मंगलवार, 31 दिसंबर 2019

👉 ईश्वर और विज्ञान

1970 के समय तिरुवनंतपुरम में समुद्र के पास एक बुजुर्ग भगवद्गीता पढ़ रहे थे। तभी एक नास्तिक और होनहार नौजवान उनके पास आकर बैठा, उसने उन पर कटाक्ष किया कि लोग भी कितने मूर्ख है विज्ञान के युग मे गीता जैसी ओल्ड फैशन्ड बुक पढ़ रहे है। उसने उन सज्जन से कहा कि आप यदि यही समय विज्ञान को दे देते तो अब तक देश ना जाने कहाँ पहुँच चुका होता, उन सज्जन ने उस नौजवान से परिचय पूछा तो उसने बताया कि वो कोलकाता से है और विज्ञान की पढ़ाई की है अब यहाँ भाभा परमाणु अनुसंधान में अपना कैरियर बनाने आया है।

आगे उसने कहा कि आप भी थोड़ा ध्यान वैज्ञानिक कार्यो में लगाये भगवद्गीता पढ़ते रहने से आप कुछ हासिल नही कर सकोगे।

सज्जन मुस्कुराते हुए जाने के लिये उठे, उनका उठना था की 4 सुरक्षाकर्मी वहाँ उनके आसपास आ गए, आगे ड्राइवर ने कार लगा दी जिस पर लाल बत्ती लगी थी। लड़का घबराया और उसने उनसे पूछा "आप कौन है??"

उन सज्जन ने अपना नाम बताया 'विक्रम साराभाई' जिस भाभा परमाणु अनुसंधान में लड़का अपना कैरियर बनाने आया था उसके अध्यक्ष वही थे।

उस समय विक्रम साराभाई के नाम पर 13 अनुसंधान केंद्र थे, साथ ही साराभाई को तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी जी ने परमाणु योजना का अध्यक्ष भी नियुक्त किया था।

अब शर्मसार होने की बारी लड़के की थी वो साराभाई के चरणों मे रोते हुए गिर पड़ा। तब साराभाई ने बहुत अच्छी बात कही, उन्होंने कहा
"हर निर्माण के पीछे निर्माणकर्ता अवश्य है। इसलिए फर्क नही पड़ता ये महाभारत है या आज का भारत, ईश्वर को कभी मत भूलो।"

आज नास्तिक गण विज्ञान का नाम लेकर कितना नाच ले मगर इतिहास गवाह है कि विज्ञान ईश्वर को मानने वाले आस्तिकों ने ही रचा है, फिर चाहे वो किसी भी धर्म को मानने वाले क्यो ना हो।
ईश्वर सत्य है।

👉 अन्तराल के परिशोधन की प्रायश्चित प्रक्रिया (भाग ४)

न केवल शारीरिक वरन् मानसिक रोगों की भी इन दिनों बाढ़ आई हुई है। सिर दर्द, आधा शीशी, जुकाम, अनिद्रा, उन्माद, बेहोशी के दौरे आदि तो प्रत्यक्ष और प्रकट मस्तिष्कीय रोग हैं। चिन्ता, भय, निराशा, आशंका, आत्महीनता जैसे अवसाद और क्रोध, अधीरता, चंचलता, उद्दण्डता, ईर्ष्या, द्वेष, आक्रमण जैसे आवेश मनःसंस्थान को ज्वार-भाटों की तरह असंतुलित बनाये रहते हैं। फलतः मानसिक क्षमता का अधिकाँश भाग निरर्थक चला जाता है एवं अनर्थ बुनने में लगा रहता है। अपराधी दुष्प्रवृत्तियों से लेकर आत्म हत्या तक की अगणित उत्तेजनाएँ विकृत मस्तिष्क के उपार्जन ही तो हैं। तरह-तरह की सनकों के कितने ही लोग सनकते रहते हैं और अपने तथा दूसरों के लिए संकट खड़े करते हैं। दुर्व्यसनों और बुरी आदतों से ग्रसित व्यक्ति अपना तथा अपने साथियों का कितना अहित करते हैं, यह सर्वविदित है। पागलों की संख्या तो संसार में तेजी के साथ बढ़ रही है। जनसंख्या इसी चपेट में आई हुई दिखाई पड़ेगी। शारीरिक रोगों का विस्तार भी तेजी से हो रहा है। दुर्बलता और रुग्णता से सर्वथा अछूते व्यक्ति ही बहुत स्वल्प संख्या में मिलेंगे।

रंगाई से पूर्व धुनाई आवश्यक है। यदि कपड़ा मैला-कुचैला है, तो उस पर रंग ठीक तरह न चढ़ेगा। इस प्रयास में परिश्रम, समय और रंग सभी नष्ट होंगे। कपड़े को ठीक तरह धो लेने के उपरान्त उसकी रंगाई करने पर अभीष्ट उद्देश्य पूरा होता है। ठीक इसी प्रकार आध्यात्मिक प्रगति के लिए की गई साधना का समुचित प्रतिफल प्राप्त करने के लिए उन अवरोधों का समाधान किया जाना चाहिए जो दुष्कर्मों के फलस्वरूप आत्मोत्कर्ष के मार्ग में पग-पग पर कठिनाई उत्पन्न करते है। दीवार बीच में हो तो उसके पीछे बैठा हुआ मित्र अति समीप रहने पर भी मिल नहीं पाता। कषाय-कल्मषों की दीवार ही हमें अपने इष्ट से मिलने में प्रधान अवरोध खड़ा करती है।

उपासना का प्रतिफल प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि आत्मशोधन की प्रक्रिया पूर्ण की जाय। यह प्रक्रिया प्रायश्चित विधान से ही पूर्ण होती है। हठयोग में शरीर शोधन के लिए नेति-धोति, वस्ति, न्यौली-व्रजोली आदि क्रियाएँ करने का विधान है। राजयोग में यह शोधन कार्य यम-नियमों में करना पड़ता है। भोजन बनाने से पूर्व चौका-चूल्हा, बर्तन आदि की सफाई कर ली जाती है। आत्मिक प्रगति के लिए भी आवश्यक है कि अपनी गतिविधियों का परिमार्जन किया जाय। गुण-कर्म को सुधारा जाय और पिछले जमा कूड़े करकट का ढेर उठाकर साफ किया जाय। आयुर्वेद के कायाकल्प विधान में वमन, विरेचन, स्वेदन, स्नेहन आदि कृत्यों द्वारा पहले मल-शोधन किया जाता है, तब उपचार आरम्भ होता है। आत्म-साधना के सम्बन्ध में भी आत्मशोधन की प्रक्रिया काम में लाई जाती है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)

👉 What are “Vyahritis”?

Q.7. What are “Vyahritis”?

Ans.  The Gayatri Mantra begins with enunciation of “Om” (Amen in Christianity and Aameen in Islam are its variants). “Om” is believed to be resonating all over the cosmos as the primordial sound. Spiritual-science considers it as one of the cosmic representations of omnipresent GOD (Shabda Brahma or Nad Brahma). Devotees attempt to simulate “Om” in audible frequencies by blowing in a conch shell, sounding a gong, ringing a large bell or simply by pronouncing “O-O-O-M”.

The ‘Vyahritis’ Bhoor, Bhuwaha and Swaha are the three amongst the five elemental streams of primordial energy emanating from “Om” (Ref. Gayatri Tatva Bodh). Spiritual-science refers to these streams as Brahma (The Creator), Vishnu (The sustainer), Mahesh (The Destroyer). The three primary attributes of animate and inanimate components of the cosmos - Sat, Raj and Tam are also known as Vyahritis. Though not part of the text of ‘Gayatri Mantra’, the ‘Vyahritis’ are considered as the fountainhead (Shirsha) of this Mantra and are used as its prefix.
Q.8. What is a Beej Mantra? How is it applied?

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 Gayatri Sadhna truth and distortions Page 41

👉 क्या हम मनुष्य हैं?

क्या हम मनुष्य हैं? अटपटे से लगने वाले इस सवाल का जवाब बड़ा सीधा है। संवेदना में जितनी हमारी गहराई होगी-मनुष्यता में उतनी ही ऊँचाई होगी। और संग्रह में जितनी ऊँचाई होगी, मनुष्यता में उतनी ही नीचाई होगी। संवेदना और संग्रह जिन्दगी की दो दिशाएँ हैं। संवेदना सम्पूर्ण हो तो संग्रह शून्य हो जाता है। और जिनके चित्त संग्रह की लालसा से घिरे रहते हैं, संवेदना वहाँ अपना घर नहीं बसाती।
  
अरब देश की एक मलिका ने अपनी मौत के बाद कब्र के पत्थर पर निम्न पंक्तियाँ लिखने का हुक्म जारी किया- ‘इस कब्र में अपार धन राशि गड़ी हुई है। जो व्यक्ति अत्यधिक निर्धन, दीन-दरिद्र और अशक्त हो, वह उसे खोदकर प्राप्त कर सकता है।’ कब्र बनाये जाने के बाद से हजारों दरिद्र और भिखमंगे उधर से गुजरे लेकिन उनमें से कोई भी इतना दरिद्र नहीं था कि धन के लिए किसी मरे हुए व्यक्ति की कब्र खोदे। एक अत्यन्त बूढ़ा और दरिद्र भिखमंगा उस कब्र के पास सालों से रह रहा था। जो उधर से गुजरने वाले प्रत्येक दरिद्र व्यक्ति को कब्र पर लगे हुए पत्थर की ओर इशारा कर देता था।
  
और फिर आखिरकार वह इंसान भी आ पहुँचा, जिसकी दरिद्रता इतनी ज्यादा थी कि वह उस कब्र को खोदे बिना नहीं रह सका। अचरज की बात तो यह थी कि कब्र खोदने वाला यह व्यक्ति स्वयं एक सम्राट था। उसने कब्र वाले इस देश को अभी-अभी जीता था। अपनी जीत के साथ ही उसने बिना समय गँवाये उस कब्र की खुदाई का काम शुरु कर दिया। लेकिन कब्र की गहराई में उसे अपार धनराशि की बजाय एक पत्थर मिला, जिस पर लिखा हुआ था, ऐ कब्र खोदने वाले इंसान, तू अपने से सवाल कर-क्या तू सचमुच मनुष्य है?
  
निश्चय ही जो मनुष्य है, वह भला मृतकों को सताने के लिए किस तरह तैयार हो सकता है। लेकिन जो धन के लिए जिन्दा इंसानों को मुरदा बनाने के लिए तैयार हो, उसे भला इससे क्या फर्क पड़ता है। निराश व अपमानित वह सम्राट जब कब्र से वापस लौट रहा था तो लोगों ने कब्र के पास रहने वाले बूढ़े भिखमंगे को जोर से हँसते देखा। वह कह रहा था-मैं सालों से इंतजार कर रहा था, अंततः आज धरती के सबसे अधिक निर्धन, दरिद्र एवं अशक्त व्यक्ति का दर्शन हो ही गया। सचमुच संवेदना जिस हृदय में नहीं है, वही दरिद्र, दीन और अशक्त है। जो संवेदना के अलावा किसी और सम्पत्ति के संग्रह के फेर में रहता है, एक दिन उसकी सम्पदा ही उससे पूछती है-क्या तू मनुष्य है? और आज हम पूछें अपने आपसे-क्या हम मनुष्य हैं?

✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ १४९

👉 जीवन-सार्थकता की साधना—चरित्र (अन्तिम भाग)

चरित्रवान् बनने के लिये अपनी आत्मिक शक्ति जगाने की आवश्यकता होती है। तप, संयम और धैर्य से आत्मा बलवान बनती है। कामुकता, लोलुपता व इन्द्रिय सुखों की बात सोचते रहने से ही आत्म-शक्ति का ह्रास होता है। अपने जीवन में कठिनाइयों और मुसीबतों को स्थान न मिले तो आत्म-शक्ति जागृत नहीं होती। जब तक कष्ट और कठिनाइयों से जूझने का भाव हृदय में नहीं आता तब तक चरित्रवान् बनने की कल्पना साकार रूप धारण नहीं कर सकती।

चरित्र-निर्माण के लिये साहित्य का बड़ा महत्व है। महापुरुषों की जीवन कथायें पढ़ने से स्वयं भी वैसा बनने की इच्छा होती है। विचारों को शक्ति व दृढ़ता प्रदान करने वाला साहित्य आत्म-निर्माण में बड़ा योग देता है। इससे आन्तरिक विशेषताएं जागृत होती हैं। अच्छी पुस्तकों से प्राप्त प्रेरणा सच्चे मित्र का कार्य करती हैं। इससे जीवन की सही दिशा का ज्ञान होता है। इसके विपरीत अश्लील साहित्य अधःपतन का कारण बनता है। जो साहित्य इन्द्रियों को उत्तेजित करे, उससे सदा सौ कोस दूर रहें। इनसे चरित्र दूषित होता है। साहित्य का चुनाव करते समय यह देख लेना अनिवार्य है कि उसमें मानवता के अनुरूप विषयों का सम्पादन हुआ है अथवा नहीं? यदि कोई पुस्तक ऐसी मिल जाय तो उसे ही सच्ची रामायण, गीता, उपनिषद् मानकर वर्णित आदर्शों से अपने जीवन को उच्च बनाने का प्रयास करें तो चारित्रिक संगठन की बार स्वतः पूरी होने लगती है।

हमारी वेषभूषा व खानपान भी हमारे विचारों तथा रहन-सहन को प्रभावित करते हैं। भड़कीले, चुस्त व अजीब फैशन के वस्त्र मस्तिष्क पर अपना दूषित प्रभाव डालने से चूकते नहीं। इनसे हर घड़ी सावधान रहें। वस्त्रों में सादगी और सरलता मनुष्य की महानता का परिचय है। इससे किसी भी अवसर पर कठिनाई नहीं पड़ती। मन और बुद्धि की निर्मलता, पवित्रता पर इनका बड़ा सौम्य प्रभाव पड़ता है। यही बात खान-पान के सम्बन्ध में भी है। आहार की सादगी और सरलता से विचार भी वैसे ही बनते हैं। मादक द्रव्य मिर्च, मसाले, मांस जैसे उत्तेजक पदार्थों से चरित्र-बल क्षीण होता है और पशुवृत्ति जागृत होती है। खान-पान की आवश्यकता स्वास्थ्य रहने के लिए होती है न कि विचार-बल को दूषित बनाने को। आहार में स्वाद-प्रियता से मनोविकार उत्पन्न होते हैं। अतः भोजन जो ग्रहण करें, वह जीवन रक्षा के उद्देश्य से हो तो भावनायें भी ऊर्ध्वगामी बनती है।

