शुक्रवार, 4 मार्च 2022

👉 हारिय न हिम्मत दिनांक :: ४

जीवन को यज्ञमय बनाओ

मन में सबके लिए सद्भावनाएँ रखना, संयमपूर्ण सच्चरित्रता के साथ समय व्यतीत करना, दूसरों की भलाई बन सके उसके लिए प्रयत्नशील रहना, वाणी को केवल सत्प्रयोजनों के लिए ही बोलना, न्यायपूर्ण कमाई पर ही गुजारा करना, भगवान का स्मरण करते रहना, अपने कर्तव्य पथ पर आरूढ़ रहना, अनुकूल- प्रतिकूल परिस्थितियों में विचलित न होना- यही नियम हैं जिनका पालन करने से जीवन यज्ञमय बन जाता है। मनुष्य जीवन को सफल बना लेना ही सच्ची दूरदर्शिता औरबुद्धिमता है।

जब तक हम में अहंकार की भावना रहेगी तब तक त्याग की भावना का उदय होना कठिन है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य


👉 Lose Not Your Heart Day 4
Make Your Life an Offering

To make your life an offering, make sure that you comply with the following:

•    See every person as worthy of kindness.
•    Utilize your time with honesty and discipline.
•    Work for the welfare of others.
•    Limit your speech to worthy causes.
•    Accept only that which you have honestly earned.
•    Constantly keep God in your thoughts.
•    Stay focused on your duties.
•    Maintain your mental equilibrium.

Making your life an offering is the sign of true intelligence and farsight. Your life cannot truly be considered an offering until you give up your ego.

~ Pt. Shriram Sharma Acharya

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👉 हारिय न हिम्मत दिनांक :: ३

अंतरात्मा का सहारा पकड़ो

यदि तुम शांति, सामर्थ्य और शक्ति चाहते हो तो अपनी अंतरात्मा का सहारा पकड़ो। तुम सारे संसार को धोखा दे सकते हो किंतु अपनी आत्मा को कौन धेाखा दे सका है। यदि प्रत्येक कार्य में आप अंतरात्मा की सम्मति प्राप्त कर लिया करेंगे तो विवेक पथ नष्ट न होगा ।। दुनियाँ भर का विरोध करने पर भी यदि आप अपनी अंतरात्मा का पालन कर सकें तो कोई आपको सफलता प्राप्त करने से नहीं रोक सकता।

जब कोई मनुष्य अपने आपकेा अद्वितीय व्यक्ति समझने लगता है और अपने आपको चरित्र में सबसे श्रेष्ठ मानने लगता है, तब उसका आध्यात्मिक पतन होता है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य


👉 Lose Not Your Heart Day 3
Take Refuge in Your Conscience

If you desire peace, capabilities, and energy, then take refuge in your conscience. Even if you deceive the entire world, you will never be able to deceive your conscience. If you consult it on every occasion, you will never lose your ability for moral discretion, and no matter the opposition, you will be able to succeed.

When you begin to think of yourself as the most virtuous and exemplary individual, your spiritual decay begins and you lose contact with your conscience.

~Pt. Shriram Sharma Acharya

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👉 हारिय न हिम्मत दिनांक :: २

मानवमात्र को प्रेम करो

हम जिस भारतीय संस्कृति, भारतीय विचारधारा का प्रचार करना चाहते हैं, उससे आपके समस्त कष्टों का निवारण हो सकता है। राजनीतिक शक्ति द्वारा आपके अधिकारों की रक्षा हो सकती है। पर जिस स्थान से हमारे सुख- दु:ख की उत्पत्ति होती है उसका नियंत्रण राजनीतिक शक्ति नहीं कर सकती। यह कार्य आध्यात्मिक उन्नति से ही संपन्न हो सकता है।

मनुष्य को मनुष्य बनाने की वास्तविक शक्ति भारतीय संस्कृति में ही है। यह संस्कृति हमें सिखाती है कि मनुष्य- मनुष्य से प्रेम करने को पैदा हुआ है, लडऩे- मरने को नहीं। अगर हमारे सभी कार्यक्रम ठीक ढंग से चलते रहें तो भारतीय संस्कृति का सूर्योदय अवश्य होगा।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 हारिय न हिम्मत दिनांक :: १

