मंगलवार, 5 फ़रवरी 2019

👉 गेंहू के दाने: -

एक समय की बात है जब श्रावस्ती नगर के एक छोटे से गाँव में अमरसेन नामक व्यक्ति रहता था। अमरसेन बड़ा होशियार था, उसके चार पुत्र थे जिनके विवाह हो चुके थे और सब अपना जीवन जैसे-तैसे निर्वाह कर रहे थे परन्तु समय के साथ-साथ अब अमरसेन वृद्ध हो चला था! पत्नी के स्वर्गवास के बाद उसने सोचा कि अब तक के संग्रहित धन और बची हुई संपत्ती का उत्तराधिकारी किसे बनाया जाये?

ये निर्णय लेने के लिए उसने चारो बेटों को उनकी पत्नियों के साथ बुलाया और एक-एक करके गेहूं के पाँच दानें दिए और कहा कि मै तीरथ पर जा रहा हूँ और चार साल बाद लौटूंगा और जो भी इन दानों की सही हिफाजत करके मुझे लौटाएगा तिजोरी की चाबियाँ और मेरी सारी संपत्ती उसे ही मिलेगी, इतना कहकर अमरसेन वहां से चला गया।

पहले बहु- बेटे ने सोचा बुड्ढा सठिया गया है चार साल तक कौन याद रखता है हम तो बड़े हैं तो धन पर पहला हक़ हमारा ही है। ऐसा सोचकर उन्होंने गेहूं के दानें फेक दिये।

दूसरे ने सोचा की संभालना तो मुश्किल है यदि हम इन्हे खा लें तो शायद उनको अच्छा लगे और लौटने के बाद हमें आशीर्वाद देदे और कहे की तुम्हारा मंगल इसी में छुपा था और सारी संपत्ती हमारी हो जाएगी यह सोचकर उन्होंने वो पाँच दानें खा लिये।

तीसरे ने सोचा हम रोज पूजा पाठ तो करते ही हैं और अपने मंदिर में जैसे ठाकुरजी को सँभालते हैं, वैसे ही ये गेहूं भी संभाल लेंगे और उनके आने के बाद लौटा देंगे।

चौथे बहु- बेटे ने समझदारी से सोचा और पाचों दानो को एक एक कर जमीन में बो दिया और देखते-देखते वे पौधे बड़े हो गये और कुछ गेहूं ऊग आये फिर उन्होंने उन्हें भी बो दिया इस तरह हर वर्ष गेहूं की बढ़ोतरी होती गई पाँच दानें पाँच बोरी, पच्चीस बोरी,और पचासों बोरियों में बदल गए।

चार साल बाद जब अमरसेन वापस आया तो सबकी कहानी सुनी और जब वो चौथे बहु-बेटों के पास गया तो बेटा बोला , ” पिताजी , आपने जो पांच दाने दिए थे अब वे गेंहूँ की पचास बोरियों में बदल चुके हैं, हमने उन्हें संभल कर गोदाम में रख दिया है, उनपर आप ही का हक़ है। ” यह देख अमरसेन ने फ़ौरन तिजोरी की चाबियाँ सबसे छोटे बहु-बेटे को सौंप दी और कहा, तुम ही लोग मेरी संपत्ति के असल हक़दार हो।

इस कहानी से हमें शिक्षा मिलती है कि मिली हुई जिम्मेदारी को अच्छी तरह से निभाना चाहिए और मौजूद संसाधनो, चाहे वो कितने कम ही क्यों न हों, का सही उपयोग करना चाहिए। गेंहूँ के पांच दाने एक प्रतीक हैं, जो समझाते हैं कि कैसे छोटी से छोटी शुरआत करके उसे एक बड़ा रूप दिया जा सकता है।


आपको अपने परिवार में देखकर हमको बहुत प्रसन्नता होती है
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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https://youtu.be/UrTJjrUj7IU

👉 जैसे जैसे मेरी उम्र में वृद्धि होती गई

मुझे समझ आती गई कि अगर मैं Rs. 300 की घड़ी पहनूं या Rs. 30000 की, दोनों समय एक जैसा ही बताएंगी,

मेरे पास Rs. 300 का बैग हो या Rs. 30000 का, इसके अंदर के सामान में कोई परिवर्तन नहीं होंगा"

मैं 300 गज के मकान में रहूं या 3000 गज के मकान में, तन्हाई का एहसास एक जैसा ही होगा,

आख़िर में मुझे यह भी पता चला कि यदि मैं बिजनेस क्लास में यात्रा करूं या इक्नामी क्लास में, अपनी मंजिल पर उसी नियत समय पर ही पहुँचूँगा....

