शुक्रवार, 16 दिसंबर 2016
👉 सतयुग की वापसी (भाग 12) 17 Dec
🌹 महान् प्रयोजन के श्रेयाधिकारी बनें
🔴 शरीर और उनकी शक्तियों के भले-बुरे पराक्रम आए दिन देखने को मिलते रहते हैं। समर्थता, कुशलता और सम्पन्नता की जय-जयकार होती है, पर साथ ही यह भी मानना ही पड़ेगा कि इन्हीं तीन क्षेत्रों में फैली अराजकता ने वे संकट खड़े किए हैं जिनसे किसी प्रकार उबरने के लिए व्यक्ति और समाज छटपटा रहा है।
🔵 इन तीनों से ऊपर उठकर एक चौथी शक्ति है-भाव-संवेदना यही दैवी अनुदान के रूप में जब मनुष्य की स्वच्छ अन्तरात्मा पर उतरती है तो उसे निहाल बनाकर रख देती है। जब यह अन्त:करण के साथ जुड़ती है तो उसे देवदूत स्तर का बना देती है। वह भौतिक आकर्षणों, प्रलोभनों एवं दबावों से स्वयं को बचा लेने की भी पूरी-पूरी क्षमता रखती है। इस एक के आधार पर ही साधक में अनेकानेक दैवी तत्त्व भरते चले जाते हैं।
🔴 युग परिवर्तन के आधार को यदि एक शब्द में व्यक्त करना हो तो इतना कहने भर से भी काम चल सकता है कि अगले दिनों निष्ठुर स्वार्थपरता को निरस्त करके उसके स्थान पर उदार भाव-संवेदनाओं को अन्त:करण की गहराई में प्रतिष्ठित करने की, उभारने की, खोद निकालने की अथवा बाहर से सराबोर कर देने की आवश्यकता पड़ेगी।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 शरीर और उनकी शक्तियों के भले-बुरे पराक्रम आए दिन देखने को मिलते रहते हैं। समर्थता, कुशलता और सम्पन्नता की जय-जयकार होती है, पर साथ ही यह भी मानना ही पड़ेगा कि इन्हीं तीन क्षेत्रों में फैली अराजकता ने वे संकट खड़े किए हैं जिनसे किसी प्रकार उबरने के लिए व्यक्ति और समाज छटपटा रहा है।
🔵 इन तीनों से ऊपर उठकर एक चौथी शक्ति है-भाव-संवेदना यही दैवी अनुदान के रूप में जब मनुष्य की स्वच्छ अन्तरात्मा पर उतरती है तो उसे निहाल बनाकर रख देती है। जब यह अन्त:करण के साथ जुड़ती है तो उसे देवदूत स्तर का बना देती है। वह भौतिक आकर्षणों, प्रलोभनों एवं दबावों से स्वयं को बचा लेने की भी पूरी-पूरी क्षमता रखती है। इस एक के आधार पर ही साधक में अनेकानेक दैवी तत्त्व भरते चले जाते हैं।
🔴 युग परिवर्तन के आधार को यदि एक शब्द में व्यक्त करना हो तो इतना कहने भर से भी काम चल सकता है कि अगले दिनों निष्ठुर स्वार्थपरता को निरस्त करके उसके स्थान पर उदार भाव-संवेदनाओं को अन्त:करण की गहराई में प्रतिष्ठित करने की, उभारने की, खोद निकालने की अथवा बाहर से सराबोर कर देने की आवश्यकता पड़ेगी।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 सफल जीवन के कुछ स्वर्णिम सूत्र (भाग 36) 17 Dec
🌹 गम्भीर न रहें, प्रसन्न रहना सीखें
🔵 यहां शारीरिक स्वास्थ्य के नियमों की अवहेलना करने अथवा उन्हें नगण्य बताने का प्रयास नहीं किया जा रहा है। कहने का आशय केवल इतना है कि स्वस्थ शरीर का सदुपयोग जिस मनस्विता के आधार पर सम्भव होता है—उसके विकास पर भी पर्याप्त ध्यान दिया जाना चाहिए, मनःस्थिति हल्की-फुल्की रहनी चाहिए।