आध्यात्मिक चिंतन अनिवार्य

जो लोग आध्यात्मिक चिंतन से विमुख होकर केवल लोकोपकारी कार्य में लगे रहते हैं, वे अपनी ही सफलता पर अथवा सद्गुणों पर मोहित हो जाते हैं। वे अपने आपको लोक सेवक के रूप में देखने लगते हैं। ऐसी अवस्था में वे आशा करते हैं कि सब लोग उनके कार्यों की प्रशंसा करें, उनका कहा मानें। उनका बढ़ा हुआ अभिमान उन्हें अनेक लेागों का शत्रु बना देता है। इससे उनकी लोक सेवा उन्हें वास्तविक लोक सेवक न बनाकर लोक विनाश का रूप धारण कर लेती है।

आध्यात्मिक चिंतन के बिना मनुष्य में विनीत भाव नहीं आता और न उसमें अपने आपको सुधारने की क्षमता रह जाती है। वह भूलों पर भूल करता चला जाता है और इस प्रकार अपने जीवन को विफल बना देता है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 Lose Not Your Heart Day 1


Recognize the Need for Spiritual Contemplation

Performing social service without a spiritual outlook makes people obsessed with own virtue. They consider themselves great They expect obedience and praise. Because of this, their increased arrogance makes them enemies of many. They become not philanthropists, but destroyers. Without a spiritual outlook, they can never develop humility, nor do they have the ability to change themselves. Such people go on committing endless mistakes and make their own lives unbearable.

~Pt. Shriram Sharma Acharya

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👉 हारिय न हिम्मत ( Lose Not Your Heart)

दूसरे के छिद्र देखने से पहले अपने छिद्रों को टटोलो। किसी और की बुराई करने से पहले यह देख लो कि हम में तो कोई बुराई नहीं है। यदि हो तो पहले उसे दूर क रो। दूसरों की निन्दा करने में जितना समय देते हो उतना समय अपने आत्मोत्कर्ष में लगाओ। तब स्वयं इससे सहमत होंगे कि परनिंदा से बढऩेवाले द्वेष को त्याग कर परमानंद प्राप्ति की ओर बढ़ रहे हो।

संसार को जीतने की इच्छा करने वाले मनुष्यों! पहले अपनेकेा जीतने की चेष्टा करो। यदि तुम ऐसा कर सके तो एक दिन तुम्हारा विश्व विजेता बनने का स्वप्न पूरा होकर रहेगा। तुम अपने जितेंद्रिय रूप से संसार के सब प्राणियों को अपने संकेत पर चला सकोगे। संसार का कोई भी जीव तुम्हारा विरोधी नहीं रहेगा।


👉 Lose Not Your Heart

Before pointing out the faults of others, search for faults in yourself and do your best to fix them first. Spend as much time doing this as you do criticizing others. Then you will realize that the harm caused by criticizing others can replace your happiness. Therefore happiness only comes from removing this harm.

People who wish to conquer the world should conquer themselves first. If you can do this, then you can conquer anything. People
will not stand against you, but will be influenced by you.

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य


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👉 प्रेरणादायक प्रसंग Prernadayak Prasang 4 March 2022



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👉 आज का सद्चिंतन Aaj Ka Sadchintan 4 March 2022


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👉 भक्तिगाथा (भाग ११३)

तीनों गुणों को पार कर जाती है ‘पराभक्ति’

भक्त चोखामेला के अनुभव के स्पर्श ने सभी को रोमांचित कर दिया। भावों का अन्तर्प्रवाह सभी के अस्तित्त्व में अचानक बहने लगा। भक्ति होती ही ऐसी है कि इसके बारे में सुन कर, गुन कर, जान कर और अनुभव कर भावनाएँ स्वतः ही उमगने लगती हैं, परिष्कृत होने लगती हैं। यहाँ तक कि इसकी छुअन से वासनाओं का मटमैला रंग भी स्वच्छ होने लगता है। भक्ति का स्पर्श मिले तो वासनाओं का अंधियारा, भावनाओं का उजियारा बन जाता है। भक्त चोखामेला की भक्ति भी उन्हीं की तरह चोखी व खरी थी तभी तो महाराज सत्यधृति भी उन्हीं के रंग में ऐसे रंगे कि युग बीत जाने के बाद, जीवात्मा से वस्त्र उतर जाने के बाद भी उनके ऊपर से यह रंग उतरा नहीं था। अभी भी भक्त-चोखामेला की स्मृति उन्हें पुलकित, गदगद एवं आह्लादित करती थी।

