मंगलवार, 30 जून 2020
👉 Triumph over Vices
The external world, as we find it, is mostly a reflection of our inner world. Moreover, the intrinsic desires and sentiments of the human self are so strong that they attract and accumulate thoughts of similar nature, trigger one’s actions accordingly and thus create corresponding circumstances.
So if you want to clean up the ambience around you, you will have to begin purifying your own sentiments and thoughts first. If you want peace and benevolence around you, you should first conquer your own vices, untoward instincts and wrong thinking. Utter selfishness and egotism are the root causes of all conflicts and clashes, be that at familial, social or communal levels. The narrow tendency of grabbing supremacy at any cost, neglecting even the genuine rights of others and ignoring the ethics of humanity, are behind the religious or political battles and wars the consequences of which are horrifying and devastating.
You may care for self-respect and happy progress of your life, but it is not necessary that you should block someone else’s ascent for this or snatch it from someone. People might acquire wealth and might by such means, but it hardly gives them any joy and eventually proves to be agonizing. The only and the best way to happiness is that of equality, cooperation, mutual respect and goodwill.
This way, we all can contribute to spread happiness collectively and be happier… The evils of self-centeredness are toxic to the ambience of peace. The delight that emanates from and extends the nectar of collective, widespread happiness is the real joy…
📖 Akhand Jyoti, June 1945
So if you want to clean up the ambience around you, you will have to begin purifying your own sentiments and thoughts first. If you want peace and benevolence around you, you should first conquer your own vices, untoward instincts and wrong thinking. Utter selfishness and egotism are the root causes of all conflicts and clashes, be that at familial, social or communal levels. The narrow tendency of grabbing supremacy at any cost, neglecting even the genuine rights of others and ignoring the ethics of humanity, are behind the religious or political battles and wars the consequences of which are horrifying and devastating.
You may care for self-respect and happy progress of your life, but it is not necessary that you should block someone else’s ascent for this or snatch it from someone. People might acquire wealth and might by such means, but it hardly gives them any joy and eventually proves to be agonizing. The only and the best way to happiness is that of equality, cooperation, mutual respect and goodwill.
This way, we all can contribute to spread happiness collectively and be happier… The evils of self-centeredness are toxic to the ambience of peace. The delight that emanates from and extends the nectar of collective, widespread happiness is the real joy…
📖 Akhand Jyoti, June 1945
👉 ममता हटाने पर ही चित्त शुद्ध होगा (भाग २)
स्वाधीन-चित्त केवल शाँति दाता ही नहीं, शक्ति-दाता भी होता है। शक्ति सुख की जननी है। उससे आत्मविश्वास और आत्मविश्वास से निर्भयता का आविर्भाव होता है। अनुशासित चित्त का शक्ति भण्डार मनुष्य को इतना कार्य सक्षम बना देता है कि वह बड़े-बड़े विस्मयकारक कार्य कर सकता है। जीवन की सार्थकता एवं सफलता इस एक बात पर ही निर्भर रहती है कि वह कुछ ऐसे सत्कर्म कर सके जिससे उसका तथा संसार का उपकार हो और उसकी आत्मा को एक शाश्वत सन्तोष मिले। उसे जीवन अथवा मृत्यु दोनों स्थितियों में हर्ष की उपलब्धि हो। मनुष्य का चित्त सच्ची शक्तियों का आगार है। इस शक्ति -कोष का उद्घाटन तब ही होता है जब चित्त अनुशासित तथा स्ववश होता है। चित्त की स्वाधीनता उसकी निर्दोषिता पर ही निर्भर है।
मनुष्य के लिये अब यह बात अनजान नहीं रह गई है कि उसे क्या करना है और क्या नहीं करना चाहिए क्या करने में उसका कल्याण है और क्या करने में अकल्याण है। अशुद्ध चित्त के कारण बहुधा यह होता रहता है कि मनुष्य कल्याणकारी कार्य करना चाहता है किन्तु नहीं कर पाता प्रत्युत उससे परवश ही ऐसे कार्य हो जाते हैं जो अमाँगलिक तथा अकल्याणकारी होते हैं। ऐसी दशा में पश्चाताप होना स्वाभाविक है। मनुष्य मन ही-मन रोता-खीजता और अपने को कोसता है। वह जानता है कि इस प्रकार के अवाँछनीय कार्य उसको प्रगति पथ पर, सुख-शाँति के महान् मार्ग पर न बढ़ने देंगे। जिससे उसका बहुमूल्य मानव-जीवन यों ही नष्ट होकर व्यर्थ चला जायेगा और तब उसे आत्मोन्नति, आत्मकल्याण करने का अवसर न जाने कभी मिलेगा या नहीं। मनुष्य की स्वाभाविक इच्छा होती है कि वह अति दुर्लभ मानव-जीवन का सदुपयोग करके आत्मकल्याण का अधिकारी बन जाये। किन्तु खेद है कि चित्त की अशुद्धता के कारण वह अपने इस महत् उद्देश्य में सफल नहीं हो पाता।
बहुधा लोग चित्त को चंचलता का ही वह दोष मान लेते हैं जिसके कारण हम उसे स्ववश नहीं कर पाये चित्त की चंचलता वस्तुतः उसका दोष नहीं है बल्कि यह असकी विकलता है, छटपटाहट है जो शुद्धि प्राप्त करने की लालसा एवं प्रयास से उत्पन्न होती है। नैसर्गिक नियम के अधीन चित्त स्वभावतः शुद्धि की ओर स्वयं गतिशील रहा करता है और जब तक उसे अभीष्ट शुद्धता नहीं मिल जाती है एक ओर से दूसरी और को भागता रहता है। ज्यों ही उसे अभीष्ट शुद्धता जो कि प्रसन्नता के रूप में होती है, मिल जाती है वह स्थिर, शाँत एवं सन्तुष्ट हो जाता है। फिर न वह व्यग्र होता है और न चंचल। अभीष्ट केन्द्र बिन्दु पर पहुँच कर वह एकरस शुभ संकल्पों तथा सत्कर्मों में लग कर मानव जीवन को सफल एवं सार्थक बना देता है। चित्त की चंचलता इस बात का प्रमाण है कि वह अपने अभीष्ट लक्ष्य को नहीं पा रहा है, जिसके लिए वह लालायित होकर भागा-भागा फिर रहा है। मनुष्य को चाहिए कि वह उसकी सहायता करे। एक बार ऐसे अपने केन्द्र बिन्दु पर पहुँच जाने में मदद करे, जिससे कि वह शुद्ध एवं प्रबुद्ध होकर मनुष्य को उसी प्रकार सहायक तथा सुखदाता बन सके जिस प्रकार पिता द्वारा पाला-पोषा पुत्र उसका अवलम्ब बन जाता है। चित्त द्वारा शुद्धि का प्रयत्न और कुछ नहीं मनुष्य को कल्याण पथ पर पहुँचाने की सामर्थ्य प्राप्त करने का प्रयास ही है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1966 पृष्ठ 11
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1966/November/v1.11
मनुष्य के लिये अब यह बात अनजान नहीं रह गई है कि उसे क्या करना है और क्या नहीं करना चाहिए क्या करने में उसका कल्याण है और क्या करने में अकल्याण है। अशुद्ध चित्त के कारण बहुधा यह होता रहता है कि मनुष्य कल्याणकारी कार्य करना चाहता है किन्तु नहीं कर पाता प्रत्युत उससे परवश ही ऐसे कार्य हो जाते हैं जो अमाँगलिक तथा अकल्याणकारी होते हैं। ऐसी दशा में पश्चाताप होना स्वाभाविक है। मनुष्य मन ही-मन रोता-खीजता और अपने को कोसता है। वह जानता है कि इस प्रकार के अवाँछनीय कार्य उसको प्रगति पथ पर, सुख-शाँति के महान् मार्ग पर न बढ़ने देंगे। जिससे उसका बहुमूल्य मानव-जीवन यों ही नष्ट होकर व्यर्थ चला जायेगा और तब उसे आत्मोन्नति, आत्मकल्याण करने का अवसर न जाने कभी मिलेगा या नहीं। मनुष्य की स्वाभाविक इच्छा होती है कि वह अति दुर्लभ मानव-जीवन का सदुपयोग करके आत्मकल्याण का अधिकारी बन जाये। किन्तु खेद है कि चित्त की अशुद्धता के कारण वह अपने इस महत् उद्देश्य में सफल नहीं हो पाता।
बहुधा लोग चित्त को चंचलता का ही वह दोष मान लेते हैं जिसके कारण हम उसे स्ववश नहीं कर पाये चित्त की चंचलता वस्तुतः उसका दोष नहीं है बल्कि यह असकी विकलता है, छटपटाहट है जो शुद्धि प्राप्त करने की लालसा एवं प्रयास से उत्पन्न होती है। नैसर्गिक नियम के अधीन चित्त स्वभावतः शुद्धि की ओर स्वयं गतिशील रहा करता है और जब तक उसे अभीष्ट शुद्धता नहीं मिल जाती है एक ओर से दूसरी और को भागता रहता है। ज्यों ही उसे अभीष्ट शुद्धता जो कि प्रसन्नता के रूप में होती है, मिल जाती है वह स्थिर, शाँत एवं सन्तुष्ट हो जाता है। फिर न वह व्यग्र होता है और न चंचल। अभीष्ट केन्द्र बिन्दु पर पहुँच कर वह एकरस शुभ संकल्पों तथा सत्कर्मों में लग कर मानव जीवन को सफल एवं सार्थक बना देता है। चित्त की चंचलता इस बात का प्रमाण है कि वह अपने अभीष्ट लक्ष्य को नहीं पा रहा है, जिसके लिए वह लालायित होकर भागा-भागा फिर रहा है। मनुष्य को चाहिए कि वह उसकी सहायता करे। एक बार ऐसे अपने केन्द्र बिन्दु पर पहुँच जाने में मदद करे, जिससे कि वह शुद्ध एवं प्रबुद्ध होकर मनुष्य को उसी प्रकार सहायक तथा सुखदाता बन सके जिस प्रकार पिता द्वारा पाला-पोषा पुत्र उसका अवलम्ब बन जाता है। चित्त द्वारा शुद्धि का प्रयत्न और कुछ नहीं मनुष्य को कल्याण पथ पर पहुँचाने की सामर्थ्य प्राप्त करने का प्रयास ही है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1966 पृष्ठ 11
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1966/November/v1.11
सोमवार, 29 जून 2020
👉 ममता हटाने पर ही चित्त शुद्ध होगा (भाग १)
‘हमारा चित्त अशुद्ध है’—प्रायः लोगों को यह शिकायत रहा करती है। शिकायत ठीक है। यदि उनका चित्त अशुद्ध न हो, वह दोषः रहित हो तो उनको दुःख-द्वन्दों का सामना न करना पड़े। चिन्ता, क्षोभ तथा असंतोष का ताप जब किसी को संतप्त करने लगता है और वह उसका कारण बाह्य परिस्थितियों में नहीं खोज पाता, क्योंकि वह वहाँ होता ही नहीं, तो उसे यही मानना पड़ता है कि उसकी इस यातना का कारण उसका चित्त-दोष ही है। निर्दोष चित्त व्यक्ति की प्रसन्नता कभी भंग नहीं होती। चित्त की निर्दोषिता ही वह प्रसन्नता है जिसकी आकाँक्षा मनुष्य किया करता है और जो कि जीवन की सबसे सच्ची एवं सार्थक उपलब्धि है।
मनुष्य की इच्छा रहती है कि उसका चित्त उसके वश में रहे। वह जिस प्रकार चाहे उसका संचालन करे। चित्त गति के अनुसार ही मनुष्य कर्मों में नियुक्त होता है। सत्कर्मों को करने की इच्छा हर मनुष्य में होती है। वह सत्कर्म करना भी चाहता है किन्तु चित्त की उच्छृंखलता के कारण ऐसा नहीं कर पाता। चित्त-दोष के कारण न चाहता हुआ भी वह असत् कर्मों में प्रेरित हो जाता है और फलस्वरूप दुःख, क्षोभ अथवा पश्चाताप का भागी बनाता है।
जिस प्रकार चित्त की उच्छृंखलता दुःख का कारण है उसी प्रकार उसकी स्ववशता, सत्कर्मों अथवा शुभ संकल्पों के माध्यम से सुख का हेतु होती है। इसी कारण हर मनुष्य अपने चित्त को स्वाधीन रखना चाहता है। चित्त स्ववश तभी हो सकता है जब वह निर्दोष हो। सदोष अथवा अशुद्ध चित्त उपद्रवी होता है। विपरीत-गति-गामी होने से वह मनुष्य को भयावह अन्धकार की ओर ही लिये भागता रहता है। अन्धकार से मनुष्य को स्वाभाविक घृणा तथा भय से वितृष्णा ही होती है क्योंकि यह दोनों आनन्द के घोर शत्रु हैं।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1966 पृष्ठ 11
मनुष्य की इच्छा रहती है कि उसका चित्त उसके वश में रहे। वह जिस प्रकार चाहे उसका संचालन करे। चित्त गति के अनुसार ही मनुष्य कर्मों में नियुक्त होता है। सत्कर्मों को करने की इच्छा हर मनुष्य में होती है। वह सत्कर्म करना भी चाहता है किन्तु चित्त की उच्छृंखलता के कारण ऐसा नहीं कर पाता। चित्त-दोष के कारण न चाहता हुआ भी वह असत् कर्मों में प्रेरित हो जाता है और फलस्वरूप दुःख, क्षोभ अथवा पश्चाताप का भागी बनाता है।
जिस प्रकार चित्त की उच्छृंखलता दुःख का कारण है उसी प्रकार उसकी स्ववशता, सत्कर्मों अथवा शुभ संकल्पों के माध्यम से सुख का हेतु होती है। इसी कारण हर मनुष्य अपने चित्त को स्वाधीन रखना चाहता है। चित्त स्ववश तभी हो सकता है जब वह निर्दोष हो। सदोष अथवा अशुद्ध चित्त उपद्रवी होता है। विपरीत-गति-गामी होने से वह मनुष्य को भयावह अन्धकार की ओर ही लिये भागता रहता है। अन्धकार से मनुष्य को स्वाभाविक घृणा तथा भय से वितृष्णा ही होती है क्योंकि यह दोनों आनन्द के घोर शत्रु हैं।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1966 पृष्ठ 11
👉 Be Your Own Master
You often grasp unnecessary messages from what others say. What others comment about you seem to matter more to you. This way you annoy and worry yourself and complain that people don’t let you live in peace. Your own attitude is the major cause of your worries, so you trouble yourself more. Why should you get carried away by others’ comment – compliments or criticism? A wise and self-confident man does what he determines to do. He is never perturbed by what others say. He is firm and focused to march towards the goal.
Socrates was made to drink poison by the mightiest of his time, but no one could change his faith, his views. Banda Bairagi was forced to wear a wolf-skin and roam around in his town while his face was painted dark. But even this torturous insult could not distract him from his chosen path.
Dying for others’ praise, following the popular trends, getting disturbed by negative comments or criticism of others – are clear signs of mental weaknesses. You must remember that following the crowd can lead you nowhere. You have to be your own master if you want to ascend in life. Learn to think prudently on your own. Sharpen your decision-making powers. Follow the righteous path of your duties honestly; just ignore what others would say. If you don’t have the courage to stand and walk on your own, you don’t deserve to be independent.
📖 Akhand Jyoti, May 1945
Socrates was made to drink poison by the mightiest of his time, but no one could change his faith, his views. Banda Bairagi was forced to wear a wolf-skin and roam around in his town while his face was painted dark. But even this torturous insult could not distract him from his chosen path.
Dying for others’ praise, following the popular trends, getting disturbed by negative comments or criticism of others – are clear signs of mental weaknesses. You must remember that following the crowd can lead you nowhere. You have to be your own master if you want to ascend in life. Learn to think prudently on your own. Sharpen your decision-making powers. Follow the righteous path of your duties honestly; just ignore what others would say. If you don’t have the courage to stand and walk on your own, you don’t deserve to be independent.
📖 Akhand Jyoti, May 1945
👉 दृष्टिकोण के अनुरूप संसार का स्वरूप (अंतिम भाग)
दोष-दृष्टि अथवा दूषित मनोभाव रखकर संसार को बुरा देखते रहने से उसका तो कुछ नहीं बिगड़ता, अपनी ही मनःशांति और संतोष नष्ट हो जाता है। सर्वत्र बुरा ही बुरा देखते रहने से जीवन बड़ा ही अशांत एवं प्रतिगामी बनकर रह जाता है। इस दोष के कारण हम संसार में सर्वत्र बिखरे पड़े सौन्दर्य और व्यक्तियों के प्रेम, सौहार्द्र और स्नेह से वंचित हो जाते हैं। हर ओर विरोध और प्रतिकूलता का ही वातावरण बना रहता है। सर्वत्र अच्छाई के दर्शन करते रहने और दूसरों को आत्मीय दृष्टि से देखने पर बुरे तत्त्व भी अनुकूल बन जाते हैं। अपने से शत्रुता मानने वाले के प्रति भी यदि विरोधी-भाव न रक्खे जायें और हर प्रकार से अपने स्नेह और अनुकूल दृष्टि की अभिव्यक्ति की जाये, तो निश्चय ही शत्रु भी लज्जित होकर विरोध से विरत हो जाये। ऋषियों के आश्रम में शेर, भालू जैसे हिंसक जीव मनुष्यों के साथ हिले-मिले रहते थे। आश्रम-वासियों के अनुकूल मनोभावों के कारण ही उनकी हिंसा-वृत्ति दबी रहती थी और वे उनसे मित्रता का सुख अनुभव किया करते थे। सबके प्रति सद्भाव और अनुकूल दृष्टिकोण रखने के कारण ही धर्मराज युधिष्ठिर अजातशत्रु कहे जाते थे।
दूषित दृष्टिकोण वाला व्यक्ति साधारण-सी कठिनाई का अनुचित मूल्यांकन कर अपनी परेशानियों की वृद्धि कर लेता है। तनिक-सा अभाव, छोटा-सा रोग अथवा साधारण-सी प्रतिकूलता उसे पहाड़ जैसी भारी और भयानक दिखाई देती है। जिससे वह अनावश्यक रूप से रोता-झींकता रहता है। परिस्थितियों का प्रभाव मनोभूमि के अनुसार ही पड़ता है। आग का प्रभाव जितना सूखी लकड़ी पर पड़ता है, उतना गीली पर नहीं। बीमारी जितना शीघ्र दुर्बल को दबा लेती है, उतना शीघ्र सबल को नहीं। वलुई जमीन जितनी शीघ्र पानी सोख लेती है, उतनी शीघ्र दूसरी पक्की जमीन नहीं। रंग जितना गाड़ा और शीघ्र महीन और श्वेत कपड़े पर चढ़ता है, उतना मोटे मैले पर नहीं, इसी प्रकार जो निर्बल दृष्टिकोण अथवा दूषित मनोभूमि के लोग हैं, जो जितना अधिक प्रतिकूलताओं के अनुकूल अपने को बनाये रहता है, वह उतना ही शीघ्र और गहराई तक उनसे प्रभावित होकर दुःखी होता है।
संसार में सफलता, सुन्दरता और सुख-शांति के लिये आवश्यक है कि अपना दृष्टिकोण परिमार्जित और मनोभूमि को तदनुकूल बनाया और रक्खा जाये, अन्यथा आघ्रत व्यक्ति की विकल दशा की तरह संसार की हर वस्तु व्यक्ति और परिस्थिति से एक असन्तोष और संताप के अतिरिक्त और कुछ न मिल सकेगा और हम संसार के सुख-शांति और सुन्दरता से सर्वदा वंचित रह जायेंगे।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति दिसम्बर 1968 पृष्ठ 39
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1968/December/v1.39
दूषित दृष्टिकोण वाला व्यक्ति साधारण-सी कठिनाई का अनुचित मूल्यांकन कर अपनी परेशानियों की वृद्धि कर लेता है। तनिक-सा अभाव, छोटा-सा रोग अथवा साधारण-सी प्रतिकूलता उसे पहाड़ जैसी भारी और भयानक दिखाई देती है। जिससे वह अनावश्यक रूप से रोता-झींकता रहता है। परिस्थितियों का प्रभाव मनोभूमि के अनुसार ही पड़ता है। आग का प्रभाव जितना सूखी लकड़ी पर पड़ता है, उतना गीली पर नहीं। बीमारी जितना शीघ्र दुर्बल को दबा लेती है, उतना शीघ्र सबल को नहीं। वलुई जमीन जितनी शीघ्र पानी सोख लेती है, उतनी शीघ्र दूसरी पक्की जमीन नहीं। रंग जितना गाड़ा और शीघ्र महीन और श्वेत कपड़े पर चढ़ता है, उतना मोटे मैले पर नहीं, इसी प्रकार जो निर्बल दृष्टिकोण अथवा दूषित मनोभूमि के लोग हैं, जो जितना अधिक प्रतिकूलताओं के अनुकूल अपने को बनाये रहता है, वह उतना ही शीघ्र और गहराई तक उनसे प्रभावित होकर दुःखी होता है।
संसार में सफलता, सुन्दरता और सुख-शांति के लिये आवश्यक है कि अपना दृष्टिकोण परिमार्जित और मनोभूमि को तदनुकूल बनाया और रक्खा जाये, अन्यथा आघ्रत व्यक्ति की विकल दशा की तरह संसार की हर वस्तु व्यक्ति और परिस्थिति से एक असन्तोष और संताप के अतिरिक्त और कुछ न मिल सकेगा और हम संसार के सुख-शांति और सुन्दरता से सर्वदा वंचित रह जायेंगे।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति दिसम्बर 1968 पृष्ठ 39
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1968/December/v1.39
शनिवार, 27 जून 2020
👉 अंजाने में हुए कर्मो का फल
काशी के एक ब्राह्मण के सामने से एक गाय भागती हुई किसी गली में घुस गई. तभी वहां एक आदमी आया. उसने गाय के बारे में पूछा. . पंडितजी माला फेर रहे थे इसलिए कुछ बोला नहीं बस हाथ से उस गली का इशारा कर दिया जिधर गाय गई थी. पंडितजी इस बात से अंजान थे कि वह आदमी कसाई है और गौमाता उसके चंगुल से जान बचाकर भागी थीं. कसाई ने पकड़कर गोवध कर दिया.
अंजाने में हुए इस घोर पाप के कारण पंडितजी अगले जन्म में कसाई घर में जन्मे नाम पड़ा, सदना. पर पूर्वजन्म के पुण्यकर्मो के कारण कसाई होकर भी वह उदार और सदाचारी थे. कसाई परिवार में जन्मे होने के कारण आजीविका के लिये और कोई उपाय न होने से दूसरों के यहाँ से मांस लाकर बेचा करते थे, स्वयं अपने हाथ से पशु-वध नहीं करते थे। सदना की भगवान का भजन करने में बड़ी निष्ठा थी.
एक दिन सदना को नदी के किनारे एक पत्थर पड़ा मिला. पत्थर अच्छा लगा इसलिए वह उसे मांस तोलने के लिए अपने साथ ले आए. वह इस बात अंजान थे कि यह वह वही शालिग्राम थे जिन्हें पूर्वजन्म नित्य पूजते थे. सदना कसाई पूर्वजन्म के शालिग्राम को इस जन्म में मांस तोलने के लिए बटखरे के रूप में प्रयोग करने लगे. आदत के अनुसार सदना ठाकुरजी के भजन गाते रहते थे.ठाकुरजी भक्त की स्तुति का पलड़े में झूलते हुए आनंद लेते रहते. बटखरे का कमाल ऐसा था कि चाहे आधे किलो तोलना हो, एक किलो या दो किलो सारा वजन उससे पक्का हो जाता. .