🔴 प्रसन्नचित्त रहना मानसिक स्वास्थ्य के लिए सबसे अधिक आवश्यक है। उदासीन रहने वालों की अपेक्षा खुशमिज़ाज लोग अक्सर अधिक स्वस्थ, उत्साही और स्फूर्तिवान् पाये जाते हैं। गीताकार ने प्रसन्नता को महत्वपूर्ण आध्यात्मिक सद्गुण माना है और कहा है कि प्रसन्न चित्त लोगों को उद्विग्नता नहीं सताती एवं उन्हें जीवन में दुःख भी कभी सताते नहीं।
🔵 अकारण भय, आशंका, क्रोध, दुश्चिन्ता आदि की गणना मानसिक रोगों में की जाती है। जिस प्रकार शारीरिक रुग्णता का लक्षण मुख-मण्डल पर दृष्टिगोचर होता है, उसी प्रकार मन की रुग्णता भी चेहरे पर झलकती है। मनोविज्ञानी डा. लिली एलन के अनुसार ‘मुस्कान वह दवा है जो इन रोगों के निशान आपके चेहरे से ही नहीं उड़ा देगी वरन् इन रोगों की जड़ भी आपके अन्तः से निकाल देगी।’
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔵 यहां शारीरिक स्वास्थ्य के नियमों की अवहेलना करने अथवा उन्हें नगण्य बताने का प्रयास नहीं किया जा रहा है। कहने का आशय केवल इतना है कि स्वस्थ शरीर का सदुपयोग जिस मनस्विता के आधार पर सम्भव होता है—उसके विकास पर भी पर्याप्त ध्यान दिया जाना चाहिए, मनःस्थिति हल्की-फुल्की रहनी चाहिए।
🔴 प्रसन्नचित्त रहना मानसिक स्वास्थ्य के लिए सबसे अधिक आवश्यक है। उदासीन रहने वालों की अपेक्षा खुशमिज़ाज लोग अक्सर अधिक स्वस्थ, उत्साही और स्फूर्तिवान् पाये जाते हैं। गीताकार ने प्रसन्नता को महत्वपूर्ण आध्यात्मिक सद्गुण माना है और कहा है कि प्रसन्न चित्त लोगों को उद्विग्नता नहीं सताती एवं उन्हें जीवन में दुःख भी कभी सताते नहीं।
🔵 अकारण भय, आशंका, क्रोध, दुश्चिन्ता आदि की गणना मानसिक रोगों में की जाती है। जिस प्रकार शारीरिक रुग्णता का लक्षण मुख-मण्डल पर दृष्टिगोचर होता है, उसी प्रकार मन की रुग्णता भी चेहरे पर झलकती है। मनोविज्ञानी डा. लिली एलन के अनुसार ‘मुस्कान वह दवा है जो इन रोगों के निशान आपके चेहरे से ही नहीं उड़ा देगी वरन् इन रोगों की जड़ भी आपके अन्तः से निकाल देगी।’
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 गृहस्थ-योग (भाग 36) 17 Dec
🌹 परिवार की चतुर्विधि पूजा
🔵 यह लोग मेरे आत्म त्याग की कद्र करते हैं या नहीं? इन प्रश्नों को मन में कभी प्रवेश न करने देना चाहिए। वरन् सदा यह सोचना चाहिए कि एक ईमानदार माली की तरह मैं अपनी वाटिका को सुरभित बनाने में शक्ति भर प्रयत्न कर रहा हूं या नहीं? अपनी योग्यता और सामर्थ्य में से कुछ चुराता तो नहीं हूं? मेरी निस्वार्थता और निष्पक्षता में किसी प्रकार की कमी तो नहीं आ रही है? कर्तव्य पालन में किसी प्रकार का आलस्य प्रमाद तो नहीं हो रहा है? यदि इन प्रश्नों का सन्तोष जनक, उत्तर मिलता हो तो यह बड़ी ही आनन्ददायक और शान्तिप्रद बात समझी जानी चाहिये।