इसीलिए, अपने बच्चों को बहुत ज्यादा अमीर होने के लिए प्रोत्साहित मत करो बल्कि उन्हें यह सिखाओ कि वे खुश कैसे रह सकते हैं और जब बड़े हों, तो चीजों के महत्व को देखें, उसकी कीमत को नहीं,

फ्रांस के एक वाणिज्य मंत्री का कहना था -

ब्रांडेड चीजें व्यापारिक दुनिया का सबसे बड़ा झूठ होती हैं, जिनका असल उद्देश्य तो अमीरों की जेब से पैसा निकालना होता है, लेकिन गरीब और मध्यम वर्ग लोग इससे बहुत ज्यादा प्रभावित होते हैं।

क्या यह आवश्यक है कि मैं I phone लेकर चलूं फिरू, ताकि लोग मुझे बुद्धिमान और समझदार मानें?

क्या यह आवश्यक है कि मैं रोजाना Mac'd या KFC में खाऊँ ताकि लोग यह न समझें कि मैं कंजूस हूँ?

क्या यह आवश्यक है कि मैं प्रतिदिन Friends के साथ उठक-बैठक Downtown Cafe पर जाकर लगाया करूँ, ताकि लोग यह समझें कि मैं एक रईस परिवार से हूँ?

क्या यह आवश्यक है कि मैं Gucci, Lacoste, Adidas या Nike का ही पहनूं ताकि High Status वाला कहलाया जाऊँ?

क्या यह आवश्यक है कि मैं अपनी हर बात में दो चार अंग्रेजी शब्द शामिल करूँ ताकि सभ्य कहलाऊं?

क्या यह आवश्यक है कि मैं Adele या Rihanna को सुनूँ ताकि साबित कर सकूँ कि मैं विकसित हो चुका हूँ?

नहीं दोस्तों !!

मेरे कपड़े तो आम दुकानों से खरीदे हुए होते हैं।
Friends के साथ किसी ढाबे पर भी बैठ जाता हूँ।

भुख लगे तो किसी ठेले से ले कर खाने में भी कोई अपमान नहीं समझता।

अपनी सीधी सादी भाषा मे बोलता हूँ।

चाहूँ तो वह सब कर सकता हूँ जो ऊपर लिखा है।

लेकिन,

मैंने ऐसे लोग भी देखे हैं जो एक Branded जूतों की जोड़ी की कीमत में पूरे सप्ताह भर का राशन ले सकते हैं।

मैंने ऐसे परिवार भी देखे हैं जो मेरे एक Mac'd के बर्गर की कीमत में सारे घर का खाना बना सकते हैं,

बस मैंने यहाँ यह रहस्य पाया है कि बहुत सारा पैसा ही सब कुछ नहीं है, जो लोग किसी की बाहरी हालत से उसकी कीमत लगाते हैं, वह तुरंत अपना इलाज करवाएं"

मानव मूल की असली कीमत उसकी नैतिकता, व्यवहार, मेलजोल का तरीका, सहानुभूति और भाईचारा है, ना कि उसकी मौजुदा शक्ल और सूरत, सूर्यास्त के समय एक बार सूर्य ने सबसे पूछा, मेरी अनुपस्थिति में मेरी जगह कौन कार्य करेगा ?

समस्त विश्व मे सन्नाटा छा गया। किसी के पास कोई उत्तर नहीं था। तभी कोने से एक आवाज आई।

दीये ने कहा - "मै हूं  ना" मैं अपना पूरा प्रयास करुंगा"

आपकी सोच में ताकत और चमक होनी चाहिए
छोटा-बड़ा होने से फर्क नहीं पड़ता, सोच बड़ी होनी चाहिए,
मन के भीतर एक दीप जलाएं और सदा मुस्कुराते रहिए"

जियो और जीने दो 🙏 🙏


बड़े कार्य के लिये सहयोगी चाहिये
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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https://youtu.be/UZ2ypr0UAXE

👉 आज का सद्चिंतन 5 Feb 2019


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 5 Feb 2019


👉 नारद मोह

एक बार नारद को काम वासना पर विजय पाने का अहंकार हो गया था। उन्होंने भगवान् विष्णु के समक्ष भी अभिमान सहित प्रकट कर दिया। भगवान् ने सोचा कि भक्त के मन में मोह- अहंकार नहीं रहने देना चाहिए। उन्होंने अपनी माया का प्रपंच रचा। सौ योजन वाले अति सुरम्य नगर में शीलनिधि नामक राजा राज्य करता था। उसकी पुत्री परम सुन्दरी विश्व मोहिनी का स्वयम्बर हो रहा था। उसे देखकर नारद के मन में मोह वासना जागृत हो गयी। वे सोचने लगे कि नृपकन्या किसी विधि उनका वरण कर ले। भगवान को अपना हितैषी जानकर नारद ने प्रार्थना की। भगवान प्रकट हो गए और उनके हित साधन का आश्वासन देकर चले गए।

