अहंकार छोड़ें अहंभाव अपनाएं (अन्तिम भाग)
सज्जनों की सम्पदा उनके व्यक्तित्व को श्रेष्ठतम बनाने के लिए प्रयुक्त होती है और उसका लाभ समाज को सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन के रूप में मिलता है। विवेकवान लोग सम्पत्ति को ईश्वर की अमानत मानते हैं और बैंक के खजाञ्ची की तरह अपने मस्तिष्क को सन्तुलित रखते हुए उसे सत्प्रयोजन के लिए प्रयुक्त करते रहते हैं। पराई अमानत कुछ समय के लिये सँभालने के लिए चौकीदार का काम मिल जाय या बाँटने-वितरण करने की, गिनने की, ड्यूटी लग जाय तो इसमें अहंकार की क्या बात है? इस तथ्य को शालीनता समझती है। अस्तु वह बरसाती नदियों की तरह उफनती नहीं- समुद्र की तरह मर्यादा में रहती है।
अहंभाव इस अहंकार से सर्वथा विपरीत है। विवेकवान अहं का अर्थ ‘आत्मा’ लेते हैं। अपने को आत्मा मानते हैं। आत्मा का गौरव गिरने न पाये, उससे कोई ऐसा काम न बन पड़े जिससे आत्मा के स्तर को, गौरव को ठेस लगती हो इसका वे सदा ध्यान रखते हैं और कुमार्ग पर एक कदम भी नहीं धरते। ईश्वर का परम प्रतिष्ठित पुत्र मनुष्य अपनी गरिमा को गिराये और पिता को लजाये इतनी बड़ी भूल कैसे की जा सकती है? वह इस संदर्भ में पूरी तरह सतर्क रहता है।
उसके विचार उस स्तर के उत्कृष्ट होने जैसे परम पवित्र ‘आत्मा’ के लिए उपयुक्त हैं। उसके कार्य ऐसे होते हैं- जिनसे देवत्व की महिमा टपकती हो। आत्मा के ऊपर आच्छादित हो सकने वाले गुण, कर्म, स्वभाव का आवरण ही अहंभाव स्वीकार करता है और इस बात का ध्यान रखता है कि वह प्रकाश स्वरूप है उसकी ज्योति इतनी शुभ्र होनी चाहिए कि समीपवर्ती लोगों के नेत्रों में चमक उत्पन्न हो और सही मार्ग पाने में वस्तुस्थिति समझने में सुविधा मिले। अहं भाव इसी परिधि में सक्रिय रहता है उसके साथ सज्जनता, शालीनता और नम्रता अविच्छिन्न रूप से जुड़ी रहती है।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति जुलाई 1972 पृष्ठ 17
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1972/July.17
सज्जनों की सम्पदा उनके व्यक्तित्व को श्रेष्ठतम बनाने के लिए प्रयुक्त होती है और उसका लाभ समाज को सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन के रूप में मिलता है। विवेकवान लोग सम्पत्ति को ईश्वर की अमानत मानते हैं और बैंक के खजाञ्ची की तरह अपने मस्तिष्क को सन्तुलित रखते हुए उसे सत्प्रयोजन के लिए प्रयुक्त करते रहते हैं। पराई अमानत कुछ समय के लिये सँभालने के लिए चौकीदार का काम मिल जाय या बाँटने-वितरण करने की, गिनने की, ड्यूटी लग जाय तो इसमें अहंकार की क्या बात है? इस तथ्य को शालीनता समझती है। अस्तु वह बरसाती नदियों की तरह उफनती नहीं- समुद्र की तरह मर्यादा में रहती है।
अहंभाव इस अहंकार से सर्वथा विपरीत है। विवेकवान अहं का अर्थ ‘आत्मा’ लेते हैं। अपने को आत्मा मानते हैं। आत्मा का गौरव गिरने न पाये, उससे कोई ऐसा काम न बन पड़े जिससे आत्मा के स्तर को, गौरव को ठेस लगती हो इसका वे सदा ध्यान रखते हैं और कुमार्ग पर एक कदम भी नहीं धरते। ईश्वर का परम प्रतिष्ठित पुत्र मनुष्य अपनी गरिमा को गिराये और पिता को लजाये इतनी बड़ी भूल कैसे की जा सकती है? वह इस संदर्भ में पूरी तरह सतर्क रहता है।
उसके विचार उस स्तर के उत्कृष्ट होने जैसे परम पवित्र ‘आत्मा’ के लिए उपयुक्त हैं। उसके कार्य ऐसे होते हैं- जिनसे देवत्व की महिमा टपकती हो। आत्मा के ऊपर आच्छादित हो सकने वाले गुण, कर्म, स्वभाव का आवरण ही अहंभाव स्वीकार करता है और इस बात का ध्यान रखता है कि वह प्रकाश स्वरूप है उसकी ज्योति इतनी शुभ्र होनी चाहिए कि समीपवर्ती लोगों के नेत्रों में चमक उत्पन्न हो और सही मार्ग पाने में वस्तुस्थिति समझने में सुविधा मिले। अहं भाव इसी परिधि में सक्रिय रहता है उसके साथ सज्जनता, शालीनता और नम्रता अविच्छिन्न रूप से जुड़ी रहती है।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति जुलाई 1972 पृष्ठ 17
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1972/July.17
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