मंगलवार, 14 मार्च 2017

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 15 March 2017


👉 आज का सद्चिंतन 15 March 2017


👉 बच्चे को मिली ऑपरेशन से मुक्ति

🔵 आज से सात साल पहले की बात है। गर्मियों के दिन थे। एक दिन मेरे बेटे कृष्ण कुमार के पेट में अचानक दर्द शुरू हुआ। रविवार होने के कारण मैं घर पर ही था। दोपहर के बारह बजे थे। कड़ी धूप थी, लेकिन उसकी हालत देखकर तुरन्त उसे साइकिल पर बिठाया और डॉक्टर के पास लेकर गया।

🔴 डॉक्टर का नाम था जी.एल. कुशवाहा। वे उस इलाके में नये- नये आए थे। इस तरह का दर्द मेरे बेटे को चार महीने पहले शुरू हो चुका था, लेकिन उसे चेकअप के लिए डॉक्टर के पास उसी दिन लेकर आया था।

🔵 मैं चाहता था कि अच्छे से चेकअप हो, लेकिन डॉक्टर ने उसे एक नजर देखकर दवा दे दी। जब बच्चा दवाई खाता तो, दर्द कम हो जाता और थोड़ी देर के बाद फिर पहले जैसी हालत हो जाती। एक महीने तक ऐसा ही चलता रहा। फिर एक दिन डॉक्टर ने कहा इसे नर्सिंग होम ले जाना पड़ेगा। वहाँ के बड़े डाक्टर इसकी जाँच करेंगे तभी रोग के बारे में कुछ पता चल पाएगा। वहाँ भी कई प्रकार की जाँच के बाद एक महीने तक इलाज चला, लेकिन बच्चे के स्वास्थ्य में किसी प्रकार का कोई सुधार नहीं हुआ।

🔴 इसके बाद डॉ. रोहित गुप्ता ने जाँच करने के बाद किसी घातक बीमारी के होने का संदेह व्यक्त किया। शंका निवारण के लिए उन्होंने इन्डोस्कोपी कराने की सलाह दी। हमने बच्चे का इन्डोस्कोपी कराया। उसकी रिपोर्ट हमें १५ दिन बाद प्राप्त हुई। लेकिन उस रिपोर्ट से भी बीमारी पकड़ में नहीं आई।

🔵 तब तक ऐसा होता रहा कि कभी बच्चे के पेट में दर्द हो जाता कभी सिर में। लगातार की इस पीड़ा से वह सूखकर कंकाल बनता जा रहा था और इधर हम बच्चे का दर्द देखकर बहुत परेशान हो रहे थे। अब तक बच्चे के इलाज में इतने रुपये खर्च हो चुके थे कि मेरी आर्थिक स्थिति बुरी तरह से खराब हो चुकी थी। मैं अन्दर से टूटता जा रहा था। इसी तरह से ढाई महीने और बीत गए; लेकिन बच्चे के स्वास्थ्य में कोई परिवर्तन नहीं आया।

🔴 तभी मुझे एक दिन ‘गायत्री साधना के प्रत्यक्ष चमत्कार’ नामक पुस्तक मिली। उस पुस्तक में ऐसे बहुत से लोगों का उल्लेख था, जिन्होंने पूज्य गुरुदेव के अजस्र अनुदान पाए थे। इसे पढ़कर मैंने सोचा कि इतने सारे लोगों को गायत्री मंत्र के अनुष्ठान से आश्चर्यजनक रूप से लाभ हुआ है, तो शायद इसका अनुष्ठान करने से माँ गायत्री थोड़ी कृपा हम पर भी कर दें।

🔵 यह सोचकर मैंने निश्चय किया कि मैं एक महीने का गायत्री मंत्र का अनुष्ठान करूँगा। अगले ही दिन मैंने संकल्प लेकर अनुष्ठान प्रारम्भ कर दिया। अनुष्ठान अभी चल ही रहा था कि एक दिन डॉक्टर ने मुझे बुलाकर कहा- बच्चे का स्वास्थ्य थोड़ा बहुत ठीक होने लगा है। एक और जाँच करनी पड़ेगी। जाँच से पता चला कि उसकी आँत में एक छोटा- सा छेद हो गया है, जो इलाज से ठीक किया जा सकता है। डॉक्टर की बातें सुनकर मेरा हौसला बढ़ा। मेरे मन में प्रेरणा जगी कि मैं अपने बच्चे को एक बार शान्तिकुञ्ज ले जाऊँ। वहाँ जाते ही मेरा बच्चा बिल्कुल ठीक हो जाएगा।

