मंगलवार, 31 अगस्त 2021

👉 देह और आत्मा:-

जनक ने एक धर्म—सभा बुलाई थी। उसमें बड़े—बड़े पंडित आए। उसमें अष्टावक्र के पिता भी गए।

अष्टावक्र आठ जगह से टेढ़ा था, इसलिए तो नाम पड़ा अष्टावक्र। दोपहर हो गई। अष्टावक्र की मां ने कहा कि तेरे पिता लौटे नहीं, भूख लगती होगी, तू जाकर उनको बुला ला।

अष्टावक्र गया। धर्म—सभा चल रही थी, विवाद चल रहा था। अष्टावक्र अंदर गया। उसको आठ जगह से टेढ़ा देख कर सारे पंडितजन हंसने लगे। वह तो कार्टून मालूम हो रहा था। इतनी जगह से तिरछा आदमी देखा नहीं था। एक टांग इधर जा रही है, दूसरी टांग उधर जा रही है, एक हाथ इधर जा रहा है, दूसरा हाथ उधर जा रहा है, एक आंख इधर देख रही है, दूसरी आंख उधर देख रही है। उसको जिसने देखा वही हंसने लगा कि यह तो एक चमत्कार है! सब को हंसते देख कर.. .यहां तक कि जनक को भी हंसी आ गई।

मगर एकदम से धक्का लगा, क्योंकि अष्टावक्र बीच दरबार में खड़ा होकर इतने जोर से खिलखिलाया कि जितने लोग हंस रहे थे सब एक सकते में आ गए और चुप हो गए।

जनक ने पूछा कि मेरे भाई, और सब क्यों हंस रहे थे, वह तो मुझे मालूम है, क्योंकि मैं खुद भी हंसा था, मगर तुम क्यों हंसे?

उसने कहा मैं इसलिए हंसा कि ये चमार बैठ कर यहां क्या कर रहे हैं! क्योंकि इनको चमड़ी ही दिखाई पड़ती है। मेरा शरीर आठ जगह से टेढ़ा है, इनको शरीर ही दिखाई पड़ता है। ये सब चमार इकट्ठे कर लिए हैं और इनसे धर्म—सभा हो रही है और ब्रह्मज्ञान की चर्चा हो रही है? इनको अभी आत्मा दिखाई नहीं पड़ती। है कोई यहां जिसको मेरी आत्मा दिखाई पड़ती हो? क्योंकि आत्मा तो एक भी जगह से टेढ़ी नहीं है।

वहां एक भी नहीं था। कहते हैं, जनक ने उठ कर अष्टावक्र के पैर छुए। और कहा कि आप मुझे उपदेश दें।

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ५५)

असीम को खोजें

यह खोज, खबर इसलिए भी उपयोगी है कि ‘एकाकी पन’ नामक कोई तत्व अगले दिनों शेष नहीं रहने वाला है। इस विश्व का कण कण एक-दूसरे से अत्यन्त सघनता और जटिलता के साथ जुड़ा हुआ है, उन्हें प्रथक करने से किसी की सत्ता अक्षुण्य नहीं रह सकती। सब एक दूसरे के साथ इतनी मजबूत जंजीरों से बंधे हुए हैं कि प्रथकता की बात सोचना दूसरे अर्थों में मृत्यु को आमन्त्रण देना ही कहा जा सकता है।

शरीर में कोशिकाओं की स्वतन्त्र सत्ता अवश्य है पर वह अपने आप में पूर्ण नहीं है। एक से दूसरे का पोषण होता है और दूसरे-तीसरे को बल मिलता है। हम सभी एक दूसरे पर निर्भर हैं। यहां न कोई स्वतन्त्र है न स्वावलम्बी। साधन सामूहिकता ही विभिन्न प्रकार के क्रियाकलापों, अस्तित्वों और तथ्यों की जननी है मानवी प्रगति का यही रहस्य है। प्रकृति प्रदत्त समूह संरचना का उसने अधिक बुद्धिमत्ता पूर्वक लाभ उठाकर समाज व्यवस्था बनाई और सहयोग के आधार पर परिवार निर्माण से लेकर शासन सत्ता तक के बहुमुखी घटक खड़े किये हैं। एक-दूसरे के लिए वे किस प्रकार उपयोगी सिद्ध होंगे। पारस्परिक सहयोग से किस किस प्रकार एक दूसरे की सुख−सुविधा बढ़ाये इसी रीति-नीति के अभिवर्धन को अग्रगामी बनाने के लिए धर्म, अध्यात्म तत्व-ज्ञान की आधारशिला रखी गई। भौतिक विज्ञान की खोज और प्रगति ने प्रकृति गत परमाणुओं की इसी रीति-नीति का परिचय दिया है। जड़ अथवा चेतन किसी भी पक्ष को देखें, इस विश्व के समस्त आधार परस्पर सम्बद्ध प्रतीत होते हैं और उनकी सार्थकता एक-दूसरे के साथ जुड़े हुए रहने से ही सिद्ध होती है। एकाकी इकाइयां तो इतनी नगण्य है कि वे अपने अस्तित्व का न तो परिचय दे सकती हैं और न उसे रख सकती हैं।

यह सिद्धान्त ग्रह-नक्षत्रों पर भी लागू होता है। विश्व-ब्रह्माण्ड के समस्त ग्रह नक्षत्र अपनी सूत्र संचालक आकाश गंगाओं के साथ जुड़े हैं और आकाश गंगाएं महत्त्व हिरण्य गर्भ की उंगलियों में बंधी हुई कठपुतलियां भरे हैं। अगणित और मण्डल भी एक-दूसरे का परिपोषण करते हुए अपना क्रिया-कलाप चला रहे हैं। सूर्य ही अपने ग्रहों को गुरुत्वाकर्षण में बांधे हो और उन्हें ताप प्रकाश देता हो सो बात नहीं है, बदले में ग्रह परिवार भी अपने शासनाध्यक्ष सूर्य का विविध आधारों से पोषण करता है। सौर परिवार के ग्रह अपनी जगह से छिटक कर किसी अन्तरिक्ष में अपना कोई और पथ बनालें तो फिर सूर्य का सन्तुलन भी बिगड़ जायेगा और वह आज की स्थिति में न रहकर किसी चित्र-विचित्र विभीषिका में उलझ हुआ दिखाई देगा।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ ९०
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

👉 भक्तिगाथा (भाग ५५)

भक्ति वही, जिसमें सारी चाहतें मिट जाएँ

ऋषि आपस्तम्ब विचारमग्न थे और देवर्षि भावमग्न। हिमालय इन दोनों के साथ अपने आंगन में उपस्थित ऋषियों, देवों, सिद्धों व गन्धर्वों के समुदाय को अविचल भाव से निहार रहा था। हालांकि उसका अन्तस् भी भक्ति की भावसरिता से सिक्त हो रहा था। भक्ति है भी तो वह जो भावों को विभोर करे, परिष्कृत करे, ऊर्ध्वमुखी बनाए और अन्त में सदा के लिए भक्त को भगवत् चेतना के साथ एकाकार कर दे। हिमालय के सान्निध्य में हो रहे इस अनूठे भक्ति समागम में यही हो रहा था। देवर्षि नारद ने जो ब्रज की कथा सुनायी थी, उसे श्रवण कर ऋषि आपस्तम्ब की शंकाए धुल गयी थीं। उनकी चेतना भी भक्ति के संस्पर्श से पुलकित थी। अन्य ऋषिगण तो ब्रज की यादों से विह्वल थे। गायत्री महाशक्ति के चैतन्य ऊर्जा के प्रवाह को धरा पर अवतीर्ण करने वाले ब्रह्मर्षि विश्वामित्र को तो जैसे समाधि हो आयी थी। उन्हें चेत तो तब हुआ जब ब्रह्मर्षियों में श्रेष्ठ वशिष्ठ ने उन्हें टोकते हुए कहा- ‘‘ब्रह्मर्षि किस अनुभव में खो गए आप? यदि हम सब सत्पात्र हों तो हमें भी अपने अनुभव का अमृतपान कराएँ।’’ उत्तर में ऋषि विश्वामित्र के नेत्र उन्मीलित हुए और उन्होंने बड़ी श्रद्धा के साथ प्रातः के उदीयमान सूर्य को प्रणाम किया जिसकी स्वर्णिम किरणों ने हिमालय के श्वेत शिखरों को स्वर्णिम बना दिया था।
    
सविता के भर्ग को अपने हृदय में सदा धारण करने वाले ब्रह्मर्षि विश्वामित्र कहने लगे- ‘‘हे ब्रह्मर्षि! आज से युगों पूर्व त्रेतायुग में जब परात्पर ब्रह्म ने श्रीराम रूप धारण किया था, उस समय मैं, उनके और अनुज लक्ष्मण के साथ मिथिला गया था। वहाँ रंगभूमि में मैंने विदेह कन्या सीता को देखा। मुझे आज भी याद है कि वह किस तरह सुकुमार कलिका की भांति संकुचित व सहमी हुई थी पर यह उनका बाह्य आवरण था।
    
उनके अन्तस् में कोटि-कोटि ब्रह्माण्डों का सृजन-पालन एवं लय करने वाली महाऊर्जा का विराट् अनन्त चैतन्य सागर हिलोरें ले रहा था। उन्हें देखते ही मैं पहचान गया कि वेदमाता गायत्री ही सीता का रूप धरे जनक की रंगभूमि में विचरण कर रही हैं। मैंने उन महामाया को भाव भरे मन से प्रणाम करते हुए प्रार्थना की- हे उद्भवस्थिति-संहारकारिणी माँ! अपने इस शिशु पर करूणा करो।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १०१

👉 मृत्यु से जीवन का अंत नहीं होता

जैसे हम फटे-पुराने या सड़े-गले कपड़ों को छोड़ देते हैं और नए कपड़े धारण करते हैं, वैसे ही पुराने शरीरों को बदलते और नयों को धारण करते रहते हैं। जैसे कपड़ों के उलट फेर का शरीर पर कुछ प्रभाव नहीं पड़ता, वैसे ही शरीरों की उलट-पलट का आत्मा पर असर नहीं होता। जब कोई व्यक्ति मर जाता है तो भी वस्तुत: उसका नाश नहीं होता।

मृत्यु कोई ऐसी वस्तु नहीं, जिसके कारण हमें रोने या डरने की आवश्यकता पड़े। शरीर के लिए रोना वृथा है, क्योंकि वह निर्जीव पदार्थों का बना हुआ है, मरने के बाद भी वह ज्यों का त्यों पड़ा रहता है। कोई चाहे तो मसालों में लपेट कर मुद्द तों तक अपने पास रखे रह सकता है, पर सभी जानते हैं कि देह जड़ है। संबंध तो उस आत्मा से होता है जो शरीर छोड़ देने के बाद भी जीवित रहती है। फिर जो जीवित है, मौजूद है, उसके लिए रोने और शोक करने से क्या प्रयोजन?

दो जीवनों को जोड़ने वाली ग्रंथि को मृत्यु कहते हैं। वह एक वाहन है जिस पर चढ़कर आत्माएँ इधर से उधर, आती-जाती रहती हैं। जिन्हें हम प्यार करते हैं, वे मृत्यु द्वारा हमसे छीने नहीं जा सकते। वे अदृश्य बन जाते हैं, तो भी उनकी आत्मा में कोई अंतर नहीं आता। हम न दूसरों को मरा हुआ मानें, न अपनी मृत्यु से डरें, क्योंकि मरना एक विश्राम मात्र है, उसे अंत नहीं कहा जा सकता।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति-मार्च 1948 पृष्ठ 1   

शनिवार, 28 अगस्त 2021

👉 ईश्वर को पाना है तो हम उसकी मर्जी पर चलें

🔷 ईश्वर की प्रप्ति के लिए ऐसा दृष्टिकोण एवं क्रिया- कलाप अपनाना पड़ता है, जिसे प्रभु समर्पित जीवन कहा जा सके ।। जीवन लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए आत्मिक प्रगति का मार्ग अपनाना पड़ता और वह यह है कि हम प्रभु से प्रेरणा की याचाना करें और उद्देश्य यही है कि मनुष्य अपने लक्ष्य को, इष्ट को समझें और उसे प्राप्त करने के  लिए प्रबल प्रयास करें। उपासना कोई क्रिया कृत्य नहीं है। उसे जादू नहीं समझा जाना चाहिए।

🔶 आत्म परिष्कार और आत्म विकास का तत्वदर्शन ही अध्यात्म है। उपासना उसी मार्ग पर जीवन प्रक्रिया को धकेलने वाली एक शास्त्रानुमोदित ओैर अनुभव प्रतिपादित पद्धति है। इतना समझने पर प्रकाश की ओर चल सकना बन पड़ता  है। जो ऐसा साहस जुटाते हैं, उन्हें निश्चत रूप से ईश्वर मिलता है। अपने को ईश्वर के हाथ बेच देने वाला व्यक्ति ही ईश्वर को खरीद सकने में समर्थ होता है। ईश्वर के संकेतों पर चलने वाले में ही इतनी सामर्थ्य उत्पन्न होती है कि ईश्वर को अपने संकेतों पर चला सके।       

🔷 बुद्धिमत्ता इसी में है कि मनुष्य प्रकाश की ओर चले। ज्योति का अबलम्बन ग्रहण करे। ईश्वर की साझेदारी जिस जीवन में बन पड़ेगी, उसमें घटा पड़ने की कोई सम्भावना नहीं है। यह शांति और प्रगति का मार्ग है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ५४)

