रविवार, 30 अगस्त 2020

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग १५)

अनूठी हैं—मन की पाँचों वृत्तियाँ
वृत्तियों की कथा का अभी अंत नहीं हुआ है। पाँचवे सूत्र में महर्षि पतंजलि इस तत्त्व को और अधिक सुस्पष्ट करते हैं। इस सूत्र में वह कहते हैं-

वृत्तयः पञ्चतय्यः क्लिष्टाक्लिष्टाः॥ १/५॥
यानि मन की वृत्तियाँ पाँच हैं। वे क्लेश का स्रोत भी हो सकती हैं और अक्लेश का भी।
  
योगसूत्रकार महर्षि का यह सूत्र पहली नजर में एकदम पहेली सा लगता है। एक बार में ठीक-ठीक समझ में नहीं आता कि मन की पाँचों वृत्तियाँ किस तरह और क्यों अपना रूप बदल लेती हैं? कैसे वे क्लेश यानि की दुःख, पीड़ा की जन्मदात्री बन जाती हैं? और कैसे वे हमें अक्लेश अर्थात् गैर दुःख या पीड़ा विहीन अवस्था में ले जाती है? इन सवालों का जवाब पाने के लिए हम सभी को सत्य की गहन अन्वेषण करना पड़ेगा। तत्त्व की गहराई में प्रवेश करना होगा। तब कहीं जाकर बात को समझने की उम्मीद बँधेगी।
  
यहाँ भी ‘जिन खोजा तिन पाइयाँ’ के साथ ‘गहरे पानी पैठि’ की शर्त जुड़ी हुई है। इस शर्त को पूरा करके ही महर्षि का मन्तव्य जाना जा सकता है। लेकिन इस गहरे पानी में पैठने की शुरूआत कहीं किनारे से ही करनी होगी। और यह किनारा है शरीर। जिससे हम सब काफी सुपरिचित हैं। यह परिचय इतना प्रगाढ़ हो चला है कि हममे से कइयों ने यह मान लिया है कि वे शरीर से भिन्न और कुछ हैं ही नहीं। इस दृश्यमान शरीर के मुख्य अवयव भी पाँच हैं, जिन्हें पंच कर्मेन्द्रियाँ भी कहते हैं। इस शरीर से ही जुड़ा एक पाँच का समूह और भी है, जिसे पंच ज्ञानेन्द्रियाँ कहा गया है। इन्हीं पाँच ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से हमारी अन्तर्चेतना वाह्य जगत् से सम्बन्ध स्थापित करती है। वाह्य जगत् की अनुभूतियों का आस्वादन प्राप्त करती है। वाह्य जगत् एक सा होने पर भी इसकी अनुभूति का रस और आस्वादन का सुख हर एक का अपना निजी होता है। यह निजीपन मन और उसकी वृत्तियों के ऊपर निर्भर है। ये वृत्तियाँ भी कर्मेन्द्रियों एवं ज्ञानेन्द्रियों की ही भाँति पाँच हैं।
  
जहाँ तक मन की बात है, तो परम पूज्य गुरुदेव कहा करते थे कि मन शरीर से बहुत अलग नहीं है। यह शरीर से काफी कुछ जुड़ा और चिपटा है। शरीर से मन का जुड़ाव इस कदर है कि इसे यदि शरीर का सूक्ष्म हिस्सा कहा जाय, तो कोई गलत बात न होगी। यही कारण है शरीर के सुखों-दुःखों से यह सामान्य अवस्था में बुरी तरह प्रभावित होता है। यह भी एक तरह से शरीर ही है, परन्तु योग साधना के बिना इसका अलग अस्तित्व अनुभव नहीं हो पाता। हालाँकि योग साधना करने वाले इस सच्चाई को बड़ी आसानी से जान लेते हैं कि दृश्य शरीर यदि स्थूल शरीर है, तो अपनी शक्तियों एवं सम्भावनाओं के साथ मन सूक्ष्म शरीर है। इसका विकास इस तथ्य पर निर्भर करता है कि मन और उसकी वृत्तियों का किस तरह से उपयोग किया गया?
  