🔴 प्रशंसा होती है या नहीं? कोई अहसान मिलता है या नहीं? सफलता मिलती है या नहीं? ऐसे प्रश्नों का लेखा लेना अपनी साधना को चौपट करना है। इन प्रश्नों का सन्तोषजनक या असन्तोषजनक उत्तर देना दूसरों के हाथ की बात है। साधक को अपनी प्रसन्नता दूसरों के हाथ नहीं बेचनी चाहिए? दूसरों के कुछ देने से प्रसन्नता मिले, यह एक कंगाली की स्थिति है। हमें आनन्द का स्रोत अपनी आत्मा में ढूंढ़ना चाहिये। यदि ठीक प्रकार कर्तव्य का पालन किया गया हो तो इससे अधिक आनन्ददायक दुनियां की और कोई बात नहीं हो सकती।
🔵 संसार की सुख शान्ति में वृद्धि करना यही तो परमार्थ का लक्षण है। प्याऊ, धर्मशाला, कुंआ, तालाब, बावड़ी, बगीचा, सड़क, पाठशाला, औषधालय आदि का निर्माण करने वाले धर्मात्मा लोग इन कार्यों द्वारा दूसरे लोगों के कष्ट निवारण और सुख में वृद्धि करना चाहते हैं। अनेक प्रकार की संस्थाओं के स्थापन और संचालन का भी यही उद्देश्य है। महात्मा, त्यागी, वैरागी, तपस्वी, देशभक्त, लोक सेवक, परोपकारी सत्पुरुषों की साधना भी इसी उद्देश्य के लिये होती है। शास्त्रकारों ने विश्व की सुख शान्ति बढ़ाने वाले कार्यों का करना ही धर्म तथा ईश्वर प्राणिधान बताया है और कहा है कि ऐसे कार्यों से ही मनुष्य को लोक परलोक में पुण्यफल प्राप्त होता है।
🔵 यह लोग मेरे आत्म त्याग की कद्र करते हैं या नहीं? इन प्रश्नों को मन में कभी प्रवेश न करने देना चाहिए। वरन् सदा यह सोचना चाहिए कि एक ईमानदार माली की तरह मैं अपनी वाटिका को सुरभित बनाने में शक्ति भर प्रयत्न कर रहा हूं या नहीं? अपनी योग्यता और सामर्थ्य में से कुछ चुराता तो नहीं हूं? मेरी निस्वार्थता और निष्पक्षता में किसी प्रकार की कमी तो नहीं आ रही है? कर्तव्य पालन में किसी प्रकार का आलस्य प्रमाद तो नहीं हो रहा है? यदि इन प्रश्नों का सन्तोष जनक, उत्तर मिलता हो तो यह बड़ी ही आनन्ददायक और शान्तिप्रद बात समझी जानी चाहिये।
🔴 प्रशंसा होती है या नहीं? कोई अहसान मिलता है या नहीं? सफलता मिलती है या नहीं? ऐसे प्रश्नों का लेखा लेना अपनी साधना को चौपट करना है। इन प्रश्नों का सन्तोषजनक या असन्तोषजनक उत्तर देना दूसरों के हाथ की बात है। साधक को अपनी प्रसन्नता दूसरों के हाथ नहीं बेचनी चाहिए? दूसरों के कुछ देने से प्रसन्नता मिले, यह एक कंगाली की स्थिति है। हमें आनन्द का स्रोत अपनी आत्मा में ढूंढ़ना चाहिये। यदि ठीक प्रकार कर्तव्य का पालन किया गया हो तो इससे अधिक आनन्ददायक दुनियां की और कोई बात नहीं हो सकती।
🔵 संसार की सुख शान्ति में वृद्धि करना यही तो परमार्थ का लक्षण है। प्याऊ, धर्मशाला, कुंआ, तालाब, बावड़ी, बगीचा, सड़क, पाठशाला, औषधालय आदि का निर्माण करने वाले धर्मात्मा लोग इन कार्यों द्वारा दूसरे लोगों के कष्ट निवारण और सुख में वृद्धि करना चाहते हैं। अनेक प्रकार की संस्थाओं के स्थापन और संचालन का भी यही उद्देश्य है। महात्मा, त्यागी, वैरागी, तपस्वी, देशभक्त, लोक सेवक, परोपकारी सत्पुरुषों की साधना भी इसी उद्देश्य के लिये होती है। शास्त्रकारों ने विश्व की सुख शान्ति बढ़ाने वाले कार्यों का करना ही धर्म तथा ईश्वर प्राणिधान बताया है और कहा है कि ऐसे कार्यों से ही मनुष्य को लोक परलोक में पुण्यफल प्राप्त होता है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌿🌞 🌿🌞 🌿🌞