समर्थ सत्ता को खोजें

घटना 29 जून सन् 1954 की है। न्यूयार्क अमेरिका के एक डॉक्टर श्री रेमर की धर्मपत्नी विश्राम कर रही थी। उनकी एक पुत्री—जेस्सी 9 माह पूर्व ही अपनी दादी के पास कैलिफोर्निया गई हुई थी। मां-बेटी के बीच की भौगोलिक दूरी 3000 किलोमीटर थी। अकस्मात श्रीमती रेमर चीख कर पलंग से खड़ी हो गई डॉक्टर साहब दौड़े-दौड़े आये। पूछा क्या बात है? श्रीमती रेमर ने कहा—मैंने अभी-अभी जेस्सी के चीखने की आवाज सुनी, ऐसा लगा वह किसी संकट में है। डॉक्टर ने धर्मपत्नी के शरीर का परीक्षण किया।
उस समय और कोई बात तो नहीं हुई किन्तु दो दिनों तक घर में विलक्षण मायूसी छाई रही। तीसरे दिन वह निराशा की स्थिति पूर्ण विहाग में तब बदल गई जब सचमुच जेस्सी के दुर्घटनाग्रस्त होने का तार मिला। आश्चर्य की बात यह थी कि श्रीमती रेमर ने जिस समय यह चीख सुनी वह और जेस्सी के कार ऐक्सीडेंट-जिससे उसका प्राणान्त हुआ—का समय एक ही था।

एक अन्य घटना—फ्रान्स के रियर एडमिरल गैलरी की आत्मकथा से उद्धृत।—आठ घन्टियां (एट बेल्स) नामक उक्त आत्मकथा में गैलरी महाशय लिखते हैं—मुझे सोमवार को अपनी ड्यूटी पर जाना था। रविवार की रात जब मैं सोया तो स्वप्न देखा कि मैं अपने जहाज पर बैठा हूं, जहाज चलने की तैयारी में है। यात्री ऊपर आ रहे हैं, दो युवक आते हैं, मैंने उनसे नाम पूछा—एक ने अपना नाम डिक ग्रेन्स दूसरे ने पाप-कनवे बताया। तभी जहाज में एकाएक विस्फोट होता पर यही दोनों जख्मी होते हैं और पाप मर जाता है। स्वप्न इतनी गम्भीर मनःस्थिति में देखा था कि सोकर उठने के बाद भी वह मानस पटल पर छाया रहा। जब कि आये दिन दिखने वाले स्वप्न जोर देने पर भी याद नहीं आते।

आश्चर्य वहां से प्रारम्भ हुआ जब मैंने आफिस जाकर जहाज के यात्रियों की लिस्ट पर दृष्टि दौड़ाई मुझे यह देखकर भारी हैरानी हुई कि जो नाम इससे पहले कभी सुने भी नहीं थे—जो रात स्वप्न में देखे थे वे सचमुच उस लिस्ट में थे। यह देखते ही हृदय किसी अज्ञात आशंका से भर गया। फिर भी जीवन की गति तो कोई न चलाना चाहे तो भी चलती है। जहाज ने ठीक समय पर प्रस्थान किया पर अभी उसने अच्छी तरह बन्दरगाह भी नहीं छोड़ा था कि एक इंजन में विस्फोट हुआ, केवल डिकग्रेन्स और पाप कनवे दुर्घटनाग्रस्त हुये, जिनमें से पाप कनबे की तत्काल मृत्यु हो गई।

एक तीसरी घटना—डरहम की एक स्त्री से सम्बन्धित है, पैरासाइकोलॉजी संस्थान कैलीफोर्निया के रिकार्ड से ली गई—डरहम की एक स्त्री अपने बच्चों के साथ स्नान के लिये निकली। घर में उस समय उक्त महिला अर्थात् उस स्त्री की सास ही रह गई। अभी वह स्त्री वहां से कुछ सौ गज ही मोड़ पार कर गई होगी कि उसकी सास बुरी तरह चिल्लाई—बहू को खतरा है। पास-पड़ौस के लोग दौड़े और इस पागलपन पर हंसे भी। किन्तु दो घन्टे पीछे ही शेरिफ ने सूचना दी कि रास्ते में ऐक्सिडेन्ट हो जाने से अस्पताल में महिला का प्राणान्त हो गया है।

ऊपर एक ही तरह की तीन घटनायें दी हैं जो न तो भाव सम्प्रेषण (टेलेपैथी) है और न ही परोक्षदर्शन (क्लेरबायेन्स)। टेलीपैथी का अर्थ उस आभास से है जिसमें किसी मित्र, परिचित, कुटुम्बी या प्रिय परिजन द्वारा भावनाओं की अत्यधिक गहराई से याद किया गया हो और वह संवेदना इस व्यक्ति तक पहुंची हो। इसी तरह दूर-दर्शन का अर्थ तो मात्र भौगोलिक दूरी को किसी अतीन्द्रिय क्षमता से पार कर किसी घटना का आभास पाया गया हो। ऊपर तीन घटनायें प्रस्तुत की गई हैं उनमें एक का सम्बन्ध वर्तमान से है तो शेष दो का अतीत और भविष्य से। जो हो रहा है वह देखा जा सकता है जो हो चुका है उसे भी जाना जा सकता है कि अभी तक जो हुआ ही नहीं यदि उसकी जानकारी हो जाती है तो उसे न तो दूरदर्शन ही कहा जायेगा और न ही दूर संचार। वास्तव में इस तरह की अनुभूतियां आये दिन हर किसी को होती रहती हैं। और उनका मानव-जीवन से गहन आध्यात्मिक सम्बन्ध भी है। तथापि उन्हें समझ पाया हर किसी के लिये सम्भव नहीं होता।

वेदान्त दर्शन के अनुसार सृष्टि में एक ‘ब्राह्मी चेतना’ या परमात्मा ही एक ऐसा तत्व है जो सर्वव्यापी है अर्थात् ब्रह्माण्ड उसी में अवस्थित है। वह काल की सीमा से परे है अर्थात् भूत, भविष्य वर्तमान तीनों भी उसी में समाहित हैं। उक्त तीनों घटनाओं का उल्लेख करते हुए ‘एक्स्प्लोरिंग साइकिक फेनामेना बियाण्ड एण्ड मैटर’ पुस्तक के लेखक श्री डी. स्काट रोगों ने उक्त तथ्य का स्मरण कराते हुये लिखा है कि भावनायें तथा विचार ‘प्राणशक्ति की स्फुरणा’ (डिस्चार्ज आफ वाइटल फोर्स) के रूप में होती हैं। यह स्फुरणा यदि एक ही समय में एक-दूसरे को आत्मसात् करती है तब तो वह दूर संचार हो सकता है किन्तु यदि वह समय की सीमाओं का अतिक्रमण करता है तो उसका अर्थ यही होगा कि माध्यम को आधार-भूत सत्ता या ब्राह्मी चेतना होती है। इस चेतना की कल्पना आइन्स्टीन ने भी सापेक्षवाद के सिद्धान्त में की है और यह लिखा है कि यदि प्रकाश की गति से भी कोई तीव्र गति वाला तत्व होता है तो उसके लिये बीते कल, आज और आने वाले कल में कोई अन्तर ही न रहेगा। भारतीय शास्त्र पग-पग पर उसी महान् सत्ता में अपने आप घुलाने और परम पद पाने की बात कहते हैं निस्सन्देह वह एक अति समर्थ, अत्यन्त संवेदनशील स्थिति होगी। यह घटनायें इस दिक्कालातीत चिन्मय ब्रह्म सत्ता से अपनी अभिन्नता जुड़ने की अनुभूति ही हो सकती है। क्षणिक सम्पर्क इतना आश्चर्यजनक हो सकता है तो उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति कितनी सामर्थ्य प्रदान करने वाली होगी—तब मनुष्य को किसी प्रकार के अभाव वस्तुतः क्योंकर सताते होंगे?

ऋग्वेद में एक ऋचा आती है—‘अग्निना अग्नि समिध्यते, अर्थात् अग्नि से अग्नि प्रदीप्त होती है। आत्मज्ञान आत्मानुभूति से ब्रह्म प्राप्ति इसी सिद्धान्त पर होती है। उपरोक्त घटनायें ‘अन्त स्फुरण’ तथा ‘आत्म जागृति’ की क्षणिक अनुभूतियां हैं। रेडियो घुमाते-घुमाते अनायास कोई अति सूक्ष्म स्टेशन सैकिंड के सौवें हिस्से में पकड़ में आ जाता है फिर ढूंढ़ने से भी नहीं मिलता। यह घटनायें वैसा ही तत्व बोध हैं, विस्तृत अनुभूति, ज्ञान प्राप्ति, ईश्वर की शक्तियों को अनुभव करने के लिये तो आत्म परिष्कार की गहराई में ही उतरना पड़ेगा। जो लोग सांसारिकता में ही पड़े रहेंगे वे न तो उस महान् को अनुभव कर सकेंगे न पा सकेंगे। वे तो ऐसी घटनाओं पर भी अटकलें ही लगाते रहेंगे।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ ८४
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

👉 भक्तिगाथा (भाग ५४)

गोपियों के कृष्ण प्रेम का मर्म

महर्षि आपस्तम्ब कुछ बोले तो नहीं, परन्तु उनके मुख पर संकोच का सच और लज्जा की लालिमा थी परन्तु इसकी अनदेखी करके देवर्षि कह रहे थे- ‘‘जब प्रभु ने ब्रजधरा पर अवतार लीला रची थी उस समय महर्षि विद्रुम को भी यही भ्रम हुआ था। उन्होंने अखिल ब्रह्माण्डनायक सर्वलोकाधिपति सर्वेश्वर को संसार के मानदण्डों पर कसना चाहा। परन्तु.......’’, ऐसा कहते देवर्षि एक पल के लिए ठहरे तभी ब्रह्मर्षि वशिष्ठ बोल पड़े- ‘‘हे देवर्षि! यह भक्तिकथा विस्तार से कहें।’’ आपस्तम्ब ने भी उनकी ओर हाथ जोड़ते हुए कहा- ‘‘भगवन! आप हमारे अज्ञान को क्षमा करते हुए, कृष्ण करूणा के कण हमें भी प्रदान करें।’’
    
उत्तर में देवर्षि मुस्कराए और कहने लगे- ‘‘ब्रजभूमि में वह शारदीय नवरात्रि थी। गोपकन्याओं एवं गोपबालाओं ने महामाया कात्यायिनी का सविधिव्रत किया था। उनके इस व्रत की सम्पूर्ण व्यवस्था स्वयं भगवती पूर्णमासी ने की थी। भगवती पूर्णमासी को ब्रजभूमि के सभी लोग अपनी आराध्य देवी मानते थे। उनके किसी भी कार्य में कोई रोक-टोक नहीं करता था। गोपियों का यह व्रत सम्पूर्ण विधान से चल रहा था। वे त्रिकाल यमुना स्नान करतीं, त्रिसन्ध्या में भगवती कात्यायनी का पूजन करतीं और तीनों ही कालों में वह देवी-महात्म्य की कथा सुनतीं। उन्हें यह कठिन साधना करते हुए नवरात्रि के सात दिन पूरे हो चुके थे।
    
तभी अष्टमी तिथि को प्रातः महर्षि विद्रुम ब्रज पधारे। वे स्वभावतः ही महामाया के मन्दिर में प्रणाम के लिए गए। महर्षि विद्रुम जगदम्बा के अनन्य भक्त थे। मन्दिर पहुंचने पर उन्हें गोपियों ने प्रणाम किया और आशीर्वाद की याचना की। उनकी इस याचना पर महर्षि ने अपनी जिज्ञासा प्रकट की, तुम्हारा मनोरथ क्या है? उत्तर में एक गोपी ने गम्भीर स्वर में कहा-हम सभी श्रीकृष्ण को पति के रूप में प्राप्त करना चाहती हैं।
    
अब महर्षि के चौंकने की बारी थी। उन्होंने हतप्रभ होते हुए कहा- सभी? ‘हाँ’ सभी ने समवेत स्वर में इस एक शब्द का उच्चारण किया। इस उत्तर को सुनकर महर्षि विद्ऱुम तो जैसे जड़ हो गए। उन्हें कुछ सूझ ही नहीं पिड़ा। बस वह देखते रह गए, ये विवाहित एवं अविवाहित स्त्रियाँ, सबकी सब एक साथ श्रीकृष्ण को पति के रूप में पाना चाहती हैं।
    
उन्हें इस तरह देखते हुए पाकर गोपियों में एक हंसने लगी और बोली-हमारे व्रत पर इतना आश्चर्य क्यों कर रहे हैं महर्षि? श्रीकृष्ण तो सभी जीवात्माओं के स्वाभाविक स्वामी हैं। उन परमेश्वर को छोड़कर भला जीव के जीवन का सम्पूर्ण स्वामी कौन हो सकता है? परन्तु उस गोपी के कथन का अर्थ महर्षि समझ न सके। उन्हें बस यही लगा कि इस ब्रजभूमि में यह भारी अनाचार फैल रहा है? इसे कोई रोकता क्यों नहीं? यह नन्द गोप का बेटा परमात्मा कब से हो गया। उनके मन में प्रश्न तो अनेक उभरे परन्तु उन्होंने कहा कुछ नहीं। बस जगन्माता के मन्दिर के परिसर में बैठकर मार्गदर्शन की याचना करने लगे। वह विह्वल होकर पुकार रहे थे, अपनी इस सन्तान को प्रबोध दो माता।
    