एक दिन सदना की दुकान के सामने से एक ब्राह्मण निकले. उनकी नजर बाट पर पड़ी तो सदना के पास आए और शालिग्राम को अपवित्र करने के लिए फटकारा. . उन्होंने कहा- मूर्ख, जिसे पत्थर समझकर मांस तौल रहे हो वे शालिग्राम भगवान हैं. ब्राह्मण ने सदना से शालिग्राम भगवान को लिया और घर ले आए. गंगा जल से नहलाया, धूप, दीप,चन्दन से पूजा की. ब्राह्मण को अहंकार हो गया जिस शालिग्राम से पतितों का उद्दार होता है आज एक शालिग्राम का वह उद्धार कर रहा है. रात को उसके सपने में ठाकुरजी आए और बोले- तुम जहां से लाए हो वहीँ मुझे छोड़ आओ. मेरा भक्त सदन कसाई की भक्ति में जो बात है वह तुम्हारे आडंबर में नहीं. ब्राह्मण बोला- प्रभु! सदना कसाई का पापकर्म करता है. आपका प्रयोग मांस तोलने में करता है. मांस की दुकान जैसा अपवित्र स्थान आपके योग्य नहीं. भगवान बोले- भक्ति में भरकर सदना मुझे तराजू में रखकर तोलता था मुझे ऐसा लगता है कि वह मुझे झूला रहा हो. मांस की दुकान में आने वालों को भी मेरे नाम का स्मरण कराता है. मेरा भजन करता है. जो आनन्द वहां मिलता था वह यहां नहीं. तुम मुझे वही छोड आओ. ब्राह्मण शालिग्राम भगवान को वापस सदना कसाई को दे आए. .
ब्राह्मण बोला- भगवान को तुम्हारी संगति ही ज्यादा सुहाई. यह तो तुम्हारे पास ही रहना चाहते हैं. ये शालिग्राम भगवान का स्वरुप हैं. हो सके तो इन्हें पूजना बटखरा मत बनाना. . सदना ने यह सुना अनजाने में हुए अपराध को याद करके दुखी हो गया. सदना ने प्राश्चित का निश्चय किया और भगवान जगन्नाथ के दर्शन के लिए निकल पड़ा. वह भी भगवान के दर्शन को जाते एक समूह में शामिल हो गए लेकिन लोगों को पूछने पर उसने बता दिया कि वह कसाई का काम करता था. लोग उससे दूर-दूर रहने लगे. उसका छुआ खाते-पीते नहीं थे. दुखी सदना ने उनका साथ छोड़ा और शालिग्रामजी के साथ भजन करता अकेले चलने लगा.
सदना को प्यास लगी थी. रास्ते में एक गांव में कुंआ दिखा तो वह पानी पीने ठहर गया. वहां एक सुन्दर स्त्री पानी भर रही थी. वह सदना के सुंदर मजबूत शरीर पर रीझ गई. उसने सदना से कहा कि शाम हो गई है. इसलिए आज रात वह उसके घर में ही विश्राम कर लें. सदना को उसकी कुटिलता समझ में न आई, वह उसके अतिथि बन गए. . रात में वह स्त्री अपने पति के सो जाने पर सदना के पास पहुंच गई और उनसे अपने प्रेम की बात कही. स्त्री की बात सुनकर सदना चौंक गए और उसे पतिव्रता रहने को कहा. स्त्री को लगा कि शायद पति होने के कारण सदना रुचि नहीं ले रहे. वह चली गई और वह गई और सोते हुए पति का गला काट लाई. सदना भयभीत हो गए. स्त्री समझ गई कि बात बिगड़ जाएगी इसलिए उसने रोना-चिल्लाना शुरू कर दिया. पड़ोसियों से कह दिया कि इस यात्री को घर में जगह दी. चोरी की नीयत से इसने मेरे पति का गला काट दिया. सदना को पकड़ कर न्यायाधीश के सामने पेश किया गया. न्यायाधीश ने सदना को देखा तो ताड़ गए कि यह हत्यारा नहीं हो सकता. उन्होने बार-बार सदना से सारी बात पूछी. . सदना को लगता था कि यदि वह प्यास से व्याकुल गांव में न पहुंचते तो हत्या न होती. वह स्वयं को ही इसके लिए दोषी मानते थे. अतः वे मौन ही रहे. . न्यायाधीश ने राजा को बताया कि एक आदमी अपराधी है नहीं पर चुप रहकर एक तरह से अपराध की मौन स्वीकृति दे रहा है. इसे क्या दंड दिया जाना चाहिए? . राजा ने कहा- यदि वह प्रतिवाद नहीं करता तो दण्ड अनिवार्य है. अन्यथा प्रजा में गलत सन्देश जाएगा कि अपराधी को दंड नहीं मिला. इसे मृत्युदंड मत दो, हाथ काटने का हुक्म दो. सदना का दायां हाथ काट दिया गया.
सदना ने अपने पूर्वजन्म के कर्म मानकर चुपचाप दंड सहा और जगन्नाथपुरी धाम की यात्रा शुरू की. धाम के निकट पहुंचे तो भगवान ने अपने सेवक राजा को प्रियभक्त सदना कसाई की सम्मान से अगवानी का आदेश दिया. प्रभु आज्ञा से राजा गाजे-बाजे लेकर अगुवानी को आया. सदना ने यह सम्मान स्वीकार नहीं किया तो स्वयं ठाकुरजी ने दर्शन दिए. उन्हें सारी बात सुनाई- तुम पूर्वजन्म में ब्राहमण थे. तुमने संकेत से एक कसाई को गाय का पता बताया था. तुम्हारे कारण जिस गाय की जान गई थी वही स्त्री बनी है जिसके झूठे आरोपों से तुम्हारा हाथ काटा गया. उस स्त्री का पति पूर्वजन्म का कसाई बना था जिसका वध कर गाय ने बदला लिया है.
भगवान बोले- सभी के शुभ और अशुभ कर्मों का फल मैं देता हूं. अब तुम निष्पाप हो गए हो. घृणित आजीविका के बावजूद भी तुमने धर्म का साथ न छोड़ा. इसलिए तुम्हारे प्रेम को मैंने स्वीकार किया. मैं तुम्हारे साथ मांस तोलने वाले तराजू में भी प्रसन्न रहा. भगवान के दर्शन से सदनाजी को मोक्ष प्राप्त हुआ. भक्त सदनाजी की कथा हमें बताती है कि भक्ति में आडंबर नहीं भावना मायने रखती है. भगवान के नाम का गुणगान करना सबसे बड़ा पुण्य है।
अंजाने में हुए इस घोर पाप के कारण पंडितजी अगले जन्म में कसाई घर में जन्मे नाम पड़ा, सदना. पर पूर्वजन्म के पुण्यकर्मो के कारण कसाई होकर भी वह उदार और सदाचारी थे. कसाई परिवार में जन्मे होने के कारण आजीविका के लिये और कोई उपाय न होने से दूसरों के यहाँ से मांस लाकर बेचा करते थे, स्वयं अपने हाथ से पशु-वध नहीं करते थे। सदना की भगवान का भजन करने में बड़ी निष्ठा थी.
एक दिन सदना को नदी के किनारे एक पत्थर पड़ा मिला. पत्थर अच्छा लगा इसलिए वह उसे मांस तोलने के लिए अपने साथ ले आए. वह इस बात अंजान थे कि यह वह वही शालिग्राम थे जिन्हें पूर्वजन्म नित्य पूजते थे. सदना कसाई पूर्वजन्म के शालिग्राम को इस जन्म में मांस तोलने के लिए बटखरे के रूप में प्रयोग करने लगे. आदत के अनुसार सदना ठाकुरजी के भजन गाते रहते थे.ठाकुरजी भक्त की स्तुति का पलड़े में झूलते हुए आनंद लेते रहते. बटखरे का कमाल ऐसा था कि चाहे आधे किलो तोलना हो, एक किलो या दो किलो सारा वजन उससे पक्का हो जाता. .
एक दिन सदना की दुकान के सामने से एक ब्राह्मण निकले. उनकी नजर बाट पर पड़ी तो सदना के पास आए और शालिग्राम को अपवित्र करने के लिए फटकारा. . उन्होंने कहा- मूर्ख, जिसे पत्थर समझकर मांस तौल रहे हो वे शालिग्राम भगवान हैं. ब्राह्मण ने सदना से शालिग्राम भगवान को लिया और घर ले आए. गंगा जल से नहलाया, धूप, दीप,चन्दन से पूजा की. ब्राह्मण को अहंकार हो गया जिस शालिग्राम से पतितों का उद्दार होता है आज एक शालिग्राम का वह उद्धार कर रहा है. रात को उसके सपने में ठाकुरजी आए और बोले- तुम जहां से लाए हो वहीँ मुझे छोड़ आओ. मेरा भक्त सदन कसाई की भक्ति में जो बात है वह तुम्हारे आडंबर में नहीं. ब्राह्मण बोला- प्रभु! सदना कसाई का पापकर्म करता है. आपका प्रयोग मांस तोलने में करता है. मांस की दुकान जैसा अपवित्र स्थान आपके योग्य नहीं. भगवान बोले- भक्ति में भरकर सदना मुझे तराजू में रखकर तोलता था मुझे ऐसा लगता है कि वह मुझे झूला रहा हो. मांस की दुकान में आने वालों को भी मेरे नाम का स्मरण कराता है. मेरा भजन करता है. जो आनन्द वहां मिलता था वह यहां नहीं. तुम मुझे वही छोड आओ. ब्राह्मण शालिग्राम भगवान को वापस सदना कसाई को दे आए. .
ब्राह्मण बोला- भगवान को तुम्हारी संगति ही ज्यादा सुहाई. यह तो तुम्हारे पास ही रहना चाहते हैं. ये शालिग्राम भगवान का स्वरुप हैं. हो सके तो इन्हें पूजना बटखरा मत बनाना. . सदना ने यह सुना अनजाने में हुए अपराध को याद करके दुखी हो गया. सदना ने प्राश्चित का निश्चय किया और भगवान जगन्नाथ के दर्शन के लिए निकल पड़ा. वह भी भगवान के दर्शन को जाते एक समूह में शामिल हो गए लेकिन लोगों को पूछने पर उसने बता दिया कि वह कसाई का काम करता था. लोग उससे दूर-दूर रहने लगे. उसका छुआ खाते-पीते नहीं थे. दुखी सदना ने उनका साथ छोड़ा और शालिग्रामजी के साथ भजन करता अकेले चलने लगा.
सदना को प्यास लगी थी. रास्ते में एक गांव में कुंआ दिखा तो वह पानी पीने ठहर गया. वहां एक सुन्दर स्त्री पानी भर रही थी. वह सदना के सुंदर मजबूत शरीर पर रीझ गई. उसने सदना से कहा कि शाम हो गई है. इसलिए आज रात वह उसके घर में ही विश्राम कर लें. सदना को उसकी कुटिलता समझ में न आई, वह उसके अतिथि बन गए. . रात में वह स्त्री अपने पति के सो जाने पर सदना के पास पहुंच गई और उनसे अपने प्रेम की बात कही. स्त्री की बात सुनकर सदना चौंक गए और उसे पतिव्रता रहने को कहा. स्त्री को लगा कि शायद पति होने के कारण सदना रुचि नहीं ले रहे. वह चली गई और वह गई और सोते हुए पति का गला काट लाई. सदना भयभीत हो गए. स्त्री समझ गई कि बात बिगड़ जाएगी इसलिए उसने रोना-चिल्लाना शुरू कर दिया. पड़ोसियों से कह दिया कि इस यात्री को घर में जगह दी. चोरी की नीयत से इसने मेरे पति का गला काट दिया. सदना को पकड़ कर न्यायाधीश के सामने पेश किया गया. न्यायाधीश ने सदना को देखा तो ताड़ गए कि यह हत्यारा नहीं हो सकता. उन्होने बार-बार सदना से सारी बात पूछी. . सदना को लगता था कि यदि वह प्यास से व्याकुल गांव में न पहुंचते तो हत्या न होती. वह स्वयं को ही इसके लिए दोषी मानते थे. अतः वे मौन ही रहे. . न्यायाधीश ने राजा को बताया कि एक आदमी अपराधी है नहीं पर चुप रहकर एक तरह से अपराध की मौन स्वीकृति दे रहा है. इसे क्या दंड दिया जाना चाहिए? . राजा ने कहा- यदि वह प्रतिवाद नहीं करता तो दण्ड अनिवार्य है. अन्यथा प्रजा में गलत सन्देश जाएगा कि अपराधी को दंड नहीं मिला. इसे मृत्युदंड मत दो, हाथ काटने का हुक्म दो. सदना का दायां हाथ काट दिया गया.
सदना ने अपने पूर्वजन्म के कर्म मानकर चुपचाप दंड सहा और जगन्नाथपुरी धाम की यात्रा शुरू की. धाम के निकट पहुंचे तो भगवान ने अपने सेवक राजा को प्रियभक्त सदना कसाई की सम्मान से अगवानी का आदेश दिया. प्रभु आज्ञा से राजा गाजे-बाजे लेकर अगुवानी को आया. सदना ने यह सम्मान स्वीकार नहीं किया तो स्वयं ठाकुरजी ने दर्शन दिए. उन्हें सारी बात सुनाई- तुम पूर्वजन्म में ब्राहमण थे. तुमने संकेत से एक कसाई को गाय का पता बताया था. तुम्हारे कारण जिस गाय की जान गई थी वही स्त्री बनी है जिसके झूठे आरोपों से तुम्हारा हाथ काटा गया. उस स्त्री का पति पूर्वजन्म का कसाई बना था जिसका वध कर गाय ने बदला लिया है.
भगवान बोले- सभी के शुभ और अशुभ कर्मों का फल मैं देता हूं. अब तुम निष्पाप हो गए हो. घृणित आजीविका के बावजूद भी तुमने धर्म का साथ न छोड़ा. इसलिए तुम्हारे प्रेम को मैंने स्वीकार किया. मैं तुम्हारे साथ मांस तोलने वाले तराजू में भी प्रसन्न रहा. भगवान के दर्शन से सदनाजी को मोक्ष प्राप्त हुआ. भक्त सदनाजी की कथा हमें बताती है कि भक्ति में आडंबर नहीं भावना मायने रखती है. भगवान के नाम का गुणगान करना सबसे बड़ा पुण्य है।
👉 मन—बुद्धि—चित्त अहंकार का परिष्कार (अंतिम भाग)
चित्त की शुद्धता का मुख्य लक्षण है उन स्मृतियों तथा संस्कारों का रहना जो शुभ एवं शिव हों। मलीन, दुःखद अथवा ग्लानिपूर्ण स्मृतियों तथा संस्कारों का प्रदर्शन करने वाला चित्त अशुद्ध ही माना जायेगा। स्मृतियों के सद और संस्कारों के शुद्ध होने से मनुष्य का चिन्तन एवं आचरण कल्याणकारी दिशा में ही चला करता है। जिसे शुभम् का ज्ञान ही नहीं, शिवत्व की पहचान नहीं वह न तो सत्कर्मों की ओर बढ़ सकता है और न चिन्तन में माँगलिक संस्थान ही चित्त की शुद्धता के लक्षण हैं।
शरीर तथा संसार के प्रति अहंकार अशुद्ध है और यही अहंकार तब शुद्ध ही कहा जाएगा जब यह आत्मा अथवा परमात्मा के प्रति हो। अपने को शरीर समझना और क्षणभंगुर साँसारिक भोगों का भोक्ता भर समझना अशुद्ध अहंकार है। अपने को शुद्ध-बुद्ध चेतना, आत्मा और परमात्मा का प्रतिनिधि मान कर साँसारिक भोगों के प्रति मोक्ष की भावना न रख कर कर्तव्यवान की भावना रखना अहंकार की शुद्धता की द्योतक है।
इस प्रकार इन वृत्तियों की शुद्धता अशुद्धता के लक्षण समझ कर निर्णय कर लेना चाहिए कि उसका अन्तःकरण किस सीमा तक शुद्ध अथवा अशुद्ध है और फिर उसी अनुपात से चिन्तन, मनन तथा सत्कर्मों के द्वारा उसे अधिकाधिक शुद्ध बनाने में लग जाना चाहिये। स्वार्थ रहित सात्विक आहार-विहार तथा आचार-विचार का अभ्यास अपना लेने से मनुष्य की चारों वृत्तियाँ आप से आप शुद्ध होने लगती हैं। मन को प्रसन्न रखिये, बुद्धि को विकृतियों से बचाइये, चित्त पर शिव संस्कारों की छाप डालिये और अहंकार को शरीर से आत्मा अथवा परमात्मा की ओर उन्मुख करिये, आपका अन्तःकरण शुद्ध हो जायेगा। इस प्रकार का सकर्मक अभ्यास ही आध्यात्मिक जीवन प्राप्त करने का प्रयास है, जिसे पाकर मनुष्य जीवन शाश्वत सुख का अधिकारी बन कर सफल एवं सार्थक हो जाता है। यह आध्यात्मिक उपलब्धि संसार की सारी उपलब्धियों का मूल तथा सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि है जिसे हर प्रयत्न पर प्राप्त कर मनुष्य को अपने नश्वर जीवन को अनश्वर बनाना ही चाहिए।
.... समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1961 पृष्ठ 9
शरीर तथा संसार के प्रति अहंकार अशुद्ध है और यही अहंकार तब शुद्ध ही कहा जाएगा जब यह आत्मा अथवा परमात्मा के प्रति हो। अपने को शरीर समझना और क्षणभंगुर साँसारिक भोगों का भोक्ता भर समझना अशुद्ध अहंकार है। अपने को शुद्ध-बुद्ध चेतना, आत्मा और परमात्मा का प्रतिनिधि मान कर साँसारिक भोगों के प्रति मोक्ष की भावना न रख कर कर्तव्यवान की भावना रखना अहंकार की शुद्धता की द्योतक है।
इस प्रकार इन वृत्तियों की शुद्धता अशुद्धता के लक्षण समझ कर निर्णय कर लेना चाहिए कि उसका अन्तःकरण किस सीमा तक शुद्ध अथवा अशुद्ध है और फिर उसी अनुपात से चिन्तन, मनन तथा सत्कर्मों के द्वारा उसे अधिकाधिक शुद्ध बनाने में लग जाना चाहिये। स्वार्थ रहित सात्विक आहार-विहार तथा आचार-विचार का अभ्यास अपना लेने से मनुष्य की चारों वृत्तियाँ आप से आप शुद्ध होने लगती हैं। मन को प्रसन्न रखिये, बुद्धि को विकृतियों से बचाइये, चित्त पर शिव संस्कारों की छाप डालिये और अहंकार को शरीर से आत्मा अथवा परमात्मा की ओर उन्मुख करिये, आपका अन्तःकरण शुद्ध हो जायेगा। इस प्रकार का सकर्मक अभ्यास ही आध्यात्मिक जीवन प्राप्त करने का प्रयास है, जिसे पाकर मनुष्य जीवन शाश्वत सुख का अधिकारी बन कर सफल एवं सार्थक हो जाता है। यह आध्यात्मिक उपलब्धि संसार की सारी उपलब्धियों का मूल तथा सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि है जिसे हर प्रयत्न पर प्राप्त कर मनुष्य को अपने नश्वर जीवन को अनश्वर बनाना ही चाहिए।
.... समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1961 पृष्ठ 9
👉 Worship True Knowledge
There is nothing more sacred in this world then gyana (pure knowledge). It is also the divine virtue of the soul. God, the Omniscient manifests itself in absolute enlightenment through gyana. Gyana is the source of beatifying success and joy. Its light destroys all the darkness of ignorance and illusions from the mind and liberates the individual self from all thralldoms.
We remain entrapped in sorrows, sufferings, failures and discontent because our knowledge is incomplete, superficial. What we regard and acquire as knowledge, is simply a systematic accumulation of information of the perceivable world and thoughts fixed in a logical framework accepted by contemporary intellectuals.
The joy we hunt in the external things and worldly activities throughout our life is in fact hidden within our own self. We can’t experience it, we can’t discern between what is truly good and what is not because we don’t have true knowledge. The earlier we devote ourselves to attain this gyana the better.
Swadhyaya and Satsang (self-study and analysis in the light of the thoughts and works of elevated souls; and being in the company of such enlightened people) are the best means to accomplish the quest for gyana. The greater the number of individuals illumined by gyana, the faster and brighter will be the ascent of the society and the world they belong to.
📖 Akhand Jyoti, Apr. 1945
We remain entrapped in sorrows, sufferings, failures and discontent because our knowledge is incomplete, superficial. What we regard and acquire as knowledge, is simply a systematic accumulation of information of the perceivable world and thoughts fixed in a logical framework accepted by contemporary intellectuals.
The joy we hunt in the external things and worldly activities throughout our life is in fact hidden within our own self. We can’t experience it, we can’t discern between what is truly good and what is not because we don’t have true knowledge. The earlier we devote ourselves to attain this gyana the better.
Swadhyaya and Satsang (self-study and analysis in the light of the thoughts and works of elevated souls; and being in the company of such enlightened people) are the best means to accomplish the quest for gyana. The greater the number of individuals illumined by gyana, the faster and brighter will be the ascent of the society and the world they belong to.
