गुरुवार, 31 अक्टूबर 2019
👉 आध्यात्मिक तेज का प्रज्वलित पुंज होता है चिकित्सक (भाग ८७)
👉 पंचशीलों को अपनाएँ, आध्यात्मिक चिकित्सा की ओर कदम बढ़ाएँ
२. साधना के लिए बढ़ाएँ साहसिक कदम- आज के दौर में साधना का साहस विरले ही कर पाते हैं। इस सम्बन्ध में बातें तो बहुत होती हैं, पर प्रत्यक्ष में कर दिखाने की हिम्मत कम ही लोगों को होती है। बाकी लोग तो इधर- उधर के बहाने बनाकर कायरों की तरह मैदान छोड़कर भाग जाते हैं। ऐसे कायर और भीरू जनों की आध्यात्मिक चिकित्सा सम्भव नहीं। जो साहसी हैं वे मंत्र- जप व ध्यान आदि प्रक्रियाओं के प्रभाव से अपनी आस्थाओं, अभिरुचि व आकांक्षाओं को परिष्कृत करते हैं। वे अनुभूतियों के दिवा स्वप्नों में नहीं खोते। इस सम्बन्ध में की जाने वाली चर्चा व चिन्ता के शेखचिल्लीपन में उनका भरोसा नहीं होता।
वे तो बस अपनी आध्यात्मिक चेतना के शिखरों पर एक समर्थ व साहसी पर्वतारोही की भाँति चढ़ते हैं। बातें साधना की और कर्म स्वार्थी व अहंकारी के। ऐसे ढोंगियों और गपोड़ियों ने ही आध्यात्मिक साधनाओं को हंसी- मजाक की वस्तु बना दिया है। जो सचमुच में साधना करते हैं, वे पल- पल अपने अन्तस् को बदलने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। उनका विश्वास बातों व विचारों के परिवर्तन में नहीं अपनी गहराइयों में छुपे संस्कारों के परिवर्तन में होता है। आध्यात्मिक प्रयोगों को ये उत्खनन विधियों के रूप में इस्तेमाल करते हैं। जो इसमें जुटे हैं, वे इन कथनों की सार्थकता समझते हैं। उन्हीं में वह साहस उभरता है, जिसके बलबूते वे अपने स्वार्थ और अहंकार को पाँवों के नीचे रौंदने, कुचलने का साहस रखते हैं। कोई भी क्षुद्रता उन्हें छू नहीं पाती। कष्ट के कंटकों की परवाह किए बगैर वे निरन्तर महानता और आध्यात्मिकता के शिखरों पर चढ़ते जाते हैं।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ १२१
२. साधना के लिए बढ़ाएँ साहसिक कदम- आज के दौर में साधना का साहस विरले ही कर पाते हैं। इस सम्बन्ध में बातें तो बहुत होती हैं, पर प्रत्यक्ष में कर दिखाने की हिम्मत कम ही लोगों को होती है। बाकी लोग तो इधर- उधर के बहाने बनाकर कायरों की तरह मैदान छोड़कर भाग जाते हैं। ऐसे कायर और भीरू जनों की आध्यात्मिक चिकित्सा सम्भव नहीं। जो साहसी हैं वे मंत्र- जप व ध्यान आदि प्रक्रियाओं के प्रभाव से अपनी आस्थाओं, अभिरुचि व आकांक्षाओं को परिष्कृत करते हैं। वे अनुभूतियों के दिवा स्वप्नों में नहीं खोते। इस सम्बन्ध में की जाने वाली चर्चा व चिन्ता के शेखचिल्लीपन में उनका भरोसा नहीं होता।
वे तो बस अपनी आध्यात्मिक चेतना के शिखरों पर एक समर्थ व साहसी पर्वतारोही की भाँति चढ़ते हैं। बातें साधना की और कर्म स्वार्थी व अहंकारी के। ऐसे ढोंगियों और गपोड़ियों ने ही आध्यात्मिक साधनाओं को हंसी- मजाक की वस्तु बना दिया है। जो सचमुच में साधना करते हैं, वे पल- पल अपने अन्तस् को बदलने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। उनका विश्वास बातों व विचारों के परिवर्तन में नहीं अपनी गहराइयों में छुपे संस्कारों के परिवर्तन में होता है। आध्यात्मिक प्रयोगों को ये उत्खनन विधियों के रूप में इस्तेमाल करते हैं। जो इसमें जुटे हैं, वे इन कथनों की सार्थकता समझते हैं। उन्हीं में वह साहस उभरता है, जिसके बलबूते वे अपने स्वार्थ और अहंकार को पाँवों के नीचे रौंदने, कुचलने का साहस रखते हैं। कोई भी क्षुद्रता उन्हें छू नहीं पाती। कष्ट के कंटकों की परवाह किए बगैर वे निरन्तर महानता और आध्यात्मिकता के शिखरों पर चढ़ते जाते हैं।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ १२१
👉 गुरुवर की वाणी
★ मुद्दतों से देव परम्पराएं अवरुद्ध हुई पड़ी हैं। अब हमें सारा साहस समेटकर तृष्णा और वासना के कीचड़ से बाहर निकलना होगा और वाचालता और विडम्बना से नहीं, अपनी कृतियों से अपनी उत्कृष्टता का प्रमाण देना होगा। हमारा उदाहरण ही दूसरे अनेक लोगों को अनुकरण का साहस प्रदान करेगा। यही ठोस, वास्तविक और प्रभावशाली पद्धति है।
(महाकाल का युग प्रत्यावर्तन प्रक्रिया)
□ गर्मी की तपन बढ़ चलने पर वर्षा की संभावना का अनुमान लगा लिया जाता है। दीपक जब बुझने को होता है, उसकी लौ जोर से चमकती है। मरण की वेला निकट आते ही रोगी में हलकी-सी चेतना लौटती है एवं लम्बी सांसें चलने लगती हैं। जब संसार में अनीति की मात्रा बढ़ती है, जागरूकता, आदर्शवादिता और साहसिकता की उमंगें अनय की असुरता के पराभव हेतु आत्माओं में जलने लगती हैं। प्रज्ञावतार की इस भूमिका को युग परिवर्तन की वेला में ज्ञानवानों की पैनी दृष्टि सरलतापूर्वक देख सकती है।
(प्रज्ञा अभियान-1983, जुलाई-17)
■ सत्साहस अपनाने की गरिमा तो सदा ही रही है और रहेगी, पर इस दिशा में बढ़ने, सोचने वालों में से अत्यधिक भाग्यवान् वे हैं, जो किसी महान् अवसर के सामने आते ही उसे हाथ से न जाने देने की तत्परता बरत सके। बड़प्पन न बड़ा बनने में, न संचय में और न उपभोग में है। बड़प्पन एक दृष्टिकोण है, जिसमें सदा ऊंचा उठने, आगे बढ़ने, रास्ता बनाने और जो श्रेष्ठ है उसी को अपनाने की उमंग उठती और हिम्मत बंधती है।
(प्रज्ञा अभियान का दर्शन, स्वरूप कार्यक्रम-18)
(महाकाल का युग प्रत्यावर्तन प्रक्रिया)
□ गर्मी की तपन बढ़ चलने पर वर्षा की संभावना का अनुमान लगा लिया जाता है। दीपक जब बुझने को होता है, उसकी लौ जोर से चमकती है। मरण की वेला निकट आते ही रोगी में हलकी-सी चेतना लौटती है एवं लम्बी सांसें चलने लगती हैं। जब संसार में अनीति की मात्रा बढ़ती है, जागरूकता, आदर्शवादिता और साहसिकता की उमंगें अनय की असुरता के पराभव हेतु आत्माओं में जलने लगती हैं। प्रज्ञावतार की इस भूमिका को युग परिवर्तन की वेला में ज्ञानवानों की पैनी दृष्टि सरलतापूर्वक देख सकती है।
(प्रज्ञा अभियान-1983, जुलाई-17)
■ सत्साहस अपनाने की गरिमा तो सदा ही रही है और रहेगी, पर इस दिशा में बढ़ने, सोचने वालों में से अत्यधिक भाग्यवान् वे हैं, जो किसी महान् अवसर के सामने आते ही उसे हाथ से न जाने देने की तत्परता बरत सके। बड़प्पन न बड़ा बनने में, न संचय में और न उपभोग में है। बड़प्पन एक दृष्टिकोण है, जिसमें सदा ऊंचा उठने, आगे बढ़ने, रास्ता बनाने और जो श्रेष्ठ है उसी को अपनाने की उमंग उठती और हिम्मत बंधती है।
(प्रज्ञा अभियान का दर्शन, स्वरूप कार्यक्रम-18)
सोमवार, 28 अक्टूबर 2019
👉 साकारात्मक हार
गोपालदास जी के एक पुत्र और एक पुत्री थे। उन्हे अपने पुत्र के विवाह के लिये संस्कारशील पुत्रवधु की तलाश थी। किसी मित्र ने सुझाया कि पास के गांव में ही स्वरूपदास जी के एक सुन्दर सुशील कन्या है।
गोपालदास जी किसी कार्य के बहाने स्वरूपदास जी के घर पहूंच गये, कन्या स्वरूपवान थी देखते ही उन्हे पुत्रवधु के रूप में पसन्द आ गई। गोपालदास जी ने रिश्ते की बात चलाई जिसे स्वरूपदास जी ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। स्वरूपदास जी की पत्नी ने मिष्ठान भोजन आदि से आगत स्वागत की।
संयोगवश स्वरूपदास जी की पत्नी के लिये नवसहर का सोने का हार आज ही बनकर आया था। समधन ने बडे उत्साह से समधी को दिखाया, हार वास्तव में सुन्दर था। गोपालदास जी ने जी भरकर उस हार की तारीफ की। कुछ देर आपस में बातें चली और फ़िर गोपालदास जी ने लौटने के लिये विदा मांगी और घर के लिये चल दिये।
चार दिन बाद ही स्वरूपदास जी की पत्नी को किसी समारोह में जाने की योजना बनी, और उन्हे वही हार पहनना था। उन्होने ड्रॉअर का कोना कोना छान मारा पर हार नहीं मिला। सोचने लगी हार गया तो गया कहाँ? कुछ निश्चय किया और स्वरूपदास जी को बताया कि हार गोपालदास जी, चोरी कर गये है।
स्वरूपदास जी ने कहा भागवान! ठीक से देख, घर में ही कहीं होगा, समधी ऐसी हरक़त नहीं कर सकते। उसने कहा मैने सब जगह देख लिया है और मुझे पूरा यकीन है हार गोपाल जी ही ले गये है, हार देखते ही उनकी आंखे फ़ट गई थी। वे बडा घूर कर देख रहे थे, निश्चित ही हार तो समधी जी ही लेकर गये है।आप गोपाल जी के यहां जाईए और पूछिए, देखना! हार वहां से ही मिलेगा।
बडी ना-नुकर के बाद पत्नी की जिद्द के आगे स्वरूप जी को झुकना पडा और बडे भारी मन से वे गोपाल जी के घर पहूंचे। आचानक स्वरूप जी को घर आया देखकर गोपाल जी शंकित हो उठे कि क्या बात हो गई?
स्वरूपजी दुविधा में कि आखिर समधी से कैसे पूछा जाय। इधर उधर की बात करते हुए साहस जुटा कर बोले- आप जिस दिन हमारे घर आए थे, उसी दिन घर एक हार आया था, वह मिल नहीं रहा।
कुछ क्षण के लिये गोपाल जी विचार में पडे, और बोले अरे हां, ‘वह हार तो मैं लेकर आया था’, मुझे अपनी पुत्री के लिये ऐसा ही हार बनवाना था, अतः सुनार को सेम्पल दिखाने के लिये, मैं ही ले आया था। वह हार तो अब सुनार के यहां है। आप तीन दिन रुकिये और हार ले जाईए। किन्तु असलियत में तो हार के बारे में पूछते ही गोपाल जी को आभास हो गया कि हो न हो समधन ने चोरी का इल्जाम लगाया है।
उसी समय सुनार के यहां जाकर, देखे गये हार की डिज़ाइन के आधार पर सुनार को बिलकुल वैसा ही हार,मात्र दो दिन में तैयार करने का आदेश दे आए। तीसरे दिन सुनार के यहाँ से हार लाकर स्वरूप जी को सौप दिया। लिजिये सम्हालिये अपना हार।
घर आकर स्वरूप जी ने हार श्रीमति को सौपते हुए हक़िक़त बता दी। पत्नी ने कहा- मैं न कहती थी,बाकि सब पकडे जाने पर बहाना है, भला कोई बिना बताए सोने का हार लेकर जाता है ? समधी सही व्यक्ति नहीं है, आप आज ही समाचार कर दिजिये कि यह रिश्ता नहीं हो सकता। स्वरूप जी नें फ़ोन पर गोपाल जी को सूचना दे दी, गोपाल जी कुछ न बोले।उन्हे आभास था ऐसा ही होना है।
सप्ताह बाद स्वरूप जी की पत्नी साफ सफ़ाई कर रही थी, उन्होने पूरा ड्रॉअर ही बाहर निकाला तो पिछे के भाग में से हार मिला, निश्चित करने के लिये दूसरा हार ढूढा तो वह भी था। दो हार थे। वह सोचने लगी, अरे यह तो भारी हुआ, समधी जी नें इल्जाम से बचने के लिये ऐसा ही दूसरा हार बनवा कर दिया है।
तत्काल उसने स्वरूप जी को वस्तुस्थिति बताई, और कहा समधी जी तो बहुत उंचे खानदानी है। ऐसे समधी खोना तो रत्न खोने के समान है। आप पुनः जाईए, उन्हें हार वापस लौटा कर और समझा कर रिश्ता पुनः जोड कर आईए। ऐसा रिश्ता बार बार नहीं मिलता।
स्वरूप जी पुनः दुविधा में फंस गये, पर ऐसे विवेकवान समधी से पुनः सम्बंध जोडने का प्रयास उन्हे भी उचित लग रहा था। सफलता में उन्हें भी संदेह था पर सोचा एक कोशीश तो करनी ही चाहिए।
स्वरूप जी, गोपाल जी के यहां पहूँचे, गोपाल जी समझ गये कि शायद पुराना हार मिल चुका होगा।
स्वरूप जी ने क्षमायाचना करते हुए हार सौपा और अनुनय करने लगे कि जल्दबाजी में हमारा सोचना गलत था। आप हमारी भूलों को क्षमा कर दिजिए, और उसी सम्बंध को पुनः कायम किजिए।
गोपाल जी नें कहा देखो स्वरूप जी यह रिश्ता तो अब हो नहीं सकता, आपके घर में शक्की और जल्दबाजी के संस्कार है जो कभी भी मेरे घर के संस्कारो को प्रभावित कर सकते है।
लेकिन मैं आपको निराश नहीं करूंगा। मैं अपनी बेटी का रिश्ता आपके बेटे के लिये देता हूँ, मेरी बेटी में वो संस्कार है जो आपके परिवार को भी सुधार देने में सक्षम है। मुझे अपने संस्कारो पर पूरा भरोसा है। पहले रिश्ते में जहां दो घर बिगडने की सम्भावनाएं थी, वहां यह नया रिश्ता दोनो घर सुधारने में सक्षम होगा। स्वरूप जी की आंखे ऐसा हितैषी पाकर छल छला आई।
गोपालदास जी किसी कार्य के बहाने स्वरूपदास जी के घर पहूंच गये, कन्या स्वरूपवान थी देखते ही उन्हे पुत्रवधु के रूप में पसन्द आ गई। गोपालदास जी ने रिश्ते की बात चलाई जिसे स्वरूपदास जी ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। स्वरूपदास जी की पत्नी ने मिष्ठान भोजन आदि से आगत स्वागत की।
संयोगवश स्वरूपदास जी की पत्नी के लिये नवसहर का सोने का हार आज ही बनकर आया था। समधन ने बडे उत्साह से समधी को दिखाया, हार वास्तव में सुन्दर था। गोपालदास जी ने जी भरकर उस हार की तारीफ की। कुछ देर आपस में बातें चली और फ़िर गोपालदास जी ने लौटने के लिये विदा मांगी और घर के लिये चल दिये।
चार दिन बाद ही स्वरूपदास जी की पत्नी को किसी समारोह में जाने की योजना बनी, और उन्हे वही हार पहनना था। उन्होने ड्रॉअर का कोना कोना छान मारा पर हार नहीं मिला। सोचने लगी हार गया तो गया कहाँ? कुछ निश्चय किया और स्वरूपदास जी को बताया कि हार गोपालदास जी, चोरी कर गये है।
स्वरूपदास जी ने कहा भागवान! ठीक से देख, घर में ही कहीं होगा, समधी ऐसी हरक़त नहीं कर सकते। उसने कहा मैने सब जगह देख लिया है और मुझे पूरा यकीन है हार गोपाल जी ही ले गये है, हार देखते ही उनकी आंखे फ़ट गई थी। वे बडा घूर कर देख रहे थे, निश्चित ही हार तो समधी जी ही लेकर गये है।आप गोपाल जी के यहां जाईए और पूछिए, देखना! हार वहां से ही मिलेगा।
बडी ना-नुकर के बाद पत्नी की जिद्द के आगे स्वरूप जी को झुकना पडा और बडे भारी मन से वे गोपाल जी के घर पहूंचे। आचानक स्वरूप जी को घर आया देखकर गोपाल जी शंकित हो उठे कि क्या बात हो गई?