न जाने कितनी देर तक उनकी यह प्रार्थना चलती रही। उन्हें होश तो तब आया जब गोपियों के साथ आयी भगवती पूर्णमासी ने उन्हें स्पर्श करते हुए चेताया। अद्भुत था वह स्पर्श। इस स्पर्श से उनके सामने का संसार बदल गया। उन्होंने भगवती पूर्णमासी की ओर देखा और बस देखते रह गये-अरे वह तो स्वयं योगमाया थीं। फिर उन्होंने गोपियों से घिरी श्रीराधा जी को देखा, स्वयं मूल प्रकृति वृषभानुदुलारी का रूप धरे थीं। अब उनकी दृष्टि महामाया कात्यायनी के श्रीविग्रह की ओर गयी। उन्होंने देखा कि जगदम्बा स्वयं साकार होकर गोपबालाओं की पूजा स्वीकार कर रही थीं। ये गोपबालाएँ भी और कोई नहीं जन्म-जन्मान्तर से तप साधना कर रहीं तत्त्वज्ञानी आत्माएँ थीं। कैसा अपूर्व दृश्य था वह। स्वयं आदिशक्ति पूजा कर भी रहीं थीं, करा भी रहीं थीं और करवा भी रहीं थीं। अब महर्षि विद्रुम ने घबराकर आंखें बन्द कर लीं। उन्हें भक्ति के सत्य का अनुभव होने लगा।’’ कुछ ऐसी ही अनुभूति महर्षि आपस्तम्ब को भी हो रही थी।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ९८

गुरुवार, 26 अगस्त 2021

👉 Man Ka Sanyam Karen मन का संयम करें

मन ही सबसे प्रबल है। मन की प्रेरणा से मनुष्य की जीवन दिशा बनती है। मन की शक्तियों से वह बड़े काम करने में समर्थ होता है। मन ही नीचे गिराता है, मन ही ऊँचा उठाता है। असंयमी और उच्छृंखल मन से बढ़कर अपना और कोई शत्रु नहीं जिसका मन विवेक और कर्त्तव्य को ध्यान में रखते हुए सन्मार्ग पर चलने का अभ्यस्त हो गया तो वह देवताओं के सान्निध्य जैसा सुख कर होता है।

मन की गतिविधियों पर सूक्ष्म दृष्टि से निरंतर ध्यान रखे। उसे कुमार्गगामी न होने दे। दुर्भावनाओं को प्रवेश न करने दे। वासना और तृष्णा से चित्त वृत्तियों को हटावे। किसी का अहित न सोचे। अहंकार को न पढ़ने दें। पाप से मन को बचाये रहना और उसे पुण्य कार्यों में प्रवृत्त रखना यही मानव जीवन का सबसे बढ़ा पुरुषार्थ है।

~ ब्रह्मर्षि वशिष्ठ
📖 अखण्ड ज्योति फरवरी 1963 पृष्ठ 1

बुधवार, 25 अगस्त 2021

👉 सतयुग कैसे आवेगा?

(परम पूज्य गुरुदेव ने ७९ साल पहले इस लेख द्वारा समय परिवर्तन की भावी रूपरेखा इंगित की है। ७९ साल पूर्व इस लेख से भविष्य दर्शाने वाले परम पूज्य गुरुदेव का युगद्रष्टा ऋषिरुप व्यक्त होता है।)
    
अब कलियुग समाप्त होकर सतयुग आरम्भ हो रहा है, ऐसा अनेक तर्कों, प्रमाणों, युक्तियों, अनुभवों और भविष्यवाणियों से प्रकट है। पापों का नाश होकर धर्म का उदय होगा। अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि सतयुग कैसे आवेगा? यह कार्य एक दिन में पूरा नहीं हो जावेगा, वरन इसके लिए कुछ समय लगेगा। यह समय एक सौ वर्ष का हो सकता है। कई महात्माओं का विश्वास है कि संवत् बीस सौ से लेकर इक्कीस सौ तक यह परिवर्तन कार्य पूरा हो जायेगा। इस एक शताब्दी में कलियुग के अस्त और सतयुग के आरंभ की संध्या रहेगी। बुराई क्रमशः घटती जायेगी और भलाई क्रमशः बढ़ती जायेगी। यह भी संभव है कि इस बीच में कभी-कभी पाप कर्मों के कुछ बड़े-बड़े कार्य दीख पड़ें क्यों कि जब दीपक बुझने को होता है, तो उसकी लौ एक बार जोर से बढ़ती है, फिर वह बुझ जाती है। रोगी मरने से पूर्व जोर की हिचकी लेता है और प्राण त्याग देता हे। सूर्योदय से पूर्व जितना अँधेरा होता है, उतना रात्रि के और किसी भाग में नहीं होता। वर्षा से पहले बड़े जोर की गर्मी पड़ती है या यों कहिये कि अधिक गर्मी पड़ना ही वर्षा का कारण होता है। जब चींटी के पर आते हैं, तो कहते हैं बस, अब बेचारी का अंत आ गया। गरदन कटते समय बकरा जितना शोर मचाता और पाँव पीटता है, उतना जीवन भर में कभी भी नहीं करता। कलियुग की गर्दन अब सत्य की छुरी से कटने जा रही है, हो सकता है कि वह इन अंतिम दिनों में खूब चिल्लाये, फड़फड़ाये और पाँव पीटे।
    
संवत् दो हजार समाप्त होते ही एकदम सतयुग फट नहीं पड़ेगा और न यह धरती आसमान बदल जायेंगे। सब यही रहेगा। मनुष्य भी यही रहेंगे। डरना या घबड़ाना न चाहिये, यह कल्पांत नहीं है, युगांत है। इस समय युद्धों, महामारियों और दुर्भिक्षों का जोर रहने से जनसंख्या घट जायेगी, पर प्रलय नहीं होगी। गत महायुद्ध में जितने मनुष्य मरे थे, इस युद्ध में उससे अधिक मरेंगे पर यह संहार रुपये में दो आने भर, अष्टमांश से अधिक न होगा। इतनी जनसंख्या घटने बढ़ने से सामूहिक दृष्टि से कोई बड़ा भारी अनिष्ट नहीं समझना चाहिए। यह कमी अगली एक शताब्दी में ही पूरी हो जायेगी।
    
सतयुग आरंभ में स्वः लोक में आवेगा, फिर भुवः लोक में तत्पश्चात् भूः लोक में दृष्टिगोचर होगा। स्वः लोक का अर्थ मन, भुवः लोक का अर्थ वचन, भूः लोक का अर्थ कर्म है। सबसे प्रथम जनता के मनों में शुभ संकल्पों के प्रति आकर्षण उत्पन्न होगा। बुरे कर्म करने वाले भी सत्य की प्रतिष्ठा करेंगे, आदतों के कारण कोई चाहे चोरी करता रहे, पर उसका मन अवश्य ही धर्म की महत्ता को समझेगा। कुकर्मी लोग मन ही मन पछताते जायेंगे और कभी-कभी एकान्त में दुखी हृदय से भगवत् प्रार्थना करते रहेंगे कि हे प्रभो! हमें सद्बुद्धि दो, हमें दुष्ट कर्मों के पंजे से छुड़ाओ। दूसरों को शुभ कर्म करते देख कर मन में प्रसन्नता होगी। ज्ञान चर्चा सुनने को जी चाहेगा। छोटे बालक भी हरिकथा, कीर्तन और सत्संग से प्रेम करेंगे। घर और कमरे आदर्श वाक्यों, आदर्श चित्रों से सजाये जायेंगे, फैशन में कमी हो जायेगी, बाबू लोग मामूली पोशाक पहनने लगेंगे, प्रभुता और ऐश्वर्य प्राप्त लोगों को भोगों से अरुचि होकर धर्म में प्रवृत्ति बढ़ेगी। मन ही मन लोग सत्य-नारायण की उपासना करेंगे, झूठ और पाखण्ड देख कर मन ही मन चिढ़ेंगे। असत्य द्वारा चाहे अपना ही हित होता हो, पर लोग उससे घृणा करेंगे। सत्य पक्ष द्वारा यदि अपना अहित हुआ हो तो भी बुरा न मानेंगे। जब इस प्रकार के लक्षण दिखाई देने लगें तो समझना चाहिए कि सतयुग स्वः लोक में, ब्रह्म लोक में आ गया। पूरा सतयुग तो कभी भी नहीं आता क्योंकि सृष्टि की रचना सत्, रज, तम तीनों गुणों से हुई है। यदि एक भी गुण समाप्त हो जाय तो सृष्टि का ही नाश हो जायेगा। युगों में तत्वों की न्यूनाधिकता होगी। सतयुग के आरंभ में सत् की अधिकता होगी। स्वः लोक में मनों में, मस्तिष्कों में, सत् की झाँकी मिलेगी। कहीं-कहीं वचन और कर्म में भी दिखाई देगा, पर बहुत कम। वचन और कर्म तो वैसे ही रहेंगे। स्वः लोक में सतयुग का आगमन उच्च आध्यात्मिक भूमिका में जागृत हुए मनुष्यों को दिखाई देगा, सर्व साधारण को उसको पहिचानना कठिन होगा।
    
स्वः लोक में नीचे उतर कर जब सत् युग भुवः लोक में आवेगा तो मन और वचन दोनों में सत्यता प्रकट होने लगेगी। केवल मन में ही सत्य के प्रति आदर न रहेगा वरन् वाणी से भी प्रशंसा होने लगेगी। आज कल जैसे धर्म के लिए कष्ट उठाने वाले और तपोनिष्ठ लोगों को मूर्ख कहा जाता है, उस समय वैसा न कहा जायेगा। तब खुले आम सत्कर्मियों की प्रशंसा की जायेगी। लेखनी और वाणी से प्रेस और प्लेट-फार्म द्वारा सत्य का खूब प्रचार होगा। यद्यपि करने वालों की अपेक्षा कहने वाले ही उस समय भी अधिक होंगे, पर कोई-कोई अपने विचारों को कार्य रूप में भी प्रकट करेंगे। उपदेश करने वालों की संख्या में वृद्धि होगी। धार्मिक पत्र-पत्रिकाओं को आदर मिलेगा। मामूली व्यापारिक काम-काजों में भी सत्य को स्थान मिलेगा। दुकानदार और ग्राहक ‘‘एक दाम’’ की नीति पसंद करेंगे। झूठ, चुगलखोर, बकवादी, गप्पी जगह-जगह दुत्कारे जायेंगे। तब चालाकी की बातें करने वाले बुद्धिमान नहीं मूर्ख समझे जायेंगे। सत्यवक्ताओं का समाज में आदर होगा। आत्म ज्ञान संबंधी पुस्तकें खूब छपेंगी, उनके पढ़ने-पढ़ाने का क्रम बढ़ेगा। कठोर, अप्रिय, उद्धत्, अश्लील वचन बोलना क्रमशः कम होता जायेगा और विनय, नम्रता, मधुरता लिये हुए बातें करने का प्रचार बढ़ेगा। अश्लील गालियों के विरोध में ऐसा आंदोलन होगा कि यह प्रथा बिलकुल बंद हो जायेगी।
    
भूः लोक में जब सतयुग उतरेगा तो दृश्य ही दूसरे दिखाई देंगे। सत्य, प्रेम और न्याय को आचरण में प्रमुख स्थान मिलेगा। आज कल झूठ बोलने का रिवाज समाज की बिगड़ी हुई दशा के कारण है। जब समाज की आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, शारीरिक और मानसिक दशाएँ सुधर जावेंगी, तो झूठ बोलने से कुछ प्रयोजन न रहेगा। मनुष्य जीवन की सभी आवश्यकताएँ जब सरलतापूर्वक पूर्ण हो जाती हैं, तो झूठ बोलने का पाप कौन करेगा? फिर लोकमत झूठ के विरोध में हो जायेगा, इसलिए बलात् सबको सत्य का मार्ग ग्रहण करना होगा। हर काम  को करते समय मनुष्य सोचेगा, इसमें प्रेम और न्याय है या नहीं। कर्म और अकर्म की तब एक ही कसौटी होगी, वह यह है कि-किया जानेवाला कार्य प्रेम और न्याय से पूर्ण है या नहीं।  अपने हित की अपेक्षा जब दूसरे के हित को अधिक ध्यान में रखने की मनोवृत्ति बन जायेगी तो सच्चा सतयुग प्रकट होगा। राजगद्दी का प्रश्न आवेगा तो उसे भरत-राम को और राम-भरत को देना चाहेंगे। कैकयी की प्रसन्नता के लिये कौशिल्या अपने पुत्र को खुशी-खुशी वन जाने की आज्ञा देगी। सुमित्रा आज्ञा करेंगी कि हे लक्ष्मण! तुम्हारे लिए अवध वहीं है, जहाँ राम रहें। इसलिए बड़े भाई के साथ बन को जाओ। सीताजी अपने को कष्टों के कण्टकों में घिसटाना पसन्द करेंगी किन्तु पति की सेवा का लोभ न त्यागेंगी। उस सतयुग में ऐसे परिवार हो जायँगे। भाई, माता, विमाता, पत्नी इस प्रकार के प्रेम सूत्रों में बँधे होंगे। राजा प्रजा को पुत्र के समान समझेंगे। जब प्रजा कहेगी कि हम राजा की ऐसी पत्नी पसन्द नहीं करते, जिसे कलंकित समझा जाता है, तो राम अपनी छाती पर पत्थर बाँध कर और सीता अपने कलेजे पर शूल रख प्रजा की इच्छा पर अपने को तिल-तिल करके विरह वेदना की भट्टी में जलने के लिए भी तत्पर हो जायेंगे। प्रजा के लिए राम का यह सर्वोत्कृष्ट त्याग है, भावना की दृष्टि से देखा जाय, तो इस त्याग की उपमा इतिहास में मिलना कठिन है। जब भूः लोक में सतयुग आ जायगा, तो ऐसी घटनाओं का मिलना भी कठिन न होगा। एक दो नहीं, हर जगह अनेक घटनायें ऐसी घटित होंगी, जिनमें प्रेम और न्याय का ऊँचा आदर्श झिलमिल करता हुआ दिखाई देगा। फिर भी दुष्ट-कर्मी थोड़ी बहुत मात्रा में बने रहेंगे, क्यों कि प्रकृति त्रिगुणमयी है।
    
