सोमवार, 3 जून 2019
👉 अध्यात्म से मानव-जीवन का चरमोत्कर्ष (भाग 2)
सामान्य लोगों के बीच प्रायः यह भ्रम फैला हुआ है कि अध्यात्मवाद का लौकिक जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं है। वह तो योगी तपस्वियों का क्षेत्र है, जो जीवन में दैवी वरदान प्राप्त करना चाहते है। जो साँसारिक जीवनयापन करना चाहते है। घर-बार बसाकर रहना चाहते है, उनसे अध्यात्म का सम्बन्ध नहीं। इसी भ्रम के कारण बहुत से गृहस्थ भी, जो दैवी वरदान की लालसा के फेर में पड़ जाते है, अध्यात्म मार्ग पर चलने का प्रयत्न करते है। किन्तु अध्यात्म का सही अर्थ न जानने के कारण थोड़ा -सा पूजा-पाठ कर लेने को ही अध्यात्म मान लेते है।
यह बात सही है कि अध्यात्म मार्ग पर चलने ये उसकी साधना करने से दैवी वरदान भी मिलते है और ऋद्धि-सिद्धि की भी प्राप्ति होती है। किन्तु वह उच्च स्तरीय सूक्ष्म-साधना का फल है। कुछ दिनों पूजा-पाठ करने अथवा जीवन भर यों ही कार्यक्रम के अंतर्गत पूजा करते रहने पर भी ऋषियों वाला ऐश्वर्य प्राप्त नहीं हो सकता। उस स्तर की साधना कुछ भिन्न प्रकार की होती है। वह सर्व सामान्य लोगों के लिये सम्भव नहीं। उन्हें इस तपसाध्य अध्यात्म में न पड़कर अपने आवश्यक कर्तव्यों में ही आध्यात्मिक निष्ठा रखकर जीवन को आगे बढ़ाते रहना चाहिये। उनके साधारण पूजा-पाठ का जो कि जीवन का एक अनिवार्य अंग होना चाहिये, अपनी तरह से लाभ मिलता रहेगा।
थोड़ी सी साधारण पूजा, उपासना करके जो जीवन में अलौकिक ऋद्धि-सिद्धि पाने की लालसा रखते है, वे किसी जुआरी की तरह नगण्य सा धन लगाकर बहुत अधिक लाभ उठाना चाहते है। बिना श्रम के मालामाल होना चाहते हैं। लोभी उपासकों की यह अनुचित आशा कभी भी पूरी नहीं हो सकती और हो वह भी सकता है कि इस लोभ के कारण उनकी अपनी उस सामान्य उपासना का भी कोई फल न मिले। देवताओं का वरदान वस्तुतः इतना सस्ता नहीं होता, जितना कि लोगों ने समझ रखा हे। वे मन्दिर में जाकर हाथ जोड़ जाने या अक्षत-पुण्य जैसी तुच्छ वस्तुएँ चढ़ा देने से प्रसन्न हो जायेंगे और अपने वरदान लुटाने लगेंगे-ऐसा सोचना अज्ञान के सिवाय और कुछ नहीं है। सामान्य पूजा-पाठ का अपना जो पुरस्कार है, मिलेगा वही, उससे अधिक कुछ नहीं।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1969 पृष्ठ 8
यह बात सही है कि अध्यात्म मार्ग पर चलने ये उसकी साधना करने से दैवी वरदान भी मिलते है और ऋद्धि-सिद्धि की भी प्राप्ति होती है। किन्तु वह उच्च स्तरीय सूक्ष्म-साधना का फल है। कुछ दिनों पूजा-पाठ करने अथवा जीवन भर यों ही कार्यक्रम के अंतर्गत पूजा करते रहने पर भी ऋषियों वाला ऐश्वर्य प्राप्त नहीं हो सकता। उस स्तर की साधना कुछ भिन्न प्रकार की होती है। वह सर्व सामान्य लोगों के लिये सम्भव नहीं। उन्हें इस तपसाध्य अध्यात्म में न पड़कर अपने आवश्यक कर्तव्यों में ही आध्यात्मिक निष्ठा रखकर जीवन को आगे बढ़ाते रहना चाहिये। उनके साधारण पूजा-पाठ का जो कि जीवन का एक अनिवार्य अंग होना चाहिये, अपनी तरह से लाभ मिलता रहेगा।