स्वरूपजी दुविधा में कि आखिर समधी से कैसे पूछा जाय। इधर उधर की बात करते हुए साहस जुटा कर बोले- आप जिस दिन हमारे घर आए थे, उसी दिन घर एक हार आया था, वह मिल नहीं रहा।
कुछ क्षण के लिये गोपाल जी विचार में पडे, और बोले अरे हां, ‘वह हार तो मैं लेकर आया था’, मुझे अपनी पुत्री के लिये ऐसा ही हार बनवाना था, अतः सुनार को सेम्पल दिखाने के लिये, मैं ही ले आया था। वह हार तो अब सुनार के यहां है। आप तीन दिन रुकिये और हार ले जाईए। किन्तु असलियत में तो हार के बारे में पूछते ही गोपाल जी को आभास हो गया कि हो न हो समधन ने चोरी का इल्जाम लगाया है।
उसी समय सुनार के यहां जाकर, देखे गये हार की डिज़ाइन के आधार पर सुनार को बिलकुल वैसा ही हार,मात्र दो दिन में तैयार करने का आदेश दे आए। तीसरे दिन सुनार के यहाँ से हार लाकर स्वरूप जी को सौप दिया। लिजिये सम्हालिये अपना हार।
घर आकर स्वरूप जी ने हार श्रीमति को सौपते हुए हक़िक़त बता दी। पत्नी ने कहा- मैं न कहती थी,बाकि सब पकडे जाने पर बहाना है, भला कोई बिना बताए सोने का हार लेकर जाता है ? समधी सही व्यक्ति नहीं है, आप आज ही समाचार कर दिजिये कि यह रिश्ता नहीं हो सकता। स्वरूप जी नें फ़ोन पर गोपाल जी को सूचना दे दी, गोपाल जी कुछ न बोले।उन्हे आभास था ऐसा ही होना है।
सप्ताह बाद स्वरूप जी की पत्नी साफ सफ़ाई कर रही थी, उन्होने पूरा ड्रॉअर ही बाहर निकाला तो पिछे के भाग में से हार मिला, निश्चित करने के लिये दूसरा हार ढूढा तो वह भी था। दो हार थे। वह सोचने लगी, अरे यह तो भारी हुआ, समधी जी नें इल्जाम से बचने के लिये ऐसा ही दूसरा हार बनवा कर दिया है।
तत्काल उसने स्वरूप जी को वस्तुस्थिति बताई, और कहा समधी जी तो बहुत उंचे खानदानी है। ऐसे समधी खोना तो रत्न खोने के समान है। आप पुनः जाईए, उन्हें हार वापस लौटा कर और समझा कर रिश्ता पुनः जोड कर आईए। ऐसा रिश्ता बार बार नहीं मिलता।
स्वरूप जी पुनः दुविधा में फंस गये, पर ऐसे विवेकवान समधी से पुनः सम्बंध जोडने का प्रयास उन्हे भी उचित लग रहा था। सफलता में उन्हें भी संदेह था पर सोचा एक कोशीश तो करनी ही चाहिए।
स्वरूप जी, गोपाल जी के यहां पहूँचे, गोपाल जी समझ गये कि शायद पुराना हार मिल चुका होगा।
स्वरूप जी ने क्षमायाचना करते हुए हार सौपा और अनुनय करने लगे कि जल्दबाजी में हमारा सोचना गलत था। आप हमारी भूलों को क्षमा कर दिजिए, और उसी सम्बंध को पुनः कायम किजिए।
गोपाल जी नें कहा देखो स्वरूप जी यह रिश्ता तो अब हो नहीं सकता, आपके घर में शक्की और जल्दबाजी के संस्कार है जो कभी भी मेरे घर के संस्कारो को प्रभावित कर सकते है।
लेकिन मैं आपको निराश नहीं करूंगा। मैं अपनी बेटी का रिश्ता आपके बेटे के लिये देता हूँ, मेरी बेटी में वो संस्कार है जो आपके परिवार को भी सुधार देने में सक्षम है। मुझे अपने संस्कारो पर पूरा भरोसा है। पहले रिश्ते में जहां दो घर बिगडने की सम्भावनाएं थी, वहां यह नया रिश्ता दोनो घर सुधारने में सक्षम होगा। स्वरूप जी की आंखे ऐसा हितैषी पाकर छल छला आई।
👉 कर्ज से छुटकारा पाना ही ठीक है। (अंतिम भाग)
अपने रुके हुये काम को आगे बढ़ाने के या कोई आर्थिक धन्धा चलाने के लिये थोड़े समय के लिए किसी आत्मीय जन से सहायता लेकर थोड़े ही दिनों में उसे लौटा देना अनुचित भले ही न कहा जाय, पर जिन्होंने कर्ज को एक तरह का पेशा ही समझ लिया हो, उनको चाहिए कि वे समाज में वैमनस्यता उत्पन्न करने के अपराध से बचें। कर्ज से चिन्ता बढ़ती है और कार्य क्षमता घटती है। इससे राष्ट्रीय संपत्ति का नाश होता है इस लिये ऋणी होना अनागरिक कर्म की कहा जायगा। इससे बचने में ही मनुष्य का कल्याण है।
आध्यात्मिक दृष्टि से तो ऋणी होना और भी अपराध है। धर्म-ग्रन्थों में तो यहाँ तक कहा जाता है कि जो इस जीवन में ऋण नहीं चुका पाते उन्हें निम्न-योनियों में जन्म लेकर इसका भुगतान करना पड़ता है। इस पर भले ही लोग विश्वास न करें पर यह बात सभी समझ सकते हैं चरित्र और नैतिक साहस को गिराने में ऋण बहुत बड़ा सहायक है। इससे अकर्मण्यता और फिजूलखर्ची को पोषण मिलता है, कटुता बढ़ती है और सामाजिक सन्तुलन बिगड़ता है।
मनुष्य को परमात्मा ने बड़ी शक्ति असीम साधन और अतुलित पौरुष प्रदान किया है। इन्हीं के सहारे वह अपनी प्रगति कर सकता है। ऋणी होना न तो विकास ही दृष्टि से उचित है और न आध्यात्मिक दृष्टि से ही। इससे तो छुटकारा पाना ही ठीक है। कोई अकस्मात दुर्घटना जीवन संकट जैसे अवसर उपस्थित हों, और अपने साधन उस स्थिति का मुकाबला करने में असमर्थ हो रहे हों तो कर्ज लेना दूसरी बात है, पर आलस से दिन काटते हुये शरीर मौज के लिए तो कदापि कर्ज नहीं लिया जाना चाहिये। और न ऐसे लोगों को कर्ज देना ही चाहिये। इस्लाम धर्म में ब्याज को हराम, इसलिये कहा गया है कि ऋण का व्यवसाय अन्तः जगत के लिये हर समय ही हानिकारक सिद्ध होता है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति अप्रैल 1966 पृष्ठ 45
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1965/April/v1.45
आध्यात्मिक दृष्टि से तो ऋणी होना और भी अपराध है। धर्म-ग्रन्थों में तो यहाँ तक कहा जाता है कि जो इस जीवन में ऋण नहीं चुका पाते उन्हें निम्न-योनियों में जन्म लेकर इसका भुगतान करना पड़ता है। इस पर भले ही लोग विश्वास न करें पर यह बात सभी समझ सकते हैं चरित्र और नैतिक साहस को गिराने में ऋण बहुत बड़ा सहायक है। इससे अकर्मण्यता और फिजूलखर्ची को पोषण मिलता है, कटुता बढ़ती है और सामाजिक सन्तुलन बिगड़ता है।
मनुष्य को परमात्मा ने बड़ी शक्ति असीम साधन और अतुलित पौरुष प्रदान किया है। इन्हीं के सहारे वह अपनी प्रगति कर सकता है। ऋणी होना न तो विकास ही दृष्टि से उचित है और न आध्यात्मिक दृष्टि से ही। इससे तो छुटकारा पाना ही ठीक है। कोई अकस्मात दुर्घटना जीवन संकट जैसे अवसर उपस्थित हों, और अपने साधन उस स्थिति का मुकाबला करने में असमर्थ हो रहे हों तो कर्ज लेना दूसरी बात है, पर आलस से दिन काटते हुये शरीर मौज के लिए तो कदापि कर्ज नहीं लिया जाना चाहिये। और न ऐसे लोगों को कर्ज देना ही चाहिये। इस्लाम धर्म में ब्याज को हराम, इसलिये कहा गया है कि ऋण का व्यवसाय अन्तः जगत के लिये हर समय ही हानिकारक सिद्ध होता है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति अप्रैल 1966 पृष्ठ 45
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1965/April/v1.45
👉 आध्यात्मिक तेज का प्रज्वलित पुंज होता है चिकित्सक (भाग ८६)
👉 पंचशीलों को अपनाएँ, आध्यात्मिक चिकित्सा की ओर कदम बढ़ाएँ
इन्हें आध्यात्मिक चिकित्सा के पंचशील की संज्ञा दी जा सकती है। इन्हें मां गायत्री के पंचमुख और उनकी पूजा में प्रयुक्त होने वाला पंचोपचार भी कहा जा सकता है। जिन्हें आध्यात्मिक चिकित्सा में अभिरूचि है उन्हें इस बात की शपथ लेनी चाहिए कि इनका पालन अपने व्यक्तिगत जीवन में संकल्पपूर्वक होता रहे। आध्यात्मिक चिकित्सा के विशेषज्ञों ने इन्हें अपने स्तर पर आजीवन अपनाया है। यही उनकी दिव्य विभूतियों व आध्यात्मिक शक्तियों का स्रोत साबित होता रहा है। अब बारी उनकी है, जो आध्यात्मिक स्वास्थ्य व इसकी प्रयोग विधि से परिचित होना चाहते हैं। इच्छा यही है कि उनमें इन पंचशीलों के पालन का उत्साह उमड़े और वे इसके लिए इसी शारदीय नवरात्रि से साधना स्तर का प्रयत्न प्रारम्भ कर दें।
१. बनें अपने आध्यात्मिक विश्व के विश्वामित्र- जिस दुनिया में हम जीते हैं, उसका चिन्तन व व्यवहार ही यदि अपने को प्रेरित प्रभावित करता रहे तो फिर आध्यात्मिक जीवन दृष्टि अपनाने की आशा नहीं के बराबर रहेगी। लोग तो वासना, तृष्णा और अहंता का पेट भरने के अलावा और किसी श्रेष्ठ मकसद के लिए न तो सोचते हैं और न करते हैं। उनका प्रभाव और परामर्श अपने ही दायरे में घसीटता है। यदि जीवन में आध्यात्मिक चिकित्सा करनी है तो सबसे पहले अपना प्रेरणा स्रोत बदलना पड़ेगा। परामर्श के नए आधार अपनाने पड़ेंगे। अनुकरण के नए आदर्श ढूँढने पड़ेंगे।
इसके लिए हमें आध्यात्मिक चिकित्सा के मर्मज्ञों व विशेषज्ञों को अपना प्रेरणा स्रोत बनाना होगा। हां, यह सच है कि ऐसे लोग विरल होते हैं। हर गली- कूचे में इन्हें नहीं ढूँढा जा सकता। ऐसी स्थिति में हमें उन महान् आध्यात्मिक चिकित्सकों के विचारों के संसर्ग में रहना चाहिए, जिनका जीवन हमें बार- बार आकॢषत करता है। हमारे प्रेरणा स्रोत युगऋषि परम पूज्य गुरुदेव, महर्षि श्री अरविन्द, स्वामी विवेकानन्द स्तर के कोई महामानव हो सकते हैं। इनमें से किसी से और इनमें से सभी से अपना भाव भरा नाता जोड़ा जा सकता है। अपने जीवन की महत्त्वपूर्ण समस्याओं के समाधान के लिए इनके व्यक्तित्व व विचारों से परामर्श किया जाना चाहिए। इन सबकी हैसियत हमारे जीवन में परिवार के सदस्यों की तरह होनी चाहिए। महर्षि विश्वामित्र की भाँति हमें संकल्पपूर्वक अभी इन्हीं क्षणों में अपना यह नया आध्यात्मिक विश्व बसा लेना चाहिए। दैनिक क्रिया कलापों को करते हुए हमें अपना अधिकतम समय अपने इसी आध्यात्मिक विश्व में बिताना चाहिए। ऐसा हो सके तो समझना चाहिए कि अपनी आध्यात्मिक चिकित्सा का एक अति महत्त्वपूर्ण आधार मिल गया।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ १२०
इन्हें आध्यात्मिक चिकित्सा के पंचशील की संज्ञा दी जा सकती है। इन्हें मां गायत्री के पंचमुख और उनकी पूजा में प्रयुक्त होने वाला पंचोपचार भी कहा जा सकता है। जिन्हें आध्यात्मिक चिकित्सा में अभिरूचि है उन्हें इस बात की शपथ लेनी चाहिए कि इनका पालन अपने व्यक्तिगत जीवन में संकल्पपूर्वक होता रहे। आध्यात्मिक चिकित्सा के विशेषज्ञों ने इन्हें अपने स्तर पर आजीवन अपनाया है। यही उनकी दिव्य विभूतियों व आध्यात्मिक शक्तियों का स्रोत साबित होता रहा है। अब बारी उनकी है, जो आध्यात्मिक स्वास्थ्य व इसकी प्रयोग विधि से परिचित होना चाहते हैं। इच्छा यही है कि उनमें इन पंचशीलों के पालन का उत्साह उमड़े और वे इसके लिए इसी शारदीय नवरात्रि से साधना स्तर का प्रयत्न प्रारम्भ कर दें।
१. बनें अपने आध्यात्मिक विश्व के विश्वामित्र- जिस दुनिया में हम जीते हैं, उसका चिन्तन व व्यवहार ही यदि अपने को प्रेरित प्रभावित करता रहे तो फिर आध्यात्मिक जीवन दृष्टि अपनाने की आशा नहीं के बराबर रहेगी। लोग तो वासना, तृष्णा और अहंता का पेट भरने के अलावा और किसी श्रेष्ठ मकसद के लिए न तो सोचते हैं और न करते हैं। उनका प्रभाव और परामर्श अपने ही दायरे में घसीटता है। यदि जीवन में आध्यात्मिक चिकित्सा करनी है तो सबसे पहले अपना प्रेरणा स्रोत बदलना पड़ेगा। परामर्श के नए आधार अपनाने पड़ेंगे। अनुकरण के नए आदर्श ढूँढने पड़ेंगे।
इसके लिए हमें आध्यात्मिक चिकित्सा के मर्मज्ञों व विशेषज्ञों को अपना प्रेरणा स्रोत बनाना होगा। हां, यह सच है कि ऐसे लोग विरल होते हैं। हर गली- कूचे में इन्हें नहीं ढूँढा जा सकता। ऐसी स्थिति में हमें उन महान् आध्यात्मिक चिकित्सकों के विचारों के संसर्ग में रहना चाहिए, जिनका जीवन हमें बार- बार आकॢषत करता है। हमारे प्रेरणा स्रोत युगऋषि परम पूज्य गुरुदेव, महर्षि श्री अरविन्द, स्वामी विवेकानन्द स्तर के कोई महामानव हो सकते हैं। इनमें से किसी से और इनमें से सभी से अपना भाव भरा नाता जोड़ा जा सकता है। अपने जीवन की महत्त्वपूर्ण समस्याओं के समाधान के लिए इनके व्यक्तित्व व विचारों से परामर्श किया जाना चाहिए। इन सबकी हैसियत हमारे जीवन में परिवार के सदस्यों की तरह होनी चाहिए। महर्षि विश्वामित्र की भाँति हमें संकल्पपूर्वक अभी इन्हीं क्षणों में अपना यह नया आध्यात्मिक विश्व बसा लेना चाहिए। दैनिक क्रिया कलापों को करते हुए हमें अपना अधिकतम समय अपने इसी आध्यात्मिक विश्व में बिताना चाहिए। ऐसा हो सके तो समझना चाहिए कि अपनी आध्यात्मिक चिकित्सा का एक अति महत्त्वपूर्ण आधार मिल गया।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ १२०
👉 गुरुवर की वाणी
★ प्रखर प्रतिभा संकीर्ण स्वार्थपरता से ऊंची उठी होती है। उसे मानवी गरिमा का ध्यान रहता है। उसमें आदर्शों के प्रति अनन्य निष्ठा का समावेश रहता है। लोकमंगल और सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन से उसे गहरी रुचि रहती है। ऐसे लोग असफल रहने पर शहीदों में गिने और देवताओं की तरह पूजे जाते हैं। यदि वे सफल होते हैं, तो इतिहास बदल देते हैं। प्रवाहों को उलटना इन्हीं का काम होता है।
(21 वीं सदी बनाव उज्ज्वल भविष्य-29)
◆ अवांछनीयताओं के विरुद्ध मोर्चा लेने के लिए अपनी नीति और कार्यपद्धति स्पष्ट है। ज्ञानयज्ञ का- विचार क्रान्ति का प्रचार अभियान इसीलिए खड़ा किया गया है। अवांछनीयताएं वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन में बेतरह घुस पड़ी हैं। यह सब चल इस लिए रहा है कि उसे सहन कर लिया गया है। इसके लिए लोकमानस ने समझौता कर लिया है और बहुत हद तक उसे अपना लिया है। जन साधारण को प्रचार अभियान द्वारा प्रकाश का लाभ और अंधकार की हानि को गहराई तक अनुभव करा दिया, तो निश्चय ही दुष्प्रवृत्तियों के विरुद्ध विद्रोह भड़क सकता है। अवांछनीयता एवं दुष्प्रवृत्तियों के विरुद्ध संघर्ष व्यापक रूप से खड़ा किया जाना चाहिए। इसके लिए भर्त्सना अभियान चलाएं।
(हमारी युग निर्माण योजना-2, पेज-203)
■ दुर्योधन जैसे अनीति का चयन करने वाले एवं अर्जुन जैसे ईश्वरीय कृपा को वरण करने वाले तत्त्व हर मनुष्य के भीतर विद्यमान है। एक को विवेक या सुबुद्धि एवं दूसरे को अविवेक या दुर्बुद्धि कह सकते हैं। किसका चयन व्यक्ति करता है, यह उसकी स्वतंत्रता है।
(प्रज्ञापुराण-1, पेज-51)
★ समस्त मनुष्य समाज एक शरीर की तरह है और उसके घटकों को सुख-दुःख में सहयोगी रहना पड़ता है। एक नाव में बैठने वाले साथ-साथ डूबते पार होते हैं। मानवी चिन्तन और चरित्र यदि निकृष्टता के प्रवाह में बहेगा तो उसकी अवांछनीय प्रतिक्रिया सूक्ष्म जगत् में विषाक्त विक्षोभ उत्पन्न करेगी और प्राकृतिक विपत्तियों के रूप में प्रकृति प्रताड़ना बरसेगी। चित्र-विचित्र स्तर के दैवी प्रकोप, संकटों और त्रासों से जनजीवन को अस्त-व्यस्त करके रख देंगे। हर व्यक्ति का कर्तव्य है कि अपनी सज्जनता तक ही न सीमित रहे, वरन् आगे बढ़कर संपर्क क्षेत्रों की अवांछनीयता से जूझें। जो इस समूह धर्म की अवहेलना करता है, वह भी विश्व व्यवस्था की अदालत में अपराधी माना जाता है।
(प्रज्ञा अभियान का दर्शन, स्वरूप-8)
(21 वीं सदी बनाव उज्ज्वल भविष्य-29)
◆ अवांछनीयताओं के विरुद्ध मोर्चा लेने के लिए अपनी नीति और कार्यपद्धति स्पष्ट है। ज्ञानयज्ञ का- विचार क्रान्ति का प्रचार अभियान इसीलिए खड़ा किया गया है। अवांछनीयताएं वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन में बेतरह घुस पड़ी हैं। यह सब चल इस लिए रहा है कि उसे सहन कर लिया गया है। इसके लिए लोकमानस ने समझौता कर लिया है और बहुत हद तक उसे अपना लिया है। जन साधारण को प्रचार अभियान द्वारा प्रकाश का लाभ और अंधकार की हानि को गहराई तक अनुभव करा दिया, तो निश्चय ही दुष्प्रवृत्तियों के विरुद्ध विद्रोह भड़क सकता है। अवांछनीयता एवं दुष्प्रवृत्तियों के विरुद्ध संघर्ष व्यापक रूप से खड़ा किया जाना चाहिए। इसके लिए भर्त्सना अभियान चलाएं।
(हमारी युग निर्माण योजना-2, पेज-203)
■ दुर्योधन जैसे अनीति का चयन करने वाले एवं अर्जुन जैसे ईश्वरीय कृपा को वरण करने वाले तत्त्व हर मनुष्य के भीतर विद्यमान है। एक को विवेक या सुबुद्धि एवं दूसरे को अविवेक या दुर्बुद्धि कह सकते हैं। किसका चयन व्यक्ति करता है, यह उसकी स्वतंत्रता है।
(प्रज्ञापुराण-1, पेज-51)
★ समस्त मनुष्य समाज एक शरीर की तरह है और उसके घटकों को सुख-दुःख में सहयोगी रहना पड़ता है। एक नाव में बैठने वाले साथ-साथ डूबते पार होते हैं। मानवी चिन्तन और चरित्र यदि निकृष्टता के प्रवाह में बहेगा तो उसकी अवांछनीय प्रतिक्रिया सूक्ष्म जगत् में विषाक्त विक्षोभ उत्पन्न करेगी और प्राकृतिक विपत्तियों के रूप में प्रकृति प्रताड़ना बरसेगी। चित्र-विचित्र स्तर के दैवी प्रकोप, संकटों और त्रासों से जनजीवन को अस्त-व्यस्त करके रख देंगे। हर व्यक्ति का कर्तव्य है कि अपनी सज्जनता तक ही न सीमित रहे, वरन् आगे बढ़कर संपर्क क्षेत्रों की अवांछनीयता से जूझें। जो इस समूह धर्म की अवहेलना करता है, वह भी विश्व व्यवस्था की अदालत में अपराधी माना जाता है।
(प्रज्ञा अभियान का दर्शन, स्वरूप-8)
शनिवार, 26 अक्टूबर 2019
👉 कर्ज से छुटकारा पाना ही ठीक है। (भाग ३)
उधार लेते समय प्रायः सभी यह सोचते हैं कि फसल की अच्छी कमाई होगी, बीमा पॉलिसी मिलेगी, मकान का किराया आवेगा या प्राविडेण्ट फण्ड का पैसा मिलेगा तब आसानी से इसे अदा कर देंगे। यह सोचकर लोग शादी-विवाह, मृतक संस्कार, भोज या अन्य किसी आवश्यकता के लिये कर्ज ले लेते हैं। अदायगी के समय तक सूद ही बहुत बढ़ जाता है, फिर उस समय भी तो खर्चे बने रहते हैं अतः. देने में बड़ी कठिनाई आती है। इस तरह ऋणी और साहूकार के आपसी सम्बन्ध भी खराब होते हैं, और देने वालों की कमाई का वह भाग व्यर्थ ही चला जाता है जिससे परिवार के अन्य सदस्यों के विकास में सहायता मिल सकती थी।
सूद के रूप में दिया जाने वाला पैसा एक तरह का अपने परिजनों की प्रगति पर आघात है। जेवर या जमीन रखकर लिया गया पैसा भी अपराध ही है क्योंकि इनके बदले में ली गई मूल रकम तो चुकानी ही पड़ती है, ब्याज भी देना पड़ता है और इन वस्तुओं का उपयोग भी कुछ नहीं हो पाता। कुछ दिन कठिनाइयों को सहन कर लेना या जेवर बेच देना कर्ज लेन से कहीं अधिक अच्छा है क्यों कि इससे हमारा नैतिक साहस ऊँचा उठा रहता है और सूद पर अकारण जाने वाला धन भी बच जाता है।
ऋण मनुष्य की खर्चीली प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देता है। चोरी, बेईमानी, जुआ, सट्टा आदि से ग्रसित लोगों को प्रायः ऋणी देखा जाता है क्योंकि इन लोगों को धन बेरोक टोक खर्च करने का स्वभाव हो जाता है। इससे विलासिता बढ़ती है और लोग पूर्व संचित संपत्ति भी गँवा देते है। ऋण के फेर में फँस कर धनी, सेठ, साहूकार तक अपनी बड़ी-बड़ी दुकानें, मकान आदि गँवा कर निर्धन हो जाते हैं। उदारता वश किसी की सहायता करके उसे आर्थिक धन्धा दे देना दूसरी बात है किन्तु ऋण लेने देने की आदत को व्यवसायिक रूप देना सदैव ही घातक होता है। अधिकाँश मध्यम वर्ग के लोगों में यह बुरी लत पड़ जाती है। अपने को ऊँचा करने के लिए सीमित साधनों से आगे बढ़ने का प्रयत्न करना ही कर्ज का कारण बन जाता है। लोग यह समझते हैं कि अमुक कार्य इस ढंग का नहीं होगा तो दूसरे व्यक्ति अपमानित करेंगे, छोटा समझेंगे। अपनी हेठी न हो इसी कायरता के कारण लोग आर्थिक परतन्त्रता स्वीकार कर लेते हैं। किन्तु यह एक मामूली सी समस्या है, लोग अपनी औकात के अनुसार खर्च की मर्यादा बनाये रहें तो ऋण लेने की समस्या कभी भी सामने न आये।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति अप्रैल 1966 पृष्ठ 45