यदि बात दुरुपयोग तक सीमित रही है, मानसिक शक्तियाँ केवल इन्द्रिय भोगों में खपती रही हैं, केवल क्षुद्र स्वार्थ के साधन जुटाए जाते रहे हैं, खोखले अहंकार की प्रतिष्ठा को ही जीवन का सार सर्वस्व समझा गया है, तो फिर मन की पाँचों वृत्तियाँ जीवन में क्लेश का स्रोत साबित होने लगती है। यदि बात इसके उलट है, दिशा मन के सदुपयोग की है, मन को योग साधना में लीन किया गया है, तो मन की यही पाँचों वृत्तियों अक्लेश का स्रोत सिद्ध होती है। मन की पञ्चवृत्तियाँ जिन्दगी में क्लेश की बाढ़ किस तरह लाती है, इसका अनुभव हममें से प्रायः सभी को है। परन्तु इनका अक्लेश के स्रोत के रूप में सिद्ध होना परम पूज्य गुरुदेव द्वारा बताए गए जीवन साधना के स्वर्णिम सूत्रों से ही सम्भव है।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ ३१
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

शनिवार, 29 अगस्त 2020

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग १४)

सावधान! बड़ा बेबस बना सकता है मन

विचारों के प्रवाह के साथ कब एकात्मता सध जाती है, पता ही नहीं चलता। ये विचार कैसे भी हो सकते हैं, किसी भी तरह के हो सकते हैं। विचारों के बादलों के साथ हम एक हो जाते हैं। कई बार सफेद बादलों के साथ, कई बार वर्षा से भरे बादलों के साथ, तो कई बार वर्षा रिक्त खाली बादलों के साथ। लेकिन कुछ भी हो, किसी न किसी विचार के बादल के साथ तादात्म्यता बनी रहती है। और ऐसे में हम आकाश की शुद्धता गँवा देते हैं। अपने आत्मस्वरूप के अन्तरिक्ष की शुद्धता खो देते हैं। और बादलों का यह घिराव घटित ही इस कारण होता है, क्योंकि हम तादात्म्य जोड़ लेते हैं। विचारों के साथ एक हो जाते हैं।
  
ख्याल आता है कि हम भूखे हैं और विचार मन में कौंध जाता है। विचार इतना भर है कि पेट को भूख लगती है। बस, उसी क्षण हम तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं। उसकी आसक्ति से घिर जाते हैं। हम कहने लगते हैं, मैं भूखा हूँ। मुझे भूख लगी है। मन में तो भूख का विचार भर आया था, पर हमने उसके साथ तादात्म्य बना लिया है। हम कहने लगे, मुझे भूख लगी है। बस यही तादात्म्य है।
  
ऐसी बात नहीं है कि ज्ञानियों को, योगियों को, साधकों को, सिद्धों को भूख महसूस नहीं होती। भूख तो वे भी महसूस करते हैं। बुद्ध भी भूख महसूस करते थे, पतंजलि भी भूख महसूस करते हैं। लेकिन पतंजलि कभी यह नहीं कहेंगे कि मुझे भूख लगी है। वे तो बस इतना कहेंगे कि शरीर भूखा है, वे कहेंगे, मेरा पेट भूख महसूस कर रहा है। बुद्ध कहेंगे, भूख तो पेट में है। मैं तो केवल साक्षी भर हूँ। पेट भूखा है, लेकिन योगीजन उसके साक्षी मात्र बने रहेंगे। लेकिन हम सब तादात्म्य बना लेते हैं, विचार के साथ एक हो जाते हैं।
  
