सोमवार, 1 जुलाई 2019
👉 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति (भाग 19)
👉 चित्त के संस्कारों की चिकित्सा
चित्त के संस्कार कर्मबीज हैं। इन्हीं के अनुरूप व्यक्ति की मनःस्थिति एवं परिस्थिति का निर्माण होता है। जन्म और जीवन के अनगिन रहस्य इन संस्कारों में ही समाए हैं। जिस क्रम में संस्कार जाग्रत् होते हैं, कर्म बीज अंकुरित होते हैं, उसी क्रम में मनःस्थिति परिवर्तित होती है, परिस्थितियों में नए मोड़ आते हैं। जन्म के समय की परिस्थितियाँ, माता- पिता का चयन, गरीबी- अमीरी की स्थिति जीवात्मा के संस्कारों के अनुरूप बनती है। कालक्रम में इनकी नयी- नयी परतें खुलती हैं। अपनी परिपक्वता के क्रम में कर्मबीजों का अंकुरण होता है और जीवन में परिवर्तन आते रहते हैं। किसी भी आध्यात्मिक चिकित्सक के लिए इन संस्कारों के विज्ञान को जानना निहायत जरूरी है। यह इतना आवश्यक है कि इसके बिना किसी की आध्यात्मिक चिकित्सा सम्भव ही नहीं हो सकती।
किसी भी व्यक्ति का परिचय उसके व्यवहार से मिलता है। इसी आधार पर उसके गुण- दोष देखे- जाने और आँके जाते हैं। हालाँकि व्यवहार के प्रेरक विचार होते हैं और विचारों की प्रेरक भावनाएँ होती हैं। और इन विचारों और भावनाओं का स्वरूप व्यक्ति के संस्कार तय करते हैं। इस गहराई तक कम ही लोगों का ध्यान जाता है। सामान्य जन तो क्या विशेषज्ञों से भी यह चूक हो जाती है। किसी के जीवन का ऑकलन करते समय प्रायः व्यवहार एवं विचारों तक ही अपने को समेट लिया जाता है। मनोवैज्ञानिकों की सीमाएँ यहीं समाप्त हो जाती हैं। परन्तु अध्यात्म विज्ञानी अपने ऑकलन संस्कारों के आधार पर करते हैं। क्योंकि आध्यात्मिक चिकित्सा के आधारभूत ढाँचे का आधार यही है।
ध्यान रहे, व्यक्ति की इन अतल गहराइयों तक प्रवेश भी वही कर पाते हैं, जिनके पास आध्यात्मिक दृष्टि एवं शक्ति है। आध्यात्मिक ऊर्जा की प्रबलता के बिना यह सब सम्भव नहीं हो पाता। कैसे अनुभव करें चित्त के संस्कारों एवं इनसे होने वाले परिवर्तन को? तो इसका उत्तर अपने निजी जीवन की परिधि एवं परिदृश्य में खोजा जा सकता है। विचार करें कि अपने बचपन की चाहतें और रूचियाँ क्या थीं? आकांक्षाएँ और अरमान क्या थे? परिस्थितियाँ क्या थीं? इन सवालों की गहराई में उतरेंगे तो यह पाएँगे कि परिस्थितियों का ताना- बाना प्रायः मनःस्थिति के अनुरूप ही बुना हुआ था। मन की मूलवृत्तियों के अनुरूप ही परिस्थितियों का शृंगार हुआ था। और ये मूल वृत्तियाँ हमारे अपने संस्कारों के अनुरूप ही थीं।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति अप्रैल 1967 पृष्ठ 30
