युग निर्माण परिवार के प्राणवान परिजनों को इन दिनों सृजन शिल्पी की भूमिका निभानी चाहिए। इसके लिए आवश्यक है कि भौतिक ललक लिप्साओं पर नियन्त्रण किया जाय। लोभ, मोह के बन्धन ढीले किये जाये। संकीर्ण स्वार्थपरता को हलका किया जाय। पेट और प्रजनन भर के लिए जीवन की सम्पदा का अपव्यय करते रहने की आदत को मोड़ा-मरोड़ा जाय। औसत भारतीय स्तर का निर्वाह पर्याप्त समझा जाय। महत्वाकाँक्षाओं की दिशा बदली जाय। वासना, तृष्णा और अहंता के आवेश शिथिल किये जांयें। युग धर्म के निर्वाह के लिए कुछ बचत इसी परिवर्तन से हो सकती है। परमार्थ तभी बन पड़ता है जब स्वार्थ पर अंकुश लगाया जाय। ब्राह्मणत्व और देवत्व की गरिमा स्वीकार करने और उच्चस्तरीय आदर्शों को व्यवहार में उतारने के साहस जुटाने का यही अवसर है। उसे चूका नहीं जाना चाहिए। युग पर्व के विशेष उत्तरदायित्वों की अवमानना करने वाले जीवन्त प्राणवानों को चिरकाल तक पश्चाताप की आग में जलना पड़ता है। देव मानवों की बिरादरी में रहकर कायरता के व्यंग, उपहास सहना जितना कठिन पड़ता है उतना उच्च प्रयोजन के लिए त्याग बलिदान को जोखिम उठाना नहीं।
जिनकी अन्तरात्मा में ऐसी अन्तः प्रेरणा उठती हो वे उसे महाकाल प्रेरित युग चेतना का आह्वान उद्बोधन समझें और तथाकथित बुद्धिमानों और स्वजनों की उपेक्षा करके भी प्रज्ञावतार का अनुकरण करने के लिए चल पड़े। इसमें इन्हें प्रथमतः ही प्रसव पीड़ा की तरह कुछ अड़चन पड़ेगी, पीछे तो सब कुछ शुभ और श्रेय ही दृष्टि-गोचर होगा।
ज्ञानयज्ञ के लिए समयदान यही है-प्रज्ञावतार की जागृत आत्माओं से याचना। उसे अनसुनी न किया जाये। प्रस्तुत क्रिया-कलाप पर नये सिरे से विचार किया जाय उस पर तीखी दृष्टि डाली जाय और लिप्सा में, निरत जीवन क्रम में साहसिक कटौती करके उस बचत को युग देवता के चरणों पर अर्पित किया जाय’। सोने के लिए सात घन्टे, कमाने के लिए आठ घन्टे, अन्य कृत्यों के लिए पाँच घन्टे लगा देगा साँसारिक प्रयोजनों के लिए पर्याप्त होना चाहिए। इनमें 20 घण्टे लगा देने के उपरान्त चार घण्टे की ऐसी विशुद्ध बचत हो सकती है जिसे व्यस्त और अभावग्रस्त व्यक्ति भी युग धर्म के निर्वाह के लिए प्रस्तुत कर सकता है। जो पारिवारिक उत्तरदायित्वों से निवृत्त हो चुके है-जिन पर कुटुम्बियों की जिम्मेदारियाँ सहज ही हलकी है जिनके पास संचित पूँजी के सहारे निर्वाह क्रम चलाते रहने के साधन है, उन्हें तो इस सौभाग्य के सहारे परिपूर्ण समय दान करने की ही बात सोचनी चाहिए। वानप्रस्थों की परिव्राजकों की-पुण्य परम्परा क अवधारणा है ही-ऐसे सौभाग्यशालियों के लिए। जो जिस भी परिस्थिति में हो समयदान की बात सोचें और उस अनुदान को नव जागरण के पुण्य प्रयोजन में अर्पित करें।