चरित्र-रक्षा प्रत्येक मूल्य पर की जानी चाहिये। इसके छोटे-छोटे कार्यों की भी उपेक्षा करना ठीक नहीं। उठना, बैठना, वार्तालाप, मनोरंजन के समय भी मर्यादाओं का पालन करने से उक्त आवश्यकता पूरी होती है। सभ्यता का चिह्न सच्चरित्र, सादा जीवन और उच्च विचारों को माना गया है। इससे जीवन में मधुरता और स्वच्छता का समावेश होता है। जीवन की सम्पूर्ण मलिनतायें नष्ट होकर नये प्रकाश का उदय होता है जिससे लोग अपना जीवन लक्ष्य तो पूरा करते ही हैं औरों को भी सुवासित तथा लाभान्वित करते हैं। जीवन सार्थकता की साधना चरित्र है। सच्चे सुख का आधार भी यही है। इसलिए प्रयत्न यही रहे कि हमारा चरित्र सदैव उज्ज्वल रहे, उद्दात्त रहे।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति अगस्त 1964 पृष्ठ 11

सोमवार, 30 दिसंबर 2019

👉 ज्ञान की प्राप्ति

ज्ञान की चाहत बहुतों को होती है, पर ज्ञान की प्राप्ति विरले करते हैं। दरअसल ज्ञान और ज्ञान में भारी भेद है। एक ज्ञान है-केवल जानकारी इकट्ठी करना, यह बौद्धिक समझ तक सीमित है और एक ज्ञान है-अनुभूति, जीवन्त प्रतीति। एक मृत तथ्यों का संग्रह है, जबकि दूसरा जीवन्त सत्य का बोध है। इन दोनों में बड़ा अन्तर है-पाताल और आकाश जितना, अंधकार और प्रकाश जितना। सच तो यह है कि बौद्धिक ज्ञान कोई ज्ञान ही नहीं है, यह तो बस ज्ञान का झूठा अहसास भर है। भला अंधे व्यक्ति को प्रकाश का ज्ञान कैसे हो सकता है? बौद्धिक ज्ञान कुछ ऐसा ही है।
  
ज्ञान के इस झूठे अहसास से अज्ञान ढँक जाता है। इसके शब्द जाल एवं विचारों के धुएँ में अज्ञान विस्मृत हो जाता है। यह तथाकथित ज्ञान अज्ञान से भी घातक है, क्योंकि अज्ञान दिखता हो तो उससे ऊपर उठने की चाहत पैदा होती है। पर वह न दिखे तो उससे छुटकारा पाना सम्भव नहीं रहता। ऐसे तथाकथित ज्ञानी अज्ञान में ही मर-खप जाते हैं।
  
सच्चा ज्ञान कहीं बाहर से नहीं आता, यह भीतर से जागता है। इसे सीखना नहीं उघाड़ना होता है। सीखा हुआ ज्ञान जानकारी है, जबकि उघाड़ा हुआ ज्ञान अनुभूति है। जिस ज्ञान को सीखा जाय, उसके अनुसार जीवन को जबरदस्ती ढालना पड़ता है। फिर भी वह कभी सम्पूर्णतया उसके अनुकूल नहीं बन पाता। उस ज्ञान और जीवन में हमेशा एक अंतर्द्वन्द्व बना ही रहता है। पर जो ज्ञान उघाड़ा जाता है उसके आगमन से ही आचरण सहज उसके अनुकूल हो जाता है। सच्चे ज्ञान के विपरीत जीवन का होना एक असम्भावना है। ऐसा कभी हो ही नहीं सकता।
  
श्री रामकृष्ण परमहंस अपने शिष्यों को एक कथा सुनाते थे। एक घने बीहड़ वन में दो मुनि जा रहे थे। सांसारिक सम्बन्धों की दृष्टि से वे पिता-पुत्र थे। पुत्र आगे चल रहा था, पिता पीछे था। तभी वन में सिंह का गर्जन सुनाई दिया। ब्रह्मज्ञान की बातें करने वाले पिता को घबराहट हुई, उसने पुत्र को सचेत किया- चलो! कहीं पेड़ पर चढ़ जाएँ, आगे खतरा है। पुत्र पिता की इन बातों पर हँसा। हँसते हुए वह बोला-आप तो हमेशा यही कहते रहे हैं कि शरीर नश्वर है और आत्मा अमर, साक्षी और द्रष्टा है। फिर भला खतरा किसे है, जो नश्वर है वह तो मरेगा ही और जो अमर है उसे कोई मार नहीं सकता। पर पिता के मुख में भय की छाया गहरा चुकी थी। अब तक वह पेड़ पर जा चढ़ा था। इधर पुत्र पर सिंह का हमला भी हो गया, पर वह हँसता रहा। अपनी मृत्यु में भी वह द्रष्टा था। उसे न दुःख था और न पीड़ा, क्योंकि उसे ज्ञान की प्राप्ति हो चुकी थी, जबकि उसके पिता के पास ब्रह्मज्ञान ज्ञान का झूठा अहसास भर था। इसीलिए कहा जाता है कि ज्ञान की प्राप्ति विरल है।

✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ १४८

👉 अन्तराल के परिशोधन की प्रायश्चित प्रक्रिया (भाग ३)

आत्मा को कितना ही कुचला जाय वह न मरने वाली है और न हार मानती है। अनसुनी, उपेक्षित पड़ी रहने पर भी अन्तरात्मा की विरोधी आवाज उठती ही रहती है। दुष्कर्म करते समय जी धड़कता और पैर काँपते हैं। यह स्थिति कितनी ही दुर्बल क्यों न कर दी जाय, उसका अस्तित्व बना ही रहेगा और झंझट तब तक चलता ही रहेगा, जब तक दुष्प्रवृत्तियाँ उस घुसपैठ से अपना पैर वापस न लौटा लें।

अन्तर्द्वन्द्व जीवन की शान्ति और सुव्यवस्था को नष्ट करते हैं। प्रगतिपथ अवरुद्ध करते हैं और भविष्य को अन्धकारमय बनाते हैं। पापों की परिणति से किसी भी बहाने बचा नहीं जा सकता। यह शारीरिक संविधान की सामान्य क्रिया पद्धति हुई। इसके अतिरिक्त समाजगत, प्रकृतिगत एवं ईश्वरीय व्यवस्था के और भी ऐसे कितने ही आधार हैं, जिनके कारण कुमार्गगामी को अपने दुष्कृत्यों के दण्ड अनेक प्रकार से भुगतने के लिए विवश होना पड़ता है।

राजदण्ड की व्यवस्था इसीलिए है कि दुष्कर्मों की आवश्यक रोकथाम की जा सके और अनीति बरतने वालों को उनकी करतूतों का मजा चखाया जा सके। पुलिस, कचहरी, जेल, फाँसी आदि की शासकीय दण्ड व्यवस्था का अस्तित्व मौजूद है। चतुरता बरतने पर भी लोग अक्सर उसकी पकड़ में आ जाते हैं और आर्थिक, शारीरिक, मानसिक दण्ड भुगतते हैं, बदनामी सहते और नागरिक अधिकारों से वंचित होते हैं।

इतने पर भी पीछा नहीं छूटता। शारीरिक व्याधि और मानसिक आधि उन्हें घेरती है और तिल-तिल करके रेतने, काटने जैसा कष्ट देती है। शरीर पर मन का अधिकार है। अचेतन मन के नियन्त्रण में आकुंचन-प्रकुंचन, निमेष-उन्मेष, श्वास-प्रश्वास, रक्त-संचार, ग्रहण-विसर्जन आदि अनेकों स्वचालित समझी जाने वाली गतिविधियाँ चलती हैं। चेतन मन की शक्ति से ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ काम करती हैं। शरीर तभी तक जीवित है जब तक उसमें चेतना का अस्तित्व है। प्राण निकलते ही शरीर सड़ने और नष्ट होने लगता है। चेतना का केन्द्र स्थान मस्तिष्क है। मन के रूप में ही हम चेतना का अस्तित्व देखते एवं क्रिया-कलापों का अनुभव करते हैं। यह संस्थान मनोविकारों से पाप-ताप एवं कषाय-कल्मषों से विकृत होता है तो उसका प्रभाव शारीरिक आरोग्य पर भी पड़ता है और मानसिक सन्तुलन पर भी। नवीनतम वैज्ञानिक शोधों का निष्कर्ष यह है कि बीमारियों का केन्द्र पेट या रक्त में न होकर मस्तिष्क में रहता है। मन गड़बड़ाता है तो शरीर का ढाँचा भी लड़खड़ाने लगता है। बीमारियों में नित नई शोध होती है और आये दिन एक से एक प्रभावशाली उपचार ढूँढ़े जाने की घोषणाएँ होती हैं। अस्पताल तेजी से बढ़ रहे हैं और चिकित्सकों की बाढ़ आ रही है। आधुनिकतम उपचार भी खोजे जा रहे हैं, इतने पर भी स्वास्थ्य समस्या का समाधान निकल नहीं रहा है। तात्कालिक चमत्कार की तरह दवाएँ अपना जादू दिखाती तो हैं, पर दूसरे ही क्षण रोग अपना रूप बदलकर नई आकृति में फिर सामने आ खड़े होते हैं। यह स्थिति तब तक बनी रहेगी जब तक कि मानसिक विकृतियों के फलस्वरूप नष्ट होने और अगणित रोग उत्पन्न होने के तथ्य को स्वीकार नहीं कर लिया जाता।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)

👉 जीवन-सार्थकता की साधना—चरित्र (भाग ३)

काम-विषयक सदाचार चरित्र की सर्वश्रेष्ठ विशेषता और कसौटी मानी गई है। कुछ अर्थों में ‘‘चरित्र’’ शब्द से मर्यादित कामोपभोग का ही अर्थ लगाया जाता है। जिन देशों में स्त्री-पुरुषों के बीच की शील मर्यादाएं निश्चित नहीं, वहां भारी विश्रृंखल पैदा हुआ देखा जाता है। पाश्चात्य देश इस कुटिल प्रवंचना में ग्रसित होने के कारण अपना श्रेय खो चुके हैं। पाश्चात्य सिद्धान्तों पर आधारित इस घृणित दुष्प्रवृत्ति के कारण भारतीय संस्कृति और समाज कम अस्त-व्यस्त नहीं हुआ। इस विषैली कामुकता की दुर्भाग्यपूर्ण स्वच्छन्दता ने आज सारे सामाजिक ढांचे को ही खोखला कर दिया है। इसके दुष्परिणाम भी बुरी तरह से लोगों को आहत बनाने में लगे हैं। स्वास्थ्य की दुर्दशा, अशक्तता, अपहरण, हत्या और आत्म-हत्याओं के आज जितने दृश्य दिखाई दे रहे हैं उन सबका अधिकांश कारण मनुष्य का चारित्रिक पतन ही है। सदाचार की सीमायें जब तक निर्धारित न होंगी और दुराचार पर जब-तक प्रतिबन्ध न लगेगा तब-तक समाज में सुख शान्ति और व्यवस्था का स्थापित होना प्रायः असम्भव ही है।

भीतर-बाहर से पवित्र रहने, शुद्ध आचरण करने, श्रेष्ठ पुस्तकों के स्वाध्याय, सत्संग, शक्ति पुरुषार्थ, आत्मिक-प्रसन्नता के आधार पर ही मनुष्य की उन्नति सम्भव है। आत्म-नियन्त्रण, संयम और सम्भाषण से न केवल अपने को वरन् अपने पास-पड़ोस और सम्पर्क में आने वालों को भी सुख मिलता है। मानवता का विकास भी इसी से सम्भव है कि दूसरों को भी अपने ही समान समझें और सबके साथ सद्व्यवहार करें। यह सब चरित्रवान् व्यक्ति के लक्षण हैं। जिनके द्वारा दूसरों को भी आत्म-कल्याण की प्रेरणा मिले वही चरित्र के सच्चे धनी कहे जा सकते हैं।

पर-निन्दा, छिद्रान्वेषण, झूठ, छल, कपट, व्यभिचार, लोलुपता ये सब आसुरी प्रवृत्तियां हैं। इनसे विनाशकारी परिणाम ही उपस्थित होते हैं। पर आत्म-संयम और स्वत्वाभिमान के द्वारा वैयक्तिक व सामाजिक सभी प्रकार की श्रेष्ठताओं का उदय होता है। चरित्र-साधना का मूलाधार मानसिक पवित्रता है। जीवन के प्रत्येक छोटे-मोटे व्यवसाय व क्रिया-कलापों में मानसिक स्थिति का प्रभाव पड़ता ही है। आत्मिक पवित्रता का परिणाम सदाचरण है जिससे सुख मिलता है। कुविचारों से कुकर्म उठ खड़े होते हैं, जिससे कष्ट, क्लेश और मुसीबतें आ उपस्थित होती हैं। इसलिए छोटे-से-छोटे कार्य में भी पवित्रता का भाव बनाये रखने से चारित्रिक-विकास होता है। प्रातःकाल सोकर उठने से दिन भर कार्यरत रहने और सायंकाल निद्रा-माता की गोद में जाने तक जितने कर्म हमें करने पड़ें उनमें पवित्रता का भाव बना रहे तो ही किसी को चरित्रवान् कहलाने का सौभाग्य प्राप्त होता है। यह एक साधना है जिसकी सिद्धियां अनन्त हैं।

चरित्र का आधार धर्म है। मन, वचन और कर्म के धार्मिक कृत्यों के निर्वाह को सदाचार कहा जाता है। इससे चरित्र बनता है। मानवता से ओत-प्रोत भावनाओं से चरित्र की रक्षा सम्भव है। अतएव अपने जीवन में उदारतापूर्वक धार्मिक भावनाओं को धारण किए रहने से चारित्रिक-बल प्रगाढ़ बना रहता है। बुद्धि, धन या शरीर बल तब तक सुख नहीं दे सकते जब तक चरित्र में मानवता, बुद्धि में धर्मभाव और शरीर से सत्कर्म नहीं बन पड़ते।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति अगस्त 1964 पृष्ठ 10

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1964/August/v1.10

http://literature.awgp.org/book/sukh_shanti_ki_sadhana/v1.12

👉 QUERIES ABOUT THE MANTRA (Part 6)

Q.6. How many “Onkars” are included in the Gayatri Mantra?