🔴 मैं बच्चे को लेकर शान्तिकुञ्ज के लिए चल पड़ा। लेकिन वहाँ पहुँचते- पहुँचते बच्चे की तबियत बहुत ज्यादा खराब हो गए। तुरन्त डॉक्टर को दिखाया गया। डॉक्टर ने कहा तुरन्त ऑपरेशन करना पड़ेगा। आप कल सुबह ठीक ९.३० बजे बच्चे को ऑपरेशन के लिए ले आइए।

🔵 हम रात में शान्तिकुञ्ज में ही रुके। देर रात तक मैं पूज्य गुरुदेव की समाधि पर रो- रोकर प्रार्थना करता रहा- गुरुदेव! मेरे बच्चे को बचा लीजिए। यह नहीं रहा तो इसकी माँ भी रो- रोकर अपनी जान दे देगी। अब तो बस आपका ही सहारा है, गुरुदेव! सुबह ऑपरेशन के लिए हॉस्पिटल पहुँचे तो बच्चे की हालत देखकर डॉक्टर ने कहा- बच्चा ऑपरेशन के लायक बिल्कुल भी नहीं है। ऑपरेशन से पहले इसे खून चढ़ाना पड़ेगा।

🔴 मैंने कहा- मेरा खून ले लीजिए। खून की जाँच हुई। संयोग से दोनों का ब्लड ग्रुप एक ही निकला। उसी समय मेरा खून निकालकर बच्चे को चढ़ाया जाने लगा। खून चढ़ते ही बच्चे को अचानक से तेज बुखार आ गया। आखिरकार उस दिन ऑपरेशन रोकना पड़ा।

🔵 रात भर असमंजस की स्थिति बनी रही। अगले दिन सुबह डॉक्टर आए। उन्होंने बच्चे का चेक- अप किया और चकित स्वर में बोले कि बच्चा अब तेजी से स्वस्थ हो रहा है। अगर इसी तरह सुधार होता रहा, तो ऑपरेशन की जरूरत नहीं रह जाएगी। फिलहाल आप बच्चे को साथ ले जा सकते हैं।

🔴 मैं बच्चे को वापस ले आया। अगले दो- तीन दिनों में बिना किसी दवा के ही बच्चा पूरी तरह से स्वस्थ दिखने लगा। फिर से जाँच की गई तो पता चला कि आँत का घाव बिल्कुल भर चुका है। यह गुरुदेव की कृपा थी, कि बच्चे की बीमारी बिना ऑपरेशन के ही ठीक हो गई और हम एक बहुत बड़े आर्थिक संकट में भी पड़ने से बच गए। शान्तिकुञ्ज से वापस जाते समय मैं बहुत देर तक पूज्य गुरुदेव तथा वन्दनीया माताजी की समाधि के आगे हाथ जोड़कर चुपचाप खड़ा रहा, क्योंकि उनके अनुदान के लिए कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं थे।

🌹 रामबाबू पटेल बादलपुर, इलाहाबाद (उ.प्र.)
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से


http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Wonderful/dipyagya

👉 महाकाल का प्रतिभाओं को आमंत्रण (भाग 21)

🌹 परिष्कृत प्रतिभा, एक दैवी अनुदान-वरदान    

🔴 छात्रों को अगली कक्षा में चढ़ने या पुरस्कार जीतने, छात्रवृत्ति पाने का अवसर किसी की कृपा से नहीं मिलता। उनकी परिश्रमपूर्वक बढ़ी हुई योग्यता ही काम आती है। प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत होने वाले जिस-तिस का अनुग्रह मिलने की आशा नहीं लगाए रहते, वरन् अपनी दक्षता, समर्थता को विकसित करके बाजी जीतने वाले सफल व्यक्तियों की पंक्ति में जा बैठने की प्रतिष्ठा अर्जित करते हैं। देवताओं तक का अनुग्रह, तपश्चर्या की प्रखरता अपनाने वाले ही उपलब्ध करते हैं। बिना प्रयास के तो थाली में रखा हुआ भोजन तक, मुँह में प्रवेश करने और पेट तक पहुँचने में सफल नहीं होता।                    

