बुधवार, 27 दिसंबर 2017

👉 समस्या का हल

🔶 पहाड़ी इलाकों में जहां अमूमन जबर्दस्त तूफान आया करते हैं। ऐसे ही एक तूफान में पानी के तेज बहाव से एक बड़ा पत्थर टूट कर सड़क के बीचों-बीच आ गिरा।

🔷 तभी एक व्यक्ति वहां आया, जहां पत्थर गिरा था, वहां वह रुक गया और किसी के आने की प्रतीक्षा करने लगा। थोड़ी देर बाद एक दूसरा व्यक्ति अपनी घोड़ागाड़ी से वहां आ पहुंचा।

🔶 उसने पहले व्यक्ति से पूछा कि तुम यहां सड़क के बीच में हट जाओ ताकि मैं यहां से गुजर सकूं। पहले व्यक्ति ने कहा- 'तुम्हें जल्दी है तो पहले वहां जाकर यह चट्टान हटाओ। पहले व्यक्ति ने कहा क्यों न किसी शक्तिशाली आदमी की प्रतीक्षा करें। वही हमारा रास्ता साफ करेगा।'

🔷 दोनों साथ-साथ बैठ गए। तभी एक और घोड़ागाड़ी वाला वहां आ पहुंचा। वह काफी बूढ़ा था। जब उसे पता चला कि दोनों यहां क्यों खड़े हैं तो वह पत्थर के इर्द-गिर्द चहलकदमी करने लगा। समय बीतता रहा। अब वहां एक

🔶 काफिला इकट्ठा हो गया। इतने में गेरुआ वस्त्र पहने एक संन्यासी वहां आ पहुंचे। वे स्वामी विवेकानंद के गुरुभाई एवं रामकृष्ण परमहंस के शिष्य स्वामी अखंडानंद थे।

🔷 वह इन दिनों अपनी एकांत साधना के लिए यहां आए हुए थे। वे सब को परेशान देख बोले- तुम लोग अपनी जवाबदेही दूसरों पर डालने की कोशिश मत करो। आओ हम सभी मिलकर प्रयास करते हैं।

🔶 स्वामी जी ने सबसे पहले पत्थर हटाना शुरू किया। उन्हें देख दूसरों ने भी कोशिश की। और इस तरह पत्थर हट गया।

🔷 स्वामी जी ने कहा-हम हर समय दूसरों का मुंह देखते रहते हैं।हमें लगता है कोई आकर हमारी समस्या हल करेगा। कोई आगे बढ़कर खुद पहल नहीं करता। अगर हम ऐसा करने लगें तो जीवन की समस्याएं अपने आप हल हो जाएंगी।

संक्षेप में

🔶 अगर एकता हो तो बड़े से बड़े काम भी आसान हो जाते हैं। समस्याएं वहीं रहतीं हैं जहां पर एकता नहीं रहती वहां छोटे से छोटे काम भी बमुश्किल हो पाते हैं।

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 28 Dec 2017


👉 आज का सद्चिंतन 28 Dec 2017


👉 जीवन साधना के चार चरण (भाग 1)

🔷 व्यक्तित्व निर्माण के कार्यक्रम की तुलना कृषक द्वारा किए जाने वाले कृषि कर्म से की जा सकती है। जैसे जुताई, बुआई, सिंचाई और विक्रय की चतुर्विधि प्रक्रिया सम्पन्न करने के बाद किसान को अपने परिश्रम का लाभ मिलता है, व्यक्तित्व निर्माण को भी इस प्रकार जीवन साधना की चतुर्विधी प्रक्रिया सम्पन्न करनी पड़ती है, यह है आत्म-चिंतन, आत्म-सुधार, आत्म-निर्माण और आत्म-विकास। मनन और चिंतन को इन चारों चरणों का अविच्छिन्न अंग माना गया है। इन चतुर्विधि साधनों को एक-एक करके नहीं, समन्वित रूप से ही अपनाया जाना चाहिए।

