आत्मसाक्षात्कार का साधन जप
मंत्र जप के विषय में बाबा कबीर कहते हैं- माला तो कर में फिरै, जीभ फिरै मुख मांहि। मनुवां तो चहुँ दिशि फिरै, यह तो सुमिरन नाहिं॥ यानि कि माला तो हाथ में घूमती रहती है और जीभ मुख में घुमती रहती है। मन चारों दिशाओं में घूमता-फिरता है। इस स्थिति को न तो जप कहा जा सकता है और न प्रभु स्मरण।
जप तो मंत्र के शब्दों के साथ विचारों और भावनाओं की एकाग्रता है। जप सकते समय प्रगाढ़ भावनाओं के साथ जो कुछ सोचा-विचारा जाता है, वही घटित होता है। इस सत्य का अनुभव कोई भी अपने जीवन में कर सकता है। बस बात इतनी भर है कि जप करने वाले साधक का जो संकल्प है, उसे उसकी चाहत है, उसके बारे में वह पूरे जप काल में सोचता रहे। इसमें यह भी जरूरी है कि इस सबके साथ उसकी गहरी भावनाएँ जुड़ी हों। यदि ऐसा है, तो समझो कि मंत्र की ऊर्जा से साधक का संकल्प सुनिश्चित रूप से साकार होकर रहेगा। यदि कोई विशेष चाहत नहीं है, तो समझो कि उसकी साधना के समस्त विघ्न स्वयमेव ही समाप्त होते रहेंगे।
इसी सत्य को महर्षि अपने अगले सूत्र में बताते हैं-
ततः प्रत्यक्चेतनाधिगमयोऽप्यन्तरायाभावश्च॥ १/२९॥
शब्दार्थ-ततः= उक्त साधन से; अन्तरायाभावः= विघ्नों का अभाव; च= और प्रत्यक्चेतनाधिगमः= अन्तरात्मा के स्वरूप का ज्ञान; अपि= भी (हो जाता है)।
अर्थात् प्रभु नाम की जप साधना से साधना की सारी बाधाओं की समाप्ति होती है और आत्म साक्षात्कार हो जाता है।
जो जप साधना को सामान्य समझने की भूल करते हैं, उन्हें बार-बार इस सूत्र पर चिन्तन-मनन करना चाहिए। जो गहरी आस्था, श्रद्धा व सम्पूर्ण मानसिक एकाग्रता के साथ जप करते हैं, उनके लिए जप स्वयं ही सब कुछ कर देता है। ब्रह्मर्षि परम पूज्य गुरुदेव इसकी व्याख्या में एक ऐसे महासाधक का उदाहरण देते थे, जो पहले किसी गम्भीर बीमारी से ग्रस्त थे। पर बाद में वे न केवल निरोगी हुए, बल्कि उन्होंने अध्यात्म तत्त्व का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया। इनका संन्यास नाम स्वामी सर्वानन्द था। परम पूज्य गुरुदेव से इनकी मुलाकात हिमालय यात्रा के समय हुई। तभी इन्होंने गुरुदेव को अपने जीवन का यह प्रसंग सुनाया।
.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ ११४
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या