चित्त के संस्कार कर्मबीज हैं। इन्हीं के अनुरूप व्यक्ति की मनःस्थिति एवं परिस्थिति का निर्माण होता है। जन्म और जीवन के अनगिन रहस्य इन संस्कारों में ही समाए हैं। जिस क्रम में संस्कार जाग्रत् होते हैं, कर्म बीज अंकुरित होते हैं, उसी क्रम में मनःस्थिति परिवर्तित होती है, परिस्थितियों में नए मोड़ आते हैं। जन्म के समय की परिस्थितियाँ, माता- पिता का चयन, गरीबी- अमीरी की स्थिति जीवात्मा के संस्कारों के अनुरूप बनती है। कालक्रम में इनकी नयी- नयी परतें खुलती हैं। अपनी परिपक्वता के क्रम में कर्मबीजों का अंकुरण होता है और जीवन में परिवर्तन आते रहते हैं। किसी भी आध्यात्मिक चिकित्सक के लिए इन संस्कारों के विज्ञान को जानना निहायत जरूरी है। यह इतना आवश्यक है कि इसके बिना किसी की आध्यात्मिक चिकित्सा सम्भव ही नहीं हो सकती।
किसी भी व्यक्ति का परिचय उसके व्यवहार से मिलता है। इसी आधार पर उसके गुण- दोष देखे- जाने और आँके जाते हैं। हालाँकि व्यवहार के प्रेरक विचार होते हैं और विचारों की प्रेरक भावनाएँ होती हैं। और इन विचारों और भावनाओं का स्वरूप व्यक्ति के संस्कार तय करते हैं। इस गहराई तक कम ही लोगों का ध्यान जाता है। सामान्य जन तो क्या विशेषज्ञों से भी यह चूक हो जाती है। किसी के जीवन का ऑकलन करते समय प्रायः व्यवहार एवं विचारों तक ही अपने को समेट लिया जाता है। मनोवैज्ञानिकों की सीमाएँ यहीं समाप्त हो जाती हैं। परन्तु अध्यात्म विज्ञानी अपने ऑकलन संस्कारों के आधार पर करते हैं। क्योंकि आध्यात्मिक चिकित्सा के आधारभूत ढाँचे का आधार यही है।
ध्यान रहे, व्यक्ति की इन अतल गहराइयों तक प्रवेश भी वही कर पाते हैं, जिनके पास आध्यात्मिक दृष्टि एवं शक्ति है। आध्यात्मिक ऊर्जा की प्रबलता के बिना यह सब सम्भव नहीं हो पाता। कैसे अनुभव करें चित्त के संस्कारों एवं इनसे होने वाले परिवर्तन को? तो इसका उत्तर अपने निजी जीवन की परिधि एवं परिदृश्य में खोजा जा सकता है। विचार करें कि अपने बचपन की चाहतें और रूचियाँ क्या थीं? आकांक्षाएँ और अरमान क्या थे? परिस्थितियाँ क्या थीं? इन सवालों की गहराई में उतरेंगे तो यह पाएँगे कि परिस्थितियों का ताना- बाना प्रायः मनःस्थिति के अनुरूप ही बुना हुआ था। मन की मूलवृत्तियों के अनुरूप ही परिस्थितियों का शृंगार हुआ था। और ये मूल वृत्तियाँ हमारे अपने संस्कारों के अनुरूप ही थीं।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति अप्रैल 1967 पृष्ठ 30
👉 इस आपत्ति−काल में हम थोड़ा साहस तो करें ही! (भाग 3)
साधु−संस्था को पुनर्जीवित करने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं, जिसके सहारे आपत्ति ग्रस्त मानवता की प्राणरक्षा की जा सके। समस्याओं के काल−पाश में गर्दन फंसाये हुए इस सुन्दर विश्व को मरण से केवल साधु ही बचा सकता है। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए एक दूसरे का मुँह न ताका जाय, वरन् इस आपत्ति−काल से जूझने के लिए अपना ही कदम बढ़ाया जाय।
अखण्ड−ज्योति परिवार की मणिमाला से एक से एक बढ़कर रत्न मौजूद है। समय आने पर उनके मूल्यवान् अस्तित्व का परिचय हर किसी को मिल सकता हे। अब उसी का समय आ पहुँचा। हमें समय की पुकार पूरी करने के लिए स्वयं ही आगे आना चाहिए।