इन क्षणों में भी वह भावों में भीगे हुए थे। सबकी दृष्टि उनकी ओर थी, लेकिन उनकी नजरें देवर्षि नारद के चेहरे पर टिकी थीं। सम्भवतः उनकी दृष्टि में नए भक्तिसूत्र की उत्सुकता एवं प्रतीक्षा थी। इस दृष्टि को अन्य सभी ने भी पहचाना और वे सब भी देवर्षि नारद की ओर देखने लगे। देवर्षि भी अब तक उनका आशय समझ चुके थे। इसलिए उन्होंने ब्रह्मर्षि वशिष्ठ की ओर देखकर कहा- ‘‘हे ब्रह्मर्षि! यदि आप सहित सप्तर्षिगण आज्ञा दें तो मैं भक्ति का अगला सूत्र प्रस्तुत करूं।’’ देवर्षि के इस कथन का सबने प्रसन्न मन से स्वागत किया। सभी को इसी की तो प्रतीक्षा व त्वरा थी। देवर्षि ने भी प्रतीक्षा के इन क्षणों को समाप्त करते हुए अपने नए सूत्र का सत्य उच्चारित किया-

‘गौणी त्रिधा गुणभेदादार्तादिभेदाद्वा’॥ ५६॥
गौणी भक्ति गुणभेद से अथवा आर्तादि भेद से तीन प्रकार की होती है।

देवर्षि द्वारा इस सूत्र को कहे जाने पर भी किसी ने कुछ नहीं कहा, बस सभी महात्मा सत्यधृति की ओर देखते रहे। यद्यपि वह स्वयं भी मौन बैठे स्वयं को वातावरण के मौन से एकाकार कर रहे थे। इस तरह से पर्याप्त समय बीत गया। नीरव वातारण यथावत निःस्पन्द बना रहा तब कहीं जाकर महात्मा सत्यधृति ने अपने शब्दों से नीरवता में रव घोला। उन्होंने कहा- ‘‘हालांकि देवर्षि का कहना सत्य है, फिर भी भक्ति तो एक ही होती है- पराभक्ति। बाकी गौणी भक्ति के तो सारे आयोजन इसी पराभक्ति को पाने और इस तक पहुँचने के लिए है। कोई भी जब और जिस किसी भी तरह से प्रभु की ओर उन्मुख होता है उसी समय उसके चित्त में भक्ति का बीजारोपण हो जाता है। फिर उसका कारण व स्वरूप कुछ भी क्यों न हो?’’

सभी जन महात्मा सत्यधृति की इन बातों को धैर्य व विश्वासपूर्वक सुन रहे थे। उन्हें मालूम था कि महाराज सत्यधृति सर्वदा और सर्वथा अनुभूत सत्य ही कहते हैं। आज भी सम्भवतः उनके अनुभवकोश से कोई अमूल्य रत्न बाहर आकर अपनी प्रकाश छटा बिखेरने वाला है। यह बात सही भी थी। महात्मा सत्यधृति ने कुछ पल रूककर कहा- ‘‘मैं एक ऐसी ही महान् विभूति का साक्षी हूँ, जिन्होंने गौणी भक्ति के क्रमिक सोपानों को पार कर पराभक्ति की निर्मलता प्राप्त की।’’ ‘‘उनकी कथा सुनाकर अनुग्रहीत करें महात्मन्।’’ गन्धर्वश्रेष्ठ चित्ररथ देर तक अपनी उत्सुकता को शान्त न रख सके और उन्होंने महाराज सत्यधृति से अपने मनोभाव कह दिए।

उत्तर में सत्यधृति ने भी प्रसन्नता से हामी भरते हुए कहना शुरू किया- ‘‘उनका नाम था विमलतीर्थ। यद्यपि बचपन में उनका पालन-पोषण, शिक्षा-संस्कार सभी उनके अपने ब्राह्मण कुल के अनुरूप हुए थे। भगवद्भक्ति में उनकी निष्ठा स्वाभाविक थी। परन्तु युवावस्था में पता नहीं पूर्वकृत किस कर्म भोग से घिर गए। पहले तो माता-पिता का देहान्त हुआ। फिर सगे सम्बन्धियों ने छल व षड़यन्त्र से उनकी सभी सम्पत्ति छीन ली। इस पर भी उन सबको चैन न मिला। उनकी शत्रुता कम नहीं हुई। वे सब उन पर प्राणघाती हमलों की योजना बनाने लगे। इतनी आपदाएँ सहते-सहते विमलतीर्थ का धैर्य चुक गया। चित्त का संस्कार कहे अथवा प्रारब्ध की योजना, उनके अन्दर का तमोगुण जाग उठा। भय व क्रोध के वशीभूत होकर उन्होंने शत्रुओं व षड़यन्त्रकारियों के विनाश के लिए भगवान रूद्र की आराधना प्रारम्भ की।

