आलोचना से डरें नहीं- उसके लिये तैयार रहें। (भाग 2)
यदि गलतफहमी या द्वेषवश आलोचना की गई है तो उसे हँसकर उपेक्षा से टाल देना चाहिए। जिसमें वास्तविकता न होगी ऐसी बात अपने आप हवा में उड़ जायगी। मिथ्या निन्दा करने वाले क्षणभर के लिए ही कुछ गफलत पैदा कर सकते हैं पर कुछ ही समय में वस्तु स्थिति स्पष्ट हो जाती है और पर कीचड़ उछालने वाले को स्वतः ही उस दुष्कृत्य पर पछताना पड़ता है। मिथ्या दोषारोपण से कभी किसी का स्थायी अहित नहीं हो सकता। क्षणिक निन्दा स्तुति का कोई मूल्य नहीं। पानी की लहरों की तरह वे उठती और विलीन होती रहती हैं।
प्रशंसात्मक आलोचना सुनने का यदि वस्तुतः अपना मन ही हो तो सचमुच ही अपने को ऐसा बनाने का प्रयत्न करना चाहिए जिससे दूसरे लोग विवश होकर प्रशंसा करने लगें। मुख से न कहें तो भी हर किसी के मन में उच्च चरित्र व्यक्ति के बारे में जो श्रद्धा सद्भावना अनायास हो जाती है उसे तो कोई रोक ही नहीं सकता। इसके अतिरिक्त अपनी अन्तरात्मा-सन्मार्ग गामी गतिविधियों पर सन्तोष और प्रसन्नता अनुभव करती हैं। यह आत्म प्रशंसा सब से अधिक मूल्य वाली है। अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनने और शेखी बघारने की आत्मप्रशंसा बुरी है पर अन्तःकरण जब अपनी सत्प्रवृत्तियों को देखते हुए सन्तोष व्यक्त करता है तो उस आत्म प्रशंसा की अनुभूति रोम रोम पुलकित कर देती है।
दूसरों के मुँह निन्दात्मक आलोचना सुनना यदि अपने को सचमुच बुरा लगता हो तो उसका एक ही तरीका है कि हम अपने आप अपनी आलोचना करना आरम्भ करें। जिस प्रकार दूसरों के दोष दुर्गुण देखने और समझने के लिए अपनी बुद्धि कुशाग्र रहती है; वैसा-ही छिद्रान्वेषण अपना करना चाहिए।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति सितम्बर 1972 पृष्ठ 20
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1972/September. 20
यदि गलतफहमी या द्वेषवश आलोचना की गई है तो उसे हँसकर उपेक्षा से टाल देना चाहिए। जिसमें वास्तविकता न होगी ऐसी बात अपने आप हवा में उड़ जायगी। मिथ्या निन्दा करने वाले क्षणभर के लिए ही कुछ गफलत पैदा कर सकते हैं पर कुछ ही समय में वस्तु स्थिति स्पष्ट हो जाती है और पर कीचड़ उछालने वाले को स्वतः ही उस दुष्कृत्य पर पछताना पड़ता है। मिथ्या दोषारोपण से कभी किसी का स्थायी अहित नहीं हो सकता। क्षणिक निन्दा स्तुति का कोई मूल्य नहीं। पानी की लहरों की तरह वे उठती और विलीन होती रहती हैं।
प्रशंसात्मक आलोचना सुनने का यदि वस्तुतः अपना मन ही हो तो सचमुच ही अपने को ऐसा बनाने का प्रयत्न करना चाहिए जिससे दूसरे लोग विवश होकर प्रशंसा करने लगें। मुख से न कहें तो भी हर किसी के मन में उच्च चरित्र व्यक्ति के बारे में जो श्रद्धा सद्भावना अनायास हो जाती है उसे तो कोई रोक ही नहीं सकता। इसके अतिरिक्त अपनी अन्तरात्मा-सन्मार्ग गामी गतिविधियों पर सन्तोष और प्रसन्नता अनुभव करती हैं। यह आत्म प्रशंसा सब से अधिक मूल्य वाली है। अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनने और शेखी बघारने की आत्मप्रशंसा बुरी है पर अन्तःकरण जब अपनी सत्प्रवृत्तियों को देखते हुए सन्तोष व्यक्त करता है तो उस आत्म प्रशंसा की अनुभूति रोम रोम पुलकित कर देती है।
दूसरों के मुँह निन्दात्मक आलोचना सुनना यदि अपने को सचमुच बुरा लगता हो तो उसका एक ही तरीका है कि हम अपने आप अपनी आलोचना करना आरम्भ करें। जिस प्रकार दूसरों के दोष दुर्गुण देखने और समझने के लिए अपनी बुद्धि कुशाग्र रहती है; वैसा-ही छिद्रान्वेषण अपना करना चाहिए।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति सितम्बर 1972 पृष्ठ 20
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1972/September. 20
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