मोहवश नारद भगवान की गढ़ बात को समझ नहीं सके। वे आतुरतापूर्वक स्वयंवर भूमि में पहुँचे। नृप बाला ने नारद का बन्दर का सा मुँह देखकर उधर से बिछल ही मुँह फेर लिया। नारद बार- बार उचकते- मचकते रहे। विष्णु भगवान नर- वेष में आये। नृप सुता ने उनके गले में जयमाला डाल दी। वे उसे ब्याह कर चल दिये। अपनी इच्छा पूरी न होने पर नारदजी को गुस्सा आ गया और मार्ग में नृप- कन्या के साथ जाते हुए विष्णु भगवान को शाप दे डाला। भगवान ने मुस्करा कर अपनी माया समेट ली। अब वे अकेले खड़े थे। नारदजी की आँखें खुली की खुली रह गयीं। उन्होंने बार- बार क्षमायाचना की, कहा- भगवन्। मेरी कोई व्यक्तिगत इच्छा न रहे, आपकी इच्छा ही मेरी अभिलाषा हो, लोकं- मंगल की कामना ही हमारे मन में रहे।

नारद भगवान से निर्देश- सन्देश लेकर जन- जन तक उसे पहुँचाने के लिए उल्लास के साथ धरती पर आये एवं व्यक्ति के रूप में नहीं अपितु समष्टि में संव्याप्त चेतन प्रवाह के रूप में व्यापक बने। आज ध्वंस की तमिस्रा के मध्य जो नव सृजन का आलोक बिखरा दिखाई पड़ रहा है, वह इसी का प्रतिफल है।

📖 प्रज्ञा पुराण भाग १

👉 The Only Source of Inner Joy

God has set a marvelous interdependence within and between the conscious and the inanimate components of Nature in order to maintain the eternal beauty and harmonious functioning of His grand creation. The uncountable numbers of stars and planets revolving in the limitless Universe are mutually connected by natural forces of attraction. Any break in this connectivity would disturb the maintained equilibrium and stability and result in gigantic collision and devastation of the universal system.

The same is true of the mutual affinity of the living beings. Just imagine! If a mother does not have a feeling of love or affection for her child, or there is no binding of love between husband and wife, brother and brother, and other family members, then what will be the state of family institution? Lack of the feelings of affectionate caring, amity, cooperation, etc would ruin the entire social system as the letter is founded on these sentiments and consequent unity of its members. Dry-hearts and cruelty would destroy the sense of beauty from Nature…

A sublime spring of pure love is flowing deep within every heart. If we like to be happy, and prosper in an ambience of peace, we will have to awaken the feeling of love in our heart; this should not be an emotional excitement, rather, a feeling of compassion, generosity, honesty, humility, sensitivity, care and respect for others. Those who adopted this divine attitude on every front of their life are truly religious and followers of God. The world reciprocates to them accordingly. Every moment, every circumstance is auspicious for them.

Akhand Jyoti, Feb. 1944

हमारी निराशा को दूर करिये जिंदा शक्तिपीठ बनाईये
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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https://youtu.be/EUfOL150df4

👉 आत्मचिंतन के क्षण 5 Feb 2019

■ अनेक लोग जरा-सा संकट आते ही बुरी तरह घबरा जाते हैं। हाय-हाय करने लगते हैं, उसे ईश्वर का प्रकोप मानकर भला-बुरा कहने लगते हैं। निराश-हतोत्साह होकर ईश्वर के प्रति अनास्थावान् होने लगते हैं-यह ठीक नहीं। आपत्तियाँ संसार में सहज संभाव्य हैं। किसी समय भी आ सकती हैं। उन्हें ईश्वर का अपने बच्चों के साथ एक खेल समझना चाहिए। उनका आशय यही होता है कि बच्चे भयावह स्थितियों के अभ्यस्त हो जायें और डरने की उनकी आदत छूट जाये।

□ निर्भयता उत्कृष्ट मानसिक स्थिति का परिणाम है। यह एक नैतिक सद्गुण है, जो बड़े तप और त्याग से प्राप्त होता है। मन का जितना विकास होता जाएगा, उसी अनुपात से निर्भयता की उपलब्धि होगी। उत्कृष्ट आदर्श-सिद्धान्तों की रक्षा के लिए जितना उत्सर्ग, त्याग, कष्ट, सहिष्णुता होगी, उसी के अनुसार निर्भयता प्राप्त होती जाएगी।

◆ पाप कर्मों के लिए अपना अंतःकरण जिसे धिक्कारता और प्रताड़ित करता रहता है, वह मनुष्य सोते-जागते कभी चैन नहीं पा सकता। दमा और दर्द के रोगी की भाँति पापी को भी न रात में, न दिन में कभी भी चैन नहीं मिलता है। वह भीतर ही भीतर अपने आप ही अपनी शक्ति को कुतरता रहता है।

◇ भाग्य और कुछ नहीं, कल के लिए हुए पुरुषार्थ का आज का परिपक्व स्वरूप ही भाग्य है। जो आज भाग्यवान् दीखते हैं, उन्हें वह सौभाग्य अनायास ही नहीं मिला है। विधाता ने कोई पक्षपात भी उनके साथ नहीं किया है। उनके पूर्व पुरुषार्थ ही आज सौभाग्य के रूप में परिलक्षित हो रहे हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

आपके पूर्व संस्कारो से हमने आप को ढूंढा है
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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https://youtu.be/v-bV4h-X9Eg

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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