🔶 आत्म-चितंन अर्थात्‌ जीवन विकास में बाधक अवांछनीयताओं को ढूँढ़ निकालना। इसके लिए आत्म समीक्षा करनी पड़ती है। जिस प्रकार प्रयोगशालाओं मे पदार्थों का विश्लेषण, वर्गीकरण होता है और देखा जाता है कि इस संरचना में कौन-कौन से तत्व मिले हुए हैं। रोगी की स्थिति जानने के लिए उसके मल, मूत्र, ताप, रक्त, धड़कन आदि की जाँच-पड़ताल की जाती है और निदान करने के बाद ही सही उपचार बन पड़ता है। आत्म-चितंन, आत्म-समीक्षा का भी यह क्रम है।

🔷 इसके लिये अपने आप से प्रश्न पूछने और उनके सही उत्तर ढूँढ़ने की चेष्टा की जानी चाहिए। हम जिन दुष्प्रवृतियों के लिए दूसरों की निन्दा करते हैं उनमें से कोई अपने स्वभाव में तो सम्मिलित नहीं है। जिन बातों के कारण हम दूसरों से घृणा करते हैं, वे बातें अपने में तो नहीं हैं? जैसा व्यवहार हम दूसरों से अपने लिए नहीं चाहते है, वैसा व्यवहार हम ही दूसरों के साथ तो नहीं करते? जैसे उपदेश हम आये दिन दूसरों को करते हैं, उनके अनुरूप हमारा आचरण है भी अथवा नहीं? जैसी प्रशंसा और प्रतिष्ठा हम चाहते हैं, वैसी विशेषताएँ हममें हैं या नहीं? इस तरह का सूक्ष्म आत्म-निरीक्षण स्वयं व्यक्ति को करना चाहिए और अपनी कमियों को ढूँढ़ निकालना चाहिए।

.... शेष कल
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 दुःखी संसार में भी सुखी रहा जा सकता है (अन्तिम भाग)

🔷 अपने प्राकृतिक स्वत्व का विस्मरण कर महत्वाकांक्षाओं के पीछे पागल रहने वाले जीवन में कभी सुखी नहीं हो पाते। जीवन में सुख-शांति के लिए आवश्यक है कि अपनी सीमाओं के अनुरूप ही कामना की जाये, उसी में रहकर धीरे-धीरे विकास की ओर बढ़ा जाए। सहसा उछाल मार कर तारे तोड़ लेने का दुःसाहस करने का अर्थ है, असफलता जन्य दुःख को अपना साथी बनाना। मान-मर्यादाओं का उल्लंघन करने से भी मनुष्य को दुःखों का भागीदार बनना होता है। सुख के साधन पाकर यदि उनका भोग अनियन्त्रित रूप से किया जायेगा तो वे भी दुःख का कारण बन बैठेंगे।

🔶 धन मिल गया, पद मिल गया, प्रतिष्ठा प्राप्त हो गई, तब भी यदि सन्तोष नहीं होता, और-और की ही रट लगी हुई है तो अवश्य ही दुःखों के लिए तैयार रहना चाहिए। सुख-साधनों की अति तृष्णा भी दुःख का बड़ा कारण है। मान-मर्यादाओं का व्यतिक्रमण न कर जो बुद्धिमान लोग संसार में जो कुछ भोगने योग्य है, उसका भोग करते हैं, वे कभी दुःखी नहीं होते। गृहस्थ को सुख का आधार बताया गया है। वह है भी। गृहस्थी जैसा सुख कहीं भी नहीं मिलता। तथापि यदि इसका भोग मर्यादा का त्याग करके किया जायेगा तो यह भी अस्वास्थ्य, रोग, शोक और बहु-सन्तान के साथ दुःख का हेतु बन जायेगा।

🔷 मनुष्य को चाहिए कि वह, परमात्मा ने जो कुछ सुख-भोग बनाये हैं, मर्यादा में रहकर उनका आनन्द उठाये। जो कुछ हमारी उपलब्धियां और परिस्थितियां हैं उनमें संतोष करके आगे के लिए प्रयत्न किया जाये। अनुचित अथवा अयोग्य महत्वाकांक्षाओं से बचा जाये और फलासक्ति को छोड़कर अपना पावन कर्तव्य करते रहा जाये तो कोई कारण नहीं कि वह दुःख से निकल कर सुख की ओर न अग्रसर होने लगे। जो अपने जीवन पथ में इन नियमों का पालन करते हैं, वे सदा सुख रहते हैं और जो इनकी अपेक्षा करते हैं, उनका दुःखी रहना स्वाभाविक ही है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति- अप्रैल 1969 पृष्ठ 34
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1969/April/v1.34

👉 Significance of donating the Time (Part 2)

🔶 If you wish, you can save a lot of time. 8 hours are enough for a man to earn breads for him and his family for an easy life and 7 hours are enough for a man to rest and 5 hours are enough for different issues of the home.