लोकों की सूचना आयु के हिसाब से भी मिलेगी। बालकपन सात्विकी अवस्था है, युवा राजसी और वृद्धावस्था तामसी। भूः लोक का सतयुग पहले २५ वर्ष से कम उम्र के, प्रथम अवस्था वाले किशोर बालकों में उतरेगा। २५ वर्ष से कम अवस्था वालों के हृदयों में सब से अधिक सत्य की प्रेरणा होगी। उनके निर्मल जल में किसी वस्तु की परछाई साफ-साफ दिखाई देती  है। इन नव-युवकों के हृदय में स्वभावतः श्रद्धा और भक्ति होगी। वे कलियुगी बड़े उम्र वालों के क्रोध के भाजन बनेंगे, डाट फटकार और दुख-दण्ड सहेंगे। पर युग का प्रभाव उन्हें विचलित न होने देगा। प्रहलाद की तरह यह बालक बड़े दृढ़, निर्भीक और सत्यनिष्ट होंगे, धु्रव की तरह ये तपस्या करेंगे और हकीकतराय की तरह प्राणों को तुच्छ समझेंगे, पर सत्य की ही रट लगावेंगे। असुरों के घरों में से ऐसे देव बालकों की सेना की सेना निकल पड़ेगी और संसार को आश्चर्य से चकित कर देगी। यह सतयुग की पहली तिहाई में ही दिखलाई देना लगेगा। संवत् दो हजार से लेकर संवत् २०३३ वि. तक इन बालकों का ही प्रचंड आन्दोलन रहेगा यद्यपि कर्म में बहुत ही कम परिवर्तन दिखाई देगा। कोई कोई मूर्ख इसे बालक्र्रीड़ा समझ कर उपहास करेंगे और बालकों के हृदय परिवर्तन को कुछ महत्व न देगें, पर उन्हें शीघ्र ही अपनी भूल प्रतीत हो जायगी।
    
जब सतयुग भुवः लोक में उतरेगा तो सत्य का प्रकाश बढ़ेगा और तरुण को २५ से ५० वर्ष की आयु वालों को भी इसमें सम्मिलित होना पड़ेगा। वे सत्य, प्रेम और न्याय का विरोध करने का साहस न करेंगे एवं वाणी द्वारा उसका समर्थन करने लगेंगे। बालक और तरुण मिलकर इस आन्दोलन का नेतृत्व करेंगे। मन और वचन में सत्य गुंज्जित हो जावेगा। किन्तु कर्म फिर भी अधूरे रहेंगे। मरणोन्मुख कलियुग बार-बार जीवित हो जायेगा। उसकी चिंता में बार-बार दुखदायी चिनगारियाँ उड़ेगी, कभी-कभी तो सतयुग के आगमन पर लोगों को अविश्वास तक होगा, पर भविष्य उनके भ्रम का निवारण कर देगा। सत्य की हमेशा विजय ही होती है।
    
वृद्ध लोग अपने पुराने-धुराने, सड़े-गले, गन्दे-सन्दे विचारों की चहारदीवारी में बंद पड़े-पड़े बड़बड़ाते रहेंगे। आरंभ में वे बालकों के हृदय परिवर्तन का उपहास करेंगे, जब तरुण भी उनके पक्ष में आ जावेंगे, तो वे अपने स्वभाव के कारण उनका विरोध करेंगे, किंतु अंत में युग का प्रभाव उन पर भी पड़ेगा। मृत्युलोक में जब सतयुग आवेगा, तो उन्हें भी अपने विचार बदलने पड़ेंगे और असत्य को तिलांजलि देकर सत्य की शरण में आ जावेंगे। कलियुग जब बिलकुल ही निर्बल हो जायेगा, तो वृद्धों की भी मनोदशा बदल जायेगी। फिर वे अधिक उम्र के कारण अर्ध विक्षिप्त न होंगे, रोग शोक के घर न रहेंगे। अपमान के स्थान पर सर्वत्र उनका मान होगा। ‘‘साठा सो पाठा’’ वाली उक्ति कहावत चरितार्थ होगी। आज जैसे वृद्धों को ‘‘रिटायर्ड’’ कह कर एक कोने में पटक दिया जाता है, तब ऐसा न होगा। उस समय वयोवृद्ध अपने सद्ज्ञान के कारण बहुत ही उन्नत दशा में होंगे, सतयुग का मर्म समझ जायेंगे और अपने पुत्र-पौत्रों को सत्य-मार्ग में प्रवृत्त होने का उपदेश देंगे। संवत् २१०० (सन् २०४४) में यह पूरा हो जायेगा। उस समय सतयुग भूः लोक में प्रकट हुआ समझा जायेगा।
    
स्त्रियाँ बुद्धिजीवी नहीं होती, उनमें भावना ही प्रधान है। इसलिए वे सतयुग के आगमन की चर्चा को आश्चर्य के साथ सुनेंगी। उनके कान पुराने संस्कारवश इस बात को स्वीकार न करना चाहेंगे, पर हृदय में भीतर ही भीतर कोई उन्हें प्रेरणा करता हुआ प्रतीत होगा कि यह सब सत्य है। सतयुग अब आ गया है। स्त्रियों का सतीत्व, पतिव्रत जागृत रहेगा। उनका हृदय दया, क्षमा, करुणा और प्रेम से भर जायेगा। पति और पुत्रों के लिए बहुत आत्म त्याग करेंगी। दीन-दुखियों को देख कर उनके हृदय पसीज जावेंगे। ऐसी स्त्रियाँ बहुत देखने में आवेंगी, जो पुरुषों के कठोर होते हुए भी दान, धर्म में श्रद्धा रखेंगी। सत्य, प्रेम और न्याय की भावना स्त्रियों में बड़ी आसानी से प्रवृष्ट हो जायेगी और वे पुरुषों की अपेक्षा जल्दी सतयुगी बन जावेंगी।
    
ऐसा नहीं है कि आयु के उपरोक्त प्रतिबन्ध सभी पर लागू हों। यह तो साधारण श्रेणी के अचेतन जीवों की बात कही गई है। जाग्रत, नैष्ठिक, उन्नत और जिनको भगवान ने इसी निमित्त भेजा है एवं जिनके भाग्य में सतयुगी अवतार बनना लिखा है, वे बहुत पहले, सतयुग के आदि में ही, संवत् दो हजार के आसपास से ही वरन् इससे भी बहुत पूर्व सावधान हो जायेंगे और नवीन युग के स्वर्ग रथ को स्वर्ग से भूमण्डल पर लाने के लिए अपना सर्वस्व त्याग कर उस रथ में जुतकर सूर्य के सप्तमुखी घोड़ों के समान कार्य करेंगे। सतयुग तो आने ही वाला है, वह किसी के रोकने से किसी भी प्रकार रुक नहीं सकता, पर इस स्वर्ग अवसर से लाभ उठाने का, अपनी कीर्ति को अमर कर जाने का सौभाग्य उन्हें ही मिलेगा, जो बड़े भाग्यवान हैं, जिन पर ईश्वर की विशेष कृपा है। शेष तो यहीं कुत्तों की मौत मरेंगे और पीछे अपनी भूल पर सिर धुन-धुन कर पछताते रहेंगे।

✍🏻 परम पूज्य गुरुदेव पं श्री राम शर्मा आचार्य जी
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी १९४२

मंगलवार, 24 अगस्त 2021

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ५३)

विचार से भी परे

परब्रह्म एक ऐसी चेतना है जो ब्रह्माण्ड के भीतर और बाहर एक नियम व्यवस्था के रूप में ओत-प्रोत हो रही है। उसके सारे क्रिया-कलाप एक सुनियोजित विधि-विधान के अनुसार गतिशील हो रहे हैं। उन नियमों का पालन करने वाले अपनी बुद्धिमत्ता अथवा ईश्वर की अनुकम्पा का लाभ उठाते हैं। भगवान की बिजली से उपमा दी जा सकती है। बिजली का ठीक उपयोग करने पर उससे अनेक प्रकार के यन्त्र चलाये और लाभ उठाये जा सकते हैं। पर निर्धारित नियमों का उल्लंघन किया जाय तो बिजली उन्हीं भक्त सेवकों की जान ले लेती है, जिनने उसे घर बुलाने में ढेरों पैसा, मनोयोग एवं समय लगाया था। उपासना ईश्वर को रिझाने के लिए नहीं, आत्मपरिष्कार के लिए की जाती है। छोटी मोटर में कम पावर रहती है और थोड़ा काम होता है। बड़ी मोटर लगा देने से अधिक पावर मिलने लगती है और ज्यादा लाभ मिलता है। बिजली घर में तो प्रचण्ड विद्युत भण्डार भरा पड़ा है। उससे गिड़गिड़ा कर अधिक शक्ति देने की प्रार्थना तब तक निरर्थक ही जाती रहेगी जब तक घर का फिटिंग मीटर, मोटर आदि का स्तर ऊंचा न उठाया जाय। प्रार्थना के सत्परिणामों की बहुत चर्चा होती रहती है। भगवत् कृपा के अनेक चमत्कारों का वर्णन सुनने को मिलता रहता है। उस सत्य के पीछे यह तथ्य अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ मिलेगा कि भक्त ने पूजा उपासना के प्रति गहरी श्रद्धा उत्पन्न की और उस श्रद्धा ने उसके चिन्तन एवं कर्तृत्व को देवोपम बना दिया। जहां यह शर्त पूरी की गई हैं वहीं निश्चित रूप से ईश्वरीय अनुकम्पा की वर्षा भी हुई है, पर जहां फुसलाने की धूर्तता को भक्ति का नाम दिया गया है वहां निराशा ही हाथ लगी है।

ईश्वर का सृष्टि विस्तार अकल्पनीय है। उसमें निवास करने वाले प्राणियों की संख्या का निर्धारण भी असम्भव है। पृथ्वी पर रहने वाले जलचर, थलचर, नभचर, दृश्य, अदृश्य प्राणियों की संख्या कुल मिलाकर इतनी बड़ी है कि उनके अंक लिखते-लिखते इस धरती को कागज बना लेने से भी काम न चलेगा। इतने प्राणियों के जीवन-क्रम में व्यक्तिगत हस्तक्षेप करते रहना—अलग-अलग नीति निर्धारित करना और फिर उसे प्रार्थना उपेक्षा के कारण बदलते रहना ईश्वर के लिये भी सम्भव नहीं हो सकता। ऐसा करने से तो उस पर व्यक्तिवादी द्वेष का आक्षेप लगेगा और सृष्टि संतुलन का कोई आधार ही न रहेगा। ईश्वर ने नियम मर्यादा के बन्धनों में क्रिया की प्रतिक्रिया के रूप में अपनी सारी व्यवस्था बना दी है और उसी चक्र में भ्रमण करते हुये, जीवधारी अपने पुरुषार्थ प्रमाद का भरा बुरा परिणाम भुगतते रहते हैं। ईश्वर दृष्टा और साथी की तरह यह सब देखता रहता है। उसकी जैसी महान् सत्ता के लिये यही उचित है और यही शोभनीय। पूजा करने वालों के प्रति राग और न करने वालों के प्रति उपेक्षा अथवा द्वेष की नीति यदि उसने अपनाई होती तो निश्चय ही इस संसार में भ्रष्टाचार एवं अव्यवस्था का कोई अन्त ही न रहता। जो लोग इस दृष्टि से पूजा उपासना करते हैं कि उसके फलस्वरूप ईश्वर को फुसलाकर उससे मनोवांछाएं पूरी करालीं जायगी, वे भारी भूल करते हैं। पूजा को कर्म व्यवस्था का प्रतिद्वंदी नहीं बनाया जा सकता। भगवान् के अनुकूल हम बनें यह समझ में आने वाली बात है, पर उलटा उसी को कठपुतली बना कर मर्जी मुताबिक नचाने की बात सोचना बचकानी ढिठाई के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। हमें ईश्वर से व्यक्तिगत रागद्वेष की अपेक्षा नहीं करनी चाहिये वरन् उसकी विधि व्यवस्था के अनुरूप बनकर अधिकाधिक लाभान्वित होने के राजमार्ग पर चलना चाहिये।

