मनन - मन से मन-न होने की आध्यात्मिक यात्रा है। यह ऐसी अनोखी प्रक्रिया है- जिसमें संलग्न होने- समर्पित होने पर मन का सम्पूर्णतया विसर्जन और विलय हो जाता है। इस सच पर कितना ही कोई अचरज क्यों न करे, फिर भी सच तो सच ही है। हालांकि इस अनूठे रहस्य से कम ही लोग परिचित हैं। जबकि मनन शब्द का चलन बहुतायत में होता है। अनेकों-अनेक बार इसका प्रयोग करते हैं। फिर भी इसके आध्यात्मिक रहस्य का स्पर्श विरले ही कर पाते हैं।
सामान्य सोच तो एक विचार को बार-बार सोचते रहने को मनन मान लेती है। जबकि आध्यात्मवेत्ता कहते हैं कि मन में उठती किसी विशेष विचार की गुनगुनाहट-गूँज अथवा ध्वनि-प्रतिध्वनि को मनन कहना ठीक नहीं है। यह तो एक गहरी आध्यात्मिक अनुभूति है- जो किसी सत्यान्वेषी साधक को तब होती है, जब वह किसी पवित्र विचार, पवित्र भाव अथवा पावन व्यक्तित्व या उसी दिव्य छवि को अपने में धारण करता है।
यदि पवित्र तत्त्वों-सत्यों को ठीक से धारण कर लिया गया है, तो मन में स्वतः ही धारणा घटित होने लगती है। मन कुछ उसी तरह मौन हो उसकी अनुभूति में डूबता है, जैसे कि कोई स्वाद लोलुप व्यक्ति स्वादिष्ट भोजन करते समय- मूक और मौन हो स्वाद के अनुभव में खो जाता है। उस समय उसके अन्दर की हल-चल थम जाती है। उसे अपने आस-पास होने वाली उथल-पुथल का भी ध्यान नहीं रहता।
कुछ ऐसी ही घटना तब घटित होती है- जब मन-मनन में डूबता है। जैसे-जैसे उसमें धारण किए गए पवित्र विचार, पवित्र भाव अथवा पावन व्यक्तित्व या उसकी दिव्य छवि की अनुभूति प्रगाढ़ होती है, वह विलीन होता जाता है। यह विलीनता इस कदर प्रगाढ़ होती है कि मन, उसमें संजोयी सारी संस्कार राशि, कर्म बीजों का ढेर, आदतें, प्रवृत्तियाँ सभी खो जाती हैं। यहाँ तक कि मन-मन-न में परिवर्तित हो जाता है। मन का यह परिवर्तन और रूपान्तरण ही तो मन-न है। जिसके परिणाम में अन्तस् में उज्ज्वल आत्म प्रकाश की धाराएँ फूट पड़ती हैं। यह ऐसा सच है जिसे जो करे - सो जाने।
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ १७०
सामान्य सोच तो एक विचार को बार-बार सोचते रहने को मनन मान लेती है। जबकि आध्यात्मवेत्ता कहते हैं कि मन में उठती किसी विशेष विचार की गुनगुनाहट-गूँज अथवा ध्वनि-प्रतिध्वनि को मनन कहना ठीक नहीं है। यह तो एक गहरी आध्यात्मिक अनुभूति है- जो किसी सत्यान्वेषी साधक को तब होती है, जब वह किसी पवित्र विचार, पवित्र भाव अथवा पावन व्यक्तित्व या उसी दिव्य छवि को अपने में धारण करता है।
यदि पवित्र तत्त्वों-सत्यों को ठीक से धारण कर लिया गया है, तो मन में स्वतः ही धारणा घटित होने लगती है। मन कुछ उसी तरह मौन हो उसकी अनुभूति में डूबता है, जैसे कि कोई स्वाद लोलुप व्यक्ति स्वादिष्ट भोजन करते समय- मूक और मौन हो स्वाद के अनुभव में खो जाता है। उस समय उसके अन्दर की हल-चल थम जाती है। उसे अपने आस-पास होने वाली उथल-पुथल का भी ध्यान नहीं रहता।
कुछ ऐसी ही घटना तब घटित होती है- जब मन-मनन में डूबता है। जैसे-जैसे उसमें धारण किए गए पवित्र विचार, पवित्र भाव अथवा पावन व्यक्तित्व या उसकी दिव्य छवि की अनुभूति प्रगाढ़ होती है, वह विलीन होता जाता है। यह विलीनता इस कदर प्रगाढ़ होती है कि मन, उसमें संजोयी सारी संस्कार राशि, कर्म बीजों का ढेर, आदतें, प्रवृत्तियाँ सभी खो जाती हैं। यहाँ तक कि मन-मन-न में परिवर्तित हो जाता है। मन का यह परिवर्तन और रूपान्तरण ही तो मन-न है। जिसके परिणाम में अन्तस् में उज्ज्वल आत्म प्रकाश की धाराएँ फूट पड़ती हैं। यह ऐसा सच है जिसे जो करे - सो जाने।
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ १७०