📖 Akhand Jyoti, Apr. 1945
👉 दृष्टिकोण के अनुरूप संसार का स्वरूप (भाग ३)
संसार की अच्छी-बुरी तस्वीर वस्तुतः हमारे दृष्टिकोण और मनोदशा का ही प्रतिफलन है। दूसरों को भले रूप में देखना, भले दृष्टिकोण और बुरे रूप में देखना, बुरे दृष्टिकोण का ही परिणाम है। एक ही कोई व्यक्ति किसी को भला और हमें बुरा दीखता है तो इसको हम दोनों का दृष्टि वैचित्र्य ही माना जायेगा। यदि वह व्यक्ति अच्छा या बुरा ही होता, तो हम दोनों को अच्छा या बुरा ही दीखना चाहिये। जिस मरणासन्न रोगी कुत्ते को देखकर लोग घृणा से मुंह फेर लेते थे, उसको छू कर आती हुई हवा से बचते थे, उसी में दया और प्रेम की पवित्रता से प्रकाशमान् हृदय वाले ईसा मसीह ने भगवान् की प्रभुता का दर्शन किया और विह्वल होकर गोद में उठा लिया।
एक मन्दिर में भौतिक और आध्यात्मिक भिन्न दृष्टिकोण वाले दो व्यक्ति जाते हैं और प्रतिमा को ध्यानपूर्वक देखते हैं। जहां भौतिक दृष्टिकोण का व्यक्ति मूर्ति के पत्थर, मुकुट और साज-श्रृंगार तक सीमित रहकर उसका मूल्य और कोटि ही देखता रहता है, वहां आध्यात्मिक दृष्टिकोण वाला उसमें भगवान् की झांकी का दर्शन करता हुआ, भक्ति-भावना में विभोर हो जाता है। उसी प्रकार यदि चोर व्यक्ति उसको देखता है, तो उसे बड़ा माल दीखता है और चोरी के दांव-घात सोचने लगता है और यदि कोई उदार दानी देखता है, तो सोने लगता है कि अभी यहां पर इस वस्तु या इस बात की पूर्ति नहीं हो पाई है, यह पूर्ति होनी चाहिये और उसकी उदार वृत्ति कुछ कर सकने के लिये प्रेरित हो उठती है।
संसार की भलाई-बुराई इतना महत्त्व नहीं रखती, जितना कि हमारा निज का दृष्टिकोण। यदि हमारा दृष्टिकोण दूषित नहीं है, तो हमको संसार में दोष दिखाई ही न देंगे और यदि दिखाई भी देंगे, तो न हमारा ध्यान ही उधर जायेगा और न हम उसको कोई महत्त्व ही देंगे। जिसे हम प्यार करते हैं, जिसके प्रति हमारी मनोभावना अनुकूल है, दृष्टिकोण स्निग्ध एवं सरल है वह यदि कोई अप्रियता भी कर देता है, किसी बुराई या हानि का प्रमाण भी देता है, तो भी हमारे मन में उसके लिए द्वेष अथवा घृणा उत्पन्न नहीं होती, हम उसे हंसकर टाल देते हैं अथवा उधर ध्यान ही नहीं देते। इसके विपरीत यदि हमारा दृष्टिकोण दूषित है, तो पीलिया के रोगी की तरह हमें सारा संसार पीला-पीला ही दिखाई देगा। किसी की साधारण-सी भूल भी हमें पहाड़ जैसी दीखेगी और हम अपना अप्रिय करने वाले से लड़ने-झगड़ने को तैयार हो जायेंगे।
संसार का अपना कोई विशेष स्वरूप नहीं है। वह हर मनुष्य को उसके मनोभावों के अनुकूल ही दिखाई देता है। हमारा मानसिक प्रतिबिम्ब ही हमें बाह्य संसार में प्रतिफलित होता हुआ दिखाई देता है। दूसरे को भले रूप में देखना हमारी पुरोगामी मानसिक दशा का और बुरे रूप में देखना प्रतिगामी मानसिक दशा का परिणाम है। मनुष्य का जैसा दृष्टिकोण होता है, उसके विचार भी उसी के अनुसार बन जाते हैं। सर्वत्र सच्चाई और अच्छाई का दृष्टिकोण रखने वाले को संसार में कहीं भी अप्रियता अथवा प्रतिकूलता दिखलाई नहीं देती और दृष्टिकोण के प्रतिगामी होते ही संसार में बुराई के सिवाय और कुछ दिखाई ही नहीं देता। शिष्यों को इसी सत्य के अवगत करने के लिए एक बार गुरु द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर से कहा कि एक बुरा आदमी खोज लाओ और दुर्योधन को एक अच्छा आदमी खोज लाने के लिये भेजा। कुछ देर बाद युधिष्ठिर और दुर्योधन अकेले ही वापिस आ गये और उन्होंने क्रम से बतलाया कि आचार्य उनको कोई बुरा अथवा अच्छा आदमी नहीं मिला।
आचार्य ने शिष्यों को समझाया कि यह दोनों नगर में अच्छे-बुरे आदमियों की खोज करने गये, किन्तु अपनी शुभ मनोभावना के कारण युधिष्ठिर को कोई बुरा आदमी न दीखा और अशुभ दृष्टि-दोष के कारण दुर्योधन को कोई आदमी अच्छा ही न दिखलाई दिया नगर के सारे आदमी वही थे, किन्तु इन दोनों को अपने मनोभावों और दृष्टिकोण के कारण सब अच्छे अथवा बुरे ही दिखाई दिये। संसार में न कुछ सर्वदा अच्छा है और न बुरा, यह हमारे अपने मनोभावों और दृष्टिकोण का ही परिणाम है कि संसार हमको किस रूप में दिखलाई देता है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति दिसम्बर 1968 पृष्ठ 38
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1968/December/v1.38
एक मन्दिर में भौतिक और आध्यात्मिक भिन्न दृष्टिकोण वाले दो व्यक्ति जाते हैं और प्रतिमा को ध्यानपूर्वक देखते हैं। जहां भौतिक दृष्टिकोण का व्यक्ति मूर्ति के पत्थर, मुकुट और साज-श्रृंगार तक सीमित रहकर उसका मूल्य और कोटि ही देखता रहता है, वहां आध्यात्मिक दृष्टिकोण वाला उसमें भगवान् की झांकी का दर्शन करता हुआ, भक्ति-भावना में विभोर हो जाता है। उसी प्रकार यदि चोर व्यक्ति उसको देखता है, तो उसे बड़ा माल दीखता है और चोरी के दांव-घात सोचने लगता है और यदि कोई उदार दानी देखता है, तो सोने लगता है कि अभी यहां पर इस वस्तु या इस बात की पूर्ति नहीं हो पाई है, यह पूर्ति होनी चाहिये और उसकी उदार वृत्ति कुछ कर सकने के लिये प्रेरित हो उठती है।
संसार की भलाई-बुराई इतना महत्त्व नहीं रखती, जितना कि हमारा निज का दृष्टिकोण। यदि हमारा दृष्टिकोण दूषित नहीं है, तो हमको संसार में दोष दिखाई ही न देंगे और यदि दिखाई भी देंगे, तो न हमारा ध्यान ही उधर जायेगा और न हम उसको कोई महत्त्व ही देंगे। जिसे हम प्यार करते हैं, जिसके प्रति हमारी मनोभावना अनुकूल है, दृष्टिकोण स्निग्ध एवं सरल है वह यदि कोई अप्रियता भी कर देता है, किसी बुराई या हानि का प्रमाण भी देता है, तो भी हमारे मन में उसके लिए द्वेष अथवा घृणा उत्पन्न नहीं होती, हम उसे हंसकर टाल देते हैं अथवा उधर ध्यान ही नहीं देते। इसके विपरीत यदि हमारा दृष्टिकोण दूषित है, तो पीलिया के रोगी की तरह हमें सारा संसार पीला-पीला ही दिखाई देगा। किसी की साधारण-सी भूल भी हमें पहाड़ जैसी दीखेगी और हम अपना अप्रिय करने वाले से लड़ने-झगड़ने को तैयार हो जायेंगे।
संसार का अपना कोई विशेष स्वरूप नहीं है। वह हर मनुष्य को उसके मनोभावों के अनुकूल ही दिखाई देता है। हमारा मानसिक प्रतिबिम्ब ही हमें बाह्य संसार में प्रतिफलित होता हुआ दिखाई देता है। दूसरे को भले रूप में देखना हमारी पुरोगामी मानसिक दशा का और बुरे रूप में देखना प्रतिगामी मानसिक दशा का परिणाम है। मनुष्य का जैसा दृष्टिकोण होता है, उसके विचार भी उसी के अनुसार बन जाते हैं। सर्वत्र सच्चाई और अच्छाई का दृष्टिकोण रखने वाले को संसार में कहीं भी अप्रियता अथवा प्रतिकूलता दिखलाई नहीं देती और दृष्टिकोण के प्रतिगामी होते ही संसार में बुराई के सिवाय और कुछ दिखाई ही नहीं देता। शिष्यों को इसी सत्य के अवगत करने के लिए एक बार गुरु द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर से कहा कि एक बुरा आदमी खोज लाओ और दुर्योधन को एक अच्छा आदमी खोज लाने के लिये भेजा। कुछ देर बाद युधिष्ठिर और दुर्योधन अकेले ही वापिस आ गये और उन्होंने क्रम से बतलाया कि आचार्य उनको कोई बुरा अथवा अच्छा आदमी नहीं मिला।
आचार्य ने शिष्यों को समझाया कि यह दोनों नगर में अच्छे-बुरे आदमियों की खोज करने गये, किन्तु अपनी शुभ मनोभावना के कारण युधिष्ठिर को कोई बुरा आदमी न दीखा और अशुभ दृष्टि-दोष के कारण दुर्योधन को कोई आदमी अच्छा ही न दिखलाई दिया नगर के सारे आदमी वही थे, किन्तु इन दोनों को अपने मनोभावों और दृष्टिकोण के कारण सब अच्छे अथवा बुरे ही दिखाई दिये। संसार में न कुछ सर्वदा अच्छा है और न बुरा, यह हमारे अपने मनोभावों और दृष्टिकोण का ही परिणाम है कि संसार हमको किस रूप में दिखलाई देता है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति दिसम्बर 1968 पृष्ठ 38
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1968/December/v1.38
शुक्रवार, 26 जून 2020
👉 प्यार और स्नेह
एक छोटे से शहर के प्राथमिक स्कूल में कक्षा 5 की शिक्षिका थीं।
उनकी एक आदत थी कि वह कक्षा शुरू करने से पहले हमेशा "आई लव यू ऑल" बोला करतीं। मगर वह जानती थीं कि वह सच नहीं कहती। वह कक्षा के सभी बच्चों से उतना प्यार नहीं करती थीं।
कक्षा में एक ऐसा बच्चा था जो उनको एक आंख नहीं भाता। उसका नाम राजू था। राजू मैली कुचेली स्थिति में स्कूल आजाया करता है। उसके बाल खराब होते, जूतों के बन्ध खुले, शर्ट के कॉलर पर मेल के निशान। व्याख्यान के दौरान भी उसका ध्यान कहीं और होता।
मिस के डाँटने पर वह चौंक कर उन्हें देखता तो लग जाता..मगर उसकी खाली खाली नज़रों से उन्हें साफ पता लगता रहता.कि राजू शारीरिक रूप से कक्षा में उपस्थित होने के बावजूद भी मानसिक रूप से गायब हे.धीरे धीरे मिस को राजू से नफरत सी होने लगी। क्लास में घुसते ही राजू मिस की आलोचना का निशाना बनने लगता। सब बुराई उदाहरण राजू के नाम पर किये जाते. बच्चे उस पर खिलखिला कर हंसते.और मिस उसको अपमानित कर के संतोष प्राप्त करतीं। राजू ने हालांकि किसी बात का कभी कोई जवाब नहीं दिया था।
मिस को वह एक बेजान पत्थर की तरह लगता जिसके अंदर महसूस नाम की कोई चीज नहीं थी। प्रत्येक डांट, व्यंग्य और सजा के जवाब में वह बस अपनी भावनाओं से खाली नज़रों से उन्हें देखा करता और सिर झुका लेता । मिस को अब इससे गंभीर चिढ़ हो चुकी थी।
पहला सेमेस्टर समाप्त हो गया और रिपोर्ट बनाने का चरण आया तो मिस ने राजू की प्रगति रिपोर्ट में यह सब बुरी बातें लिख मारी। प्रगति रिपोर्ट माता पिता को दिखाने से पहले हेड मिसट्रेस के पास जाया करती थी। उन्होंने जब राजू की रिपोर्ट देखी तो मिस को बुला लिया। "मिस प्रगति रिपोर्ट में कुछ तो प्रगति भी लिखनी चाहिए। आपने तो जो कुछ लिखा है इससे राजू के पिता इससे बिल्कुल निराश हो जाएंगे।" "मैं माफी माँगती हूँ, लेकिन राजू एक बिल्कुल ही अशिष्ट और निकम्मा बच्चा है। मुझे नहीं लगता कि मैं उसकी प्रगति के बारे में कुछ लिख सकती हूँ। "मिस घृणित लहजे में बोलकर वहां से उठ आईं।
हेड मिसट्रेस ने एक अजीब हरकत की। उन्होंने चपरासी के हाथ मिस की डेस्क पर राजू की पिछले वर्षों की प्रगति रिपोर्ट रखवा दी। अगले दिन मिस ने कक्षा में प्रवेश किया तो रिपोर्ट पर नजर पड़ी। पलट कर देखा तो पता लगा कि यह राजू की रिपोर्ट हैं। "पिछली कक्षाओं में भी उसने निश्चय ही यही गुल खिलाए होंगे।" उन्होंने सोचा और कक्षा 3 की रिपोर्ट खोली। रिपोर्ट में टिप्पणी पढ़कर उनकी आश्चर्य की कोई सीमा न रही जब उन्होंने देखा कि रिपोर्ट उसकी तारीफों से भरी पड़ी है। "राजू जैसा बुद्धिमान बच्चा मैंने आज तक नहीं देखा।" "बेहद संवेदनशील बच्चा है और अपने मित्रों और शिक्षक से बेहद लगाव रखता है।"
अंतिम सेमेस्टर में भी राजू ने प्रथम स्थान प्राप्त कर लिया है। "मिस ने अनिश्चित स्थिति में कक्षा 4 की रिपोर्ट खोली।" राजू ने अपनी मां की बीमारी का बेहद प्रभाव लिया। उसका ध्यान पढ़ाई से हट रहा है। "राजू की माँ को अंतिम चरण का कैंसर हुआ है। घर पर उसका और कोई ध्यान रखनेवाला नहीं है. जिसका गहरा प्रभाव उसकी पढ़ाई पर पड़ा है।"
राजू की माँ मर चुकी है और इसके साथ ही राजू के जीवन की चमक और रौनक भी। उसे बचाना होगा...इससे पहले कि बहुत देर हो जाए। "मिस के दिमाग पर भयानक बोझ हावी हो गया। कांपते हाथों से उन्होंने प्रगति रिपोर्ट बंद की। आंसू उनकी आँखों से एक के बाद एक गिरने लगे.
अगले दिन जब मिस कक्षा में दाख़िल हुईं तो उन्होंने अपनी आदत के अनुसार अपना पारंपरिक वाक्यांश "आई लव यू ऑल" दोहराया। मगर वह जानती थीं कि वह आज भी झूठ बोल रही हैं। क्योंकि इसी क्लास में बैठे एक उलझे बालों वाले बच्चे राजू के लिए जो प्यार वह आज अपने दिल में महसूस कर रही थीं..वह कक्षा में बैठे और किसी भी बच्चे से हो ही नहीं सकता था। व्याख्यान के दौरान उन्होंने रोजाना दिनचर्या की तरह एक सवाल राजू पर दागा और हमेशा की तरह राजू ने सिर झुका लिया। जब कुछ देर तक मिस से कोई डांट फटकार और सहपाठी सहयोगियों से हंसी की आवाज उसके कानों में न पड़ी तो उसने अचंभे में सिर उठाकर उनकी ओर देखा। अप्रत्याशित उनके माथे पर आज बल न थे, वह मुस्कुरा रही थीं। उन्होंने राजू को अपने पास बुलाया और उसे सवाल का जवाब बताकर जबरन दोहराने के लिए कहा। राजू तीन चार बार के आग्रह के बाद अंतत:बोल ही पड़ा। इसके जवाब देते ही मिस ने न सिर्फ खुद खुशान्दाज़ होकर तालियाँ बजाईं बल्कि सभी से भी बजवायी.. फिर तो यह दिनचर्या बन गयी। मिस हर सवाल का जवाब अपने आप बताती और फिर उसकी खूब सराहना तारीफ करतीं। प्रत्येक अच्छा उदाहरण राजू के कारण दिया जाने लगा । धीरे-धीरे पुराना राजू सन्नाटे की कब्र फाड़ कर बाहर आ गया। अब मिस को सवाल के साथ जवाब बताने की जरूरत नहीं पड़ती। वह रोज बिना त्रुटि उत्तर देकर सभी को प्रभावित करता और नये नए सवाल पूछ कर सबको हैरान भी।
उसके बाल अब कुछ हद तक सुधरे हुए होते, कपड़े भी काफी हद तक साफ होते जिन्हें शायद वह खुद धोने लगा था। देखते ही देखते साल समाप्त हो गया और राजू ने दूसरा स्थान हासिल कर लिया यानी दूसरी क्लास।
विदाई समारोह में सभी बच्चे मिस के लिये सुंदर उपहार लेकर आए और मिस की टेबल पर ढेर लग गये । इन खूबसूरती से पैक हुए उपहार में एक पुराने अखबार में बद सलीके से पैक हुआ एक उपहार भी पड़ा था। बच्चे उसे देखकर हंस पड़े। किसी को जानने में देर न लगी कि उपहार के नाम पर ये राजू लाया होगा। मिस ने उपहार के इस छोटे से पहाड़ में से लपक कर उसे निकाला। खोलकर देखा तो उसके अंदर एक महिलाओं की इत्र की आधी इस्तेमाल की हुई शीशी और एक हाथ में पहनने वाला एक बड़ा सा कड़ा था जिसके ज्यादातर मोती झड़ चुके थे। मिस ने चुपचाप इस इत्र को खुद पर छिड़का और हाथ में कंगन पहन लिया। बच्चे यह दृश्य देखकर हैरान रह गए। खुद राजू भी। आखिर राजू से रहा न गया और मिस के पास आकर खड़ा हो गया।।
कुछ देर बाद उसने अटक अटक कर मिस को बताया कि "आज आप में से मेरी माँ जैसी खुशबू आ रही है।"
समय पर लगाकर उड़ने लगा। दिन सप्ताह, सप्ताह महीने और महीने साल में बदलते भला कहां देर लगती है? मगर हर साल के अंत में मिस को राजू से एक पत्र नियमित रूप से प्राप्त होता जिसमें लिखा होता कि "इस साल कई नए टीचर्स से मिला।। मगर आप जैसा कोई नहीं था।" फिर राजू का स्कूल समाप्त हो गया और पत्रों का सिलसिला भी। कई साल आगे गुज़रे और मिस रिटायर हो गईं। एक दिन उन्हें अपनी मेल में राजू का पत्र मिला जिसमें लिखा था:
"इस महीने के अंत में मेरी शादी है और आपके बिना शादी की बात मैं नहीं सोच सकता। एक और बात .. मैं जीवन में बहुत सारे लोगों से मिल चुका हूं। आप जैसा कोई नहीं है.........डॉक्टर राजू
साथ ही विमान का आने जाने का टिकट भी लिफाफे में मौजूद था। मिस खुद को हरगिज़ न रोक सकती थीं। उन्होंने अपने पति से अनुमति ली और वह दूसरे शहर के लिए रवाना हो गईं। शादी के दिन जब वह शादी की जगह पहुंची तो थोड़ी लेट हो चुकी थीं। उन्हें लगा समारोह समाप्त हो चुका होगा.. मगर यह देखकर उनके आश्चर्य की सीमा न रही कि शहर के बड़े डॉ, बिजनेसमैन और यहां तक कि वहां पर शादी कराने वाले पंडितजी भी थक गये थे. कि आखिर कौन आना बाकी है...मगर राजू समारोह में शादी के मंडप के बजाय गेट की तरफ टकटकी लगाए उनके आने का इंतजार कर रहा था। फिर सबने देखा कि जैसे ही यह पुरानी शिक्षिका ने गेट से प्रवेश किया राजू उनकी ओर लपका और उनका वह हाथ पकड़ा जिसमें उन्होंने अब तक वह सड़ा हुआ सा कंगन पहना हुआ था और उन्हें सीधा मंच पर ले गया। माइक हाथ में पकड़ कर उसने कुछ यूं बोला "दोस्तों आप सभी हमेशा मुझसे मेरी माँ के बारे में पूछा करते थे और मैं आप सबसे वादा किया करता था कि जल्द ही आप सबको उनसे मिलाउंगा। ........यह मेरी माँ हैं - -------------------------
इस सुंदर कहानी को सिर्फ शिक्षक और शिष्य के रिश्ते के कारण ही मत सोचिएगा। अपने आसपास देखें, राजू जैसे कई फूल मुरझा रहे हैं जिन्हें आप का जरा सा ध्यान, प्यार और स्नेह नया जीवन दे सकता है...........
उनकी एक आदत थी कि वह कक्षा शुरू करने से पहले हमेशा "आई लव यू ऑल" बोला करतीं। मगर वह जानती थीं कि वह सच नहीं कहती। वह कक्षा के सभी बच्चों से उतना प्यार नहीं करती थीं।
कक्षा में एक ऐसा बच्चा था जो उनको एक आंख नहीं भाता। उसका नाम राजू था। राजू मैली कुचेली स्थिति में स्कूल आजाया करता है। उसके बाल खराब होते, जूतों के बन्ध खुले, शर्ट के कॉलर पर मेल के निशान। व्याख्यान के दौरान भी उसका ध्यान कहीं और होता।
मिस के डाँटने पर वह चौंक कर उन्हें देखता तो लग जाता..मगर उसकी खाली खाली नज़रों से उन्हें साफ पता लगता रहता.कि राजू शारीरिक रूप से कक्षा में उपस्थित होने के बावजूद भी मानसिक रूप से गायब हे.धीरे धीरे मिस को राजू से नफरत सी होने लगी। क्लास में घुसते ही राजू मिस की आलोचना का निशाना बनने लगता। सब बुराई उदाहरण राजू के नाम पर किये जाते. बच्चे उस पर खिलखिला कर हंसते.और मिस उसको अपमानित कर के संतोष प्राप्त करतीं। राजू ने हालांकि किसी बात का कभी कोई जवाब नहीं दिया था।
मिस को वह एक बेजान पत्थर की तरह लगता जिसके अंदर महसूस नाम की कोई चीज नहीं थी। प्रत्येक डांट, व्यंग्य और सजा के जवाब में वह बस अपनी भावनाओं से खाली नज़रों से उन्हें देखा करता और सिर झुका लेता । मिस को अब इससे गंभीर चिढ़ हो चुकी थी।
पहला सेमेस्टर समाप्त हो गया और रिपोर्ट बनाने का चरण आया तो मिस ने राजू की प्रगति रिपोर्ट में यह सब बुरी बातें लिख मारी। प्रगति रिपोर्ट माता पिता को दिखाने से पहले हेड मिसट्रेस के पास जाया करती थी। उन्होंने जब राजू की रिपोर्ट देखी तो मिस को बुला लिया। "मिस प्रगति रिपोर्ट में कुछ तो प्रगति भी लिखनी चाहिए। आपने तो जो कुछ लिखा है इससे राजू के पिता इससे बिल्कुल निराश हो जाएंगे।" "मैं माफी माँगती हूँ, लेकिन राजू एक बिल्कुल ही अशिष्ट और निकम्मा बच्चा है। मुझे नहीं लगता कि मैं उसकी प्रगति के बारे में कुछ लिख सकती हूँ। "मिस घृणित लहजे में बोलकर वहां से उठ आईं।
हेड मिसट्रेस ने एक अजीब हरकत की। उन्होंने चपरासी के हाथ मिस की डेस्क पर राजू की पिछले वर्षों की प्रगति रिपोर्ट रखवा दी। अगले दिन मिस ने कक्षा में प्रवेश किया तो रिपोर्ट पर नजर पड़ी। पलट कर देखा तो पता लगा कि यह राजू की रिपोर्ट हैं। "पिछली कक्षाओं में भी उसने निश्चय ही यही गुल खिलाए होंगे।" उन्होंने सोचा और कक्षा 3 की रिपोर्ट खोली। रिपोर्ट में टिप्पणी पढ़कर उनकी आश्चर्य की कोई सीमा न रही जब उन्होंने देखा कि रिपोर्ट उसकी तारीफों से भरी पड़ी है। "राजू जैसा बुद्धिमान बच्चा मैंने आज तक नहीं देखा।" "बेहद संवेदनशील बच्चा है और अपने मित्रों और शिक्षक से बेहद लगाव रखता है।"
अंतिम सेमेस्टर में भी राजू ने प्रथम स्थान प्राप्त कर लिया है। "मिस ने अनिश्चित स्थिति में कक्षा 4 की रिपोर्ट खोली।" राजू ने अपनी मां की बीमारी का बेहद प्रभाव लिया। उसका ध्यान पढ़ाई से हट रहा है। "राजू की माँ को अंतिम चरण का कैंसर हुआ है। घर पर उसका और कोई ध्यान रखनेवाला नहीं है. जिसका गहरा प्रभाव उसकी पढ़ाई पर पड़ा है।"
राजू की माँ मर चुकी है और इसके साथ ही राजू के जीवन की चमक और रौनक भी। उसे बचाना होगा...इससे पहले कि बहुत देर हो जाए। "मिस के दिमाग पर भयानक बोझ हावी हो गया। कांपते हाथों से उन्होंने प्रगति रिपोर्ट बंद की। आंसू उनकी आँखों से एक के बाद एक गिरने लगे.