विचार और वृत्तियों के बदलते स्वरूप के साथ हमारा तादात्म्य भी बदलता है। कभी हम एक के साथ होते हैं, तो कभी दूसरी, तीसरी, चौथी, और पाँचवी वृत्ति के साथ। ये तादात्म्य ही संसार बनाते हैं। दरअसल यही संसार है। यदि हम तादात्म्यों में हैं, तो संसार में हैं, दुःख में हैं। और यदि इन तादात्म्यों के पार और परे चले गए, तो समझो मुक्त हो गए। योग की परम सिद्धि एवं सम्बोधि की परम अवस्था यही है। यही है निर्वाण और कैवल्य। वृत्तियों से तादात्म्य टूटते ही हम इस दुःख भरे संसार से पार होकर आनन्द के जगत् में प्रविष्ट हो जाते हैं।
  
आनन्द का यह जगत् बिलकुल अभी और यहाँ है। बिलकुल अभी, इसी क्षण। इसके लिए एक पल भी प्रतीक्षा करने की जरूरत नहीं है। बस मन का साक्षी भर होना है। केवल वृत्तियों से नाता तोड़ना है। यह तथ्य कुछ यूँ है-
सुख कहीं मिलेगा, इस भ्रान्ति का नाम संसार है,
सुख अभी है, यहीं है, इस बोध का नाम निर्वाण है,
सुख किसी से मिलेगा, इस भ्रान्ति का नाम संसार है,
सुख अपना स्वभाव है, इस जागृति का नाम मोक्ष है।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ २९
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

गुरुवार, 27 अगस्त 2020

👉 अच्छा लड़ाका क्रोध नहीं करता

वर्ष की अंतिम प्रतियोगिता होने वाली थी मुर्गों की लड़ाई की, एक सम्राट भी अपने मुर्गे को लड़ाई में भेजना चाहता था। तो उसने एक बहुत बड़े झेन फकीर को बुलाया। क्योंकि उस झेन फकीर की बड़ी प्रसिद्धि थी कि उसे युद्ध में कोई हरा नहीं सकता। हराना तो दूर, उसके पास आकर लोग हारने को उत्सुक हो जाते थे। उसके पास हार कर प्रसन्न होकर लौटते थे। उसके साथ हार जाना बड़ी महिमा की बात थी। तो सम्राट ने सोचा कि यह फकीर अगर मुर्गे को तैयार कर दे।

फकीर को बुलाया। मुर्गा फकीर ले गया। तीन सप्ताह बाद सम्राट ने खबर भेजी, मुर्गा तैयार है? फकीर ने कहा, अभी नहीं। अभी तो दूसरे मुर्गे को देख कर वह सिर खड़ा करके आवाज देता है। सम्राट थोड़ा हैरान हुआ कि यह तो ठीक ही लक्षण है। क्योंकि लड़ना है तो सिर खड़ा करके आवाज न दोगे तो दूसरे मुर्गे को डराओगे कैसे?

खैर, कुछ देर और प्रतीक्षा की। फिर तीन सप्ताह बाद पुछवाया। फकीर ने कहा, अभी भी नहीं। अब पुरानी आदत तो जा चुकी है, लेकिन दूसरा मुर्गा आता है तो तन जाता है, तनाव भर जाता है। और तीन सप्ताह बीत गए। फिर पुछवाया। फकीर ने कहा कि अब थोड़ा-थोड़ा तैयार हो रहा है, लेकिन अभी थोड़ी देर है। अब दूसरा मुर्गा कमरे के भीतर आए तो खड़ा तो रहता है, लेकिन भीतर व्यथित हो जाता है, भीतर एक तनाव की रेखा खिंच जाती है। और तीन सप्ताह बाद फकीर ने कहा, अब मुर्गा बिलकुल तैयार है। अब वह ऐसे खड़ा रहता है जैसे न कोई आया, न कोई गया। और अब कोई फिक्र नहीं है। पर सम्राट ने कहा कि यह मुर्गा जीतेगा कैसे? उस फकीर ने कहा, तुम फिक्र ही मत करो; अब हारने की कोई संभावना ही न रही। दूसरे मुर्गे इसे देखते ही भाग खड़े होंगे। इसको लड़ना नहीं पड़ेगा। इसकी मौजूदगी काफी है।