🔵 महान शक्तियों ने जिस पर भी अनुग्रह किया है, उसे सर्वप्रथम उत्कृष्टता अपनाने और प्रबल पुरुषार्थ में जुटने की ही प्रेरणा दी है। इसके बाद ही उनकी सहायता काम आती है। कुपात्रों को यह अपेक्षा करना व्यर्थ है कि उन्हें अनायास ही मानवी या दैवी सहायता उपलब्ध होगी और सफलताओं, सिद्धियों, विभूतियों से अलंकृत करके रख देगी। दुर्बलता धारण किए रहने पर तो प्रकृति भी ‘‘दैव भी दुर्बल का घातक होता है-इस उक्ति को चरितार्थ करती देखी गई है। दुर्बल शरीर पर ही विषाणुओं की अनेक प्रजातियाँ चढ़ दौड़ती हैं। शीत ऋतु का आगमन जहाँ सर्वसाधारण के स्वास्थ्य-संवर्धन में सहायक होता है, वहाँ मक्खी-मच्छर जैसे कृमि-कीटकों के समूह को मृत्यु के मुँह में धकेल देता है।        

🔴 सड़क पर बसों-मोटरों का ढाँचा दौड़ता दीखता है, पर जानकार जानते हैं कि यह दौड़, भीतर टंकी में भरे ज्वलनशील तेल की करामात है। यह चुक जाए, तो बैठकर सफर करने वाली सवारियों को उतरकर उस ढाँचे को अपने बाहुबल से धकेलकर आगे खिसकाना पड़ता है। मनुष्य के काय-कलेवर के द्वारा जो अनेक चमत्कारी काम होते दीख पड़ते हैं, वे मात्र-हाड़-माँस की उपलब्धि नहीं होते, वरन् उछलती उमंगों के रूप में प्रतिभा ही काम करती है।  

🔵 स्वयंवर में माला उन्हीं के गले में पड़ती है, जो दूसरों की तुलना में अपनी विशिष्टता सिद्ध करते हैं। चुनावों में वे ही जीतते हैं, जिनमें दक्षता प्रदर्शित करने और लोगों को अपने प्रभाव में लाने की योग्यता होती है। मजबूत कलाइयाँ ही हथियार का सफल प्रहार कर सकने में सफल होती हैं। दुर्बल भुजाएँ तो हारने के अतिरिक्त और कुछ प्राप्त कर सकने में सफल ही नहीं होतीं।
   
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 धन व्यक्ति का नही सारी प्रजा का

🔵 नासिरुद्दीन दिल्ली की गद्दी पर बैठा, पर वह वैभव और ऐश्वर्य भी उसकी ईश्वर निष्ठा, सादगी, सिद्धांतप्रियता और सरलता को मिटा न सका। होता यह है कि जब किसी को कोई उच्चाधिकार मिलता है, तो भले ही कार्य प्रजा और समाज की सेवा और भलाई का हो, वह अपना स्वार्थ-साधन करने लगता है, अहंकारपूर्वक वर्गहित का ध्यान भूल जाता है।

🔴 उन सबके लिए नासिरुद्दीन का जीवन एक पाठ है। उससे शिक्षा मिलती है कि बडप्पन मनुष्य की आदतों, भावनाओं और सच्चाईपूर्वक कर्तव्य परायणता का है दर्प और स्वार्थ का, धन का नहीं।

🔵 नासिरुद्दीन गद्दी पर बैठे तब भी उनकी धर्मपत्नी को भोजन अपने हाथ से ही पकाना पडता था। राजा स्वयं उन्हीं के हाथों का भोजन करता। उस भोजन में न तो बहुत विविधता होती, न मिर्च मसाले। सीधा सरल औसत दर्जे का भोजन बनता और राज-परिवार इसे ही ग्रहण करता। यद्यपि राजकोष और धन की कमी न थी। नासिरुद्दीन चाहते तो राजसी ठाठ-बाट का भोजन भी पकवाते। दस बीस रसोईये भी रख लेना उनके लिए पलकें मारने की तरह सरल था, तो भी सरल सम्राट ने प्रदर्शन नहीं किया, अपने आपको भी सामान्य नागरिक जैसा ही प्रस्तुत किया। अपने काम वह स्वयं अपने हाथ से करता तो बेगम को क्यों न वैसा ही जीवन बिताना पडता?