Ans.  Gayatri Mantra is complete in itself. It is not at all necessary to supplement it by assigning three or five ‘Oms’ by way of  beej Mantra or samput. This is done only in the Tantrik system. The common man should not  bother about some odd references in scriptures which justify prefixing, inter-fixing or suffixing more than one Onkars (Om) with the  Gayatri Mantra The practice of using more than one  Onkar was probably adopted by different sects as a mark of distinction (as followers of various sects use uniform, Tilak chhap marking on forehead etc. to identify themselves).  

The standard Guru-Mantra, Gayatri comprises of three Vyahritis and three phrases of eight letters each pre-fixed by Om. Om is in fact, a symbol of reverence preceding all Ved Mantras, as Mr., Mrs., Miss, etc. are prefixed to the names of persons. However, there is no restriction in using more than one  Onkars though the standard practice of pre-fixing one Onkar (Om) is recommended for maintaining uniformity.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 Gayatri Sadhna truth and distortions Page 41

शनिवार, 28 दिसंबर 2019

👉 चीजें हमेशा वैसी नहीं होतीं, जैसी दिखती हैं

एक साधु अपने शिष्य के साथ किसी अंजान नगर में घूमते हुए पहुंचे. रात बहुत हो चुकी थी इसलिए वे दोनों रात गुजारने के लिए किसी आसरे की तलाश कर रहे थे. तभी शिष्य ने अपने गुरु के कहने पर किसी के घर का दरवाजा खटखटाया. वो घर किसी धनी परिवार का था. दरवाजे की आवाज सुनकर घर के अंदर से परिवार का मुखिया बाहर निकलकर आया. वह संकीर्ण वृत्ति का था. साधु के आसरा मांगने पर उसने कहा – ”मैं अपने घर के अंदर तो आपको नहीं ठहरा सकता, लेकिन तलघर में हमारा गोदाम है. आप चाहें तो रात वहां गुजार सकते हैं, किंतु सवेरा होते ही आपको यहां से जाना होगा।”

साधु अपने शिष्य के साथ तलघर में रात गुजारने के लिए मान गये. तलघर के कठोर आंगन पर वे विश्राम की तैयारी कर ही रहे थे कि तभी साधु को दीवार में एक सुराख नजर आया. साधु ने सुराख को गौर से देखा और कुछ देर चिंतन के बाद उसे भरने में जुट गये. शिष्य ने सुराख को भरने का कारण जानना चाहा तो साधु ने कहा – ”चीजें हमेशा वैसी नहीं होतीं, जैसी दिखती है.” दूसरी रात वे दोनों एक निर्धन किसान के घर आसरा मांगने पहुंचे।

किसान और उसकी पत्नी ने प्रेम व आदर पूर्वक उनका स्वागत किया. इतना ही नही उनके पास जो कुछ भी रूखा-सूखा था, वह उन्होंने अपने मेहमान के साथ बांटकर खाया और फिर उन्हें रात गुजारने के लिए अपना बिस्तर भी दिया और स्वयं नीचे फर्श पर सो गये. सुबह होते ही साधु व उनके शिष्य ने देखा कि किसान और उसकी पत्नी बहुत रो रहे थे क्योंकि उनका बैल खेत में मृत पड़ा था. यह बैल किसान की रोज़ी-रोटी का सहारा था. यह सब देखकर शिष्य ने साधु से कहा – ”गुरुजी, आपके पास तो अनेक सिद्धियां हैं, फिर आपने यह सब कैसे होने दिया? उस धनी के पास तो इतना कुछ था, फिर भी आपने उसके तलघर की मरम्मत करके उसकी सहायता की. जबकि इस गरीब किसान के पास कुछ ना होते हुए भी इसने हमारा इतना सम्मान किया. फिर आपने कैसे उसके बैल को मरने दिया।”

साधु ने कहा – चीज़ें हमेशा वैसी नहीं होतीं, जैसी दिखती है।

साधु ने अपनी बात स्पष्ट कि – उस धनी के तलघर में सुराख से मैंने देखा उस दीवार के पीछे स्वर्ण का भंडार था. लेकिन वह धनी बेहद ही लोभी और कंजूस था. इस कारण मैंने उस सुराख को बंद कर दिया, ताकि स्वर्ण का भंडार गलत हाथ में ना जाएं. जबकि इस ग़रीब किसान के घर में हम इसके बिस्तर पर आराम कर रहे थे. रात्रि में इस किसान की पत्नी की मौत लिखी थी और जब यमदूत उसके प्राण हरने आए तो मैंने उन्हें रोक दिया. चूंकि यमदूत खाली हाथ नहीं जा सकते थे, इसलिए मैंने उनसे किसान के बैल के प्राण हरने के लिए कहा।

अब तुम ही बताओ, मैंने सही किया या गलत. यह सुनकर शिष्य अपने गुरु के समक्ष नतमस्तक हो गया।

दोस्तों, ठीक इसी प्रकार दुनिया हमें वैसी नहीं दिखती जैसी वह हैं, बल्कि वैसी ऩज़र आती हैं जैसे हम है. अगर सच में कुछ बदलना है तो सर्वप्रथम अपनी सोच, कर्म व अपने आप को बदलने की कोशिश करों।

👉 अन्तराल के परिशोधन की प्रायश्चित प्रक्रिया (भाग २)

कर्म फलित होने में देर लगाते हैं। जौ बोने के दस दिन में ही उनके अंकुर छः इंच ऊँचे उग आते हैं। किन्तु जिनका जीवन लम्बा है, जो चिर स्थायी हैं, उनके बढ़ने और प्रौढ़ होने में देर लगती हैं। नारियल की गुठली बो देने पर भी एक वर्ष में अंकुर फोड़ती है और वर्षों में धीरे धीरे बढ़ती है। बरगद का वृक्ष भी देर लगाता है। जबकि एरंड का पेड़ कुछ ही महीनों में छाया और फल देने लगता है। हाथी जैसे दीर्घजीवी पशु, गिद्ध जैसे पक्षी, ह्वेल जैसे जलचर अपना बचपन बहुत दिन में पूरा करते हैं। मक्खी, मच्छरों का बचपन और यौवन बहुत जल्दी आता है, पर वे मरते भी उतने ही जल्दी हैं। शारीरिक और मानसिक परिश्रम का, आहार-विहार का, व्यवहार शिष्टाचार का प्रतिफल हाथों-हाथ मिलता रहता है। उनकी उपलब्धि सामयिक होती हैं, चिरस्थायी नहीं। स्थायित्व नैतिक कृत्यों में होता है, उनके साथ भाव-संवेदनाएँ और आस्थाएँ जुड़ी होती हैं। जड़ें अन्तरंग की गहराई में धँसी रहती हैं, इसलिए उनके भले या बुरे प्रतिफल भी देर में मिलते हैं और लम्बी अवधि तक ठहरते हैं, इन कर्मों के फलित होने में प्रायः जन्म-जन्मान्तरों जितना समय लग जाता है।

अन्तःकरण की संरचना दैवी तत्वों से हुई हैं। उसमें स्नेह-सौजन्य सद्भाव सच्चाई जैसी प्रवृत्तियाँ ही भरी पड़ी हैं। जीवन यापन की रीति उत्कृष्टता के आधार पर बनाने की प्रेरणा इस क्षेत्र में अनायास ही मिली रहती है। इस क्षेत्र में जब निकृष्टता प्रवेश करती हैं, तो सहज उसकी प्रतिक्रिया होती हैं। रक्त में जब बाहरी विजातीय तत्व प्रवेश करते हैं तो श्वेत कण उन्हें मार भगाने के लिए प्राणपण से संघर्ष छेड़ते हैं और परास्त करने में कुछ उठा नहीं रखते। ठीक इसी प्रकार अन्तःकरण की दैवी चेतना आसुरी दुष्प्रवृत्तियों को जीवन सत्ता में प्रवेश करने और जड़ जमाने की छूट नहीं देना चाहती। फलतः दोनों के बीच संघर्ष छिड़ जाता है। यही अन्तर्द्वन्द्व है, जिसके रहते आन्तरिक जीवन उद्विग्न अशान्त ही बना रहता है और उस विक्षोभ की अनेक दुःखदायी प्रतिक्रिया फूट-फूटकर बाहर आती रहती हैं।

दो साँड़ लड़ते हैं, तो लड़ाई की जगह को तहस-नहस करके रख देते हैं। खेत में लड़ें तो समझना चाहिए कि उतनी फसल चौपट ही हो गई। दुष्प्रवृत्तियाँ जब भी जहाँ भी अवसर पाती हैं वहीं घुसपैठ करने, जड़ जमाने में चूकती नहीं। घुन की तरह मनुष्य को खोखली करती हैं और चिनगारी की तरह चुप-चुप सुलगती हुई अन्त में सर्वनाशी ज्वाला बनकर प्रकट होती हैं। ठीक इसी प्रकार दुष्प्रवृत्तियाँ आत्मसत्ता पर आधिपत्य जमाने के लिए कुचक्र रचती रहती हैं, किन्तु अन्तरात्मा को यह स्थिति सह्य नहीं, अस्तु वह विरोध पर अड़ी रहती है। फलतः संघर्ष चलता ही रहता है और उसके दुष्परिणाम अनेकानेक शोक सन्तापों के रूप में सामने आते रहते हैं। मनोविज्ञानी इस स्थिति को दो व्यक्तित्व कहते हैं। एक ही शरीर में भले-बुरे व्यक्तित्व शान्ति सहयोग पूर्वक रह नहीं सकते। कुत्ते-बिल्ली की, साँप-नेवले की दोस्ती कैसे निभे? एक म्यान में दो तलवार ठूँसने पर म्यान फटेगी ही। शरीर में ज्वर या भूत घुस पड़े तो कैसी दुर्दशा होती है, इसे सभी जानते हैं। नशेबाजों की दयनीय स्थिति देखते ही बनती हैं। यह परस्पर विरोधी शक्तियों का एक स्थान पर जमा होना ही हैं, जिसमें विग्रह की स्वाभाविकता टाली नहीं जा सकती।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)

👉 मन को साधने की साधना

मन के साधे-साधना है, सम्पदा है। मन न सधे तो बाधा है, विपदा है। अद्भुत है मनुष्य का मन। यही रहस्य है-सांसारिक सफलताओं का और आध्यात्मिक विभूतियों का। पाप-पुण्य, बन्धन-मोक्ष, स्वर्ग-नरक सभी कुछ इसी में समाये हैं। अंधेरा और उजाला सब इसी में हैं। इसी में जन्म और मृत्यु के कारण हैं। यही है द्वार बाहरी दुनिया का, यही है सीढ़ी अन्तस् की। इसको साधने की साधना बन पड़े तो मनुष्य सबसे पार हो जाता है।
  
जिनकी जिन्दगी में साधना का सच है, उनकी अनुभूति यही कहती है कि मन सब कुछ है। सब उसकी ही लीला और कल्पना है। यह खो जाय तो सारी लीला विलीन हो जाती है। एक बार महाकाश्यप ने तथागत से पूछा था-भगवन् मन तो बड़ा चंचल है, यह सधे कैसे? खोये कैसे? मन तो बड़ा गंदा है, यह निर्मल कैसे हो? इन प्रश्नों के उत्तर में भगवान् चुप रहे। हाँ अगले दिन वह महाकाश्यप के साथ एक यात्रा के लिए निकले।
  
इस यात्रा में दोपहर के समय वह एक वृक्ष की छाँव में विश्राम के लिए रुके। उन्हें प्यास लगी तो महाकाश्यप पास के पहाड़ी झरने से पानी लेने के लिए गये। लेकिन झरने में से अभी बैलगाड़ियाँ निकली थीं और उसका सब पानी गंदा हो गया था। महाकाश्यप ने सारी बात भगवान् को बताते हुए कहा-प्रभु! झरने का पानी गंदा है, मैं पीछे जाकर नदी से पानी ले आता हूँ। लेकिन बुद्ध ने हँसते हुए कहा-नदी दूर है, तुम फिर से वापस झरने के मूल में जाओ और पानी लेकर आओ। भगवान् के कहने से महाकाश्यप फिर से वापस लौटे-उन्होंने देखा अपने मूल स्रोत में झरने का पानी बिल्कुल साफ है, वे जल लेकर वापस आ गये।
  
उनके लाये जल को पीते हुए भगवान् ने उन्हें बोध दिया-महाकाश्यप मन की दशा भी कुछ इसी तरह से है। जिन्दगी की गाड़ियाँ इसे विक्षुब्ध करती रहती हैं। यदि कोई शान्ति और धीरज से उसे देखता रहे, उसके मूल स्रोत में प्रवेश करने की कोशिश करे तो सहज ही निर्मलता उभर आती है। बस बात मन को साधने की है। मन को साधने की साधना करते हुए ही जीवन निर्मलता, सफलता एवं आध्यात्मिक विभूतियों का भण्डार बन जाता है।

✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ १४७

👉 QUERIES ABOUT THE MANTRA (Part 5)

Q.5 Does Gayatri Mantra conform to the rules of Sanskrit Grammar?