और यही हुआ। जब प्रतियोगिता में मुर्गा खड़ा किया गया। तो दूसरे मुर्गों ने सिर्फ झांक कर उस मुर्गे को देखा; न तो उसने आवाज दी, क्योंकि वह कमजोरी का लक्षण है, वह भय का लक्षण है। भय को छिपाने के लिए वह जोर से कुकडूं कूं बोलता है। वह डरवाना चाहता है आवाज से, लेकिन खुद डरा हुआ है। न तो उस मुर्गे ने आवाज दी, न उस मुर्गे ने देखा। जैसे कुत्ते भौंकते रहते हैं और हाथी गुजर जाता है। ऐसे वह मुर्गा खड़ा ही रहा, जैसे पत्थर की मूर्ति हो। दूसरे मुर्गों ने देखा, उनको कंपकंपी छूट गई। क्योंकि यह तो बड़ा, यह तो मुर्गे जैसा मुर्गा ही नहीं है! इसके पास जाना तो खतरे से खाली नहीं है। वे भाग खड़े हुए। प्रतियोगिता में दूसरे मुर्गे उतर ही न सके।

लाओत्से कहता है, "अच्छा लड़ाका क्रोध नहीं करता।' यह लक्षण है योद्धा का कि वह क्रोध न करे, कि वह उत्तप्त न हो जाए, कि उसका मन ज्वरग्रस्त न हो, कि वह ऐसा शांत बना रहे जैसे बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया हो।

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग १३)

सावधान! बड़ा बेबस बना सकता है मन

परम पूज्य गुरुदेव महर्षि पतंजलि के बारे में कहा करते थे कि वे अद्भुत हैं। वे साधक को तपाने में, उससे साधना कराने में विश्वास करते हैं। उनका इधर-उधर की कहानियाँ-किस्से सुनाने में कतई विश्वास नहीं है। बहलाने-फुसलाने में उनका कोई यकीन नहीं है। एक प्रसंग में गुरुदेव के सामने जब इस सूत्र की चर्चा चली, तो उन्होंने कहा- ‘अब यहीं देखो कैसी दो टूक बात कह दी उन्होंने। साधकों के सामने बिलकुल बात साफ कर दी कि या तो साक्षी भाव को उपलब्ध कर अपने स्वरूप में अवस्थित हो जाओ या फिर वृत्तियों के साथ तादात्म्य करके भटकते रहो। इन दो के अलावा कोई तीसरी सच्चाई नहीं हो सकती। जान सको तो जानो, मान सको तो मानो।’
  
गुरुदेव कहा करते थे, पतंजलि के सूत्र तो साधकों के लिए भेजे गए टेलीग्राम हैं। इनमें इधर-उधर का एक भी फालतू  शब्द नहीं है। कभी-कभी तो एक सूत्र पूरा वाक्य तक नहीं है। वह तो अल्पतम सारभूत है। ये सूत्र ऐसे हैं, जैसे कोई तार करने जाय और वहाँ बेकार के अनावश्यक शब्द काट दे। तार का मतलब ही यही है, कम से कम शब्दों में सम्पूर्ण सन्देश कह दिया जाय। तार की जगह अगर पत्र लिखा जाता, तो शायद दस पन्नें भरने के बावजूद बातें पूरी न हो पाती। लेकिन एक तार में, दस शब्दों में वह केवल पूरा ही नहीं होता, बल्कि पूरे से भी थोड़ा अधिक होता है। वह सीधी हृदय पर चोट करता है। उसमें सारतम होता है।
  
