शनिवार, 23 अक्टूबर 2021

👉 विशेष अनुदान विशेष दायित्व

भगवान् ने मनुष्य के साथ कोई पक्षपात नहीं किया है, बल्कि उसे अमानत के रूप में कुछ विभूतियाँ दी हैं। जिसको सोचना, विचारणा, बोलना, भावनाएँ, सिद्धियाँ-विभूतियाँ कहते हैं। ये सब अमानतें हैं। ये अमानतें मनुष्यों को इसलिए नहीं दी गई हैं कि उनके द्वारा वह सुख-सुविधाएँ कमाये और स्वयं के लिए अपनी ऐय्याशी या विलासिता के साधन इकट्ठे करे और अपना अहंकार पूरा करे। ये सारी की सारी चीजें सिर्फ इसलिए उसको दी गयी हैं कि इन चीजों के माध्यम से वो जो भगवान् का इतना बड़ा विश्व पड़ा हुआ है, उसकी दिक्कतें और कठिनाइयों का समाधान करे और उसे अधिक सुन्दर और सुव्यवस्थित बनाने के लिए प्रयत्न करे।
    
बैंक के खजांची के पास धन रखा रहता है और इसलिए रखा रहता है कि सरकारी प्रयोजनों के लिए इस पैसे को खर्च करे। उसको उतना ही इस्तेमाल करने का हक है, जितना कि उसको वेतन मिलता है। खजाने में अगर लाखों रुपये रखे हों, तो खजांची उन्हें कैसे खर्च कर सकता है? पुलिस और फौज का कमाण्डर है, उसको अपना वेतन लेकर जितनी सुविधाएँ मिली हैं, उसी से काम चलाना चाहिए और बाकी जो उसके पास बहुत सारी सामर्थ्य और शक्ति बंदूक चलाने के लिए मिली है, उसको सिर्फ उसी काम में खर्च करना चाहिए, जिस काम के लिए सरकार ने उसको सौंपा है।
    
हमारी सरकार भगवान् है और मनुष्य के पास जो कुछ भी विभूतियाँ, अक्ल और विशेषताएँ हैं, वे अपनी व्यक्तिगत ऐय्याशी और व्यक्तिगत सुविधा और व्यक्तिगत शौक-मौज के लिए नहीं हैं और व्यक्तिगत अहंकार की तृप्ति के लिए नहीं है। इसलिए जो कुछ भी उसको विशेषता दी गई है। उसको उतना बड़ा जिम्मेदार आदमी समझा जाए और जिम्मेदारी उस रूप में निभाए कि सारे के सारे विश्व को सुंदर बनाने में, सुव्यवस्थित बनाने में, समुन्नत बनाने में उसका महान् योगदान संभव हो।
    
भगवान् का बस एक ही उद्देश्य है- निःस्वार्थ प्रेम। इसके आधार पर भगवान् ने मनुष्य को इतना ज्यादा प्यार किया। मनुष्य को उस तरह का मस्तिष्क दिया है, जितना कीमती कम्प्यूटर दुनिया में आज तक नहीं बना। करोड़ों रुपये की कीमत का है, मानवीय मस्तिष्क। मनुष्य की आँखें, मनुष्य के कान, नाक, आँख, वाणी एक से एक चीज ऐसी हैं, जिनकी रुपयों में कीमत नहीं आँकी जाती है। मनुष्य के सोचने का तरीका इतना बेहतरीन है, जिसके ऊपर सारी दुनिया की दौलत न्योछावर की जा सकती है।
    
ऐसा कीमती मनुष्य और ऐसा समर्थ मनुष्य- जिस भगवान् ने बनाया है, उस भगवान् की जरूर ये आकांक्षा रही है कि मेरी इस दुनिया को समुन्नत और सुखी बनाने में यह प्राणी मेरे सहायक के रूप में, और मेरे कर्मचारी के रूप में, मेरे असिस्टेण्ट के रूप में मेरे राजकुमार के रूप में काम करेगा और मेरी सृष्टि को समुन्नत रखेगा।
    
मानव जीवन की विशेषताओं का और भगवान् के द्वारा विशेष विभूतियाँ मनुष्य को देने का एक और भी उद्देश्य है। जब मनुष्य इस जिम्मेदारी को समझ ले और ये समझ ले कि ‘मैं क्यों पैदा हुआ हूँ, और यदि मैं पैदा हुआ हूँ? तो मुझे अब क्या करना चाहिए?’ यह बात अगर समझ में आ जाए, तो समझना चाहिए कि इस आदमी का नाम मनुष्य है और इसके भीतर मनुष्यता का उदय हुआ और इसके अंदर भगवान् का उदय हो गया और भगवान् की वाणी उदय हो गयी, भगवान् की विचारणाएँ उदय हो गयीं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 भक्तिगाथा (भाग ७८)