थोड़ी सी साधारण पूजा, उपासना करके जो जीवन में अलौकिक ऋद्धि-सिद्धि पाने की लालसा रखते है, वे किसी जुआरी की तरह नगण्य सा धन लगाकर बहुत अधिक लाभ उठाना चाहते है। बिना श्रम के मालामाल होना चाहते हैं। लोभी उपासकों की यह अनुचित आशा कभी भी पूरी नहीं हो सकती और हो वह भी सकता है कि इस लोभ के कारण उनकी अपनी उस सामान्य उपासना का भी कोई फल न मिले। देवताओं का वरदान वस्तुतः इतना सस्ता नहीं होता, जितना कि लोगों ने समझ रखा हे। वे मन्दिर में जाकर हाथ जोड़ जाने या अक्षत-पुण्य जैसी तुच्छ वस्तुएँ चढ़ा देने से प्रसन्न हो जायेंगे और अपने वरदान लुटाने लगेंगे-ऐसा सोचना अज्ञान के सिवाय और कुछ नहीं है। सामान्य पूजा-पाठ का अपना जो पुरस्कार है, मिलेगा वही, उससे अधिक कुछ नहीं।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1969 पृष्ठ 8
👉 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति (भाग 6)
👉 सद्गुरु की कृपा से तरते हैं भवरोग
यामि गुरुं शरणं भववैद्यम्- जीवन के सभी सांसारिक रोगों के आध्यात्मिक चिकित्सक वही सद्गुरु मेरे आश्रय हैं। जीवन की प्रकृति, समय और परिस्थितियों के विपरीत होने से कई बार प्रदूषित होती है। उसमें विकृति एवं विकार पनपते हैं। कई तरह के शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक रोग उसे घेर लेते हैं। सामान्य चिकित्सक न तो इनकी तह तक पहुँच पाते हैं और न इनका समाधान कर पाते हैं। वजह एक ही है कि इनका समाधान सामान्य औषधियाँ नहीं बल्कि उपयुक्त जीवन साधना है। जिसे केवल समर्थ आध्यात्मिक चिकित्सक ही बता सकता है। संक्षेप में कहें तो सद्गुरु के स्वरों में ही समाधान के सूत्र होते हैं।
सवाल पूछा जा सकता है कि सद्गुरु कौन? तो इस महाप्रश्र का सरल उत्तर यह है कि सद्गुरु वे हैं जो मनुष्य जीवन के दृश्य एवं अदृश्य सभी आयामों के मर्मज्ञ होते हैं। मानवीय चेतना की सम्पूर्णता का उन्हें विशेषज्ञ अनुभव होता है। वे हमारे वर्तमान को जानने की जितनी गहन क्षमता रखते हैं, अतीत के बारे में भी वे उतनी ही जानकारी रखते हैं। साथ ही उन्हें हमारे भविष्य का पारदर्शी ज्ञान होता है। शरीर की कार्यक्षमता, मन की विचार शैली, चित्त में समाये जन्म- जन्मान्तर के कर्म संस्कार, अहंकार की उलझी गाँठें, सद्गुरु इन सभी के बारे में बखूबी जानते हैं। उनमें इनके परिमार्जन, परिष्कार की अपूर्व क्षमता होती है। यही कारण है कि सद्गुरु का मिलन हमारे महासौभाग्य का सूचक है। यह इस सत्य का उद्घोष है कि हमारे जीवन की सम्पूर्ण आध्यात्मिक चिकित्सा की शुभ घड़ी आ गयी।
जिन्हें यह अवसर मिला है, उनकी अनुभूति में हम इस सच्चाई का अहसास पा सकते हैं। जिन पलों में इस अनुभूति को घटित होने का क्रम प्रारम्भ हुआ, उन दिनों हमारे अपने सद्गुरु गायत्री तपोभूमि- मथुरा को केन्द्र बनाकर अपनी योजना को आकार दे रहे थे। यह १९५५ का वर्ष था। तपोभूमि में विशिष्ट यज्ञों की शृंखला चल रही थी। इसमें १. चारों वेदों का पारायण यज्ञ, २. महामृत्युञ्जय यज्ञ, ३. रुद्र यज्ञ, ४. विष्णु यज्ञ, ५. शतचण्डी यज्ञ, ६. नवग्रह यज्ञ ,, ७. गणपति यज्ञ, ८. सरस्वती यज्ञ, ९. ज्योतिष्टोम, १०. अग्रिष्टोम आदि अनेक यज्ञों की प्रक्रियाएँ शामिल थीं।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ 11
