शनिवार, 13 मार्च 2021

👉 सँभालो जीवन की जागीर को:-

👉 सँभालो जीवन की जागीर को:-

तर्कशास्त्र के महान् पंडित श्री रामनाथ जी नवद्वीप के समीप निर्जन वन में विद्यालय स्थापित कर अनवरत विद्या का दान करने लगे। यह अठारहवीं सदी का समय था। उस समय में कृष्णनगर में महाराज शिवचंद्र का शासन था। महाराज शिवचंद्र नीतिकुशल शासक होने के साथ ही विद्यानुरागी भी थे। उन्होंने भी पं. श्री रामनाथ की कीर्ति सुनी। पर साथ में उन्हें यह जानकर भारी दुःख हुआ कि ऐसा महान् एवं उदभट विद्वान गरीबी में फटेहाल दिन काट रहा है। महाराज ने स्वयं जाकर स्थिति का अवलोकन करने का विचार किया। पर वह जब पंडित जी की झोंपड़ी में पहुँचे तो वे यह देखकर हैरान रह गए कि पंडित जी बड़े ही शाँत भाव से विद्यार्थियों को पढ़ा रहे हैं।

महाराज को देखकर पं. रामनाथ जी ने उनका उचित स्वागत किया। कुशल-क्षेम के उपरांत कृष्णनगर नरेश ने उनसे पूछा, "पंडित प्रवर। मैं आपकी क्या मदद करूं?" पंडित रामनाथ जी ने कहा,  "राजन्। भगवत्कृपा ने मेरे सारे अभाव मिटा दिए हैं, अब मैं पूर्ण हूँ।"

राजा शिवचंद्र कहने लगे, "विद्वत्वर। मैं घर खरज के बारे में पूछ रहा हूँ। संभव है घर खरज में कोई कठिनाई आ रही हो?"

पंडित रामनाथ जी ने राजा शिवचंद्र की ओर एक ईषत् दृष्टि डाली और फिर किंचित मुस्कराए। उनकी दृष्टि और मुस्कान का यह सम्मिलित प्रकाश ब्राह्मणत्व का वैभव बिखेर रहा था, पर कृष्णनगर नरेश इससे अनजान थे। उनका प्रश्न यथावत था। उनकी जिज्ञासा पूर्ववत थी। वह पंडित जी को कुछ देने के लिए उत्सुक-उतावले थे।

महाराज शिवचंद्र की मनःस्थिति को भाँपकर रामनाथ जी कहने लगे, "राजन्। घर के बारे में, घर के खरचों के बारे में गृहस्वामिनी मुझसे अधिक जानती है। यदि आपको कुछ पूछना हो तो उन्हीं से पूछ लें।" कृष्णनगर नरेश पंडित जी के घर गए और पं. रामनाथ जी की साध्वी गृहिणी से पूछा, "माताजी घर खरच के लिए कोई कमी तो नहीं है?"

अनुसूया, मदालसा की परंपरा में निष्णात् उन परम साध्वी ने कहा, "महाराज। भला सर्व समर्थ परमेश्वर के रहते उनके भक्तों को क्या कमी रह सकती है?" ‘फिर भी माताजी।’ लग रहा था कि राजा शिवचंद्र कुछ अधिक ही जानने को उत्सुक हैं।

"महाराज। कोई कमी नहीं है। पहनने को कपड़े हैं, सोने के लिए बिछौना है। पानी रखने के लिए मिट्टी का घड़ा है। खाने के लिए विद्यार्थी सीधा ले आते है। झोपड़ी के बाहर खड़ी चौलाई का साग हो जाता है और भला इससे अधिक की जरूरत भी क्या है? यही कारण है कि हमें तंगी नहीं प्रतीत होती।"

उस वृद्ध नारी के ये वचन सुनकर महाराज मन-ही-मन श्रद्धानत हो गए। फिर भी प्रकट में उन्होंने आग्रह किया, "देवि। हम चाहते हैं कि आपको कुछ गाँवों की जागीर प्रदान करें। इससे होने वाली आय से गुरुकुल भी ठीक तरह से चल सकेगा और आपके जीवन में भी कोई अभाव नहीं होगा।"

उत्तर में वह वृद्धा ब्राह्मणी मुस्कराई और कहने लगी,  "राजन्। प्रत्येक मनुष्य को परमात्मा ने जीवनरूपी जागीर पहले से ही दे रखी है। जो जीवन की इस जागीर को भली प्रकार सँभालना सीख जाता है, उसे फिर किसी चीज का कोई अभाव नहीं रह जाता।"