भगवान को इष्टदेव बनाकर उसे प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है। इष्ट का अर्थ है लक्ष्य। हम भगवान के समतुल्य बनें। उसी की जैसी उदारता व्यापकता, व्यवस्था, उत्कृष्टता तत्परता अपनायें, यही हमारी रीति-नीति होनी चाहिये। इस दिशा में जितना मनोयोग पूर्वक आगे बढ़ा जायेगा उसी अनुपात से ईश्वरीय सम्पर्क का आनन्द और अनुग्रह का लाभ मिलेगा। वस्तुतः अध्यात्म साधना का एकमात्र उद्देश्य आत्मसत्ता को क्रमशः अधिकाधिक पवित्र और परिष्कृत बनाते जाना है। यही सुनिश्चित ईश्वर की प्राप्ति और साथ ही उस मार्ग पर चलने वालों को जो विभूतियां मिलती रही हैं, उन्हें उपलब्ध करने का राजमार्ग है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ ८४
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

👉 भक्तिगाथा (भाग ५३)

गोपियों के कृष्ण प्रेम का मर्म

उत्सुकता के तीव्र किन्तु मौन स्पन्दन मुखर हो नीरवता को बेधते रहे। अन्तस में एक कशमकश थी। ऐसे कई प्रश्न कंटक थे, जो कई मनों में एक साथ चुभ रहे थे। कहीं नैतिकता एवं आध्यात्मिक भावना में एक द्वन्द भी था। श्रीकृष्ण का गोपीप्रेम अथवा गोपियों की कृष्णभक्ति सामाजिक एवं नैतिक मानदण्डों पर कतनी सार्थक है? श्रीकृष्ण के पूर्ण ब्रह्मतत्त्व से अनभिज्ञ लोग इससे क्या सीखेगें और क्या पाएगें? ये और ऐसे ही अनेक प्रश्न उन ऋषियों-महर्षियों के थे जिन्होंने अपने युग में स्मृतियाँ लिखी थीं-संहिताएँ रचीं थीं। महर्षि आपस्तम्ब इन्हीं में से एक थे। इन्होंने कहा तो कुछ भी नहीं, लेकिन उनके अन्तर्मन में उमड़ रही बेचैनी मुखमण्डल पर सघनता से छा गयी। माथे  पर एक के बाद एक कई लकीरें बनीं और मिटीं।
    
अन्तर्ज्ञान सर्वज्ञता से सम्पन्न सप्तऋषियों का समूह श्रीकृष्ण तत्त्व से सुपरिचित होने के बावजूद देवर्षि की ओर देख रहा था। उन्हें आशा थी कि देवर्षि अपने नए सूत्र में इन प्रश्नों का अवश्य समाधान करेंगे परन्तु देवर्षि अभी तक मौन थे। उनके इस मौन में समाधान की समाधिमयता थी। पर्याप्त देर तक इसी तरह की नीरवता बनी रही। तब कहीं जाकर देवर्षि ने आंखें खोलीं, उनके आँखें खोलते ही हिमवान के इस दिव्य आंगन में भक्ति की उजास छा गयी। उन्होंने अपने आस-पास के वातावरण के स्पन्दनों को अनुभव किया, फिर कहने लगे- ‘‘श्रीकृष्ण परात्पर ब्रह्म हैं, उनसे प्रेम की सघनता न तो सामाजिकता की विरोधक रही है और न ही इससे नैतिक तटबन्ध टूटते हैं।
    
श्रीकृष्ण के मन में गोपियों के प्रति जो प्रेम जगा था, वह परमात्मा का जीवात्माओं के प्रति सहज प्रेम था। गोपियाँ श्रीकृष्ण के सत्य स्वरूप को जानती थीं, उनकी भक्ति में परमात्मा को जीवात्मा द्वारा किए जाने वाले समर्पण का भाव था। इस भक्ति प्रकरण का एक सच यह भी है कि सामाजिकता और नैतिकता की सीमाएँ केवल स्थूल शरीर तक ही सीमित हैं जबकि गोपियों एवं श्रीकृष्ण की भक्ति-प्रेमकथा, कारण शरीर के व्यापक विस्तार में घटित हुई थी। इस तथ्य में साधना का यह सच भी सम्मिलित है कि यदि कोई अपनी वासनाओं को भी भगवान को अर्पित कर देता है तो वे भी रूपान्तरित होकर भक्तिपूर्ण भावनाओं का स्वरूप पा जाती हैं। आज गोपियाँ उसी साधना सच के रूप में साकार थीं।
    
वासना, तृष्णा, अहंता का भगवद्चेतना में समर्पण, विसर्जन एवं विलय मोक्ष के द्वार खोलता है। जबकि गोपिकाएँ तो जन्म-जन्मान्तर से श्रीकृष्ण की भक्त थीं। उन्हें सम्पूर्णतया मालूम था कि गोपनन्द के नन्दन श्रीकृष्ण परमात्मा का साकार विग्रह हैं।’’ अपने इस वाक्य को पूरा करते हुए देवर्षि हंस पड़े। फिर उन्होंने मधुर ध्वनि में अपने नए सूत्र का उच्चारण किया-
‘तद्विहीनं जाराणभिव’॥२३॥
उसके बिना, श्रीकृष्ण के परमात्मस्वरूप को जाने बिना, किया जाने वाला प्रेम व्यभिचारियों के प्रेम के समान होता।

इस सूत्र को पूर्ण करके देवर्षि ने महर्षि आपस्तम्ब की ओर देखा और कहा- ‘‘नीतिकार, स्मृति एवं संहिताओं के रचयिता महर्षियों के अनुभव में यह सच भी होना चाहिए कि महान् उद्देश्यों से जुड़ कर सामान्य संसारी क्रियाएँ एवं भावनाएँ भी महान हो जाती हैं। जबकि छोटे, बौने एवं ओछे उद्देश्यों के लिए किया गया महानता का प्रदर्शन भी घटिया एवं ओछा ही बना रहता है।’’
    
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ९७

सोमवार, 23 अगस्त 2021

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ५२)

विचार से भी परे

आत्मा चिंगारी है और परमात्मा ज्वाला। ज्वाला की समस्त सम्भावनाएं चिनगारी में विद्यमान हैं। अवसर मिले तो वह सहज ही अपना प्रचण्ड रूप धारण करके लघु से महान् बन सकता है। बीज में वृक्ष की समस्त सम्भावनाएं विद्यमान हैं। अवसर न मिले तो बीज चिरकाल तक उसी क्षुद्र स्थिति में पड़ा रह सकता है, किन्तु यदि परिस्थिति बन जाय तो वही बीज विशाल वृक्ष के रूप में विकसित हुआ दृष्टिगोचर हो सकता है। छोटे से शुक्राणु में एक पूर्ण मनुष्य अपने साथ अगणित वंश परम्पराएं और विशेषताएं छिपाये रहता है। अवसर न मिले तो वह उसी स्थिति में बना रह सकता है किन्तु यदि उसे गर्भ के रूप में विकसित होने की परिस्थिति मिल जाय तो एक समर्थ मनुष्य का रूप धारण करने में उसे कोई कठिनाई न होगी। अणु की संरचना सौर-मण्डल के समतुल्य है। अन्तर मात्र आकार विस्तार का है। जीव ईश्वर का अंश है। अंश में अंशी के समस्त गुण पाये जाते हैं। सोने के बड़े और छोटे कण में विस्तार भर का अन्तर है तात्विक विश्लेषण में उनके बीच कोई भेद नहीं किया जा सकता।

उपासना और साधना के छैनी हथौड़े से जीव के अनगढ़ रूप को कलात्मक देव प्रतिमा के रूप में परिणत किया जाता है। अध्यात्म शब्द का तात्पर्य ही आत्मा का दर्शन एवं विज्ञान है। इस सन्दर्भ के सारे क्रिया-कलापों का निर्माण निर्धारण मात्र एक ही प्रयोजन के लिये किया गया है कि व्यक्तित्व को—चेतना की उच्चतम—परिष्कृत—सुविकसित, सुसंस्कृत स्थिति में पहुंचा दिया जाय। इस लक्ष्य की उपलब्धि का नाम ही ईश्वर प्राप्ति है। आत्म साक्षात्कार एवं ईश्वर दर्शन इन दोनों का अर्थ एक ही है। आत्मा में परमात्मा की झांकी अथवा परमात्मा में आत्मा की सत्ता का विस्तार। द्वैत को मिटा कर अद्वैत की प्राप्ति मनुष्य जीवन का लक्ष्य है। इसकी पूर्ति के लिए या तो ईश्वर को मनुष्य स्तर का बनना पड़ेगा या मनुष्य को ईश्वर तुल्य बनने का प्रबल पुरुषार्थ करना पड़ेगा।

अध्यात्म क्षेत्र की भ्रान्तियां भी कम नहीं है। बाल-बुद्धि के लोग आत्मा पर चढ़े कषाय-कल्मषों को काटने के लिये जो संघर्ष करना पड़ता है उस झंझट से कतराते हैं और सस्ती पगडण्डी ढूंढ़ते हैं। वे सोचते हैं पूजा-पत्री के सस्ते क्रिया-कृत्यों से ईश्वर को लुभाया, फुसलाया जा सकता है और उसे मनुष्य स्तर का बनने के लिये सहमत किया जा सकता है वे सोचते हैं हम जिस घटिया स्तर पर है उसी पर बने रहेंगे। प्रस्तुत दृष्टिकोण एवं क्रिया-कलाप में कोई हेर-फेर न करना पड़ेगा। ‘ईश्वर को अनुकूल बनाने के लिए इतना ही काफी है कि पण्डितों की बताई पूजा-पत्री का उपचार पूरा कर दिया जाय। इसके बाद ईश्वर मनुष्य का आज्ञानुवर्ती बन जाता है और उचित अनुचित जो भी मनोकामनाएं की जायं उन्हें पूरी करने के लिए तत्पर खड़ा रहता है। आमतौर से उपासना क्षेत्र में यही भ्रान्ति सिर से पैर तक छाई हुई है।’’ मनोकामना पूर्ति के लिए पूजा-पत्री का सिद्धान्त तथाकथित भक्तजनों के मन में गहराई तक घुसा बैठा है। वे उपासना की सार्थकता तभी मानते हैं जब उनके मनोरथ पूरे होते चलें। इसमें कमी पड़े तो वे देवता मन्त्र, पूजा, सभी को भरपेट गालियां देते देखे जाते हैं। कैसी विचित्र विडम्बना है कि छोटा सा गन्दा नाला गंगा को अपने चंगुल में जकड़े और यह हिम्मत न जुटाये कि अपने को समर्पित करके गंगाजल कहलाये।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ ८३
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

👉 भक्तिगाथा (भाग ५२)

अद्भुत थी ब्रज गोपिकाओं की भक्ति

भगवान शिव घूमते-घूमते एक द्वार पर जा रूके, वहाँ ब्रज की एक गोपी  खड़ी भगवान श्रीकृष्ण की प्रतीक्षा कर रही थी। उन्होंने उसे देखा और गम्भीर स्वर में बोले- किसकी प्रतीक्षा कर रही हो देवी! गोपी बोली- मैं श्रीकृष्ण की प्रतीक्षा कर रही हूँ योगिवर! उत्तर सुनकर भोलेनाथ हंसे और कहने लगे, उन्हीं की प्रतीक्षा कर रही हो, जिनकी शिकायतें मैया यशोदा से लगाती हो। जिन्हें चोर समझती हो, जिन्हें गालियाँ देती हो, जिन पर ताने कसती हो, जिन पर व्यंग्य करती हो। जिन्हें उलाहना दिए बिना तुमसे रहा नहीं जाता। भगवान भोलेनाथ की इन बातों को सुनकर उस गोपी से रहा नहीं गया और वह गोपी जोर से हँस पड़ी।
    
इतना ही नहीं, उसने आवाज देकर आस-पास के घरों की गोपियों को बुला लिया और कहने लगी- आओ री सखी! देखो ये जोगी बाबा क्या कह रहे हैं? उस गोपी का व्यवहार ऐसा कुछ था, जो समझ में न आने वाला था। कोई कुछ समझ पाता कि वहाँ ब्रज गोपियों की भीड़ लग गयी। उन सबने भगवान् शिव को घेर लिया और आपस में कहने लगी- कौन है ये जोगी बाबा और क्या कह रहे हैं? उत्तर में एक गोपी ने पूरी कथा कह सुनायी, और अपनी बात का उपसंहार करते हुए बोली, ये जोगी महाराज जानना चाहते हैं कि जब हम कृष्ण को उलाहना देती हैं तो उनकी प्रतीक्षा क्यों करती हैं?
    