यामि गुरुं शरणं भववैद्यम्- जीवन के सभी सांसारिक रोगों के आध्यात्मिक चिकित्सक वही सद्गुरु मेरे आश्रय हैं। जीवन की प्रकृति, समय और परिस्थितियों के विपरीत होने से कई बार प्रदूषित होती है। उसमें विकृति एवं विकार पनपते हैं। कई तरह के शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक रोग उसे घेर लेते हैं। सामान्य चिकित्सक न तो इनकी तह तक पहुँच पाते हैं और न इनका समाधान कर पाते हैं। वजह एक ही है कि इनका समाधान सामान्य औषधियाँ नहीं बल्कि उपयुक्त जीवन साधना है। जिसे केवल समर्थ आध्यात्मिक चिकित्सक ही बता सकता है। संक्षेप में कहें तो सद्गुरु के स्वरों में ही समाधान के सूत्र होते हैं।
सवाल पूछा जा सकता है कि सद्गुरु कौन? तो इस महाप्रश्र का सरल उत्तर यह है कि सद्गुरु वे हैं जो मनुष्य जीवन के दृश्य एवं अदृश्य सभी आयामों के मर्मज्ञ होते हैं। मानवीय चेतना की सम्पूर्णता का उन्हें विशेषज्ञ अनुभव होता है। वे हमारे वर्तमान को जानने की जितनी गहन क्षमता रखते हैं, अतीत के बारे में भी वे उतनी ही जानकारी रखते हैं। साथ ही उन्हें हमारे भविष्य का पारदर्शी ज्ञान होता है। शरीर की कार्यक्षमता, मन की विचार शैली, चित्त में समाये जन्म- जन्मान्तर के कर्म संस्कार, अहंकार की उलझी गाँठें, सद्गुरु इन सभी के बारे में बखूबी जानते हैं। उनमें इनके परिमार्जन, परिष्कार की अपूर्व क्षमता होती है। यही कारण है कि सद्गुरु का मिलन हमारे महासौभाग्य का सूचक है। यह इस सत्य का उद्घोष है कि हमारे जीवन की सम्पूर्ण आध्यात्मिक चिकित्सा की शुभ घड़ी आ गयी।
जिन्हें यह अवसर मिला है, उनकी अनुभूति में हम इस सच्चाई का अहसास पा सकते हैं। जिन पलों में इस अनुभूति को घटित होने का क्रम प्रारम्भ हुआ, उन दिनों हमारे अपने सद्गुरु गायत्री तपोभूमि- मथुरा को केन्द्र बनाकर अपनी योजना को आकार दे रहे थे। यह १९५५ का वर्ष था। तपोभूमि में विशिष्ट यज्ञों की शृंखला चल रही थी। इसमें १. चारों वेदों का पारायण यज्ञ, २. महामृत्युञ्जय यज्ञ, ३. रुद्र यज्ञ, ४. विष्णु यज्ञ, ५. शतचण्डी यज्ञ, ६. नवग्रह यज्ञ ,, ७. गणपति यज्ञ, ८. सरस्वती यज्ञ, ९. ज्योतिष्टोम, १०. अग्रिष्टोम आदि अनेक यज्ञों की प्रक्रियाएँ शामिल थीं।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ 11
👉 The Absolute Law Of Karma (Part 23)
CREATE YOUR OWN WORLD
The physical cosmos, according to a philosopher, is made up of inert components, which can be moulded into any desired configuration. The doer, man, is animate, whereas elements of the cosmos are inert. The animate doer has the capacity to utilize an inert substance as needed. A potter has free choice to make any object of pottery out of raw mud. A goldsmith can make any ornament from gold. With the needle and thread, a tailor may make a shirt or a trouser. The material world consists of elements creating three types of ‘qualitative reactions’ in life. In spiritual parlance these ‘natural attributes’ of the world are known as Sat, Raj and Tam. Broadly speaking, Sat stands for the most refined cohesive and super conductive medium of the spirit; Tam for the most opaque, sluggish and perverted and Raj most perturbed and unstable in which both Sat and Tam coexist in continued disequilibrium. Man is free to choose any combination of attributes amongst these with the one predominant over the other two.