🔴 सामान्य जीवन में जो कठिनाइयों रहती हैं, उनका अभ्यास उन्हें भी करना पडा इस से उन्हें प्रजा का यथार्थ हित समझने का अवसर मिला, प्रजा भी ऐसे नेक राजा से बडा स्नेह रखती संसार कैसा भी हो लोग आदर्श, सच्चे और ईमानदारी का सम्मान और प्रतिष्ठा करते हैं, भले ही वह छोटा आदमी क्यों न हो? अहंकारी और धूर्त लोग चाहे कितने ही वैभवशाली क्यों न हो, उन्हें हृदय से कोई सम्मान नहीं देता।

🔵 गर्मी के दिन थे। इन दिनो गर्मी तो होती ही है, लू भी चलती है, बेगम एक दिन भोजन बना रहीं थी, कि बाहर से हवा का झोंका आया, लपट उठीं और उससे उनका हाथ जल गया वे बहुत दुःखी हुई आँखें भर आईं, आँसू बहने लगे नासिरुद्दीन भोजन के लिये आये तो बेगम ने विनीत भाव से पूछा- ''मुझे अकेले सब काम करने पडते हैं, उससे बडी मुश्किल पडती है, आपके पास इतना सारा राज्यकोष और वैभव है, क्या हमारे लिये भोजन पकाने वालों की भी यवस्था नही कर सकते?

🔴 चिंतनशील नासिरुद्दीन गंभीर हो गया उसने कहा- बेगम आपकी इच्छा पूरी की जा सकती है, पर उसका एक ही उपाय है कि हम अपने सिद्धांतो से डिगे, बनावट और बेईमानदारी का जीवन जियें। यह धन जो तुम देखती हो, वह मेरा नहीं सारी प्रजा का है, मैं तो उसका मात्र व्यवस्थापक हूँ। व्यवस्थापक के लिए जितनी सुविधाएं और पारिश्रमिक चाहिए हम उतना ही लेते हैं अब आप ही बताइए अतिरिक्त व्यवस्था के लिए अतिरिक्त धन कहाँ से आए? फिजूलखर्ची न तो मेरे हित में है और न ही प्रजा के हित में फिर वैसी व्यवस्था कैसे की जा सकती है?

🔵 नासिरुद्दीन की दृढ़ता और सिद्धांतप्रियता के आगे बेगम को चुप रह जाना पड़ा। इससे वह असंतुष्ट नहीं वरन् पति से सच्चे देवत्व के दर्शन कर प्रसन्न ही हुई।

🔴 जब तक राजा रहा नासिरुद्दीन ने कभी भी वैभव का जीवन नहीं, बिताया। अपने अतिरिक्त व्यय की व्यवस्था वह अतिरिक्त परिश्रम से करता था। अवकाश के समय सिली हुई टोपियॉ, लिखी हुई कुरानों की बिक्री से जो धन मिलता था, नासिरुद्दीन उसे ही काम में लेता था। इस तरह उसने अधिकारी और प्रजा के बीच समन्वय का अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत किया।

🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 81, 82

👉 केवल लक्ष्य पर ध्यान लगाओ

🔴 एक बार स्वामी विवेकानंद अमेरिका में भ्रमण कर रहे थे। अचानक, एक जगह से गुजरते हुए उन्होंने पुल पर खड़े कुछ लड़कों को नदी में तैर रहे अंडे के छिलकों पर बन्दूक से निशाना लगाते देखा। किसी भी लड़के का एक भी निशाना सही नहीं लग रहा था। तब उन्होंने ने एक लड़के से बन्दूक ली और खुद निशाना लगाने लगे। उन्होंने पहला निशाना लगाया और वो बिलकुल सही लगा, फिर एक के बाद एक उन्होंने कुल 12 निशाने लगाए। सभी बिलकुल सटीक लगे।

