पौराणिक साहित्य में ऐसे कई कथानक हैं, जिन्हें पढ़ने से पता चलता है कि बहुत ही समर्थ साधक वर्षों की निरन्तर साधना के बावजूद एकदिन अचानक अपना और अपनी साधना का सत्यानाश करा बैठे। महर्षी वाल्मीकि रामायण के आदिकाण्ड में ब्रह्मर्षी विश्वामित्र की कथा कुछ ऐसी ही है। त्रिशंकु को सदेह स्वर्ग भेजने वाले विश्वामित्र को अपनी साधना में कई बार स्खलित होना पड़ा। ऐसा केवल इसलिए हुआ, क्योंकि उन्होंने अपने ऊपर सजग दृष्टि नहीं रखी। शिष्य का पहला और अनिवार्य कर्त्तव्य है कि वह अपने गुरुदेव के आदर्श को सदा अपने सम्मुख रखे।
गुरु चेतना के प्रकाश में हमेशा स्वयं को परखता रहे कि कहीं कोई लालसा, वासना तो नहीं पनप रही। कहीं कोई चाहत तो नहीं उमग रही। यदि ऐसा है तो वह अपनी मनःस्थिति को कठिन तप करके बदल डाले। उन परिस्थितियों से स्वयं को दूर कर ले। क्योंकि पाप का छोटा सा अंकुर, अग्रि कीचिनगारी की तरह है- जिससे देखते- देखते समस्त तप साधना भस्म हो सकती है। इसलिए शिष्यों के लिए महान् साधकों का यही निर्देश है कि जीवन की तृष्णा एवं सुख की चाहत से सदा दूर रहें। इस सूत्र को अपनाने पर ही शिष्य संजीवनी का अगला सूत्र प्रकट होगा। जिसके द्वारा शिष्यत्व की साधना के नए वातायन खुलेंगे, नए आयाम विकसित होंगे।
क्रमशः जारी
- डॉ. प्रणव पण्डया
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