Ans. At times points are raised about supposed grammatical inaccuracies in the composition of Gayatri Mantra. These misconceptions arise when the Shrutis (Richas of Vedas and Upnishads) are studied and evaluated as literary, human creations. Unlike the religious books and teachings of the Rishis compiled as Smritis, Puranas, Tantras etc., Shrutis are considered eternal divine revelations (A- paurusheya) dealing with inter-relationship of soul and God. Thus, Shrutis are not meant for literary comprehension and intellectual dissertations. Their compilers had explicitly stated that in order to understand and experience the mysteries of Vedas (i.e. Shrutis), it is essential to have adequate exposure to various related scriptural texts, commentaries of seers, interaction with seer scholars and above all the grace of God, This alone can purify the soul, making it receptive to the supreme wisdom revealed in the shrutis.

It is, thus, irrefutable that the Vedas (which include the Gayatri Mantra) are not governed by the laws of Sanskrit Grammar, which is a product of human endeavour and came into existence at a much later stage in human evolution.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 Gayatri Sadhna truth and distortions Page 40

👉 जीवन-सार्थकता की साधना—चरित्र (भाग २)

समाज की सुव्यवस्था का आधार उज्ज्वल चरित्र के व्यक्तियों का बाहुल्य माना गया है। सुख-शान्ति और सन्तोष की परिस्थितियां नेक व्यक्तियों के सदाचार से बनती हैं। प्रेम, स्नेह, मैत्री, दया, आत्मीयता और सहानुभूति का वातावरण जहां भी रहेगा वहीं स्वर्ग जैसे सुखों की रसानुभूति होने लगती है। जो मनुष्य स्वभावतः दूसरों के साथ उदारता का व्यवहार करते हैं, स्नेह वर्तते और परोपकार की भावना रखते हैं वे अपने चरित्र की उज्ज्वल छाप दूसरों पर भी छोड़ते हैं। यह प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है तो ऐसे स्थान विशेष में स्वर्गिक परिस्थितियों का उभार स्वयमेव होने लगता है। व्यक्ति के चरित्रवान् बनने से ही किसी समाज का सच्चा सुधार हो सकता है। व्यक्ति के चरित्रवान् बनने से ही किसी समाज का सच्चा सुधार हो सकता है। इसलिए चरित्र की महान महत्ता को सभी महापुरुषों ने स्वीकार किया है।

यह देखा जाता है कि लोग अपने बच्चों के नाम राम-कृष्ण, शिव-शंकर, राणाप्रताप, रणजीत आदि रखना अधिक पसन्द करते हैं। रावण, कंस या खरदूषण नाम रखना किसी को भी प्रिय नहीं। इससे प्रतीत होता है कि लोगों में चरित्रवान् की प्रतिष्ठा व सम्मान का भाव अधिक पाया जाता है। यह बात अपने यहां ही नहीं हर देश, जाति और संस्कृति में पाई जाती है। इससे चरित्र की महान् महत्ता प्रतिपादित होती है। मनुष्य की कीर्ति, यश और सम्मान का आधार बाह्यजगत की सफलताएं नहीं हैं। उसकी आन्तरिक श्रेष्ठता के आधार पर युगों तक यश शरीर अमर रहता है। सोलहवीं सदी में सबसे बड़ा पहलवान कौन हुआ, ईसा के जन्म से दो शताब्दी पूर्व कौन व्यक्ति सर्वाधिक धनी हुआ है यह कोई भी न जानता होगा, इतिहास में भी इनका कहीं उल्लेख नहीं मिलता किन्तु भगवान राम, कृष्ण, हरिश्चंद्र, शिव, दधीच, अर्जुन आदि चरित्रवान् महापुरुषों की जीवनियां आज भी लोगों को मुंह जबानी याद हैं।

दुराचारी व्यक्ति अपनी बाह्य-शक्तियों को भी देर तक बनाए नहीं रख सकते। कुकर्मों पर चलने से उनकी दुर्दशा स्वाभाविक है। फलतः उनका जीवन दिन-दिन पतित होता जाता है और उन्हें निरन्तर नारकीय यन्त्रणायें भोगनी पड़ती हैं किन्तु चरित्रवान व्यक्तियों को बुरा-समय भी वरदान सिद्ध हुआ है। अपनी चारित्रिक विशेषता के कारण सत्यव्रती हरिश्चन्द्र ने अपना खोया हुआ राज्य पुनः प्राप्त कर लिया, उर्वशी का श्राप कालान्तर में अर्जुन के लिए वरदान सिद्ध हुआ। रावण के दुष्कर्मों का फल विनाश के रूप में मिला और विभीषण की नेकी का परिणाम यह हुआ कि उसे लंका की राजगद्दी मिली। चरित्र मनुष्य को सदैव ही ऊंचे उठाता है। परिस्थितियां तो चरित्रवान पुरुषों की चेरी कहीं गई हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति अगस्त 1964 पृष्ठ 9

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1964/August/v1.9

http://literature.awgp.org/book/sukh_shanti_ki_sadhana/v1.12

गुरुवार, 26 दिसंबर 2019

👉 अद्भुत पात्र Adbhut Patra

एक राजमहल के द्वार पर बड़ी भीड़ लगी थी किसी भिक्षुक ने राजा से भिक्षा मांगी थी राजा ने उससे कहा, जो भी चाहते हो मांग लो दिवस के प्रथम याचक की कोई भी इच्छा पूरी करने का उसका नियम था उस भिक्षुक ने अपने छोटे से भिक्षापात्र को आगे बढ़ाया और कहा बस इसे स्वर्ण मुद्राओं से भर दे'।

राजा ने सोचा इससे सरल बात और क्या हो सकती है लेकिन जब उस भिक्षा पात्र में स्वर्ण मुद्राएं डाली गई तो ज्ञात हुआ कि उसे भरना असंभव था वह तो जादुई था जितनी अधिक मुद्राएं उसमें डाली गई वह उतना ही अधिक खाली होता गया राजा को दुखी देख वह भिक्षुक बोला न भर सकें तो वैसा कह दे मैं खाली पात्र को ही लेकर चला जाऊंगा राजा! ज्यादा से ज्यादा इतना ही होगा कि लोग कहेंगे कि राजा अपना वचन पूरा नहीं कर सके।

राजा ने अपना सारा खजाना खाली कर दिया, उसके पास जो कुछ भी था सभी उस पात्र में डाल दिया गया लेकिन अद्भुत पात्र न भरा, सो न भरा तब उस राजा ने पूछा भिक्षु तुम्हारा पात्र साधारण नहीं है उसे भरना मेरी साम‌र्थ्य से बाहर है क्या मैं पूछ सकता हूं कि इस अद्भुत पात्र का रहस्य क्या है..?

वह भिक्षुक हंसने लगा और बोला कोई विशेष रहस्य नहीं राजा यह पात्र मनुष्य के हृदय से बनाया गया है क्या आपको ज्ञात नहीं है कि मनुष्य का हृदय कभी भी भरा नहीं जा सकता..? धन से पद से ज्ञान से- किसी से भी भरो वह खाली ही रहेगा, क्योंकि इन चीजों से भरने के लिए वह बना ही नहीं है इस सत्य को न जानने के कारण ही मनुष्य जितना पाता है उतना ही दरिद्र होता जाता है हृदय की इच्छाएं कुछ भी पाकर शांत नहीं होती हैं क्यों..? क्योंकि, हृदय तो परमात्मा को पाने के लिए बना है और परमात्मा सत्य में बसता है शांति चाहते हो ? संतृप्ति चाहते हो..?  तो अपने संकल्प को कहने दो कि परमात्मा और सत्य के अतिरिक्त और मुझे कुछ भी नहीं चाहिए......

👉 अन्तराल के परिशोधन की प्रायश्चित प्रक्रिया (भाग १)

कर्मफल एक ऐसी सच्चाई है जिसे इच्छा या अनिच्छा से स्वीकार ही करना होगा। यह समूची सृष्टि एक सुनियोजित व्यवस्था की शृंखला में जकड़ी हुई है। क्रिया की प्रतिक्रिया का नियम कण-कण पर लागू होता है और उसकी परिणति का प्रत्यक्ष दर्शन पग-पग पर होता है।

भूतकालीन कृत्यों के आधार पर वर्तमान बनता है और वर्तमान का जैसा भी स्वरूप है, उसी के अनुरूप भविष्य बनता चला जाता है। किशोरावस्था में कमाई हुई विद्या और स्वास्थ्य सम्पदा जवानी में बलिष्ठता एवं सम्पन्नता बनकर सामने आती है। यौवन का सदुपयोग-दुरुपयोग बुढ़ापे के जल्दी या देर से आने, देर तक जीने या जल्द मरने के रूप में परिणत होता है। वृद्धावस्था की मनःस्थिति संस्कार बनकर मरणोत्तर जीवन के साथ जाती और पुनर्जन्म के रूप में अपनी परिणति प्रकट करती है।

कुछ कर्म तत्काल फल देते हैं, कुछ की परिणति में विलम्ब लगता है। व्यायामशाला, पाठशाला, उद्योगशाला के साथ सम्बन्ध जोड़ने के सत्परिणाम सर्वविदित हैं, पर वे उसी दिन नहीं मिल जाते, जिस दिन प्रयास आरम्भ किया गया था। कुछ काम अवश्य ऐसे होते हैं, जो हाथों-हाथ फसल देते हैं। मदिरा पीते ही नशा आता है। जहर खाते ही मृत्यु होती है। गाली देते ही घूँसा तनता है। दिन भर परिश्रम करते ही शाम को मजदूरी मिलती है। टिकट खरीदते ही सिनेमा का मनोरंजन चल पड़ता है। ऐसे भी अनेकों काम हैं, पर सभी ऐसे नहीं होते। कुछ काम निश्चय ही ऐसे हैं, जो देर लगा लेते हैं। असंयमी लोग जवानी में ही खोखले बनते रहते हैं, उस समय कुछ पता नहीं चलता। दस-बीस वर्ष बीतने नहीं पाते कि काया भी जर्जर होकर अनेक रोगों से घिर जाती है।

समय साध्य परिणतियों को देखकर अनेकों को कर्मफल पर अविश्वास होने लगता है। वे सोचते हैं कि आज का प्रतिफल हाथों-हाथ नहीं मिला तो वह कदाचित भविष्य में भी कभी नहीं मिलेगा। अच्छे काम करने वाले प्रायः इसी कारण निराश होते हैं और बुरे काम करने वाले अधिक निर्भय निरंकुश बनते हैं। तत्काल फल न मिलने की व्यवस्था भगवान ने मनुष्य की दूरदर्शिता, विवेकशीलता को जाँचने के लिए ही बनाई है। अन्यथा वह ऐसा भी कर सकता था कि झूठ बोलते ही मुँह में छाले भर जाय। चोरी करने वाले के हाथ में दर्द होने लगे। व्यभिचारी तत्काल नपुंसक बन जाय। यदि ऐसा रहा होता तो आग में हाथ डालने से बचने की तरह लोग पाप-कर्मों से भी बचे रहते और दीपक जलाते ही रोशनी की तरह पुण्य फल का हाथों-हाथ चमत्कार देखते। पर ईश्वर को क्या कहा जाय। उसकी भी तो अपनी मर्जी और व्यवस्था है। सम्भवतः मनुष्य की दूरदर्शिता विकसित करने एवं परखने के लिए ही इतनी गुंजायश रखी है कि वह सत्कर्मों और दुष्कर्मों का प्रतिफल विलम्ब से मिलने पर भी अपनी समझदारी के आधार पर भविष्य को ध्यान में रखते हुए आज की गतिविधियों को अनुपयुक्तता से बचाने और सत्साहस को अपनाने में जो अवरोध आते हैं, उन्हें धैर्यपूर्वक सहन करे।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)

👉 किमाश्चर्य परमं?

किमाश्चर्य परमं? - ‘सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है?’- युगों पहले यक्ष ने युधिष्ठिर से यह सवाल पूछा था। धर्म का मर्म जानने वाले युधिष्ठिर ने इस सवाल के उतर में यक्ष से कहा था- ‘हजारों लोगों को रोज मरते हुए देखकर भी अपनी मौत से अनजान बने रहना, खुद को मौत से मुक्त मान लेना, जीते रहने की लालसा में अनेकों दुष्कर्म करते रहना ही सबसे बड़ा आश्चर्य है।’ अनेकों शवयात्राएँ रोज निकलती हैं, ढेरों लोग इनमें शामिल भी होते हैं। इसके बावजूद भी वे अपनी शवयात्रा की कल्पना नहीं कर पाते। काश! ऐसी कल्पना की जा सके अपनी मौत के कदमों की आहट सुनी जा सके, तो निश्चित ही जीवन दृष्टि संसार से हटकर सत्य पर केन्द्रित हो सकती है।
  
सूफी फकीर शेखसादी के वचन हैं- ‘बहुत समय पहले दज़ला के किनारे एक मुरदे की खोपड़ी ने कुछ बाते एक राहगीर से कही थी। वह बोली थी ः ऐ मुसाफिर, जरा होश में चल। मैं भी कभी भारी दबदबा रखती थी। मेरे ऊपर हीरों जड़ा ताज़ था। फतह मेरे पीछे-पीछे चली और मेरे पाँव कभी जमीन पर न पड़ते थे। होश ही न था कि एक दिन सब कुछ खत्म हो गया। कीड़े मुझे खा गए हैं और आज हर पाँव मुझे बेरहम ठोकर मारकर आगे निकल जाता है। तू भी अपने कानों से गफलत की रूई निकाल ले, ताकि तुझे मुरदों की आवाज से उठने वाली नसीहत हासिल हो सके।’
  