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌿🌞 🌿🌞 🌿🌞
👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 49)
🌹 कला और उसका सदुपयोग
🔴 70. गायकों का संगठन— भाषण की भांति ही गायन का भी महत्व है। विधिवत् गाया हुआ गायन मनुष्य के हृदय को पुलकित कर देता है। भावनाओं को तरंगित करने की उतनी ही शक्ति गायन में रहती है, जितनी विचारों को बदलने की भाषण में रहती है। गायकों को संगठित करना चाहिए और उन्हें युग-निर्माण भावनाओं के अनुरूप कविताएं सीखने तथा गाने की प्रेरणा देनी चाहिए।
🔵 जहां-तहां भजन मण्डलियां और कीर्तन मण्डलियां अपने बिखरे रूप में पाई जाती हैं, उन्हें संगठित करना अभीष्ट होगा। व्यक्तिगत रूप से जो लोग गाया करते हैं, उन्हें भी अपनी कला द्वारा जन-समूह को लाभ पहुंचाने की प्रेरणा करनी चाहिए। सामूहिक संगीत कार्यक्रमों का आयोजन समय-समय पर होता रहे और उनमें उत्कर्ष की भावनाओं की प्रधानता रहे ऐसा प्रयत्न करना चाहिए।
🔴 71. संगीत शिक्षा का प्रबन्ध— गाने बजाने के क्रमबद्ध शिक्षण की व्यवस्था न होने से ऐसे लोगों की कला अविकसित ही पड़ी रहती है, जिनके गले मधुर हैं और लोगों को प्रभावित करने की प्रतिभा विद्यमान है। साधारण गायन और मामूली बाजे बजाने का शिक्षण कोई बहुत बड़ा काम नहीं है। उसे मामूली जानकार भी कर सकते हैं। खंजरी, करताल, मजीरा, ढोलक, चिमटा, इकतारा जैसे बाजे लोग बिना किसी के सिखाये—देखा-देखी ही सीख जाते हैं। यदि उनकी व्यवस्थित शिक्षण व्यवस्था हो तो उसका लाभ अनेकों को आसानी से मिल सकता है और नये गायक तथा बजाने वाले पैदा हो सकते हैं।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 70. गायकों का संगठन— भाषण की भांति ही गायन का भी महत्व है। विधिवत् गाया हुआ गायन मनुष्य के हृदय को पुलकित कर देता है। भावनाओं को तरंगित करने की उतनी ही शक्ति गायन में रहती है, जितनी विचारों को बदलने की भाषण में रहती है। गायकों को संगठित करना चाहिए और उन्हें युग-निर्माण भावनाओं के अनुरूप कविताएं सीखने तथा गाने की प्रेरणा देनी चाहिए।
🔵 जहां-तहां भजन मण्डलियां और कीर्तन मण्डलियां अपने बिखरे रूप में पाई जाती हैं, उन्हें संगठित करना अभीष्ट होगा। व्यक्तिगत रूप से जो लोग गाया करते हैं, उन्हें भी अपनी कला द्वारा जन-समूह को लाभ पहुंचाने की प्रेरणा करनी चाहिए। सामूहिक संगीत कार्यक्रमों का आयोजन समय-समय पर होता रहे और उनमें उत्कर्ष की भावनाओं की प्रधानता रहे ऐसा प्रयत्न करना चाहिए।
