निर्धारित करें और वासना, तृष्णा को अनियन्त्रित न होने दें। स्कूली शिक्षा या धर्म की पुस्तकें पढ़ लेने का नाम ज्ञान नहीं है। यह तो एक आस्था है जो अन्त:करण में प्रकाशवान होकर हमें सही और गलत का विवेक कराती है। यह ज्ञान जो जितना प्राप्त कर लेता हैं वह उतना ही सफल आत्मवादी कहा जाता है।
  
तीसरा चरण है- बल। निर्बल को न सांसारिक सुख मिलता है न आत्मिक। हमें बलवान बनना चाहिए। मनोबल के आधार पर ही आपत्तियों से निपटना-प्रगति के पथ पर बढ़ चलना सम्भव होता है। लोभ, मोह जैसे शत्रुओं को परास्त करते हुए-प्रलोभनों से बचते हुए आदर्शवादिता के मार्ग पर अपनी प्रवृत्तियों को मोड़ सकना साहसी और पराक्रमी व्यक्ति के लिए ही सम्भव है। जीवन का प्रत्येक क्षेत्र सामथ्र्यवान और सशक्त बनाना पड़ता है। आत्मिक, मानसिक, शारीरिक सभी दुर्बलताएँ दूर करनी पड़ती हैं और आर्थिक क्षेत्र में इतना स्वावलम्बी रहना पड़ता है कि किसी के आगे न हाथ पसारना पड़े।
  
मनुष्य की सत्ता तीन भागों में विभक्त है- अन्त:करण, मस्तिष्क और शरीर। इसी विभाजन को अध्यात्म की भाषा में कारण शरीर और स्थूल शरीर कहते हैं। अन्त:करण का वैभव है-प्रेम। मस्तिष्क का धन है-ज्ञान। शरीर का वर्चस्व है-बल। चूँकि शरीर से ही आर्थिक, पारिवारिक और सामाजिक सम्बन्ध है इसलिए धन, व्यवहार कौशल और संगठन को भी इसी क्षेत्र में गिना जाता है। इन तीनों के समन्वय से ही समग्र अध्यात्म बनता है। एकांगी से काम नहीं चलता। अन्न, जल और वायु के त्रिविध आहार पर जीवन निर्भर है। आध्यात्मिक जीवन की यह तीनों प्रवृत्तियाँ समान रूप से आवश्यक हैं। इनका समन्वय ही त्रिवेणी का संगम है। इस तीर्थराज प्रयाग में स्नान करके ही हम जीवन लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं।

✍🏻 पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

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