यो साधु और ब्राह्मण का एक समान जीवन−क्रम होता है और उसी विधि से पूरी जिन्दगी की रूपरेखा बनाने की प्रथा है। पर आपत्ति धर्म के अनुसार सीमित समय के लिए उस क्षेत्र में प्रवेश करने और फिर वापिस अपने समय स्थान पर लौट आने की पद्धति अपनानी पड़ेगी। या तो पूरा या कुछ नहीं की, बात पर अड़ने की आवश्यकता सदा नहीं होती। मध्यम मार्ग पर चलने से कुछ तो लाभ होना ही है। पूरी न मिले तो अधूरी से काम चलाने की नीति है। युद्धकाल में प्रत्येक वयस्क नागरिक को बाधित रूप से सेना में भर्ती होने का आदेश दिया जा सकता है। जब तक संकट−काल रहता है तब तक वे सामान्य नागरिक सेना में भर्ती रहते है। स्थिति सुधरते ही वे सेना छोड़कर घर वापिस आ जाते है और अपने साधारण कार्यों में लग जाते है। साधु−संकट के इस महान् दुर्भिक्ष में भी हम सामान्य नागरिकों को थोड़े−थोड़े समय के लिए उन उत्तरदायित्वों का निर्वाह करने के लिए आगे आना चाहिए। एक−एक घण्टा श्रमदान करके जब बड़े−बड़े सार्वजनिक प्रयोजन पूरे किये जा सकते है तो कोई कारण नहीं कि हम सब स्वल्प−कालीन व्रत धारण करके साधु−संस्था पर छाये हुए दुर्लभ संकट का निवारण करने के लिए कुछ न सके।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1974 पृष्ठ 23
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1974/January/v1.23
अखण्ड−ज्योति परिवार की मणिमाला से एक से एक बढ़कर रत्न मौजूद है। समय आने पर उनके मूल्यवान् अस्तित्व का परिचय हर किसी को मिल सकता हे। अब उसी का समय आ पहुँचा। हमें समय की पुकार पूरी करने के लिए स्वयं ही आगे आना चाहिए।
यो साधु और ब्राह्मण का एक समान जीवन−क्रम होता है और उसी विधि से पूरी जिन्दगी की रूपरेखा बनाने की प्रथा है। पर आपत्ति धर्म के अनुसार सीमित समय के लिए उस क्षेत्र में प्रवेश करने और फिर वापिस अपने समय स्थान पर लौट आने की पद्धति अपनानी पड़ेगी। या तो पूरा या कुछ नहीं की, बात पर अड़ने की आवश्यकता सदा नहीं होती। मध्यम मार्ग पर चलने से कुछ तो लाभ होना ही है। पूरी न मिले तो अधूरी से काम चलाने की नीति है। युद्धकाल में प्रत्येक वयस्क नागरिक को बाधित रूप से सेना में भर्ती होने का आदेश दिया जा सकता है। जब तक संकट−काल रहता है तब तक वे सामान्य नागरिक सेना में भर्ती रहते है। स्थिति सुधरते ही वे सेना छोड़कर घर वापिस आ जाते है और अपने साधारण कार्यों में लग जाते है। साधु−संकट के इस महान् दुर्भिक्ष में भी हम सामान्य नागरिकों को थोड़े−थोड़े समय के लिए उन उत्तरदायित्वों का निर्वाह करने के लिए आगे आना चाहिए। एक−एक घण्टा श्रमदान करके जब बड़े−बड़े सार्वजनिक प्रयोजन पूरे किये जा सकते है तो कोई कारण नहीं कि हम सब स्वल्प−कालीन व्रत धारण करके साधु−संस्था पर छाये हुए दुर्लभ संकट का निवारण करने के लिए कुछ न सके।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1974 पृष्ठ 23
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1974/January/v1.23
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