🔴 71. संगीत शिक्षा का प्रबन्ध— गाने बजाने के क्रमबद्ध शिक्षण की व्यवस्था न होने से ऐसे लोगों की कला अविकसित ही पड़ी रहती है, जिनके गले मधुर हैं और लोगों को प्रभावित करने की प्रतिभा विद्यमान है। साधारण गायन और मामूली बाजे बजाने का शिक्षण कोई बहुत बड़ा काम नहीं है। उसे मामूली जानकार भी कर सकते हैं। खंजरी, करताल, मजीरा, ढोलक, चिमटा, इकतारा जैसे बाजे लोग बिना किसी के सिखाये—देखा-देखी ही सीख जाते हैं। यदि उनकी व्यवस्थित शिक्षण व्यवस्था हो तो उसका लाभ अनेकों को आसानी से मिल सकता है और नये गायक तथा बजाने वाले पैदा हो सकते हैं।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 गहना कर्मणोगति: (भाग 18)
🌹 कर्मों की तीन श्रेणियाँ
(3) क्रियमाणः
🔵 कर्म शारीरिक हैं, जिनका फल प्रायः साथ के साथ ही मिलता रहता है। नशा पिया कि उन्माद आया। विष खाया कि मृत्यु हुई। शरीर जड़ तत्त्वों का बना हुआ है। भौतिक तत्त्व स्थूलता प्रधान होते हैं। उसमें तुरंत ही बदला मिलता है। अग्नि के छूते ही हाथ जल जाता है। नियम के विरुद्ध आहार-विहार करने पर रोगों की पीड़ा का, निर्बलता का अविलम्ब आक्रमण हो जाता है और उसकी शुद्धि भी शीघ्र हो जाती है। मजदूर परिश्रम करता है, बदले में उसे पैसे मिल जाते हैं। जिन शारीरिक कर्मों के पीछे कोई मानसिक गुत्थी नहीं होती केवल शरीर द्वारा शरीर के लिए किए जाते हैं, वे क्रियमाण कहलाते हैं। पाठक समझ गए होंगे कि संचित कर्मों का फल मिलना संदिग्ध है यदि अवसर मिलता है, तो वे फलवान होते हैं। नहीं तो विरोधी परिस्थितियों से टकरा कर नष्ट हो जाते हैं।
🔴 प्रारब्ध कर्मों का फल मिलना निश्चित है, परंतु उसके अनुकूल परिस्थिति प्राप्त होने में कुछ समय लग जाता है। यह समय कितने दिन का होता है, इस सम्बन्ध में कुछ नियम मर्यादा नहीं है, वह आज का आज भी हो सकता है और कुछ जन्मों के अंतर से भी हो सकता है, किंतु प्रारब्ध फल होते वही हैं, जो अचानक घटित हों और जिसमें मनुष्य का कुछ वश न चले। पुरुषार्थ की अवहेलना से जो असफलता मिलती है उसे कदापि प्रारब्ध फल नहीं कहा जा सकता। क्रियमाण तो प्रत्यक्ष हैं ही उनके बारे में ऊपर बता ही दिया गया है कि निश्चित फल वाले शारीरिक कर्म क्रियमाण हुआ करते हैं। इनके फल मिलने में अधिक समय नहीं लगता। इस प्रकार तीन प्रकार के कर्म और उसके फल मिलने की मर्यादा के सम्बन्ध में ऊपर कुछ प्रकाश डाल दिया गया है।
🔵 कष्टों का स्वरूप अप्रिय है, उनका तात्कालिक अनुभव कड़ुआ होता है, अंततः वे जीव के लिए कल्याणकारी और आनंददायक सिद्ध होते हैं। उनसे दुर्गुणों के शोधन और सद्गुणों की वृद्धि में असाधारण सहायता मिलती है। आनंदस्वरूप, आत्म प्रकाशमय जीवन और सुखमय संसार में कष्टों का थोड़ा स्वाद परिवर्तन इसलिए लगाया गया है कि प्रगति में बाधा न पड़ने पाए। घड़ी में चाबी भर देने से उसकी चाल फिर ठीक हो जाती है, हारमोनियम में हवा धोंकते रहने से उसके स्वर ठीक तरह बजते हैं। पैडल चलाने से साइकिल ठीक तरह घूमती है, अग्नि की गर्मी से सूखकर भोजन पक जाते हैं। थोड़ा-सा कष्ट भी जीवन की सुख वृद्धि के लिए आवश्यक है। संसार में जो कष्ट है वह इतना ही है और ऐसा ही है, किंतु स्मरण रखिए जितना भी थोड़ा-बहुत दुःख है, वह हमारे अन्याय का, अधर्म का, अनर्थ का फल है। आत्मा दुःख रूप नहीं है, जीवन दुःखमय नहीं हैं और न संसार में ही दुःख है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/gah/karma.2