इस संतुष्ट और श्रुत साधक दंपत्ति के चरणों में नरेश का मस्तक श्रद्धा से झुक गया।

👉 शिष्ट और शालीन बनें

शिक्षित सम्पन्न और सम्मानित होने के बावजूद भी कई बार व्यक्ति के संबंध में गलत धारणाएँ उत्पन्न हो जाती हैं और यह समझा जाने लगता है कि योग्य होते हुए भी अमुक व्यक्ति के व्यक्तित्व में कमियाँ हैं। इसका कारण यह है कि शिक्षित, सम्पन्न और सम्माननीय होते हुए भी व्यक्ति के आचरण से, उसके व्यवहार से कहीं न कहीं कोई फूहड़ता टपकती है, जो उसे अशिष्ट कहलवाने लगती है। विश्व स्तर पर एक बड़ी संख्या में लोग सम्पन्न और शिक्षित भले ही हों, किन्तु उनके व्यवहार में यदि शिष्टता और शालीनता नहीं है, तो उनका लोगों पर प्रभाव नहीं पड़ता। उनकी विभूतियों की चर्चा सुनकर लोग भले ही प्रभावित हो जाएँ, परन्तु उनके सम्पर्क में आने पर अशिष्ट आचरण की छाप उस प्रभाव को धूमिल कर देती है।
    
शिक्षा, सम्पन्नता और प्रतिष्ठा की दृष्टि से कोई व्यक्ति कितना ही ऊँचा हो, लेकिन उसे हर्ष के अवसर पर हर्ष, शोक के अवसर पर शोक की बातें करना न आये, तो लोग उसका मुँह देखा सम्मान भले ही करें, परन्तु मन में उसके प्रति कोई अच्छी धारणाएँ नहीं रख सकेंगे। शिष्टाचार और लोक व्यवहार का यही अर्थ है कि हमें समयानुकूल आचरण तथा बड़े-छोटों से उचित बर्ताव करना आये। यह गुण किसी विद्यालय में प्रवेश लेकर अर्जित नहीं किया जा सकता। इसका ज्ञान प्राप्त करने के लिए सम्पर्क और पारस्परिक व्यवहार का अध्ययन तथा क्रियात्मक अभ्यास ही किया जाना चाहिए। अधिकांश व्यक्ति यह नहीं जानते कि किस अवसर पर कैसे व्यक्ति से कैसा व्यवहार करना चाहिए? कहाँ किस प्रकार उठना-बैठना चाहिए और किस प्रकार चलना-रुकना चाहिए। यदि खुशी के अवसर पर शोक और शोक के समय हर्ष की बातें की जायें, या बच्चों के सामने दर्शन और वैराग्य तथा वृद्धजनों की उपस्थिति में बालोचित या यौवजनोचित शरारतें, हास्य विनोद भरी बातें की जायें अथवा गर्मी में चुस्त, गर्म, भड़कीले वस्त्र और शीत ऋतु में हल्के कपड़े पहने जायें, तो देखने वाले के मन में आदर नहीं उपेक्षा और तिरस्कार की भावना ही आयेगी।
    
कोई भी क्षेत्र  क्यों न हो, हम घर में हो या बाहर कार्यालय में हो अथवा दुकान पर और मित्रों-परिचितों के बीच हों अथवा अजनबियों में, हर क्षण व्यवहार करते समय शिष्टाचार बरतना आवश्यक है। कहा गया है कि शिष्टाचार जीवन का वह दर्पण है, जिसमें हमारे व्यक्तित्व का स्वरूप दिखाई देता है। इसी के द्वारा मनुष्य का समाज से प्रथम परिचय होता है। यह न हो तो व्यक्ति समाज में रहते हुए भी समाज से कटा-कटा सा रहेगा और किसी प्रकार आधा-अधूरा जीवन जीने के लिए बाध्य होगा। जीवन साधना के साधक को यह शोभा नहीं देता। उसे जीवन में पूर्णता लानी ही चाहिए। अस्तु, शिष्टाचार को भी जीवन में समुचित स्थान देना ही चाहिए।
    
शिष्टता मनुष्य के मानसिक विकास का भी परिचायक है। कहा जा चुका है कि कोई व्यक्ति कितना ही शिक्षित हो, किन्तु उसे शिष्ट और शालीन व्यवहार न करना आये, तो उसे अप्रतिष्ठा ही मिलेगी, क्योंकि पुस्तकीय ज्ञान अर्जित कर लेने से तो ही बौद्धिक विकास नहीं हो जाता। अलमारी में ढेरों पुस्तकें रखी होती हैं और पुस्तकों में ज्ञान राशि संचित रहती है। इससे आलमारी ज्ञानी और विद्वान तो नहीं कही जाती। वह पुस्तकीय ज्ञान ही केवल मस्तिष्क में आया हो, तो मष्तिष्क की तुलना आलमारी से ही की जायेगी। उस कारण यह नहीं कहा जा सकता है कि व्यक्ति मानसिक दृष्टि से विकसित है। मानसिक विकास अनिवार्य रूप से आचरण में भी प्रतिफलित होता है। व्यवहार की शिष्टता और आचरण में शालीनता ही मानसिक विकास की परिचायक है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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