🔵 ये देख लड़के दंग रह गए और उनसे पुछा – स्वामी जी, भला आप ये कैसे कर लेते हैं? आपने सारे निशाने बिलकुल सटीक कैसे लगा लिए? स्वामी विवेकनन्द जी बोले असंभव कुछ नहीं है, तुम जो भी कर रहे हो अपना पूरा दिमाग उसी एक काम में लगाओ। अगर तुम निशाना लगा रहे हो तो तम्हारा पूरा ध्यान सिर्फ अपने लक्ष्य पर होना चाहिए। तब तुम कभी चूकोगे नहीं। यदि तुम अपना पाठ पढ़ रहे हो तो सिर्फ पाठ के बारे में सोचो।

🌹 स्वामी विवेकानन्द के जीवन के प्रेरक प्रसंग

👉 सद्विचारों की सृजनात्मक शक्ति (भाग 36)

🌹 श्रेष्ठ व्यक्तित्व के आधार सद्विचार

🔴 अविचारी व्यक्ति कितने ही सुन्दर आचरण अथवा आडम्बर में छिपकर क्यों न रहे। उसकी अविचारिता उसके व्यक्तित्व में स्पष्ट झलकती रहेगी।

🔵 नित्य प्रति के सामान्य जीवन का अनुभव इस बात का साक्षी है। बहुत बार हम ऐसे व्यक्तियों के सम्पर्क में आ जाते हैं जो सुन्दर वेश-भूषा के साथ-साथ सूरत-शकल से भी बुरे और भद्दे नहीं होते, तब भी उनको देख कर हृदय पर अनुकूल प्रतिक्रिया नहीं होती। यदि हम यह जानते हैं कि हम बुरे आदमी नहीं हैं, और इस प्रतिक्रिया के पीछे हमारी विरोध भावना अथवा पक्षपाती दृष्टिकोण सक्रिय नहीं हैं, तो मानना पड़ेगा कि वे अच्छे विचार वाले नहीं हैं।

🔴 उनका हृदय उस प्रकार स्वच्छ नहीं है जिस प्रकार बाह्यवेष।  इसके विपरीत कभी-कभी ऐसा व्यक्ति सम्पर्क में आ जाता है जिसका बाह्य-वेष न तो सुन्दर होता है और न उसका व्यक्तित्व ही आकर्षक होता है तब भी हमारा हृदय उससे मिलकर प्रसन्न हो उठता है, उससे आत्मीयता का अनुभव होता है। इसका अर्थ यही है कि वह आकर्षण बाह्य का नहीं अन्तर का है, जिसमें सद्भावनाओं तथा सद्विचारों के फूल खिले हुए हैं।

इस विचार प्रभाव को इस प्रकार भी समझा जा सकता है कि जब एक सामान्य पथिक किसी ऐसे मार्ग से गुजरता है जहां पर अनेक मृगछौने खेल रहे हों, सुन्दर पक्षी कल्लोल कर रहे हों तो वे जीव उसे देखकर सतर्क भले हो जायें और उस अजनबी को विस्मय से देखने लगें किन्तु भयभीत कदापि नहीं होते। किन्तु यदि उसके स्थान पर जब कोई शिकारी अथवा गीदड़ आता है तो वे जीव भय से त्रस्त होकर भागने और चिल्लाने लगते हैं। वे दोनों ऊपर से देखने में एक जैसे मनुष्य ही होते हैं किन्तु विचार के अनुसार उनके व्यक्तित्व का प्रभाव भिन्न-भिन्न होता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 स्रष्टा का परम प्रसाद-प्रखर प्रज्ञा (भाग 14)

🌹 आत्मबल से उभरी परिष्कृत प्रतिभा

🔵 अध्यात्मबल का संपादन कठिन नहीं वरन् सरल है। उसके लिये आत्मशोधन एवं लोकमंगल के क्रियाकलापों को जीवनचर्या का अंग बना लेने भर से काम चलता है। व्यक्तित्व में पैनापन और प्रखरता का समावेश इन्हीं दो आधारों पर बन पड़ता है। यह बन पड़े तो दैवी अनुग्रह अनायास बरसता है और आत्मबल अपने भीतर से ही प्रचुर परिमाण में उभर पड़ता है। केवट, शबरी, गिलहरी, रीछ-वानर ग्वाल-बाल जैसों की भौतिक सामर्थ्य स्वल्प थी, पर वे अपने में देवत्व की मात्रा बढ़ा लेने पर ही इतने मनस्वी बन सके, जिनकी चर्चा इतिहासकार आये दिन करते रहते हैं।  