🔷 This way you can manage your body and your family in 20 hours. You can very easily spare 4 hours. Now it depends on you whether you will spend these 4 hours in lethargy, laziness or as a loafer. Who stops you? But if you want, you can use this time for betterment of society, for a bright fate & future of man and for uplifting the society also. You must do that. It will be loss-making treaty for me? No, I guarantee for no disadvantage. Those persons who had employed their excess time in social works and servicing the society whether he be Gandhi, Nehru, Vinoba Bhave or anyone else, whether he be Vivekananda, have been in good position and at advantage.

🔶 The persons opting to employ their  spare time for society have never been in loss, rather have been successful in progressing and uplifting not only their life but that of thousands of others also. No, they have been in loss? Which loss, just tell me the name of a single such person. How much Gandhi would have earned, had he employed himself in practicing law, but when he decided to employ his time in public-service and started doing that then tell what was he devoid of? He was short of nothing. Gandhi ji was a very magnificent person and so he became only because he just used his time not in earning, food and children only like any animal but in serving society and that marked the fact that he is a human being also.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya

👉 धर्मतंत्र का दुरुपयोग रुके (भाग 4)

🔷 मदिर वस्तुतः जन-जागरण के केंद्र थे। इसकी पुनरावृत्ति एक बार फिर बढ़िया ढंग से की गई। सिक्खों के गुरुद्वारों को आप देखते हैं। किसी जमाने में जब मुगल शासकों का दबदबा बहुत प्यादा था, अत्याचार भी बहुत होते थे, तब सिक्खों के गुरुद्वारे में जहाँ एक और भगवान की भक्ति की बात होती थी, वहीं दूसरी ओर इस बात को भी स्थान दिया गया कि एक हाथ में माला और दूसरे हाथ में भाला लेकर के सिख धर्म के अनुयायी खड़े हों और समाज में जो अनीति फैली हुई है, उसका मुकाबला करें। मंदिर थे, गुरुद्वारे थे, पर तब उनमें लोकसेवा की, लोकमानस के परिष्कार की कितनी तीव्र प्रक्रिया विद्यमान थी।

🔶 मित्रो! समर्थ गुरु रामदास ने भी यही किया था। जब अपना देश बहुत दिनों तक पराधीन हो गया, तो उन्होंने देखा कि जनता को संघबद्ध करने के लिए, जनता को दिशा देने के लिए और जन-सहयोग का केन्द्रीकरण करने के लिए कोई बड़ा काम किया जाना चाहिए। समर्थ गुरु रामदास ने महाराष्ट्र भर में घूम-घूमकर सात सौ महावीर मंदिर बनाए। वे मंदिर केवल हनुमान जी को मिठाई या चूरमा-लड्डू खिलाने के लिए नहीं बनाए गए थे। हनुमान जी तो पेड़ पर चढ़कर भी अपना फल खाकर भी रह सकते हैं। उन्हें क्या गरज पड़ी है कि वे किसी का चूरमा और लड्डू खाएँ?

🔷 वे तो अपने हाथ-पाँव से मेहनत करके खुद खा सकते हैं और सैकड़ों बंदरों को भी खिला सकते हैं। वे किसी का लड्डू और चूरमा खाने के लिए भूखे कहाँ थे? लेकिन महावीर मदिर, जो जगह-जगह सारे महाराष्ट्र में समर्थ गुरु रामदास के द्वारा बनाए गए, उसका एक ही उद्देश्य था कि इनमें जो काम करने वाले व्यक्ति हैं, वे जनता से सीधा संपर्क बनाएँ। उन सात सौ महावीर मंदिरों में ऐसे तीखे और भावनाशील पुजारी रखे गए, जिन्होंने गाँव को ही नहीं, पूरे इलाके को जगा दिया। वह सात सौ इलाकों में बँटा हुआ महाराष्ट्र एक तरीके से संगठित होता हुआ चला गया।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य (अमृत वाणी)