सूद के रूप में दिया जाने वाला पैसा एक तरह का अपने परिजनों की प्रगति पर आघात है। जेवर या जमीन रखकर लिया गया पैसा भी अपराध ही है क्योंकि इनके बदले में ली गई मूल रकम तो चुकानी ही पड़ती है, ब्याज भी देना पड़ता है और इन वस्तुओं का उपयोग भी कुछ नहीं हो पाता। कुछ दिन कठिनाइयों को सहन कर लेना या जेवर बेच देना कर्ज लेन से कहीं अधिक अच्छा है क्यों कि इससे हमारा नैतिक साहस ऊँचा उठा रहता है और सूद पर अकारण जाने वाला धन भी बच जाता है।
ऋण मनुष्य की खर्चीली प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देता है। चोरी, बेईमानी, जुआ, सट्टा आदि से ग्रसित लोगों को प्रायः ऋणी देखा जाता है क्योंकि इन लोगों को धन बेरोक टोक खर्च करने का स्वभाव हो जाता है। इससे विलासिता बढ़ती है और लोग पूर्व संचित संपत्ति भी गँवा देते है। ऋण के फेर में फँस कर धनी, सेठ, साहूकार तक अपनी बड़ी-बड़ी दुकानें, मकान आदि गँवा कर निर्धन हो जाते हैं। उदारता वश किसी की सहायता करके उसे आर्थिक धन्धा दे देना दूसरी बात है किन्तु ऋण लेने देने की आदत को व्यवसायिक रूप देना सदैव ही घातक होता है। अधिकाँश मध्यम वर्ग के लोगों में यह बुरी लत पड़ जाती है। अपने को ऊँचा करने के लिए सीमित साधनों से आगे बढ़ने का प्रयत्न करना ही कर्ज का कारण बन जाता है। लोग यह समझते हैं कि अमुक कार्य इस ढंग का नहीं होगा तो दूसरे व्यक्ति अपमानित करेंगे, छोटा समझेंगे। अपनी हेठी न हो इसी कायरता के कारण लोग आर्थिक परतन्त्रता स्वीकार कर लेते हैं। किन्तु यह एक मामूली सी समस्या है, लोग अपनी औकात के अनुसार खर्च की मर्यादा बनाये रहें तो ऋण लेने की समस्या कभी भी सामने न आये।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति अप्रैल 1966 पृष्ठ 45
👉 आध्यात्मिक तेज का प्रज्वलित पुंज होता है चिकित्सक (भाग ८5)
👉 पंचशीलों को अपनाएँ, आध्यात्मिक चिकित्सा की ओर कदम बढ़ाएँ
आध्यात्मिक स्वास्थ्य का अर्थ समझें- आध्यात्मिक चिकित्सा की ओर बढ़ाएँ कदम! यही वह दैवी सन्देश है- जिसे इस समय अन्तस् सुना रहा है। हिमालय की हवाओं ने जिसे हम सबके लिए भेजा है। नवरात्रि के पवित्र पलों में इसी की साधना की जानी है। भगवती महाशक्ति से यही प्रार्थना की जानी है कि हम सभी आध्यात्मिक स्वास्थ्य का अर्थ और मर्म समझ सकें। और भारत देश फिर से आध्यात्मिक चिकित्सा में अग्रणी हो। इसी सन्देश को ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान की रजत जयंती के अवसर पर जन- जन को सुनाया जाना है। क्योंकि स्वास्थ्य किसी एक की समस्या नहीं है। अकेले अपने महादेश भारत में ही नहीं- सम्पूर्ण विश्व के कोटि- कोटि जन इससे ग्रसित हैं। सच तो यह है कि जो अपने को स्वस्थ कहते हैं, वे भी किसी न किसी रूप में बीमार हैं।
जिनका तन ठीक है, उनका मन बीमार है। आध्यात्मिक स्वास्थ्य के अर्थ से प्रायः सभी अपरिचित हैं। हालांकि इसका परिचय- इसकी परिभाषा इतनी ही है कि तन और मन ही नहीं हमारी जीवात्मा भी अपने स्व में स्थित हो। हमारी आत्म शक्तियाँ जीवन के सभी आयामों से अभिव्यक्त हों। हम भगवान् के अभिन्न अंश हैं यह बात हमारे व्यवहार, विचार व भावनाओं से प्रमाणित हो। यदि ऐसा कुछ हमारी अनुभूतियों में समाएगा तभी हम आध्यात्मिक स्वास्थ्य का सही अहसास कर पाएँगे। इसी के साथ हमारे- हम सबके कदम साहसिक साधनाओं की ओर बढ़ने चाहिए। तभी हम आध्यात्मिक चिकित्सा की ओर बढ़ सकते हैं और भविष्य में आध्यात्मिक चिकित्सक होने का गौरव पा सकते हैं।
बात जब आध्यात्मिक चिकित्सा की चलती है तो इसे कतिपय क्रियाओं- कर्मकाण्डों व प्रयोगों तक सीमित मान लिया जाता है। और आध्यात्मिक जीवन दृष्टि की अपेक्षा- अवहेलना की जाती है। इस अवहेलना भरी अनदेखी के कारण ये कर्मकाण्ड और प्रयोग थोड़े ही समय में अपने प्रभाव का प्रदर्शन करके किसी अंधियारे में समा जाते हैं। इस सच को हर हालत में समझा जाना चाहिए कि आध्यात्मिक जीवन दृष्टि ही सभी आध्यात्मिक उपचारों व प्रयोगों की ऊर्जा का स्रोत है। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती है। इसी वजह से जो अध्यात्म चिकित्सा के सिद्धान्तों व प्रयोगों के विशेषज्ञ व मर्मज्ञ हैं उन्होंने पाँच सूत्रों को अपनाने की बात कही है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ ११९
आध्यात्मिक स्वास्थ्य का अर्थ समझें- आध्यात्मिक चिकित्सा की ओर बढ़ाएँ कदम! यही वह दैवी सन्देश है- जिसे इस समय अन्तस् सुना रहा है। हिमालय की हवाओं ने जिसे हम सबके लिए भेजा है। नवरात्रि के पवित्र पलों में इसी की साधना की जानी है। भगवती महाशक्ति से यही प्रार्थना की जानी है कि हम सभी आध्यात्मिक स्वास्थ्य का अर्थ और मर्म समझ सकें। और भारत देश फिर से आध्यात्मिक चिकित्सा में अग्रणी हो। इसी सन्देश को ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान की रजत जयंती के अवसर पर जन- जन को सुनाया जाना है। क्योंकि स्वास्थ्य किसी एक की समस्या नहीं है। अकेले अपने महादेश भारत में ही नहीं- सम्पूर्ण विश्व के कोटि- कोटि जन इससे ग्रसित हैं। सच तो यह है कि जो अपने को स्वस्थ कहते हैं, वे भी किसी न किसी रूप में बीमार हैं।
जिनका तन ठीक है, उनका मन बीमार है। आध्यात्मिक स्वास्थ्य के अर्थ से प्रायः सभी अपरिचित हैं। हालांकि इसका परिचय- इसकी परिभाषा इतनी ही है कि तन और मन ही नहीं हमारी जीवात्मा भी अपने स्व में स्थित हो। हमारी आत्म शक्तियाँ जीवन के सभी आयामों से अभिव्यक्त हों। हम भगवान् के अभिन्न अंश हैं यह बात हमारे व्यवहार, विचार व भावनाओं से प्रमाणित हो। यदि ऐसा कुछ हमारी अनुभूतियों में समाएगा तभी हम आध्यात्मिक स्वास्थ्य का सही अहसास कर पाएँगे। इसी के साथ हमारे- हम सबके कदम साहसिक साधनाओं की ओर बढ़ने चाहिए। तभी हम आध्यात्मिक चिकित्सा की ओर बढ़ सकते हैं और भविष्य में आध्यात्मिक चिकित्सक होने का गौरव पा सकते हैं।
बात जब आध्यात्मिक चिकित्सा की चलती है तो इसे कतिपय क्रियाओं- कर्मकाण्डों व प्रयोगों तक सीमित मान लिया जाता है। और आध्यात्मिक जीवन दृष्टि की अपेक्षा- अवहेलना की जाती है। इस अवहेलना भरी अनदेखी के कारण ये कर्मकाण्ड और प्रयोग थोड़े ही समय में अपने प्रभाव का प्रदर्शन करके किसी अंधियारे में समा जाते हैं। इस सच को हर हालत में समझा जाना चाहिए कि आध्यात्मिक जीवन दृष्टि ही सभी आध्यात्मिक उपचारों व प्रयोगों की ऊर्जा का स्रोत है। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती है। इसी वजह से जो अध्यात्म चिकित्सा के सिद्धान्तों व प्रयोगों के विशेषज्ञ व मर्मज्ञ हैं उन्होंने पाँच सूत्रों को अपनाने की बात कही है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ ११९
शुक्रवार, 25 अक्टूबर 2019
बुधवार, 23 अक्टूबर 2019
👉 ज्ञान की चार बात
एक राजा के विशाल महल में एक सुंदर वाटिका थी,जिसमें अंगूरों की एक बेल लगी थी।वहां रोज एक चिड़िया आती और मीठे अंगूर चुन-चुनकर खा जाती और अधपके और खट्टे अंगूरों को नीचे गिरा देती।
माली ने चिड़िया को पकड़ने की बहुत कोशिश की पर वह हाथ नहीं आई। हताश होकर एक दिन माली ने राजा को यह बात बताई। यह सुनकर भानुप्रताप को आश्चर्य हुआ। उसने चिड़िया को सबक सिखाने की ठान ली और वाटिका में छिपकर बैठ गया।
जब चिड़िया अंगूर खाने आई तो राजा ने तेजी दिखाते हुए उसे पकड़ लिया। जब राजा चिड़िया को मारने लगा,तो चिड़िया ने कहा- हे राजन !! मुझे मत मारो। मैं आपको ज्ञान की 4 महत्वपूर्ण बातें बताऊंगी।'
राजा ने कहा, 'जल्दी बता।'
चिड़िया बोली, 'हे राजन !! सबसे पहले, तो हाथ में आए शत्रु को कभी मत छोड़ो।'
राजा ने कहा, 'दूसरी बात बता।'
चिड़िया ने कहा, 'असंभव बात पर भूलकर भी विश्वास मत करो और तीसरी बात यह है कि बीती बातों पर कभी पश्चाताप मत करो।'
राजा ने कहा, 'अब चौथी बात भी जल्दी बता दो।'
इस पर चिड़िया बोली, 'चौथी बात बड़ी गूढ़ और रहस्यमयी है। मुझे जरा ढीला छोड़ दें क्योंकि मेरा दम घुट रहा है। कुछ सांस लेकर ही बता सकूंगी।'
चिड़िया की बात सुन जैसे ही राजा ने अपना हाथ ढीला किया,चिड़िया उड़ कर एक डाल पर बैठ गई और बोली, 'मेरे पेट में दो हीरे हैं।'
यह सुनकर राजा पश्चाताप में डूब गया। राजा की हालत देख चिड़िया बोली, 'हे राजन !! ज्ञान की बात सुनने और पढ़ने से कुछ लाभ नहीं होता,उस पर अमल करने से होता है। आपने मेरी बात नहीं मानी।
मैं आपकी शत्रु थी, फिर भी आपने पकड़कर मुझे छोड़ दिया।
मैंने यह असंभव बात कही कि मेरे पेट में दो हीरे हैं फिर भी आपने उस पर भरोसा कर लिया।
आपके हाथ में वे काल्पनिक हीरे नहीं आए, तो आप पछताने लगे।
👉👉 उपदेशों को आचरण में उतारे बगैर उनका कोई मोल नहीं।
माली ने चिड़िया को पकड़ने की बहुत कोशिश की पर वह हाथ नहीं आई। हताश होकर एक दिन माली ने राजा को यह बात बताई। यह सुनकर भानुप्रताप को आश्चर्य हुआ। उसने चिड़िया को सबक सिखाने की ठान ली और वाटिका में छिपकर बैठ गया।
जब चिड़िया अंगूर खाने आई तो राजा ने तेजी दिखाते हुए उसे पकड़ लिया। जब राजा चिड़िया को मारने लगा,तो चिड़िया ने कहा- हे राजन !! मुझे मत मारो। मैं आपको ज्ञान की 4 महत्वपूर्ण बातें बताऊंगी।'
राजा ने कहा, 'जल्दी बता।'
चिड़िया बोली, 'हे राजन !! सबसे पहले, तो हाथ में आए शत्रु को कभी मत छोड़ो।'
राजा ने कहा, 'दूसरी बात बता।'
चिड़िया ने कहा, 'असंभव बात पर भूलकर भी विश्वास मत करो और तीसरी बात यह है कि बीती बातों पर कभी पश्चाताप मत करो।'
राजा ने कहा, 'अब चौथी बात भी जल्दी बता दो।'
इस पर चिड़िया बोली, 'चौथी बात बड़ी गूढ़ और रहस्यमयी है। मुझे जरा ढीला छोड़ दें क्योंकि मेरा दम घुट रहा है। कुछ सांस लेकर ही बता सकूंगी।'
चिड़िया की बात सुन जैसे ही राजा ने अपना हाथ ढीला किया,चिड़िया उड़ कर एक डाल पर बैठ गई और बोली, 'मेरे पेट में दो हीरे हैं।'
यह सुनकर राजा पश्चाताप में डूब गया। राजा की हालत देख चिड़िया बोली, 'हे राजन !! ज्ञान की बात सुनने और पढ़ने से कुछ लाभ नहीं होता,उस पर अमल करने से होता है। आपने मेरी बात नहीं मानी।
मैं आपकी शत्रु थी, फिर भी आपने पकड़कर मुझे छोड़ दिया।
मैंने यह असंभव बात कही कि मेरे पेट में दो हीरे हैं फिर भी आपने उस पर भरोसा कर लिया।
आपके हाथ में वे काल्पनिक हीरे नहीं आए, तो आप पछताने लगे।
👉👉 उपदेशों को आचरण में उतारे बगैर उनका कोई मोल नहीं।
👉 कर्ज से छुटकारा पाना ही ठीक है। (भाग २)
प्रमुख बात यह है कि हर मनुष्य में इतनी शक्ति और सामर्थ्य होती है कि वह अपनी शारीरिक, पारिवारिक जिम्मेदारियों का पालन ठीक तरह से कर ले। कर्ज की आवश्यकता उन्हीं को होती है जिन्हें अपना पारिवारिक खर्च ठीक प्रकार चलाना नहीं आता या जो श्रम-चोर होते हैं। उन्हें भी मिलता तो कुछ है नहीं और फालतू के व्यसन और पाल लेते हैं, सो उनकी पूर्ति के लिये कहीं से पैसा आना चाहिए। दुस्साहसी पुरुष चोरी छल आदि का आश्रय ले लेते हैं आलसी और अकर्मण्य इसके लिये दूसरों के आगे हाथ फैलाते हैं। कर्ज ले आना तो आसान बात है। चिकनी चुपड़ी बातें बनाकर या मित्रता का ढोंग बना कर किसी से उधार ले तो सकते हैं किन्तु जब अदायगी का समय आता है तो यह बोझ सारे परिवार की अर्थ व्यवस्था पर पड़ता है। फलस्वरूप परिवारों का सौमनस्य समाप्त हो जाता है। क्लेश, कलह और कटुता बढ़ जाती है। इसमें समय भी नष्ट होता है और सदस्यों की योग्यता भी व्यर्थ चली जाती है। कर्ज एक प्रकार से गृहस्थी को चौपट करने वाला होता है।
जिन लोगों की आमदनी बहुत थोड़ी होती है और खर्च अधिक होता है वे लोग कर्ज लेकर अपने को लंगड़ा-लूला जैसा ही अनुभव करते हैं। थोड़ी देर तक के लिये भले ही पूर्ति अनुभव हो किन्तु यह बोझ बढ़ जाता है तो बस मनुष्य का सारा जीवन कर्ज को निबटाने में ही चला जाता है। ऐसे लोग देखे जा सकते हैं जो ब्याज की एवज में साहूकार का ही जीवन भर काम करते रहते हैं उनका कर्ज फिर भी अदा नहीं हो पाता तो वह बोझ उठाकर उनके निरीह बच्चों पर डाल दिया जाता है और फिर एक पैतृक समस्या बन जाती है।
कर्ज एक तरह का सामाजिक कलंक है। लेने वाले के लिये ही वह कठिन अपराध और भारस्वरूप नहीं होते वरन् देने वाले की भी परेशानियाँ कम नहीं होतीं। महात्मा टॉलस्टाय ने लिखा है “कर्ज देना मानों किसी चीज पहाड़ की चोटी से गिराना है और फिर उसे वसूल करना उतना ही कठिन होता है जितना किसी वजनदार चीज को पहाड़ की चोटी पर ले जाना। कर्ज मनुष्य की सबसे बड़ी और दूसरे को देने की गरीबी है।”
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति अप्रैल 1966 पृष्ठ 44
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1965/April/v1.44
जिन लोगों की आमदनी बहुत थोड़ी होती है और खर्च अधिक होता है वे लोग कर्ज लेकर अपने को लंगड़ा-लूला जैसा ही अनुभव करते हैं। थोड़ी देर तक के लिये भले ही पूर्ति अनुभव हो किन्तु यह बोझ बढ़ जाता है तो बस मनुष्य का सारा जीवन कर्ज को निबटाने में ही चला जाता है। ऐसे लोग देखे जा सकते हैं जो ब्याज की एवज में साहूकार का ही जीवन भर काम करते रहते हैं उनका कर्ज फिर भी अदा नहीं हो पाता तो वह बोझ उठाकर उनके निरीह बच्चों पर डाल दिया जाता है और फिर एक पैतृक समस्या बन जाती है।
कर्ज एक तरह का सामाजिक कलंक है। लेने वाले के लिये ही वह कठिन अपराध और भारस्वरूप नहीं होते वरन् देने वाले की भी परेशानियाँ कम नहीं होतीं। महात्मा टॉलस्टाय ने लिखा है “कर्ज देना मानों किसी चीज पहाड़ की चोटी से गिराना है और फिर उसे वसूल करना उतना ही कठिन होता है जितना किसी वजनदार चीज को पहाड़ की चोटी पर ले जाना। कर्ज मनुष्य की सबसे बड़ी और दूसरे को देने की गरीबी है।”
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति अप्रैल 1966 पृष्ठ 44
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1965/April/v1.44
👉 आध्यात्मिक तेज का प्रज्वलित पुंज होता है चिकित्सक (भाग ८४)
👉 भविष्य का सम्पूर्ण व समग्र विज्ञान अध्यात्म
शारीरिक रोगों के साथ आध्यात्मिक तकनीकों के प्रयोग मनोरोगों पर भी किए गए हैं। इस सम्बन्ध में विलियम वेस्ट की पुस्तक ‘साइकोथेरेपी एण्ड स्प्रिचुयैलिटी’ पठनीय है। इस पुस्तक में विख्यात मनोचिकित्सक विलियम वेस्ट का कहना है कि अब इस जमाने में मनोचिकित्सा व अध्यात्म विद्या के बीच खड़ी दीवार टूट रही है। मनोरोगों का सही व सम्पूर्ण इलाज आध्यात्मिक तकनीकों के प्रयोग से ही सम्भव है। उन्होंने एक अन्य शोधपत्र में यह भी कहा है कि आध्यात्मिक जीवन शैली को अपनाने से लोगों को मानसिक रोगों की सम्भावना नहीं रहती। इस क्रम में उन्होंने प्रार्थना व ध्यान को मनोरोगों की कारगर औषधि बताया है।
अध्यात्म चिकित्सा के सम्बन्ध में विश्वदृष्टि को परिवर्तित करने वालों में डॉ. ब्रायन वीज़ का नाम उल्लेखनीय है। पेशे से डॉ. वीज़ साइकिएट्रिस्ट हैं। परन्तु अब वे स्वयं को आध्यात्मिक चिकित्सक कहलाना पसन्द करते हैं। उनकी कई पुस्तकें जिनकी चर्चा पहले भी की जा चुकी है- अध्यात्म चिकित्सा की सार्थक उपयोगिता को प्रमाणित करती हैं। इनका कहना है कि आध्यात्मिक सिद्धान्तों व साधना से ही सम्पूर्ण जीवन बोध सम्भव है। चिकित्सा के सम्बन्ध में जब भी वैज्ञानिक असफलताओं की बात होती है, तो इसका कारण एकांगीपन होता है। विज्ञान कहता है कि इन्सान केवल देह मात्र है, जो सच नहीं है। हमारा जीवन देह, प्राण, मन व आत्मा का संयोग है। और ये सम्पूर्ण आयाम आध्यात्मिक दृष्टि के बिना नहीं जाने जा सकते।
एक अन्य वैज्ञानिक रिचर्ड कार्लसन का अपने शोध निष्कर्ष ‘स्प्रिचुयैलिटी कम्पलीट साइन्स ऑफ लाइफ’ यानि कि आध्यात्मिकता जीवन का सम्पूर्ण विज्ञान, में इन तथ्यों का खुलासा किया है। उनका मानना है कि अध्यात्म के बिना जीवन का सम्पूर्ण बोध असम्भव है। कार्लसन कहते हैं कि जिस तरह से कटी हुई अंगुलियों के सहारे मानवीय देह की समग्रता को नहीं जाना जा सकता, उसी तरह केवल देह के बलबूते सम्पूर्ण अस्तित्त्व को जानना असम्भव है। उन्होंने अपनी पुस्तक में इस सम्बन्ध में कई सत्यों व तथ्यों का विश्लेषण करते हुए कहा है कि जिस तरह बीसवीं सदी विज्ञान की सदी साबित हुई है। उसी तरह यह इक्कीसवीं सदी आध्यात्म की सदी के रूप में देखी, जानी व अनुभव की जाएगी। आध्यात्मिक जीवन दृष्टि, अध्यात्म चिकित्सा के सिद्धान्त व प्रयोगों को सभी इस सदी की महानतम उपलब्धि के रूप में अनुभव करेंगे। इसलिए यही उपयुक्त है कि आध्यात्मिक स्वास्थ्य का अर्थ समझें व अध्यात्म चिकित्सा की ओर बढ़ाएँ कदम।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ ११७
शारीरिक रोगों के साथ आध्यात्मिक तकनीकों के प्रयोग मनोरोगों पर भी किए गए हैं। इस सम्बन्ध में विलियम वेस्ट की पुस्तक ‘साइकोथेरेपी एण्ड स्प्रिचुयैलिटी’ पठनीय है। इस पुस्तक में विख्यात मनोचिकित्सक विलियम वेस्ट का कहना है कि अब इस जमाने में मनोचिकित्सा व अध्यात्म विद्या के बीच खड़ी दीवार टूट रही है। मनोरोगों का सही व सम्पूर्ण इलाज आध्यात्मिक तकनीकों के प्रयोग से ही सम्भव है। उन्होंने एक अन्य शोधपत्र में यह भी कहा है कि आध्यात्मिक जीवन शैली को अपनाने से लोगों को मानसिक रोगों की सम्भावना नहीं रहती। इस क्रम में उन्होंने प्रार्थना व ध्यान को मनोरोगों की कारगर औषधि बताया है।
अध्यात्म चिकित्सा के सम्बन्ध में विश्वदृष्टि को परिवर्तित करने वालों में डॉ. ब्रायन वीज़ का नाम उल्लेखनीय है। पेशे से डॉ. वीज़ साइकिएट्रिस्ट हैं। परन्तु अब वे स्वयं को आध्यात्मिक चिकित्सक कहलाना पसन्द करते हैं। उनकी कई पुस्तकें जिनकी चर्चा पहले भी की जा चुकी है- अध्यात्म चिकित्सा की सार्थक उपयोगिता को प्रमाणित करती हैं। इनका कहना है कि आध्यात्मिक सिद्धान्तों व साधना से ही सम्पूर्ण जीवन बोध सम्भव है। चिकित्सा के सम्बन्ध में जब भी वैज्ञानिक असफलताओं की बात होती है, तो इसका कारण एकांगीपन होता है। विज्ञान कहता है कि इन्सान केवल देह मात्र है, जो सच नहीं है। हमारा जीवन देह, प्राण, मन व आत्मा का संयोग है। और ये सम्पूर्ण आयाम आध्यात्मिक दृष्टि के बिना नहीं जाने जा सकते।
एक अन्य वैज्ञानिक रिचर्ड कार्लसन का अपने शोध निष्कर्ष ‘स्प्रिचुयैलिटी कम्पलीट साइन्स ऑफ लाइफ’ यानि कि आध्यात्मिकता जीवन का सम्पूर्ण विज्ञान, में इन तथ्यों का खुलासा किया है। उनका मानना है कि अध्यात्म के बिना जीवन का सम्पूर्ण बोध असम्भव है। कार्लसन कहते हैं कि जिस तरह से कटी हुई अंगुलियों के सहारे मानवीय देह की समग्रता को नहीं जाना जा सकता, उसी तरह केवल देह के बलबूते सम्पूर्ण अस्तित्त्व को जानना असम्भव है। उन्होंने अपनी पुस्तक में इस सम्बन्ध में कई सत्यों व तथ्यों का विश्लेषण करते हुए कहा है कि जिस तरह बीसवीं सदी विज्ञान की सदी साबित हुई है। उसी तरह यह इक्कीसवीं सदी आध्यात्म की सदी के रूप में देखी, जानी व अनुभव की जाएगी। आध्यात्मिक जीवन दृष्टि, अध्यात्म चिकित्सा के सिद्धान्त व प्रयोगों को सभी इस सदी की महानतम उपलब्धि के रूप में अनुभव करेंगे। इसलिए यही उपयुक्त है कि आध्यात्मिक स्वास्थ्य का अर्थ समझें व अध्यात्म चिकित्सा की ओर बढ़ाएँ कदम।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ ११७
सोमवार, 21 अक्टूबर 2019
शनिवार, 19 अक्टूबर 2019
शुक्रवार, 18 अक्टूबर 2019
👉 जानवर कौन?