🔴 सुग्रीव की विजय के पीछे उसकी निज की बलिष्ठता मात्र ही कारण नहीं हुई थी। नरसी मेहता ने अभीष्ट धन अपने व्यवसाय से नहीं कमाया था। अमृतसर का स्वर्णमंदिर किसी एक धनवान् की कृति नहीं है। इनके पीछे देवत्व का अदृश्य सहयोग भी सम्मिलित रहा है। ध्रुव को ब्रह्मांड के केंद्र बनने का श्रेय उसके तपोबल के सहारे ही संभव हुआ था। अगस्त्य का समुद्रपान और परशुराम द्वारा अपने कुल्हाड़े के बल पर लाखों-करोड़ों का जो ‘ब्रेन वाशिंग’ हुआ था, उसे किन्हीं वक्ताओं के धर्मोपदेश से कम नहीं कहा जा सकता।   

🔵 सतयुग, ऋषियुग का ही प्रकट रूप है। असुरता की अभिवृद्धि होते ही कलहयुग-कलियुग आ धमकता है। उच्चस्तरीय प्रतिभाओं का पौरुष जब कार्यक्षेत्र में उतरता है तो न केवल कुछ व्यक्तियों व कुछ प्रतिभाओं को वरन् समूचे वातावरण को ही उलट-पुलट कर रख देता है। धोबी की भट्ठी पर चढ़ने से मैले कपड़ों को सफाई से चमचमाते देखा गया है। भट्ठी में तपने के बाद मिट्टी मिला बेकार लोहा फौलाद स्तर का बनता और उसके द्वारा कुछ न कुछ कर दिखाने वाले यंत्र उपकरण बनते हैं। आत्मशक्ति की प्रखरता को इसी स्तर का बताया और पाया गया है।    
   
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 दीक्षा और उसका स्वरूप (भाग 18)

🌹 दीक्षा के अंग-उपअंग

🔴 अब इसके बाद में यज्ञोपवीत को खोल दिया जाए और खोल करके अँगूठा, उँगली और दोनों हाथ के अँगूठे और उँगली के बीच में यज्ञोपवीत को फँसा दिया जाए। इस तरीके फँसाया जाए कि हथेली पर होकर के जनेऊ के धागे निकलते रहे और हाथ से इनको चौड़ा कर लिया जाए और हाथों को चौड़ा कर किया जाए और सीने के बराबर रखा जाए। ध्यान किया जाए कि यज्ञ नारायण इस यज्ञोपवीत में विराजमान हो रहे हैं। इस तरीके से यज्ञ नारायण के आवाहन का मंत्र बोला जाए- ॐ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः, तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्। ते ह नाकं महिमानः सचन्त, यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ॥ ॐ यज्ञ नारायणाय नमः।

🔵 अब इसके बाद में सूर्य नारायण का आवाहन करने के लिए दोनों हाथों को ऊपर उठा दिया जाए। आँखें बंद कर ली जाएँ और ध्यान किया जाए कि हमारे  इस यज्ञोपवीत में जो ऊपर तना हुआ है, इसमें सूर्य नारायण की शक्ति का आवाहन हो रहा है और यह मंत्र बोला जाए- ॐ आकृष्णेन रजसा वर्त्तमानो, निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च। हिरण्ययेन सविता रथेना, देवो याति भुवनानि पश्यन्॥ ॐ सूर्याय नमः।

🔴 इस तरीके से पाँच देवताओं का आवाहन करने के बाद पाँच व्यक्ति इन पाँच देवताओं के प्रतीक या प्रतिनिधि होकर अथवा पाँच सप्त जो शरीर में बने हुए उनके प्रतीक या प्रतिनिधि होकर व्यक्ति खड़े हो जाएँ और जिनको गायत्री मंत्र आता हो, यज्ञोपवीत पहनाने का मंत्र आता हो, उनको यज्ञोपवीत हाथ में ऊपर से ले लेना चाहिए। यज्ञोपवीत लेने वाले का दाहिना हाथ ऊपर रखवाना चाहिए और बायाँ हाथ नीचे कर देना चाहिए और पाँचों व्यक्ति को मिलाकर उसके बायें कंधे पर यज्ञोपवीत को धारण कराना चाहिए।