👉 गुरुगीता (भाग 3)

👉 आदि जिज्ञासा, शिष्य का प्रथम प्रश्न

🔷 महर्षि सूत ने कहा- सूत उवाच

कैलाश शिखरे रम्ये भक्ति सन्धान नायकम्।
प्रणम्य पार्वती भक्त्या शंकरं पर्यपृच्छत॥ १॥

ऋषिगणों, यह बड़ी प्यारी कथा है। इस गुरुगीता के महाज्ञान का उद्गम तब हुआ, जब कैलाश पर्वत के अत्यन्त रमणीय वातावरण में भक्तितत्त्व के अनुसन्धान में अग्रणी माता पार्वती ने भक्तिपूर्वक भगवान् सदाशिव से प्रश्न पूछा।

🔶 श्री देव्युवाच-

ॐ नमो देवदेवेश परात्पर जगद्गुरो।
सदाशिव महादेव गुरुदीक्षां प्रदेहि मे॥ २॥
केन मार्गेण भो स्वामिन् देही ब्रह्ममयो भवेत्।
त्वं कृपां कुरु मे स्वामिन् नमामि चरणौ तव॥ ३॥

🔷 देवी बोलीं- हे देवाधिदेव! हे परात्पर जगद्गुरु! हे सदाशिव! हे महादेव! आप मुझे गुरुदीक्षा दें। हे स्वामी! आप मुझे बताएँ कि किस मार्ग से जीव ब्रह्मस्वरूप को प्राप्त करता है। हे स्वामी! आप मुझ पर कृपा करें। मैं आपके चरणों में प्रणाम करती हूँ।

🔶 यही है आदि जिज्ञासा। यही है प्रथम प्रश्न। यही वह बीज है, जिससे गुरुतत्त्व के बोध का बोधितरु अंकुरित हुआ, भगवान् शिव की कृपा से पुष्पित-पल्लवित होकर महावृक्ष बना। इस मधुर प्रसंग में आदिशक्ति, जगन्माता ने स्वयं शिष्य भाव से यह प्रश्न पूछा है। चित् शक्ति स्वयं आदि शिष्य बनी हैं। जगत् के स्वामी भगवान् महाकाल आदि गुरु हैं। इस प्रसंग का सुखद साम्य परम वन्दनीया माताजी एवं परम पूज्य गुरुदेव की कथा गाथा से भी है। इस परम विशाल, महाव्यापक गायत्री परिवार की जननी वन्दनीया माताजी आदि शिष्य भी थीं। उन्होंने हम सबके समक्ष शिष्यत्व का अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया। वे हम सबके लिए माता पार्वती की भाँति हैं। जिनकी जिज्ञासा और तप से ज्ञान की युग सृष्टि हुई।

🔷 माता पार्वती ने अपनी भक्तिपूर्ण जिज्ञासा से भूत-वर्तमान और भविष्य के सभी शिष्यों व साधकों के समक्ष ‘विनयात् याति पात्रताम्’ का आदर्श सामने रखा। जो अपने सम्पूर्ण अन्तःकरण को गुरुचरणों में समर्पित करके गुरुदीक्षा प्राप्ति की प्रार्थना करता है। वही तत्त्वज्ञान का अधिकारी होता है। किसी भी तरह से अहंता का लेशमात्र भी रहने से ज्ञान व तप की साधना फलित नहीं होती है। जो जगन्माता आदि जननी की भाँति स्वयं को अपने गुरु के चरणों में अर्पित कर देते हैं। गुरु कृपा उन्हीं का वरण करती है। करुणा सागर कृपालु गुरुदेव उन्हीं को अपनी कृपा का वरदान देते हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 11

👉 मरने से डरना क्या?