इसी प्रसंग में गुरुदेव ने यह भी बताया कि उनकी मार्गदर्शक सत्ता ने भी उनसे बड़ी सीधी-सपाट भाषा में एकदम थोड़े शब्दों में कहा था, साधना करनी है, तो इन्द्रिय सुखों से मुँह मोड़ना होगा। एकदम रूखी-सूखी जिन्दगी जीनी होगी। ये बातें बताकर वह थोड़ा रूके, फिर कहने लगे- यह तो बाद में पता चला कि इस रूखे-सूखे पन में आनन्द की अनन्तता समायी है। बस यही बात महर्षि पतंजलि के बारे में है। वह बहुत ही रूखी-सूखी धरती पर ले चलेंगे, मरुस्थल जैसी भ्ूामि पर। लेकिन मरुस्थल का अपना सौन्दर्य है। उसमें वृक्ष नहीं होते, उसमें नदियाँ नहीं होती, लेकिन उसका एक अपना विस्तार होता है। किसी जंगल की तुलना उससे नहीं की जा सकती। जंगलों का अपना सौन्दर्य है, पहाड़ियों का अपना सौन्दर्य है, नदियों की अपनी सुन्दरताएँ हैं। मरुस्थल की अपनी विराट् अनन्तता है। हाँ, इस राह पर चलने के लिए हिम्मत की जरूरत है। पतंजलि का हर सूत्र साधकों के साहस के लिए चुनौती है। उनके विवेक को सावधान रहने की चेतावनी है।
  
पतंजलि बिलकुल साफ तौर पर कहते हैं कि यदि आपको, हमको, मनुष्य मात्र को यदि भटकन, उलझन, तनाव, चिन्ता, दुःख, पीड़ा, अवसाद से सम्पूर्ण रूप से मुक्ति पानी है, तो साक्षी भाव को उपलब्ध होने के अलावा अन्य कोई चारा नहीं है। क्योंकि अन्य अवस्थाओं में तो मन की वृत्तियों के साथ तादात्म्य बना ही रहेगा। मनुष्य की प्रकृति ही ऐसी है। यह बात किसी एक पर, किसी व्यक्ति विशेष पर लागू नहीं होती। बात तो सारे मनुष्यों के लिए कही गयी है। मानव प्रकृति की बनावट व बुनावट की यही पहचान है। साक्षी के अतिरिक्त दूसरी सभी अवस्थाओं में मन के साथ तादात्म्य बना रहता है।
  
.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ २८
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 धर्म के नाम पर पाखण्ड

अगणित कुरीतियाँ हमें घेरे हुए हैं। स्वास्थ्य सुधार के लिए, शिक्षा के लिए, मनोरंजन के लिए, दूसरों की भलाई के लिए, आत्मकल्याण के लिए हम कुछ कर नहीं पाते। आधी से अधिक कमाई उन व्यर्थ की बातों में बर्बाद हो जाती है जिनका कोई प्रयोजन नहीं, कोई लाभ नहीं, कोई परिणाम नहीं। धर्म के नाम पर हमारे मनों में जो उच्चकोटि की भावनाएँ उठती हैं दान देने की जो श्रद्धा उत्पन्न होती है उनका लाभ ज्ञान और धर्म बढ़ाने वाले, पीड़ित और पतितों को राहत देने वाले कार्यों की वृद्धि के रूप में विकसित होना चाहिए था पर होता इससे सर्वथा विपरीत है।

काल्पनिक सब्ज बाग दिखाकर संडे-मुसंडे लाल-पीले कपड़े पहनकर लोगों को ठगते रहते हैं। भोले लोग समझते हैं धर्म हो गया, पुण्य कमा लिया, पर वास्तविकता ऐसी कहाँ होती है। धूर्त लोगों को गुलछर्रे उड़ाने के लिए दिया हुआ धन भला धर्म कैसे हो जाएगा? पुण्य कर्म कैसे माना जाएगा? जिसका परिणाम न तो ज्ञान की सत्प्रवृत्तियों की अभिवृद्धि हो और न पीड़ितों को कोई राहत मिले, वह कार्य पाखंड ही रहेगा, धर्म नहीं। आज धर्म के नाम पर पाखंड का बोलबाला है और भोली जनता अपनी गाढ़ी कमाई का अरबों रुपया उसी पाखंड पर स्वाहा कर देती है।