यही उनकी भक्ति की शुरूआत थी। उनकी आर्त पुकार, मन की पीड़ा, क्षोभ, भय, हृदय की भावनाएँ, अन्तःकरण की एकाग्रता- इन सभी ने मिलकर भगवान महेश्वर की करूणा को आकर्षित किया। उनके जीवन से शत्रु व षड़यन्त्र समाप्त हुए। प्रारब्ध भोग भी क्षीण हुआ, इसी के साथ मन में उदय हुआ तमोगुण भी शान्त शमित हुआ परन्तु उनकी निष्ठा भगवान महारूद्र में यथावत रही। उनके जीवन की परिस्थितियाँ अवश्य बदली थीं, परन्तु जीवन जीने के साधन इस विपद्काल में समाप्त हो चुके थे। समय थोड़ा सामान्य होते ही जिन्दगी जीने की चाहत व ख्वाहिश लौट आयी थी। पहले के तमोगुण की समाप्ति के बाद अन्तःकरण में रजोगुण लौट आया था। मन में अनकों कामनाएँ पूरी होने के लिए मचल रही थीं।

इनकी पूर्ति के लिए उन्होंने पुनः भगवान शिव की भक्ति प्रारम्भ की। अबकी बार वह भगवान महादेव के रौद्र रूप की अपेक्षा कल्याणकारी सौम्य रूप अवढरदानी शिव की उपासना भक्ति से कर रहे थे। उनकी एकाग्रता-मन की लय रंग लायी। भगवान आशुतोष प्रसन्न हुए। शिवकृपा से उनका विवाह हुआ। सुशील, सुलक्षणा, रूपवती पत्नी मिली। धन व ऐश्वर्य की प्राप्ति हुई। सब कुछ मिल जाने के बाद भी उनकी शिवभक्ति की निरन्तरता नहीं टूटी। उनकी पत्नी भी पतिपरायणा होने के साथ भगवान शिव की निष्ठावान भक्त थी। उसने भी भक्तिमार्ग में पति का साथ दिया। संसार के सुख को भोगते व कर्त्तव्यों का निर्वहन करते हुए वह शिवोपासना करते रहे।

इसके प्रभाव से न केवल उनके कर्मभोग क्षीण हुए बल्कि रजोगुण का भी शमन हुआ। रजोगुण का शमन होते ही उनके मन की कामनाएँ भी समाप्त हो गयीं। अब तो उनकी बस एक ही अभिलाषा थी कि समस्त कर्मबन्धनों से कैसे मुक्ति मिले। शुद्ध सात्त्विकता से परिपूर्ण सतोगुण के उदय होने पर उन्होंने भगवान शिव के दक्षिणामूर्ति स्वरूप की भक्ति प्रारम्भ की। अब दक्षिणामूर्ति भगवान शिव उनके इष्ट-आराध्य एवं सद्गुरु एक साथ थे। उनके इस स्वरूप की आराधना की सघनता से उनकी सात्त्विकता बढ़ती गयी। साथ ही कर्मबन्धन भी क्षीण होते गए।

यह सब कैसे और किस तरह से होता गया स्वयं विमलतीर्थ को भी पता न चला। अब तो सतोगुण भी उनके अन्तःकरण में अपना अस्तित्त्व खोने लगा था। वह स्वयं गुणातीत अवस्था में प्रवेश करके गौणी भक्ति के तीनों भेदों को पार करते हुए पराभक्ति की कक्षा में प्रवेश करने लगे थे। एक ऐसी अवस्था जिसमें कोई कामना न थी। स्वयं मोक्ष की कामना भी तिरोहित हो चुकी थी। भक्त व भगवान एकरस हो गए थे। भक्त विमलतीर्थ अपने बीते जीवन की याद कर हंस पड़ते थे। वह कहते थे कि भक्त कहीं भी, किसी भी अवस्था से, बस चल भर पड़े तो भगवान उसे अपना ही लेते हैं।’’

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👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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