अगले दिन जब मिस कक्षा में दाख़िल हुईं तो उन्होंने अपनी आदत के अनुसार अपना पारंपरिक वाक्यांश "आई लव यू ऑल" दोहराया। मगर वह जानती थीं कि वह आज भी झूठ बोल रही हैं। क्योंकि इसी क्लास में बैठे एक उलझे बालों वाले बच्चे राजू के लिए जो प्यार वह आज अपने दिल में महसूस कर रही थीं..वह कक्षा में बैठे और किसी भी बच्चे से हो ही नहीं सकता था। व्याख्यान के दौरान उन्होंने रोजाना दिनचर्या की तरह एक सवाल राजू पर दागा और हमेशा की तरह राजू ने सिर झुका लिया। जब कुछ देर तक मिस से कोई डांट फटकार और सहपाठी सहयोगियों से हंसी की आवाज उसके कानों में न पड़ी तो उसने अचंभे में सिर उठाकर उनकी ओर देखा। अप्रत्याशित उनके माथे पर आज बल न थे, वह मुस्कुरा रही थीं। उन्होंने राजू को अपने पास बुलाया और उसे सवाल का जवाब बताकर जबरन दोहराने के लिए कहा। राजू तीन चार बार के आग्रह के बाद अंतत:बोल ही पड़ा। इसके जवाब देते ही मिस ने न सिर्फ खुद खुशान्दाज़ होकर तालियाँ बजाईं बल्कि सभी से भी बजवायी.. फिर तो यह दिनचर्या बन गयी। मिस हर सवाल का जवाब अपने आप बताती और फिर उसकी खूब सराहना तारीफ करतीं। प्रत्येक अच्छा उदाहरण राजू के कारण दिया जाने लगा । धीरे-धीरे पुराना राजू सन्नाटे की कब्र फाड़ कर बाहर आ गया। अब मिस को सवाल के साथ जवाब बताने की जरूरत नहीं पड़ती। वह रोज बिना त्रुटि उत्तर देकर सभी को प्रभावित करता और नये नए सवाल पूछ कर सबको हैरान भी।
उसके बाल अब कुछ हद तक सुधरे हुए होते, कपड़े भी काफी हद तक साफ होते जिन्हें शायद वह खुद धोने लगा था। देखते ही देखते साल समाप्त हो गया और राजू ने दूसरा स्थान हासिल कर लिया यानी दूसरी क्लास।
विदाई समारोह में सभी बच्चे मिस के लिये सुंदर उपहार लेकर आए और मिस की टेबल पर ढेर लग गये । इन खूबसूरती से पैक हुए उपहार में एक पुराने अखबार में बद सलीके से पैक हुआ एक उपहार भी पड़ा था। बच्चे उसे देखकर हंस पड़े। किसी को जानने में देर न लगी कि उपहार के नाम पर ये राजू लाया होगा। मिस ने उपहार के इस छोटे से पहाड़ में से लपक कर उसे निकाला। खोलकर देखा तो उसके अंदर एक महिलाओं की इत्र की आधी इस्तेमाल की हुई शीशी और एक हाथ में पहनने वाला एक बड़ा सा कड़ा था जिसके ज्यादातर मोती झड़ चुके थे। मिस ने चुपचाप इस इत्र को खुद पर छिड़का और हाथ में कंगन पहन लिया। बच्चे यह दृश्य देखकर हैरान रह गए। खुद राजू भी। आखिर राजू से रहा न गया और मिस के पास आकर खड़ा हो गया।।
कुछ देर बाद उसने अटक अटक कर मिस को बताया कि "आज आप में से मेरी माँ जैसी खुशबू आ रही है।"
समय पर लगाकर उड़ने लगा। दिन सप्ताह, सप्ताह महीने और महीने साल में बदलते भला कहां देर लगती है? मगर हर साल के अंत में मिस को राजू से एक पत्र नियमित रूप से प्राप्त होता जिसमें लिखा होता कि "इस साल कई नए टीचर्स से मिला।। मगर आप जैसा कोई नहीं था।" फिर राजू का स्कूल समाप्त हो गया और पत्रों का सिलसिला भी। कई साल आगे गुज़रे और मिस रिटायर हो गईं। एक दिन उन्हें अपनी मेल में राजू का पत्र मिला जिसमें लिखा था:
"इस महीने के अंत में मेरी शादी है और आपके बिना शादी की बात मैं नहीं सोच सकता। एक और बात .. मैं जीवन में बहुत सारे लोगों से मिल चुका हूं। आप जैसा कोई नहीं है.........डॉक्टर राजू
साथ ही विमान का आने जाने का टिकट भी लिफाफे में मौजूद था। मिस खुद को हरगिज़ न रोक सकती थीं। उन्होंने अपने पति से अनुमति ली और वह दूसरे शहर के लिए रवाना हो गईं। शादी के दिन जब वह शादी की जगह पहुंची तो थोड़ी लेट हो चुकी थीं। उन्हें लगा समारोह समाप्त हो चुका होगा.. मगर यह देखकर उनके आश्चर्य की सीमा न रही कि शहर के बड़े डॉ, बिजनेसमैन और यहां तक कि वहां पर शादी कराने वाले पंडितजी भी थक गये थे. कि आखिर कौन आना बाकी है...मगर राजू समारोह में शादी के मंडप के बजाय गेट की तरफ टकटकी लगाए उनके आने का इंतजार कर रहा था। फिर सबने देखा कि जैसे ही यह पुरानी शिक्षिका ने गेट से प्रवेश किया राजू उनकी ओर लपका और उनका वह हाथ पकड़ा जिसमें उन्होंने अब तक वह सड़ा हुआ सा कंगन पहना हुआ था और उन्हें सीधा मंच पर ले गया। माइक हाथ में पकड़ कर उसने कुछ यूं बोला "दोस्तों आप सभी हमेशा मुझसे मेरी माँ के बारे में पूछा करते थे और मैं आप सबसे वादा किया करता था कि जल्द ही आप सबको उनसे मिलाउंगा। ........यह मेरी माँ हैं - -------------------------
इस सुंदर कहानी को सिर्फ शिक्षक और शिष्य के रिश्ते के कारण ही मत सोचिएगा। अपने आसपास देखें, राजू जैसे कई फूल मुरझा रहे हैं जिन्हें आप का जरा सा ध्यान, प्यार और स्नेह नया जीवन दे सकता है...........
👉 मन—बुद्धि—चित्त अहंकार का परिष्कार (भाग ३)
संसार में पग-पग पर दुःख, क्षोभ और कलह, कलेश की परिस्थितियों में आना पड़ता है। इस प्रकार की प्रतिकूल परिस्थितियाँ, सुख-सुविधा के अनन्त साधन होने पर भी दुखी किए रहती हैं। मनुष्य के उपार्जित साधन उसकी कोई सहायता नहीं कर पाते। संसार में जिससे सामान्य प्रतिकूलताओं की यातना से तो सहज ही बचा जा सकता है, वह है आध्यात्मिक दृष्टिकोण एवं आचरण। आध्यात्मिकता के अभाव में सुख-शाँति सम्भव नहीं और उसके अभाव में दुःख अथवा अशाँति असम्भव है!
मनुष्य के अन्तःकरण का निर्माण चार वृत्तियों से मिल कर हुआ है। मन, बुद्धि, चित्त तथा अहंकार। मन संकल्प विकल्प करता है, बुद्धि निर्णय देती है, चित्त, स्मृति तथा संस्कारों को ग्रहण करता और बनाए रखता है, अहंकार मनुष्य को आत्मिक न बनने देकर शरीर भाव बनाए रहता है। इन वृत्तियों के अशुद्ध रहने पर अन्तःकरण अशुद्ध हो जाता है। इन वृत्तियों को सात्विक बनाना ही अन्तःकरण को शुद्ध करना माना जाएगा।
वृत्तियों को शुद्ध करने का प्रयत्न करने से पूर्व उनकी अशुद्धता के लक्षण जान लेना आवश्यक हैं—”अशुद्ध काम संकल्पम् — शुद्ध काम विवर्जितम्”—मन में जब तमोगुण पूर्ण स्वार्थ एवं काम पूर्ण संकल्प विकल्प होते रहें समझना चाहिए कि मनोवृत्ति अशुद्ध है। इसका मोटा-सा एक लक्षण यह भी है कि जब मन निराश, निरुत्साह अथवा क्षुब्ध रहे समझना चाहिये कि वह अशुद्ध है। मन की शुद्धता का प्रमुख लक्षण है निष्कामता एवं प्रसाद। कर्मों की सफलता असफलता पर मन का समान रूप से प्रसन्न बना रहना उसकी शुद्धता का प्रमुख लक्षण है। अधिक, असंगत अथवा असात्विक कामनायें करने से मन निर्बल एवं मलीन हो जाता है। संतोष न रहने से सदा क्षुब्ध, चंचल और दुखी रहता है। मन की प्रसन्नता अपनी स्थिति के अनुसार शुभ संकल्प एवं निष्काम भाव से कर्म करने से ही सुरक्षित रह सकती है।
बुद्धि जब किसी विषय में स्पष्ट निर्णय देने में असमर्थ रहे, कोई भी प्रसंग उपस्थित होने पर असमंजस अथवा ऊहापोह में पड़ जाए तब समझना चाहिए कि वह प्रबुद्ध अथवा शुद्ध नहीं है। करने अथवा न करने योग्य कर्मों का शीघ्र एवं समीचीन निर्णय दे सकने में समर्थ बुद्धि ही सात्विक अथवा शुद्ध कही जायेगी। देखने में भयप्रद लगने वाले ठीक कर्तव्य के प्रति स्वीकृति दे देने वाली साहस की बुद्धि शुद्ध ही हो सकती है। सन्देह अथवा संशयशील बुद्धि अशुद्ध है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1961 पृष्ठ 9
मनुष्य के अन्तःकरण का निर्माण चार वृत्तियों से मिल कर हुआ है। मन, बुद्धि, चित्त तथा अहंकार। मन संकल्प विकल्प करता है, बुद्धि निर्णय देती है, चित्त, स्मृति तथा संस्कारों को ग्रहण करता और बनाए रखता है, अहंकार मनुष्य को आत्मिक न बनने देकर शरीर भाव बनाए रहता है। इन वृत्तियों के अशुद्ध रहने पर अन्तःकरण अशुद्ध हो जाता है। इन वृत्तियों को सात्विक बनाना ही अन्तःकरण को शुद्ध करना माना जाएगा।
वृत्तियों को शुद्ध करने का प्रयत्न करने से पूर्व उनकी अशुद्धता के लक्षण जान लेना आवश्यक हैं—”अशुद्ध काम संकल्पम् — शुद्ध काम विवर्जितम्”—मन में जब तमोगुण पूर्ण स्वार्थ एवं काम पूर्ण संकल्प विकल्प होते रहें समझना चाहिए कि मनोवृत्ति अशुद्ध है। इसका मोटा-सा एक लक्षण यह भी है कि जब मन निराश, निरुत्साह अथवा क्षुब्ध रहे समझना चाहिये कि वह अशुद्ध है। मन की शुद्धता का प्रमुख लक्षण है निष्कामता एवं प्रसाद। कर्मों की सफलता असफलता पर मन का समान रूप से प्रसन्न बना रहना उसकी शुद्धता का प्रमुख लक्षण है। अधिक, असंगत अथवा असात्विक कामनायें करने से मन निर्बल एवं मलीन हो जाता है। संतोष न रहने से सदा क्षुब्ध, चंचल और दुखी रहता है। मन की प्रसन्नता अपनी स्थिति के अनुसार शुभ संकल्प एवं निष्काम भाव से कर्म करने से ही सुरक्षित रह सकती है।
बुद्धि जब किसी विषय में स्पष्ट निर्णय देने में असमर्थ रहे, कोई भी प्रसंग उपस्थित होने पर असमंजस अथवा ऊहापोह में पड़ जाए तब समझना चाहिए कि वह प्रबुद्ध अथवा शुद्ध नहीं है। करने अथवा न करने योग्य कर्मों का शीघ्र एवं समीचीन निर्णय दे सकने में समर्थ बुद्धि ही सात्विक अथवा शुद्ध कही जायेगी। देखने में भयप्रद लगने वाले ठीक कर्तव्य के प्रति स्वीकृति दे देने वाली साहस की बुद्धि शुद्ध ही हो सकती है। सन्देह अथवा संशयशील बुद्धि अशुद्ध है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1961 पृष्ठ 9
👉 Conquering the Mind Wins the World
Restraining or disciplining the mind is the biggest battle of human life. The agile mind is the most dreaded and nearest enemy of the individual self. The peculiarity of this battle is that it continues throughout, every moment of one’s life till the triumph of the self. One needs to recognize the real self and apply its sublime willpower. But the perennial trouble is that most often, the “self” cannot distinguish itself from the mind and what one regards as willpower is also usually a delusion with that of the dominating tendency of the mind.
The best thing to proceed with is – first control the agility of mind by engaging it constantly in some constructive activities and focused thinking that might interest it. Once it is trained in concentration the level of activity and thoughts could be gradually refined. The true nature of mind, which is driven by the inner inspiration, will then begin to manifest. So the most important thing is to refine your intrinsic desires. But again, the complicacy is that you will need the support of mind till this purification comes into effect. Nevertheless, starting with small steps, you should continue your march with firm determination and selfvigilance.
Sensual passions and cravings are most prominent distraction and hindrance in this process of self-disciplining. You should therefore prepare (in your mind) an army of good thoughts and courageous examples to counter these the moment they arise. Just change your position, movement and activity at that time and start recalling the stored treasure of enlightening memories. This simple practice, with strong will, will gradually, though slowly, tune your mind with positive thinking and the inspirations of the real self. Your mind will then become your greatest friend. True! A self-disciplined and illumined mind is like an angel.
📖 Akhand Jyoti, March 1945
The best thing to proceed with is – first control the agility of mind by engaging it constantly in some constructive activities and focused thinking that might interest it. Once it is trained in concentration the level of activity and thoughts could be gradually refined. The true nature of mind, which is driven by the inner inspiration, will then begin to manifest. So the most important thing is to refine your intrinsic desires. But again, the complicacy is that you will need the support of mind till this purification comes into effect. Nevertheless, starting with small steps, you should continue your march with firm determination and selfvigilance.
Sensual passions and cravings are most prominent distraction and hindrance in this process of self-disciplining. You should therefore prepare (in your mind) an army of good thoughts and courageous examples to counter these the moment they arise. Just change your position, movement and activity at that time and start recalling the stored treasure of enlightening memories. This simple practice, with strong will, will gradually, though slowly, tune your mind with positive thinking and the inspirations of the real self. Your mind will then become your greatest friend. True! A self-disciplined and illumined mind is like an angel.
📖 Akhand Jyoti, March 1945
👉 दृष्टिकोण के अनुरूप संसार का स्वरूप (भाग २)
बात दर असल यह होती है कि ऐसे व्यक्ति सामान्यतः दूषित दृष्टिकोण के रोगी होते हैं। निषेधात्मक दृष्टि तथा नकारात्मक मनोवृत्ति के कारण उन्हें संसार की हर बात और हर वस्तु दोषपूर्ण दिखाई देती है। जिस प्रकार जिस रंग का चश्मा आंखों पर चढ़ा लिया जाता है, संसार की प्रत्येक वस्तु उसी रंग की दिखाई देने लगती है। जब कि वह वास्तव में उस रंग की होती नहीं। यही दशा इस प्रकार के लोगों की होती है। दोष-दृष्टि होने से उन्हें दोष के सिवाय किसी व्यक्ति अथवा वस्तु में कोई अच्छाई ही नहीं दिखलाई देती। जब कि संसार में केवल बुराई अथवा कुरूपता ही नहीं है, अच्छाई और सुन्दरता भी है।
चेतन और जड़ से मिलकर बने हुए इस संसार की प्रत्येक वस्तु और व्यक्ति में अच्छाई-बुराई दोनों पाये जाते हैं। कोई भी वस्तु ऐसी न मिलेगी, जो या तो केवल बुरी हों या केवल अच्छी, दिन और रात, शुक्ल-पक्ष और कृष्ण-पक्ष की तरह हर बात के दो पहलू होते हैं। एक वस्तु जो एक स्थिति में बुरी होती है, दूसरी बार वही अच्छी दिखलाई देने लगती है। मनुष्य के भीतर स्वयं दैवी और आसुरी वृत्तियां विद्यमान् रहती हैं। हमारा स्वयं का बच्चा जब किसी समय शरारत या हठ कर रहा होता है, हमें खुद को बड़ा ही ढीठ और खराब मालूम होने लगता है और जब वही बालक दौड़कर पानी ले आता है, अपना पाठ सुना देता है, अच्छी-अच्छी प्यारी बातें करने लगता है, तब हमें बड़ा भला और अच्छा लगने लगता है। इससे वह बच्चा न तो बिल्कुल अच्छा ही माना जायेगा और न सर्वथा खराब या बुरा ही। सड़ा-गला, कूड़ा-कचरा और मल-मूत्र सर्वथा बुरी वस्तुयें मानी जाती हैं, किन्तु जब यही सब पककर खाद बन जाते हैं, तब सभी उसको एक मत से उपयोगी एवं आवश्यक मान लेते हैं और निःसन्देह वह हो भी ऐसा जाता है। तात्पर्य इस संसार की कोई भी वस्तु न तो केवल खराब है और न अच्छी। हर वस्तु के अच्छे-बुरे दोनों पहलू होते हैं। दोष रहित, निर्विकार और सदा शुद्ध तो एक मात्र परमात्म सत्ता ब्रह्म ही है।
संसार तो गुण-दोषों का सम्मिलित स्वरूप है। तथापि जिन मनीषियों और महात्माओं ने अपने को पूर्ण शुद्ध और निर्विकार बना लिया है, उनका कहना तो यहां तक है कि मंगलमय भगवान् की इस मंगलमय सृष्टि में दोष है ही नहीं। उनकी यह रचना भलाई, उत्कृष्टता, स्वच्छता, नैतिकता आदि के दिव्य गुणों के आधार पर की गई है। इसमें गन्दगी, बुराई और अपवित्रता है ही नहीं। पूर्ण शुद्ध-बुद्ध और सुन्दर परमात्मा की कृति में दोष और दूषण सम्भव भी किस प्रकार हो सकते हैं।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति दिसम्बर 1968 पृष्ठ 37
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1968/December/v1.37
चेतन और जड़ से मिलकर बने हुए इस संसार की प्रत्येक वस्तु और व्यक्ति में अच्छाई-बुराई दोनों पाये जाते हैं। कोई भी वस्तु ऐसी न मिलेगी, जो या तो केवल बुरी हों या केवल अच्छी, दिन और रात, शुक्ल-पक्ष और कृष्ण-पक्ष की तरह हर बात के दो पहलू होते हैं। एक वस्तु जो एक स्थिति में बुरी होती है, दूसरी बार वही अच्छी दिखलाई देने लगती है। मनुष्य के भीतर स्वयं दैवी और आसुरी वृत्तियां विद्यमान् रहती हैं। हमारा स्वयं का बच्चा जब किसी समय शरारत या हठ कर रहा होता है, हमें खुद को बड़ा ही ढीठ और खराब मालूम होने लगता है और जब वही बालक दौड़कर पानी ले आता है, अपना पाठ सुना देता है, अच्छी-अच्छी प्यारी बातें करने लगता है, तब हमें बड़ा भला और अच्छा लगने लगता है। इससे वह बच्चा न तो बिल्कुल अच्छा ही माना जायेगा और न सर्वथा खराब या बुरा ही। सड़ा-गला, कूड़ा-कचरा और मल-मूत्र सर्वथा बुरी वस्तुयें मानी जाती हैं, किन्तु जब यही सब पककर खाद बन जाते हैं, तब सभी उसको एक मत से उपयोगी एवं आवश्यक मान लेते हैं और निःसन्देह वह हो भी ऐसा जाता है। तात्पर्य इस संसार की कोई भी वस्तु न तो केवल खराब है और न अच्छी। हर वस्तु के अच्छे-बुरे दोनों पहलू होते हैं। दोष रहित, निर्विकार और सदा शुद्ध तो एक मात्र परमात्म सत्ता ब्रह्म ही है।
संसार तो गुण-दोषों का सम्मिलित स्वरूप है। तथापि जिन मनीषियों और महात्माओं ने अपने को पूर्ण शुद्ध और निर्विकार बना लिया है, उनका कहना तो यहां तक है कि मंगलमय भगवान् की इस मंगलमय सृष्टि में दोष है ही नहीं। उनकी यह रचना भलाई, उत्कृष्टता, स्वच्छता, नैतिकता आदि के दिव्य गुणों के आधार पर की गई है। इसमें गन्दगी, बुराई और अपवित्रता है ही नहीं। पूर्ण शुद्ध-बुद्ध और सुन्दर परमात्मा की कृति में दोष और दूषण सम्भव भी किस प्रकार हो सकते हैं।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति दिसम्बर 1968 पृष्ठ 37
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1968/December/v1.37
बुधवार, 24 जून 2020
👉 Surprise test
एक दिन एक प्रोफ़ेसर अपनी क्लास में आते ही बोला, “चलिए, surprise test के लिए तैयार हो जाइये। सभी स्टूडेंट्स घबरा गए… कुछ किताबों के पन्ने पलटने लगे तो कुछ सर के दिए नोट्स जल्दी-जल्दी पढने लगे। “ये सब कुछ काम नहीं आएगा….”, प्रोफेसर मुस्कुराते हुए बोले, “मैं Question paper आप सबके सामने रख रहा हूँ, जब सारे पेपर बट जाएं तभी आप उसे पलट कर देखिएगा” पेपर बाँट दिए गए।
“ठीक है ! अब आप पेपर देख सकते हैं, प्रोफेसर ने निर्देश दिया। अगले ही क्षण सभी Question paper को निहार रहे थे, पर ये क्या? इसमें तो कोई प्रश्न ही नहीं था! था तो सिर्फ वाइट पेपर पर एक ब्लैक स्पॉट! ये क्या सर? इसमें तो कोई question ही नहीं है, एक छात्र खड़ा होकर बोला।
प्रोफ़ेसर बोले, “जो कुछ भी है आपके सामने है। आपको बस इसी को एक्सप्लेन करना है… और इस काम के लिए आपके पास सिर्फ 10 मिनट हैं…चलिए शुरू हो जाइए…”
स्टूडेंट्स के पास कोई चारा नहीं था…वे अपने-अपने answer लिखने लगे।
समय ख़त्म हुआ, प्रोफेसर ने answer sheets collect की और बारी-बारी से उन्हें पढने लगे। लगभग सभी ने ब्लैक स्पॉट को अपनी-अपनी तरह से समझाने की कोशिश की थी, लेकिन किसी ने भी उस स्पॉट के चारों ओर मौजूद white space के बारे में बात नहीं की थी।
प्रोफ़ेसर गंभीर होते हुए बोले, “इस टेस्ट का आपके academics से कोई लेना-देना नहीं है और ना ही मैं इसके कोई मार्क्स देने वाला हूँ…. इस टेस्ट के पीछे मेरा एक ही मकसद है। मैं आपको जीवन की एक अद्भुत सच्चाई बताना चाहता हूँ…
देखिये… इस पूरे पेपर का 99% हिस्सा सफ़ेद है…लेकिन आप में से किसी ने भी इसके बारे में नहीं लिखा और अपना 100% answer सिर्फ उस एक चीज को explain करने में लगा दिया जो मात्र 1% है… और यही बात हमारे life में भी देखने को मिलती है…
समस्याएं हमारे जीवन का एक छोटा सा हिस्सा होती हैं, लेकिन हम अपना पूरा ध्यान इन्ही पर लगा देते हैं… कोई दिन रात अपने looks को लेकर परेशान रहता है तो कोई अपने करियर को लेकर चिंता में डूबा रहता है, तो कोई और बस पैसों का रोना रोता रहता है।
क्यों नहीं हम अपनी blessings को count करके खुश होते हैं… क्यों नहीं हम पेट भर खाने के लिए भगवान को थैंक्स कहते हैं… क्यों नहीं हम अपनी प्यारी सी फैमिली के लिए शुक्रगुजार होते हैं…. क्यों नहीं हम लाइफ की उन 99% चीजों की तरफ ध्यान देते हैं जो सचमुच हमारे जीवन को अच्छा बनाती हैं।
तो चलिए आज से हम life की problems को ज़रुरत से ज्यादा seriously लेना छोडें और जीवन की छोटी-छोटी खुशियों को ENJOY करना सीखें ….
तभी हम ज़िन्दगी को सही मायने में जी पायेंग।
“ठीक है ! अब आप पेपर देख सकते हैं, प्रोफेसर ने निर्देश दिया। अगले ही क्षण सभी Question paper को निहार रहे थे, पर ये क्या? इसमें तो कोई प्रश्न ही नहीं था! था तो सिर्फ वाइट पेपर पर एक ब्लैक स्पॉट! ये क्या सर? इसमें तो कोई question ही नहीं है, एक छात्र खड़ा होकर बोला।
प्रोफ़ेसर बोले, “जो कुछ भी है आपके सामने है। आपको बस इसी को एक्सप्लेन करना है… और इस काम के लिए आपके पास सिर्फ 10 मिनट हैं…चलिए शुरू हो जाइए…”
स्टूडेंट्स के पास कोई चारा नहीं था…वे अपने-अपने answer लिखने लगे।
समय ख़त्म हुआ, प्रोफेसर ने answer sheets collect की और बारी-बारी से उन्हें पढने लगे। लगभग सभी ने ब्लैक स्पॉट को अपनी-अपनी तरह से समझाने की कोशिश की थी, लेकिन किसी ने भी उस स्पॉट के चारों ओर मौजूद white space के बारे में बात नहीं की थी।
प्रोफ़ेसर गंभीर होते हुए बोले, “इस टेस्ट का आपके academics से कोई लेना-देना नहीं है और ना ही मैं इसके कोई मार्क्स देने वाला हूँ…. इस टेस्ट के पीछे मेरा एक ही मकसद है। मैं आपको जीवन की एक अद्भुत सच्चाई बताना चाहता हूँ…
देखिये… इस पूरे पेपर का 99% हिस्सा सफ़ेद है…लेकिन आप में से किसी ने भी इसके बारे में नहीं लिखा और अपना 100% answer सिर्फ उस एक चीज को explain करने में लगा दिया जो मात्र 1% है… और यही बात हमारे life में भी देखने को मिलती है…
समस्याएं हमारे जीवन का एक छोटा सा हिस्सा होती हैं, लेकिन हम अपना पूरा ध्यान इन्ही पर लगा देते हैं… कोई दिन रात अपने looks को लेकर परेशान रहता है तो कोई अपने करियर को लेकर चिंता में डूबा रहता है, तो कोई और बस पैसों का रोना रोता रहता है।
क्यों नहीं हम अपनी blessings को count करके खुश होते हैं… क्यों नहीं हम पेट भर खाने के लिए भगवान को थैंक्स कहते हैं… क्यों नहीं हम अपनी प्यारी सी फैमिली के लिए शुक्रगुजार होते हैं…. क्यों नहीं हम लाइफ की उन 99% चीजों की तरफ ध्यान देते हैं जो सचमुच हमारे जीवन को अच्छा बनाती हैं।
तो चलिए आज से हम life की problems को ज़रुरत से ज्यादा seriously लेना छोडें और जीवन की छोटी-छोटी खुशियों को ENJOY करना सीखें ….
