होली
आप अपने जीवन में कितनी होलियाँ मना चुके, कितने दिवालियाँ बिता चुके, सावन, सनुने, दौज, दशहरे अबतक कितने बिता दिये,जरा उँगलियों पर गिन कर बताइये तो कितनी बार आपने धूम-धाम से तैयारियाँ की और कितनी बार आनन्द सामग्री को विसर्जित किया। आपने उनमें खोजा, कुछ क्षण पाया भी, परन्तु ओस की बूँदें ठहरीं कब? वे दूसरे ही क्षण जमीन पर गिर पड़ीं और धूलि में समा गईं। इस बार की होली भी ऐसी ही होनी है। चैत बदी प्रतिपदा, दौज, तीज के बाद त्योहार की एक धुँधली सी स्मृति रह जायगी। और चौथ, पाँचें को ही कोई कष्ट आ गया तो भूल जायेंगे कि इसी सप्ताह हमने किसी त्योहार का आनंद भी उठाया था। ऐसे अस्थिर आनंद पर मेरी बधाई कुछ ज्यादा उपयुक्त न होती पर यह छाया दर्शन भी कोई दुख की बात नहीं है।
मैं चाहता हूँ कि आप इस होली पर खूब आनंद मनायें और साथ ही यह भी चिन्तन करें कि जिसकी यह छाया है उस अखण्ड आनन्द को मैं कैसे प्राप्त कर सकता हूँ? मेरी युग-युग की प्यास कैसे बुझ सकती है? इस अँधेरे में कहाँ से प्रकाश पा सकता हूँ जिससे अपना स्वरूप और लक्ष्य की ओर बढ़ने का मार्ग भली प्रकार देख सकूँ ? सच्चे अमृत को मैं कैसे और कहाँ से प्राप्त कर सकता हूँ ?
आइये, उस अखण्ड आनन्द को प्राप्त करने के लिए हृदयों में होली जलावें। सच्चे ज्ञान की ऐसी उज्ज्वल ज्वाला हमारे अन्तरों में जल उठे जिसकी लपटें आकाश तक पहुँच। अन्तर के कपट खुल जावें और उस दीप्त प्रकाश में अपना स्वरूप परख सकें। दूसरे पड़ोसी भी उस प्रकाश का लाभ प्राप्त करें। चिरकाल के जमा हुए झाड़ झंखाड़ इस होलिका की ज्वाला में जल जावें। विकारों के राक्षस जो अँधेरी कोठरी में छिपे बैठे हैं और हमें भीतर ही भीतर खोंट खोंप कर खा रहे हैं इसी होलिका में भस्म हो जावें। अपने सब पाप तापों को जला कर हम लोग शुद्ध स्वर्ण की तरह चमकने लगें। उसी निर्मल शरीर से वास्तविक आनन्द प्राप्त किया जा सकेगा।
अखण्ड-ज्योति परिवार के हृदयों में ईश्वर ऐसी ही होली जला दें। यही आज मेरी प्रार्थना है।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति मार्च 1940 पृष्ठ 1
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1940/March.4
आप अपने जीवन में कितनी होलियाँ मना चुके, कितने दिवालियाँ बिता चुके, सावन, सनुने, दौज, दशहरे अबतक कितने बिता दिये,जरा उँगलियों पर गिन कर बताइये तो कितनी बार आपने धूम-धाम से तैयारियाँ की और कितनी बार आनन्द सामग्री को विसर्जित किया। आपने उनमें खोजा, कुछ क्षण पाया भी, परन्तु ओस की बूँदें ठहरीं कब? वे दूसरे ही क्षण जमीन पर गिर पड़ीं और धूलि में समा गईं। इस बार की होली भी ऐसी ही होनी है। चैत बदी प्रतिपदा, दौज, तीज के बाद त्योहार की एक धुँधली सी स्मृति रह जायगी। और चौथ, पाँचें को ही कोई कष्ट आ गया तो भूल जायेंगे कि इसी सप्ताह हमने किसी त्योहार का आनंद भी उठाया था। ऐसे अस्थिर आनंद पर मेरी बधाई कुछ ज्यादा उपयुक्त न होती पर यह छाया दर्शन भी कोई दुख की बात नहीं है।
मैं चाहता हूँ कि आप इस होली पर खूब आनंद मनायें और साथ ही यह भी चिन्तन करें कि जिसकी यह छाया है उस अखण्ड आनन्द को मैं कैसे प्राप्त कर सकता हूँ? मेरी युग-युग की प्यास कैसे बुझ सकती है? इस अँधेरे में कहाँ से प्रकाश पा सकता हूँ जिससे अपना स्वरूप और लक्ष्य की ओर बढ़ने का मार्ग भली प्रकार देख सकूँ ? सच्चे अमृत को मैं कैसे और कहाँ से प्राप्त कर सकता हूँ ?
आइये, उस अखण्ड आनन्द को प्राप्त करने के लिए हृदयों में होली जलावें। सच्चे ज्ञान की ऐसी उज्ज्वल ज्वाला हमारे अन्तरों में जल उठे जिसकी लपटें आकाश तक पहुँच। अन्तर के कपट खुल जावें और उस दीप्त प्रकाश में अपना स्वरूप परख सकें। दूसरे पड़ोसी भी उस प्रकाश का लाभ प्राप्त करें। चिरकाल के जमा हुए झाड़ झंखाड़ इस होलिका की ज्वाला में जल जावें। विकारों के राक्षस जो अँधेरी कोठरी में छिपे बैठे हैं और हमें भीतर ही भीतर खोंट खोंप कर खा रहे हैं इसी होलिका में भस्म हो जावें। अपने सब पाप तापों को जला कर हम लोग शुद्ध स्वर्ण की तरह चमकने लगें। उसी निर्मल शरीर से वास्तविक आनन्द प्राप्त किया जा सकेगा।
अखण्ड-ज्योति परिवार के हृदयों में ईश्वर ऐसी ही होली जला दें। यही आज मेरी प्रार्थना है।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति मार्च 1940 पृष्ठ 1
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1940/March.4
1 टिप्पणी:
प्रणाम युगऋषि आचार्य को प्रणाम
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