🔵 यज्ञोपवीत धारण कराने के समय ये मंत्र बोला जाए- ॐ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं, प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्। आयुष्यमग्र्यं प्रतिमुञ्च शुभ्रं, यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः। इस तरीके से यज्ञोपवीत पहना दिया जाए। बस यज्ञोपवीत संस्कार पूरा हो गया। यज्ञोपवीत संस्कार कराने के बाद यज्ञोपवीतधारी जिन्होंने यज्ञोपवीत लिये हैं, ये सिखाया जाना चाहिए कि यज्ञोपवीत के उद्देश्य क्या हैं और कर्तव्य क्या हैं?

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 75)

🌹 विचार क्रांति का बीजारोपण पुनः हिमालय आमंत्रण

🔴 मार्गदर्शक का आदेश वर्षों पूर्व ही मिल चुका था कि हमें छः माह के प्रवास के लिए पुनः हिमालय जाना होगा, पर पुनः मथुरा न लौटकर हमेशा के लिए वहाँ से मोह तोड़ते हुए हरिद्वार सप्त सरोवर में सप्तऋषियों की तपस्थली में ऋषि परम्परा की स्थापना करनी होगी। अपना सारा दायित्व हमने क्रमशः धर्मपत्नी के कंधों पर सौंपना काफी पूर्व से आरम्भ कर दिया था। वे पिछले तीन में से दो जन्मों में हमारी जीवन संगिनी बनकर रहीं थीं। इस जन्म में भी उन्होंने अभिन्न साथी-सहयोगी की भूमिका निभाई। वस्तुतः हमारी सफलता के मूल में उनके समर्पण-एकनिष्ठ सेवा भाव को देखा जाना चाहिए।

🔵 जो कुछ भी हमने चाहा, जिन प्रतिकूलताओं में जीवन जीने हेतु कहा, उन्होंने सहर्ष अपने को उस क्रम में ढाल लिया। हमारी पारिवारिक पृष्ठभूमि ग्रामीण जमींदार के घराने की थी, तो उनकी एक धनी शहरी खानदान की, परन्तु जब घुलने का प्रश्न आया तो दोनों मिलकर एक हो गए। हमने अपने गाँव की भूमि विद्यालय हेतु दे दी एवं जमींदारी बांड से मिली राशि गायत्री तपोभूमि के लिए जमीन खरीदने हेतु। तो उन्होंने अपने सभी जेवर तपोभूमि का भवन विनिर्मित होने के लिए दे दिए। यह त्याग-समर्पण उनका है, जिसने हमें इतनी बड़ी ऊँचाइयों तक पहुँचाने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

🔴 अपनी तीसरी हिमालय यात्रा में उन्होंने हमारी अनुपस्थिति में सम्पादन-संगठन की जिम्मेदारी सँभाली ही थी। अब हम 10 वर्ष बाद 1971 में एक बहुत बड़ा परिवार अपने पीछे छोड़कर हिमालय जा रहे थे। गायत्री परिवार को दृश्य रूप में एक संरक्षक चाहिए, जो उन्हें स्नेह-ममत्व दे सके। उनकी दुःख भरी वेदना में आँसू पोंछने का कार्य माता ही कर सकती थी। माता जी ने यह जिम्मेदारी भलीभाँति सँभाली। प्रवास पर जाने के 3 वर्ष पूर्व से ही हम लम्बे दौरे पर रहा करते थे। ऐसे में मथुरा आने वाले परिजनों से मिलकर उन्हें दिलासा देने का कार्य वे अपने कंधों पर ले चुकी थीं।

🔵 हमारे सामाजिक जीवन जीने में हमें उनका सतत सहयोग ही मिला। 200 रुपए में पाँच व्यक्तियों का गुजारा परिवार का भरण पोषण किया, आने वालों का समुचित आतिथ्य सत्कार भी वे करती रहीं। किसी को निराश नहीं लौटने दिया। मथुरा में जिया हमारा जीवन एक अमूल्य धरोहर के रूप में है। इसने न केवल हमारी भावी क्रान्तिकारी जीवन की नींव डाली, अपितु क्रमशः प्रत्यक्ष पीछे हटने की स्थिति में दायित्व सँभाल सकने वाले मजबूत कंधों वाले नर तत्त्व भी हाथ लगे।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 "सुनसान के सहचर" (भाग 76)

