(परम पूज्य गुरुदेव ने ७९ साल पहले इस लेख द्वारा समय परिवर्तन की भावी रूपरेखा इंगित की है। ७९ साल पूर्व इस लेख से भविष्य दर्शाने वाले परम पूज्य गुरुदेव का युगद्रष्टा ऋषिरुप व्यक्त होता है।)
अब कलियुग समाप्त होकर सतयुग आरम्भ हो रहा है, ऐसा अनेक तर्कों, प्रमाणों, युक्तियों, अनुभवों और भविष्यवाणियों से प्रकट है। पापों का नाश होकर धर्म का उदय होगा। अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि सतयुग कैसे आवेगा? यह कार्य एक दिन में पूरा नहीं हो जावेगा, वरन इसके लिए कुछ समय लगेगा। यह समय एक सौ वर्ष का हो सकता है। कई महात्माओं का विश्वास है कि संवत् बीस सौ से लेकर इक्कीस सौ तक यह परिवर्तन कार्य पूरा हो जायेगा। इस एक शताब्दी में कलियुग के अस्त और सतयुग के आरंभ की संध्या रहेगी। बुराई क्रमशः घटती जायेगी और भलाई क्रमशः बढ़ती जायेगी। यह भी संभव है कि इस बीच में कभी-कभी पाप कर्मों के कुछ बड़े-बड़े कार्य दीख पड़ें क्यों कि जब दीपक बुझने को होता है, तो उसकी लौ एक बार जोर से बढ़ती है, फिर वह बुझ जाती है। रोगी मरने से पूर्व जोर की हिचकी लेता है और प्राण त्याग देता हे। सूर्योदय से पूर्व जितना अँधेरा होता है, उतना रात्रि के और किसी भाग में नहीं होता। वर्षा से पहले बड़े जोर की गर्मी पड़ती है या यों कहिये कि अधिक गर्मी पड़ना ही वर्षा का कारण होता है। जब चींटी के पर आते हैं, तो कहते हैं बस, अब बेचारी का अंत आ गया। गरदन कटते समय बकरा जितना शोर मचाता और पाँव पीटता है, उतना जीवन भर में कभी भी नहीं करता। कलियुग की गर्दन अब सत्य की छुरी से कटने जा रही है, हो सकता है कि वह इन अंतिम दिनों में खूब चिल्लाये, फड़फड़ाये और पाँव पीटे।
संवत् दो हजार समाप्त होते ही एकदम सतयुग फट नहीं पड़ेगा और न यह धरती आसमान बदल जायेंगे। सब यही रहेगा। मनुष्य भी यही रहेंगे। डरना या घबड़ाना न चाहिये, यह कल्पांत नहीं है, युगांत है। इस समय युद्धों, महामारियों और दुर्भिक्षों का जोर रहने से जनसंख्या घट जायेगी, पर प्रलय नहीं होगी। गत महायुद्ध में जितने मनुष्य मरे थे, इस युद्ध में उससे अधिक मरेंगे पर यह संहार रुपये में दो आने भर, अष्टमांश से अधिक न होगा। इतनी जनसंख्या घटने बढ़ने से सामूहिक दृष्टि से कोई बड़ा भारी अनिष्ट नहीं समझना चाहिए। यह कमी अगली एक शताब्दी में ही पूरी हो जायेगी।
सतयुग आरंभ में स्वः लोक में आवेगा, फिर भुवः लोक में तत्पश्चात् भूः लोक में दृष्टिगोचर होगा। स्वः लोक का अर्थ मन, भुवः लोक का अर्थ वचन, भूः लोक का अर्थ कर्म है। सबसे प्रथम जनता के मनों में शुभ संकल्पों के प्रति आकर्षण उत्पन्न होगा। बुरे कर्म करने वाले भी सत्य की प्रतिष्ठा करेंगे, आदतों के कारण कोई चाहे चोरी करता रहे, पर उसका मन अवश्य ही धर्म की महत्ता को समझेगा। कुकर्मी लोग मन ही मन पछताते जायेंगे और कभी-कभी एकान्त में दुखी हृदय से भगवत् प्रार्थना करते रहेंगे कि हे प्रभो! हमें सद्बुद्धि दो, हमें दुष्ट कर्मों के पंजे से छुड़ाओ। दूसरों को शुभ कर्म करते देख कर मन में प्रसन्नता होगी। ज्ञान चर्चा सुनने को जी चाहेगा। छोटे बालक भी हरिकथा, कीर्तन और सत्संग से प्रेम करेंगे। घर और कमरे आदर्श वाक्यों, आदर्श चित्रों से सजाये जायेंगे, फैशन में कमी हो जायेगी, बाबू