तभी हम ज़िन्दगी को सही मायने में जी पायेंग।
👉 मन—बुद्धि—चित्त अहंकार का परिष्कार (भाग २)
जीवन का पारमार्थिक यापन ही वह विधि है जो मनुष्य को सत्कर्मों की ओर प्रेरित करती है। निस्वार्थ भाव से दूसरों की सेवा, परोपकार तथा जीव-मात्र के प्रति प्रेम भाव रखना पारमार्थिक जीवन के लक्षण हैं। मनुष्य में इस प्रकार की सद्वृत्तियाँ केवल आध्यात्मिक मनोभूमि पर ही अंकुरित एवं पल्लवित हो सकती हैं। जीवन को आध्यात्मिक साँचे में ढाल लेने से पारमार्थिकता की सिद्धि सहज ही हो जाती है।
आध्यात्मिक जीवन ही शुद्ध, प्रबुद्ध एवं सफल जीवन है और इसी जीवन में मनुष्य को सुख-शाँति भी मिलती है। पारमार्थिक जीवन-यापन के रूप में किये जाने वाले परोपकार आदि सत्कर्म भी मनुष्य को वास्तविक सुख-शाँति नहीं दे पाते और वह कहने के लिये सत्कर्म करता हुआ भी अशाँत एवं असन्तुष्ट अन्त को प्राप्त होता है। लोग दान करते, दीन-दुखियों की सहायता करते, स्मारक तथा इमारतें बनवाते, भजन-पूजन तथा जप-जोग भी करते हैं, किन्तु फिर भी उनका जीवन सुख-शाँति की आशा में समाप्त हो जाता है।
आध्यात्मिक जीवन ही शुद्ध, प्रबुद्ध एवं सफल जीवन है और इसी जीवन में मनुष्य को सुख-शाँति भी मिलती है। पारमार्थिक जीवन-यापन के रूप में किये जाने वाले परोपकार आदि सत्कर्म भी मनुष्य को वास्तविक सुख-शाँति नहीं दे पाते और वह कहने के लिये सत्कर्म करता हुआ भी अशाँत एवं असन्तुष्ट अन्त को प्राप्त होता है। लोग दान करते, दीन-दुखियों की सहायता करते, स्मारक तथा इमारतें बनवाते, भजन-पूजन तथा जप-जोग भी करते हैं, किन्तु फिर भी उनका जीवन सुख-शाँति की आशा में समाप्त हो जाता है।
वास्तविक सुख-शाँति केवल ऊपरी दान-पुण्य करते रहने से नहीं मिल सकती। उसके लिये आध्यात्मिक स्थिति का मूलाधार अन्तःकरण को निर्मल एवं शुद्ध करना होगा। ऊपर से दिखाई देने वाले सत्कर्म भी अन्तःकरण की शुद्धता के अभाव में निष्फल चले जाते हैं। दान देते समय यदि यह विचार रहता है कि मैं कोई एक विशेष कार्य कर रहा हूँ और इसके उपलक्ष में हमको सम्मान एवं प्रतिष्ठा मिलनी चाहिए तो निश्चय ही वह दान-पुण्य के फल से वंचित रह जायेगा। किसी की कुछ भलाई करते समय यदि यह विचार रहता है कि मैं किसी पर आभार कर रहा हूँ तो वह उपकार कार्य परमार्थ की परिधि में नहीं आ सकता। किसी परमार्थ कार्य में निरहंकारिता का समावेश तभी सम्भव हो सकता है जब कि मनुष्य का अन्तःकरण निर्मल एवं शुद्ध होगा। अशुद्ध अन्तःकरण की स्थिति में लोभ, मोह, स्वार्थ एवं अहंकार आदि विकारों का आना स्वाभाविक है।
वह मनुष्य निश्चय ही सौभाग्यवान है जिसने अपने अन्तःकरण को निर्मल बना लिया है और जिसका जीवन आध्यात्मिकता की ओर उन्मुख हो रहा है। अध्यात्म जीवन का वह तत्वज्ञान है, जिसके आधार पर मनुष्य विश्व ही नहीं अखण्ड ब्रह्माण्ड के सारे ऐश्वर्य को उपलब्ध कर सकता है। अध्यात्म ज्ञान के बिना सारा वैभव—सारा ऐश्वर्य और सारी उपलब्धियाँ व्यर्थ हैं। जो भाग्यवान अपने परिश्रम, पुरुषार्थ एवं परमार्थ से थोड़ा बहुत भी अध्यात्म लाभ कर लेता है वह एक शाश्वत सुख का अधिकारी बन जाता है। व्यवहार जगत में अनेक सीखने योग्य ज्ञानों की कमी नहीं है। लोग इन्हें सीखते हैं, उन्नति करते हैं, सुख−सुविधा के अनेक साधन जुटा लेते हैं। किन्तु इस पर भी जब तक वे अध्यात्म की ओर उन्मुख नहीं होते वास्तविक सुख-शाँति नहीं पा सकते।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1961 पृष्ठ 8
👉 Create Happiness in Life
Rise up with new zest for life. Sow the seeds of livelihood (in your mental field); create an ambience of purity around you. First uproot the hazardous ‘shrubs’ of ego and jealousy. If you tell lies, cheat others, conspire something against someone, you would belittle yourself; decline and darken your own future. If you attempt so, even if you apply all your powers, you may never be able to harm any one, as much as you would harm yourself; this way you would ruin your life completely.
Be sincere and endeavor to progress with honest and just means. You will have to prove yourself before the world if you want to achieve something here. It is the law of Nature that only those who are fit and vigorous to struggle against odds have the privilege of living a progressive life. If you can’t prove your independence in resolving your own problems, you can’t expect respect from others, if you are always dependent on others; the world will know you asnothing more than a parasite or a beggar.
That is why I am calling you. Get up! Rise! Strive to shape up your life by your diligence and sincere efforts of self-refinement!! Struggle to acquire and protect your rights as a human!!! You will find that the struggle of self-evolution is most blissful part of life. Few hours of such a life are better than thousands years of a lethargic, dull, ignorant life which is like a living ‘corpse’.
📖 Akhand Jyoti, Feb. 1945
Be sincere and endeavor to progress with honest and just means. You will have to prove yourself before the world if you want to achieve something here. It is the law of Nature that only those who are fit and vigorous to struggle against odds have the privilege of living a progressive life. If you can’t prove your independence in resolving your own problems, you can’t expect respect from others, if you are always dependent on others; the world will know you asnothing more than a parasite or a beggar.
That is why I am calling you. Get up! Rise! Strive to shape up your life by your diligence and sincere efforts of self-refinement!! Struggle to acquire and protect your rights as a human!!! You will find that the struggle of self-evolution is most blissful part of life. Few hours of such a life are better than thousands years of a lethargic, dull, ignorant life which is like a living ‘corpse’.
📖 Akhand Jyoti, Feb. 1945
👉 दृष्टिकोण के अनुरूप संसार का स्वरूप (भाग १)
इस अद्भुत संसार में विभिन्न प्रवृत्तियों तथा मनोदशाओं के लोग पाये जाते हैं। एक ही स्थिति, परिस्थिति तथा दशा वाले अनेक लोगों में से कोई अत्यधिक दुःखी और व्यग्र देखे जा सकते हैं और अनेक यथासम्भव प्रसन्न तथा संतुष्ट।
निःसन्देह, ऐसे व्यक्ति विचित्र होने के साथ दयनीय भी कम नहीं होते, जो हर समय दुःखी और क्लान्त ही बने रहते हैं। मिलते ही दुःखों, कष्टों तथा कठिनाइयों का रोना लेकर बैठ जाते हैं। आय कम है, खर्चा पूरा नहीं होता, बीवी बच्चे स्वस्थ ही नहीं रहते, दफ्तर में तनाव बना रहता है, तरक्की के चांस आते ही नहीं या आकर निकल जाते हैं, कोई लाभ ही नहीं होता, बेचारे ऑफिसर के अन्याय, रोष अथवा पक्षपात के शिकार बने हुये हैं—इस प्रकार की व्यक्तिगत और समय बहुत खराब आ गया है, संसार विनाश के मुख पर खड़ा है, भ्रष्टाचार चरम-सीमा पर जा पहुंचा है, मानव जाति का भविष्य खतरे में है, समाज बहुत दूषित हो चुका है, सुधार की सम्भावनायें क्षीण हो गई हैं, बढ़ती हुई वैज्ञानिक प्रगति हानि के सिवाय लाभ तो कर ही नहीं सकती, किसी समय भी युद्ध हो सकता है, मनुष्य का घोर-पतन हो गया है, सदाचार तथा सज्जनता तो कहीं दीखती ही नहीं, मर्यादा और अनुशासन जैसी कोई वस्तु ही नहीं रह गई है—आदि जगबीती सुनाते रहते हैं। उनकी व्यथा-कथा सुनने से ऐसा पता चलता है, मानो संसार के सारे दुःख सारी चिन्तायें इन्हीं बेचारों के भाग्य में भर दी गई हैं। संसार में इन जैसा कष्ट-ग्रस्त दूसरा कोई न होगा।
विचार करने की बात है कि जिस मनुष्य के मत्थे, इतनी मुसीबतें तथा चिन्तायें हों, क्या वह सामान्य मनोदशा में संसार के सारे कार्य तथा व्यापार करता रह सकता है। किसी एक वास्तविक चिन्ता के मारे तो मनुष्य का खाना-पीना, सोना-जागना हराम हो जाता है और जब तक वह उससे मुक्ति नहीं पा लेता, चैन की सांस नहीं लेता। परिश्रम और प्रयत्न में एड़ी-चोटी का पसीना एक कर देता है। तब इतनी चिन्ताओं वाले जीवन की गाड़ी ढकेलता हुआ सामान्य गति से चलता रह सकता है—ऐसी आशा नहीं की जा सकती। ऐसे व्यक्ति की केवल दो ही दशायें सम्भव हो सकती हैं—या तो उसे विक्षिप्त हो जाना चाहिये अथवा कोई महान् पुरुष। किन्तु वह इनमें से कुछ नहीं होता। एक सामान्य सा दुःखी तथा क्लान्त व्यक्ति ही बना रहता है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति दिसम्बर 1968 पृष्ठ 37
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1968/December/v1.37
निःसन्देह, ऐसे व्यक्ति विचित्र होने के साथ दयनीय भी कम नहीं होते, जो हर समय दुःखी और क्लान्त ही बने रहते हैं। मिलते ही दुःखों, कष्टों तथा कठिनाइयों का रोना लेकर बैठ जाते हैं। आय कम है, खर्चा पूरा नहीं होता, बीवी बच्चे स्वस्थ ही नहीं रहते, दफ्तर में तनाव बना रहता है, तरक्की के चांस आते ही नहीं या आकर निकल जाते हैं, कोई लाभ ही नहीं होता, बेचारे ऑफिसर के अन्याय, रोष अथवा पक्षपात के शिकार बने हुये हैं—इस प्रकार की व्यक्तिगत और समय बहुत खराब आ गया है, संसार विनाश के मुख पर खड़ा है, भ्रष्टाचार चरम-सीमा पर जा पहुंचा है, मानव जाति का भविष्य खतरे में है, समाज बहुत दूषित हो चुका है, सुधार की सम्भावनायें क्षीण हो गई हैं, बढ़ती हुई वैज्ञानिक प्रगति हानि के सिवाय लाभ तो कर ही नहीं सकती, किसी समय भी युद्ध हो सकता है, मनुष्य का घोर-पतन हो गया है, सदाचार तथा सज्जनता तो कहीं दीखती ही नहीं, मर्यादा और अनुशासन जैसी कोई वस्तु ही नहीं रह गई है—आदि जगबीती सुनाते रहते हैं। उनकी व्यथा-कथा सुनने से ऐसा पता चलता है, मानो संसार के सारे दुःख सारी चिन्तायें इन्हीं बेचारों के भाग्य में भर दी गई हैं। संसार में इन जैसा कष्ट-ग्रस्त दूसरा कोई न होगा।
विचार करने की बात है कि जिस मनुष्य के मत्थे, इतनी मुसीबतें तथा चिन्तायें हों, क्या वह सामान्य मनोदशा में संसार के सारे कार्य तथा व्यापार करता रह सकता है। किसी एक वास्तविक चिन्ता के मारे तो मनुष्य का खाना-पीना, सोना-जागना हराम हो जाता है और जब तक वह उससे मुक्ति नहीं पा लेता, चैन की सांस नहीं लेता। परिश्रम और प्रयत्न में एड़ी-चोटी का पसीना एक कर देता है। तब इतनी चिन्ताओं वाले जीवन की गाड़ी ढकेलता हुआ सामान्य गति से चलता रह सकता है—ऐसी आशा नहीं की जा सकती। ऐसे व्यक्ति की केवल दो ही दशायें सम्भव हो सकती हैं—या तो उसे विक्षिप्त हो जाना चाहिये अथवा कोई महान् पुरुष। किन्तु वह इनमें से कुछ नहीं होता। एक सामान्य सा दुःखी तथा क्लान्त व्यक्ति ही बना रहता है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति दिसम्बर 1968 पृष्ठ 37
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1968/December/v1.37
मंगलवार, 23 जून 2020
👉 अनोखी दवाई
काफी समय से दादी की तबियत खराब थी . घर पर ही दो नर्स उनकी देखभाल करतीं थीं . डाक्टरों ने भी अपने हाथ उठा दिए थे और कहा था कि जो भी सेवा करनी है कर लीजिये . दवाइयां अपना काम नहीं कर रहीं हैं .
उसने घर में बच्चों को होस्टल से बुला लिया . काम के कारण दोनों मियां बीबी काम पर चले जाते . दोनों बच्चे बार-बार अपनी दादी को देखने जाते . दादी ने आँखें खोलीं तो बच्चे दादी से लिपट गए .
'दादी ! पापा कहते हैं कि आप बहुत अच्छा खाना बनाती हैं . हमें होस्टल का खाना अच्छा नहीं लगता . क्या आप हमारे लिए खाना बनाओगी?'
नर्स ने बच्चों को डांटा और बाहर जाने को कहा . अचानक से दादी उठी और नर्स पर बरस पड़ीं .
'आप जाओ यहाँ से . मेरे बच्चों को डांटने का हक़ किसने दिया है ? खबरदार अगर बच्चों को डांटने की कोशिश की!'
'कमाल करती हो आप . आपके लिए ही तो हम बच्चों को मना किया . बार-बार आता है तुमको देखने और डिस्टर्ब करता है . आराम भी नहीं करने देता .'
'अरे! इनको देखकर मेरी आँखों और दिल को कितना आराम मिलता है तू क्या जाने! ऐसा कर मुझे जरा नहाना है . मुझे बाथरूम तक ले चल .'
नर्स हैरान थी .
कल तक तो दवाई काम नहीं कर रहीं थी और आज ये चेंज .
सब समझ के बाहर था जैसे . नहाने के बाद दादी ने नर्स को खाना बनाने में मदद को कहा . पहले तो मना किया फिर कुछ सोचकर वह मदद करने लगी .
खाना बनने पर बच्चों को बुलाया और रसोई में ही खाने को कहा .
'दादी ! हम जमीन पर बैठकर खायेंगे आप के हाथ से, मम्मी तो टेबल पर खाना देती है और खिलाती भी नहीं कभी.'
दादी के चेहरे पर ख़ुशी थी . वह बच्चों के पास बैठकर उन्हें खिलाने लगी .
बच्चों ने भी दादी के मुंह में निबाले दिए . दादी की आँखों से आंसू बहने लगे .
'दादी ! तुम रो क्यों रही हो ? दर्द हो रहा है क्या? मैं आपके पैर दबा दूं .'
'अरे! नहीं, ये तो बस तेरे बाप को याद कर आ गए आंसू, वो भी ऐसे ही खाताा था मेरे हाथ से .
पर अब कामयाबी का भूत ऐसा चढ़ा है कि खाना खाने का भी वक्त नहीं है उसके पास और न ही माँ से मिलने का टैम
'दादी ! तुम ठीक हो जाओ, हम दोनों आपके ही हाथ से खाना खायेंगे .'
'और पढने कौन जाएगा? तेरी माँ रहने देगी क्या तुमको?'
'दादी! अब हम नहीं जायेंगे यहीं रहकर पढेंगे .' दादी ने बच्चों को सीने से लगा लिया .
नर्स ने इस इलाज को कभी पढ़ा ही नहीं था जीवन में .
अनोखी दवाई थी अपनों का साथ हिल मिल कर रहने की.
उसने घर में बच्चों को होस्टल से बुला लिया . काम के कारण दोनों मियां बीबी काम पर चले जाते . दोनों बच्चे बार-बार अपनी दादी को देखने जाते . दादी ने आँखें खोलीं तो बच्चे दादी से लिपट गए .
'दादी ! पापा कहते हैं कि आप बहुत अच्छा खाना बनाती हैं . हमें होस्टल का खाना अच्छा नहीं लगता . क्या आप हमारे लिए खाना बनाओगी?'
नर्स ने बच्चों को डांटा और बाहर जाने को कहा . अचानक से दादी उठी और नर्स पर बरस पड़ीं .
'आप जाओ यहाँ से . मेरे बच्चों को डांटने का हक़ किसने दिया है ? खबरदार अगर बच्चों को डांटने की कोशिश की!'
'कमाल करती हो आप . आपके लिए ही तो हम बच्चों को मना किया . बार-बार आता है तुमको देखने और डिस्टर्ब करता है . आराम भी नहीं करने देता .'
'अरे! इनको देखकर मेरी आँखों और दिल को कितना आराम मिलता है तू क्या जाने! ऐसा कर मुझे जरा नहाना है . मुझे बाथरूम तक ले चल .'
नर्स हैरान थी .
कल तक तो दवाई काम नहीं कर रहीं थी और आज ये चेंज .
सब समझ के बाहर था जैसे . नहाने के बाद दादी ने नर्स को खाना बनाने में मदद को कहा . पहले तो मना किया फिर कुछ सोचकर वह मदद करने लगी .
खाना बनने पर बच्चों को बुलाया और रसोई में ही खाने को कहा .
'दादी ! हम जमीन पर बैठकर खायेंगे आप के हाथ से, मम्मी तो टेबल पर खाना देती है और खिलाती भी नहीं कभी.'
दादी के चेहरे पर ख़ुशी थी . वह बच्चों के पास बैठकर उन्हें खिलाने लगी .
बच्चों ने भी दादी के मुंह में निबाले दिए . दादी की आँखों से आंसू बहने लगे .
'दादी ! तुम रो क्यों रही हो ? दर्द हो रहा है क्या? मैं आपके पैर दबा दूं .'
'अरे! नहीं, ये तो बस तेरे बाप को याद कर आ गए आंसू, वो भी ऐसे ही खाताा था मेरे हाथ से .
पर अब कामयाबी का भूत ऐसा चढ़ा है कि खाना खाने का भी वक्त नहीं है उसके पास और न ही माँ से मिलने का टैम
'दादी ! तुम ठीक हो जाओ, हम दोनों आपके ही हाथ से खाना खायेंगे .'
'और पढने कौन जाएगा? तेरी माँ रहने देगी क्या तुमको?'
'दादी! अब हम नहीं जायेंगे यहीं रहकर पढेंगे .' दादी ने बच्चों को सीने से लगा लिया .
नर्स ने इस इलाज को कभी पढ़ा ही नहीं था जीवन में .
अनोखी दवाई थी अपनों का साथ हिल मिल कर रहने की.
👉 Crying Is of No Use
God has gifted you with enormous abilities and potentials and sent you to live a graceful life. HE does not want to see that one of his children is honored on a throne and the other suffers a downtrodden, homeless life. All the children are alike and beloved to the father; he cares for everyone; and wants to see everyone happy.
If you are unhappy or tearful, it is not HIS flaw. You are making yourself unhappy, because of your ignorance, vices and infirmities, ruining the opportunities bestowed by HIM. Human life is the best thing God has blessed upon you. Look at the potentials of your body, your mind; these are the tools, by which you can rise, progress from wherever you are. Crying of the scarcities or adversities, screaming for help, cursing your destiny won’t do any good to you.
You have to recognize your own strength and make best use of it in the given circumstances. You are the architect of your own destiny. Those who make constructive use of the powers bequeathed by God are always happy. Those who aspire a lot but make no efforts, or do not struggle with the adverse circumstances, do nothing but cry and hope of some help from somewhere, remain unhappy or worried most of their life. Come on! Get up! Realize your true existence! Awaken your self-dignity. There is no trouble, no hardship or misfortune, which can rule over you. You are born to live happily and rise. Know your powers, assemble and make use of them with sincere, thoughtful efforts.
📖 Akhand Jyoti, Nov. 1944
If you are unhappy or tearful, it is not HIS flaw. You are making yourself unhappy, because of your ignorance, vices and infirmities, ruining the opportunities bestowed by HIM. Human life is the best thing God has blessed upon you. Look at the potentials of your body, your mind; these are the tools, by which you can rise, progress from wherever you are. Crying of the scarcities or adversities, screaming for help, cursing your destiny won’t do any good to you.
You have to recognize your own strength and make best use of it in the given circumstances. You are the architect of your own destiny. Those who make constructive use of the powers bequeathed by God are always happy. Those who aspire a lot but make no efforts, or do not struggle with the adverse circumstances, do nothing but cry and hope of some help from somewhere, remain unhappy or worried most of their life. Come on! Get up! Realize your true existence! Awaken your self-dignity. There is no trouble, no hardship or misfortune, which can rule over you. You are born to live happily and rise. Know your powers, assemble and make use of them with sincere, thoughtful efforts.