उत्तर में सभी गोपियाँ ठठाकर हंस पड़ी और कहने लगी- बड़े भोले हो जोगी महाराज- अरे इतना भी नहीं जानते कि यह प्रतीक्षा सामान्य नहीं है। अरे यह तो जीवात्मा के द्वारा की जा रही परमात्मा की प्रतीक्षा है। हम सभी अपने कृष्ण के ब्रह्म रूप को पहचानती हैं और हम जो कुछ भी करती हैं- उन्हें प्रसन्न करने के लिए करती हैं। यह ब्रजभूमि है योगीराज! यहाँ प्रेम, कामासक्ति का नाम नहीं है। यहाँ का प्रेम तो भक्ति साधना है। हम यही करती हैं। आगे कोई कुछ कह नहीं पाया- सखाओं के साथ कन्हाई आ गए। मीठी ठिठोली होने लगी। भगवान् शिव ने यह सब देखा और उन्हें प्रणाम करते हुए अन्तर्ध्यान हो गए। देवर्षि की इस कथा को सुनकर सभी चकित थे। उन्हें कुछ और सुनने की उत्सुकता हो रही थी।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ९५

शुक्रवार, 20 अगस्त 2021

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ५१)

विचार से भी परे

पर ब्रह्म को विचार इसलिये कहा गया कि वह सूक्ष्म है अन्यथा शास्त्रकारों ने उसे अचिंत्य, अगोचर और अगम्य कहा गया है। उसकी व्याख्या विवेचना में तत्व वेत्ताओं ने कुछ चर्चा की है पर साथ ही नेति नेति कह कर अपने ज्ञान परिधि की स्वल्पता स्वीकार कर ली है। वस्तुतः समग्र ब्रह्म का विवेचन बुद्धि विज्ञान एवं साधनों के माध्यम से सम्भव हो ही नहीं सकता। तब प्रश्न उत्पन्न होता है कि ईश्वर प्राप्ति की—ईश्वर दर्शन की—जो चर्चाएं होती रहती हैं, वे क्या हैं? यहां इतना ही कहा जा सकता है कि जीव और ब्रह्म की मिलन पृष्ठ भूमि के रूप में जिस ईश्वर की विवेचना होती है उसी का साक्षात्कार एवं अनुभव सम्भव है।

आकाश और धरती जहां मिलते हैं उसे अन्तरिक्ष कहते हैं। अन्तरिक्ष का सुहावना दृश्य सूर्योदय और सूर्यास्त के समय प्रातः सायं देखा जा सकता है। दो रंगों के मिलने से एक तीसरा रंग बनता है। भूमि और बीज के समन्वय की प्रतिक्रिया अंकुर के रूप में फूटती है। पति-पत्नी का मिलन अभिनव उल्लास के रूप में प्रकट होता है और प्रतिफल सन्तान के रूप में सामने आता है। जीव और ब्रह्म के मिलन की प्रतिक्रिया को ईश्वर कह सकते हैं। गैस और गैस मिल कर पानी के रूप में परिणत हो जाती है। शरीर और प्राण का मिलन जीवन के रूप में दृष्टिगोचर होता है। आग और जल के मिलने से भाप बनती है नैगेटिव और पौजिटिव धाराएं मिलने पर शक्तिशाली विद्युत प्रवाह गतिशील होता है। हम उसी ईश्वर से परिचित होते हैं जो आत्मा से परमात्मा के मिलन की प्रतिक्रिया के रूप में अनुभव की जाती है।

वेदान्त दर्शन में ईश्वर के रूप-स्वरूप की जितने तात्विक स्वरूप की विवेचना की गई है उतनी अन्यत्र कहीं दृष्टिगोचर नहीं होती। ‘तत्वमसि’, ‘अयमात्मा ब्रह्म’, ‘शिवोहम्’ सच्चिदानन्दोहम् सोहम्, आदि सूत्रों में यह रहस्योद्घाटन किया गया है कि यह आत्मा ही ब्रह्म है। यहां आत्मा से तात्पर्य पवित्र और परिष्कृत चेतना से है। अति मानस-सुपर ईगो—पूर्ण पुरुष—भगवान परमहंस—स्थिति प्रज्ञ-आदि शब्दों में व्यक्तित्व के उस उच्चस्तर का संकेत हैं जिसे देवात्मा एवं परमात्मा भी कहा जाता है। इसी स्थिति को उपलब्ध कर लेना आत्म-साक्षात्कार—ईश्वर प्राप्ति आदि के नाम से निरूपित किया गया है। बन्धन, मुक्ति या जीवन-मुक्ति इसी स्थिति को कहते हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ ८२
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

👉 भक्तिगाथा (भाग ५१)


अद्भुत थी ब्रज गोपिकाओं की भक्ति

मैया ने बलदाऊ से कहा- बलभद्र! तुम बड़े हो, समझदार हो। ये कन्हैया तो नटखट और चपल है। तुम अपने भाई और सखाओं का ध्यान रखना। दाऊ ने सिर हिलाकर हामी भरी और यतिं्कचित मुस्कराए भी, अरे यह मैया भी कितनी भोली है, जो समूची सृष्टि का ध्यान रखता है, भला उसका कौन ध्यान रखेगा पर उन्होंने कहा कुछ नहीं- सबके साथ चल पड़े। रास्ते में मनसुखा ने कहा- कि कान्हा आज हम सब किधर चलेंगे। उत्तर में कन्हैया मुस्कराए और बोले मैं तो कहीं भी आता जाता नहीं। जो मुझे बुलाता है मैं उसी के पास जाता हूँ।
    
लेकिन मनसुखा की समझ में यह सब नहीं आया। वह कहने लगे, कि कान्हा! इन गोपियों के पास आज नहीं चलेंगे। ये सब मैया से हमारी शिकायत लगाती हैं। मनसुखा दादा! तुम जानते हो कि यदि कोई मुझे बुलाए तो मैं रूकता नहीं हूँ। इधर कान्हा-मनसुखा की बातों से अनजान गोपियाँ अपने-अपने घरों में अपने हृदय धन के आने का इन्तजार कर रही थीं। सुमुखि, सुनयना, त्रिशला, विशाखा, श्यामा और भी न जाने कितनी सखियों को इन्तजार था- अपने प्यारे कन्हाई के आने का। पर आज किसी को कृष्ण कहीं नहीं दिख रहे थे।
    
वे तो कहीं किसी अन्य भावलोक में नयी लीला के सूत्र रच रहे थे। उनकी प्रेरणा से भगवान् सदाशिव योगी वेश में ब्रज आए। भगवती पूर्णमासी बनी योगमाया ने विहंस कर उनकी अगवानी की और कहने लगीं- आज यहाँ कैसे पधारे प्रभु! भगवान् भोलेनाथ हंसकर बोले- अरे देवी! मैं तो नटवरनागर की लीला का एक पात्र हूँ। वे प्रभु जैसा चाहते हैं वैसा ही मैं कर लेता हूँ। यह कहकर भगवान् सदाशिव, योगी वेश में ब्रज की गलियों में विचरने लगे। उनके मुख से निकलती- ‘अलख निरंजन’ की ध्वनि ब्रज के घरों, गलियों, चौबारों में गूंजने लगी।
    
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ९४

मंगलवार, 17 अगस्त 2021

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ५०)

परमसत्ता का क्रीड़ा विनोद

इस बिन्दु पर पहुंचकर हम कह सकते हैं कि ब्रह्मविद्या का अर्थ और इति दोनों ही वेदान्त धर्म में बहुत पहले से हैं। ‘एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति’ ‘एक नूर से सब जग उपजिया’ ‘संकल्पयति यन्नाम प्रथमोऽसौ प्रजापतिः, तत्तदेवाशु भवति तस्येदं कल्पनं जगत् । (योगवशिष्ठ 5।2।186।6), सृष्टि के आदि में एक ब्रह्मा ही था, उसने जैसे-जैसे संकल्प किया, वैसे-वैसे यह कल्पना जगत् बनता गया। ‘एक मेवाद्वयं ब्रह्म’ (छान्दोग्य 6।2।1) वही एक अद्वितीय और ब्रह्म होकर विराजता है। ‘ईकोदेवः सर्वभूतेषु गूढ़ः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा । कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी चेता केवलोनिर्गुणश्च ।
श्वेताश्व—6।11,
वही एक देव सब भूतों में ओत-प्रोत होकर सबकी अन्तरात्मा के रूप में सर्वत्र व्याप्त है, वह इस कर्मरूप शरीर का अध्यक्ष है। निर्गुण होते हुये भी चेतना-शक्तियुत है। पूर्व में क्या किया है, अब क्या कर रहा है, जीव की इस सम्पूर्ण क्रिया का साक्षी वही है, वही सब भूतों में प्राण धारण करके जीव रूप से वास करता है।

उपरोक्त आख्यानों और पाश्चात्य वैज्ञानिकों की इस खोज में कि—‘‘संसार के समस्त पदार्थ एक ही तत्व से बने हुये हैं’’ जबर्दस्त साम्य है। वेदान्त के यह प्रतिपादन आज से लाखों वर्ष पूर्व लिखे गये हैं, इसलिये जब हम अकेले वेदान्त को कसौटी पर लाते हैं तो उसकी परिपूर्णता और वैज्ञानिकता में कोई सन्देह नहीं रह जाता। जब तक वह एक था, तब तक ‘पूर्ण पर ब्रह्म’ था, जब वही अपनी वासनाओं के कारण जीव रूप में आया तो अद्वैत से द्वैत बना, जीव जब अपने सांसारिक भाव से अपने शाश्वत अंश और मूल ब्रह्म पर विचार करता है तो वही स्थिति ‘चैत’ कहलाती है। इसी का विकास और आत्मा को परमात्मा में लीन कर देने पर शरीरधारी की जो स्थिति होती है, वही विशिष्टाद्वैत के नाम से कहा गया है, इसमें न कहीं कोई भ्रांति है, न मत अनैक्य। वेदान्त ने यह प्रतिपादन प्रत्येक स्थिति के व्यक्ति की समझ के लिये किये हैं, वैसे सिद्धान्त में वह वैज्ञानिक मान्यताओं पर ही टिका हुआ है। कैवल्योपनिषद में पाश्चात्य वैज्ञानिक मान्यताओं और अपने पूर्वात्म दर्शन को एक स्थान पर लाकर दोनों में सामंजस्य व्यक्त किया गया है और कहा है—
यत् परं ब्रह्म सर्वात्मा विश्वस्यायतनं महत् ।
सूक्ष्मात सूक्ष्मतरं नित्यं तत्त्वमेव त्वमेव तत् ।।16।।
अणोरणीयानहमेव तद्वन्महान
विश्मिदं विचित्रम् ।
पुरातनोऽह पुरुषोऽहमीशा
हिरण्यमोऽहं शिवरूपमस्मि ।।20।।

अर्थात्—जिस परब्रह्म का कभी नाश नहीं होता, जिसे सूक्ष्म यन्त्रों से भी नहीं देखा जा सकता जो इस संसार के इन समस्त कार्य और कारण का आधारभूत है, जो सब भूतों की आत्मा है, वही तुम हो, तुम वही हो। और ‘‘मैं छोटे से भी छोटा और बड़े से बड़ा हूं, इस अद्भुत संसार को मेरा ही स्वरूप मानना चाहिये। मैं ही शिव और ब्रह्मा स्वरूप हूं, मैं ही परमात्मा और विराट् पुरुष हूं।’’

उपरोक्त कथन में और वैज्ञानिकों द्वारा जीव-कोष से सम्बंधित जो अब तक की उपलब्धियां हैं, उनमें पाव-रत्ती का भी अन्तर नहीं है। प्रत्येक जीव-कोश का नाभिक (न्यूक्लियस) अविनाशी तत्व है वह स्वयं नष्ट नहीं होता पर वैसे ही अनेक कोश (सेल्स) बना लेने की क्षमता से परिपूर्ण हैं। इस तरह कोशिका की चेतना को ही ब्रह्म की इकाई कह सकते हैं, चूंकि वह एक आवेश, शक्ति या सत्ता है, चेतन है, इसलिये वह अनेकों अणुओं में भी व्याप्त इकाई ही है। इस स्थिति को जीव भाव कह सकते हैं पर तो भी उसमें पूर्ण ब्रह्म की सब क्षमतायें उसी प्रकार विद्यमान होते हैं। वैज्ञानिकों का मत है कि शरीर में 6 खरब कोशिकायें हैं, इन सबकी सूक्ष्म चेतना की पूर्ण जानकारी वैज्ञानिकों को नहीं मिली पर हमारा वेदान्त उसे अहंभाव के रूप में देखता है और यह कहता है कि चेतना की अहंभाव की जिस प्रकार की वस्तु में रुचि या वासना बनी रहती है, वह वैसे ही पदार्थों द्वारा शरीर का निर्माण किया करता है, नष्ट नहीं होता वही इच्छायें, अनुभूति, संवेग, संकल्प और जो भी सचेतन क्रियायें हैं करता या कराता है, पदार्थ में यह शक्ति नहीं है। क्योंकि ब्रह्म दृश्य नहीं विचार है उसे ‘प्रज्ञान’ भी कहते हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ ७९
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

👉 भक्तिगाथा (भाग ५०)

अद्भुत थी ब्रज गोपिकाओं की भक्ति

विचार वीथियों में खोए हुए न जाने कितनी घड़ियाँ बीत गयीं। ऐसा लग रहा था, जैसे कि सभी की भावचेतना, भावसमाधि में निमग्न हो गयी हो। सबसे पहले ब्रह्मापुत्र ब्रह्मर्षि वशिष्ठ अपनी भावसमाधि की गहनता से उबरे। उनके नेत्रों से भक्ति की उज्ज्वल प्रकाश धाराएँ विकरित हो रही थीं। थोड़ी देर तक यूं ही वह सबको भक्ति भावों में डूबते-तिरते देखते रहे। फिर कहने लगे- ‘‘हम सभी में सबसे अधिक बड़भागी देवर्षि नारद हैं, जो भगवान् की अवतार लीलाओं के सदा साक्षी, साथी और सहचर बनते हैं। उनके जैसा सद्भाग्य और सौभाग्य भला और किसका हो सकता है? गोपियों की आन्तरिक भक्ति को जैसा इन्होंने देखा और समझा है, वैसी अनुभूति कोई अन्य नहीं प्राप्त कर सका है।’’ यह कहकर ब्रह्मर्षि वशिष्ठ कुछ पलों के लिए रूके फिर सभी की ओर देखते हुए बोले- ‘‘मेरी इच्छा है कि देवर्षि, आप हमें ब्रज गोपिकाओं की भक्ति के और भी प्रसंग सुनाएँ।’’
    