🌹 हमारे दृश्य जीवन की अदृश्य अनुभूतियाँ

🔴 न जाने क्या रहस्य था कि हमें हमारे मार्गदर्शन ने उठाती आयु मे तपश्चर्या के कठोर प्रयोजन में ४० साल की उम्र पूरी हुई। हो सकता है वर्चस्व और नेतृत्व के अहंकार का महत्त्वाकाँक्षाओं और और प्रलोभनों मे ,, बह जाने का खतरा समझा गया हो। हो सकता है आन्तरिक अपरिपक्वता- आत्मिक बलिष्ठता पाये बिना कुछ बड़ा काम न बन पड़ने की आशंका की गई हो। हो सकता है महान कार्यों के लिए अत्यन्त आवश्यक संकल्प बल, धैर्य, साहस और सन्तुलन न रखा गया हो। जो हो अपनी उठती आयु उस साधना क्रम में बीत गई जिसकी चर्चा कई बार कर चुके थे।   

🔵 उस अवधि में सब कुछ सामान्य चला, असामान्य एक ही था हमारा गौ घृत से अहर्निश जलने वाला अखण्ड दीपक। पूजा की कोठरी में वह निरंतर जलता रहता। इस वैज्ञानिक या आध्यात्मिक रहस्य क्या था?कुछ ठिक से नहीं कर सकते। गुरु सो गुरु, आदेश सो आदेश, अनुशासन सो अनुशासन, समर्पण सो समर्पण। एक बार जब ठोक- बजा लिया और समझ लिया की इसकी नाव पर बैठने पर डुबने का खतरा नहीं हैं तो  फिर आँख मुँदकर बैठ ही गये। फौजी सैनिक को अनुशासन प्राणों से भी अधिक प्यारा होता है। अपनी अन्धश्रद्धा कहिए या अनुशासन प्रियता या जीवन की दिशा निर्धारित कर दी गई,कार्य पद्धति जो बता दी गई उसे सर्वस्व मानकर पूरी निष्ठा और तत्परता के साथ करते चले गये। अखण्ड दीपक की साधना- कक्ष में स्थापना भी इसी प्रक्रिया के अन्तर्गत आती है। 

🔴 मार्गदर्शक पर विश्वास किया, उसे अपने आपको सौंप दिया, तो उखाड़- पछाड़ ,क्रिया- तर्क में सन्देह क्यों? वह अपने से बन नहीं पड़ा। जो साधना हमें बताई गई उसमें अखण्ड दीपक का महत्त्व है, इतना बता देने पर उसकी स्थापना कर ली गई और पुरश्चरणों की पूरी अवधि तक उसे ठीक तरह जलाये रखा गया। पीछे तो यह प्राणप्रिय बन गया। २४ वर्ष बीत जाने पर उसे बुझाया जा सकता था,पर यह कल्पना भी ऐसी लगती है कि हमारा प्राण ही बुझ जायेगा सो उसे आजीवन चालू रखा जायेगा। हम अज्ञातवास गए थे, अब अब फिर जा रहे है तो उसे धर्मपत्नी सँजोए रखेगी। यदि एकाकी रहे होते,पत्नी न होती तो और कुछ साधना न बन सकती थी।

🔵 अखण्ड दीपक सँजोए रखना  कठिन था कर्मचारी, शिष्य या दूसरे श्रद्धालु एवं आन्तरिक दृष्टि से दुर्बल लोग ऐसी दिव्य अग्नि को सँजोए नहीं रह सकते। अखण्ड दीपक स्थापित करने वालो में से अनेकों के जलते- बुझते रहते हैं,वे नाममात्र के ही अखण्ड है। अपनी ज्योति अखण्ड बनी रहे- इसका करण बाह्य सतर्कता नहीं, अन्तर्निष्ठा ही समझी जानी चाहिए, जिसे अक्षुण्य रखने में हमारी धर्मपत्नी ने असाधारण योगदान दिया है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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