📖 Akhand Jyoti, Nov. 1944
👉 मन—बुद्धि—चित्त अहंकार का परिष्कार (भाग १)
संसार की हर वस्तु नाशवान है—मनुष्य का शरीर भी। किन्तु इन नाश होने वाली वस्तुओं में मनुष्य-जीवन सबसे अधिक मूल्यवान् वस्तु है। संसार की हर वस्तु का अपना-अपना कुछ उपयोग है। उपयोगिता के आधार पर नगण्य वस्तु का भी मूल्य बढ़ जाता है। जो पेड़ जंगल में सूख जाता है। वह वर्षा के पानी में भीग-भीगकर एक दिन गलकर नष्ट हो जाता है। उसका कुछ भी मूल्याँकन नहीं हो पाता। किन्तु जब वही सूखा वृक्ष इधन बनकर उपयोगी हो जाता है तब उसका मूल्य बढ़ जाता है। लोग उसे जंगल से काटकर बाजार में बेचते हैं। जरूरत मन्द खरीद ले जाते और घरों में ठीक से रखते हैं। यदि उसी वृक्ष को और अधिक उपयोगिता का अवसर मिल जाता है तो उसका मूल्य,महत्व और भी बढ़ जाता है। अलमारी शहतीर, कपाट, मेज, कुर्सी अथवा इसी प्रकार की उपयोगिता में आकर उसी सूखे वृक्ष का मूल्य बहुत बढ़ जाता है।
जो वस्तु किसी प्रकार के सुविधा-साधन अथवा सौंदर्य-सुख बढ़ाने में जितनी सहायक होती है वह उतनी ही उपयोगी मानी जा सकती है और उसी उपयोगिता के आधार पर उसका मूल्य बढ़ जाता है।
मानव-शरीर संसार की बहुत महत्वपूर्ण तथा चरम उपयोगिता की वस्तु है। इसके आधार पर संसार में बड़े-बड़े विलक्षण कार्य किये जाते हैं। इसी के सदुपयोग से मनुष्य धन, मान, पद, प्रतिष्ठा, यश, ऐश्वर्य और यहाँ तक कि मुक्ति-मोक्ष का अमृत पद प्राप्त कर लेता है। संसार की सारी सुन्दरता, सभ्यता, संस्कृति, साहित्य एवं साधना इसी शरीर के आधार पर ही सम्भव होती तभी है। किन्तु यह सम्भव होती है जब मनुष्य सत्कर्मों द्वारा शरीर का सदुपयोग करता है।
मानव-शरीर के मूल्य एवं महत्व की अभिव्यक्ति इसकी सदुपयोगिता के पुण्य से ही होती है। वैसे यह पंचभौतिक शरीर भी मिट्टी है। एक दिन नष्ट होकर मिट्टी में मिल जायेगा। इसके परमाणु बिखर जायेंगे, पाँचों तत्व अपने विराट रूप में मिल जायेंगे। फिर यह चलती-फिरती हँसती-बोलती और काम-काज करने वाली तस्वीर कभी देखी न जा सकेगी। इसीलिए बुद्धिमान जीवन के अणु क्षण का सदुपयोग करके नश्वर शरीर के नष्ट हो जाने पर भी अविनश्वर होकर वर्तमान रहते हैं।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1961 पृष्ठ 8
जो वस्तु किसी प्रकार के सुविधा-साधन अथवा सौंदर्य-सुख बढ़ाने में जितनी सहायक होती है वह उतनी ही उपयोगी मानी जा सकती है और उसी उपयोगिता के आधार पर उसका मूल्य बढ़ जाता है।
मानव-शरीर संसार की बहुत महत्वपूर्ण तथा चरम उपयोगिता की वस्तु है। इसके आधार पर संसार में बड़े-बड़े विलक्षण कार्य किये जाते हैं। इसी के सदुपयोग से मनुष्य धन, मान, पद, प्रतिष्ठा, यश, ऐश्वर्य और यहाँ तक कि मुक्ति-मोक्ष का अमृत पद प्राप्त कर लेता है। संसार की सारी सुन्दरता, सभ्यता, संस्कृति, साहित्य एवं साधना इसी शरीर के आधार पर ही सम्भव होती तभी है। किन्तु यह सम्भव होती है जब मनुष्य सत्कर्मों द्वारा शरीर का सदुपयोग करता है।
मानव-शरीर के मूल्य एवं महत्व की अभिव्यक्ति इसकी सदुपयोगिता के पुण्य से ही होती है। वैसे यह पंचभौतिक शरीर भी मिट्टी है। एक दिन नष्ट होकर मिट्टी में मिल जायेगा। इसके परमाणु बिखर जायेंगे, पाँचों तत्व अपने विराट रूप में मिल जायेंगे। फिर यह चलती-फिरती हँसती-बोलती और काम-काज करने वाली तस्वीर कभी देखी न जा सकेगी। इसीलिए बुद्धिमान जीवन के अणु क्षण का सदुपयोग करके नश्वर शरीर के नष्ट हो जाने पर भी अविनश्वर होकर वर्तमान रहते हैं।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1961 पृष्ठ 8
👉 आत्म-निर्माण का पुण्य-पथ (अंतिम भाग)
किस व्यक्ति में क्या दुष्प्रवृत्तियां हैं और उनका निवारण किन विचारों से, किस स्वाध्याय से, किस मनन से, किस चिन्तन से, किस साधन अभ्यास से किया जाय, इसकी विवेचना यहां नहीं हो सकती। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति की मनोभूमि में दूसरों की अपेक्षा कुछ भिन्नता होती है और उस भिन्नता को ध्यान में रखकर ही व्यक्ति की अन्तःभूमिका को शुद्ध करने का मार्ग दर्शन संभव हो सकता है। इसी प्रकार किस व्यक्ति में कौन-सी सत्प्रवृत्तियां विकासोन्मुख हैं और उनका अभिवर्धन करने के लिए इस प्रकार का स्वाध्याय, सत्संग, मनन, चिन्तन, ध्यान, संकल्प एवं अभ्यास आवश्यक है इसका विवेचन भी लेख रूप में नहीं हो सकता क्योंकि व्यक्ति की मनोभूमि का स्तर पहचान कर ही उनका भी निर्णय हो सकना संभव है।
साधना का उद्देश्य है—मनोभूमि का परिष्कार। आत्मा के गुह्य गह्वर में बहुत कुछ ही नहीं सब कुछ भी भरा हुआ है। परमात्मा की सारी सत्ता एवं शक्ति उसके पुत्र आत्मा को स्वभावतः प्राप्त है। मनुष्य ही ईश्वर का उत्तराधिकारी युवराज है। उसकी संभावनाएं महान हैं। वह महान पुरुष, नर रत्न, ऋषि महर्षि, सिद्ध समर्थ, देव अवतार सब कुछ है। उसकी सारी शक्तियों को जिन दुष्प्रवृत्तियों ने दबाकर एक निम्न स्तर के प्राणी की स्थिति में डाल रखा है, उन दुष्प्रवृत्तियों को हटाना एक महान पुरुषार्थ है। इसी से सारे भव बन्धन टूटते हैं। इसी से तुच्छता का महानता में परिवर्तन होता है। इसी से आत्मा की परमात्मा में परिणिति होती है। इस प्रकार की सफलता प्राप्त कर सकना अपार धन, बड़ा पद, विस्तृत यश, विपुल बल और अनन्त ऐश्वर्य प्राप्त करने से भी बढ़कर है। क्योंकि यह वस्तुएं तो जीवन काल तक ही सुख पहुंचा सकने में समर्थ हैं पर दुष्प्रवृत्तियों से छुटकारा प्राप्त जीवनमुक्त आत्मा तो सदा के लिए ही अनन्त आनन्द का अधिकारी हो जाता है।
आत्म शुद्धि की साधना, भौतिक दृष्टि से, लौकिक उन्नति और सुख सुविधा की दृष्टि से बहुत उपयोगी है। इस पथ पर चलने वाला पथिक दिन-दिन इस संसार में अधिकाधिक आनन्द दायक परिस्थितियां उपलब्ध करता जाता है। उसकी प्रगति के द्वार तेजी से खुलते जाते हैं। पारलौकिक दृष्टि से तो यह आत्म शुद्धि की साधना महान पुरुषार्थ ही है। जीवन लक्ष की पूर्ति इसी में है। मुक्ति और स्वर्ग का एक मात्र मार्ग भी यही है।
.... समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति अगस्त 1961 पृष्ठ 11
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1961/August/v1.11
साधना का उद्देश्य है—मनोभूमि का परिष्कार। आत्मा के गुह्य गह्वर में बहुत कुछ ही नहीं सब कुछ भी भरा हुआ है। परमात्मा की सारी सत्ता एवं शक्ति उसके पुत्र आत्मा को स्वभावतः प्राप्त है। मनुष्य ही ईश्वर का उत्तराधिकारी युवराज है। उसकी संभावनाएं महान हैं। वह महान पुरुष, नर रत्न, ऋषि महर्षि, सिद्ध समर्थ, देव अवतार सब कुछ है। उसकी सारी शक्तियों को जिन दुष्प्रवृत्तियों ने दबाकर एक निम्न स्तर के प्राणी की स्थिति में डाल रखा है, उन दुष्प्रवृत्तियों को हटाना एक महान पुरुषार्थ है। इसी से सारे भव बन्धन टूटते हैं। इसी से तुच्छता का महानता में परिवर्तन होता है। इसी से आत्मा की परमात्मा में परिणिति होती है। इस प्रकार की सफलता प्राप्त कर सकना अपार धन, बड़ा पद, विस्तृत यश, विपुल बल और अनन्त ऐश्वर्य प्राप्त करने से भी बढ़कर है। क्योंकि यह वस्तुएं तो जीवन काल तक ही सुख पहुंचा सकने में समर्थ हैं पर दुष्प्रवृत्तियों से छुटकारा प्राप्त जीवनमुक्त आत्मा तो सदा के लिए ही अनन्त आनन्द का अधिकारी हो जाता है।
आत्म शुद्धि की साधना, भौतिक दृष्टि से, लौकिक उन्नति और सुख सुविधा की दृष्टि से बहुत उपयोगी है। इस पथ पर चलने वाला पथिक दिन-दिन इस संसार में अधिकाधिक आनन्द दायक परिस्थितियां उपलब्ध करता जाता है। उसकी प्रगति के द्वार तेजी से खुलते जाते हैं। पारलौकिक दृष्टि से तो यह आत्म शुद्धि की साधना महान पुरुषार्थ ही है। जीवन लक्ष की पूर्ति इसी में है। मुक्ति और स्वर्ग का एक मात्र मार्ग भी यही है।
.... समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति अगस्त 1961 पृष्ठ 11
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1961/August/v1.11
सोमवार, 22 जून 2020
👉 समस्या
एक राजा ने बहुत ही सुंदर ''महल'' बनावाया और महल के मुख्य द्वार पर एक ''गणित का सूत्र'' लिखवाया.. और एक घोषणा की कि इस सूत्र से यह 'द्वार खुल जाएगा और जो भी इस ''सूत्र'' को ''हल'' कर के ''द्वार'' खोलेगा में उसे अपना उत्तराधीकारी घोषित कर दूंगा!
राज्य के बड़े बड़े गणितज्ञ आये और 'सूत्र देखकर लोट गए, किसी को कुछ समझ नहीं आया! आख़री दिन आ चुका था उस दिन 3 लोग आये और कहने लगे हम इस सूत्र को हल कर देंगे।
उसमे 2 तो दूसरे राज्य के बड़े गणितज्ञ अपने साथ बहुत से पुराने गणित के सूत्रो की पुस्तकों सहित आये! लेकिन एक व्यक्ति जो ''साधक'' की तरह नजर आ रहा था सीधा साधा कुछ भी साथ नहीं लाया था!
उसने कहा मै यहां बैठा हूँ पहले इन्हें मौक़ा दिया जाए! दोनों गहराई से सूत्र हल करने में लग गए लेकिन द्वार नहीं खोल पाये और अपनी हार मान ली। अंत में उस साधक को बुलाया गया और कहा कि आप सूत्र हल करिये समय शुरू हो चुका है।
साधक ने आँख खोली और सहज मुस्कान के साथ 'द्वार' की ओर गया! साधक ने धीरे से द्वार को धकेला और यह क्या? द्वार खुल गया.. राजा ने साधक से पूछा -- आप ने ऐसा क्या किया?
साधक ने बताया जब में 'ध्यान' में बैठा तो सबसे पहले अंतर्मन से आवाज आई, कि पहले ये जाँच तो कर ले कि सूत्र है भी या नहीं.. इसके बाद इसे हल ''करने की सोचना'' और मैंने वही किया!
कई बार जिंदगी में कोई ''समस्या'' होती ही नहीं और हम ''विचारो'' में उसे बड़ा बना लेते है।
मित्रों, हर समस्या का उचित इलाज आपकी ''आत्मा'' की आवाज है!
राज्य के बड़े बड़े गणितज्ञ आये और 'सूत्र देखकर लोट गए, किसी को कुछ समझ नहीं आया! आख़री दिन आ चुका था उस दिन 3 लोग आये और कहने लगे हम इस सूत्र को हल कर देंगे।
उसमे 2 तो दूसरे राज्य के बड़े गणितज्ञ अपने साथ बहुत से पुराने गणित के सूत्रो की पुस्तकों सहित आये! लेकिन एक व्यक्ति जो ''साधक'' की तरह नजर आ रहा था सीधा साधा कुछ भी साथ नहीं लाया था!
उसने कहा मै यहां बैठा हूँ पहले इन्हें मौक़ा दिया जाए! दोनों गहराई से सूत्र हल करने में लग गए लेकिन द्वार नहीं खोल पाये और अपनी हार मान ली। अंत में उस साधक को बुलाया गया और कहा कि आप सूत्र हल करिये समय शुरू हो चुका है।
साधक ने आँख खोली और सहज मुस्कान के साथ 'द्वार' की ओर गया! साधक ने धीरे से द्वार को धकेला और यह क्या? द्वार खुल गया.. राजा ने साधक से पूछा -- आप ने ऐसा क्या किया?
साधक ने बताया जब में 'ध्यान' में बैठा तो सबसे पहले अंतर्मन से आवाज आई, कि पहले ये जाँच तो कर ले कि सूत्र है भी या नहीं.. इसके बाद इसे हल ''करने की सोचना'' और मैंने वही किया!
कई बार जिंदगी में कोई ''समस्या'' होती ही नहीं और हम ''विचारो'' में उसे बड़ा बना लेते है।
मित्रों, हर समस्या का उचित इलाज आपकी ''आत्मा'' की आवाज है!
👉 युग निर्माण योजना
युग निर्माण योजना की सबसे बड़ी संपत्ति उस परिवार के परिजनों की निष्ठा है, जिसे कूटनीति एवं व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के आधार पर नहीं, धर्म और अध्यात्म की निष्ठा के आधार पर बोया, उगाया और बढ़ाया गया है। किसी को पदाधिकारी बनने की इच्छा नहीं, फोटो छपाने के लिए एक भी तैयार नहीं, नेता बनने के लिए कोई उत्सुक नहीं, कुछ कमाने के लिए नहीं, कुछ गंवाने के लिए जो आए हों उनके बीच इस प्रकार कल छल छद्म लेकर कोई घुसने का भी प्रयत्न करे तो उस मोर का पर लगाने वाले कौवे को सहज ही पहचान लिया जाता है और चलता कर दिया जाता है । यही कारण है कि इस विकासोन्मुखं हलचल में सम्मिलित होने के लिए कई व्यक्तिगत महत्वाकांक्षी आए पर वे अपनी दाल गलती न देखकर वापस लौट गए। यहाँ निस्पृह और भावनाशील, परमार्थ परायण, निष्ठा के धनी को ही सिर माथे पर रखा जाता है। धूर्तता को सिर पर पाँव रखकर उलटे लौटना पड़ता है। यह विशेषता इस संगठन में न होती तो महत्वकांक्षाओं ने अब तक इस अभियान को भी कब का निगलकर हजम कर लिया होता।
अखबारों में अपने लिए कोई स्थान नहीं, उन बेचारों को राजनीतिक हथकंडे और सिनेमा के करतब छापने से ही फुरसत नहीं, धनियों को अपनी यश-लोलुपता तथा धंधे-पानी का कुछ जुगाड़ बनता नहीं दीखता, इस दृष्टि से मिशन को साधनहीन कहा जा सकता है पर निष्ठा से भरे-पूरे और विश्व मानव की सेवा के लिए कुछ बढ़ चढ़कर अनुदान प्रस्तुत करने के लिए व्याकुल अंत: करण ही अपनी वह शक्ति है जिसके आधार पर देश के नहीं विश्व के कोने-कोने में, घर-घर और जन-जन के मन में इस प्रकाश की किरणें पहुँचने की आशा की जा रही है। एक से दस- एक से दस-एक से दस की रट लगाए हुए हम आज के थोड़े से व्यक्ति कल जन-मानस पर छा जाएंगे। इसे किसी को आश्चर्य नहीं मानना चाहिए। लगन संसार की सबसे बड़ी शक्ति है। दर्शकों को कार्यान्वित करने के लिए आतुर व्यक्ति भी यदि युग परिवर्तन के स्वप्न साकार नहीं कर सकते तो फिर और कौन उस भार को वहन करेगा?
इन आरंभिक दिनों में कुछ साधन मिल जाते तो कितना अच्छा होता। समाचार पत्रों ने अभियान का महत्व समझा होता और इन उदीयमान प्रवृत्तियों के प्रचार कार्य को अपनी कुछ पंक्तियों में स्थान दिया होता तो और भी अधिक सुविधा होती। कुछ साधन संपन्न ऐसे भी होते जो यश का बदला पाने की इच्छा के बिना पैसे से सहायता कर सके होते, कुछ कलाकार, साहित्यकार, गायक ऐसे मिले होते जो धन बटोरने की मृगतृष्णा में अपनी विभूतियाँ भी खो बैठने की अपेक्षा उन्हें नव-निर्माण के लिए समर्पित कर सके होते, कुछ प्रतिभाशाली लोग राजनीति की कुचालों में उलझे बार-बार लातें बटोरते फिरने की ललक छोड़कर अपने व्यक्तित्व को लोक-मंगल की इस युग पुकार को सुन सकने में लगा सके होते तो कितना अच्छा होता।
पर अभी उसका समय कहाँ आया है? फूल दिखने में देर है। अभी तो यहाँ बोने के दिन चल रहे हैं । भौरे, मधुमक्खियाँ, तितलियाँ आयेंगी तो बहुत, कलाप्रेमी और सौंदर्यपारखी भी चक्कर काटेंगे, पर इन बुआई के दिनों में एक घड़ा पानी और एक थैला खाद लेकर कौन आ सकता है? इस दुनिया में सफलता मिलने पर जयमाला पहनाई जाती है। इसके लिए प्रयास कर रहे साधनहीन को तो व्यंग्य-उपहास और तिरस्कार का ही पात्र बनाया जाता है। यह आशा हमें भी करनी चाहिए।
साधन संपन्न का यह स्वभाव होता है कि वह हर विशेषता को, हर प्रतिभा को अपने इशारे पर चलना चाहता है पर विश्व को नई दिशा देने वाले उनके पीछे चलने के लिए नहीं, उन्हीं की विकृति दिशा को सुधारने के लिए सन्नद्ध हैं। ऐसी स्थिति में उनमें खीज, असहयोग, उपवास तथा विरोध के भाव में, तो कोई आश्चर्य नहीं। निराशा की कोई बात नहीं।
अपना उपास्य जन-देवता है। उसकी शक्ति सबसे बड़ी है। जन-मानस का उभार शक्ति का स्रोत है। वह जिधर निकलता है उधर ही रास्ता बनता चला जाता है। नव-निर्माण की गंगा का अवतरण अपना रास्ता भी बना ही लेगा। मनुष्य में देवत्व के उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण का प्रयास आज अपने शैशव में भी आशा और विश्वास की हरियाली लहलहा रही है। कल उस पर फूल और फल भी लदे हुए देखे जा सकेंगे। एक से दस बनने की जो शपथ इस मिशन के परिजनों ने ली है वह अपना रंग दिखाएगी। असंभव दीखने वाला कार्य संभव हो सकेगा।
📖 वांग्मय ६६ ३.२१,२२
अखबारों में अपने लिए कोई स्थान नहीं, उन बेचारों को राजनीतिक हथकंडे और सिनेमा के करतब छापने से ही फुरसत नहीं, धनियों को अपनी यश-लोलुपता तथा धंधे-पानी का कुछ जुगाड़ बनता नहीं दीखता, इस दृष्टि से मिशन को साधनहीन कहा जा सकता है पर निष्ठा से भरे-पूरे और विश्व मानव की सेवा के लिए कुछ बढ़ चढ़कर अनुदान प्रस्तुत करने के लिए व्याकुल अंत: करण ही अपनी वह शक्ति है जिसके आधार पर देश के नहीं विश्व के कोने-कोने में, घर-घर और जन-जन के मन में इस प्रकाश की किरणें पहुँचने की आशा की जा रही है। एक से दस- एक से दस-एक से दस की रट लगाए हुए हम आज के थोड़े से व्यक्ति कल जन-मानस पर छा जाएंगे। इसे किसी को आश्चर्य नहीं मानना चाहिए। लगन संसार की सबसे बड़ी शक्ति है। दर्शकों को कार्यान्वित करने के लिए आतुर व्यक्ति भी यदि युग परिवर्तन के स्वप्न साकार नहीं कर सकते तो फिर और कौन उस भार को वहन करेगा?
इन आरंभिक दिनों में कुछ साधन मिल जाते तो कितना अच्छा होता। समाचार पत्रों ने अभियान का महत्व समझा होता और इन उदीयमान प्रवृत्तियों के प्रचार कार्य को अपनी कुछ पंक्तियों में स्थान दिया होता तो और भी अधिक सुविधा होती। कुछ साधन संपन्न ऐसे भी होते जो यश का बदला पाने की इच्छा के बिना पैसे से सहायता कर सके होते, कुछ कलाकार, साहित्यकार, गायक ऐसे मिले होते जो धन बटोरने की मृगतृष्णा में अपनी विभूतियाँ भी खो बैठने की अपेक्षा उन्हें नव-निर्माण के लिए समर्पित कर सके होते, कुछ प्रतिभाशाली लोग राजनीति की कुचालों में उलझे बार-बार लातें बटोरते फिरने की ललक छोड़कर अपने व्यक्तित्व को लोक-मंगल की इस युग पुकार को सुन सकने में लगा सके होते तो कितना अच्छा होता।
पर अभी उसका समय कहाँ आया है? फूल दिखने में देर है। अभी तो यहाँ बोने के दिन चल रहे हैं । भौरे, मधुमक्खियाँ, तितलियाँ आयेंगी तो बहुत, कलाप्रेमी और सौंदर्यपारखी भी चक्कर काटेंगे, पर इन बुआई के दिनों में एक घड़ा पानी और एक थैला खाद लेकर कौन आ सकता है? इस दुनिया में सफलता मिलने पर जयमाला पहनाई जाती है। इसके लिए प्रयास कर रहे साधनहीन को तो व्यंग्य-उपहास और तिरस्कार का ही पात्र बनाया जाता है। यह आशा हमें भी करनी चाहिए।
साधन संपन्न का यह स्वभाव होता है कि वह हर विशेषता को, हर प्रतिभा को अपने इशारे पर चलना चाहता है पर विश्व को नई दिशा देने वाले उनके पीछे चलने के लिए नहीं, उन्हीं की विकृति दिशा को सुधारने के लिए सन्नद्ध हैं। ऐसी स्थिति में उनमें खीज, असहयोग, उपवास तथा विरोध के भाव में, तो कोई आश्चर्य नहीं। निराशा की कोई बात नहीं।
अपना उपास्य जन-देवता है। उसकी शक्ति सबसे बड़ी है। जन-मानस का उभार शक्ति का स्रोत है। वह जिधर निकलता है उधर ही रास्ता बनता चला जाता है। नव-निर्माण की गंगा का अवतरण अपना रास्ता भी बना ही लेगा। मनुष्य में देवत्व के उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण का प्रयास आज अपने शैशव में भी आशा और विश्वास की हरियाली लहलहा रही है। कल उस पर फूल और फल भी लदे हुए देखे जा सकेंगे। एक से दस बनने की जो शपथ इस मिशन के परिजनों ने ली है वह अपना रंग दिखाएगी। असंभव दीखने वाला कार्य संभव हो सकेगा।
📖 वांग्मय ६६ ३.२१,२२
👉 Don’t be Afraid of Death
Most people are scared of death. The hidden cause of this peculiar psychology is said to be that the unconscious mind is apprehensive of the consequences of the sins committed by the individual self. It is a common observation that no one
wants to face tragic or adverse situations and tries to evade even the thought of any terrorizing experience or dolorous moment. The possibilities of punitive results of wrong actions of one life in the life after death therefore make it such a horrifying event.
Ignorance compounds this fear because one generally prefers moving into familiar or known directions; death appears to be a transit point to entering into a dark, totally new, suspicious phase of uncertain existence. If the individual self, the unconscious mind was sure to transit into a brighter, better phase of life after death, why would it be afraid? But this inner strength, this confidence arises only if one has listened to the conscience, cared to awaken the inner self. If you want to conquer over the fear of death, you should keep a vigilant watch on your desires, your thoughts and try to mold them and all your activities in the righteous direction, as guided by great sages and saints. This way you will adopt religion in your conduct, which will inspire inner refinement.
Gradually your inner self will experience that death is only an opportunity to enter newer lights, to augment your auspicious activities and experiences. All fear and suspicions will evaporate and then death will appear to be only a natural activity like changing a dress. With greater enlightenment, you will welcome it as a chance for evolution of the individual consciousness, which is ‘you’.
