👉 भौतिकवाद की उलटबाँसियाँ
🔷 अवांछनीयता अपनाकर कमाई हुई सफलता तत्काल न सही थोड़ी ही देर में थोड़ा ही आगे बढ़कर ऐसे संकट सामने ला खड़े करती है, जिनसे उबरना कठिन हो जाता है। पर उनके लिए क्या कहा और क्या किया जाए जिनकी मन्द दृष्टि मात्र कुछ ही इंच-फुट तक का देख सकने में साथ देती है। आगे चलकर कितने बड़े खाईं-खन्दक हैं। जिनमें एक बार गिर पड़ने पर कोई सहायता के लिए भी आगे नहीं आता है और जिस-तिस को कोसते हुए भयावह अंत का सामना करना पड़ता है। इन दिनों ऐसी ही कुछ गजब की गाज गिरी है। विज्ञान के आधार पर मिली, नीतिमत्ता से सर्वथा विलग सफलताओं ने कुछ ऐसा व्यामोह उत्पन्न कर दिया है कि लोग कुमार्ग पर चलते और दुर्गति के भाजन बनते देखे जाते हैं। प्रचलन यही बना रहा तो उसका दुष्परिणाम व्यक्ति और समाज के सम्मुख इस स्तर की विभीषिका बनकर सामने आएगा, जिससे बाद में उबर सकना शायद सम्भव ही न रहेगा। तथाकथित प्रगति अवगति से भी अधिक महँगी पड़ेगी।
🔶 इन दिनों हर क्षेत्र में प्रवेश किए हुए समस्याओं, अवांछनीयताओं, विडम्बनाओं के लिए दोष किसे दिया जाए? और उसका समाधान कहाँ ढूँढ़ा जाए? इस सन्दर्भ में मोटे तौर से एक ही बात कही जा सकती है कि प्रत्यक्षवाद की पृष्ठभूमि पर जन्मे भौतिकवाद ने लगभग सभी नैतिक मूल्यों की उपयोगिता, आवश्यकता मानने से इंकार कर दिया है। उसी प्रत्यक्षवादिता को प्रामाणिकता का एक स्वरूप मानने वाले जन-समुदाय ने हर प्रसंग में यही नीति अपना ली है कि प्रत्यक्ष एवं तात्कालिक लाभ को ही सब कुछ माना जाए।
🔷 जिसमें हाथों-हाथ भौतिक लाभ मिलने की बात बनती हो, उसी को स्वीकारा जाए। इस कसौटी पर नीति, सदाचार, उदारता, संयम जैसे उच्च आदर्शों के लिए कोई जगह नहीं रह जाती है। इस प्रत्यक्षवादी तत्त्वदर्शन ने ही मनुष्य को स्वेच्छाचारी बनने के लिए प्रोत्साहित किया है। उन परम्पराओं को छिन्न-भिन्न करके रख दिया है, जो मानवी गरिमा के अनुरूप मर्यादाओं के परिपालन एवं वर्जनाओं का परित्याग करने के लिए दबाव डालती और सहायता करती थीं।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 परिवर्तन के महान् क्षण पृष्ठ 11
🔷 अवांछनीयता अपनाकर कमाई हुई सफलता तत्काल न सही थोड़ी ही देर में थोड़ा ही आगे बढ़कर ऐसे संकट सामने ला खड़े करती है, जिनसे उबरना कठिन हो जाता है। पर उनके लिए क्या कहा और क्या किया जाए जिनकी मन्द दृष्टि मात्र कुछ ही इंच-फुट तक का देख सकने में साथ देती है। आगे चलकर कितने बड़े खाईं-खन्दक हैं। जिनमें एक बार गिर पड़ने पर कोई सहायता के लिए भी आगे नहीं आता है और जिस-तिस को कोसते हुए भयावह अंत का सामना करना पड़ता है। इन दिनों ऐसी ही कुछ गजब की गाज गिरी है। विज्ञान के आधार पर मिली, नीतिमत्ता से सर्वथा विलग सफलताओं ने कुछ ऐसा व्यामोह उत्पन्न कर दिया है कि लोग कुमार्ग पर चलते और दुर्गति के भाजन बनते देखे जाते हैं। प्रचलन यही बना रहा तो उसका दुष्परिणाम व्यक्ति और समाज के सम्मुख इस स्तर की विभीषिका बनकर सामने आएगा, जिससे बाद में उबर सकना शायद सम्भव ही न रहेगा। तथाकथित प्रगति अवगति से भी अधिक महँगी पड़ेगी।
🔶 इन दिनों हर क्षेत्र में प्रवेश किए हुए समस्याओं, अवांछनीयताओं, विडम्बनाओं के लिए दोष किसे दिया जाए? और उसका समाधान कहाँ ढूँढ़ा जाए? इस सन्दर्भ में मोटे तौर से एक ही बात कही जा सकती है कि प्रत्यक्षवाद की पृष्ठभूमि पर जन्मे भौतिकवाद ने लगभग सभी नैतिक मूल्यों की उपयोगिता, आवश्यकता मानने से इंकार कर दिया है। उसी प्रत्यक्षवादिता को प्रामाणिकता का एक स्वरूप मानने वाले जन-समुदाय ने हर प्रसंग में यही नीति अपना ली है कि प्रत्यक्ष एवं तात्कालिक लाभ को ही सब कुछ माना जाए।
🔷 जिसमें हाथों-हाथ भौतिक लाभ मिलने की बात बनती हो, उसी को स्वीकारा जाए। इस कसौटी पर नीति, सदाचार, उदारता, संयम जैसे उच्च आदर्शों के लिए कोई जगह नहीं रह जाती है। इस प्रत्यक्षवादी तत्त्वदर्शन ने ही मनुष्य को स्वेच्छाचारी बनने के लिए प्रोत्साहित किया है। उन परम्पराओं को छिन्न-भिन्न करके रख दिया है, जो मानवी गरिमा के अनुरूप मर्यादाओं के परिपालन एवं वर्जनाओं का परित्याग करने के लिए दबाव डालती और सहायता करती थीं।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 परिवर्तन के महान् क्षण पृष्ठ 11