पाखण्डों पर खर्च होने वाला समय और धन यदि उपयोगी कार्यों में लगे तो उसका कितना बड़ा सत्परिणाम उत्पन्न हो। मृत्युभोज, पशुबलि, बालविवाह, नींच-ऊँच, स्याने, दिवाने, भूत पलीत, कन्या विक्रय, स्त्रियों द्वारा गाये जाने वाले गन्दे गीत, पर्दा, होली में कीचड़ उछालना, दिवाली पर जुआ खेलना आदि अगणित ऐसी कुरीतियाँ हमारे समाज में प्रचलित हैं, जिनके कारण अनेक रोगों से ग्रसित रोगी की तरह हम सामाजिक दृष्टि से दिन-दिन दुर्बल होते चले जा रहे हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1962

👉 Due to bad karma, fallen ascetic became demons

Ravana was a wise man. Through his austerities he had acquired great capabilities. In spite of all this, due to his abominable behavior, God himself had to take birth on the planet to kill him. Example of Bhasmasur, illustrates that even after having reached a high spiritual state, without any compellations, due to ill state of mind one digs a hole for himself. Similarly, great powerful fighters like Hiranyaksh and Hiranyakashyapu had to die due to evil state of mind and behavior. 

Durga killed Shumbh-Nishumbh, Madhukaitabh and Mahishasur. Parshuramji killed Sahasrabahu and Shri Krishna killed Vanasur. Bhim killed Jarasandh. Shoorpnakha used to tease Rishis performing austerities in Khardooshan forest. Tadka used to disturb the yagyas. Bali had out thrown his younger brother and kept his wife with him. Ram and Lakshman killed all of them and ended their tyranny.

Pragya Puran Part 1

बुधवार, 26 अगस्त 2020

👉 कौन सा रास्ता सही

एक गरीब युवक, अपनी गरीबी से परेशान होकर, अपना जीवन समाप्त करने नदी पर गया, वहां एक साधू ने उसे ऐसा करने से रोक दिया। साधू ने, युवक की परेशानी को सुन कर कहा, कि मेरे पास एक विद्या है, जिससे ऐसा जादुई घड़ा बन जायेगा जो भी इस घड़े से मांगोगे, ये जादुई घड़ा पूरी कर देगा, पर जिस दिन ये घड़ा फूट गया, उसी समय, जो कुछ भी इस घड़े ने दिया है, वह सब गायब हो जायेगा।

अगर तुम मेरी 2 साल तक सेवा करो, तो ये घड़ा, मैं तुम्हे दे सकता हूँ और, अगर 5 साल तक तुम मेरी सेवा करो, तो मैं, ये घड़ा बनाने की विद्या तुम्हे सिखा दूंगा। बोलो तुम क्या चाहते हो, युवक ने कहा, महाराज मैं तो 2 साल ही आप  की सेवा करना चाहूँगा , मुझे तो जल्द से जल्द, बस ये घड़ा ही चाहिए, मैं इसे बहुत संभाल कर रखूँगा, कभी फूटने ही नहीं दूंगा।

इस तरह 2 साल सेवा करने के बाद, युवक ने वो जादुई घड़ा प्राप्त कर लिया, और अपने घर पहुँच गया।

उसने घड़े से अपनी हर इच्छा पूरी करवानी शुरू कर दी, महल बनवाया, नौकर चाकर मांगे, सभी को अपनी शान शौकत दिखाने लगा, सभी को बुला-बुला कर दावतें देने  लगा और बहुत ही विलासिता का जीवन जीने लगा, उसने शराब भी पीनी शुरू कर दी और एक दिन नशें में, घड़ा सर पर रख नाचने लगा और ठोकर लगने से घड़ा गिर गया और फूट गया.