सच में मुरदों की आवाज से उठने वाली नसीहत को जो सुन लेता है, वह जान लेता है कि जन्म के साथ मृत्यु जुड़ी है। उन दोनों के बीच जो है वह केवल जीवन का आभास भर है। यह जीवन की एक छाया भर है। क्योंकि जीवन तो शाश्वत है, और इसकी कभी मृत्यु नहीं हो सकती। जन्म का अन्त है, जीवन का नहीं। और मृत्यु का प्रारम्भ है जीवन का नहीं। जीवन तो इन दोनों से पार है। इसे वही पाते हैं जो अनवरत तप और सतत सत्कर्मों से जीवन की छाया से पार शाश्वत में प्रवेश करते हैं। ऐसे लोग मौत से मुँह नहीं चुराते, बल्कि इसे शाश्वत जीवन का प्रवेश द्वार बना लेते हैं। जो ऐसा नहीं करते, वे जीवित होकर भी जीवित नहीं हैं। और जो करने में समर्थ होते हैं, वे मर कर भी नहीं मरते।

✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ १४६

👉 जीवन-सार्थकता की साधना—चरित्र (भाग १)

मनुष्य जीवन की सार्थकता उज्ज्वल और उद्दात्त चरित्र से होती है। सामाजिक प्रतिष्ठा के भागीदार वे होते हैं जिनमें चारित्रिक बल की न्यूनता नहीं पाई जाती। जिस पर सभी लोग विश्वास करते हों, ऐसे ही लोगों की साख औरों पर पड़ती है। पर-उपदेश तो वाक्पटुता के आधार पर धूर्त व्यक्ति तक कर लेते हैं। किन्तु दूसरों को प्रभावित कर पाने की क्षमता, लोगों को सन्मार्ग का प्रकाश दिखाने की शक्ति चरित्रवान् व्यक्तियों में हुआ करती है। सद्-विचारों और सत्कर्मों की एकरूपता को ही चरित्र कहते हैं। जिसके विचार देखने में भले प्रतीत हों किन्तु आचार सर्वदा भिन्न हों, स्वार्थपूर्ण हों, अथवा जिनके विचार छल व कपट से भरे हों और दूसरे को धोखा देने, प्रपंच रचने के उद्देश्य से चिन्ह पूजा के रूप में सत्कर्म करने की आदत होती है उन्हें चरित्रवान् नहीं कहा जा सकता। सत्कर्मों का आधार इच्छाशक्ति की प्रखरता है। जो अपनी इच्छाओं को नियन्त्रित रखते हैं और उन्हें सत्कर्मों का रूप देते हैं उन्हीं को चरित्रवान् कहा जा सकता है। संयत इच्छा-शक्ति से प्रेरित सदाचार का ही नाम चरित्र है।

विपुल धन सम्पत्ति, आलीशान मकान, घोड़े-गाड़ी, यश, कीर्ति आदि कमाने एवं विविध भाग भोगने की इच्छा आम लोगों में पाई जाती है। बालकों का हित भी इसी में मानते हैं कि उनके लिए उत्तराधिकार में बहुत धन दौलत जमा करके रखी जाय। किन्तु वे यह भूल जाते हैं कि जिस धन से भावी सन्तान आत्म-निर्माण न कर सके वह धन क्या? बिना श्रम उत्तराधिकार में मिला धन घातक होता है। सच्ची बपौती व्यक्ति का आदर्श चरित्र होता है, जिससे बालक अपनी प्रतिभा का स्वतः विकास करते हैं। उज्ज्वल चरित्र का आदर्श भावी सन्तति के जीवन-निर्माण में प्रकाश स्तम्भ का कार्य करता है।

समाज का सौन्दर्य, सुख और शान्ति चरित्रवान् व्यक्तियों के द्वारा स्थिर रहती है। दुष्चरित्र और दुराचारी लोगों से सभी भयभीत रहते हैं। उनके पास आने में लोग लज्जा व संकोच अनुभव करते हैं। जो भी उनके सम्पर्क में आता है उसे ही वे अपने दुष्कर्मों की आग में लपेट लेते हैं। ऐसा समाज दुःख, कलह ओर कटुता से झुलसकर रह जाता है। अनेकों प्रकार की भौतिक सम्पत्तियां व सांसारिक सुख सुविधाएं होते हुए भी लोगों को शान्ति उपलब्ध नहीं होती। अधिकतर लोग कुढ़-कुढ़कर जीवन बिताते रहते हैं। यह सब चारित्रिक न्यूनता के कारण ही होता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति अगस्त 1964 पृष्ठ 9

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1964/August/v1.9

http://literature.awgp.org/book/sukh_shanti_ki_sadhana/v1.12

👉 देव संस्कृति की गौरव गरिमा

सभ्यता और संस्कृति इस युग के दो बहु-चर्चित विषय हैं। आस्थाओं और मान्यताओं को संस्कृति और तदनुरूप व्यवहार, आचरण को सभ्यता की संज्ञा दी जाती है। मानवीय सभ्यता और संस्कृति कहें या चाहे जो भी नाम दें मानवीय दर्शन सर्वत्र एक ही हो सकता है, मानवीय संस्कृति केवल एक हो सकती है दो नहीं क्योंकि विज्ञान कुछ भी हो सकता है। इनका निर्धारण जीवन के बाह्य स्वरूप भर से नहीं किया जा सकता। संस्कृति को यथार्थ  स्वरूप प्रदान करने के लिए अन्ततः धर्म और दर्शन की ही शरण में जाना पड़ेगा।
  
संस्कृति का अर्थ है-मनुष्य का भीतरी विकास। उसका परिचय व्यक्ति के निजी चरित्र और दूसरों के साथ किये जाने वाले सद्व्यवहार से मिलता है। दूसरों को ठीक तरह समझ सकने और अपनी स्थिति तथा समझ धैर्यपूवक दूसरों को समझा सकने की स्थिति भी उस योग्यता में सम्मिलित कर सकते हैं, जो संस्कृति की देन है।
  
आदान-प्रदान एक तथ्य है, जिसके सहारे मानवीय प्रगति के चरण आगे बढ़ते-बढ़ते वर्तमान स्थिति तक पहुँचे हैं। कृषि, पशुपालन, शिक्षा, चिकित्सा, शिल्प-उद्योग विज्ञान, दर्शन जैसे जीवन की मौलिक आवश्यकताओं से सम्बन्धित प्रसंग किसी क्षेत्र की बपौती नहीं है। एक वर्ग की उपलब्धियों से दूसरे क्षेत्र के लोग परिचित हुए हैं। परस्पर आदान-प्रदान चले हैं और भौतिक क्षेत्र में सुविधा संवर्धन का पथ-प्रशस्त हुआ है। ठीक यही बात धर्म और संस्कृति के सम्बन्ध में भी है। एक लहर ने अपने सम्पर्क क्षेत्र को प्रभावित किया है। तो दूसरी लहर ने उसे आगे धकेला है। लेन-देन का सिलसिला सर्वत्र चलता रहा है। मिल-जुलकर ही मनुष्य हर क्षेत्र में आगे बढ़ा है। इस सम्पर्क से धर्म और संस्कृति भी अछूते नहीं रहे हैं। उन्होंने एक-दूसरे को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से प्रभावित किया है।
  
यह सभ्यताओं का समन्वय एवं आदान-प्रदान उचित भी है और आवश्यक भी। कट्टरता के इस कटघरे में मानवीय विवेक को कैद रखे  रहना असम्भव है। विवेक दृष्टि से जाग्रत होते ही इन कटघरों की दीवारें टूटती हैं और जो रुचिकर या उपयोगी लगता है, उसका बिना किसी प्रयास या दबाव के आदान-प्रदान चल पड़ता है। इसकी रोकथाम के लिए कट्टरपन्थी प्रयास सदा से हाथ-पैर पीटते रहे हैं, पर यह कठिन ही रहा है। हवा उन्मुक्त आकाश में बहती है। सर्दी-गर्मी का विस्तार व्यापक क्षेत्र में होता है। इन्हें बन्धनों में बाँधकर कैदियों की तरह अपने ही घर में रुके रहने के लिए बाधित नहीं किया जा सकता है। सम्प्रदायों और सभ्यताओं में भी यह आदान-प्रदान अपने ढंग से चुपके-चुपके चलता रहा है।
  
धर्म और संस्कृति दोनों ही सार्वभौमिक हैं, उन्हें सर्वजनीन कहा जा सकता है। मनुष्यता के टुकड़े नहीं हो सके। सज्जनता की परिभाषा में बहुत मतभेद नहीं है। शारीरिक संरचना की तरह मानवी अन्तःकरण की मूल सत्ता भी एक ही प्रकार की है। भौतिक प्रवृत्तियाँ लगभग एक-सी हैं। एकता व्यापक है और शाश्वत। पृथकता सामयिक है और क्षणिक। हम सब एक ही पिता के पुत्र हैं। एक ही धरती पर पैदा हुए हैं। एक ही आकाश के नीचे रहते हैं। एक ही सूर्य से गर्मी पाते हैं और बादलों के अनुदान से एक ही तरह अपना गुजारा करते हैं फिर कृत्रिम विभेद से बहुत दिनों तक बहुत दूरी तक किस प्रकार बँधे रह सकते हैं? औचित्य को आधार मानकर परस्पर आदान-प्रदान का द्वार जितना खोलकर रखा जाय उतना ही स्वच्छ हवा और रोशनी का लाभ मिलेगा। खिड़कियाँ बन्द रखकर हम अपनी विशेषताओं को न तो सुरक्षित रख सकते हैं और न स्वच्छ हवा और खुली धूप में मिलने वाले लाभों से लाभान्वित हो सकते हैं। संकीर्णता अपनाकर पाया कम और खोया अधिक जाता है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 QUERIES ABOUT THE MANTRA (Part 4)

Q.4.  What is the basis of words in Gayatri Mantra adding upto 24 letters?

Ans. The confusion about Gayatri Mantra having a total of 23 letters only, arises mainly because of the word Nayam in Varenyam. In the composition of the Richas (couplets) of Vedas, meanings are subordinate to the syntax of words, which is according to specified musical notations. The chhandas (components of Vedas classified according to number of letters) in the Vedas are composed keeping in view the symphony to be created by the succession of words for a desired objective. Musicians change the pitch and duration of the tones to conform to a Raga. The mystery of difference between the “written” and pronounced Nyam in the Mantra lies in its sonic effect. In this way considering Nyam as a composite of Ni and Yam according to their musical notation, the first, second and third segments of the Mantra add up to 8 words each. Adya Shankaracharya endorses this view. The Pingal Shastra and Mantrartha Chandrodaya also support the grammatical conformity of Gayatri Mantra on the same principle. In this way, the letters in the Mantra are to be counted as follows:

TAT SA VI TU VAR RE NI YAM BHA RGO DEV SYA DHI       1+ 1+  1+ 1+ 1+ 1+ 1+ 1+ 1+ 1+ 1+ 1+ 1+ 1+
MA HI DHI YO YO NAH  PRA  CHO  DA YAT         1+ 1+  1+ 1+ 1+ 1+ 1+ 1+ 1+ 1   =  24

For further reference please refer to the monthly periodical Akhand Jyoti, May 1983 issue.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 Gayatri Sadhna truth and distortions Page 39

Chalak Bagula Aur Kekda | चालक बगुला और केकड़ा | Motivational Stories



Title

बुधवार, 25 दिसंबर 2019

👉 शांति की तलाश Looking For Peace

एक बार भगवान बुद्ध अपने शिष्यों के साथ कही जा रहे थे। उनके प्रिय शिष्य आनंद ने मार्ग में उनसे एक प्रश्न पूछा -‘भगवान! जीवन में पूर्ण रूप से कभी शांति नहीं मिलती, कोई ऐसा मार्ग बताइए कि जीवन में सदा शांति का अहसास हो।

बुद्ध आनंद का प्रश्न सुनकर मुस्कुराते हुए बोले, तुम्हे इसका जबाब अवश्य देगे किन्तु अभी हमे प्यास लगी है, पहले थोडा जल पी ले। क्या हमारे लिए थोडा जल लेकर आओगे?

बुद्ध का आदेश पाकर आनंद जल की खोज में निकला तो थोड़ी ही दूरी पर एक झरना नजर आया। वह जैसे ही करीब पंहुचा तब तक कुछ बैलगाड़िया वहां आ पहुची और झरने को पार करने लगी। उनके गुजरने के बाद आनंद ने पाया कि झील का पानी बहुत ही गन्दा हो गया था इसलिए उसने कही और से जल लेने का निश्चय किया। बहुत देर तक जब अन्य स्थानों पर जल तलाशने पर जल नहीं मिला तो निराश होकर उसने लौटने का निश्चय किया।

उसके खाली हाथ लौटने पर जब बुद्ध ने पूछा तो उसने सारी बाते बताई और यह भी बोला कि एक बार फिर से मैं किसी दूसरी झील की तलाश करता हूँ जिसका पानी साफ़ हो। यह कहकर आनंद जाने लगा तभी भगवान बुद्ध की आवाज सुनकर वह रुक गया। बुद्ध बोले-‘दूसरी झील तलाश करने की जरुरत नहीं, उसी झील पर जाओ।

आनन्द दोबारा उस झील पर गया किन्तु अभी भी झील का पानी साफ़ नहीं हुआ था । कुछ पत्ते आदि उस पर तैर रहे थे। आनंद दोबारा वापिस आकर बोला इस झील का पानी अभी भी गन्दा है। बुद्ध ने कुछ देर बाद उसे वहाँ जाने को कहा। थोड़ी देर ठहर कर आनंद जब झील पर पहुंचा तो अब झील का पानी बिलकुल पहले जैसा ही साफ़ हो चुका था। काई सिमटकर दूर जा चुकी थी, सड़े- गले पदार्थ नीचे बैठ गए थे और पानी आईने की तरह चमक रहा था।

इस बार आनंद प्रसन्न होकर जल ले आया जिसे बुद्ध पीकर बोले कि आनंद जो क्रियाकलाप अभी तुमने किया, तुम्हारा जबाब इसी में छुपा हुआ है। बुद्ध बोले -हमारे जीवन के जल को भी विचारों की बैलगाड़ियां रोज गन्दा करती रहती है और हमारी शांति को भंग करती हैं। कई बार तो हम इनसे डर कर जीवन से ही भाग खड़े होते है, किन्तु हम भागे नहीं और मन की झील के शांत होने कि थोड़ी प्रतीक्षा कर लें तो सब कुछ स्वच्छ और शांत हो जाता है। ठीक उसी झरने की तरह जहाँ से तुम ये जल लाये हो। यदि हम ऐसा करने में सफल हो गए तो जीवन में सदा शान्ति के अहसास को पा लेगे।