अपनी बात समाप्त करके ब्रह्मर्षि वशिष्ठ ने पहले वहाँ उपस्थित सप्तर्षिमण्डल के सदस्यों की ओर देखा। फिर उन्होंने देवों एवं सिद्धों की ओर अपनी दृष्टि डाली। अन्य ऋषियों की ओर भी उनकी दृष्टि गयी। सभी की आँखों में प्रसन्नता एवं प्रफुल्लता के भाव थे। ऐसा लग रहा था कि सब के सब श्रीकृष्ण भक्ति का आनन्द पाने के लिए उत्सुक हैं। सभी को ब्रज-गोपिकाओं की उत्कट भक्ति ने मोहित कर लिया था। ऐसा पवित्र हृदय, ऐसा असीम अनुराग, ऐसा निष्काम समर्पण, हृदय का ऐसा सम्पूर्ण अर्पण, भला अन्य कहाँ देखा जा सकता है। ब्रह्मर्षि वशिष्ठ ने जैसे सभी के मन की बात अपने मुख से कह दी थी। सभी उत्सुक थे- ब्रज की इन भक्तबालाओं का भावचरित सुनने के लिए।
    
ब्रह्मर्षि विश्वामित्र एवं ब्रह्मर्षि पुलह ने भी देवर्षि से यही आग्रह किया। देवर्षि किंचित मुस्कराए, फिर उनके नेत्रों से कुछ एक भाव बिन्दु लुढ़क पड़े। जैसे-तैसे उन्होंने अपनी भावनाओं को उपशम किया। फिर वह कहने लगे- ‘‘ब्रज मुझे कभी भुलाए नहीं भूलता। गोकुल-नन्दगांव-बरसाना-वृन्दावन की वीथियों के रजकणों में भी भक्ति की पावन मधुरता है। आप सबने तो मेरे हृदय की बात कह डाली है। ब्रजगोपियों की कथा, मानवीय लगते हुए भी ईश्वरीय है क्योंकि वे सभी भगवान् श्रीकृष्ण के ईश्वरीय स्वरूप से परिचित व प्रेरित थीं। श्रीकृष्ण उनके लिए ग्वाल-गोप होते हुए प्रियतम-परमेश्वर थे।’’ ऐसा कहते हुए देवर्षि ने अपने अगले सूत्र का मन्त्रोच्चार किया-
    ‘तत्रापि न महात्म्यज्ञानविस्मृत्यपपादः’॥ २२॥
‘इस अवस्था में भी गोपियों में महात्म्यज्ञान की विस्मृति का अपवाद नहीं।’
    
‘‘सर्वेश्वर त्रिभुवनपति- बालरूप में, उनके आंगन में, उनके हृदय में लीला कर रहे हैं- ऐसा वे सभी जानती थीं।’’ देवर्षि नारद ने इतना कहकर सभी की ओर देखा, फिर थोड़ा सा चुप होकर विनम्रता से बोले- ‘‘आज सबको मैं नन्दगांव के एक दिन की कथा सुनाता हूँ। नन्दगांव में सूर्योदय हुआ। गाएँ, ग्वाल, गोप-गोपिकाएँ सभी जागे। माता यशोदा ने स्नान आदि से निवृत्त हो चुके अपने लाडले का शृंगार किया। उनके लाडले कन्हैया को तो अपने सखाओं से मिलने की शीघ्रता थी पर सखा भी तो उनसे मिलने के लिए बावले थे। सो श्रीदामा, मनसुखा आदि सभी सखा उनके द्वार पर जुटने लगे। सभी वृन्दावन जाने की जल्दी में थे।
    
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ९३

शुक्रवार, 13 अगस्त 2021

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ४९)

परमसत्ता का क्रीड़ा विनोद

कान्ट, हेगल, प्लेटो एरिस्टाटल आदि प्रकृति विद्वान् यह स्वीकार करते हैं कि एक ऐसी सत्ता है, जो ब्रह्माण्ड की रचयिता है या स्वयं ब्रह्माण्ड है किन्तु इनमें से किसी ने भी पूर्ण विचार देने में अपने आपको समर्थ नहीं पाया। संसार में जितने भी धर्म है, वह सब ईश्वरीय अस्तित्व को मानते हैं। प्रत्येक धर्म अपने ब्रह्म के प्रतिपादन में अनेक प्रकार के सिद्धान्त और कथायें प्रस्तुत करते हैं, किन्तु उस सत्ता का सविवेक प्रदर्शन इनमें से कोई नहीं कर सकता, तथापि वे उच्च सत्ता की सर्वशक्तिमत्ता पर अविश्वास नहीं करते।
ईश्वर सम्बन्धी अनुसन्धान की वैज्ञानिक प्रक्रिया डार्विन से प्रारम्भ होती है। डार्विन एक महान् जीव-शास्त्री थे, उन्होंने देश-विदेश के प्राणियों, पशुओं और वनस्पतियों का गहन अध्ययन किया और 1859 एवं 1871 में प्रकाशित अपने दो ग्रन्थों में यह सिद्धान्त स्थापित किया कि संसार के सभी जीव एक ही आदि जीव के विकसित और परिवर्तित रूप हैं। उन्होंने बताया—संसार में जीवों की जितनी भी जातियां और उपजातियां हैं, उनमें बड़ी विलक्षण समानतायें और असमानतायें हैं। समानता यह कि उन सभी की रचना एक ही प्रकार के तत्व से हुई है और असमानता यह है, उनकी रासायनिक बनावट सबसे अलग-अलग है। अनुवांशिकता का आधार रासायनिक स्थिति है, उसकी प्रतिक्रिया में भाग लेने वाली क्षमता चाहे कितनी सूक्ष्म क्यों न हो।

इसके बाद मेंडल, हालैण्ड के ह्यूगो दव्री ने भी अनेक प्रकार के प्रयोग किये और यह पाया कि जीव में अनुवांशिक-विकास माता-पिता के सूक्ष्म गुण सूत्रों (क्रोमोसोम) पर आधारित है। हार्वर्ड यूनिवर्सिटी (अमेरिका) के डा. जेम्स वाट्सन और कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी (इंग्लैण्ड) के डा. फ्रांसिस क्रिक ने भी अनेक प्रयोगों द्वारा शरीर के कोशों (सेल्स) की भीतरी बनावट का विस्तृत अध्ययन किया और गुण सूत्रों (क्रोमोसोम) की खोज की। जीन्स (गुण सूत्रों में एक प्रकार की गांठें) उसी की विस्तृत खोज का परिणाम थीं। इन वैज्ञानिकों ने बताया कि मनुष्य शरीर में डोरे की शक्ल में पाये जाने वाले गुण-सूत्रों को यदि खींचकर बढ़ा दिया जाये तो उससे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को नापा जा सकता है। बस इससे अधिक और मूलस्रोत की जानकारी वैज्ञानिक नहीं लगा पाये तब से उनकी खोजों की दिशा और ही है। उस एक अक्षर, अविनाशी और सर्वव्यापी तत्व के गुणों का पता लगाना उनके लिये सम्भव न हुआ, जो प्रत्येक अणु में सृजन या विनाश की क्रिया में भाग लेता है। हां इतना अवश्य हुआ कि वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध कर दिया कि—(1) सारा जीव जगत् एक ही तत्व से विकसित हुआ है, (2) गुणों के आधार पर जीवित शरीरों का विकास होता है।

यद्यपि यह जानकारियां अभी नितान्त अपूर्ण हैं तो भी उनसे मनुष्य को सत्य की यथार्थ जानकारी के लिए प्रेरणा अवश्य मिलती है। ‘कटेम्प्रेरी थाट आफ ग्रेट ब्रिटेन’ के विद्वान् लेखक ए.एन. विडगरी लिखते हैं—‘‘वे तत्व जो जीवन का निर्माण करते हैं और जिनकी वैज्ञानिकों ने जानकारी की है, उनमें यथार्थ मूल्यांकन के अनुपात में बहुत कमी है, आज आवश्यकता इस बात की है कि सांसारिक अस्तित्व से भी अधिक विशाल मानवीय अस्तित्व क्या हैं, इसका पता लगाया जाये। विज्ञान से ही नहीं, बौद्धिक दृष्टि से भी उसकी खोज की जानी चाहिए। हमारा भौतिक अस्तित्व अर्थात् हमारे शरीर की रचना और इससे सम्बन्धित संस्कृति का मानव के पूर्ण अस्तित्व से कोई तालमेल नहीं है। इससे हमारी भावनात्मक सन्तुष्टि नहीं हो सकती, इसलिये हमें जीवन के मूलस्रोत की खोज करनी पड़ेगी। अपने अतीत और भविष्य के बीच थोड़ा-सा वर्तमान है, क्या हमें उतने से ही सन्तोष मिल सकता है, हमें अपने अतीत की स्थिति और भविष्य में हमारी चेतना का क्या होगा, हम संसार में क्यों हैं और क्या कुछ ऐसे आधार हैं जिनसे बंधे होने के कारण हम संसार में हैं, इनकी खोज होनी चाहिये।’’ इन पंक्तियों में वही बात प्रतिध्वनित होती है, जो ऊपर कही गई है। विज्ञान ने निष्कर्ष भले ही न दिया हो पर उसने जिज्ञासा देकर मनुष्य का कल्याण ही किया है। ‘अथातो ब्रह्म जिज्ञासा’ ब्रह्म की पहचान के लिये हम तभी तत्पर होते हैं, जब उस मूलस्रोत के प्रति हमारी जिज्ञासा जाग पड़ती है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ ७७
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

👉 भक्तिगाथा (भाग ४९)

भक्तों के वश में रहते हैं भगवान
    
मैंने एक साथ सभी के उत्साह के अतिरेक की ओर देखा, एक बार प्रभु के श्रीमुख की ओर निहारा और फिर एक पल के लिए मौन होकर के मैं बोला- यदि भगवान श्रीकृष्ण का कोई भक्त अपने चरणों की धूलि को इनके माथे पर लगा दे तो ये अभी और तुरन्त ठीक हो जाएँगे। मेरा यह विचित्र उपाय सुनकर सबके सब पहले तो आश्चर्यचकित हुए फिर सोच में पड़ गए। मैंने अपनी बात आगे बढ़ायी और कहा- महारानी रुक्मिणी, सत्यभामा, जाम्बवन्ती आदि में से कोई भी इस कार्य को कर सकता है। यह कथन सुनकर वे सब चौंकी और बोली भला यह कैसे सम्भव है। पहले तो ये मेरे पति हैं, फिर ये तो स्वयं परात्पर ब्रह्म हैं। अपने चरणों की धूलि इनके माथे पर लगाकर तो हम सब नरकगामिनी हो जाएँगी।
    
तब ऐसे में यह कार्य इनके बड़े भ्राता बलराम एवं अन्य गुरुजन कर सकते हैं परन्तु नरक का भय शायद सभी को था। कोई भी उन्हें अपनी चरणधूलि देने को तैयार न हुआ। भगवान् श्रीकृष्ण के संकेत से मैं हस्तिनापुर पहुँच गया और मैंने अपना यह सन्देशा- भीष्म, विदुर, कुन्ती, द्रोपदी सहित सभी पाण्डवों को सुनाया। परन्तु स्थिति बदली नहीं, इनमें से कोई भी अपनी चरणधूलि देने के लिए तैयार न हुआ। सभी को भय था- नरक जाने का। सभी भयभीत थे पापकर्म से। उन्हें अनेक तरह की शंकाएँ थीं, जो उनको ऐसा करने से रोक रही थीं।
    
अन्त में प्रभु प्रेरणावश मैं ब्रजभूमि पहुँचा और वहाँ भी मैंने अपने स्वामी की बात कही। मेरी बात सुनते ही- सब के सब अपनी चरणधूलि देने के लिए उतावले हो गए। सभी गोपिकाएँ तो बिना कहे ही पोटली में अपनी चरणधूलि लेकर आ गयीं। उनके ऐसा करने पर मैंने उन्हें समझाया कि अभी भी समय है तुम सब सोच लो, श्रीकृष्ण भगवान् हैं, उन्हें चरणधूलि देकर तुम सब नरक में जाओगे। मेरे इस कथन के उत्तर में एक जोरदार ठहाका गूँजा, और ब्रजगोपिकाओं के स्वर उभरे, अपने कृष्ण के लिए हम सदा-सदा के लिए नरक भोगने के लिए तैयार हैं। मैं निरुत्तर होकर वहाँ से चलकर द्वारका पहुँच गया। और अपनी अनुभव कथा वहाँ कह सुनायी। सब कुछ सुनकर श्रीकृष्ण हँसे और बोले- नारद यही है वह भक्ति, ये ही हैं वे भक्त, जिनके वश में मैं हमेशा-हमेशा रहता हूँ। प्रभु के इस कथन पर सर्वत्र मौन छा गया। सबके सब सोच में डूब गए।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ९१