लोग मामूली पोशाक पहनने लगेंगे, प्रभुता और ऐश्वर्य प्राप्त लोगों को भोगों से अरुचि होकर धर्म में प्रवृत्ति बढ़ेगी। मन ही मन लोग सत्य-नारायण की उपासना करेंगे, झूठ और पाखण्ड देख कर मन ही मन चिढ़ेंगे। असत्य द्वारा चाहे अपना ही हित होता हो, पर लोग उससे घृणा करेंगे। सत्य पक्ष द्वारा यदि अपना अहित हुआ हो तो भी बुरा न मानेंगे। जब इस प्रकार के लक्षण दिखाई देने लगें तो समझना चाहिए कि सतयुग स्वः लोक में, ब्रह्म लोक में आ गया। पूरा सतयुग तो कभी भी नहीं आता क्योंकि सृष्टि की रचना सत्, रज, तम तीनों गुणों से हुई है। यदि एक भी गुण समाप्त हो जाय तो सृष्टि का ही नाश हो जायेगा। युगों में तत्वों की न्यूनाधिकता होगी। सतयुग के आरंभ में सत् की अधिकता होगी। स्वः लोक में मनों में, मस्तिष्कों में, सत् की झाँकी मिलेगी। कहीं-कहीं वचन और कर्म में भी दिखाई देगा, पर बहुत कम। वचन और कर्म तो वैसे ही रहेंगे। स्वः लोक में सतयुग का आगमन उच्च आध्यात्मिक भूमिका में जागृत हुए मनुष्यों को दिखाई देगा, सर्व साधारण को उसको पहिचानना कठिन होगा।
स्वः लोक में नीचे उतर कर जब सत् युग भुवः लोक में आवेगा तो मन और वचन दोनों में सत्यता प्रकट होने लगेगी। केवल मन में ही सत्य के प्रति आदर न रहेगा वरन् वाणी से भी प्रशंसा होने लगेगी। आज कल जैसे धर्म के लिए कष्ट उठाने वाले और तपोनिष्ठ लोगों को मूर्ख कहा जाता है, उस समय वैसा न कहा जायेगा। तब खुले आम सत्कर्मियों की प्रशंसा की जायेगी। लेखनी और वाणी से प्रेस और प्लेट-फार्म द्वारा सत्य का खूब प्रचार होगा। यद्यपि करने वालों की अपेक्षा कहने वाले ही उस समय भी अधिक होंगे, पर कोई-कोई अपने विचारों को कार्य रूप में भी प्रकट करेंगे। उपदेश करने वालों की संख्या में वृद्धि होगी। धार्मिक पत्र-पत्रिकाओं को आदर मिलेगा। मामूली व्यापारिक काम-काजों में भी सत्य को स्थान मिलेगा। दुकानदार और ग्राहक ‘‘एक दाम’’ की नीति पसंद करेंगे। झूठ, चुगलखोर, बकवादी, गप्पी जगह-जगह दुत्कारे जायेंगे। तब चालाकी की बातें करने वाले बुद्धिमान नहीं मूर्ख समझे जायेंगे। सत्यवक्ताओं का समाज में आदर होगा। आत्म ज्ञान संबंधी पुस्तकें खूब छपेंगी, उनके पढ़ने-पढ़ाने का क्रम बढ़ेगा। कठोर, अप्रिय, उद्धत्, अश्लील वचन बोलना क्रमशः कम होता जायेगा और विनय, नम्रता, मधुरता लिये हुए बातें करने का प्रचार बढ़ेगा। अश्लील गालियों के विरोध में ऐसा आंदोलन होगा कि यह प्रथा बिलकुल बंद हो जायेगी।
भूः लोक में जब सतयुग उतरेगा तो दृश्य ही दूसरे दिखाई देंगे। सत्य, प्रेम और न्याय को आचरण में प्रमुख स्थान मिलेगा। आज कल झूठ बोलने का रिवाज समाज की बिगड़ी हुई दशा के कारण है। जब समाज की आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, शारीरिक और मानसिक दशाएँ सुधर जावेंगी, तो झूठ बोलने से कुछ प्रयोजन न रहेगा। मनुष्य जीवन की सभी आवश्यकताएँ जब सरलतापूर्वक पूर्ण हो जाती हैं, तो झूठ बोलने का पाप कौन करेगा? फिर लोकमत झूठ के विरोध में हो जायेगा, इसलिए बलात् सबको सत्य का मार्ग ग्रहण करना होगा। हर काम को करते समय मनुष्य सोचेगा, इसमें प्रेम और न्याय है या नहीं। कर्म और अकर्म की तब एक ही कसौटी होगी, वह यह है कि-किया जानेवाला कार्य प्रेम और न्याय से पूर्ण है या नहीं। अपने