एक बकरी थी, जाे की माँ बनने वाली थी। माँ बनने से पहले ही मधू ने भगवान् से दुआएं मांगने शुरू कर दी। कि “हे भगवान् मुझे बेटी देना बेटा नही”। पर किस्मत काे ये मंजूर ना था, मधू ने एक बकरे काे जन्म दिया, उसे देखते ही मधू राेने लगी। साथ की बकरियां मधू के राेने की वजह जानती थी, पर क्या कहती। माँ चुप हाे गई और अपने बच्चे काे चाटने लगी। दिन बीतते चले गए और माँ के दिल मे अपने बच्चे के लिए प्यार उमडता चला गया। धीरे- धीरे माँ अपने बेटे में सारी दुनियाँ काे भूल गई, और भूल गई भविष्य की उस सच्चाई काे जाे एक दिन सच हाेनी थी। मधू राेज अपने बच्चे काे चाट कर दिन की शुरूआत करती, और उसकी रात बच्चे से चिपक कर साे कर ही हाेती।
एक दिन बकरी के मालिक के घर भी बेटे जन्म लिया। घर में आते महमानाे आैर पड़ोसियों की भीड देख बकरी ने साथी बकरी से पूछा “बहन क्या हुआ आज बहुत भीड है इनके घर पर” ये सुन साथी बकरी ने कहा की “अरे हमारे मालिक के घर बेटा हुआ है, इसलिए काफी चहल पहल है” मधू बकरी मालिक के लिए बहुत खुश हुई और उसके बेटे को बहुत दुआए दी। फिर मधू अपने बच्चे से चुपक कर साे गई। मधू साे ही रही थी के तभी उसके पास एक आदमी आया, सारी बकरियां डर कर सिमट गई, मधू ने भी अपने बच्चे काे खुद से चिपका लिया। के तभी उस आदमी ने मधू के बेटे काे पकड लिया और ले जाने लगा। मधू बहुत चिल्लाई पर उसकी सुनी ना गई, बच्चे काे बकरियां जहाँ बंधी थी उसके सामने वाले कमरे में ले जाया गया।
बच्चा बहुत चिल्ला रहा था, बुला रहा था अपनी माँ काे, मधू भी रस्सी काे खाेलने के लिए पूरे पूरे पाँव रगड दिए पर रस्सी ना खुली। थाेडी देर तक बच्चा चिल्लाया पर उसके बाद बच्चा चुप हाे गया, अब उसकी आवाज नही आ रही थी। मधू जान चुकी थी केे बच्चे के साथ क्या हुआ है, पर वह फिर भी अपने बच्चे के लिए आँख बंद कर दुआए मांगती रही। पर अब देर हाे चुकी थी बेटे का सर धड से अलग कर दिया गया था। बेटे का सर मा के सामने पडा था, आज भी बेटे की नजर माँ की तरफ थी, पर आज वह नजरे पथरा चुकी थी, बेटे का मुह आज भी खुला था, पर उसके मुह से आज माँ के लिए पुकार नही निकल रही थी, बेटे का मूह सामने पडा था माँ उसे आखरी बार चूम भी नही पा रही थी इस वजह से एक आँख से दस दस आँसू बह रहे थे।
बेटे काे काट कर उसे पका खा लिया गया। और माँ देखती रह गई, साथ में बेठी हर बकरियाँ इस घटना से अवगत थी पर काेई कुछ कर भी क्या सकती थी। दाे माह बीत चुके थे मधू बेटे के जाने के गम में पहले से आधी हाे चुकी थी, के तभी एक दिन मालिक अपने बेटे काे खिलाते हुए बकरियाें के सामने आया, ये देख एक बकरी बाेली “ये है वाे बच्चा जिसके हाेने पर तेरे बच्चे काे काटा गया” मधू आँखाें में आँसू भरे अपने बच्चे की याद में खाेई उस मालिक के बच्चे काे देखने लगी।
वह बकरी फिर बाेली “देख कितना खुश है, अपने बालक काे खिला कर, पर कभी ये नही साेचता की हमें भी हमारे बालक प्राण प्रिय हाेते है, मैं ताे कहू जैसे हम अपने बच्चाे के वियोग में तडप जीते है वैसे ही ये भी जिए, इसका पुत्र भी मरे” ये सुनते ही मधू उस बकरी पर चिल्लाई कहा “उस बेगुनाह बालक ने क्या बिगाडा है, जाे उसे मारने की कहती हाें, वाे ताे अभी धरा पर आया है, ऐसा ना कहाे भगवान् उसे लम्बी उम्र दे, क्यू की एक बालक के मरने से जाे पीडा हाेती है मैं उससे अवगत हूँ, मैं नही चाहती जाे पीडा मुझे हाे रही है वाे किसी और काे हाे” ये सुन साथी बकरी बाेली कैसी है तू उसने तेरे बालक काे मारा और तू फिर भी उसी के बालक काे दुआ दे रही है।” मधू हँसी और कहा “हाँ, क्याेकी मेरा दिल एक जानवर का है इंसान का नही।
ये कहना मात्र ही उस बकरी के लिए जवाब हाे गया था कि मधू ने ऐसा क्यू कहा। मधू ने फिर कहा “ना जाने किस जन्म के पापाे की वजह से आज इस याेनी में जन्म मिला, ना जाने किस के बालक काे छीना था जाे पुत्र वियोग मिला, अब किसी को बालक काे बद्दुआ दे उसे मारे फिर पाप पुण्य जन्म मृत्यु के चक्कर में नही फंसना, इसके कर्माे का दण्ड भगवान् देगा मैं नही। बकरी की यह बात सुन साथी बकरी चुप हाे गई, क्याे की वह समझ चुकी थी के करनी की भरनी सबकी हाेती है मालिक की भी हाेगी।।
(कई बार सच समझ नही आता की जानवर असल में है काैन)
एक दिन बकरी के मालिक के घर भी बेटे जन्म लिया। घर में आते महमानाे आैर पड़ोसियों की भीड देख बकरी ने साथी बकरी से पूछा “बहन क्या हुआ आज बहुत भीड है इनके घर पर” ये सुन साथी बकरी ने कहा की “अरे हमारे मालिक के घर बेटा हुआ है, इसलिए काफी चहल पहल है” मधू बकरी मालिक के लिए बहुत खुश हुई और उसके बेटे को बहुत दुआए दी। फिर मधू अपने बच्चे से चुपक कर साे गई। मधू साे ही रही थी के तभी उसके पास एक आदमी आया, सारी बकरियां डर कर सिमट गई, मधू ने भी अपने बच्चे काे खुद से चिपका लिया। के तभी उस आदमी ने मधू के बेटे काे पकड लिया और ले जाने लगा। मधू बहुत चिल्लाई पर उसकी सुनी ना गई, बच्चे काे बकरियां जहाँ बंधी थी उसके सामने वाले कमरे में ले जाया गया।
बच्चा बहुत चिल्ला रहा था, बुला रहा था अपनी माँ काे, मधू भी रस्सी काे खाेलने के लिए पूरे पूरे पाँव रगड दिए पर रस्सी ना खुली। थाेडी देर तक बच्चा चिल्लाया पर उसके बाद बच्चा चुप हाे गया, अब उसकी आवाज नही आ रही थी। मधू जान चुकी थी केे बच्चे के साथ क्या हुआ है, पर वह फिर भी अपने बच्चे के लिए आँख बंद कर दुआए मांगती रही। पर अब देर हाे चुकी थी बेटे का सर धड से अलग कर दिया गया था। बेटे का सर मा के सामने पडा था, आज भी बेटे की नजर माँ की तरफ थी, पर आज वह नजरे पथरा चुकी थी, बेटे का मुह आज भी खुला था, पर उसके मुह से आज माँ के लिए पुकार नही निकल रही थी, बेटे का मूह सामने पडा था माँ उसे आखरी बार चूम भी नही पा रही थी इस वजह से एक आँख से दस दस आँसू बह रहे थे।
बेटे काे काट कर उसे पका खा लिया गया। और माँ देखती रह गई, साथ में बेठी हर बकरियाँ इस घटना से अवगत थी पर काेई कुछ कर भी क्या सकती थी। दाे माह बीत चुके थे मधू बेटे के जाने के गम में पहले से आधी हाे चुकी थी, के तभी एक दिन मालिक अपने बेटे काे खिलाते हुए बकरियाें के सामने आया, ये देख एक बकरी बाेली “ये है वाे बच्चा जिसके हाेने पर तेरे बच्चे काे काटा गया” मधू आँखाें में आँसू भरे अपने बच्चे की याद में खाेई उस मालिक के बच्चे काे देखने लगी।
वह बकरी फिर बाेली “देख कितना खुश है, अपने बालक काे खिला कर, पर कभी ये नही साेचता की हमें भी हमारे बालक प्राण प्रिय हाेते है, मैं ताे कहू जैसे हम अपने बच्चाे के वियोग में तडप जीते है वैसे ही ये भी जिए, इसका पुत्र भी मरे” ये सुनते ही मधू उस बकरी पर चिल्लाई कहा “उस बेगुनाह बालक ने क्या बिगाडा है, जाे उसे मारने की कहती हाें, वाे ताे अभी धरा पर आया है, ऐसा ना कहाे भगवान् उसे लम्बी उम्र दे, क्यू की एक बालक के मरने से जाे पीडा हाेती है मैं उससे अवगत हूँ, मैं नही चाहती जाे पीडा मुझे हाे रही है वाे किसी और काे हाे” ये सुन साथी बकरी बाेली कैसी है तू उसने तेरे बालक काे मारा और तू फिर भी उसी के बालक काे दुआ दे रही है।” मधू हँसी और कहा “हाँ, क्याेकी मेरा दिल एक जानवर का है इंसान का नही।
ये कहना मात्र ही उस बकरी के लिए जवाब हाे गया था कि मधू ने ऐसा क्यू कहा। मधू ने फिर कहा “ना जाने किस जन्म के पापाे की वजह से आज इस याेनी में जन्म मिला, ना जाने किस के बालक काे छीना था जाे पुत्र वियोग मिला, अब किसी को बालक काे बद्दुआ दे उसे मारे फिर पाप पुण्य जन्म मृत्यु के चक्कर में नही फंसना, इसके कर्माे का दण्ड भगवान् देगा मैं नही। बकरी की यह बात सुन साथी बकरी चुप हाे गई, क्याे की वह समझ चुकी थी के करनी की भरनी सबकी हाेती है मालिक की भी हाेगी।।
(कई बार सच समझ नही आता की जानवर असल में है काैन)
👉 कर्ज से छुटकारा पाना ही ठीक है। (भाग १)
निर्धनता मनुष्य को कई तरह से परेशान करती है इसमें कुछ भी सन्देह की बात नहीं है। धन से ही मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। धन न हुआ तो जरूरी है कि कठिन समस्यायें सामने आयें। पर यदि मनुष्य निर्धन होकर भी कर्जदार है तो वह सबसे बड़े दुःख का कारण हैं। गरीबी स्वयं एक बड़ा बोझ है, कर्ज और बढ़ जाता है तो जीवन व्यवस्था की रीढ़ ही झुक जाती है। मनुष्य का सारा उल्लास समाप्त हो जाता है।
धन-हीन होने पर भी स्वच्छन्द मन के आध्यात्मिक पुरुषों के जीवन में एक प्रकार का आनन्द बना रहता है। पारिवारिक संगठन, प्रेम, साहस और शक्ति का स्वभाव हो तो मनुष्य थोड़े से धन के द्वारा भी सुखमय जीवन की आनन्द प्राप्त कर लेते हैं। किन्तु कर्ज लेकर सुखोपभोग का सामग्री उपलब्ध करना एक प्रकार से भावी जीवन के सुख शान्ति को ही दाव पर चढ़ा देना है। ऋणी होकर मनुष्य कभी सुखी नहीं रह सकता। डॉ. रसर का यह कथन कि “मनुष्य ऋण लेने नहीं जाता, दुख खरीदने जाता है” सत्य ही है। कर्ज लेकर सुख की कल्पना सचमुच भ्रामक है।
विश्व कवि शेक्सपियर ने लिखा है-”न हो ऋणी, न हो महाजन, क्योंकि ऋण लिया हुआ धन अपने को भी खो देता है और देने वाले मित्रों को भी। ऋण लेने की आदत मितव्ययिता की धार को मोटी कर देती है।” उचित रीति से धन खर्च करने की बुद्धि मनुष्य में तब आती है जब वह धन ईमानदारी और परिश्रम से कमाया गया हो। मेहनत से कमाया एक पैसा भी खर्च करते हुये दर्द पैदा करता है। उससे वही करम लेना उपयुक्त समझते हैं जिससे किसी तरह का पारिवारिक उत्तरदायित्व पूर्ण होता है। जो धन बिना परिश्रम के प्राप्त हो जाता है उससे किसी प्रकार का मोह नहीं होता, इसलिये उसका अधिकाँश उपयोग भी उड़ाने-खाने या झूठी शान-शौकत दिखाने में चला जाता है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति अप्रैल 1966 पृष्ठ 44
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1965/April/v1.44
धन-हीन होने पर भी स्वच्छन्द मन के आध्यात्मिक पुरुषों के जीवन में एक प्रकार का आनन्द बना रहता है। पारिवारिक संगठन, प्रेम, साहस और शक्ति का स्वभाव हो तो मनुष्य थोड़े से धन के द्वारा भी सुखमय जीवन की आनन्द प्राप्त कर लेते हैं। किन्तु कर्ज लेकर सुखोपभोग का सामग्री उपलब्ध करना एक प्रकार से भावी जीवन के सुख शान्ति को ही दाव पर चढ़ा देना है। ऋणी होकर मनुष्य कभी सुखी नहीं रह सकता। डॉ. रसर का यह कथन कि “मनुष्य ऋण लेने नहीं जाता, दुख खरीदने जाता है” सत्य ही है। कर्ज लेकर सुख की कल्पना सचमुच भ्रामक है।
विश्व कवि शेक्सपियर ने लिखा है-”न हो ऋणी, न हो महाजन, क्योंकि ऋण लिया हुआ धन अपने को भी खो देता है और देने वाले मित्रों को भी। ऋण लेने की आदत मितव्ययिता की धार को मोटी कर देती है।” उचित रीति से धन खर्च करने की बुद्धि मनुष्य में तब आती है जब वह धन ईमानदारी और परिश्रम से कमाया गया हो। मेहनत से कमाया एक पैसा भी खर्च करते हुये दर्द पैदा करता है। उससे वही करम लेना उपयुक्त समझते हैं जिससे किसी तरह का पारिवारिक उत्तरदायित्व पूर्ण होता है। जो धन बिना परिश्रम के प्राप्त हो जाता है उससे किसी प्रकार का मोह नहीं होता, इसलिये उसका अधिकाँश उपयोग भी उड़ाने-खाने या झूठी शान-शौकत दिखाने में चला जाता है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति अप्रैल 1966 पृष्ठ 44
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1965/April/v1.44
👉 आध्यात्मिक तेज का प्रज्वलित पुंज होता है चिकित्सक (भाग ८३)
👉 भविष्य का सम्पूर्ण व समग्र विज्ञान अध्यात्म
इनमें से कुछ ने तो इस बिन्दु पर अपने विचारोत्तेजक निष्कर्ष भी प्रकाशित किए हैं। इन्हीं निष्कर्षों में से एक है, मर्टिन रूथ चाइल्ड की पुस्तक ‘स्प्रिचुयैलिटी एण्ड इट्स साइन्टिफिक डामेन्शन्स’ यानि कि आध्यात्मिकता और इसके वैज्ञानिक आयाम। मर्टिन रूथ चाइल्ड प्रख्यात् न्यूरोलॉजिस्ट हैं। उनके द्वारा किए शोध कार्यों को विज्ञान जगत् में सम्मानपूर्वक स्वीकार किया जाता है। उन्होंने अपनी पुस्तक में आध्यात्मिक दृष्टि, सिद्धान्त व प्रयोगों से सम्बन्धित कई महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं पर चर्चा की है। उनका कहना है, जो आध्यात्मिक सिद्धान्तों की वैज्ञानिकता पर बिना किसी प्रायोगिक निष्कर्षों के प्रश्र खड़ा करते हैं, उन्हें सबसे पहले अपने वैज्ञानिक होने की जाँच करनी चाहिए।
रूथ चाइल्ड का कहना है कि विज्ञान किसी पुस्तक या विषय का नाम नहीं है। यह एक विशिष्ट शोध विधि है। जो एक खास तरह से अध्ययन करके किसी सत्य या सिद्धान्त को प्रमाणित करती है। यह कहते हुए मर्टिन रूथ चाइल्ड एक सवाल उठाते हैं कि आध्यात्मिक सिद्धान्तों को क्या किसी ने वैज्ञानिक शोध विधि के आधार पर परखने की कोशिश की है। यदि हाँ, तो फिर उनके शोध पत्रों पर सार्थक चर्चा होनी चाहिए। यदि नहीं तो फिर इन्हें किसी को अवैज्ञानिक कहने के क्या आधार हैं। इस तरह से तो अवैज्ञानिकता की बातें करना स्वयं ही अवैज्ञानिक है।
रूथ चाइल्ड अपनी इसी पुस्तक के एक अन्य हिस्से में कहते हैं कि इन दिनों आध्यात्मिक चिकित्सा की ध्यान आदि जो भी तकनीकें प्रयोग में लायी जा रही हैं, उनके परिणाम उत्साहवर्धक हैं। ये न केवल चिकित्सा जगत् के लिए बल्कि सम्पूर्ण मानवता के लिए कल्याणकारी हैं। योग और अध्यात्म की जो भी तकनीकें शारीरिक व मानसिक रोगों को ठीक करने के लिए प्रयोग में लायी जा रही हैं, उनके परिणाम किसी भी वैज्ञानिक को यह कहने पर विवश कर सकती हैं कि ‘स्प्रिचुयैलिटी इस द इन्टीग्रल साइन्स ऑफ द फ्यूचर’। यानि कि अध्यात्म भविष्य का सम्पूर्ण विज्ञान है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ ११६
इनमें से कुछ ने तो इस बिन्दु पर अपने विचारोत्तेजक निष्कर्ष भी प्रकाशित किए हैं। इन्हीं निष्कर्षों में से एक है, मर्टिन रूथ चाइल्ड की पुस्तक ‘स्प्रिचुयैलिटी एण्ड इट्स साइन्टिफिक डामेन्शन्स’ यानि कि आध्यात्मिकता और इसके वैज्ञानिक आयाम। मर्टिन रूथ चाइल्ड प्रख्यात् न्यूरोलॉजिस्ट हैं। उनके द्वारा किए शोध कार्यों को विज्ञान जगत् में सम्मानपूर्वक स्वीकार किया जाता है। उन्होंने अपनी पुस्तक में आध्यात्मिक दृष्टि, सिद्धान्त व प्रयोगों से सम्बन्धित कई महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं पर चर्चा की है। उनका कहना है, जो आध्यात्मिक सिद्धान्तों की वैज्ञानिकता पर बिना किसी प्रायोगिक निष्कर्षों के प्रश्र खड़ा करते हैं, उन्हें सबसे पहले अपने वैज्ञानिक होने की जाँच करनी चाहिए।
रूथ चाइल्ड का कहना है कि विज्ञान किसी पुस्तक या विषय का नाम नहीं है। यह एक विशिष्ट शोध विधि है। जो एक खास तरह से अध्ययन करके किसी सत्य या सिद्धान्त को प्रमाणित करती है। यह कहते हुए मर्टिन रूथ चाइल्ड एक सवाल उठाते हैं कि आध्यात्मिक सिद्धान्तों को क्या किसी ने वैज्ञानिक शोध विधि के आधार पर परखने की कोशिश की है। यदि हाँ, तो फिर उनके शोध पत्रों पर सार्थक चर्चा होनी चाहिए। यदि नहीं तो फिर इन्हें किसी को अवैज्ञानिक कहने के क्या आधार हैं। इस तरह से तो अवैज्ञानिकता की बातें करना स्वयं ही अवैज्ञानिक है।
रूथ चाइल्ड अपनी इसी पुस्तक के एक अन्य हिस्से में कहते हैं कि इन दिनों आध्यात्मिक चिकित्सा की ध्यान आदि जो भी तकनीकें प्रयोग में लायी जा रही हैं, उनके परिणाम उत्साहवर्धक हैं। ये न केवल चिकित्सा जगत् के लिए बल्कि सम्पूर्ण मानवता के लिए कल्याणकारी हैं। योग और अध्यात्म की जो भी तकनीकें शारीरिक व मानसिक रोगों को ठीक करने के लिए प्रयोग में लायी जा रही हैं, उनके परिणाम किसी भी वैज्ञानिक को यह कहने पर विवश कर सकती हैं कि ‘स्प्रिचुयैलिटी इस द इन्टीग्रल साइन्स ऑफ द फ्यूचर’। यानि कि अध्यात्म भविष्य का सम्पूर्ण विज्ञान है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ ११६
👉 गुरुवर की वाणी
★ छोटे-छोटे मकान, पुलों को मामूली ओवरसियर बना लेते हैं, पर जब बड़ा बांध बनाना होता है तो बड़े इंजीनियरों की आवश्यकता पड़ती है। मेजर आपरेशन छोटे अनुभवहीन डॉक्टरों के बस की बात नहीं। उसे सिद्धहस्त सर्जन ही करते हैं। समाज में मामूली गड़बड़ियां तो बार-बार होती, उठती रहती है। उनका सुधार कार्य सामान्य स्तर के सुधार ही कर लेते हैं, जब पाप अपनी सीमा का उल्लंघन कर देता है, मर्यादाएं टूटने लगती हैं, तो महासुधारक की आवश्यकता होती है, तब इस कार्य को महाकाल स्वयं करते हैं।
(प्रज्ञा अभियान-1983, जून)
◆ आज आदर्शवादिता कहने-सुनने भर की वस्तु रह गई है। उसका उपयोग कथा, प्रवचनों और स्वाध्याय-सत्संगों तक ही सीमित है। आदर्शों की दुहाई देने और प्रचलनों की लकीर पीटने से कुछ बनता नहीं। इन दिनों वैसा ही हो रहा है। अस्तु, दीपक तले अंधेरा होने जैसी उपहासास्पद स्थिति बन रही है। आवश्यकता इस बात की है कि सांस्कृतिक आदर्शों को व्यावहारिक जीवन में प्रवेश मिले। हम ऋषि परम्परा के अनुगामी हैं, उन नर वीरों की संतानें हैं, यह ध्यान में रखते हुए आदर्शों की प्रवंचना से बचा ही जाना चाहिए।
(वाङ्मय क्रमांक- 35, पेज-1.12)
■ इन दिनों सामाजिक प्रचलनों में अनैतिकता, मूढ़ मान्यता और अवांछनीयता की भरमार है। हमें उलटे को उलटा करके सीधा करने की नीति अपनानी चाहिए। इसके लिए नैतिक, बौद्धिक और समाजिक क्रान्ति आवश्यक अनुभव करें और उसे पूरा करने में कुछ उठा न रखें। आत्म-सुधार में तपस्वी, परिवार निर्माण में मनस्वी और समाज निर्माण में तेजस्वी की भूमिका निबाहें। अनीति के वातावरण में मूक-दर्शक बनकर न रहें। शौर्य, साहस के धनी बनें और अनीति उन्मूलन तथा उत्कृष्टता अभिवर्धन में प्रखर पराक्रम का परिचय दें।
(प्रज्ञा अभियान का दर्शन, स्वरूप-40)
★ 20 वीं सदी का अंत और 21 वीं सदी का आरम्भ युग सन्धि का ऐसा अवसर है, जिसे अभूतपूर्व कहा जा सकता है। शायद भविष्य में इसकी पुनरावृत्ति कभी न हो। अपने मतलब से मतलब रखने का आदिमकालीन सोच अब चल न सकेगा। इन दिनों महाविनाश एवं महासृजन आमने-सामने खड़े हैं। इनमें से एक का चयन सामूहिक मानवी चेतना को ही करना पड़ेगा। देखना इतना भर है कि इस परिवर्तन काल में युग शिल्पी की भूमिका संपादन के लिए श्रेय कौन पाता है?
(अखण्ड ज्योति-1988, सितम्बर)
(प्रज्ञा अभियान-1983, जून)
◆ आज आदर्शवादिता कहने-सुनने भर की वस्तु रह गई है। उसका उपयोग कथा, प्रवचनों और स्वाध्याय-सत्संगों तक ही सीमित है। आदर्शों की दुहाई देने और प्रचलनों की लकीर पीटने से कुछ बनता नहीं। इन दिनों वैसा ही हो रहा है। अस्तु, दीपक तले अंधेरा होने जैसी उपहासास्पद स्थिति बन रही है। आवश्यकता इस बात की है कि सांस्कृतिक आदर्शों को व्यावहारिक जीवन में प्रवेश मिले। हम ऋषि परम्परा के अनुगामी हैं, उन नर वीरों की संतानें हैं, यह ध्यान में रखते हुए आदर्शों की प्रवंचना से बचा ही जाना चाहिए।
(वाङ्मय क्रमांक- 35, पेज-1.12)
■ इन दिनों सामाजिक प्रचलनों में अनैतिकता, मूढ़ मान्यता और अवांछनीयता की भरमार है। हमें उलटे को उलटा करके सीधा करने की नीति अपनानी चाहिए। इसके लिए नैतिक, बौद्धिक और समाजिक क्रान्ति आवश्यक अनुभव करें और उसे पूरा करने में कुछ उठा न रखें। आत्म-सुधार में तपस्वी, परिवार निर्माण में मनस्वी और समाज निर्माण में तेजस्वी की भूमिका निबाहें। अनीति के वातावरण में मूक-दर्शक बनकर न रहें। शौर्य, साहस के धनी बनें और अनीति उन्मूलन तथा उत्कृष्टता अभिवर्धन में प्रखर पराक्रम का परिचय दें।
(प्रज्ञा अभियान का दर्शन, स्वरूप-40)
★ 20 वीं सदी का अंत और 21 वीं सदी का आरम्भ युग सन्धि का ऐसा अवसर है, जिसे अभूतपूर्व कहा जा सकता है। शायद भविष्य में इसकी पुनरावृत्ति कभी न हो। अपने मतलब से मतलब रखने का आदिमकालीन सोच अब चल न सकेगा। इन दिनों महाविनाश एवं महासृजन आमने-सामने खड़े हैं। इनमें से एक का चयन सामूहिक मानवी चेतना को ही करना पड़ेगा। देखना इतना भर है कि इस परिवर्तन काल में युग शिल्पी की भूमिका संपादन के लिए श्रेय कौन पाता है?