प्रभु के भजन का, स्मरण का क्रम अखण्ड बना रहे

सदा श्वेत वस्त्र धारण करने वाले गंगापुत्र-देवव्रत-भीष्म की भक्तिगाथा सुनकर हिमालय के श्वेत शिखर भी भावों में भीग गए। ऋषि धौम्य से भीष्म की भावकथा सुनकर ब्रह्मर्षि वशिष्ठ के अन्तःकरण में भावों की तीव्र हिलोर उठी। वह सोचने लगे कि अष्टवसुओं का अपराध बड़ा था या कि उनका शाप? सात वसुओं को तो भगवती गंगा ने अपनी परम पावन जलधारा में प्रवाहित कर मुक्त कर दिया पर आठवें वसु को अपने मोक्ष का पुण्यक्षण पाने के लिए सुदीर्घ यात्रा करनी पड़ी। सहनी पड़ी उन्हें अनगिन यातनाएँ, भावों की मर्मान्तक व्यथाएँ, जीवन भर पल-पल रचे जाने वाले कुचक्रों के कुटिल कंटक उन्हें चुभते रहे। हाँ! इन कंटको के बीच श्रीकृष्ण उन्हें सदा याद रहे। अपने अतीत के पृष्ठ निहारते हुए ब्रह्मर्षि वशिष्ठ को यह स्मरण तो आया कि अपने ही शाप से वह कितने दुःखी हुए थे और तब उन्होंने पीड़ित-विकल मन से सर्वेश्वर परमात्मा को पुकारते हुए प्रार्थना की थी- ‘‘मेरे शाप को भी वरदान बना दो हे करूणासिन्धु!’’ और सचमुच ही प्रभु ने उनकी पुकार सुन ली। उन्होंने वशिष्ठ के शाप को वरदान में बदलते हुए आठवें वसु को महान शूरवीर और अपना परमभक्त बना दिया।

ब्रह्मर्षि वशिष्ठ अपनी इन चिन्तन कड़ियों में खोए हुए थे। सप्तर्षियों में उनके छः सहयोगियों ने उनके मुख की ओर देखा। उन ऋषिश्रेष्ठ की भावदशा उनसे छुपी न रही। वे सोचने लगे कि सचमुच ही ब्रह्मर्षि सच्चे भगवद्भक्त हैं। क्योंकि भक्त ही है जिसके भावपूर्ण अन्तःकरण में द्वेष, वैर और क्रोध आ ही नहीं सकते। असमय और विषमता में आया हुआ उसके मन का क्रोध भी सहज ही करूणा में रूपान्तरित हो जाता है। ऋषि धौम्य ने ब्रह्मर्षि वशिष्ठ सहित सप्तर्षिमण्डल के अन्य सदस्यों के अन्तःकरण में उठ रही भावतंरगों के आरोह-अवरोह को देखा। साथ ही उन्होंने अपने हृदय में एक अनूठी आध्यात्मिक भावदशा को अनुभव किया। कुछ पलों के मौन के बाद उन्होंने ब्रह्मर्षि वशिष्ठ की ओर देखते हुए कहा- ‘‘ब्रह्मर्षि! गंगापुत्र अपने जीवन के अन्तिम पल तक सदा ही आपके कृतज्ञ रहे। एक अवसर पर तो उन्होंने योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण से भी कहा था- हे लीलामय! आपकी मेरे ऊपर यह अहैतुकी कृपा ब्रह्मर्षि वशिष्ठ के उस आशीष का सुफल है, जो उन्होंने अतीत में मुझे दिया था।’’

इन स्मृतियों के झरोखों से अतीत अपनी और झलकियाँ दिखा पाता, इसके पहले ही ब्रह्मर्षि वशिष्ठ स्वयं को संयत करते हुए देवर्षि नारद से बोले- ‘‘हे भक्तश्रेष्ठ! हम सभी को आपके नवीन भक्ति सूत्र की प्रतीक्षा है।’’ ऋषि वशिष्ठ के कथन पर देवर्षि ने अपनी मौन सहमति जताई। अन्य सभी ऋषियों, देवों, सिद्धों एवं तपस्वियों ने अपनी सम्मति दी। हिमालय के हिमशिखर भक्तिगंगा के नवीन प्रवाह के साक्षी बनने के लिए उत्सुक थे। देवर्षि ने सभी की इस उत्सुकता को शान्त करते हुए अपने नए सूत्र सत्य का उच्चारण किया-

‘अव्यावृतभजनात्’॥ ३६॥
अखण्ड भजन से (भक्ति का साधन) सम्पन्न होता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १४७

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