📖 Akhand Jyoti, Sept. 1944
wants to face tragic or adverse situations and tries to evade even the thought of any terrorizing experience or dolorous moment. The possibilities of punitive results of wrong actions of one life in the life after death therefore make it such a horrifying event.
Ignorance compounds this fear because one generally prefers moving into familiar or known directions; death appears to be a transit point to entering into a dark, totally new, suspicious phase of uncertain existence. If the individual self, the unconscious mind was sure to transit into a brighter, better phase of life after death, why would it be afraid? But this inner strength, this confidence arises only if one has listened to the conscience, cared to awaken the inner self. If you want to conquer over the fear of death, you should keep a vigilant watch on your desires, your thoughts and try to mold them and all your activities in the righteous direction, as guided by great sages and saints. This way you will adopt religion in your conduct, which will inspire inner refinement.
Gradually your inner self will experience that death is only an opportunity to enter newer lights, to augment your auspicious activities and experiences. All fear and suspicions will evaporate and then death will appear to be only a natural activity like changing a dress. With greater enlightenment, you will welcome it as a chance for evolution of the individual consciousness, which is ‘you’.
📖 Akhand Jyoti, Sept. 1944
👉 आत्म-निर्माण का पुण्य-पथ (भाग ३)
महात्मा गांधी के साबरमती आश्रम में रहने वाले प्रत्येक आश्रम वासी को अपनी डायरी रखनी पड़ती थी जिसमें उनके विचारों और कार्यों का विवरण रहता था। गांधी जी के सामने वे सभी डायरियां प्रस्तुत की जाती थीं और वे उन्हें ध्यान पूर्वक पढ़कर सभी को आवश्यक परामर्श एवं मार्ग दर्शन प्रदान करते थे। यह पद्धति उत्तम है। परिवार की व्यवस्था सम्बन्धी समस्याओं पर विचार करने के लिये घर के सब सदस्य मिलकर विचार कर लिया करें और उलझनों को सुलझाने का उपाय सोचा करें तो कितनी ही कठिनाइयां तथा समस्याएं आसानी से हल हो सकती हैं।
मन में उठने वाले कुविचारों की हानि भयंकरता तथा व्यर्थता पर विचार करना तथा उनके प्रतिपक्षी सद्विचारों को मन में स्थान देना, आत्म सुधार के लिए एक अच्छा मार्ग है। विचारों को विचारों से ही काटा जाता है। सद्विचारों की प्रबलता एवं प्रतिष्ठा बढ़ाने और कुविचारों का तिरस्कार एवं बहिष्कार करने से ही उनका अन्त हो सकता है। आत्म निर्माण के लिए इस मार्ग का अवलम्बन करना आवश्यक है।
जिस प्रकार सांसारिक कला कौशल एवं ज्ञान विज्ञान की शिक्षा के लिए व्यवहारिक मार्ग दर्शन करने वाले शिक्षक की आवश्यकता होती है उसी प्रकार आत्म निर्माण के लिये भी एक ऐसे मार्ग दर्शक की आवश्यकता होती है जिसे आत्म निर्माण का व्यक्तिगत अनुभव हो। गुरु की आवश्यकता पर आध्यात्म ग्रन्थों में बहुत जोर दिया गया है, कारण कि अकेले अपने आपको अपने दोष ढूंढ़ने में बहुत कठिनाई होती है। अपने आप अपने दुर्गुण दिखाई नहीं देते और न अपनी प्रगति का ठीक प्रकार पता चल पाता है। जिस प्रकार छात्रों के ज्ञान और श्रम का अन्दाज परीक्षक ही ठीक प्रकार लगा सकते हैं इसी प्रकार साधक की आन्तरिक स्थिति का पता भी अनुभवी मार्ग दर्शक ही लगा सकते हैं। रोगी अपने आप अपने रोग का निदान और चिकित्सा ठीक प्रकार नहीं कर पाता उसी प्रकार अपनी प्रगति और अवनति को ठीक प्रकार समझना और आगे का मार्ग ढूंढ़ना भी हर किसी के लिए सरल नहीं होता। इसमें उपयुक्त मार्ग दर्शक की अपेक्षा होती है। प्राचीन काल में आत्म निर्माण की महान शिक्षा हर व्यक्ति के लिए एक नितान्त अनिवार्य आवश्यकता मानी जाती थी और तब गुरु का वरण भी एक आवश्यक धर्म कृत्य था। आज की और प्राचीन काल की अनेक परिस्थितियों और आवश्यकताओं में यद्यपि भारी अन्तर हो गया है फिर भी आत्म निर्माण के लिए उपयुक्त मार्ग दर्श की आवश्यकता ज्यों की त्यों बनी हुई है। जिसने यह आवश्यकता पूर्ण करली उसने इस संग्राम का एक बड़ा मोर्चा फतह कर लिया, ऐसा ही मानना चाहिए।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति अगस्त 1961 पृष्ठ 10
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1961/August/v1.10
मन में उठने वाले कुविचारों की हानि भयंकरता तथा व्यर्थता पर विचार करना तथा उनके प्रतिपक्षी सद्विचारों को मन में स्थान देना, आत्म सुधार के लिए एक अच्छा मार्ग है। विचारों को विचारों से ही काटा जाता है। सद्विचारों की प्रबलता एवं प्रतिष्ठा बढ़ाने और कुविचारों का तिरस्कार एवं बहिष्कार करने से ही उनका अन्त हो सकता है। आत्म निर्माण के लिए इस मार्ग का अवलम्बन करना आवश्यक है।
जिस प्रकार सांसारिक कला कौशल एवं ज्ञान विज्ञान की शिक्षा के लिए व्यवहारिक मार्ग दर्शन करने वाले शिक्षक की आवश्यकता होती है उसी प्रकार आत्म निर्माण के लिये भी एक ऐसे मार्ग दर्शक की आवश्यकता होती है जिसे आत्म निर्माण का व्यक्तिगत अनुभव हो। गुरु की आवश्यकता पर आध्यात्म ग्रन्थों में बहुत जोर दिया गया है, कारण कि अकेले अपने आपको अपने दोष ढूंढ़ने में बहुत कठिनाई होती है। अपने आप अपने दुर्गुण दिखाई नहीं देते और न अपनी प्रगति का ठीक प्रकार पता चल पाता है। जिस प्रकार छात्रों के ज्ञान और श्रम का अन्दाज परीक्षक ही ठीक प्रकार लगा सकते हैं इसी प्रकार साधक की आन्तरिक स्थिति का पता भी अनुभवी मार्ग दर्शक ही लगा सकते हैं। रोगी अपने आप अपने रोग का निदान और चिकित्सा ठीक प्रकार नहीं कर पाता उसी प्रकार अपनी प्रगति और अवनति को ठीक प्रकार समझना और आगे का मार्ग ढूंढ़ना भी हर किसी के लिए सरल नहीं होता। इसमें उपयुक्त मार्ग दर्शक की अपेक्षा होती है। प्राचीन काल में आत्म निर्माण की महान शिक्षा हर व्यक्ति के लिए एक नितान्त अनिवार्य आवश्यकता मानी जाती थी और तब गुरु का वरण भी एक आवश्यक धर्म कृत्य था। आज की और प्राचीन काल की अनेक परिस्थितियों और आवश्यकताओं में यद्यपि भारी अन्तर हो गया है फिर भी आत्म निर्माण के लिए उपयुक्त मार्ग दर्श की आवश्यकता ज्यों की त्यों बनी हुई है। जिसने यह आवश्यकता पूर्ण करली उसने इस संग्राम का एक बड़ा मोर्चा फतह कर लिया, ऐसा ही मानना चाहिए।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति अगस्त 1961 पृष्ठ 10
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1961/August/v1.10
शुक्रवार, 19 जून 2020
👉 मूर्ख कौन?
किसी गांव में एक सेठ रहता था. उसका एक ही बेटा था, जो व्यापार के काम से परदेस गया हुआ था. सेठ की बहू एक दिन कुएँ पर पानी भरने गई. घड़ा जब भर गया तो उसे उठाकर कुएँ के मुंडेर पर रख दिया और अपना हाथ-मुँह धोने लगी. तभी कहीं से चार राहगीर वहाँ आ पहुँचे. एक राहगीर बोला, "बहन, मैं बहुत प्यासा हूँ. क्या मुझे पानी पिला दोगी?"
सेठ की बहू को पानी पिलाने में थोड़ी झिझक महसूस हुई, क्योंकि वह उस समय कम कपड़े पहने हुए थी. उसके पास लोटा या गिलास भी नहीं था जिससे वह पानी पिला देती. इसी कारण वहाँ उन राहगीरों को पानी पिलाना उसे ठीक नहीं लगा.
बहू ने उससे पूछा, "आप कौन हैं?"
राहगीर ने कहा, "मैं एक यात्री हूँ"
बहू बोली, "यात्री तो संसार में केवल दो ही होते हैं, आप उन दोनों में से कौन हैं? अगर आपने मेरे इस सवाल का सही जवाब दे दिया तो मैं आपको पानी पिला दूंगी. नहीं तो मैं पानी नहीं पिलाऊंगी."
बेचारा राहगीर उसकी बात का कोई जवाब नहीं दे पाया.
तभी दूसरे राहगीर ने पानी पिलाने की विनती की.
बहू ने दूसरे राहगीर से पूछा, "अच्छा तो आप बताइए कि आप कौन हैं?"
दूसरा राहगीर तुरंत बोल उठा, "मैं तो एक गरीब आदमी हूँ."
सेठ की बहू बोली, "भइया, गरीब तो केवल दो ही होते हैं. आप उनमें से कौन हैं?"
प्रश्न सुनकर दूसरा राहगीर चकरा गया. उसको कोई जवाब नहीं सूझा तो वह चुपचाप हट गया.
तीसरा राहगीर बोला, "बहन, मुझे बहुत प्यास लगी है. ईश्वर के लिए तुम मुझे पानी पिला दो"
बहू ने पूछा, "अब आप कौन हैं?"
तीसरा राहगीर बोला, "बहन, मैं तो एक अनपढ़ गंवार हूँ."
यह सुनकर बहू बोली, "अरे भई, अनपढ़ गंवार तो इस संसार में बस दो ही होते हैं. आप उनमें से कौन हैं?'
बेचारा तीसरा राहगीर भी कुछ बोल नहीं पाया.
अंत में चौथा राहगीह आगे आया और बोला, "बहन, मेहरबानी करके मुझे पानी पिला दें. प्यासे को पानी पिलाना तो बड़े पुण्य का काम होता है."
सेठ की बहू बड़ी ही चतुर और होशियार थी, उसने चौथे राहगीर से पूछा, "आप कौन हैं?"
वह राहगीर अपनी खीज छिपाते हुए बोला, "मैं तो..बहन बड़ा ही मूर्ख हूँ."
बहू ने कहा, "मूर्ख तो संसार में केवल दो ही होते हैं. आप उनमें से कौन हैं?"
वह बेचारा भी उसके प्रश्न का उत्तर नहीं दे सका. चारों पानी पिए बगैर ही वहाँ से जाने लगे तो बहू बोली, "यहाँ से थोड़ी ही दूर पर मेरा घर है. आप लोग कृपया वहीं चलिए. मैं आप लोगों को पानी पिला दूंगी"
चारों राहगीर उसके घर की तरफ चल पड़े. बहू ने इसी बीच पानी का घड़ा उठाया और छोटे रास्ते से अपने घर पहुँच गई. उसने घड़ा रख दिया और अपने कपड़े ठीक तरह से पहन लिए.
इतने में वे चारों राहगीर उसके घर पहुँच गए. बहू ने उन सभी को गुड़ दिया और पानी पिलाया. पानी पीने के बाद वे राहगीर अपनी राह पर चल पड़े. सेठ उस समय घर में एक तरफ बैठा यह सब देख रहा था. उसे बड़ा दुःख हुआ. वह सोचने लगा, इसका पति तो व्यापार करने के लिए परदेस गया है, और यह उसकी गैर हाजिरी में पराए मर्दों को घर बुलाती है. उनके साथ हँसती बोलती है. इसे तो मेरा भी लिहाज नहीं है. यह सब देख अगर मैं चुप रह गया तो आगे से इसकी हिम्मत और बढ़ जाएगी. मेरे सामने इसे किसी से बोलते बतियाते शर्म नहीं आती तो मेरे पीछे न जाने क्या-क्या करती होगी. फिर एक बात यह भी है कि बीमारी कोई अपने आप ठीक नहीं होती. उसके लिए वैद्य के पास जाना पड़ता है. क्यों न इसका फैसला राजा पर ही छोड़ दूं. यही सोचता वह सीधा राजा के पास जा पहुँचा और अपनी परेशानी बताई. सेठ की सारी बातें सुनकर राजा ने उसी वक्त बहू को बुलाने के लिए सिपाही बुलवा भेजे और उनसे कहा, "तुरंत सेठ की बहू को राज सभा में उपस्थित किया जाए."
राजा के सिपाहियों को अपने घर पर आया देख उस सेठ की पत्नी ने अपनी बहू से पूछा, "क्या बात है बहू रानी? क्या तुम्हारी किसी से कहा-सुनी हो गई थी जो उसकी शिकायत पर राजा ने तुम्हें बुलाने के लिए सिपाही भेज दिए?"
बहू ने सास की चिंता को दूर करते हुए कहा, "नहीं सासू मां, मेरी किसी से कोई कहा-सुनी नहीं हुई है. आप जरा भी फिक्र न करें."
सास को आश्वस्त कर वह सिपाहियों से बोली, "तुम पहले अपने राजा से यह पूछकर आओ कि उन्होंने मुझे किस रूप में बुलाया है. बहन, बेटी या फिर बहू के रुप में? किस रूप में में उनकी राजसभा में मैं आऊँ?"
बहू की बात सुन सिपाही वापस चले गए. उन्होंने राजा को सारी बातें बताई. राजा ने तुरंत आदेश दिया कि पालकी लेकर जाओ और कहना कि उसे बहू के रूप में बुलाया गया है.
सिपाहियों ने राजा की आज्ञा के अनुसार जाकर सेठ की बहू से कहा, "राजा ने आपको बहू के रूप में आने के ले पालकी भेजी है." बहू उसी समय पालकी में बैठकर राज सभा में जा पहुँची. राजा ने बहू से पूछा, "तुम दूसरे पुरूषों को घर क्यों बुला लाईं, जबकि तुम्हारा पति घर पर नहीं है?"
बहू बोली, "महाराज, मैंने तो केवल कर्तव्य का पालन किया. प्यासे पथिकों को पानी पिलाना कोई अपराध नहीं है. यह हर गृहिणी का कर्तव्य है. जब मैं कुएँ पर पानी भरने गई थी, तब तन पर मेरे कपड़े अजनबियों के सम्मुख उपस्थित होने के अनुरूप नहीं थे. इसी कारण उन राहगीरों को कुएँ पर पानी नहीं पिलाया. उन्हें बड़ी प्यास लगी थी और मैं उन्हें पानी पिलाना चाहती थी. इसीलिए उनसे मैंने मुश्किल प्रश्न पूछे और जब वे उनका उत्तर नहीं दे पाए तो उन्हें घर बुला लाई. घर पहुँचकर ही उन्हें पानी पिलाना उचित था."
राजा को बहू की बात ठीक लगी. राजा को उन प्रश्नों के बारे में जानने की बड़ी उत्सुकता हुई जो बहू ने चारों राहगीरों से पूछे थे.
राजा ने सेठ की बहू से कहा, "भला मैं भी तो सुनूं कि वे कौन से प्रश्न थे जिनका उत्तर वे लोग नहीं दे पाए?"
बहू ने तब वे सभी प्रश्न दुहरा दिए. बहू के प्रश्न सुन राजा और सभासद चकित रह गए. फिर राजा ने उससे कहा, "तुम खुद ही इन प्रश्नों के उत्तर दो. हम अब तुमसे यह जानना चाहते हैं."
बहू बोली, "महाराज, मेरी दृष्टि में पहले प्रश्न का उत्तर है कि संसार में सिर्फ दो ही यात्री हैं–सूर्य और चंद्रमा. मेरे दूसरे प्रश्न का उत्तर है कि बहू और गाय इस पृथ्वी पर ऐसे दो प्राणी हैं जो गरीब हैं. अब मैं तीसरे प्रश्न का उत्तर सुनाती हूं. महाराज, हर इंसान के साथ हमेशा अनपढ़ गंवारों की तरह जो हमेशा चलते रहते हैं वे हैं–भोजन और पानी. चौथे आदमी ने कहा था कि वह मूर्ख है, और जब मैंने उससे पूछा कि मूर्ख तो दो ही होते हैं, तुम उनमें से कौन से मूर्ख हो तो वह उत्तर नहीं दे पाया." इतना कहकर वह चुप हो गई.
राजा ने बड़े आश्चर्य से पूछा, "क्या तुम्हारी नजर में इस संसार में सिर्फ दो ही मूर्ख हैं?"
"हाँ, महाराज, इस घड़ी, इस समय मेरी नजर में सिर्फ दो ही मूर्ख हैं."
राजा ने कहा, "तुरंत बतलाओ कि वे दो मूर्ख कौन हैं."
इस पर बहू बोली, "महाराज, मेरी जान बख्श दी जाए तो मैं इसका उत्तर दूं."
राजा को बड़ी उत्सुकता थी यह जानने की कि वे दो मूर्ख कौन हैं. सो, उसने तुरंत बहू से कह दिया, "तुम निःसंकोच होकर कहो. हम वचन देते हैं तुम्हें कोई सज़ा नहीं दी जाएगी."
बहू बोली, "महाराज, मेरे सामने इस वक्त बस दो ही मूर्ख हैं." फिर अपने ससुर की ओर हाथ जोड़कर कहने लगी, "पहले मूर्ख तो मेरे ससुर जी हैं जो पूरी बात जाने बिना ही अपनी बहू की शिकायत राजदरबार में की. अगर इन्हें शक हुआ ही था तो यह पहले मुझसे पूछ तो लेते, मैं खुद ही इन्हें सारी बातें बता देती. इस तरह घर-परिवार की बेइज्जती तो नहीं होती."
ससुर को अपनी गलती का अहसास हुआ. उसने बहू से माफ़ी मांगी. बहू चुप रही.
राजा ने तब पूछा, "और दूसरा मूर्ख कौन है?"
बहू ने कहा, "दूसरा मूर्ख खुद इस राज्य का राजा है जिसने अपनी बहू की मान-मर्यादा का जरा भी खयाल नहीं किया और सोचे-समझे बिना ही बहू को भरी राजसभा में बुलवा लिया."
बहू की बात सुनकर राजा पहले तो क्रोध से आग बबूला हो गया, परंतु तभी सारी बातें उसकी समझ में आ गईं. समझ में आने पर राजा ने बहू को उसकी समझदारी और चतुराई की सराहना करते हुए उसे ढेर सारे पुरस्कार देकर सम्मान सहित विदा किया.
सेठ की बहू को पानी पिलाने में थोड़ी झिझक महसूस हुई, क्योंकि वह उस समय कम कपड़े पहने हुए थी. उसके पास लोटा या गिलास भी नहीं था जिससे वह पानी पिला देती. इसी कारण वहाँ उन राहगीरों को पानी पिलाना उसे ठीक नहीं लगा.
बहू ने उससे पूछा, "आप कौन हैं?"
राहगीर ने कहा, "मैं एक यात्री हूँ"
बहू बोली, "यात्री तो संसार में केवल दो ही होते हैं, आप उन दोनों में से कौन हैं? अगर आपने मेरे इस सवाल का सही जवाब दे दिया तो मैं आपको पानी पिला दूंगी. नहीं तो मैं पानी नहीं पिलाऊंगी."
बेचारा राहगीर उसकी बात का कोई जवाब नहीं दे पाया.
तभी दूसरे राहगीर ने पानी पिलाने की विनती की.
बहू ने दूसरे राहगीर से पूछा, "अच्छा तो आप बताइए कि आप कौन हैं?"
दूसरा राहगीर तुरंत बोल उठा, "मैं तो एक गरीब आदमी हूँ."
सेठ की बहू बोली, "भइया, गरीब तो केवल दो ही होते हैं. आप उनमें से कौन हैं?"
प्रश्न सुनकर दूसरा राहगीर चकरा गया. उसको कोई जवाब नहीं सूझा तो वह चुपचाप हट गया.
तीसरा राहगीर बोला, "बहन, मुझे बहुत प्यास लगी है. ईश्वर के लिए तुम मुझे पानी पिला दो"
बहू ने पूछा, "अब आप कौन हैं?"
तीसरा राहगीर बोला, "बहन, मैं तो एक अनपढ़ गंवार हूँ."
यह सुनकर बहू बोली, "अरे भई, अनपढ़ गंवार तो इस संसार में बस दो ही होते हैं. आप उनमें से कौन हैं?'
बेचारा तीसरा राहगीर भी कुछ बोल नहीं पाया.
अंत में चौथा राहगीह आगे आया और बोला, "बहन, मेहरबानी करके मुझे पानी पिला दें. प्यासे को पानी पिलाना तो बड़े पुण्य का काम होता है."
सेठ की बहू बड़ी ही चतुर और होशियार थी, उसने चौथे राहगीर से पूछा, "आप कौन हैं?"
वह राहगीर अपनी खीज छिपाते हुए बोला, "मैं तो..बहन बड़ा ही मूर्ख हूँ."
बहू ने कहा, "मूर्ख तो संसार में केवल दो ही होते हैं. आप उनमें से कौन हैं?"
वह बेचारा भी उसके प्रश्न का उत्तर नहीं दे सका. चारों पानी पिए बगैर ही वहाँ से जाने लगे तो बहू बोली, "यहाँ से थोड़ी ही दूर पर मेरा घर है. आप लोग कृपया वहीं चलिए. मैं आप लोगों को पानी पिला दूंगी"
चारों राहगीर उसके घर की तरफ चल पड़े. बहू ने इसी बीच पानी का घड़ा उठाया और छोटे रास्ते से अपने घर पहुँच गई. उसने घड़ा रख दिया और अपने कपड़े ठीक तरह से पहन लिए.
इतने में वे चारों राहगीर उसके घर पहुँच गए. बहू ने उन सभी को गुड़ दिया और पानी पिलाया. पानी पीने के बाद वे राहगीर अपनी राह पर चल पड़े. सेठ उस समय घर में एक तरफ बैठा यह सब देख रहा था. उसे बड़ा दुःख हुआ. वह सोचने लगा, इसका पति तो व्यापार करने के लिए परदेस गया है, और यह उसकी गैर हाजिरी में पराए मर्दों को घर बुलाती है. उनके साथ हँसती बोलती है. इसे तो मेरा भी लिहाज नहीं है. यह सब देख अगर मैं चुप रह गया तो आगे से इसकी हिम्मत और बढ़ जाएगी. मेरे सामने इसे किसी से बोलते बतियाते शर्म नहीं आती तो मेरे पीछे न जाने क्या-क्या करती होगी. फिर एक बात यह भी है कि बीमारी कोई अपने आप ठीक नहीं होती. उसके लिए वैद्य के पास जाना पड़ता है. क्यों न इसका फैसला राजा पर ही छोड़ दूं. यही सोचता वह सीधा राजा के पास जा पहुँचा और अपनी परेशानी बताई. सेठ की सारी बातें सुनकर राजा ने उसी वक्त बहू को बुलाने के लिए सिपाही बुलवा भेजे और उनसे कहा, "तुरंत सेठ की बहू को राज सभा में उपस्थित किया जाए."
राजा के सिपाहियों को अपने घर पर आया देख उस सेठ की पत्नी ने अपनी बहू से पूछा, "क्या बात है बहू रानी? क्या तुम्हारी किसी से कहा-सुनी हो गई थी जो उसकी शिकायत पर राजा ने तुम्हें बुलाने के लिए सिपाही भेज दिए?"
बहू ने सास की चिंता को दूर करते हुए कहा, "नहीं सासू मां, मेरी किसी से कोई कहा-सुनी नहीं हुई है. आप जरा भी फिक्र न करें."