(अखण्ड ज्योति-1988, सितम्बर)
बुधवार, 16 अक्टूबर 2019
👉 अर्थपूर्ण केक:-
एक लड़की अपनी माँ के पास अपनी परेशानियों का बखान कर रही थीl वो परीक्षा में फेल हो गई थी।
सहेली से झगड़ा हो गया।
मनपसंद ड्रेस प्रैस कर रही थी वो जल गई।
वह रोते हुए बोली, "मम्मी, देखो ना, मेरी जिन्दगी के साथ सब कुछ उलटा -पुल्टा हो रहा है"।
माँ ने मुस्कराते हुए कहा:- "यह उदासी और रोना छोड़ो, चलो मेरे साथ रसोई में, तुम्हारा मनपसंद केक बनाकर खिलाती हूँ"। लड़की का रोना बंद हो गया और हंसते हुये बोली, "केक तो मेरी मनपसंद मिठाई है"। कितनी देर में बनेगा"
कन्या ने चहकते हुए पूछा।
माँ ने सबसे पहले मैदे का डिब्बा उठाया और प्यार से कहा, ले पहले मैदा खा लेl लड़की मुंह बनाते हुए बोली, इसे कोई खाता है भला। माँ ने फिर मुस्कराते हुये कहा "तो ले सौ ग्राम चीनी ही खा ले"। एसेंस और मिल्कमेड का डिब्बा दिखाया और कहा लो इसका भी स्वाद चख लो।"
"माँ"आज तुम्हें क्या हो गया है ? जो मुझे इस तरह की चीजें खाने को दे रही हो"?
माँ ने बड़े प्यार और शांति से जवाब दिया,
"बेटा"केक इन सभी बेस्वादी चीजों से ही बनता है और ये सभी मिलकर ही तो केक को स्वादिष्ट बनाती हैं . मैं तुम्हें सिखाना चाह रही थी कि "जिंदगी का केक" भी इसी प्रकार की बेस्वाद घटनाओं को मिलाकर बनाया जाता है।"
"फेल हो गई हो तो इसे चुनौती समझो मेहनत करके पास हो जाओ। सहेली से झगड़ा हो गया है तो अपना व्यवहार इतना मीठा बनाओ कि फिर कभी किसी से झगड़ा न हो। यदि मानसिक तनाव के कारण "ड्रेस" जल गई तो आगे से सदा ध्यान रखो कि मन की स्थिति हर परिस्थिति में अच्छी हो। बिगड़े मन से काम भी तो बिगड़ेंगेl कार्यों को कुशलता से करने के लिए मन के चिंतनको कुशल बनाना अनिवार्य है।"
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सहेली से झगड़ा हो गया।
मनपसंद ड्रेस प्रैस कर रही थी वो जल गई।
वह रोते हुए बोली, "मम्मी, देखो ना, मेरी जिन्दगी के साथ सब कुछ उलटा -पुल्टा हो रहा है"।
माँ ने मुस्कराते हुए कहा:- "यह उदासी और रोना छोड़ो, चलो मेरे साथ रसोई में, तुम्हारा मनपसंद केक बनाकर खिलाती हूँ"। लड़की का रोना बंद हो गया और हंसते हुये बोली, "केक तो मेरी मनपसंद मिठाई है"। कितनी देर में बनेगा"
कन्या ने चहकते हुए पूछा।
माँ ने सबसे पहले मैदे का डिब्बा उठाया और प्यार से कहा, ले पहले मैदा खा लेl लड़की मुंह बनाते हुए बोली, इसे कोई खाता है भला। माँ ने फिर मुस्कराते हुये कहा "तो ले सौ ग्राम चीनी ही खा ले"। एसेंस और मिल्कमेड का डिब्बा दिखाया और कहा लो इसका भी स्वाद चख लो।"
"माँ"आज तुम्हें क्या हो गया है ? जो मुझे इस तरह की चीजें खाने को दे रही हो"?
माँ ने बड़े प्यार और शांति से जवाब दिया,
"बेटा"केक इन सभी बेस्वादी चीजों से ही बनता है और ये सभी मिलकर ही तो केक को स्वादिष्ट बनाती हैं . मैं तुम्हें सिखाना चाह रही थी कि "जिंदगी का केक" भी इसी प्रकार की बेस्वाद घटनाओं को मिलाकर बनाया जाता है।"
"फेल हो गई हो तो इसे चुनौती समझो मेहनत करके पास हो जाओ। सहेली से झगड़ा हो गया है तो अपना व्यवहार इतना मीठा बनाओ कि फिर कभी किसी से झगड़ा न हो। यदि मानसिक तनाव के कारण "ड्रेस" जल गई तो आगे से सदा ध्यान रखो कि मन की स्थिति हर परिस्थिति में अच्छी हो। बिगड़े मन से काम भी तो बिगड़ेंगेl कार्यों को कुशलता से करने के लिए मन के चिंतनको कुशल बनाना अनिवार्य है।"
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👉 आलस्य एक प्रकार की आत्म-हत्या ही है (अंतिम भाग)
दरिद्रता भयानक अभिशाप है। इससे मनुष्य के शारीरिक, पारिवारिक, सामाजिक, मानसिक एवं आत्मिक स्तर का पतन हो जाता है। कहने को कोई कितना भी सन्तोषी, त्यागी एवं निस्पृह क्यों न बने किन्तु जब दरिद्रता जन्य अभावों के थपेड़े लगते हैं तब कदाचित् ही कोई ऐसा धीर-गम्भीर निकले जिसका अस्तित्व काँप न उठता हो। यह दरिद्रता की स्थिति का जन्म मनुष्य के शारीरिक एवं मानसिक आलस्य से ही होता है। गरीबी, दीनता, हीनता आदि कुफल आलस्यरूपी विषबेलि पर ही फला करते हैं।
आलसी व्यक्ति परावलम्बी एवं पर भाग भोगी ही होता है। इस धरती पर परिश्रम करके ही अन्न-वस्त्र की व्यवस्था हो सकती है। यदि परमात्मा को मनुष्य की परिश्रमशीलता वाँछनीय न होती तो वह मनुष्य का आहार रोटी वृक्षों पर उगाता। बने बनाए वस्त्रों को घास-फूस की तरह पैदा कर देता। मनुष्य को पेट भरने और शरीर ढकने के लिये भोजन-वस्त्र कड़ी मेहनत करके ही पैदा करना होता है। नियम है कि जब सब खाते-पहनते हैं तो सबको ही मेहनत तथा काम करना चाहिए। इसका कोई अर्थ नहीं कि एक कमाये और दूसरा बैठा-बैठा खाये। कोई काम किये बिना भोजन-वस्त्र का उपयोग करने वाला दूसरे के परिश्रम का चोर कहा गया है। अवश्य ही उसने हराम की तोड़कर संसार के किसी कोने में श्रम करते हुए किसी व्यक्ति का भाग हरण किया है। दूसरे का भाग चुराना नैतिक, सामाजिक तथा आत्मिक रूप से पाप है और अकर्मण्य आलसी इस पाप को निर्लज्ज होकर करते ही रहते हैं।
जो खाली ठाली रहकर निठल्ला बैठा रहता है उसका शारीरिक ही नहीं मानसिक तथा आध्यात्मिक पतन भी हो जाता है। “खाली आदमी शैतान का साथी” वाली कहावत आलसी पर पूरी तरह चरितार्थ होती है। जो निठल्ला बैठा रहता है उसे तरह-तराह की खुराफातें सूझती रहती हैं। यह विशेषता परिश्रमशीलता में ही है कि वह मनुष्य के मस्तिष्क में विकारपूर्ण विचार नहीं आने देती पुरुषार्थी व्यक्ति को इतना समय ही नहीं रहता कि वह काम से फुरसत पाकर बेकार के ऊहापोह में लगा रहेगा और अकर्मण्य आलसी के पास इसके सिवाय कोई काम नहीं रहता, निदान उसे अनेक प्रकार की ऐसी विकृतियाँ तथा दुर्गुण घेर लेते हैं जिससे उसके चरित्र का अधःपतन हो जाता है।
लोग इस अभिशाप से दुराचारी तथा अपराधी बन जाया करते हैं। निठल्ले और निष्क्रिय बैठे रहने वाले व्यक्तियों का विचार-सन्तुलन बिगड़ जाता है जिससे उन्हें ऐसी-ऐसी अनेक सनकें सूझा करती हैं जो व्यवहार-जगत में पागलपन की संज्ञा पा सकती हैं। शेखचिल्ली की तरह वह न जानें किस प्रकार के मानस-महल बनाया और गिराया करता है। प्रमाद पूर्ण ऊहापोह ने संसार में जाने कितने उन्मादी पैदा कर दिये हैं। प्रमाद तथा आलस्य को उन्माद तथा पागलपन का प्रारम्भिक रूप समझकर उससे दूर ही रहना चाहिए। क्या आर्थिक क्या सामाजिक, क्या आत्मिक अथवा क्या आध्यात्मिक कोई भी उन्नति चाहने वाले को आलस्य के पाप का परित्याग कर श्रम एवं पुरुषार्थ का पुण्य करना चाहिए तभी वे अपनी वाँछित स्थिति पा सकेंगे, अपने उद्देश्य में सफल हो सकेंगे अन्य कोई नहीं।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1966 पृष्ठ 24
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1966/November/v1.24
आलसी व्यक्ति परावलम्बी एवं पर भाग भोगी ही होता है। इस धरती पर परिश्रम करके ही अन्न-वस्त्र की व्यवस्था हो सकती है। यदि परमात्मा को मनुष्य की परिश्रमशीलता वाँछनीय न होती तो वह मनुष्य का आहार रोटी वृक्षों पर उगाता। बने बनाए वस्त्रों को घास-फूस की तरह पैदा कर देता। मनुष्य को पेट भरने और शरीर ढकने के लिये भोजन-वस्त्र कड़ी मेहनत करके ही पैदा करना होता है। नियम है कि जब सब खाते-पहनते हैं तो सबको ही मेहनत तथा काम करना चाहिए। इसका कोई अर्थ नहीं कि एक कमाये और दूसरा बैठा-बैठा खाये। कोई काम किये बिना भोजन-वस्त्र का उपयोग करने वाला दूसरे के परिश्रम का चोर कहा गया है। अवश्य ही उसने हराम की तोड़कर संसार के किसी कोने में श्रम करते हुए किसी व्यक्ति का भाग हरण किया है। दूसरे का भाग चुराना नैतिक, सामाजिक तथा आत्मिक रूप से पाप है और अकर्मण्य आलसी इस पाप को निर्लज्ज होकर करते ही रहते हैं।
जो खाली ठाली रहकर निठल्ला बैठा रहता है उसका शारीरिक ही नहीं मानसिक तथा आध्यात्मिक पतन भी हो जाता है। “खाली आदमी शैतान का साथी” वाली कहावत आलसी पर पूरी तरह चरितार्थ होती है। जो निठल्ला बैठा रहता है उसे तरह-तराह की खुराफातें सूझती रहती हैं। यह विशेषता परिश्रमशीलता में ही है कि वह मनुष्य के मस्तिष्क में विकारपूर्ण विचार नहीं आने देती पुरुषार्थी व्यक्ति को इतना समय ही नहीं रहता कि वह काम से फुरसत पाकर बेकार के ऊहापोह में लगा रहेगा और अकर्मण्य आलसी के पास इसके सिवाय कोई काम नहीं रहता, निदान उसे अनेक प्रकार की ऐसी विकृतियाँ तथा दुर्गुण घेर लेते हैं जिससे उसके चरित्र का अधःपतन हो जाता है।
लोग इस अभिशाप से दुराचारी तथा अपराधी बन जाया करते हैं। निठल्ले और निष्क्रिय बैठे रहने वाले व्यक्तियों का विचार-सन्तुलन बिगड़ जाता है जिससे उन्हें ऐसी-ऐसी अनेक सनकें सूझा करती हैं जो व्यवहार-जगत में पागलपन की संज्ञा पा सकती हैं। शेखचिल्ली की तरह वह न जानें किस प्रकार के मानस-महल बनाया और गिराया करता है। प्रमाद पूर्ण ऊहापोह ने संसार में जाने कितने उन्मादी पैदा कर दिये हैं। प्रमाद तथा आलस्य को उन्माद तथा पागलपन का प्रारम्भिक रूप समझकर उससे दूर ही रहना चाहिए। क्या आर्थिक क्या सामाजिक, क्या आत्मिक अथवा क्या आध्यात्मिक कोई भी उन्नति चाहने वाले को आलस्य के पाप का परित्याग कर श्रम एवं पुरुषार्थ का पुण्य करना चाहिए तभी वे अपनी वाँछित स्थिति पा सकेंगे, अपने उद्देश्य में सफल हो सकेंगे अन्य कोई नहीं।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1966 पृष्ठ 24
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👉 आध्यात्मिक तेज का प्रज्वलित पुंज होता है चिकित्सक (भाग ८२)
👉 भविष्य का सम्पूर्ण व समग्र विज्ञान अध्यात्म
आध्यात्मिक चिकित्सा के सम्बन्ध में विश्व दृष्टि इन दिनों सार्थक ढंग से बदली है। विश्व भर के मनीषियों के दृष्टिकोण आश्चर्यजनक ढंग से परिवर्तित हुए हैं। लोकदृष्टि भी इस सम्बन्ध में परिमार्जित व परिवर्तित हुई है। आज से कुछ सालों पहले आध्यात्मिक सिद्धान्तों, तकनीकों व प्रयोगों को अवैज्ञानिक कहकर खारिज कर दिया जाता था। लोकमानस भी वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं से मिली जानकारियों को जीवन के सर्वोच्च सन्देश के रूप में सुनता व स्वीकारता था। पर इक्कीसवी सदी के इन चार सालों में स्थिति काफी कुछ बदली है। विश्व मनीषियों को लगने लगा है कि प्रायोगिक पड़ताल के बिना आध्यात्मिक दृष्टिकोण व तकनीकों को नकारना अवैज्ञानिकता की पराकाष्ठा है। इसी तरह से लोकमानस को यह अनुभूति हुई है कि प्रयोगशालाओं से मिली जानकारियों में शुभ के साथ अशुभ भी मिला हुआ है। और इनके अन्धे उपयोग से हानियाँ भी सम्भव है।
अनुभवों की इस शृंखला में कुछ और अनुभव भी हुए हैं। वैज्ञानिक चिकित्सा के सभी आयामों की अनेकों असफलताएँ व भारी दुष्प्रभाव भी सामने आए। इस सच को सभी जानते हैं कि सभी ने प्रायः सम्पूर्ण बीसवीं सदी साइड इफेक्ट्स से लड़ते- झगड़ते व पटखनी खाते गुजारी है। इस साइड इफेक्ट्स की वजह से न जाने कितने मासूम मौत की नींद सोए हैं। एक बीमारी ठीक करने के चक्कर में कितनी ही नयी बीमारियाँ उपहार में मिली हैं। दुनिया भर के कर्णधारों ने इस पर चर्चा भी की, चिन्ता भी जतायी परन्तु समाधान न खोज सके। अन्त में हार- थक कर सभी का ध्यान वैकल्पिक चिकित्सा की ओर गया। चुम्बक चिकित्सा, रंग चिकित्सा, एक्यूप्रेशर न जाने कितनी ही तकनीकें आजमायी गयीं। इसी क्रम में आध्यात्मिक तकनीकों को भी परखा गया। इससे जो नतीजे मिले, उससे सभी को भारी अचरज हुआ। क्योंकि इनमें आशातीत सफलता मिली थी।
और इसमें सबसे बड़ी बात तो यह है कि ये आध्यात्मिक तकनीकें अभी तक केवल आधे- अधूरे ढंग से ही जाँची- परखी गयी हैं। इन्हें अव्यवस्थित एवं अस्त- व्यस्त तरीके से ही प्रयोग में लाया गया है। इनके प्रयोगिक क्रम में अभी इनकी वास्तविक और सम्पूर्ण विधि- व्यवस्था तो अपनायी ही नहीं गयी। इसके बावजूद मिलने वाले नतीजों ने वैज्ञानिकों को हैरान कर रखा है। इनसे मिलने वाली विश्रान्ति, घटने वाला तनाव, जीवनी शक्ति में भारी अभिवृद्धि आदि कुछ ऐसे परिणाम हैं, जिन्होंने सभी के दृष्टिकोण को परिवर्तित किया है। कभी इसे अवैज्ञानिक कहने वाले वैज्ञानिक इसकी वैज्ञानिकता को स्वीकारने पर विवश हुए हैं।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ ११५
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आध्यात्मिक चिकित्सा के सम्बन्ध में विश्व दृष्टि इन दिनों सार्थक ढंग से बदली है। विश्व भर के मनीषियों के दृष्टिकोण आश्चर्यजनक ढंग से परिवर्तित हुए हैं। लोकदृष्टि भी इस सम्बन्ध में परिमार्जित व परिवर्तित हुई है। आज से कुछ सालों पहले आध्यात्मिक सिद्धान्तों, तकनीकों व प्रयोगों को अवैज्ञानिक कहकर खारिज कर दिया जाता था। लोकमानस भी वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं से मिली जानकारियों को जीवन के सर्वोच्च सन्देश के रूप में सुनता व स्वीकारता था। पर इक्कीसवी सदी के इन चार सालों में स्थिति काफी कुछ बदली है। विश्व मनीषियों को लगने लगा है कि प्रायोगिक पड़ताल के बिना आध्यात्मिक दृष्टिकोण व तकनीकों को नकारना अवैज्ञानिकता की पराकाष्ठा है। इसी तरह से लोकमानस को यह अनुभूति हुई है कि प्रयोगशालाओं से मिली जानकारियों में शुभ के साथ अशुभ भी मिला हुआ है। और इनके अन्धे उपयोग से हानियाँ भी सम्भव है।
अनुभवों की इस शृंखला में कुछ और अनुभव भी हुए हैं। वैज्ञानिक चिकित्सा के सभी आयामों की अनेकों असफलताएँ व भारी दुष्प्रभाव भी सामने आए। इस सच को सभी जानते हैं कि सभी ने प्रायः सम्पूर्ण बीसवीं सदी साइड इफेक्ट्स से लड़ते- झगड़ते व पटखनी खाते गुजारी है। इस साइड इफेक्ट्स की वजह से न जाने कितने मासूम मौत की नींद सोए हैं। एक बीमारी ठीक करने के चक्कर में कितनी ही नयी बीमारियाँ उपहार में मिली हैं। दुनिया भर के कर्णधारों ने इस पर चर्चा भी की, चिन्ता भी जतायी परन्तु समाधान न खोज सके। अन्त में हार- थक कर सभी का ध्यान वैकल्पिक चिकित्सा की ओर गया। चुम्बक चिकित्सा, रंग चिकित्सा, एक्यूप्रेशर न जाने कितनी ही तकनीकें आजमायी गयीं। इसी क्रम में आध्यात्मिक तकनीकों को भी परखा गया। इससे जो नतीजे मिले, उससे सभी को भारी अचरज हुआ। क्योंकि इनमें आशातीत सफलता मिली थी।
और इसमें सबसे बड़ी बात तो यह है कि ये आध्यात्मिक तकनीकें अभी तक केवल आधे- अधूरे ढंग से ही जाँची- परखी गयी हैं। इन्हें अव्यवस्थित एवं अस्त- व्यस्त तरीके से ही प्रयोग में लाया गया है। इनके प्रयोगिक क्रम में अभी इनकी वास्तविक और सम्पूर्ण विधि- व्यवस्था तो अपनायी ही नहीं गयी। इसके बावजूद मिलने वाले नतीजों ने वैज्ञानिकों को हैरान कर रखा है। इनसे मिलने वाली विश्रान्ति, घटने वाला तनाव, जीवनी शक्ति में भारी अभिवृद्धि आदि कुछ ऐसे परिणाम हैं, जिन्होंने सभी के दृष्टिकोण को परिवर्तित किया है। कभी इसे अवैज्ञानिक कहने वाले वैज्ञानिक इसकी वैज्ञानिकता को स्वीकारने पर विवश हुए हैं।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ ११५
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👉 गुरुवर की वाणी
★ हम आत्मीयता का क्षेत्र व्यापक करें। कुछ लोगों को ही अपना मानने और उन्हीं की फरमाइशें पूरी करने, उपहार लादते रहने के व्यामोह दलदल में न फंसें। अपनी सामर्थ्य को सत्प्रवृत्ति संवर्धन में लगाएं। देश, धर्म, समाज और संस्कृति को प्यार करें। आत्मीयता को व्यापक बनाएं। सबको अपना और अपने को सबका समझें। इस आत्म-विस्तार का व्यावहारिक स्वरूप लोकमंगल की सेवा-साधना से ही निखरता है। उदारता बरतें और बदले में आत्म-संतोष, लोक सम्मान तथा दैवी अनुग्रह की विभूतियां कमाएं।
(प्रज्ञा अभियान का दर्शन, स्वरूप-39)
◆ संत, सुधारक और शहीद सामान्य जन जीवन से ऊंचे स्तर के होने के कारण छोटे-बड़े अवतारों की गिनती में आते हैं। संत अपनी सज्जनता से मानव जीवन के सदुपयोगों का आदर्श प्रस्तुत करते हैं। जनजीवन पर छाये निकृष्ट चिंतन और दुराचरण से जूझने का प्रबल पराक्रम सुधारकों को करना होता है। शहीद वे होते हैं, जो स्वार्थ और परमार्थ में उत्सर्ग कर देते हैं। अपने दायरे को वे शरीर, परिवार तक सीमित न रख विश्व नागरिक जैसा बना लेते हैं।
(प्रज्ञा अभियान-1983, जुलाई)
■ उपदेश तो बहुत पा चुके हो, किन्तु उसके अनुसार क्या तुम कार्य करते हो? अपने चरित्र का संशोधन करने में अभी भी क्या किसी अन्य की राह देख रहे हो? तुम तो अब श्रेष्ठ कार्य करने की योग्यता प्राप्त करो। विवेक बुद्धि की किसी प्रकार अब उपेक्षा न करो। अपने चरित्र का संशोधन करने में लापरवाही करोगे या प्रयत्न में ढिलाई करोगे तो उन्नति कैसे हो सकती है? अपने शुभ अवसरों को न खोकर जीवन रणक्षेत्र में प्रबल पराक्रम से निरन्तर अग्रसर होकर विजयी प्राप्त करने के लिए सदैव तत्पर रहना सीखो।
(अखण्ड ज्योति-1964)
★ हमारी अभिलाषा है कि गायत्री परिवार का हर सदस्य उत्कृष्ट प्रकार के व्यक्तित्व से सम्पन्न भारतीय धर्म और संस्कृति का सिर ऊंचा करने वाला सज्जन व्यक्ति बने। उसका जीवन उलझनों और कुंठाओं से भरा हुआ नहीं, वरन् आशा, उत्साह, संतोष एवं मस्ती से भरा हुआ बीते। अपनी श्रेष्ठता का अनुकरणीय आदर्श उपस्थित करना—इस कसौटी पर हमारी वास्तविकता अब परखी जानी है। अब तक उपदेशों का कितना प्रभाव अंतःकरण पर हुआ? इस प्रश्न का उत्तर अब हमें आचरण द्वारा ही देना पड़ेगा।