हित की अपेक्षा जब दूसरे के हित को अधिक ध्यान में रखने की मनोवृत्ति बन जायेगी तो सच्चा सतयुग प्रकट होगा। राजगद्दी का प्रश्न आवेगा तो उसे भरत-राम को और राम-भरत को देना चाहेंगे। कैकयी की प्रसन्नता के लिये कौशिल्या अपने पुत्र को खुशी-खुशी वन जाने की आज्ञा देगी। सुमित्रा आज्ञा करेंगी कि हे लक्ष्मण! तुम्हारे लिए अवध वहीं है, जहाँ राम रहें। इसलिए बड़े भाई के साथ बन को जाओ। सीताजी अपने को कष्टों के कण्टकों में घिसटाना पसन्द करेंगी किन्तु पति की सेवा का लोभ न त्यागेंगी। उस सतयुग में ऐसे परिवार हो जायँगे। भाई, माता, विमाता, पत्नी इस प्रकार के प्रेम सूत्रों में बँधे होंगे। राजा प्रजा को पुत्र के समान समझेंगे। जब प्रजा कहेगी कि हम राजा की ऐसी पत्नी पसन्द नहीं करते, जिसे कलंकित समझा जाता है, तो राम अपनी छाती पर पत्थर बाँध कर और सीता अपने कलेजे पर शूल रख प्रजा की इच्छा पर अपने को तिल-तिल करके विरह वेदना की भट्टी में जलने के लिए भी तत्पर हो जायेंगे। प्रजा के लिए राम का यह सर्वोत्कृष्ट त्याग है, भावना की दृष्टि से देखा जाय, तो इस त्याग की उपमा इतिहास में मिलना कठिन है। जब भूः लोक में सतयुग आ जायगा, तो ऐसी घटनाओं का मिलना भी कठिन न होगा। एक दो नहीं, हर जगह अनेक घटनायें ऐसी घटित होंगी, जिनमें प्रेम और न्याय का ऊँचा आदर्श झिलमिल करता हुआ दिखाई देगा। फिर भी दुष्ट-कर्मी थोड़ी बहुत मात्रा में बने रहेंगे, क्यों कि प्रकृति त्रिगुणमयी है।
लोकों की सूचना आयु के हिसाब से भी मिलेगी। बालकपन सात्विकी अवस्था है, युवा राजसी और वृद्धावस्था तामसी। भूः लोक का सतयुग पहले २५ वर्ष से कम उम्र के, प्रथम अवस्था वाले किशोर बालकों में उतरेगा। २५ वर्ष से कम अवस्था वालों के हृदयों में सब से अधिक सत्य की प्रेरणा होगी। उनके निर्मल जल में किसी वस्तु की परछाई साफ-साफ दिखाई देती है। इन नव-युवकों के हृदय में स्वभावतः श्रद्धा और भक्ति होगी। वे कलियुगी बड़े उम्र वालों के क्रोध के भाजन बनेंगे, डाट फटकार और दुख-दण्ड सहेंगे। पर युग का प्रभाव उन्हें विचलित न होने देगा। प्रहलाद की तरह यह बालक बड़े दृढ़, निर्भीक और सत्यनिष्ट होंगे, धु्रव की तरह ये तपस्या करेंगे और हकीकतराय की तरह प्राणों को तुच्छ समझेंगे, पर सत्य की ही रट लगावेंगे। असुरों के घरों में से ऐसे देव बालकों की सेना की सेना निकल पड़ेगी और संसार को आश्चर्य से चकित कर देगी। यह सतयुग की पहली तिहाई में ही दिखलाई देना लगेगा। संवत् दो हजार से लेकर संवत् २०३३ वि. तक इन बालकों का ही प्रचंड आन्दोलन रहेगा यद्यपि कर्म में बहुत ही कम परिवर्तन दिखाई देगा। कोई कोई मूर्ख इसे बालक्र्रीड़ा समझ कर उपहास करेंगे और बालकों के हृदय परिवर्तन को कुछ महत्व न देगें, पर उन्हें शीघ्र ही अपनी भूल प्रतीत हो जायगी।
जब सतयुग भुवः लोक में उतरेगा तो सत्य का प्रकाश बढ़ेगा और तरुण को २५ से ५० वर्ष की आयु वालों को भी इसमें सम्मिलित होना पड़ेगा। वे सत्य, प्रेम और न्याय का विरोध करने का साहस न करेंगे एवं वाणी द्वारा उसका समर्थन करने लगेंगे। बालक और तरुण मिलकर इस आन्दोलन का नेतृत्व करेंगे। मन और वचन में सत्य गुंज्जित हो जावेगा। किन्तु कर्म फिर भी अधूरे रहेंगे। मरणोन्मुख कलियुग बार-बार जीवित हो जायेगा। उसकी चिंता में बार-बार दुखदायी चिनगारियाँ उड़ेगी, कभी-कभी तो सतयुग के आगमन पर लोगों को अविश्वास तक होगा, पर भविष्य उनके भ्रम का निवारण कर देगा। सत्य की हमेशा विजय ही होती है।