👉 वृत्ति, बुद्धि, विवेक

विवेक, बुद्धि और वृत्ति-इन्हीं तीनों के इर्द-गिर्द मनुष्य की समग्र चेतना घूमती है। इन्हीं तीन से उसकी दशा और दिशा बदलती है, परिवर्तित होती है। विवेक मानव चेतना की श्रेष्ठतम भावदशा में अंकुरित एवं विकसित होता है। इसे यूँ भी कह सकते हैं कि विवेक के अंकुरण से मानव चेतना अपनी श्रेष्ठतम अवस्था में पहुँच जाती है। जबकि बुद्धि मानव चेतना की मध्यवर्ती दशा है। इन दोनों से अलग वृत्ति मानव चेतना की निम्नतम अवस्था का प्रमाण है।
  
निश्चित रूप से वृत्ति पाश्विक है, बुद्धि मानवीय है और विवेक दिव्य है। वृत्ति सहज और अंधी है, इसे चेतना की सुप्तावस्था भी कह सकते हैं। यह अचेतन का जगत् है, यहाँ न शुभ है न अशुभ, न तो यहाँ भेद है और न विकास के लिए कोई संघर्ष। यहाँ तो बस वासनाओं की अंधी अँधेरी आँधियाँ हैं।
  
जबकि बुद्धि में न निद्रा है और न जागरण है। यहाँ अर्धमूर्च्छा है। यहाँ वृत्ति और विवेक के बीच संक्रमण है। यह देहरी है। इसमें चैतन्यता का एक अंश है, लेकिन बाकी हिस्से में गहरी अचेतनता है। यहाँ शुभ और अशुभ का भेद है। वासना के साथ विचार भी विद्यमान है।
  
विवेक मानव चेतना की पूर्ण जाग्रत् अवस्था है। यहाँ शुद्ध चैतन्यता है, यहाँ केवल प्रकाश हैं, यहाँ भी कोई संघर्ष नहीं हैं। बस शुभ का, सत् का, सौन्दर्य का सहज प्रवाह है। यहाँ बड़ी ही सजग सहजता है।
  
सहज वृत्ति भी है और विवेक भी, परन्तु वृत्ति में अंधी सहजता है और विवेक में सजग सहजता। केवल बुद्धि भर असहज है। इसमें पीछे की ओर वृत्ति है और आगे की ओर विवेक है। उसके शिखर की लौ विवेक की ओर है। लेकिन आधार की जड़ें  वृत्ति में हैं। शिखर कुछ-तलहटी कुछ, यही खिंचाव है। पशु में डूबने का आकर्षण-परमात्मा में उठने की चुैनाती, उसमें दोनों एक साथ हैं।
  
उपाय एक ही है, बुद्धि का विवेक में परिवर्तन। वृत्ति का बुद्धि के संक्रमण पथ से गुजरते हुए विवेक में रूपान्तरण। इसके लिए अंधेरे में दिया जलाना होगा। मूर्च्छा छोड़नी होगी। तभी वृत्ति की पाश्विकता एवं बुद्धि की मानवीयता विवेक की दिव्यता में रूपान्तरित हो सकेगी।

✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ १४५

👉 प्रवाह में न बहें, उत्कृष्टता से जुड़े (अन्तिम भाग)

दिन व्यतीत हो जाने पर रात्रि को जब बिस्तर पर जाया जाय तो दिन भर की मानसिक चिन्तन प्रणाली और शारीरिक गतिविधियों की निष्पक्ष समीक्षा करनी चाहिए। जहाँ-जहाँ सदाशयता भरे कदम उठाये गये हैं वहाँ उनकी आत्मिक दृढ़ता को सराहना चाहिए। जहाँ साधारण मनुष्यों की अपेक्षा असाधारण उत्कृष्ट कर्तृत्व का परिचय दिया गया हो, वहाँ अपने आत्मबल पर गर्व और सन्तोष अनुभव करना चाहिए और जहाँ चूक हुई तो उसके लिए पश्चाताप प्रायश्चित करते हुए अगले दिन वैसा न करने की अपने आपको कड़ी चेतावनी देनी चाहिए। जिस प्रकार व्यापारी अपने बही खाते से यह अनुमान लगाते रहते हैं कि कारोबार नफे में चल रहा है या नुकसान में, ठीक इसी तरह अपनी भावना और क्रिया के जीवन व्यापार की गतिविधियों की समीक्षा करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुँचना चाहिए कि हम ऊपर उठ रहे हैं या नीचे गिर रहे हैं। यदि उठ रहे हो, तो उस उत्कर्ष की गति और भी तीव्र करने का उत्साह पैदा करना चाहिए और यदि पतन बढ़ रहा हो तो उसे रोकने के लिए रुद्र रूप धारण करना चाहिए। गीता में भगवान ने अलंकारिक रूप से जिन कौरवों से लड़ने के लिए कहा था वस्तुतः वे मनोविकार ही हैं। यह महाभारत हर व्यक्ति के जीवन में लड़ा जाना चाहिए। अपने दोष दुर्गुणों को निरस्त करने के लिए हर व्यक्ति को तरकस तूरीण सम्भालकर रखना चाहिए।

भूलों के लिए पश्चाताप प्रार्थना भर पर्याप्त नहीं, वरन् उसके लिए प्रायश्चित भी किया जाना चाहिए। छोटी भूलों के लिए छोटे शारीरिक दण्ड दिये जा सकते हैं, भोजन में कटौती, कान पकड़कर बैठक लगाना, कुछ समय खड़े रहना, देर तक जागना, चपत लगाना आदि दण्ड हो सकते हैं। यदि दूसरों को क्षति पहुँचाई गई है तो उसकी पूर्ति समाज को किसी सत्प्रवृत्ति के अभिवर्धन के लिए अनुदान देकर पूरी कर देनी चाहिए। दुष्कर्मों का प्रायश्चित यही है कि व्यक्ति को पहुँचाई गई क्षति की पूर्ति समाज की सुविधा बढ़ाने के लिए लगा दी जाय। दुष्कर्मों का फल इसी तरह शमन होता है। मात्र छुट-पुट पूजा पाठ कर लेने से उनकी निवृत्ति नहीं हो सकती।

आत्मबोध की अग्रिम प्रगति सत्कर्मों में अनुरक्ति है। संसार में जो अन्धेर, अविवेक और अनाचार चल रहा है, उसके प्रति आकर्षण नहीं घृणा ही होनी चाहिए। उसे अपनाने के लिए नहीं प्रतिरोध के लिए ही अपनी चेष्टा होनी चाहिए। व्यक्तित्व का निर्माण इसी प्रकार होगा। हमें अपने व्यक्तित्व का आदर्शवादी निर्माण करके समाज निर्माण की महत्त्वपूर्ण भूमिका सम्पादित करनी चाहिए।

.... समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 QUERIES ABOUT THE MANTRA (Part 3)

Q.3. Why is Gayatri represented as a female deity?  

Ans. Several people say that when masculine words have been used in Gayatri how can it be said Gayatri Mata? It should be understood that the Absolute Divinity it represents, is all pervasive and formless. It is beyond gender. In scriptures both masculine and feminine words are used for fire, air etc. The famous Sanskrit couplet which is a prayer to God says, ‘Oh God, you are mother, you are father (Twameva Mata-cha Pita Twameva).’ Literally,  Savita may be called masculine, but its power, Savitri is feminine. These allegorical descriptions in the scriptures should be taken as such, and not used to score declamatory points. 

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 Gayatri Sadhna truth and distortions Page 38


👉 विचार करें

हमारे व्यक्तित्व के श्रेष्ठतर विकास की जरूरत समझने के लिए नीचे लिखे बिन्दुओं पर विचार करना होगा

1.    हम पत्रिकाओं के ग्राहक बना लेते हैं, किन्तु उन्हें क्रमशः पाठक, साधक और सैनिक के रूप में विकसित करने की जिम्मेदारी चाहकर भी उठा नहीं पा रहे हैं।

2.    हम बड़ी संख्या में श्रद्धालुओं को दीक्षा दिलवा देते हैं, किन्तु उन्हें क्रमशः उपासना, साधना और आराधना में कुशल बनाने, समयदान और अंशदान में निष्ठापूर्वक आगे बढ़ाने के प्रयास ठीक से नहीं कर पा रहे हैं।

3.    हम युग साहित्य के मेले लगाते हैं, उसका विक्रय बढ़ाते हैं, लेकिन युगविचार से युगरोगों के उपचार की प्रेरणा जन- जन तक नहीं पहुँचा पा रहे हैं।

4.    हम साधना से सिद्धि की बातें दुहराते हैं, किन्तु स्वयं को उस साधना में आगे नहीं बढ़ाते जिससे हम सच्चे अग्रदूत सिद्ध हो सकें।

5.    हम अपने आयोजनों और प्रबुद्ध वर्ग की गोष्ठियों में विभिन्न वर्गों और संगठनों के प्रतिभावानों को शामिल तो कर लेते हैं, किन्तु उन्हें युग निर्माण के सूत्रों को अपने प्रभाव क्षेत्र में लागू करने के लिए प्रेरित नहीं कर पा रहे हैं।

6.    हम सभी सम्प्रदायों और संगठनों को युग सृजन में भागीदार बनाना चाहते हैं, लेकिन उन्हीं के विश्वास के अनुसार उनमें प्रेरणा भरने योग्य स्वयं को ढाल नहीं पा रहे हैं।
उक्त सब तथ्यों पर विचार करने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि अगले कार्यों को सम्पन्न करने के लिए अपने व्यक्तित्वों को ऊँचा बनाने में हम कहीं पिछड़ रहे हैं।

सम्पादकीय प्रज्ञा आभियान 16 जनवरी 2014 Page 2

Aaj Ki Sabse Badi Samasya | आज की सबसे बड़ी समस्या | Dr Chinmay Pandya



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सोमवार, 23 दिसंबर 2019

👉 प्रवाह में न बहें, उत्कृष्टता से जुड़े (भाग ५)

हर दिन नया जन्म, हर रात नई मौत की अनुभूति यदि की जा सके तो उससे उत्कृष्ट जीवन जीने की बहुत ही सुव्यवस्थित योजना बन जाती है। हर दिन एक जीवन मानकर चला जाय और उसे श्रेष्ठतम तरीके से जीकर दिखाने का प्रातःकाल ही प्रण कर लिया जाय तो यह ध्यान दिन भर प्रायः हर घड़ी बना रहता है कि आज कोई निकृष्ट विचार मन में नहीं आने देना है, निकृष्ट कर्म नहीं करना है, जो कुछ सोचा जायेगा वैसा ही होगा और जितने भी कार्य किये जायेंगे उनमें नैतिकता और कर्तव्य निष्ठा का पूरा ध्यान रखा जायेगा। प्रातःकाल पूरे दिन की दिनचर्या निर्धारित कर लेनी चाहिये और सोच लेना चाहिए कि उस दिन भर की क्रिया पद्धति में कहाँ कब कैसे अवांछनीय चिन्तन का अवांछनीय कृति का अवसर आ सकता है? उस आशंका के स्थल का पहले ही उपाय सोच लिया जाय, रास्ता निकाल लिया जाय तो समय पर उस निर्णय की याद आ जाती है और सम्भावित बुराई से बचना सरल हो जाता है।

बुराई से बचना ही काफी नहीं आवश्यकता इस बात की भी है कि अपनी विचारणा भावना, चिन्तन प्रक्रिया सामान्य मनुष्यों जैसी न रहकर उच्च स्तर के सहृदय सज्जनों जैसी रहे और सारे काम पेट परिवार के लिए ही न होते रहें, वरन् लोक सेवा के लिए भी समय, श्रम, चिन्तन तथा धन का जितना अधिक समय हो सके उतना लगाया जाय। शरीर तथा शरीर से सम्बन्ध, सुविधाओं तथा सम्बन्धियों के लिए ही हमारा प्रयास सीमित नहीं हो जाना चाहिए, वरन् देश, धर्म, समाज और संस्कृति की सेवा के लिए विश्व मानव की शान्ति एवं समृद्धि के लिए भी हमें बहुत कुछ करना चाहिए। आत्मा की भूख और हृदय की प्यास इस श्रेष्ठ कर्तृत्व से ही पूरी होती है। जीवनोद्देश्य की पूर्ति, ईश्वर की प्रसन्नता एवं आत्म कल्याण की बात को ध्यान में रखते हुए हमें कुछ ऐसा विशिष्ट भी करना चाहिए जिसे शरीर की परिधि से ऊपर आत्मा की श्रेय साधना में गिना जा सके।

इस प्रकार एक दिन के जीवन का श्रेष्ठतम सदुपयोग करने की याद यदि हर घड़ी ध्यान में बनी रहे तो वह दिन आदर्श ही व्यतीत होगा। ठीक इसी प्रक्रिया की हर दिन पुनरावृत्ति की जाती रहे तो एक के बाद एक दिन, एक से एक बढ़कर बनेगा और यह क्रम बनाकर चलते रहने से अपने गुण, कर्म, स्वभाव में श्रेष्ठता ओत-प्रोत हो जायेगी। उसे ओछे दृष्टिकोण और हेय कर्मों को यदि निरन्तर अपनी गतिविधियों में से पृथक किया जाता रहे तो थोड़े दिनों में स्वभाव ही ऐसा बन जायेगा कि बुराई को देखते ही घृणा होने लगे और उसे अपनाने के लिये अन्तःकरण किसी भी सूरत में तैयार न हो।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 श्रद्धा, सिद्धान्तों के प्रति हो (अंतिम भाग)