(अखण्ड ज्योति-1964)
(प्रज्ञा अभियान का दर्शन, स्वरूप-39)
◆ संत, सुधारक और शहीद सामान्य जन जीवन से ऊंचे स्तर के होने के कारण छोटे-बड़े अवतारों की गिनती में आते हैं। संत अपनी सज्जनता से मानव जीवन के सदुपयोगों का आदर्श प्रस्तुत करते हैं। जनजीवन पर छाये निकृष्ट चिंतन और दुराचरण से जूझने का प्रबल पराक्रम सुधारकों को करना होता है। शहीद वे होते हैं, जो स्वार्थ और परमार्थ में उत्सर्ग कर देते हैं। अपने दायरे को वे शरीर, परिवार तक सीमित न रख विश्व नागरिक जैसा बना लेते हैं।
(प्रज्ञा अभियान-1983, जुलाई)
■ उपदेश तो बहुत पा चुके हो, किन्तु उसके अनुसार क्या तुम कार्य करते हो? अपने चरित्र का संशोधन करने में अभी भी क्या किसी अन्य की राह देख रहे हो? तुम तो अब श्रेष्ठ कार्य करने की योग्यता प्राप्त करो। विवेक बुद्धि की किसी प्रकार अब उपेक्षा न करो। अपने चरित्र का संशोधन करने में लापरवाही करोगे या प्रयत्न में ढिलाई करोगे तो उन्नति कैसे हो सकती है? अपने शुभ अवसरों को न खोकर जीवन रणक्षेत्र में प्रबल पराक्रम से निरन्तर अग्रसर होकर विजयी प्राप्त करने के लिए सदैव तत्पर रहना सीखो।
(अखण्ड ज्योति-1964)
★ हमारी अभिलाषा है कि गायत्री परिवार का हर सदस्य उत्कृष्ट प्रकार के व्यक्तित्व से सम्पन्न भारतीय धर्म और संस्कृति का सिर ऊंचा करने वाला सज्जन व्यक्ति बने। उसका जीवन उलझनों और कुंठाओं से भरा हुआ नहीं, वरन् आशा, उत्साह, संतोष एवं मस्ती से भरा हुआ बीते। अपनी श्रेष्ठता का अनुकरणीय आदर्श उपस्थित करना—इस कसौटी पर हमारी वास्तविकता अब परखी जानी है। अब तक उपदेशों का कितना प्रभाव अंतःकरण पर हुआ? इस प्रश्न का उत्तर अब हमें आचरण द्वारा ही देना पड़ेगा।
(अखण्ड ज्योति-1964)
मंगलवार, 15 अक्टूबर 2019
👉 आध्यात्मिक तेज का प्रज्वलित पुंज होता है चिकित्सक (भाग ८१)
👉 अथर्ववेदीय चिकित्सा पद्धति के प्रणेता युगऋषि
युगऋषि परम पूज्य गुरुदेव इस अथर्ववेदीय अध्यात्म चिकित्सा के विशेषज्ञ थे। उनका कहना था कि असाध्य रोग, भयंकर दुर्घटना, मारण, कृत्या आदि अभिचार कर्म दुर्भाग्य, दैत्य और प्रेतबाधा, पागलपन को आध्यात्म चिकित्सा का मर्मज्ञ केवल सिर पर जल छिड़कर या सिर पर हाथ रखकर अथवा मणियां बांधकर दूर कर सकता है। जो इन प्रयोगों को जानते हैं, उन्हें इस सत्य का ज्ञान है कि अथर्ववेदीय अध्यात्म चिकित्सा कोई चमत्कार न होकर एक प्रायोगिक व वैज्ञानिक व्यवस्था है।
परम पूज्य गुरुदेव के ज्येष्ठ पुत्र श्री ओमप्रकाश जो अपनी किशोरावस्था में उनके साथ रहा करते थे, गुरुदेव की आध्यात्मिक चिकित्सा से जुड़ी अनेकों अनुभूतियाँ सुनाते हैं। उन्हें अभी भी हैरानी होती है कि कैसे एक ही पत्ती, जड़ अथवा किसी छोटी सी आटे से बनी गोली से वे असाध्य रोगों को ठीक कर दिया करते थे। श्री ओमप्रकाश जी बताते हैं कि चिकित्सा के नाम पर हम उन दिनों आयुर्वेद जानते थे। गुरुदेव के एक ज्येष्ठ भ्राता भी वैद्य थे। उनके द्वारा दी जाने वाली दवाओं का स्वरूप, प्रकार व उनकी विविधता अलग ढंग की होती थी। पर गुरुदेव का तो सभी कुछ अद्भुत था। यहाँ तो वे सामान्य सी पत्ती द्वारा मरणासन्न को जीवनदान देते थे।
श्री ओमप्रकाश जी का कहना है कि उनके प्रयोगों में एक विचित्रता और भी थी। वह यह कि जरूरी नहीं कि रोगी उनके समीप ही हो, उसके हजारों किलोमीटर दूर होने से भी उनकी चिकित्सा में कोई कमी नहीं आती थी। एक सामान्य से धागे को उसके पास भेजकर वह उसे भला- चंगा बना देते थे। वह कहते हैं कि उन दिनों तो मैं अनजान था। पर आज लगता है कि सचमुच ही यह अथर्ववेदीय आध्यात्मिक चिकित्सा थी। शान्तिकुञ्ज में तप की अवधि में परम पूज्य गुरुदेव अपने विश्व कल्याण सम्बन्धी उच्चस्तरीय प्रयोगों में संलग्र हो गए थे। और उनकी चिकित्सा का स्वरूप संकल्प प्रयोगों व इच्छाशक्ति तक ही सिमट गया था। रोगी अभी भी ठीक होते थे। उनकी संख्या भी पहले से अनेकों गुना बढ़ गयी थी। किन्तु अब प्रयोग- प्रक्रियाएँ बदली हुई थी। अब इन अनेकों के लिए उनका संकल्प ही पर्याप्त था।
जीवन के अन्तिम वर्षों में उनकी दृष्टि भविष्य की ओर थी। सन् १९८९ में जाड़ों में जब वह अपने कमरे के बगल वाले आंगन में पलंग पर बैठे हुए थे। उन्होंने पास बैठे हुए अपने शिष्यों से पूछा- क्यों जी मेरे जाने के बाद तुम लोग आने वालों का किस तरह कल्याण करोगे? उत्तर में सन्नाटा छाया रहा। कोई कुछ न बोला। तब वह स्वयं बोले, देखो देह छोड़ने के बाद भी मेरी चेतना हमेशा ही शान्तिकुञ्ज परिसर में व्याप्त रहेगी। भविष्य में जो लोग यहाँ आएँ उनसे कहना कि गुरुदेव ने केवल शरीर छोड़ा है, वे कहीं गए नहीं हैं, यहीं पर हैं। उनका तप प्राण यहाँ के कण- कण में व्याप्त है। तुम लोग इसे अपने मन, प्राण में अनुभव करो। और जितने समय यहाँ रहो, यह सोचो कि मैं अपने रोम- रोम से प्रत्येक श्वास से गुरुदेव के तप प्राण को धारण कर रहा हूँ। इससे उनकी सभी तरह की चिकित्सा हो जाएगी। गुरुदेव के द्वारा कहा हुआ यह सच आज भी प्रामाणित हो रहा है। उन्होंने आध्यात्मिक चिकित्सा का जो प्रवर्तन किया आज उसे विश्वदृष्टि में मान्यता मिल रही है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ ११३
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युगऋषि परम पूज्य गुरुदेव इस अथर्ववेदीय अध्यात्म चिकित्सा के विशेषज्ञ थे। उनका कहना था कि असाध्य रोग, भयंकर दुर्घटना, मारण, कृत्या आदि अभिचार कर्म दुर्भाग्य, दैत्य और प्रेतबाधा, पागलपन को आध्यात्म चिकित्सा का मर्मज्ञ केवल सिर पर जल छिड़कर या सिर पर हाथ रखकर अथवा मणियां बांधकर दूर कर सकता है। जो इन प्रयोगों को जानते हैं, उन्हें इस सत्य का ज्ञान है कि अथर्ववेदीय अध्यात्म चिकित्सा कोई चमत्कार न होकर एक प्रायोगिक व वैज्ञानिक व्यवस्था है।
परम पूज्य गुरुदेव के ज्येष्ठ पुत्र श्री ओमप्रकाश जो अपनी किशोरावस्था में उनके साथ रहा करते थे, गुरुदेव की आध्यात्मिक चिकित्सा से जुड़ी अनेकों अनुभूतियाँ सुनाते हैं। उन्हें अभी भी हैरानी होती है कि कैसे एक ही पत्ती, जड़ अथवा किसी छोटी सी आटे से बनी गोली से वे असाध्य रोगों को ठीक कर दिया करते थे। श्री ओमप्रकाश जी बताते हैं कि चिकित्सा के नाम पर हम उन दिनों आयुर्वेद जानते थे। गुरुदेव के एक ज्येष्ठ भ्राता भी वैद्य थे। उनके द्वारा दी जाने वाली दवाओं का स्वरूप, प्रकार व उनकी विविधता अलग ढंग की होती थी। पर गुरुदेव का तो सभी कुछ अद्भुत था। यहाँ तो वे सामान्य सी पत्ती द्वारा मरणासन्न को जीवनदान देते थे।
श्री ओमप्रकाश जी का कहना है कि उनके प्रयोगों में एक विचित्रता और भी थी। वह यह कि जरूरी नहीं कि रोगी उनके समीप ही हो, उसके हजारों किलोमीटर दूर होने से भी उनकी चिकित्सा में कोई कमी नहीं आती थी। एक सामान्य से धागे को उसके पास भेजकर वह उसे भला- चंगा बना देते थे। वह कहते हैं कि उन दिनों तो मैं अनजान था। पर आज लगता है कि सचमुच ही यह अथर्ववेदीय आध्यात्मिक चिकित्सा थी। शान्तिकुञ्ज में तप की अवधि में परम पूज्य गुरुदेव अपने विश्व कल्याण सम्बन्धी उच्चस्तरीय प्रयोगों में संलग्र हो गए थे। और उनकी चिकित्सा का स्वरूप संकल्प प्रयोगों व इच्छाशक्ति तक ही सिमट गया था। रोगी अभी भी ठीक होते थे। उनकी संख्या भी पहले से अनेकों गुना बढ़ गयी थी। किन्तु अब प्रयोग- प्रक्रियाएँ बदली हुई थी। अब इन अनेकों के लिए उनका संकल्प ही पर्याप्त था।
जीवन के अन्तिम वर्षों में उनकी दृष्टि भविष्य की ओर थी। सन् १९८९ में जाड़ों में जब वह अपने कमरे के बगल वाले आंगन में पलंग पर बैठे हुए थे। उन्होंने पास बैठे हुए अपने शिष्यों से पूछा- क्यों जी मेरे जाने के बाद तुम लोग आने वालों का किस तरह कल्याण करोगे? उत्तर में सन्नाटा छाया रहा। कोई कुछ न बोला। तब वह स्वयं बोले, देखो देह छोड़ने के बाद भी मेरी चेतना हमेशा ही शान्तिकुञ्ज परिसर में व्याप्त रहेगी। भविष्य में जो लोग यहाँ आएँ उनसे कहना कि गुरुदेव ने केवल शरीर छोड़ा है, वे कहीं गए नहीं हैं, यहीं पर हैं। उनका तप प्राण यहाँ के कण- कण में व्याप्त है। तुम लोग इसे अपने मन, प्राण में अनुभव करो। और जितने समय यहाँ रहो, यह सोचो कि मैं अपने रोम- रोम से प्रत्येक श्वास से गुरुदेव के तप प्राण को धारण कर रहा हूँ। इससे उनकी सभी तरह की चिकित्सा हो जाएगी। गुरुदेव के द्वारा कहा हुआ यह सच आज भी प्रामाणित हो रहा है। उन्होंने आध्यात्मिक चिकित्सा का जो प्रवर्तन किया आज उसे विश्वदृष्टि में मान्यता मिल रही है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
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👉 आलस्य एक प्रकार की आत्म-हत्या ही है (भाग ३)
आलसी का हठ रहता है कि शरीर उसका अपना है। मान लो उसका है तब भी तो उसे नष्ट करने का अधिकार उसे नहीं हो सकता है। शरीर उसका है तो शरीर जन्य सन्तानें भी तो उसकी ही होती हैं और उनका भी उसके शरीर पर कुछ अधिकार होता है। शरीर नष्ट कर वह उनके शरीर का हनन तो नहीं कर सकता। शरीर से उपार्जन होता है और उपार्जन से बच्चों का पालन-पोषण। शिथिल एवं अशक्त शरीर आलसी उपार्जन से ऐसे घबराता है जैसे भेड़ भेड़िये से दूर भागती है। धन तो परिश्रम का मीठा फल है आलसी जिसे लाकर परिवार को नहीं दे पाता और रो-झींक कर, मर-खप कर विवश हो कर लाता भी है वह अपर्याप्त तो होता ही है साथ ही उसकी कुढ़न उसके साथ जुड़ी रहती है जो कि बच्चों के संस्कारों एवं शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य पर कुप्रभाव डालती है। इस प्रकार आलसी बच्चों का पालन करने के स्थान पर परोक्ष रूप से उनका भावनात्मक हनन ही किया करता है, जो एक अक्षम्य अपराध तथा पाप है। यदि बच्चों का सम्बन्ध न भी जोड़ा जाये तो भी अपने कर्मों से शरीर का सत्यानाश करना आत्महत्या के समान है जो उसी तरह पाप ही माना जायेगा।
आलस्य के कुठार द्वारा कल्पवृक्ष के समान उस शरीर की जड़ काटते रहना, उसकी शक्ति , क्षमताओं एवं योग्यताओं को नष्ट करते रहना पाप ही है जो मानव के महान से महान मनोरथों को चूर कर सकता है। शक्ति , सम्पन्नता, गौरव, ज्ञान, मान, प्रतिष्ठा, यश, कीर्ति आदि ऐसी कौन-सी समृद्धि अथवा ऐश्वर्य है जो शरीररूपी देवता को प्रसन्न करने पर नहीं मिल सकता। ऐसा कौन-सा पुण्य-परमार्थ है जो आत्मा की मुक्ति में सहायक हो और शरीर द्वारा सम्पन्न न किया जा सकता हो। मनुष्य श्रम-साधना द्वारा इस पंच-तात्विक देवता को प्रसन्न करने, समृद्धिय पाने, पुण्य-परमार्थ करके आत्मा को मुक्त करने के लिए है, वचन-बाध्य है। “मैं नहीं चाहता”—कहकर मनुष्य इस उद्देश्य से मुक्त नहीं हो सकता।
उसका जन्म, उसकी नियुक्ति इस कर्तव्य के लिये ही की गई है और उसने जीवन-लाभ के लिए सर्व समर्थ को यह वचन दिया था कि वह उसके दिये जीवन को सुन्दर एवं समृद्ध बनाकर संसार की शोभा बढ़ायेगा और उसके आत्मा रूपी प्रकाश की किरणें आवरण से मुक्त कर उसमें ही मिला देने की लिए किसी परिश्रम, पुरुषार्थ तथा परमार्थ से विमुख न होगा। परमात्मा ने उसके इसी वचन पर विश्वास करके उसे सृष्टि की सर्वश्रेष्ठता प्रदान की। बल, बुद्धि एवं विवेक सब योग्य बना दिया। अब वचन से फिरकर कर्तव्य से विमुख हो जाना कहाँ तक उचित है? यह भयंकर पाप है, विश्वासघात के समान ही पाप है और आलसी इस पाप को जान-बूझकर किया करता है। मनुष्य संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी और जीव-जगत का राजा है। संसार की व्यवस्था एवं सुन्दरता का भार उसके परिश्रम एवं पुरुषार्थ पर निर्भर है। किसी को कोई अधिकार नहीं कि वह उत्तरदायित्व से फिरकर आलस्य, प्रमाद अथवा निष्क्रियता द्वारा पृथ्वी का भार बने और उसे असुन्दर, अव्यवस्थित, अशाँत अथवा असुखकर बनाने की दुरभिसन्धि किया करे। आलसी एवं अकर्मण्य लोग निश्चय ही यह अपराध किया करते हैं जबकि उन्हें अपना सुधार कर ऐसा नहीं करना चाहिए। उनकी यह दुष्प्रवृत्ति अपरिमार्जन किसी प्रकार भी शोभनीय अथवा वाँछनीय नहीं है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1966 पृष्ठ 24
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1966/November/v1.24
आलस्य के कुठार द्वारा कल्पवृक्ष के समान उस शरीर की जड़ काटते रहना, उसकी शक्ति , क्षमताओं एवं योग्यताओं को नष्ट करते रहना पाप ही है जो मानव के महान से महान मनोरथों को चूर कर सकता है। शक्ति , सम्पन्नता, गौरव, ज्ञान, मान, प्रतिष्ठा, यश, कीर्ति आदि ऐसी कौन-सी समृद्धि अथवा ऐश्वर्य है जो शरीररूपी देवता को प्रसन्न करने पर नहीं मिल सकता। ऐसा कौन-सा पुण्य-परमार्थ है जो आत्मा की मुक्ति में सहायक हो और शरीर द्वारा सम्पन्न न किया जा सकता हो। मनुष्य श्रम-साधना द्वारा इस पंच-तात्विक देवता को प्रसन्न करने, समृद्धिय पाने, पुण्य-परमार्थ करके आत्मा को मुक्त करने के लिए है, वचन-बाध्य है। “मैं नहीं चाहता”—कहकर मनुष्य इस उद्देश्य से मुक्त नहीं हो सकता।
उसका जन्म, उसकी नियुक्ति इस कर्तव्य के लिये ही की गई है और उसने जीवन-लाभ के लिए सर्व समर्थ को यह वचन दिया था कि वह उसके दिये जीवन को सुन्दर एवं समृद्ध बनाकर संसार की शोभा बढ़ायेगा और उसके आत्मा रूपी प्रकाश की किरणें आवरण से मुक्त कर उसमें ही मिला देने की लिए किसी परिश्रम, पुरुषार्थ तथा परमार्थ से विमुख न होगा। परमात्मा ने उसके इसी वचन पर विश्वास करके उसे सृष्टि की सर्वश्रेष्ठता प्रदान की। बल, बुद्धि एवं विवेक सब योग्य बना दिया। अब वचन से फिरकर कर्तव्य से विमुख हो जाना कहाँ तक उचित है? यह भयंकर पाप है, विश्वासघात के समान ही पाप है और आलसी इस पाप को जान-बूझकर किया करता है। मनुष्य संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी और जीव-जगत का राजा है। संसार की व्यवस्था एवं सुन्दरता का भार उसके परिश्रम एवं पुरुषार्थ पर निर्भर है। किसी को कोई अधिकार नहीं कि वह उत्तरदायित्व से फिरकर आलस्य, प्रमाद अथवा निष्क्रियता द्वारा पृथ्वी का भार बने और उसे असुन्दर, अव्यवस्थित, अशाँत अथवा असुखकर बनाने की दुरभिसन्धि किया करे। आलसी एवं अकर्मण्य लोग निश्चय ही यह अपराध किया करते हैं जबकि उन्हें अपना सुधार कर ऐसा नहीं करना चाहिए। उनकी यह दुष्प्रवृत्ति अपरिमार्जन किसी प्रकार भी शोभनीय अथवा वाँछनीय नहीं है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1966 पृष्ठ 24
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1966/November/v1.24
👉 गुरुवर की वाणी
★ गायत्री परिवार का हर व्यक्ति बड़ा है। छोटेपन का उसने मुखौटा भर पहन रखा है। उतारने भर की देर है कि उसका असली चेहरा दृष्टिगोचर होगा। हमें हमारे मार्गदर्शक ने एक पल में क्षुद्रता का लबादा झटककर महानता का परिधान पहना दिया था। इस काया कल्प में मात्र इतना ही हुआ था कि लोभ, मोह की कीचड़ से उबरना पड़ा। जिस-तिस के परामर्शों—आग्रहों की उपेक्षा करनी पड़ी और आत्मा-परमात्मा के संयुक्त निर्णय को शिरोधार्य करने का साहस जुटाना पड़ा। इसके बाद एकाकी नहीं रहना पड़ा।
(हमारी वसीयत और विरासत-174)
◆ इस समय जो भगवान के भक्त हैं, जिन्हें इस संसार के प्रति दर्द है, उनके नाम हमारा यही सन्देश है कि वे अपने व्यक्तिगत लाभ के कार्यों में कटौती करें एवं भगवान् का काम करने के लिए आगे आएं। अगर इस समय भी आप अपना मतलब सिद्ध करते रहे और मालदार बनते रहे, तो पीछे आपको बहुत पछताना पड़ेगा। अब आपकी इज्जत- आपकी इज्जत नहीं, हमारी इज्जत है। हमारी और मिशन की इज्जत की रक्षा करना अब आपका काम है।
(गुरु पूर्णिमा संदेश-1980)
■ भगवान् कृष्ण ने महाभारत के उपरान्त राजसूय यज्ञ में आग्रहपूर्वक आगन्तुकों के पैर धोने का काम अपने जिम्मे लिया था और सज्जनोचित विनम्रता का परिचय दिया था। गांधीजी कांग्रेस के पदाधिकारी नहीं रहे, किन्तु फिर भी सबसे अधिक सेवा करने और मान पाने में समर्थ हुए। चाणक्य झोपड़ी में रहते थे, ताकि राजमद उनके ऊपर न चढ़े और किसी साथी के मन में प्रधानमन्त्री का ठाट-बाट देखकर वैसी ही ललक न उठे। राजा जनक हल जोतते थे। बादशाह नसीरुद्दीन टोपी सीकर गुजारा करते थे। यह वे उदाहरण हैं जिनसे साथियों को अधिक विनम्र और संयमी बनने की प्रेरणा मिलती है।
(प्रज्ञा अभियान का दर्शन स्वरूप-32)
★ हनुमान ने कितनी उपासना की थी, नल-नील, जामवन्त, अर्जुन ने कितनी पूजा एवं तीर्थयात्रा की थी? यह हम नहीं कह सकते, परन्तु उन्होंने भगवान् का काम किया था। ये लोग घाटे में नहीं रहे। इस समय महाकाल कुछ गलाई-ढलाई करने जा रहे हैं। अब नये व्यक्ति, नयी परम्पराएं, नये चिन्तन उभरकर आयेंगे। अगले दिनों यह सोचकर अचम्भा करेंगे कितने कम समय में इतना परिवर्तन कैसे हो गया। अगर हम समय को पहचान पाये तो आप सच्चे अर्थों में भाग्यवान बन सकते हैं।
(गुरु पूर्णिमा संदेश-1980)
(हमारी वसीयत और विरासत-174)
◆ इस समय जो भगवान के भक्त हैं, जिन्हें इस संसार के प्रति दर्द है, उनके नाम हमारा यही सन्देश है कि वे अपने व्यक्तिगत लाभ के कार्यों में कटौती करें एवं भगवान् का काम करने के लिए आगे आएं। अगर इस समय भी आप अपना मतलब सिद्ध करते रहे और मालदार बनते रहे, तो पीछे आपको बहुत पछताना पड़ेगा। अब आपकी इज्जत- आपकी इज्जत नहीं, हमारी इज्जत है। हमारी और मिशन की इज्जत की रक्षा करना अब आपका काम है।