(3) क्रियमाणः
🔵 कर्म शारीरिक हैं, जिनका फल प्रायः साथ के साथ ही मिलता रहता है। नशा पिया कि उन्माद आया। विष खाया कि मृत्यु हुई। शरीर जड़ तत्त्वों का बना हुआ है। भौतिक तत्त्व स्थूलता प्रधान होते हैं। उसमें तुरंत ही बदला मिलता है। अग्नि के छूते ही हाथ जल जाता है। नियम के विरुद्ध आहार-विहार करने पर रोगों की पीड़ा का, निर्बलता का अविलम्ब आक्रमण हो जाता है और उसकी शुद्धि भी शीघ्र हो जाती है। मजदूर परिश्रम करता है, बदले में उसे पैसे मिल जाते हैं। जिन शारीरिक कर्मों के पीछे कोई मानसिक गुत्थी नहीं होती केवल शरीर द्वारा शरीर के लिए किए जाते हैं, वे क्रियमाण कहलाते हैं। पाठक समझ गए होंगे कि संचित कर्मों का फल मिलना संदिग्ध है यदि अवसर मिलता है, तो वे फलवान होते हैं। नहीं तो विरोधी परिस्थितियों से टकरा कर नष्ट हो जाते हैं।
🔴 प्रारब्ध कर्मों का फल मिलना निश्चित है, परंतु उसके अनुकूल परिस्थिति प्राप्त होने में कुछ समय लग जाता है। यह समय कितने दिन का होता है, इस सम्बन्ध में कुछ नियम मर्यादा नहीं है, वह आज का आज भी हो सकता है और कुछ जन्मों के अंतर से भी हो सकता है, किंतु प्रारब्ध फल होते वही हैं, जो अचानक घटित हों और जिसमें मनुष्य का कुछ वश न चले। पुरुषार्थ की अवहेलना से जो असफलता मिलती है उसे कदापि प्रारब्ध फल नहीं कहा जा सकता। क्रियमाण तो प्रत्यक्ष हैं ही उनके बारे में ऊपर बता ही दिया गया है कि निश्चित फल वाले शारीरिक कर्म क्रियमाण हुआ करते हैं। इनके फल मिलने में अधिक समय नहीं लगता। इस प्रकार तीन प्रकार के कर्म और उसके फल मिलने की मर्यादा के सम्बन्ध में ऊपर कुछ प्रकाश डाल दिया गया है।
🔵 कष्टों का स्वरूप अप्रिय है, उनका तात्कालिक अनुभव कड़ुआ होता है, अंततः वे जीव के लिए कल्याणकारी और आनंददायक सिद्ध होते हैं। उनसे दुर्गुणों के शोधन और सद्गुणों की वृद्धि में असाधारण सहायता मिलती है। आनंदस्वरूप, आत्म प्रकाशमय जीवन और सुखमय संसार में कष्टों का थोड़ा स्वाद परिवर्तन इसलिए लगाया गया है कि प्रगति में बाधा न पड़ने पाए। घड़ी में चाबी भर देने से उसकी चाल फिर ठीक हो जाती है, हारमोनियम में हवा धोंकते रहने से उसके स्वर ठीक तरह बजते हैं। पैडल चलाने से साइकिल ठीक तरह घूमती है, अग्नि की गर्मी से सूखकर भोजन पक जाते हैं। थोड़ा-सा कष्ट भी जीवन की सुख वृद्धि के लिए आवश्यक है। संसार में जो कष्ट है वह इतना ही है और ऐसा ही है, किंतु स्मरण रखिए जितना भी थोड़ा-बहुत दुःख है, वह हमारे अन्याय का, अधर्म का, अनर्थ का फल है। आत्मा दुःख रूप नहीं है, जीवन दुःखमय नहीं हैं और न संसार में ही दुःख है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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