तो क्या करना चाहिए। बेटे, मैं नहीं बताता हूँ। कैसे कहूँ आपको, देख लीजिए और हमको पढ़ लीजिए। हमारी श्रद्धा को पढ़ लीजिए। जिस दिन से हमने साधना के क्षेत्र में, सेवा के क्षेत्र में, अध्यात्म के क्षेत्र में कदम बढ़ाया, उस दिन से लेकर आज तक हमारी निष्ठा ज्यों की त्यों बनी हुई है। इसमें कहीं एक राई-रत्ती, सुई के नोंक के बराबर फर्क नहीं आएगा। जिस दिन तक हमारी लाश उठेगी उस दिन तक आप कभी यह नहीं सुनेंगे कि इन्होंने अपनी श्रद्धा डगमगा दी। इन्होंने अपने विश्वास में कमी कर दी।

आप हमारी वंश-परम्परा को जानिए और हम मरने के बाद में जहाँ कहीं भी रहेंगे, भूत बनकर देखेंगे। हम देखेंगे कि जिन लोगों को हम पीछे छोड़कर आए थे, उन्होंने हमारी परम्परा को निबाहा है और अगर हमको यह मालूम पड़ा कि इन्होंने हमारी परम्परा नहीं निबाही और इन्होंने व्यक्तिगत ताना-बाना बुनना शुरू कर दिया और अपना व्यक्तिगत अहंकार, अपनी व्यक्तिगत यश−कामना और व्यक्तिगत धन-संग्रह करने का सिलसिला शुरू कर दिया। व्यक्तिगत रूप से बड़ा आदमी बनना शुरू कर दिया, तो हमारी आँखों से आँसू टपकेंगे और जहाँ कहीं भी हम भूत होकर के पीपल के पेड़ पर बैठेंगे, वहाँ जाकर के हमारी आँखों से जो आँसू टपकेंगे-आपको चैन से नहीं बैठने देंगे और मैं कुछ कहता नहीं हूँ। आपको हैरान कर देंगे हैरान। दुर्वासा ऋषि के पीछे विष्णु भगवान का चक्र लगा था तो दुर्वासा जी तीनों लोकों में घूम आए थे, पर उनको चैन नहीं मिला था। आपको भी चैन नहीं मिलेगा। अगर हमको विश्वास देकर के विश्वासघात करेंगे तो मेरा शाप है आपको चैन नहीं पड़ेगा कभी भी और न आपको यश मिलेगा, न आपको ख्याति मिलेगी, न उन्नति होगी। आपका अधःपतन होगा। आपका अपयश होगा और आपकी जीवात्मा आपको मारकर डाल देगी। आप यह मत करना, अच्छा!

मुझे अपने मन की बात कहनी थी, सो मैंने कह दी। अब करना आपका काम है कि इन बताई हुई बातों को किस हद तक कार्य में लें और और कहाँ तक चलें? बस ये ही मोटी-मोटी बातें थीं जो मैंने आपसे कहीं। बस मेरा मन हल्का हो गया। अब आप इन्हें सोचना। मालूम नहीं आप इन्हें कार्यरूप में लाएँगे या नहीं लाएँगे। यदि लाएँगे तो मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी और मैं समझूँगा कि आज मैंने जी खोलकर आपके सामने जो रखा था आपने उसे ठीक तरीके से पढ़ा, समझा और जीवन में उतार करके उसी तरह का लाभ उठाने की सम्भावना शुरू कर दी जैसे कि मैंने अपने जीवन में की।

यह रास्ता आपके लिए भी खुला है, भले आप पीछे-पीछे आइए, साथ आइए। हमको देखिए और अपने आपको ठीक करिए।

.... बस हमारी बात समाप्त।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

ॐ शान्ति।

रविवार, 22 दिसंबर 2019

👉 प्रवाह में न बहें, उत्कृष्टता से जुड़े (भाग ५)

हर दिन नया जन्म, हर रात नई मौत की अनुभूति यदि की जा सके तो उससे उत्कृष्ट जीवन जीने की बहुत ही सुव्यवस्थित योजना बन जाती है। हर दिन एक जीवन मानकर चला जाय और उसे श्रेष्ठतम तरीके से जीकर दिखाने का प्रातःकाल ही प्रण कर लिया जाय तो यह ध्यान दिन भर प्रायः हर घड़ी बना रहता है कि आज कोई निकृष्ट विचार मन में नहीं आने देना है, निकृष्ट कर्म नहीं करना है, जो कुछ सोचा जायेगा वैसा ही होगा और जितने भी कार्य किये जायेंगे उनमें नैतिकता और कर्तव्य निष्ठा का पूरा ध्यान रखा जायेगा। प्रातःकाल पूरे दिन की दिनचर्या निर्धारित कर लेनी चाहिये और सोच लेना चाहिए कि उस दिन भर की क्रिया पद्धति में कहाँ कब कैसे अवांछनीय चिन्तन का अवांछनीय कृति का अवसर आ सकता है? उस आशंका के स्थल का पहले ही उपाय सोच लिया जाय, रास्ता निकाल लिया जाय तो समय पर उस निर्णय की याद आ जाती है और सम्भावित बुराई से बचना सरल हो जाता है।

बुराई से बचना ही काफी नहीं आवश्यकता इस बात की भी है कि अपनी विचारणा भावना, चिन्तन प्रक्रिया सामान्य मनुष्यों जैसी न रहकर उच्च स्तर के सहृदय सज्जनों जैसी रहे और सारे काम पेट परिवार के लिए ही न होते रहें, वरन् लोक सेवा के लिए भी समय, श्रम, चिन्तन तथा धन का जितना अधिक समय हो सके उतना लगाया जाय। शरीर तथा शरीर से सम्बन्ध, सुविधाओं तथा सम्बन्धियों के लिए ही हमारा प्रयास सीमित नहीं हो जाना चाहिए, वरन् देश, धर्म, समाज और संस्कृति की सेवा के लिए विश्व मानव की शान्ति एवं समृद्धि के लिए भी हमें बहुत कुछ करना चाहिए। आत्मा की भूख और हृदय की प्यास इस श्रेष्ठ कर्तृत्व से ही पूरी होती है। जीवनोद्देश्य की पूर्ति, ईश्वर की प्रसन्नता एवं आत्म कल्याण की बात को ध्यान में रखते हुए हमें कुछ ऐसा विशिष्ट भी करना चाहिए जिसे शरीर की परिधि से ऊपर आत्मा की श्रेय साधना में गिना जा सके।

इस प्रकार एक दिन के जीवन का श्रेष्ठतम सदुपयोग करने की याद यदि हर घड़ी ध्यान में बनी रहे तो वह दिन आदर्श ही व्यतीत होगा। ठीक इसी प्रक्रिया की हर दिन पुनरावृत्ति की जाती रहे तो एक के बाद एक दिन, एक से एक बढ़कर बनेगा और यह क्रम बनाकर चलते रहने से अपने गुण, कर्म, स्वभाव में श्रेष्ठता ओत-प्रोत हो जायेगी। उसे ओछे दृष्टिकोण और हेय कर्मों को यदि निरन्तर अपनी गतिविधियों में से पृथक किया जाता रहे तो थोड़े दिनों में स्वभाव ही ऐसा बन जायेगा कि बुराई को देखते ही घृणा होने लगे और उसे अपनाने के लिये अन्तःकरण किसी भी सूरत में तैयार न हो।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

Karm Ya Pakhand_Akhand Jyoti | कर्म या पाखंड | Pt Shriram Sharma Acharya



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शनिवार, 21 दिसंबर 2019

Ishwariya Jagran Ka Mantra | ईश्वरीय जागरण का मंत्र | Dr Chinmay Pandya



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👉 श्रद्धा, सिद्धान्तों के प्रति हो (भाग ४)

अब एक और नई बात शुरू करते हैं। नई बात यह है कि यह मिशन हमने कितने परिश्रम से बनाया? कितना विस्तार इसका हो गया, कितना फैल गया, कितना खुल गया? कितना विस्तार होता जाता है? आप सुनते रहते है न, हजार कुण्ड के यज्ञीय समाचार आपको मिलते हैं। आपको २४०० शक्तिपीठों की स्थापना की बात मिलती है। इस साल जो युग-निर्माण सम्मेलन हुए है उन सम्मेलनों की बात याद है। यहाँ तक कि शिविर चलते हैं उनकी बात याद है। गवर्नमेण्ट के कितने शिविरों को हम चलाते हैं, इसकी बात याद है। यहाँ की फिल्म स्टूडियो, टी वी स्टूडियो, फिल्म चलाने वाले हैं—यह सब बातें आपको याद हैं। बहुत बड़ा काम है। बहुत बड़ी योजना है। इस काम को हमने आरम्भ किया, लेकिन अब यह जिम्मेदारी हम आपके सुपुर्द करते हैं। आपमें से हर आदमी को हम यह काम सौंपते हैं कि आप हमारे बच्चे के तरीके से हमारी दुकान चलाइए, बंद मत होने दीजिए। हम तो अपनी विदाई ले जाएँगे, लेकिन जिम्मेदारी आपके पास आएगी। आप कपूत निकलेंगे तो, फिर आदमी आपकी बहुत निंदा करेगा और हमारी बहुत निंदा करेगा।

कबीर का बच्चा ऐसा हुआ था जो कबीर के रास्ते पर चलता नहीं था, तो सारी दुनिया ने उससे यह कहा—'बूढ़ा वंश कबीर का, उपजा पूत कमाल।' आपको कमाल कहा जाएगा और कहा जाएगा कि कबीर तो अच्छे आदमी थे, लेकिन उनकी संतानें दो कौड़ी की भी नहीं हैं। आपको दो कौड़ी की संतानें पैदा नहीं करना है। आपको इस कार्य का विस्तार करना है। जो काम हम करते रहे हैं, वह अकेले हमने नहीं किया। मिल-जुल करके ढेरों आदमियों के सहयोग से किया है और यह सहयोग हमने प्यार से खींचे हैं, समझा करके खींचे हैं, आत्मीयता के आधार पर खींचे हैं। ये गुण आपके भीतर पैदा हो जाएँ तो जो आदमी आपके साथ-साथ काम करते रहते हैं, उनको भी मजबूत बनाए रहेंगे और नए आदमी जिनकी कि इससे आगे भी आवश्यकता पड़ेगी। अभी ढेरों आदमियों की आवश्यकता पड़ेगी। आपको संकल्प का नाम याद है न—'नया युग लाने का संकल्प।' नया युग लाने का संकल्प दो आदमियों का काम है, चार आदमियों का काम है, हजारों आदमियों का काम है। जो काम हमने अपने जीवन में किया है, वही काम आपको करना है।

नए आदमियों को बुलाने का भी आपका काम है। कैसे बुलाना? यहीं शान्तिकुञ्ज में कितने आदमी काम करते है? यहाँ २४० के करीब आदमी काम करते हैं। एक कुटुम्ब बनाकर बैठे हैं और उस कुटुम्ब को हम कौन-सी रस्सी से बाँधे बैठे हैं? प्यार की रस्सी से बाँधे हुए हैं, आत्मीयता की रस्सी से बाँधे हुए हैं, भावना की रस्सी से बाँधे हुए हैं। ये रस्सियाँ आपको तैयार करनी चाहिए, ताकि आप नए आदमियों को बाँध करके अपने पास रख सकें और जो आदमी वर्तमान में हैं आपके पास उनको मजबूती से जकड़े रह सकें। नहीं तो आप इनको भी मजबूती से जकड़े नहीं रह सकेंगे, यह भी नहीं रहेंगे। इनकी सफाई भी आपको करनी है। आत्मीयता अगर न होगी और आपका व्यक्तित्व न होगा तो आपके लिए इनकी सफाई करना भी मुश्किल हो जाएगा।

इसलिए क्या करना चाहिए? आपके पास एक ऐसी प्रेम की रस्सी होनी चाहिए, आपके पास ऐसी मिठास की रस्सी होनी चाहिए, आपके पास अपने व्यक्तिगत जीवन का उदाहरण पेश करने की ऐसी रस्सी होनी चाहिए, जिससे प्रभावित करके आप आदमी के हाथ जकड़ सकें, पैर जकड़ सकें, काम जकड़ सकें। सारे के सारे को जकड़ करके जिंदगी भर अपने साथ बनाए रख सकें। यह काम आपको भी विशेषता के रूप में पैदा करना पड़ेगा। संस्थाएँ इसी आधार पर चलती हैं। संस्थाओं की प्रगति इसी आधार पर टिकी है। संस्थाएँ जो नष्ट हुई हैं, संगठन जो नष्ट हुए हैं, इसी कारण नष्ट हुए हैं। चलिए मैं आपको एक-दो उदाहरण सुना देता हूँ।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

शुक्रवार, 20 दिसंबर 2019

👉 ईमानदारी ही सर्वश्रेष्ठ नीति Imandari Hi Sarvashreshth Niti

काम की तलाश में इधर-उधर धक्के खाने के बाद निराश होकर जब वह घर वापस लौटने लगा तो पीछे से आवाज आयी, ऐ भाई! यहाँ कोई मजदूर मिलेगा क्या?