🔶 राजा परीक्षित को भागवत सुनाते हुए जब शुकदेव जी को छै दिन बीत गये और सर्प के काटने से मृत्यु होने का एक दिन रह गया तब भी राजा का शोक और मृत्यु भय दूर न हुआ। कातर भाव से अपने मरने की घड़ी निकट आती देखकर वह क्षुब्ध हो रहा था।

🔷 शुकदेव जी ने परीक्षित को एक कथा सुनाई-राजन् बहुत समय पहले की बात है एक राजा किसी जंगल में शिकार खेलने गया। संयोगवश वह रास्ता भूलकर बड़े घने जंगल में जा निकला, रात्रि हो गई। वर्षा पड़ने लगी। सिंह व्याघ्र बोलने लगे। राजा बहुत डरा और किसी प्रकार रात्रि बिताने के लिए विश्राम का स्थान ढूँढ़ने लगा। कुछ दूर पर उसे दीपक दिखाई दिया। वहाँ पहुँचकर उसने एक गंदे बीमार बहेलिये की झोपड़ी देखी। वह चल फिर नहीं जा सकता था इसलिए झोपड़ी में ही एक ओर उसने मल मूत्र त्यागने का स्थान बना रखा था। अपने खाने के लिए जानवरों का माँस उसने झोपड़ी की छत पर लटका रखा था। बड़ी गंदी, छोटी, अँधेरी और दुर्गन्ध युक्त वह कोठरी थी। उसे देखकर राजा पहले तो ठिठका, पर पीछे उसने और कोई आश्रय न देखकर उस बहेलिये से अपनी कोठरी में रात भर ठहर जाने देने के लिए प्रार्थना की।

🔶 बहेलिये ने कहा- आश्रय के लोभी राहगीर कभी-कभी यहाँ आ भटकते है और मैं उन्हें ठहरा लेता हूँ तो दूसरे दिन जाते समय बहुत झंझट करते है। इस झोपड़ी की गन्ध उन्हें ऐसी भा जाती है कि फिर उसे छोड़ना ही नहीं चाहते, इसी में रहने की कोशिश करते है और अपना कब्जा जमाते है। ऐसे झंझट में मैं कई बार पड़ चुका हूँ। अब किसी को नहीं ठहरने देता। आपको भी इसमें नहीं ठहरने दूँगा। राजा ने प्रतिज्ञा की-कसम खाई कि वह दूसरे दिन इस झोपड़ी को अवश्य खाली कर देगा। उसका काम तो बहुत बड़ा है, यहाँ तो वह संयोगवश ही आया है। सिर्फ एक रात ही काटनी है।

🔷 बहेलिये ने अन्यमनस्क होकर राजा को झोपड़ी के कोने में ठहर जाने दिया, पर दूसरे दिन प्रातःकाल ही बिना झंझट किये झोपड़ी खाली कर देने की शर्त को फिर दुहरा दिया। रजा एक कोने में पड़ा रहा। रात भर सोया। सोने में झोपड़ी की दुर्गन्ध उसके मस्तिष्क में ऐसी बस गई कि सबेरे उठा तो उसे वही सब परमप्रिय लगने लगा। राज काज की बात भूल गया और वही निवास करने की बात सोचने लगा।

🔶 प्रातःकाल जब राजा और ठहरने के लिए आग्रह करने लगा तो बहेलिए ने लाल पीली आँखें निकाली और झंझट शुरू हो गया। झंझट बढ़ा उपद्रव और कलह कर रूप धारण कर लिया। राजा मरने मारने पर उतारू हो गया। उसे छोड़ने में भारी कष्ट और शोक अनुभव करने लगा।

🔷 शुकदेव जी ने पूछा- परीक्षित बताओ, उस राजा के लिए क्या यह झंझट उचित था? परीक्षित ने कहा- भगवान वह कौन राजा था, उसका नाम तो बताइए। वह तो बड़ा मूर्ख मालूम पड़ता है कि ऐसी गन्दी कोठरी में, अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर राजकाज छोड़कर, नियत अवधि से भी अधिक रहना चाहता था। उसकी मूर्खता पर तो मुझे भी क्रोध आता है।
शुकदेव जी ने कहा- परीक्षित! वह मूर्ख तू ही है। इस मल मूत्र की गठरी देह में जितने समय तेरी आत्मा को रहना आवश्यक था वह अवधि पूरी हो गई। अब उस लोक को जाना है जहाँ से आया था। इस पर भी तू झंझट फैला रहा है। मरना नहीं चाहता, मरने का शोक कर रहा है। क्या यह तेरी मूर्खता नहीं है?

📖 अखण्ड ज्योति जून 1961 

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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