सास को आश्वस्त कर वह सिपाहियों से बोली, "तुम पहले अपने राजा से यह पूछकर आओ कि उन्होंने मुझे किस रूप में बुलाया है. बहन, बेटी या फिर बहू के रुप में? किस रूप में में उनकी राजसभा में मैं आऊँ?"
बहू की बात सुन सिपाही वापस चले गए. उन्होंने राजा को सारी बातें बताई. राजा ने तुरंत आदेश दिया कि पालकी लेकर जाओ और कहना कि उसे बहू के रूप में बुलाया गया है.
सिपाहियों ने राजा की आज्ञा के अनुसार जाकर सेठ की बहू से कहा, "राजा ने आपको बहू के रूप में आने के ले पालकी भेजी है." बहू उसी समय पालकी में बैठकर राज सभा में जा पहुँची. राजा ने बहू से पूछा, "तुम दूसरे पुरूषों को घर क्यों बुला लाईं, जबकि तुम्हारा पति घर पर नहीं है?"
बहू बोली, "महाराज, मैंने तो केवल कर्तव्य का पालन किया. प्यासे पथिकों को पानी पिलाना कोई अपराध नहीं है. यह हर गृहिणी का कर्तव्य है. जब मैं कुएँ पर पानी भरने गई थी, तब तन पर मेरे कपड़े अजनबियों के सम्मुख उपस्थित होने के अनुरूप नहीं थे. इसी कारण उन राहगीरों को कुएँ पर पानी नहीं पिलाया. उन्हें बड़ी प्यास लगी थी और मैं उन्हें पानी पिलाना चाहती थी. इसीलिए उनसे मैंने मुश्किल प्रश्न पूछे और जब वे उनका उत्तर नहीं दे पाए तो उन्हें घर बुला लाई. घर पहुँचकर ही उन्हें पानी पिलाना उचित था."
राजा को बहू की बात ठीक लगी. राजा को उन प्रश्नों के बारे में जानने की बड़ी उत्सुकता हुई जो बहू ने चारों राहगीरों से पूछे थे.
राजा ने सेठ की बहू से कहा, "भला मैं भी तो सुनूं कि वे कौन से प्रश्न थे जिनका उत्तर वे लोग नहीं दे पाए?"
बहू ने तब वे सभी प्रश्न दुहरा दिए. बहू के प्रश्न सुन राजा और सभासद चकित रह गए. फिर राजा ने उससे कहा, "तुम खुद ही इन प्रश्नों के उत्तर दो. हम अब तुमसे यह जानना चाहते हैं."
बहू बोली, "महाराज, मेरी दृष्टि में पहले प्रश्न का उत्तर है कि संसार में सिर्फ दो ही यात्री हैं–सूर्य और चंद्रमा. मेरे दूसरे प्रश्न का उत्तर है कि बहू और गाय इस पृथ्वी पर ऐसे दो प्राणी हैं जो गरीब हैं. अब मैं तीसरे प्रश्न का उत्तर सुनाती हूं. महाराज, हर इंसान के साथ हमेशा अनपढ़ गंवारों की तरह जो हमेशा चलते रहते हैं वे हैं–भोजन और पानी. चौथे आदमी ने कहा था कि वह मूर्ख है, और जब मैंने उससे पूछा कि मूर्ख तो दो ही होते हैं, तुम उनमें से कौन से मूर्ख हो तो वह उत्तर नहीं दे पाया." इतना कहकर वह चुप हो गई.
राजा ने बड़े आश्चर्य से पूछा, "क्या तुम्हारी नजर में इस संसार में सिर्फ दो ही मूर्ख हैं?"
"हाँ, महाराज, इस घड़ी, इस समय मेरी नजर में सिर्फ दो ही मूर्ख हैं."
राजा ने कहा, "तुरंत बतलाओ कि वे दो मूर्ख कौन हैं."
इस पर बहू बोली, "महाराज, मेरी जान बख्श दी जाए तो मैं इसका उत्तर दूं."
राजा को बड़ी उत्सुकता थी यह जानने की कि वे दो मूर्ख कौन हैं. सो, उसने तुरंत बहू से कह दिया, "तुम निःसंकोच होकर कहो. हम वचन देते हैं तुम्हें कोई सज़ा नहीं दी जाएगी."
बहू बोली, "महाराज, मेरे सामने इस वक्त बस दो ही मूर्ख हैं." फिर अपने ससुर की ओर हाथ जोड़कर कहने लगी, "पहले मूर्ख तो मेरे ससुर जी हैं जो पूरी बात जाने बिना ही अपनी बहू की शिकायत राजदरबार में की. अगर इन्हें शक हुआ ही था तो यह पहले मुझसे पूछ तो लेते, मैं खुद ही इन्हें सारी बातें बता देती. इस तरह घर-परिवार की बेइज्जती तो नहीं होती."
ससुर को अपनी गलती का अहसास हुआ. उसने बहू से माफ़ी मांगी. बहू चुप रही.
राजा ने तब पूछा, "और दूसरा मूर्ख कौन है?"
बहू ने कहा, "दूसरा मूर्ख खुद इस राज्य का राजा है जिसने अपनी बहू की मान-मर्यादा का जरा भी खयाल नहीं किया और सोचे-समझे बिना ही बहू को भरी राजसभा में बुलवा लिया."
बहू की बात सुनकर राजा पहले तो क्रोध से आग बबूला हो गया, परंतु तभी सारी बातें उसकी समझ में आ गईं. समझ में आने पर राजा ने बहू को उसकी समझदारी और चतुराई की सराहना करते हुए उसे ढेर सारे पुरस्कार देकर सम्मान सहित विदा किया.
👉 एकान्त सेवन करो
मनुष्य वास्तव में अकेला है। अकेला ही आया है और अकेला ही जायगा। इच्छा करके वह अकेला बहुत हो जाता है। एकोऽहं बहुस्याम। एकान्त मय इसका जीवन है। जीवन में जो सुख दुख प्राप्त होते हैं वह अकेले को ही होते हैं कोई दूसरा उसमें भागीदार नहीं होता। जिस समय हम रोगी होते हैं किसी पीड़ा से व्यथित होते हैं क्या उस समय का कष्ट कोई बाँट लेता है? कोई प्रेमी बिछुड़ गया है, किसी के द्वारा सताये जा रहे हैं, अपनी वस्तुऐं नष्ट हो गई हैं, परिस्थितियों में उलझ गये हैं उस समय जो घोर मानसिक वेदना होती है उसका अनुभव अपने को ही करना पड़ता है दूसरे लोगों की सहानुभूति और कभी २ सहायता भी मिल जाती है पर वह बाह्य उपचार मात्र है। किसी भौतिक अभाव का कष्ट हुआ और बाहर की मदद मिल गई तब तो दूसरी बात है अन्यथा उन दैवी विपत्तियों में जिनमें मनुष्य का कुछ वश नहीं चलता, मनुष्य को एकांत कष्ट ही भोगना पड़ता है। सुख भी एकान्त ही मिलता है। मैं मिठाई खा रहा हूँ, मैं ऐश्वर्य भोग रहा हूं, मैं सम्पत्तिशाली हूँ, इसमें तुम्हारी क्या समझ? मैं विद्वान हूँ इसका फल तुम्हें किस प्रकार मिल सकता है? परस्पर सहयोग और दान, त्याग दूसरी बात है। इससे धर्म के अनुसार किसी को भिक्षा दी जा सकती है किन्तु वास्तविक सुख उसी को होता है जिसके पास साधन एकत्रित हैं।
मनुष्य का सारा धर्म कर्म एकान्त मय है। उसे अपनी परिस्थितियों पर स्वयं विचार करना पड़ता है अपने लाभ हानि का निर्णय स्वयं करना पड़ता है अपने उत्थान पतन के साधन स्वयं उपलब्ध करने पड़ते हैं। इस संघर्षमय दुनिया में जो अपने पाँवों पर खड़ा होकर अपने बलबूते पर चलता है वह कुछ चल लेता है बढ़ जाता है और अपना स्थान प्राप्त करता है। किन्तु जो दूसरों के कन्धे पर अवलंबित है, दूसरों की सहायता पर आश्रित है, वह भिक्षुक की तरह कुछ प्राप्त करलें तो सही अन्यथा निर्जीव पुतले या बुद्धि रहित कीड़े मकोड़ों की तरह ज्यों त्यों करके अपनी सांसें पूरी करते हैं, मनुष्य के वास्तविक सुख- दुःख, हानि- लाभ, उन्नति पतन, बन्ध, मोक्ष का जहां तक संबंध है वह सब एकान्त के साथ जुड़ा हुआ है। खेलने की वस्तुओं के साथ मोह बन्धन में बंधकर वह खुद खिलौना बन गया है। वस्त्रों और औजारों पर मोहित होकर उसने अपने की वही समझ लिया है परन्तु वास्तव में वह ऐसा है नहीं।
रुपया, पैसा, जायदाद, स्त्री, कुटुंब आदि हमें अपने दिखाई देते हें पर वास्तव में हैं नहीं। यह सब चीजें शरीर की सुख सामग्री हैं, शरीर छूटते ही इनसे सारा संबंध क्षण मात्र में छूट जाता है फिर कोई किसी का नहीं रहता। हर एक वस्तु का अपना स्थान है और अपने कार्यक्रम के अनुसार व्यावहारित होती रहती है। वह न तो किसी को ग्रहण करती है और न किसी को छोड़ती है। भ्रमवश मनुष्य अपना मान कर उनमें तन्मय होता है। धातुओं के टुकड़े किसी आदमी के पेट में नही धँस सकते और न शरीर में चिपट सकते हैं। वे एक के हाथ में से दूसरे के हाथ में घूमते हैं और अन्त में घिस गल कर इसी भूमि में मिल जाते हैं जिससे उत्पन्न हुए थे। इसी प्रकार ईट, पत्थर लोहा, लकड़ी, पशु, कुटुंबी, मित्र आदि की बात है। सब अपनी निश्चित धुरी पर घूम रहे हैं, अपने कार्यक्रमों को पूरा कर रहे हैं। उनके जीवन का कुछ भाग हमारे जीवन के साथ संबंधित हो जाता है तो हम समझते हैं कि वे हमारे और हम उनके हो गये पर वास्तव में ऐसा कुछ नहीं है। सूर्य की धूप और चन्द्रमा की चाँदनी में बैठकर उन्हें हम अपना बताते हैं। चार खेतों को जोत कर किसान उन पर अपना आधिपत्य जमाता है। दार्शनिक विज्ञानी इन मूर्खों से कहता है। बच्चो तुम भूल रहे हो यह संपूर्ण वस्तुएँ एक महान लाभ पर अवलंबित हैं और अपना जीवन क्रम पूरा कर रही है। तुमसे उनका केवल उतना ही संबंध है जितना कि उनसे संबंध रखते हो। असल में वे सब स्वतंत्र हैं। और तुम स्वतंत्र। हर चीज अकेली है
इसलिये ‘‘तूम भी अकेले, बिल्कुल अकेले हो।’’
पाठक विश्वास करें, कुछ भ्रम हो तो उसे उठा दें, इन पंक्तियों में मैं उन सब तर्कों का समाधान नहीं कर सकता। परन्तु मैं विश्वास दिलाता हूँ कि तुम्हें सच्ची बात बता रहा हूं। तुम अकेले हो, बिल्कुल अकेले। न तो कोई तुम्हारा है और न तुम किसी के। हाँ, लौकिक धर्म के अनुसार सांसारिक और कर्तव्य कर्म हैं जो तुम्हें शरीर रखने पर पालने पड़ेंगे उनसे छुटकारा नहीं हो सकता। कर्म किये बिना शरीर नहीं रह सकता यह उसका धर्म है। परन्तु है, इके के घोड़े! वह सब वस्तुऐं तेरी नहीं है, जिन्हें तू सारे दिन ढोता है तू अकेला है। वे सवारियां तेरी कोई नहीं हैं जिन्हें अपने ऊपर बिठाकर तू सरपट तेजी से दौड़ रहा था।
उपरोक्त पंक्तियों से कोई भ्रम में पड़े। संन्यास या निवृत्त का वह पाठ हम किसी को नहीं पढ़ा रहे हैं जिसके अनुसार लोग कपड़े फाड़कर भिखारी बन जाते हैं और कायरों की भाँति लड़ाई से डरकर जंगलों में अपनी जान बचाना चाहते हैं। कर्म योग किसी से कम नहीं है। हम अपने कर्तव्यों का ठीक तरह से पालन करते हुए पक्के संन्यासी बने रहे सकते हैं। यहाँ तो हमारा अभिप्राय यह है कि तुम अपनी वास्तविक स्थिति का अनुभव करते रहो। यदि इसे पकड़े रहोगे तो तुम इतने नहीं पाओगे और एक दिन सही रास्ते पर जा पहुंचोगे।
अपने साधकों को हमारी शिक्षा है कि वे नित्य कुछ दिन एकान्त सेवन करें। इसके लिये यह जरूरी नहीं है कि वे किसी जंगल, नदी या पर्वत पर ही जावें। अपने आसपास ही कोई प्रशान्त स्थित चुन लो। कुछ भी सुविधा न हो तो अपने कमरे के सब किवाड़ बन्द करे अकेले बैठो। यह भी न हो सके तो सारे गुल से रहित स्थान में बैठकर आँखें बन्द करली या चारपाई पर लेटकर हलके कपड़े से अपने को ढकलो। और शान्त चित होकर मन ही मन जप करो—मैं अकेला हूँ‘—मैं अकेला हूँ। अपने मन को यह अच्छी तरह अनुभव करने दो कि मैं एक स्वतंत्र, बन्धु और अविनाशी सत्ता हूँ। मेरा कोई नहीं और न में किसी का हूं। आधे घण्टे तक अपना सारा ध्यान इसी क्रिया पर एकत्रित करो। अपने को बिलकुल अकेला अनुभव करो। अभ्यास के कुछ दिनों बाद एकान्त में ऐसी भावना करो ।। ‘मैं मर गया हूँ।’ मेरा शरीर और दूसरी संपूर्ण वस्तुऐं मुझसे दूर पड़ी हुई हैं।
उपरोक्त छोटे से साधन को हमारे प्राणप्रिय अनुयायी आज से ही आरंभ करें। वे यह न पूछे कि इससे क्या लाभ होगा? मैं आज बता भी नहीं रहा हूँ कि इससे किस प्रकार क्या हो जायगा। किन्तु शपथ पूर्वक कहता हूँ कि जो सच्चे आत्मज्ञान की ओर बढ़ जायगा, सांसारिक चोर, पाप, दुष्ट दुष्कर्म, बुरी आदतें, नीच वासनायें, और नरक की ओर घसीट ले जाने वाली कुटिलताओं से उसे छुटकारा मिल जायगा। हम पापमयी पूतनाओं को छोडऩे के लिए साधक अनेक प्रयत्न करते हैं पर वे छाया की भांति पीछे पीछे दौड़ती रहती है पीछा नहीं छोड़तीं। यह साधन उस झूठे ममत्व को ही छुड़ा देगा जिसकी सहचरी में पाप वृत्तियाँ होती हैं।
अपने को अकेला अनुभव करो। नित्य अभ्यास करो। शरीर को निच्चेष्ट पड़ा रहने दो। मन को पूरी योग्यता, तर्क, बुद्धि के साथ यह समझा दो कि मैं अकेला हूँ। केवल बुद्धिमान सोच लेना ही पर्याप्त न होगा किन्तु यह भावना गहरी गहरी गहरी मन के ऊपर अंकित हो जानी चाहिये। अभ्यास इतना बढ जाना चाहिए कि जब अपने बारे में सोचो, तो सोचो कि ‘मैं अकेला हूँ।’ हर घड़ी अपने को संसार की समस्त वस्तुओं से—कमल पत्र ऊपर उठा हुआ समझो।
मैं कहता हूँ कि यह साधन तुम्हें मनुष्य से देवता बना देने में पूरी तरह समर्थ है।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जून 1940 Page 2
मनुष्य का सारा धर्म कर्म एकान्त मय है। उसे अपनी परिस्थितियों पर स्वयं विचार करना पड़ता है अपने लाभ हानि का निर्णय स्वयं करना पड़ता है अपने उत्थान पतन के साधन स्वयं उपलब्ध करने पड़ते हैं। इस संघर्षमय दुनिया में जो अपने पाँवों पर खड़ा होकर अपने बलबूते पर चलता है वह कुछ चल लेता है बढ़ जाता है और अपना स्थान प्राप्त करता है। किन्तु जो दूसरों के कन्धे पर अवलंबित है, दूसरों की सहायता पर आश्रित है, वह भिक्षुक की तरह कुछ प्राप्त करलें तो सही अन्यथा निर्जीव पुतले या बुद्धि रहित कीड़े मकोड़ों की तरह ज्यों त्यों करके अपनी सांसें पूरी करते हैं, मनुष्य के वास्तविक सुख- दुःख, हानि- लाभ, उन्नति पतन, बन्ध, मोक्ष का जहां तक संबंध है वह सब एकान्त के साथ जुड़ा हुआ है। खेलने की वस्तुओं के साथ मोह बन्धन में बंधकर वह खुद खिलौना बन गया है। वस्त्रों और औजारों पर मोहित होकर उसने अपने की वही समझ लिया है परन्तु वास्तव में वह ऐसा है नहीं।
रुपया, पैसा, जायदाद, स्त्री, कुटुंब आदि हमें अपने दिखाई देते हें पर वास्तव में हैं नहीं। यह सब चीजें शरीर की सुख सामग्री हैं, शरीर छूटते ही इनसे सारा संबंध क्षण मात्र में छूट जाता है फिर कोई किसी का नहीं रहता। हर एक वस्तु का अपना स्थान है और अपने कार्यक्रम के अनुसार व्यावहारित होती रहती है। वह न तो किसी को ग्रहण करती है और न किसी को छोड़ती है। भ्रमवश मनुष्य अपना मान कर उनमें तन्मय होता है। धातुओं के टुकड़े किसी आदमी के पेट में नही धँस सकते और न शरीर में चिपट सकते हैं। वे एक के हाथ में से दूसरे के हाथ में घूमते हैं और अन्त में घिस गल कर इसी भूमि में मिल जाते हैं जिससे उत्पन्न हुए थे। इसी प्रकार ईट, पत्थर लोहा, लकड़ी, पशु, कुटुंबी, मित्र आदि की बात है। सब अपनी निश्चित धुरी पर घूम रहे हैं, अपने कार्यक्रमों को पूरा कर रहे हैं। उनके जीवन का कुछ भाग हमारे जीवन के साथ संबंधित हो जाता है तो हम समझते हैं कि वे हमारे और हम उनके हो गये पर वास्तव में ऐसा कुछ नहीं है। सूर्य की धूप और चन्द्रमा की चाँदनी में बैठकर उन्हें हम अपना बताते हैं। चार खेतों को जोत कर किसान उन पर अपना आधिपत्य जमाता है। दार्शनिक विज्ञानी इन मूर्खों से कहता है। बच्चो तुम भूल रहे हो यह संपूर्ण वस्तुएँ एक महान लाभ पर अवलंबित हैं और अपना जीवन क्रम पूरा कर रही है। तुमसे उनका केवल उतना ही संबंध है जितना कि उनसे संबंध रखते हो। असल में वे सब स्वतंत्र हैं। और तुम स्वतंत्र। हर चीज अकेली है
इसलिये ‘‘तूम भी अकेले, बिल्कुल अकेले हो।’’
पाठक विश्वास करें, कुछ भ्रम हो तो उसे उठा दें, इन पंक्तियों में मैं उन सब तर्कों का समाधान नहीं कर सकता। परन्तु मैं विश्वास दिलाता हूँ कि तुम्हें सच्ची बात बता रहा हूं। तुम अकेले हो, बिल्कुल अकेले। न तो कोई तुम्हारा है और न तुम किसी के। हाँ, लौकिक धर्म के अनुसार सांसारिक और कर्तव्य कर्म हैं जो तुम्हें शरीर रखने पर पालने पड़ेंगे उनसे छुटकारा नहीं हो सकता। कर्म किये बिना शरीर नहीं रह सकता यह उसका धर्म है। परन्तु है, इके के घोड़े! वह सब वस्तुऐं तेरी नहीं है, जिन्हें तू सारे दिन ढोता है तू अकेला है। वे सवारियां तेरी कोई नहीं हैं जिन्हें अपने ऊपर बिठाकर तू सरपट तेजी से दौड़ रहा था।
उपरोक्त पंक्तियों से कोई भ्रम में पड़े। संन्यास या निवृत्त का वह पाठ हम किसी को नहीं पढ़ा रहे हैं जिसके अनुसार लोग कपड़े फाड़कर भिखारी बन जाते हैं और कायरों की भाँति लड़ाई से डरकर जंगलों में अपनी जान बचाना चाहते हैं। कर्म योग किसी से कम नहीं है। हम अपने कर्तव्यों का ठीक तरह से पालन करते हुए पक्के संन्यासी बने रहे सकते हैं। यहाँ तो हमारा अभिप्राय यह है कि तुम अपनी वास्तविक स्थिति का अनुभव करते रहो। यदि इसे पकड़े रहोगे तो तुम इतने नहीं पाओगे और एक दिन सही रास्ते पर जा पहुंचोगे।
अपने साधकों को हमारी शिक्षा है कि वे नित्य कुछ दिन एकान्त सेवन करें। इसके लिये यह जरूरी नहीं है कि वे किसी जंगल, नदी या पर्वत पर ही जावें। अपने आसपास ही कोई प्रशान्त स्थित चुन लो। कुछ भी सुविधा न हो तो अपने कमरे के सब किवाड़ बन्द करे अकेले बैठो। यह भी न हो सके तो सारे गुल से रहित स्थान में बैठकर आँखें बन्द करली या चारपाई पर लेटकर हलके कपड़े से अपने को ढकलो। और शान्त चित होकर मन ही मन जप करो—मैं अकेला हूँ‘—मैं अकेला हूँ। अपने मन को यह अच्छी तरह अनुभव करने दो कि मैं एक स्वतंत्र, बन्धु और अविनाशी सत्ता हूँ। मेरा कोई नहीं और न में किसी का हूं। आधे घण्टे तक अपना सारा ध्यान इसी क्रिया पर एकत्रित करो। अपने को बिलकुल अकेला अनुभव करो। अभ्यास के कुछ दिनों बाद एकान्त में ऐसी भावना करो ।। ‘मैं मर गया हूँ।’ मेरा शरीर और दूसरी संपूर्ण वस्तुऐं मुझसे दूर पड़ी हुई हैं।
उपरोक्त छोटे से साधन को हमारे प्राणप्रिय अनुयायी आज से ही आरंभ करें। वे यह न पूछे कि इससे क्या लाभ होगा? मैं आज बता भी नहीं रहा हूँ कि इससे किस प्रकार क्या हो जायगा। किन्तु शपथ पूर्वक कहता हूँ कि जो सच्चे आत्मज्ञान की ओर बढ़ जायगा, सांसारिक चोर, पाप, दुष्ट दुष्कर्म, बुरी आदतें, नीच वासनायें, और नरक की ओर घसीट ले जाने वाली कुटिलताओं से उसे छुटकारा मिल जायगा। हम पापमयी पूतनाओं को छोडऩे के लिए साधक अनेक प्रयत्न करते हैं पर वे छाया की भांति पीछे पीछे दौड़ती रहती है पीछा नहीं छोड़तीं। यह साधन उस झूठे ममत्व को ही छुड़ा देगा जिसकी सहचरी में पाप वृत्तियाँ होती हैं।
अपने को अकेला अनुभव करो। नित्य अभ्यास करो। शरीर को निच्चेष्ट पड़ा रहने दो। मन को पूरी योग्यता, तर्क, बुद्धि के साथ यह समझा दो कि मैं अकेला हूँ। केवल बुद्धिमान सोच लेना ही पर्याप्त न होगा किन्तु यह भावना गहरी गहरी गहरी मन के ऊपर अंकित हो जानी चाहिये। अभ्यास इतना बढ जाना चाहिए कि जब अपने बारे में सोचो, तो सोचो कि ‘मैं अकेला हूँ।’ हर घड़ी अपने को संसार की समस्त वस्तुओं से—कमल पत्र ऊपर उठा हुआ समझो।
मैं कहता हूँ कि यह साधन तुम्हें मनुष्य से देवता बना देने में पूरी तरह समर्थ है।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जून 1940 Page 2
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