प्रतिभा, कुशलता, विशिष्टता से सम्पन्न कई विभूतिवान व्यक्ति इस स्थिति में होते है कि अनिवार्य प्रयोजनों में संलग्न रहने के साथ-साथ ही इतना कुछ कर या करा सकते है कि उतने से भी बहुत कुछ बन पड़ना सम्भव हो सके। उच्च पदासीन, यशस्वी, धनी-मानी अपने प्रभाव का उपयोग करके भी समय की माँग पूरी करने में अपनी विशिष्ट भूमिका निभा सकते हैं। विभूतिवानों का सहयोग भी, अनेकबार कर्मवीर समय-दानियों जितना ही प्रभावोत्पादक सिद्ध हो सकता है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति अगस्त १९७९, पृष्ठ ५७
जिनकी अन्तरात्मा में ऐसी अन्तः प्रेरणा उठती हो वे उसे महाकाल प्रेरित युग चेतना का आह्वान उद्बोधन समझें और तथाकथित बुद्धिमानों और स्वजनों की उपेक्षा करके भी प्रज्ञावतार का अनुकरण करने के लिए चल पड़े। इसमें इन्हें प्रथमतः ही प्रसव पीड़ा की तरह कुछ अड़चन पड़ेगी, पीछे तो सब कुछ शुभ और श्रेय ही दृष्टि-गोचर होगा।
ज्ञानयज्ञ के लिए समयदान यही है-प्रज्ञावतार की जागृत आत्माओं से याचना। उसे अनसुनी न किया जाये। प्रस्तुत क्रिया-कलाप पर नये सिरे से विचार किया जाय उस पर तीखी दृष्टि डाली जाय और लिप्सा में, निरत जीवन क्रम में साहसिक कटौती करके उस बचत को युग देवता के चरणों पर अर्पित किया जाय’। सोने के लिए सात घन्टे, कमाने के लिए आठ घन्टे, अन्य कृत्यों के लिए पाँच घन्टे लगा देगा साँसारिक प्रयोजनों के लिए पर्याप्त होना चाहिए। इनमें 20 घण्टे लगा देने के उपरान्त चार घण्टे की ऐसी विशुद्ध बचत हो सकती है जिसे व्यस्त और अभावग्रस्त व्यक्ति भी युग धर्म के निर्वाह के लिए प्रस्तुत कर सकता है। जो पारिवारिक उत्तरदायित्वों से निवृत्त हो चुके है-जिन पर कुटुम्बियों की जिम्मेदारियाँ सहज ही हलकी है जिनके पास संचित पूँजी के सहारे निर्वाह क्रम चलाते रहने के साधन है, उन्हें तो इस सौभाग्य के सहारे परिपूर्ण समय दान करने की ही बात सोचनी चाहिए। वानप्रस्थों की परिव्राजकों की-पुण्य परम्परा क अवधारणा है ही-ऐसे सौभाग्यशालियों के लिए। जो जिस भी परिस्थिति में हो समयदान की बात सोचें और उस अनुदान को नव जागरण के पुण्य प्रयोजन में अर्पित करें।
प्रतिभा, कुशलता, विशिष्टता से सम्पन्न कई विभूतिवान व्यक्ति इस स्थिति में होते है कि अनिवार्य प्रयोजनों में संलग्न रहने के साथ-साथ ही इतना कुछ कर या करा सकते है कि उतने से भी बहुत कुछ बन पड़ना सम्भव हो सके। उच्च पदासीन, यशस्वी, धनी-मानी अपने प्रभाव का उपयोग करके भी समय की माँग पूरी करने में अपनी विशिष्ट भूमिका निभा सकते हैं। विभूतिवानों का सहयोग भी, अनेकबार कर्मवीर समय-दानियों जितना ही प्रभावोत्पादक सिद्ध हो सकता है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति अगस्त १९७९, पृष्ठ ५७