🔵 इस परम सूत्र में जिस महागीत का इशारा किया गया है, निश्चित ही उसे आज की स्थिति में सम्पूर्ण रूप से नहीं सुना जा सकता है। इसे पूरी तरह से सुनने के लिए हमें भी धीरे- धीरे भीतर लयबद्ध होना पड़ेगा। क्योंकि समान ही समान का अनुभव कर सकता है। अगर हमें उस महासंगीत की अनुभूति करनी है तो खुद भी संगीतपूर्ण हो जाना पड़ेगा। अगर हम उस परम प्रकाश को देखना चाहते हैं तो निश्चित ही हमें प्रकाशपूर्ण हो जाना पड़ेगा। अगर उस दिव्य अमृततत्त्व का स्वाद चखना है तो मृत्यु के रहस्य के पार जाना होगा।
🔴 दरअसल हम जिसको जानना चाहते हैं, उसके जैसा हमें होना भी पड़ता है। क्योंकि समान की ही अनुभूति पायी जा सकती है। असमान की अनुभूति का कोई उपाय नहीं है। इसीलिए साधना के शिखर को पहुँचे हुए अनुभवी जनों ने कहा है- कि आँख हमारे भीतर सूरज का हिस्सा है, इसीलिए यह प्रकाश की अनुभूति पाने में सक्षम है। कान हमारे भीतर ध्वनि का हिस्सा है, इसीलिए यह सुन पाने में सक्षम है। कामवासना हमारे भीतर पृथ्वी का हिस्सा है, इसीलिए यह हमेशा नीचे की ओर खींचती रहती है। जबकि ध्यान हमारे भीतर परमात्मा का अंश है, इसीलिए हमें परमात्मा की ओर ले जाता है। यह बात जिन्दगी में बार- बार अनुभव होती है कि जो जिससे जुड़ा है, उसी का यात्रा पथ बन जाता है।
🔵 विचार करो, अहसास करने की कोशिश करो कि अपना खुद का जुड़ाव कहाँ और किससे है? अगर हम सर्वव्यापी परमचेतना के संगीत को सुनना चाहते हैं, तो उससे जुड़ना भी होगा। यह जुड़ाव कठिन तो है पर एकदम असम्भव नहीं है। भावनाएँ उस ओर बहें तो यह सम्भव है। उन भावनाओं की, उन भावानुभूतियों की स्मृति का स्मरण होता रहे तो यह सम्भव है।
🔴 कभी- कभी अचानक ही ये भावानुभूतियाँ हमें जीवन में घेर लेती हैं। जैसे किसी दिन सुबह सूरज को उगते देखकर रोम- रोम में शान्ति की लहर दौड़ने लगती है या फिर किसी रोज आकाश में तारे भरे हों और हम उन्हें जमीन पर लेटे हुए देख रहे हों, तभी अचानक अन्तर्चेतना में मौन उतर गया हो। ऐसी और भी अनेकों भावानुभूतियाँ हैं जो किसी खास क्षण में उपजती और उतरती हैं। इन अनुभूतियों का स्मरण हमें बार- बार करते रहना चाहिए। इस स्मरण के झरोखे से परम तत्त्व की झांकी उतरती है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 डॉ. प्रणव पण्डया
🔴 दरअसल हम जिसको जानना चाहते हैं, उसके जैसा हमें होना भी पड़ता है। क्योंकि समान की ही अनुभूति पायी जा सकती है। असमान की अनुभूति का कोई उपाय नहीं है। इसीलिए साधना के शिखर को पहुँचे हुए अनुभवी जनों ने कहा है- कि आँख हमारे भीतर सूरज का हिस्सा है, इसीलिए यह प्रकाश की अनुभूति पाने में सक्षम है। कान हमारे भीतर ध्वनि का हिस्सा है, इसीलिए यह सुन पाने में सक्षम है। कामवासना हमारे भीतर पृथ्वी का हिस्सा है, इसीलिए यह हमेशा नीचे की ओर खींचती रहती है। जबकि ध्यान हमारे भीतर परमात्मा का अंश है, इसीलिए हमें परमात्मा की ओर ले जाता है। यह बात जिन्दगी में बार- बार अनुभव होती है कि जो जिससे जुड़ा है, उसी का यात्रा पथ बन जाता है।
🔵 विचार करो, अहसास करने की कोशिश करो कि अपना खुद का जुड़ाव कहाँ और किससे है? अगर हम सर्वव्यापी परमचेतना के संगीत को सुनना चाहते हैं, तो उससे जुड़ना भी होगा। यह जुड़ाव कठिन तो है पर एकदम असम्भव नहीं है। भावनाएँ उस ओर बहें तो यह सम्भव है। उन भावनाओं की, उन भावानुभूतियों की स्मृति का स्मरण होता रहे तो यह सम्भव है।
🔴 कभी- कभी अचानक ही ये भावानुभूतियाँ हमें जीवन में घेर लेती हैं। जैसे किसी दिन सुबह सूरज को उगते देखकर रोम- रोम में शान्ति की लहर दौड़ने लगती है या फिर किसी रोज आकाश में तारे भरे हों और हम उन्हें जमीन पर लेटे हुए देख रहे हों, तभी अचानक अन्तर्चेतना में मौन उतर गया हो। ऐसी और भी अनेकों भावानुभूतियाँ हैं जो किसी खास क्षण में उपजती और उतरती हैं। इन अनुभूतियों का स्मरण हमें बार- बार करते रहना चाहिए। इस स्मरण के झरोखे से परम तत्त्व की झांकी उतरती है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 डॉ. प्रणव पण्डया