(गुरु पूर्णिमा संदेश-1980)
■ भगवान् कृष्ण ने महाभारत के उपरान्त राजसूय यज्ञ में आग्रहपूर्वक आगन्तुकों के पैर धोने का काम अपने जिम्मे लिया था और सज्जनोचित विनम्रता का परिचय दिया था। गांधीजी कांग्रेस के पदाधिकारी नहीं रहे, किन्तु फिर भी सबसे अधिक सेवा करने और मान पाने में समर्थ हुए। चाणक्य झोपड़ी में रहते थे, ताकि राजमद उनके ऊपर न चढ़े और किसी साथी के मन में प्रधानमन्त्री का ठाट-बाट देखकर वैसी ही ललक न उठे। राजा जनक हल जोतते थे। बादशाह नसीरुद्दीन टोपी सीकर गुजारा करते थे। यह वे उदाहरण हैं जिनसे साथियों को अधिक विनम्र और संयमी बनने की प्रेरणा मिलती है।
(प्रज्ञा अभियान का दर्शन स्वरूप-32)
★ हनुमान ने कितनी उपासना की थी, नल-नील, जामवन्त, अर्जुन ने कितनी पूजा एवं तीर्थयात्रा की थी? यह हम नहीं कह सकते, परन्तु उन्होंने भगवान् का काम किया था। ये लोग घाटे में नहीं रहे। इस समय महाकाल कुछ गलाई-ढलाई करने जा रहे हैं। अब नये व्यक्ति, नयी परम्पराएं, नये चिन्तन उभरकर आयेंगे। अगले दिनों यह सोचकर अचम्भा करेंगे कितने कम समय में इतना परिवर्तन कैसे हो गया। अगर हम समय को पहचान पाये तो आप सच्चे अर्थों में भाग्यवान बन सकते हैं।
(गुरु पूर्णिमा संदेश-1980)
सोमवार, 14 अक्टूबर 2019
👉 वरिष्ठता: -
एक बगीचे में एक बाँस का झुरमुट था और पास ही आम का वृक्ष उगा खड़ा था।
ऊँचाई में बाँस ऊपर था और आम नीचा। बाँस ने आम से कहा- "देखते नहीं मैं तुमसे कितना ऊँचा हूँ। मेरी वरिष्ठता तुम्हें स्वीकार करनी चाहिए।"
आम कुछ बोला नहीं- चुप होकर रह गया।
गर्मी का ऋतु आई। आम फलों से लद गया। उसकी टहनियाँ फलों के भार से नीची झुक गई।
बाँस तना खड़ा था। वह आम से बोला- "तुम्हें तो इन फलों की फसल ने और भी अधिक नीचे गिरा दिया अब तुम मेरी तुलना में और भी अधिक छोटे हो गए हो।"
आम ने फिर भी कुछ नहीं कहा। सुनने के बाद उसने आंखें नीची कर ली।
उस दिन थके मुसाफिर उधर से गुजरे। कड़ाके की दुपहरी आग बरसा रही थी सो उन्हें छाया की तलाश थी। भूख-प्यास से बेचैन हो रहे थे अलग। पहले बाँस का झुरमुट था। वही बहुत दूर से ऊंचा दीख रहा था। चारों ओर घूमकर देखा उसके समीप छाया का नाम भी नहीं था। कंटीली झाड़ियां सूखकर इस तरह घिर गई थी कि किसी की समीप तक जाने की हिम्मत न पड़े।
निदान वे कुछ दूर पर उगे आम के नीचे पहुँचे। यहाँ दृश्य ही दूसरा था। सघन छाया की शीतलता और पककर नीचे गिरे हुए मीठे फलों का बिखराव। उन्होंने आम खाकर भूख बुझाई। समीप के झरने में पानी पिया और शीतल छाँह में संतोषपूर्वक सोये।
जब उठे तो बाँस और आम की तुलनात्मक चर्चा करने लगे।
उस खुसफुस की भनक बाँस के कान में पड़ी। उसने पहली बार उस समीक्षा के आधार पर जाना कि ऊँचा होने में और बड़प्पन में क्या कुछ अंतर होता है।
"दोस्तों..! हम सभी में अपने तरह की खूबियाँ और ख़ामियाँ मौजूद हैं...कुछ हमने अपनी मेहनत से पाईं हैं और कुछ हमें ईश्वर की देन हैं..। पर कोई भी पूरी तरह न सर्वश्रेष्ट है न निकृष्ट... इसलिए घमंड या निराशा का भी कोई कारण नहीं है..। हमें बस अपनी ख़ामियों/ख़ूबियों का जानने, स्वीकार करने और तराशने की आवश्यकता है..और यह तभी संभव है जब हम औरों की खूबियों से ईर्ष्या करने और खराबियों की आलोचना करने की बजाय खुद को जानने और तराशने में अपना वक्त और उर्जा लगाएं
हमें दुनिया से अपनी श्रेष्ठता स्वीकार करवाने की कोई आवश्यकता नहीं... आवश्यकता है तो खुद को 'कल जो हम थे' या 'आज जो हम हैं' उससे बेहतर बनाने का प्रयास करते रहने की..। समाज आपकी श्रेष्ठता तभी स्वीकार करेगा जब वो आपको दिन ब दिन निखरता देखेगा और आपकी खूबियों से लाभान्वित होगा..। तब आपको कुछ कहने की जरूरत न पडेगी आपके कर्म ही आपकी श्रेष्ठता का बयान होंगे...। कर्मों से बोला हुआ चरित्र ही देर तक याद रखा जाता है..॥"
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति, जुलाई-1975
ऊँचाई में बाँस ऊपर था और आम नीचा। बाँस ने आम से कहा- "देखते नहीं मैं तुमसे कितना ऊँचा हूँ। मेरी वरिष्ठता तुम्हें स्वीकार करनी चाहिए।"
आम कुछ बोला नहीं- चुप होकर रह गया।
गर्मी का ऋतु आई। आम फलों से लद गया। उसकी टहनियाँ फलों के भार से नीची झुक गई।
बाँस तना खड़ा था। वह आम से बोला- "तुम्हें तो इन फलों की फसल ने और भी अधिक नीचे गिरा दिया अब तुम मेरी तुलना में और भी अधिक छोटे हो गए हो।"
आम ने फिर भी कुछ नहीं कहा। सुनने के बाद उसने आंखें नीची कर ली।
उस दिन थके मुसाफिर उधर से गुजरे। कड़ाके की दुपहरी आग बरसा रही थी सो उन्हें छाया की तलाश थी। भूख-प्यास से बेचैन हो रहे थे अलग। पहले बाँस का झुरमुट था। वही बहुत दूर से ऊंचा दीख रहा था। चारों ओर घूमकर देखा उसके समीप छाया का नाम भी नहीं था। कंटीली झाड़ियां सूखकर इस तरह घिर गई थी कि किसी की समीप तक जाने की हिम्मत न पड़े।
निदान वे कुछ दूर पर उगे आम के नीचे पहुँचे। यहाँ दृश्य ही दूसरा था। सघन छाया की शीतलता और पककर नीचे गिरे हुए मीठे फलों का बिखराव। उन्होंने आम खाकर भूख बुझाई। समीप के झरने में पानी पिया और शीतल छाँह में संतोषपूर्वक सोये।
जब उठे तो बाँस और आम की तुलनात्मक चर्चा करने लगे।
उस खुसफुस की भनक बाँस के कान में पड़ी। उसने पहली बार उस समीक्षा के आधार पर जाना कि ऊँचा होने में और बड़प्पन में क्या कुछ अंतर होता है।
"दोस्तों..! हम सभी में अपने तरह की खूबियाँ और ख़ामियाँ मौजूद हैं...कुछ हमने अपनी मेहनत से पाईं हैं और कुछ हमें ईश्वर की देन हैं..। पर कोई भी पूरी तरह न सर्वश्रेष्ट है न निकृष्ट... इसलिए घमंड या निराशा का भी कोई कारण नहीं है..। हमें बस अपनी ख़ामियों/ख़ूबियों का जानने, स्वीकार करने और तराशने की आवश्यकता है..और यह तभी संभव है जब हम औरों की खूबियों से ईर्ष्या करने और खराबियों की आलोचना करने की बजाय खुद को जानने और तराशने में अपना वक्त और उर्जा लगाएं
हमें दुनिया से अपनी श्रेष्ठता स्वीकार करवाने की कोई आवश्यकता नहीं... आवश्यकता है तो खुद को 'कल जो हम थे' या 'आज जो हम हैं' उससे बेहतर बनाने का प्रयास करते रहने की..। समाज आपकी श्रेष्ठता तभी स्वीकार करेगा जब वो आपको दिन ब दिन निखरता देखेगा और आपकी खूबियों से लाभान्वित होगा..। तब आपको कुछ कहने की जरूरत न पडेगी आपके कर्म ही आपकी श्रेष्ठता का बयान होंगे...। कर्मों से बोला हुआ चरित्र ही देर तक याद रखा जाता है..॥"
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति, जुलाई-1975
👉 आलस्य एक प्रकार की आत्म-हत्या ही है (भाग २)
शरीर की सुरक्षा श्रम द्वारा ही की जा सकती है। आलस्य में निष्क्रिय पड़े रहने से इसके सारे कल-पुर्जे ढीले तथा अशक्त हो जाते हैं, अनेक व्याधियाँ घेर लेती हैं। आरोग्य चला जाता है। अस्वस्थ शरीर आत्मा को भी अस्वस्थ कर डालता है। आत्मा चेतनास्वरूप परमात्मा का पावन अंश है, उसे इस प्रकार निस्तेज, निश्चेष्ट अथवा अपावन बनाने का अधिकार किसी जीव को नहीं है। और जो अबुद्धिमान ऐसा करता है वह नास्तिक जैसा ही माना जायेगा। आलसी निश्चय ही इस पाप का दोषी होता है।
परमात्मा ने शरीर दिया, शक्ति दी, चेतना दी और बोध दिया। इसलिये कि मनुष्य अपनी उन्नति करें और जीवन-पथ पर आगे बढ़े। स्वयं सुख पाये और उसके प्यारे अन्य प्राणियों को सुखी होने में सहयोग दे। मनुष्य का कर्तव्य है कि ईश्वर की इस अनुकम्पा को सार्थक करे और अपने उपकारी के प्रति भक्ति- भावना से कृतज्ञता प्रकट करे। पर क्या आलसी अपने इस कर्तव्य को पूरा करता है? निश्चय ही नहीं। वह दिन-रात प्रमाद में पड़ा ऊँघता रहता है। औरों को सुखी करना तो दूर, उल्टा उन्हें दुःख ही देता रहता है और स्वयं भी दीनता, दरिद्रता, रोग तथा निस्तेजता का दुःख भोगा करते हैं। क्या इस प्रकार की अकर्तव्य शालीनता पाप नहीं कही जायेगी?
जो अभागा आलसी अपने साधारण जीवन-क्रम का निर्वाह प्रसन्नता, तत्परता तथा कुशलता से नहीं कर पाता वह स्वस्थ तन, प्रसन्न मन एवं उज्ज्वल आत्मा द्वारा कृतज्ञता प्रदर्शन रूप, पूजा-पाठ, जप-तप, सेवा-उपासना, भजन-कीर्तन का नियमित आयोजन कहाँ निभा सकता है? दोपहर तक सोते रहने, दिन में खाकर पड़े रहने और कष्टपूर्वक कोई आवश्यक कार्य कर सकने वाला प्रमाद उन्मादी भगवत्-भक्ति करता अथवा कर सकता है, ऐसा सम्भव नहीं। नियमित रूप से, भक्ति-भावना से भरी उपासना न करना उस अनुग्राहक ईश्वर के प्रति कृतघ्नता है। कृतघ्नता का पाप जघन्यता की कोटि का पाप है जिसका सबसे पहले अपराधी आलसी ही होता है। जिसके पास समय ही समय रहता हो वह परमात्मा की उपासना न करे उससे बढ़कर पापी और कौन हो सकता है जबकि व्यस्त जीवन में से भी समय निकाल कर प्रभु की याद न करने वाले आत्मधारी तक आलोचना एवं निन्दा के पात्र बनते हैं।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1966 पृष्ठ 24
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1966/November/v1.24
परमात्मा ने शरीर दिया, शक्ति दी, चेतना दी और बोध दिया। इसलिये कि मनुष्य अपनी उन्नति करें और जीवन-पथ पर आगे बढ़े। स्वयं सुख पाये और उसके प्यारे अन्य प्राणियों को सुखी होने में सहयोग दे। मनुष्य का कर्तव्य है कि ईश्वर की इस अनुकम्पा को सार्थक करे और अपने उपकारी के प्रति भक्ति- भावना से कृतज्ञता प्रकट करे। पर क्या आलसी अपने इस कर्तव्य को पूरा करता है? निश्चय ही नहीं। वह दिन-रात प्रमाद में पड़ा ऊँघता रहता है। औरों को सुखी करना तो दूर, उल्टा उन्हें दुःख ही देता रहता है और स्वयं भी दीनता, दरिद्रता, रोग तथा निस्तेजता का दुःख भोगा करते हैं। क्या इस प्रकार की अकर्तव्य शालीनता पाप नहीं कही जायेगी?
जो अभागा आलसी अपने साधारण जीवन-क्रम का निर्वाह प्रसन्नता, तत्परता तथा कुशलता से नहीं कर पाता वह स्वस्थ तन, प्रसन्न मन एवं उज्ज्वल आत्मा द्वारा कृतज्ञता प्रदर्शन रूप, पूजा-पाठ, जप-तप, सेवा-उपासना, भजन-कीर्तन का नियमित आयोजन कहाँ निभा सकता है? दोपहर तक सोते रहने, दिन में खाकर पड़े रहने और कष्टपूर्वक कोई आवश्यक कार्य कर सकने वाला प्रमाद उन्मादी भगवत्-भक्ति करता अथवा कर सकता है, ऐसा सम्भव नहीं। नियमित रूप से, भक्ति-भावना से भरी उपासना न करना उस अनुग्राहक ईश्वर के प्रति कृतघ्नता है। कृतघ्नता का पाप जघन्यता की कोटि का पाप है जिसका सबसे पहले अपराधी आलसी ही होता है। जिसके पास समय ही समय रहता हो वह परमात्मा की उपासना न करे उससे बढ़कर पापी और कौन हो सकता है जबकि व्यस्त जीवन में से भी समय निकाल कर प्रभु की याद न करने वाले आत्मधारी तक आलोचना एवं निन्दा के पात्र बनते हैं।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1966 पृष्ठ 24
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1966/November/v1.24
👉 आध्यात्मिक तेज का प्रज्वलित पुंज होता है चिकित्सक (भाग ८०)
👉 अथर्ववेदीय चिकित्सा पद्धति के प्रणेता युगऋषि
इसका सत्य यह है कि ‘अथर्वा’ और ‘आङ्गिरस’ ये दो अलग- अलग ऋषि थे। इन्होंने ही सर्वप्रथम अग्रि को प्रकट करके यज्ञ चिकित्सा का आविष्कार किया था। अथर्ववेद में अथर्वा ऋषि द्वारा दृष्ट ऋचाएँ अध्यात्मपरक, सुखकारक, अभ्युदय प्रदान करने वाली और श्रेय- प्रेय देने वाली हैं। और अंगिरस ऋषि द्वारा दृष्ट ऋचाएँ अभिचार परक, शत्रुसंहारिणी, कृत्यादूषण, शापनिवारिणी, मारण, मोहन, वशीकरण आदि प्रधान हैं। सार तथ्य यह है कि आथर्वण मंत्र सृजनात्मक हैं और अंगिरस मंत्र संहारात्मक हैं। अथर्ववेद में आथर्वण और अंगिरस दो प्रकार की चिकित्सा विधियाँ होने के कारण अथर्ववेद को ‘अथर्वाङ्गिरस’ कहा जाता है।
शब्द व्युत्पत्ति की दृष्टि से हम अथर्वा का मर्म तो जान चुके अब यदि ‘आङ्गिरस’ का मर्म अनुभव करें तो शब्द व्युत्पत्ति ‘आङ्गिरस’ का अर्थ अंगों में प्रवाहित होने वाला रस बताती है। मनुष्य शरीर के प्रत्येक अंग अवयव में ‘प्राणरस’ प्रवाहित होता रहता है। इसी प्राणरस का प्रवाह प्रत्येक अंग- अवयव को सक्षम व सशक्त बनाया करता है। इस रस के सूखने पर या अवरूद्ध होने पर अथवा इसका अभाव होने पर इन्द्रियाँ शिथिल और निष्क्रय हो जाती हैं। और इनका कार्य- व्यापार ठप्प पड़ जाता है। जब मनुष्य के शरीर की यह स्थिति होती है, तब उसे लकवा, फालिज और मधुमेह आदि रोग हो जाया करते हैं।
शरीर में प्रवाहित होने वाले इस रस में जब विकार उत्पन्न हो जाते हैं, तब अनेकों तरह की विकृतियाँ व व्याधियाँ पनपने लगती हैं। मनुष्य के मन- मस्तिष्क व हृदय रोगी हो जाते हैं। शरीर के इस तरह रोगग्रस्त होने पर अथर्ववेद के आध्यात्मिक चिकित्सा विधान द्वारा जलावसेचन, हस्तामिमर्श, मणिबन्धन, हवन एवं उपस्थान आदि करने से यथा अथर्ववेदीय मंत्रों द्वारा अभिमंत्रित औषधि, भेषज उपचार से मनुष्य रोग- दोष मुक्त होकर स्वस्थ और निरोग बनता है। जलावसेचन, मणिबन्धन, औषधि, भेजष आदि उपचार से शरीर के अंगों के विकृत या शुष्क रस सजीव व सशक्त बनते हैं।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ ११२
इसका सत्य यह है कि ‘अथर्वा’ और ‘आङ्गिरस’ ये दो अलग- अलग ऋषि थे। इन्होंने ही सर्वप्रथम अग्रि को प्रकट करके यज्ञ चिकित्सा का आविष्कार किया था। अथर्ववेद में अथर्वा ऋषि द्वारा दृष्ट ऋचाएँ अध्यात्मपरक, सुखकारक, अभ्युदय प्रदान करने वाली और श्रेय- प्रेय देने वाली हैं। और अंगिरस ऋषि द्वारा दृष्ट ऋचाएँ अभिचार परक, शत्रुसंहारिणी, कृत्यादूषण, शापनिवारिणी, मारण, मोहन, वशीकरण आदि प्रधान हैं। सार तथ्य यह है कि आथर्वण मंत्र सृजनात्मक हैं और अंगिरस मंत्र संहारात्मक हैं। अथर्ववेद में आथर्वण और अंगिरस दो प्रकार की चिकित्सा विधियाँ होने के कारण अथर्ववेद को ‘अथर्वाङ्गिरस’ कहा जाता है।
शब्द व्युत्पत्ति की दृष्टि से हम अथर्वा का मर्म तो जान चुके अब यदि ‘आङ्गिरस’ का मर्म अनुभव करें तो शब्द व्युत्पत्ति ‘आङ्गिरस’ का अर्थ अंगों में प्रवाहित होने वाला रस बताती है। मनुष्य शरीर के प्रत्येक अंग अवयव में ‘प्राणरस’ प्रवाहित होता रहता है। इसी प्राणरस का प्रवाह प्रत्येक अंग- अवयव को सक्षम व सशक्त बनाया करता है। इस रस के सूखने पर या अवरूद्ध होने पर अथवा इसका अभाव होने पर इन्द्रियाँ शिथिल और निष्क्रय हो जाती हैं। और इनका कार्य- व्यापार ठप्प पड़ जाता है। जब मनुष्य के शरीर की यह स्थिति होती है, तब उसे लकवा, फालिज और मधुमेह आदि रोग हो जाया करते हैं।
शरीर में प्रवाहित होने वाले इस रस में जब विकार उत्पन्न हो जाते हैं, तब अनेकों तरह की विकृतियाँ व व्याधियाँ पनपने लगती हैं। मनुष्य के मन- मस्तिष्क व हृदय रोगी हो जाते हैं। शरीर के इस तरह रोगग्रस्त होने पर अथर्ववेद के आध्यात्मिक चिकित्सा विधान द्वारा जलावसेचन, हस्तामिमर्श, मणिबन्धन, हवन एवं उपस्थान आदि करने से यथा अथर्ववेदीय मंत्रों द्वारा अभिमंत्रित औषधि, भेषज उपचार से मनुष्य रोग- दोष मुक्त होकर स्वस्थ और निरोग बनता है। जलावसेचन, मणिबन्धन, औषधि, भेजष आदि उपचार से शरीर के अंगों के विकृत या शुष्क रस सजीव व सशक्त बनते हैं।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ ११२
👉 गुरुवर की वाणी
★ मेरी चाह है कि हाथ से सत्य न जाने पाये। जिस सत्य को तलाशने और पाने के लिए मैंने कंकरीले, रेतीले मार्ग पर चलना स्वीकार किया है, वह आत्म-स्वीकृति किसी भी मूल्य पर, किसी भी संकट के समय डगमगाने न पाये। सत्य का अवलम्बन बना रहे, क्योंकि उसकी शक्ति असीम है। मैं उसी के सहारे अपनी हिम्मत संजोये रहूंगा।
(अखण्ड ज्योति 1985, मई)
◆ प्रज्ञा परिवार को अन्य संगठनों, आन्दोलनों, सभा-संस्थाओं के समतुल्य नहीं मानना चाहिए। वह युग सृजन के निमित्त अग्रगामी मूर्धन्य लोगों का एक सुसंस्कारी परिकर-परिसर है। उन्हें केवल एक ही बात सोचनी चाहिए कि समय की जिस चुनौती ने जाग्रत् आत्माओं को कान पकड़कर झकझोरा है, उसके उत्तर में उन्हें दांत निपोरने हैं या सीना तानना है?
(वाङ्मय क्र.1, पेज-6.1)
■ यह क्षुद्रता कैसी, जो अग्रदूतों की भूमिका निभाने में अवरोध बनकर अड़ गई है। समर्थ को असहाय बनाने वाला यह व्यामोह आखिर कैसा भवबन्धन है? कुसंस्कार है? दुर्विपाक है या मकड़ी का जाल? कुछ ठीक से समझ नहीं आता। यह समय पराक्रम और पौरुष का है, शौर्य और साहस का है। इस विषम वेला में युग के अर्जुनों के हाथों से गांडीव क्यों छूटे जा रहे हैं? सिद्धान्तवाद क्या कथा-गाथा जैसा कोई विनोद मनोरंजन है, जिसकी यथार्थता परखी जाने का कभी अवसर ही न आये?
(वाङ्मय क्र.1, पेज-6.1)
★नवनिर्माण के कंधे पर लदे उत्तरदायित्व मिल-जुलकर संपन्न हो सकने वाला कार्य था, सो समझदारों में कोई हाथ न लगा तो अपने बाल परिवार-गायत्री परिवार को लेकर जुट पड़े। बात अगले दिनों की आती है। इस सम्बन्ध में स्मरण दिलाने योग्य बात एक ही है कि हमारी आकांक्षा और आवश्यकताओं को भुला न दिया जाय। समय विकट है। प्रत्येक परिजन का भावभरा सहयोग हमें चाहिए।
(हमारी वसीयत और विरासत-174)
(अखण्ड ज्योति 1985, मई)
◆ प्रज्ञा परिवार को अन्य संगठनों, आन्दोलनों, सभा-संस्थाओं के समतुल्य नहीं मानना चाहिए। वह युग सृजन के निमित्त अग्रगामी मूर्धन्य लोगों का एक सुसंस्कारी परिकर-परिसर है। उन्हें केवल एक ही बात सोचनी चाहिए कि समय की जिस चुनौती ने जाग्रत् आत्माओं को कान पकड़कर झकझोरा है, उसके उत्तर में उन्हें दांत निपोरने हैं या सीना तानना है?