बुधवार, 11 अगस्त 2021

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ४८)

ईश्वर ज्वाला है और आत्मा चिंगारी

सूक्ष्म जीवों की दुनिया और भी विचित्र है। आंखें से न दीख पड़ने वाले प्राणी हवा में—पानी में तैरते हैं। मिट्टी में बिखरे पड़े हैं और शरीर के भीतर जीवाणुओं के रूप में विद्यमान हैं। जीवाणु एवं विषाणु विज्ञान क्षेत्र की खोज को कहीं से कहीं घसीटे लिये जा रहे हैं। शरीर-शास्त्री, चिकित्सा-शास्त्री हैरान हैं कि इन शूरवीरों की अजेय सेना को वशवर्ती करने के लिए क्या उपाय किया जाय? मलेरिया का मच्छर अरबों, खरबों की डी.डी.टी खाकर भी अजर-अमर सिद्ध हो रहा है तो रोगाणुओं, विषाणुओं जैसे सूक्ष्म सत्ताधारी सूक्ष्म जीवों का सामना क्यों कर हो सकेगा? सशस्त्र सेनाओं को परास्त करने के उपाय सोचे और साधन जुटाये जा सकते हैं, पर इन जीवाणुओं से निपटने का रास्ता ढूंढ़ने में बुद्धि हतप्रभ होकर बैठ जाती है। इन सूक्ष्म जीवों की अपनी दुनिया है। यदि उनमें से भी कोई अपनी जाति का इतिहास एवं क्रिया-कलाप प्रस्तुत कर सके तो प्रतीत होगा कि मनुष्यों की दुनिया उनकी तुलना में कितनी छोटी और कितनी पिछड़ी हुई है।

अभी रासायनिक पदार्थों का, यौगिकों का, अणुओं का, तत्वों का विज्ञान अपनी जगह पर अलग ही समस्याओं और विवेचनाओं का ताना-बाना लिये खड़ा है। सृष्टि के किसी भी क्षेत्र में नजर दौड़ाई जाय, उधर ही शोध के लिए सुविस्तृत क्षेत्र खड़ा हुआ मिलेगा। मनुष्य को प्रस्तुत जानकारियों पर गर्व हो सकता है, पर जो जानने को शेष पड़ा है वह उतना बड़ा है कि समग्र जानकारी मिल सकने की बात असम्भव ही लगती है। मनुष्य की तुच्छता का—उसकी उपलब्धियों की नगण्यता का तब बोध होता है जब थोड़े से मोटे-मोटे आधारों से आगे बढ़कर गहराई में उतरा जाता है या ऊंचाई पर चढ़ा जाती है।

ऊपर की पंक्तियां प्रकृति के जड़ पदार्थों और जीव कलेवरों के सम्बन्ध में थोड़ी-सी झांकी कराती हैं और बताती हैं कि यह प्रसार विस्तार कितना अधिक है और उसे समझ सकने में मानवी बुद्धि कितनी स्वल्प है। सृष्टि वैभव को भी अकल्पनीय, अनिर्वचनीय एवं अगम्य ही कहा जा सकता है। फिर उस परमेश्वर के स्वरूप, उद्देश्य एवं क्रिया-कलाप को समझ सकने की बात कैसे बने, जो इस सूक्ष्म, स्थूल, चल, स्थिर प्रकृति से भीतर ही नहीं बाहर भी हैं और यह सारा बालू का महल उसने क्रीड़ा विनोद के लिए रच कर खड़ा कर लिया है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ ७६
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

👉 भक्तिगाथा (भाग ४८)

भक्तों के वश में रहते हैं भगवान

भगवान् श्रीकृष्ण की लीलाओं में ब्रजगोपिकाओं का अपना विशेष स्थान है। यूं तो ब्रज का प्रत्येक रज कण विशिष्ट है परन्तु ये रजकण जिनके चरणों के स्पर्श से विशेष हुए हैं, वे तो व्रज की गोपिगाएँ ही हैं। ये सदा-सदा कृष्ण की ही हैं। इन्हें लोक-परलोक, सुख-दुःख, हानि-लाभ, यश-अपयश सभी की तुलना में श्रीकृष्ण प्यारे हैं। श्रीकृष्ण के लिए वह सभी कुछ त्याग सकती हैं, उन्हें सभी कुछ दे सकती हैं। श्रीकृष्ण के लिए वह प्रत्येक कलंक-अपमान सहने के लिए तैयार हैं। वे बस ऐसी ही हैं, केवल श्रीकृष्ण की हैं वे, उन्हें उन परात्पर प्रभु के सिवा और कुछ भी, कभी भी, कहीं भी नहीं चाहिए।
    
अपनी इन विचार वीथियों में गुजरते हुए देवर्षि को कुछ पल लग गए। ब्रह्मर्षि क्रतु को अभी तक उनके उत्तर की प्रतीक्षा थी। यह प्रतीक्षा अन्यों को भी थी, पर अभी तक सबके सब मौन में खोए थे। इन सबकी स्थिति को देखकर देवर्षि नारद ने शान्त स्वर में कहा- ‘‘ब्रजगोपियों की भक्ति को शब्दों में नहीं उच्चारित किया जा सकता। कहाँ उनके महाभाव का अनन्त विस्तार और कहाँ शब्दों की अत्यल्प क्षमता फिर भी उनके भावों की अभिव्यक्ति के अनेक क्षणों का साक्षी रहा हूँ। इनमें से एक पल तो ऐसा भी है, जबकि स्वयं श्रीकृष्ण ने मुझे अपनी उस मधुर लीला का साक्षी बनाया था। अब सब सुनना चाहें तो मैं उसका वर्णन करुँ।’’ ‘‘अवश्य देवर्षि! अवश्य’’- कई स्वर एक साथ उभरे, अनेकों मुखों पर एक साथ सन्तुष्टि के भाव झलके।
    
इस दृश्य की अनुभूति करते हुए देवर्षि कह रहे थे- ‘‘भगवान द्वारिकाधीश ने उस दिन बीमार होने की लीला रची। उनकी बीमारी का समाचार सब ओर फैल गया। राजवैद्य, देववैद्य सभी ने नाड़ी देखी पर कोई भी किसी तरह रोग का निदान नहीं कर पा रहा था। क्या रोग है, किसी को कुछ पता न चला। तभी प्रभु ने मेरा स्मरण किया। उनके स्मरण करते ही मैं वहाँ पहुँच गया। पहुँच कर देखा तो प्रभु श्रीकृष्ण पर्यंक पर लेटे हुए थे। मेरे पहुँचने पर उनके होंठो पर किंचित हास्य रेखा उभरी और विलीन हो गयी। उन अन्तर्यामी ने अपना मन्तव्य मुझे मन ही मन समझा दिया। मुझे समझ में आ गया कि अपने भक्तों का गर्वहरण करने वाले भगवान आज भक्ति का मर्म समझाना चाहते हैं।

भगवान के पलंग के पास रुक्मिणी, सत्यभामा आदि रानियाँ खड़ी थीं। उनके अपने सभी सगे स्वजन थे। मेरे पहुँचने पर सभी ने मुझसे पूछा- देवर्षि आप तो परम ज्ञानी हैं। आप ही भगवान की इस बीमारी का कोई उपाय सुझाएँ। मैंने एक बार श्रीकृष्ण की ओर देखा फिर मन ही मन हँसते हुए कहा- प्रभु की बीमारी तो कठिन है परन्तु इसका उपाय बहुत सुगम है। आप में से कोई भी थोड़ी सी भी इच्छा करने पर इन्हें ठीक कर सकता है। मेरी बातें सुनकर सबके सब अचरज में पड़ गए और कहने लगे कि आखिर ऐसा क्या है? यदि उपाय इतना सहज है तो अवश्य बताएँ। वैसे यदि उपाय कठिन भी हो तो भी हम इसे अवश्य करेंगे?

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ९०

सोमवार, 9 अगस्त 2021

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ४७)

ईश्वर ज्वाला है और आत्मा चिंगारी

यह तो सूक्ष्मता की चर्चा हुई। स्थूलता की—विस्तार की बात तो सोचते भी नहीं बनती। आंखों से दीखने वाले तारे अपनी पृथ्वी से करोड़ों प्रकाश वर्ष दूर हैं। प्रकाश एक सैकिण्ड में एक लाख छियासी हजार मील की चाल से चलता है। इस हिसाब से एक वर्ष में जितनी दूरी पार करली जाय वह एक प्रकाश वर्ष हुआ। कल्पना की जाय कि करोड़ों प्रकाश वर्ष में कितने मीलों की दूरी बनेगी। फिर यह तो दृश्य मात्र तारकों की बात है। अत्यधिक दूरी के कारण जो तारे आंखों से नहीं दीख पड़ते उनकी दूरी की बात सोच सकना कल्पना शक्ति से बाहर की बात हो जाती है। अपनी निहारिका में ही एक अरब सूर्य आंके गये हैं। उनमें से कितने ही सूर्य से हजारों गुने बड़े हैं। अपनी निहारिका जैसी अरबों, खरबों निहारिकाएं इस निखिल ब्रह्माण्ड में विद्यमान हैं। इस समस्त विस्तार की बात सोच सकना अपने लिए कितना कठिन पड़ेगा, यह सहज ही समझा जा सकता है।

अणु की सूक्ष्मता और ब्रह्माण्ड की स्थूलता की गइराई, ऊंचाई का अनुमान करके हम चकित रह जाते हैं। अपनी पृथ्वी के प्रकृति रहस्यों का भी अभी नगण्य-सा विवरण हमें ज्ञात हो सका है, फिर अन्यान्य ग्रह-नक्षत्रों की आणविक एवं रासायनिक संरचना से लेकर वहां की ऋतुओं, परिस्थितियों तक से हम कैसे जानकार हो सकते हैं। इस ग्रहों की संरचना एवं परिस्थितियां एक दूसरे से इतनी अधिक भिन्न हैं कि प्रत्येक ग्रह की एक स्वतन्त्र भौतिकी तैयार करनी होगी। हमें थोड़े से वैज्ञानिक रहस्य ढूंढ़ने और उपयोग में लाने के लिए लाखों वर्ष लगाने पड़े हैं फिर अगणित ग्रह-नक्षत्रों की—उनके मध्यवर्ती आकाश की स्थिति जानने के लिए जितना समय, श्रम एवं साधन चाहिए उन्हें जुटाया जा सकना अपने लिए कैसे सम्भव हो सकता है?

वह सृष्टि की सूक्ष्मता और स्थूलता की चर्चा हुई। इसके भीतर जो चेतना काम कर रही है उसकी दिशा धारायें तो और भी विचित्र हैं। प्राणियों की आकृति-प्रकृति की विचित्रता देखते ही बनती है। प्रत्येक की अभिरुचि एवं जीवनयापन पद्धति ऐसी है जिसका एक दूसरे के साथ कोई तालमेल नहीं बैठता। मछली का चिन्तन, रुझान, आहार, निर्वाह, प्रजनन, पुरुषार्थ, समाज आदि का लेखा-जोखा तैयार किया जाय तो वह नृतत्व विज्ञान से किसी भी प्रकार कम न बैठेगा। फिर संसार भर में मछलियों की भी करोड़ों जातियां—उपजातियां हैं और उनमें परस्पर भारी मित्रता पाई जाती है। इन सबका भी पृथक-पृथक शरीर शास्त्र, मनोविज्ञान, निर्वाह विधान एवं उत्कर्ष-अपकर्ष का अपने-अपने ढंग का विधि-विधान है। यदि मछलियों को मनुष्यों की तरह ज्ञान और साधन मिले होते तो उनने अपनी जातियों-उपजातियों का उतना बड़ा ज्ञान भण्डार विनिर्मित किया होता जिसे मानव विज्ञान से आगे न सही पीछे तो किसी भी प्रकार नहीं कहा जा सकता था। बात अकेली मछली की नहीं है।

करोड़ों प्रकार के जल-जन्तु हैं उनकी जीवनयापन प्रक्रिया एक दूसरे से अत्यधिक भिन्न है। जलचरों से आगे बढ़ा जाय तो थलचरों और नभचरों की दुनिया सामने आती है। कृमि-कीटकों से लेकर हाथी तक के थलचर—मच्छर से लेकर गरुड़ तक के नभचरों की आकृति-प्रकृति भिन्नता भी देखते ही बनती है। उनके आचार-विचार, व्यवहार, स्वभाव एक दूसरे से अत्यधिक भिन्न हैं। व्याघ्र और शशक की प्रकृति की तुलना की जाय तो उनके बीच बहुत थोड़ा सामंजस्य बैठेगा। अन्यथा उनकी निर्वाह पद्धति में लगभग प्रतिकूलता ही दृष्टिगोचर होगी। इन असंख्य प्राणियों की जीवन-पद्धति के पीछे जो चेतना तत्व काम करता है उसकी रीति-नीति कितनी भिन्नता अपने में संजोये हुए है यह देखकर जड़ प्रकृति की विचित्रता पर जितना आश्चर्य होता था। चैतन्य में भी कहीं अधिक हैरानी होती है। कहना न होगा कि सर्वव्यापी ईश्वरीयसत्ता के ही यह क्रिया कौतुक हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ ७४
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

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