वृद्ध लोग अपने पुराने-धुराने, सड़े-गले, गन्दे-सन्दे विचारों की चहारदीवारी में बंद पड़े-पड़े बड़बड़ाते रहेंगे। आरंभ में वे बालकों के हृदय परिवर्तन का उपहास करेंगे, जब तरुण भी उनके पक्ष में आ जावेंगे, तो वे अपने स्वभाव के कारण उनका विरोध करेंगे, किंतु अंत में युग का प्रभाव उन पर भी पड़ेगा। मृत्युलोक में जब सतयुग आवेगा, तो उन्हें भी अपने विचार बदलने पड़ेंगे और असत्य को तिलांजलि देकर सत्य की शरण में आ जावेंगे। कलियुग जब बिलकुल ही निर्बल हो जायेगा, तो वृद्धों की भी मनोदशा बदल जायेगी। फिर वे अधिक उम्र के कारण अर्ध विक्षिप्त न होंगे, रोग शोक के घर न रहेंगे। अपमान के स्थान पर सर्वत्र उनका मान होगा। ‘‘साठा सो पाठा’’ वाली उक्ति कहावत चरितार्थ होगी। आज जैसे वृद्धों को ‘‘रिटायर्ड’’ कह कर एक कोने में पटक दिया जाता है, तब ऐसा न होगा। उस समय वयोवृद्ध अपने सद्ज्ञान के कारण बहुत ही उन्नत दशा में होंगे, सतयुग का मर्म समझ जायेंगे और अपने पुत्र-पौत्रों को सत्य-मार्ग में प्रवृत्त होने का उपदेश देंगे। संवत् २१०० (सन् २०४४) में यह पूरा हो जायेगा। उस समय सतयुग भूः लोक में प्रकट हुआ समझा जायेगा।
स्त्रियाँ बुद्धिजीवी नहीं होती, उनमें भावना ही प्रधान है। इसलिए वे सतयुग के आगमन की चर्चा को आश्चर्य के साथ सुनेंगी। उनके कान पुराने संस्कारवश इस बात को स्वीकार न करना चाहेंगे, पर हृदय में भीतर ही भीतर कोई उन्हें प्रेरणा करता हुआ प्रतीत होगा कि यह सब सत्य है। सतयुग अब आ गया है। स्त्रियों का सतीत्व, पतिव्रत जागृत रहेगा। उनका हृदय दया, क्षमा, करुणा और प्रेम से भर जायेगा। पति और पुत्रों के लिए बहुत आत्म त्याग करेंगी। दीन-दुखियों को देख कर उनके हृदय पसीज जावेंगे। ऐसी स्त्रियाँ बहुत देखने में आवेंगी, जो पुरुषों के कठोर होते हुए भी दान, धर्म में श्रद्धा रखेंगी। सत्य, प्रेम और न्याय की भावना स्त्रियों में बड़ी आसानी से प्रवृष्ट हो जायेगी और वे पुरुषों की अपेक्षा जल्दी सतयुगी बन जावेंगी।
ऐसा नहीं है कि आयु के उपरोक्त प्रतिबन्ध सभी पर लागू हों। यह तो साधारण श्रेणी के अचेतन जीवों की बात कही गई है। जाग्रत, नैष्ठिक, उन्नत और जिनको भगवान ने इसी निमित्त भेजा है एवं जिनके भाग्य में सतयुगी अवतार बनना लिखा है, वे बहुत पहले, सतयुग के आदि में ही, संवत् दो हजार के आसपास से ही वरन् इससे भी बहुत पूर्व सावधान हो जायेंगे और नवीन युग के स्वर्ग रथ को स्वर्ग से भूमण्डल पर लाने के लिए अपना सर्वस्व त्याग कर उस रथ में जुतकर सूर्य के सप्तमुखी घोड़ों के समान कार्य करेंगे। सतयुग तो आने ही वाला है, वह किसी के रोकने से किसी भी प्रकार रुक नहीं सकता, पर इस स्वर्ग अवसर से लाभ उठाने का, अपनी कीर्ति को अमर कर जाने का सौभाग्य उन्हें ही मिलेगा, जो बड़े भाग्यवान हैं, जिन पर ईश्वर की विशेष कृपा है। शेष तो यहीं कुत्तों की मौत मरेंगे और पीछे अपनी भूल पर सिर धुन-धुन कर पछताते रहेंगे।
✍🏻 परम पूज्य गुरुदेव पं श्री राम शर्मा आचार्य जी
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी १९४२