(वाङ्मय क्र.1, पेज-6.1)
■ यह क्षुद्रता कैसी, जो अग्रदूतों की भूमिका निभाने में अवरोध बनकर अड़ गई है। समर्थ को असहाय बनाने वाला यह व्यामोह आखिर कैसा भवबन्धन है? कुसंस्कार है? दुर्विपाक है या मकड़ी का जाल? कुछ ठीक से समझ नहीं आता। यह समय पराक्रम और पौरुष का है, शौर्य और साहस का है। इस विषम वेला में युग के अर्जुनों के हाथों से गांडीव क्यों छूटे जा रहे हैं? सिद्धान्तवाद क्या कथा-गाथा जैसा कोई विनोद मनोरंजन है, जिसकी यथार्थता परखी जाने का कभी अवसर ही न आये?
(वाङ्मय क्र.1, पेज-6.1)
★नवनिर्माण के कंधे पर लदे उत्तरदायित्व मिल-जुलकर संपन्न हो सकने वाला कार्य था, सो समझदारों में कोई हाथ न लगा तो अपने बाल परिवार-गायत्री परिवार को लेकर जुट पड़े। बात अगले दिनों की आती है। इस सम्बन्ध में स्मरण दिलाने योग्य बात एक ही है कि हमारी आकांक्षा और आवश्यकताओं को भुला न दिया जाय। समय विकट है। प्रत्येक परिजन का भावभरा सहयोग हमें चाहिए।
(हमारी वसीयत और विरासत-174)
रविवार, 13 अक्टूबर 2019
👉 आभास
एक बार एक व्यक्ति की उसके बचपन के टीचर से मुलाकात होती है, वह उनके चरण स्पर्श कर अपना परिचय देता है।
वे बड़े प्यार से पुछती है, 'अरे वाह, आप मेरे विद्यार्थी रहे है, अभी क्या करते हो, क्या बन गए हो?'
'मैं भी एक टीचर बन गया हूं ' वह व्यक्ति बोला,' और इसकी प्रेरणा मुझे आपसे ही मिली थी जब में 7 वर्ष का था।'
उस टीचर को बड़ा आश्चर्य हुआ, और वे बोली कि,' मुझे तो आपकी शक्ल भी याद नही आ रही है, उस उम्र में मुझसे कैसी प्रेरणा मिली थी??'
वो व्यक्ति कहने लगा कि ....
'यदि आपको याद हो, जब में चौथी क्लास में पढ़ता था, तब एक दिन सुबह सुबह मेरे सहपाठी ने उस दिन उसकी महंगी घड़ी चोरी होने की आपसे शिकायत की थी, आपने क्लास का दरवाज़ा बन्द करवाया और सभी बच्चो को क्लास में पीछे एक साथ लाइन में खड़ा होने को कहा था, फिर आपने सभी बच्चों की जेबें टटोली थी, मेरी जेब से आपको घड़ी मिल गई थी, जो मैंने चुराई थी, पर चूंकि आपने सभी बच्चों को अपनी आंखें बंद रखने को कहा था तो किसी को पता नहीं चला कि घड़ी मैंने चुराई थी।
टीचर उस दिन आपने मुझे लज्जा व शर्म से बचा लिया था, और इस घटना के बाद कभी भी आपने अपने व्यवहार से मुझे यह नही लगने दिया कि मैंने एक गलत कार्य किया था, आपने बगैर कुछ कहे मुझे क्षमा भी कर दिया और दूसरे बच्चे मुझे चोर कहते इससे भी बचा लिया था।'
ये सुनकर टीचर बोली,
'मुझे भी नही पता था बेटा कि वो घड़ी किसने चुराई थी' वो व्यक्ति बोला,'नहीं टीचर, ये कैसे संभव है? आपने स्वयं अपने हाथों से चोरी की गई घड़ी मेरे जेब से निकाली थी।'
टीचर बोली.....
'बेटा मैं जब सबके पॉकेट चेक कर रही थी, उस समय मैने कहा था कि सब अपनी आंखे बंद रखेंगे, और वही मैंने भी किया था, मैंने स्वयं भी अपनी आंखें बंद रखी थी'
मित्रो....
किसी को उसकी ऐसी शर्मनाक परिस्थिति से बचाने का इससे अच्छा उदाहरण और क्या हो सकता है?
यदि हमें किसी की कमजोरी मालूम भी पड़ जाए तो उसका दोहन करना तो दूर, उस व्यक्ति को ये आभास भी ना होने देना चाहिये कि आपको इसकीं जानकारी भी है।
वे बड़े प्यार से पुछती है, 'अरे वाह, आप मेरे विद्यार्थी रहे है, अभी क्या करते हो, क्या बन गए हो?'
'मैं भी एक टीचर बन गया हूं ' वह व्यक्ति बोला,' और इसकी प्रेरणा मुझे आपसे ही मिली थी जब में 7 वर्ष का था।'
उस टीचर को बड़ा आश्चर्य हुआ, और वे बोली कि,' मुझे तो आपकी शक्ल भी याद नही आ रही है, उस उम्र में मुझसे कैसी प्रेरणा मिली थी??'
वो व्यक्ति कहने लगा कि ....
'यदि आपको याद हो, जब में चौथी क्लास में पढ़ता था, तब एक दिन सुबह सुबह मेरे सहपाठी ने उस दिन उसकी महंगी घड़ी चोरी होने की आपसे शिकायत की थी, आपने क्लास का दरवाज़ा बन्द करवाया और सभी बच्चो को क्लास में पीछे एक साथ लाइन में खड़ा होने को कहा था, फिर आपने सभी बच्चों की जेबें टटोली थी, मेरी जेब से आपको घड़ी मिल गई थी, जो मैंने चुराई थी, पर चूंकि आपने सभी बच्चों को अपनी आंखें बंद रखने को कहा था तो किसी को पता नहीं चला कि घड़ी मैंने चुराई थी।
टीचर उस दिन आपने मुझे लज्जा व शर्म से बचा लिया था, और इस घटना के बाद कभी भी आपने अपने व्यवहार से मुझे यह नही लगने दिया कि मैंने एक गलत कार्य किया था, आपने बगैर कुछ कहे मुझे क्षमा भी कर दिया और दूसरे बच्चे मुझे चोर कहते इससे भी बचा लिया था।'
ये सुनकर टीचर बोली,
'मुझे भी नही पता था बेटा कि वो घड़ी किसने चुराई थी' वो व्यक्ति बोला,'नहीं टीचर, ये कैसे संभव है? आपने स्वयं अपने हाथों से चोरी की गई घड़ी मेरे जेब से निकाली थी।'
टीचर बोली.....
'बेटा मैं जब सबके पॉकेट चेक कर रही थी, उस समय मैने कहा था कि सब अपनी आंखे बंद रखेंगे, और वही मैंने भी किया था, मैंने स्वयं भी अपनी आंखें बंद रखी थी'
मित्रो....
किसी को उसकी ऐसी शर्मनाक परिस्थिति से बचाने का इससे अच्छा उदाहरण और क्या हो सकता है?
यदि हमें किसी की कमजोरी मालूम भी पड़ जाए तो उसका दोहन करना तो दूर, उस व्यक्ति को ये आभास भी ना होने देना चाहिये कि आपको इसकीं जानकारी भी है।
👉 आलस्य एक प्रकार की आत्म-हत्या ही है (भाग १)
‘आलस्य एक घोर पाप है’—ऐसा सुनकर कितने ही आश्चर्य में पड़कर सोच सकते हैं क्या अजीब-सी बात है! भला आलस्य किस प्रकार पाप हो सकता है? पाप तो चोरी, डकैती, लूट-खसोट, विश्वासघात, हत्या, व्यभिचार आदि कुकर्म ही होते हैं। इनसे मनुष्य का नैतिक पतन होता है और वह धर्म से गिर जाता है। आलस्य किस प्रकार पाप माना जा सकता है? आलसी व्यक्ति तो चुपचाप एक स्थान पर पड़ा-पड़ा जिन्दगी के दिन काटा करता है। वह न तो अधिक काम ही करता है और न समाज में घुलता-मिलता है, इसलिये उससे पाप हो सकने की सम्भावना नहीं के समान ही नगण्य रहती है।
पाप क्या है? वह हर आचार-व्यवहार एवं विचार पाप ही है जिससे किसी को अनुचित रीति से शारीरिक अथवा मानसिक कष्ट अथवा हानि हो। आत्म-हिंसा अथवा आत्म-हानि एक जघन्य-पाप कहा गया है। आलसी सबसे पहले इसी पाप का भागी होता है। मनुष्य को शरीररूपी धरोहर मिली हुई है। निष्क्रिय पड़ा रहकर आलसी इसे बरबाद किया करता है जबकि उसे ऐसा करने का कोई अधिकार नहीं है। यदि कोई समझदार व्यक्ति उससे इस अपराध का उपालम्भ करता है तो वह बड़े दम्भ से यही कहता है कि शरीर उसका अपना है। रखता है या बर्बाद करता है—इस बात से किसी दूसरे का क्या सम्बन्ध हो सकता है?
आलसी का यह अहंकार स्वयं एक पाप है। उसका यह कथन उसकी अनधिकारिक अहमन्यता को घोषित करता है। शरीर किसी की अपनी संपत्ति नहीं। वह ईश्वर-प्रदत्त एक साधन है जो भव बन्धन में बँधी आत्मा को इस शरीर रूपी साधन को उद्देश्य-दिशा में उपभोग करने क कर्तव्य भर ही मिला है। उसे अपना समझने अथवा बरबाद करने का अधिकार किसी को नहीं है। आलसी निरन्तर इस अनधिकार चेष्टा को करता हुआ पाप करता है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1966 पृष्ठ 23
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1966/November/v1.23
पाप क्या है? वह हर आचार-व्यवहार एवं विचार पाप ही है जिससे किसी को अनुचित रीति से शारीरिक अथवा मानसिक कष्ट अथवा हानि हो। आत्म-हिंसा अथवा आत्म-हानि एक जघन्य-पाप कहा गया है। आलसी सबसे पहले इसी पाप का भागी होता है। मनुष्य को शरीररूपी धरोहर मिली हुई है। निष्क्रिय पड़ा रहकर आलसी इसे बरबाद किया करता है जबकि उसे ऐसा करने का कोई अधिकार नहीं है। यदि कोई समझदार व्यक्ति उससे इस अपराध का उपालम्भ करता है तो वह बड़े दम्भ से यही कहता है कि शरीर उसका अपना है। रखता है या बर्बाद करता है—इस बात से किसी दूसरे का क्या सम्बन्ध हो सकता है?
आलसी का यह अहंकार स्वयं एक पाप है। उसका यह कथन उसकी अनधिकारिक अहमन्यता को घोषित करता है। शरीर किसी की अपनी संपत्ति नहीं। वह ईश्वर-प्रदत्त एक साधन है जो भव बन्धन में बँधी आत्मा को इस शरीर रूपी साधन को उद्देश्य-दिशा में उपभोग करने क कर्तव्य भर ही मिला है। उसे अपना समझने अथवा बरबाद करने का अधिकार किसी को नहीं है। आलसी निरन्तर इस अनधिकार चेष्टा को करता हुआ पाप करता है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1966 पृष्ठ 23
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1966/November/v1.23
👉 आध्यात्मिक तेज का प्रज्वलित पुंज होता है चिकित्सक (भाग ७९)
👉 अथर्ववेदीय चिकित्सा पद्धति के प्रणेता युगऋषि
आध्यात्मिक चिकित्सा के आचार्य परम पूज्य गुरुदेव ने वैदिक महर्षियों की परम्परा के इस युग में नवजीवन दिया। उन्होंने अध्यात्म चिकित्सा के वैदिक सूत्रों, सत्यों एवं रहस्यमय प्रयोगों की कठिन साधना दुर्गम हिमालय में सम्पन्न की। उनके द्वारा दिए गए संकेतों के अनुसार यह जटिल साधना स्वयं वैदिक युग के महर्षियों के सान्निध्य में सम्पन्न हुई। वामदेव, कहोड़, अथर्वण एवं अंगिरस आदि ये महर्षि अभी भी अपने अप्रत्यक्ष शरीर से देवात्मा हिमालय में निवास करते हैं। परम गुरु स्वामी सर्वेश्वरानन्द जी ने पूज्य गुरुदेव को उनसे मिलवाया था। उन सबने गुरुदेव की पात्रता, पवित्रता व प्रामाणिकता परख कर उन्हें अध्यात्म चिकित्सा के सभी रहस्यों से अवगत कराया।
यूं तो ऐसी रहस्यात्मक चर्चाएँ गुरुदेव कम ही किया करते थे। फिर भी यदा- कदा प्रश्रों के समाधान के क्रम में उनके मुख से ऐसे रहस्यात्मक संकेत उभर आते थे। ऐसे ही क्रम में एक दिन उन्होंने कहा था कि अध्यात्म चिकित्सा की बातें बहुत लोग करते हैं, लेकिन इसका मर्म बहुत इने- गिने लोग जानते हैं। अध्यात्म चिकित्सा दरअसल वेदविद्या है। यूं तो इसका प्रारम्भ ऋग्वेद से ही हो जाता है, यजुष और साम में भी इसके प्रयोग मिलते हैं। लेकिन इसका समग्र व संवर्धित रूप अथर्ववेद में मिलता है। इस अथर्वण विद्या को सही व सम्यक् ढंग से जानने पर ही अध्यात्म चिकित्सा के सभी रहस्य जाने जा सकते हैं। यह बताने के बाद उन्होंने धीमे स्वर में कहा कि मैंने स्वयं महर्षि अथर्वण एवं महर्षि अंगिरस से इन रहस्यों का ज्ञान प्राप्त किया है।
शब्द व्युत्पत्ति के आधार पर ‘अथर्वा’ शब्द का अर्थ ‘अचंचलता की स्थिति’ है। ‘थर्व इति गतिर्नाम न थर्व इति अथर्वा’। थर्व का मतलब गति है और गति का अर्थ चंचलता है। शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक आदि सभी प्रकार की चंचलता को अथर्वविद्या की अध्यात्म चिकित्सा से नियंत्रित करके साधक सम्पूर्ण स्वस्थ व स्थितप्रज्ञ बनाया जाता है। परम पूज्य गुरुदेव के मुख से हमने एक और बात सुनी है। वह कहते थे कि वैदिक वाङ्मय में अथर्ववेद के ‘ब्रह्मवेद’, ‘भैषज्यवेद’ आदि कई नाम मिलते हैं। इन्हीं में से एक नाम ‘अथर्वाङ्गिरस’ भी है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ १११
आध्यात्मिक चिकित्सा के आचार्य परम पूज्य गुरुदेव ने वैदिक महर्षियों की परम्परा के इस युग में नवजीवन दिया। उन्होंने अध्यात्म चिकित्सा के वैदिक सूत्रों, सत्यों एवं रहस्यमय प्रयोगों की कठिन साधना दुर्गम हिमालय में सम्पन्न की। उनके द्वारा दिए गए संकेतों के अनुसार यह जटिल साधना स्वयं वैदिक युग के महर्षियों के सान्निध्य में सम्पन्न हुई। वामदेव, कहोड़, अथर्वण एवं अंगिरस आदि ये महर्षि अभी भी अपने अप्रत्यक्ष शरीर से देवात्मा हिमालय में निवास करते हैं। परम गुरु स्वामी सर्वेश्वरानन्द जी ने पूज्य गुरुदेव को उनसे मिलवाया था। उन सबने गुरुदेव की पात्रता, पवित्रता व प्रामाणिकता परख कर उन्हें अध्यात्म चिकित्सा के सभी रहस्यों से अवगत कराया।
यूं तो ऐसी रहस्यात्मक चर्चाएँ गुरुदेव कम ही किया करते थे। फिर भी यदा- कदा प्रश्रों के समाधान के क्रम में उनके मुख से ऐसे रहस्यात्मक संकेत उभर आते थे। ऐसे ही क्रम में एक दिन उन्होंने कहा था कि अध्यात्म चिकित्सा की बातें बहुत लोग करते हैं, लेकिन इसका मर्म बहुत इने- गिने लोग जानते हैं। अध्यात्म चिकित्सा दरअसल वेदविद्या है। यूं तो इसका प्रारम्भ ऋग्वेद से ही हो जाता है, यजुष और साम में भी इसके प्रयोग मिलते हैं। लेकिन इसका समग्र व संवर्धित रूप अथर्ववेद में मिलता है। इस अथर्वण विद्या को सही व सम्यक् ढंग से जानने पर ही अध्यात्म चिकित्सा के सभी रहस्य जाने जा सकते हैं। यह बताने के बाद उन्होंने धीमे स्वर में कहा कि मैंने स्वयं महर्षि अथर्वण एवं महर्षि अंगिरस से इन रहस्यों का ज्ञान प्राप्त किया है।
शब्द व्युत्पत्ति के आधार पर ‘अथर्वा’ शब्द का अर्थ ‘अचंचलता की स्थिति’ है। ‘थर्व इति गतिर्नाम न थर्व इति अथर्वा’। थर्व का मतलब गति है और गति का अर्थ चंचलता है। शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक आदि सभी प्रकार की चंचलता को अथर्वविद्या की अध्यात्म चिकित्सा से नियंत्रित करके साधक सम्पूर्ण स्वस्थ व स्थितप्रज्ञ बनाया जाता है। परम पूज्य गुरुदेव के मुख से हमने एक और बात सुनी है। वह कहते थे कि वैदिक वाङ्मय में अथर्ववेद के ‘ब्रह्मवेद’, ‘भैषज्यवेद’ आदि कई नाम मिलते हैं। इन्हीं में से एक नाम ‘अथर्वाङ्गिरस’ भी है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ १११
👉 गुरुवर की वाणी
आज की विषम परिस्थितियों में युग निर्माण परिवार के व्यक्तियों को महाकाल ने बड़े जतन से ढूंढ़-खोजकर निकाला है। आप सभी बड़े ही महत्त्वपूर्ण एवं सौभाग्यशाली हैं। इस समय कुछ खास जिम्मेदारियों के लिए आपको महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी है। भगवान् के कार्य में भागीदारी निभानी है। आप धरती पर केवल बच्चे पैदा करने और पेट भरने के लिए नहीं आए हैं, बल्कि आज की इन विषम परिस्थितियों को बदलने में भगवान् की मदद करने के लिए आए हैं।
भगवान् अगर किसी पर प्रसन्न होते हैं, तो उसे बहुत सारी धन-सम्पत्ति देते हैं तथा औलाद देते हैं, यह बिलकुल गलत ख्याल है। वास्तविकता यह है कि जो भगवान् के नजदीक होते हैं उन्हें धन-सम्पत्ति एवं औलाद से अलग कर दिया जाता है। ऐसी परिस्थितियों में ही उनके द्वारा यह संभव हो सकता है कि वे भगवान् का काम करने के लिए अपना साहस एकत्रित कर सकें और श्रेय प्राप्त कर सके। इससे कम कीमत पर किसी को भी श्रेय नहीं मिला है।
हमारी उनसे प्रार्थना है, जो जागरूक हैं। जो सोये हुए हैं उनसे हम क्या कह सकते हैं। आपसे कहना चाहते हैं कि फिर कोई ऐसा समय नहीं आयेगा, जिसमें आपको औलाद या धन से वंचित रहना पड़े, परन्तु अभी इस जन्म में इन दोनों की बाबत न सोचें। विराम लगा दें। आपको भगवान् के काम के अन्तर्गत रोटी, कपड़ा और मकान की आवश्यकता सदा पूरी होती रहेगी, इसके लिए किसी प्रकार की चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है।
अगले दिनों धन का संग्रह कोई नहीं कर सकेगा, क्योंकि आने वाले दिनों में धन के वितरण पर लोग जोर देंगे। शासन भी अगले दिनों आपको कुछ जमा नहीं करने देगा। अतः आप मालदार बनने का विचार छोड़ दें। आप अगर जमाखोरी का विचार छोड़ देंगे तो इसमें कुछ हर्ज नहीं है। अगर आप पेट भरने-गुजारे भर की बात सोचें तो कुछ हर्ज नहीं है। आप सन्तान के लिए धन जमा करने, उनके लिए व्यवस्था बनाने की चिन्ता छोड़ देंगे। उन्हें उनके ढंग से जीने दें। संसार में जो आया है, वह अपना भाग्य लेकर आया है।
आगामी दिनों प्रज्ञावतार का कार्य विस्तार होने वाला है। उस काम की जिम्मेदारी केवल ब्राह्मण तथा संत ही पूरा कर सकते हैं। आपको इन दो वर्गों में आकर खड़ा हो जाना चाहिए तथा प्रज्ञावतार के सहयोगी बनकर उनके कार्य को पूरा करना चाहिए। अगर आप अपने खर्च में कटौती करके तथा समय में से कुछ बचत करके इस ब्राह्मण एवं सन्त परम्परा को जीवित कर सकें, तो आने वाली पीढ़ियां आप पर गर्व करेंगी। अगर समस्याओं के समाधान करने के लिए खर्चे में कुछ कमी आती है, तो हम आपको सहयोग करेंगे।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
सितम्बर-1980 शान्तिकुंज में उद्बोधन
भगवान् अगर किसी पर प्रसन्न होते हैं, तो उसे बहुत सारी धन-सम्पत्ति देते हैं तथा औलाद देते हैं, यह बिलकुल गलत ख्याल है। वास्तविकता यह है कि जो भगवान् के नजदीक होते हैं उन्हें धन-सम्पत्ति एवं औलाद से अलग कर दिया जाता है। ऐसी परिस्थितियों में ही उनके द्वारा यह संभव हो सकता है कि वे भगवान् का काम करने के लिए अपना साहस एकत्रित कर सकें और श्रेय प्राप्त कर सके। इससे कम कीमत पर किसी को भी श्रेय नहीं मिला है।
हमारी उनसे प्रार्थना है, जो जागरूक हैं। जो सोये हुए हैं उनसे हम क्या कह सकते हैं। आपसे कहना चाहते हैं कि फिर कोई ऐसा समय नहीं आयेगा, जिसमें आपको औलाद या धन से वंचित रहना पड़े, परन्तु अभी इस जन्म में इन दोनों की बाबत न सोचें। विराम लगा दें। आपको भगवान् के काम के अन्तर्गत रोटी, कपड़ा और मकान की आवश्यकता सदा पूरी होती रहेगी, इसके लिए किसी प्रकार की चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है।
अगले दिनों धन का संग्रह कोई नहीं कर सकेगा, क्योंकि आने वाले दिनों में धन के वितरण पर लोग जोर देंगे। शासन भी अगले दिनों आपको कुछ जमा नहीं करने देगा। अतः आप मालदार बनने का विचार छोड़ दें। आप अगर जमाखोरी का विचार छोड़ देंगे तो इसमें कुछ हर्ज नहीं है। अगर आप पेट भरने-गुजारे भर की बात सोचें तो कुछ हर्ज नहीं है। आप सन्तान के लिए धन जमा करने, उनके लिए व्यवस्था बनाने की चिन्ता छोड़ देंगे। उन्हें उनके ढंग से जीने दें। संसार में जो आया है, वह अपना भाग्य लेकर आया है।
आगामी दिनों प्रज्ञावतार का कार्य विस्तार होने वाला है। उस काम की जिम्मेदारी केवल ब्राह्मण तथा संत ही पूरा कर सकते हैं। आपको इन दो वर्गों में आकर खड़ा हो जाना चाहिए तथा प्रज्ञावतार के सहयोगी बनकर उनके कार्य को पूरा करना चाहिए। अगर आप अपने खर्च में कटौती करके तथा समय में से कुछ बचत करके इस ब्राह्मण एवं सन्त परम्परा को जीवित कर सकें, तो आने वाली पीढ़ियां आप पर गर्व करेंगी। अगर समस्याओं के समाधान करने के लिए खर्चे में कुछ कमी आती है, तो हम आपको सहयोग करेंगे।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
सितम्बर-1980 शान्तिकुंज में उद्बोधन
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