In a garden there is slush, filth as well as fragrance of flowers. Worms creep into the mud, flies find out the filth and the bees go straight to the flowers. Everyone receives things of one’s choice. Bats and owls can see even during the darkest of night. Honeybees are able to detect fructose in the tiny flowers hidden in a thick bush and the poisonous snakes manufacture venom out of harmless organic substances. In this world, good and bad things, virtues and vices, morality and immorality exist everywhere. It is like that super cafeteria, where the customer has free choice to procure sweet, sour or bitter food. The shelves of the super market of the world are stocked with stuffs of unlimited varieties. Customers enter the shop and purchase items of their taste. Our Supreme Mother has kept prepared dishes for everyone’s taste.
The Ideosphere (Personal Ideological Environment) of a thief is overwhelmed with thievery. This ideosphere will easily interact with the compatible ideosphere of other thieves. Be it a prison, society or house, everywhere a thief will find thievery being discussed. His family members will generally talk about thievery. Some will support his avocation others oppose it. When the thief moves in the society, persons known to him will pass good or bad comments about his profession. When he meets fellow thieves, they will talk only about the tricks of the trade. In a prison, thieves will flock together and immediately discuss their favourite subject. In this way a thief will find the entire world revolving around thievery. He will regard thievery as the most important trade and think very little of anything else. He will be indifferent to other things in life. Similarly an adulterer or adulteress will see an adulterant in each man and woman. He/she will collect and display erotic photographs, paintings and literature in the house. Friends and acquaintances having similar inclinations will be easily found. In his/her mind sex will become the most important issue in life. In the same manner drunkards and drug addicts create their own worlds. It is up to you to create the world of your choice.
.... to be continue
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 The Absolute Law Of Karma Page 38-39
The physical cosmos, according to a philosopher, is made up of inert components, which can be moulded into any desired configuration. The doer, man, is animate, whereas elements of the cosmos are inert. The animate doer has the capacity to utilize an inert substance as needed. A potter has free choice to make any object of pottery out of raw mud. A goldsmith can make any ornament from gold. With the needle and thread, a tailor may make a shirt or a trouser. The material world consists of elements creating three types of ‘qualitative reactions’ in life. In spiritual parlance these ‘natural attributes’ of the world are known as Sat, Raj and Tam. Broadly speaking, Sat stands for the most refined cohesive and super conductive medium of the spirit; Tam for the most opaque, sluggish and perverted and Raj most perturbed and unstable in which both Sat and Tam coexist in continued disequilibrium. Man is free to choose any combination of attributes amongst these with the one predominant over the other two.
In a garden there is slush, filth as well as fragrance of flowers. Worms creep into the mud, flies find out the filth and the bees go straight to the flowers. Everyone receives things of one’s choice. Bats and owls can see even during the darkest of night. Honeybees are able to detect fructose in the tiny flowers hidden in a thick bush and the poisonous snakes manufacture venom out of harmless organic substances. In this world, good and bad things, virtues and vices, morality and immorality exist everywhere. It is like that super cafeteria, where the customer has free choice to procure sweet, sour or bitter food. The shelves of the super market of the world are stocked with stuffs of unlimited varieties. Customers enter the shop and purchase items of their taste. Our Supreme Mother has kept prepared dishes for everyone’s taste.
The Ideosphere (Personal Ideological Environment) of a thief is overwhelmed with thievery. This ideosphere will easily interact with the compatible ideosphere of other thieves. Be it a prison, society or house, everywhere a thief will find thievery being discussed. His family members will generally talk about thievery. Some will support his avocation others oppose it. When the thief moves in the society, persons known to him will pass good or bad comments about his profession. When he meets fellow thieves, they will talk only about the tricks of the trade. In a prison, thieves will flock together and immediately discuss their favourite subject. In this way a thief will find the entire world revolving around thievery. He will regard thievery as the most important trade and think very little of anything else. He will be indifferent to other things in life. Similarly an adulterer or adulteress will see an adulterant in each man and woman. He/she will collect and display erotic photographs, paintings and literature in the house. Friends and acquaintances having similar inclinations will be easily found. In his/her mind sex will become the most important issue in life. In the same manner drunkards and drug addicts create their own worlds. It is up to you to create the world of your choice.
.... to be continue
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 The Absolute Law Of Karma Page 38-39
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