उसने पीछे मुड़कर देखा तो पाया कि एक झुकी हुई कमर वाला बूढ़ा तीन गठरियाँ उठाए हुए खड़ा है। उसने कहा, हाँ बोलो क्या काम है? मैं ही मजदूरी कर लूँगा।

मुझे रामगढ़ जाना है.........। दो गठरियाँ में उठा लूँगा, पर....मेरी तीसरी गठरी भारी है, इस गठरी को तुम रामगढ़ पहुँचा दो, मैं तुम्हें दो रुपये दूँगा। बोलो काम मंजूर है।

ठीक है। चलो ....आप बुजुर्ग हैं। आपकी इतनी मदद करना तो यूँ भी मैं अपना फर्ज समझता हूँ। इतना कहते हुए गठरी उठाकर अपने सिर पर रख ली। किन्तु गठरी रखते ही उसे इसके भारीपन का अहसास हुआ। उसने बूढ़े से कहा- ये गठरी तो काफी भारी लगती है।

हाँ..... इसमें एक-एक रुपये के सिक्के हैं। बूढ़े ने लगभग फुसफुसाते हुए कहा।

उसने सुना तो सोचा, होंगे मुझे क्या? मुझे तो अपनी मजदूरी से मतलब है। ये सिक्के भला कितने दिन चलेंगे? तभी उसने देखा कि बूढ़ा उस पर नजर रखे हुए है। उसने सोचा कि ये बूढ़ा जरूर ये सोच रहा होगा, कहीं ये भाग तो नहीं जाएगा। पर मैं तो ऐसी बेईमानी और चोरी करने में विश्वास नहीं करता। मैं सिक्कों के लालच में फँसकर किसी के साथ बेईमानी नहीं करूँगा।

चलते-चलते आगे एक नदी आ गयी। वह तो नदी पार करने के लिए झट से पानी में उतर गया, पर बूढ़ा नदी के किनारे खड़ा रहा। उसने बूढ़े की ओर देखते हुए पूछा- क्या हुआ? आखिर रुक क्यों गए?

बूढ़ा आदमी हूँ। मेरी कमर ऊपर से झुकी हुई है। दो-दो गठरियों का बोझ नहीं उठा सकता.... कहीं मैं नदी में डूब ही न जाऊँ। तुम एक गठरी और उठा लो। मजदूरी की चिन्ता न करना, मैं तुम्हें एक रुपया और दे दूँगा।

ठीक है लाओ।

पर इसे लेकर कहीं तुम भाग तो नहीं जाओगे?

क्यों, भला मैं क्यों भागने लगा?

भाई आजकल किसी का क्या भरोसा? फिर इसमें चाँदी के सिक्के जो हैं।

मैं आपको ऐसा चोर-बेईमान दीखता हूँ क्या? बेफिक्र रहें मैं चाँदी के सिक्कों के लालच में किसी को धोखा देने वालों में नहीं हूँ। लाइए, ये गठरी मुझे दे दीजिए।

दूसरी गठरी उठाकर उसने नदी पार कर ली। चाँदी के सिक्कों का लालच भी उसे डिगा नहीं पाया। थोड़ी दूर आगे चलने के बाद सामने पहाड़ी आ गयी।

वह धीरे - धीरे पहाड़ी पर चढ़ने लगा। पर बूढ़ा अभी तक नीचे ही रुका हुआ था। उसने कहा-आइए ना, फिर से रुक क्यों गए? बूढ़ा आदमी हूँ। ठीक से चल तो पाता नहीं हूँ। ऊपर से कमर पर एक गठरी का बोझ और, उसके भी ऊपर पहाड़ की दुर्गम चढ़ाई।

तो लाइए ये गठरी भी मुझे दे दीजिए बेशक और मजदूरी भी मत देना।

पर कैसे दे दूँ? इसमें तो सोने के सिक्के हैं और अगर तुम इन्हें लेकर भाग गए तो मैं बूढ़ा तुम्हारे पीछे भाग भी नहीं पाऊँगा।

कहा न मैं ऐसा आदमी नहीं हूँ। ईमानदारी के चक्कर में ही तो मुझे मजदूरी करनी पड़ रही है, वरना पहले मैं एक सेठजी के यहाँ मुनीम की नौकरी करता था। सेठजी मुझसे हिसाब में गड़बड़ करके लोगों को ठगने के लिए दबाव डालते थे। तब मैंने ऐसा करने से मना कर दिया और नौकरी छोड़कर चला आया। उसने यूँ अपना बड़प्पन जताने के लिए गप्प हाँकी।

पता नहीं तुम सच कह रहे हो या.....। खैर उठा लो ये सोने के सिक्कों वाली तीसरी गठरी भी। मैं धीरे-धीरे आता हूँ। तुम मुझसे पहले पहाड़ी पार कर लो, तो दूसरी तरफ नीचे रुककर मेरा इंतजार करना।

वह सोने के सिक्कों वाली गठरी उठाकर चल पड़ा। बूढ़ा बहुत पीछे रह गया था। उसके दिमाग में आया, अगर मैं भाग जाऊँ, तो ये बूढ़ा तो मुझे पकड़ नहीं सकता और मैं एक ही झटके में मालामाल हो जाऊँगा। मेरी पत्नी जो मुझे रोज कोसती रहती है, कितना खुश हो जाएगी? इतनी आसानी से मिलने वाली दौलत ठुकराना भी बेवकूफी है.........। एक ही झटके में धनवान हो जाऊँगा। पैसा होगा, तो इज्जत-ऐश-आराम सब कुछ मिलेगा मुझे........।

उसके दिल में लालच आ गया और बिना पीछे देखे भाग खड़ा हुआ। तीन-तीन भारी गठरियों का बोझ उठाए भागते-भागते उसकी साँस फूल गयी।

घर पहुँचकर उसने गठरियाँ खोल कर देखीं, तो अपना सिर पीटकर रह गया। गठरियों में सिक्कों जैसे बने हुए मिट्टी के ढेले ही थे। वह सोच में पड़ गया कि बूढ़े को इस तरह का नाटक करने की जरूरत ही क्या थी? तभी उसकी पत्नी को मिट्टी के सिक्कों के ढेर में से एक कागज मिला, जिस पर लिखा था, “यह नाटक इस राज्य के खजाने की सुरक्षा के लिए ईमानदार सुरक्षामंत्री खोजने के लिए किया गया। परीक्षा लेने वाला बूढ़ा और कोई नहीं स्वयं महाराजा ही थे। अगर तुम भाग न निकलते तो तुम्हें मंत्रीपद और मान-सम्मान सभी कुछ मिलता। पर............... “

हम सभी को सचेत रहना चाहिए, न जाने जीवन देवता कब हममें से किसकी परीक्षा ले ले। प्रलोभनों में न डिगकर सिद्धान्तों को पकड़े रखने में ही दूरदर्शिता है।

~अखण्ड ज्योति- सितम्बर 1998

👉 प्रवाह में न बहें, उत्कृष्टता से जुड़े (भाग ४)

स्वाध्याय की जोड़ी सत्संग से मिलती है। इसे नियमित रूप से जारी रखने के लिये मनन और चिन्तन को भी अपनी दैनिक क्रम व्यवस्था में सम्मिलित करना चाहिए। जीवन की विभिन्न समस्याओं को सुलझाने के लिये अपनी मान्यता और चेष्टा क्या है इसका गम्भीरता पूर्वक विश्लेषण करते रहना चाहिये और भूलों को सुधारने तक तथा प्रगति में प्रोत्साहित करने के लिये इसी चिन्तन में भविष्य की रूप रेखा निर्धारित करते रहना चाहिये। प्रस्तुत समस्याओं का क्रमशः समग्र चिन्तन और उनके आदर्शवादी समाधानों का निष्कर्ष यही मनन चिन्तन का मूलभूत प्रयोजन है। सत्संग की दैनिक आवश्यकता को यह क्रम अपनाकर पूरा किया जा सकता है।

मनन और चिन्तन का क्रम प्रातःकाल आँख खुलते ही और रात को सोने के लिये बिस्तर पर जाते ही आरम्भ किया जाना चाहिये। आँख खुलने और बिस्तर छोड़ने के बीच प्रातःकाल कुछ तो समय रहता है। आँख खुलते ही कोई तुरन्त नहीं उठ बैठता। कुछ समय ऐसे ही सब लोग पड़े रहते हैं। इस समय को मनन में लगाना चाहिये। अपने आपसे अपने और अपने शरीर के बीच का अन्तर, अपना स्वरूप, जीवन का उद्देश्य, परमेश्वर की मनुष्य से आकांक्षा, इस सुर दुर्लभ मनुष्य जन्म का श्रेष्ठतम सदुपयोग करने की बात पर प्रत्येक पहलू से विचार किया जाना चाहिये और समीक्षा की जानी चाहिये कि अपनी वर्तमान गतिविधियाँ आदर्श जीवन पद्धति से तालमेल खाती हैं या नहीं? यदि अन्तर है तो वह कहाँ है कितना है? इस अन्तर को दूर रखने के लिये जो किया जाना चाहिए वह किया जा रहा है या नहीं? यदि नहीं तो क्यों?

यह प्रश्न ऐसे है जिन्हें अपने आप से गम्भीरता पूर्वक पूछा जाना चाहिए और जहाँ सुधार की आवश्यकता हो उसके लिए क्या कदम किस प्रकार उठाया जाय, इसका निर्णय करना चाहिए। छोटे व्यापारी कारखानेदार प्रायः बराबर अपने कारीगर में रह रही खामी और प्रगति के लिए क्या किया जाना चाहिये, इन पर विचार करते हैं। फिर जीवन व्यवसाय जिसकी तुलना संसार की और किसी उपलब्धि के साथ नहीं की जा सकती, उसे अँधेरे में क्यों रखा जाय? उसके सम्बन्ध में स्पष्ट रूपरेखा क्यों न बने?

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 श्रद्धा, सिद्धान्तों के प्रति हो (भाग ३)

यह नहीं करेंगे तो क्या हो जाएगा? यदि आपकी श्रद्धा कायम रही तो फिर एक नई चीज पैदा होगी। तो उसमें से अंकुर जरूर पैदा होगा। फिर क्या पैदा होगा—आपको काम करने की लगन पैदा होगी। काम करने की ऐसी लगन कि आपने जो काम शुरू किया है उसको पूरा करने के लिए कितने मजबूत कदम उठाए जाएँ, कितने तेज कदम उठाए जाएँ, यह आपसे करते ही बनेगा। आप फिर यह नहीं कहेंगे कि हमने छह घण्टे काम कर लिया, चार घण्टे काम कर लिया। यहाँ बैठे हैं, वहाँ बैठे हैं। ओवरटाइम लाइए और ज्यादा काम हम क्यों करेंगे? नहीं, फिर आप काम किए बिना रह नहीं सकेंगे।

हमारा भी यही हुआ। श्रद्धा जब उत्पन्न हुई तो हमने यह सोचा कि कहीं ऐसा न हो कि प्रलोभन हमको खींचने लगे। तो वहाँ से घर की सम्पत्ति को त्याग करने से लेकर के स्त्री के जेवरों से लेकर के और जो कुछ भी था, सबको त्याग करते चले आए कि कहीं प्रलोभन खींचने नहीं लगें। प्रलोभन खींचने नहीं पाएँ और वह श्रद्धा हमको निरन्तर बढ़ाती हुई चली आई। फिर उसने लगन को कम नहीं होने दिया। घीयामण्डी के मकान में १७ वर्ष तक बिना बिजली के हमने काम किया। न उसमें पंखा था, न उसमें बल्ब। मकान मालिक से झगड़ा हो गया था, सो मकान मालिक कहता था कि मकान खाली करो तो उसने बिजली के सेंक्शन पर साइन नहीं किये थे और बिजली हमको नहीं मिली। १७ वर्षों तक हम केवल मिट्टी के तेल की बत्ती जलाकर रात के दो बजे से लेकर सबेरे तक अपना पूजा-पाठ से लेकर के और अपना लेखन-कार्य तक बराबर करते रहे। पंखा था नहीं, घोर गर्मियों के दिनों में लू में भी काम करते रहे। १८ घण्टे काम करते रहे। यह काम हमने किया।

अब क्या बात रह गईं— दो बातों के अलावा। दो बातों में से आप में से हर आदमी को देखना चाहिए कि हमारी श्रद्धा कमजोर तो नहीं हुई। एक ओर हमारी लगन कमजोर तो नहीं हुई अर्थात् परिश्रम करने के प्रति जो हमारी उमंग और तरंग होनी चाहिए, उसमें कमी तो नहीं आ रही। किसान अपने घर के काम समझता है तो सबेरे से उठता है और रात के नौ-दस बजे तक बराबर घर के कामों में लगा रहता है। वह १८ घण्टे काम करता है। किसी से शिकायत नहीं करता कि हमको १८ घण्टे रोज काम करना पड़ता है। हमें अवकाश नहीं मिला या हमको इतवार की छुट्टी नहीं मिली और हमको यह नहीं हुआ, वह नहीं हुआ, इसकी कोई शिकायत नहीं करता क्योंकि वह समझता है कि हमारा काम है। यह हमारी जिम्मेदारी हे। खेत को रखना, जानवरों को रखना और बाल-बच्चों की देख−भाल करना यह हमारा काम है। जिम्मेदारी हर आदमी को दिन-रात काम करने के लिए लगन लगाती है और वह आपके प्रति भी है। आपको भी व्यक्तिगत जीवन में अपनी श्रद्धा को कायम रखना—एक और अपनी लगन को जीवंत रखना—दो काम तो आपके व्यक्तिगत जीवन के है, वह आपको करने चाहिए।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 गुरुवर की वाणी

गायत्री परिवार के प्रत्येक सदस्य को आपसी खींचतान में अनावश्यक समय नष्ट नहीं करना चाहिए।

जन्म-जन्मांतर से संग्रहीत उनकी उच्च आत्मिक स्थिति आज अग्नि परीक्षा की कसौटी पर कसी जा रही है। महाकाल अपने संकेतों पर चलने के लिए बार-बार हमें पुकार रहा है।

रीछ-वानरों की तरह हमें उनके पथ पर चलना ही चाहिए। आत्मा की पुकार अनसुनी करके वे लोभ-मोह के पुराने ढर्रे पर चलते रहे, तो आत्म-धिक्कार की इतनी विकट मार पड़ेगी कि झंझट से बच निकलने और लोभ-मोह को न छोड़ने की चतुरता बहुत मँहगी पड़ेगी।

अंतर्द्वन्द्व उन्हें किसी काम का न छोड़ेगा। मौज-मजा का आनन्द आत्म-प्रताड़ना न उठाने देगी और साहस की कमी से ईश्वरीय निर्देश पालन करते हुए जीवन को धन्य बनाने का अवसर भी हाथ से निकल जाएगा।

हमारी युग निर्माण योजना जनवरी 1978

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