घड़ा फूटते ही सभी कुछ गायब हो गया, अब युवक सोचने लगा कि काश मैंने जल्दबाजी न की होती और घड़ा बनाने की विद्या सीख ली होती, तो आज मैं, फिर से कंगाल न होता।

"ईश्वर हमें हमेशा 2 रास्ते पर रखता है एक आसान -जल्दी वाला और दूसरा थोडा लम्बे समय वाला, पर गहरे ज्ञान वाला, ये हमें चुनना होता है की हम किस रास्ते पर चलें"

"कोई भी काम जल्दी में करना अच्छा नहीं होता, बल्कि उसके विषय में गहरा ज्ञान आपको अनुभवी बनाता है।"

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग १२)

सावधान! बड़ा बेबस बना सकता है मन

समर्पण हुआ, तो निश्चित ही साक्षी भाव की अनुभूति होगी और साधक अपने स्वरूप में अवस्थित होगा। पर यदि समर्पण न हो सका तब? इस प्रश्न का उत्तर महर्षि पतंजलि अपने अगले सूत्र यानि कि समाधि पाद के चौथे सूत्र में देते हैं। वह कहते हैं-
वृत्तिसारूप्यमितरत्र॥ १/४॥
  
साक्षी होने के अलावा अन्य सभी अवस्थाओं में मन की वृत्तियों के साथ तादात्म्य हो जाता है। ये वृत्तियाँ साधक की अन्तर्चेतना को मनचाहा भटकाती हैं। सुख-दुख के सपने दिखाती हैं। कभी हँसाती हैं, कभी रुलाती हैं। इच्छाओं के कच्चे धागों से बाँधती हैं। कल्पनाओं और कामनाओं की मदिरा पिला कर बेहोश करती हैं।
  
साक्षी होने के अतिरिक्त अन्य सभी अवस्थाओं का यही सत्य है। जिसे हम सभी किसी न किसी रूप में रोजमर्रा की जिन्दगी में अनुभव करते रहते हैं। मजे की बात तो यह है कि यदा-कदा हम में से कई या यूं कहें कि प्रायः हम सभी इन्हीं कामनाओं की तृप्ति के लिए साधना भी करने लगते हैं। गाढ़ी बेहाशी को और गाढ़ा करने के लिए जप-तप-व्रत का सिलसिला शुरू करते हैं। इसकी सफलताओं पर खुशियों की अठखेलों से खेलते हैं और असफल होने पर गम के आँसूओं से अपने-आपको भिगोते हैं। वृत्तियों का यह बहुरंगी तमाशा हमारे जीवन का सामान्य परिचय है। इसमें स्वप्न तो अनेक हैं, सत्य एक भी नहीं। इसी तथ्य का संकेत महर्षि के सूत्र में है।
  
.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ २७
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 सामाजिक कुरीतियों की जंजीर सत्यानाशी विवाहोन्माद

हम अपनी सामाजिक कुरीतियों पर ध्यान दें तो लगता है कि लोहे की गरम सलाखों से बनी हुई जंजीरों की तरह वे हमें जकड़े हुए हैं और हर घड़ी हमारी नस-नस को जलाती रहती हैं। घर में तीन−चार कन्याएं जन्म ले ले तो माता−पिता की नींद हराम हो जाती है। वे जैसे-जैसे बढ़ने लगती हैं वैसे ही वैसे अभिभावकों का खून सूखता चला जाता है। विवाह—आह विवाह—कन्या का विवाह उनके माता-पिता के यहाँ डकैती, लूट, बर्बादी होने के समान है। आजकल साधारण नागरिकों की आमदनी इतनी ही मुश्किल से हो पाती है कि वे अपना पेट पाल सके। जितना धन दहेज के लिए चाहिए उतना जमा करना तभी संभव है जब या तो कोई आदमी अपना पेट काटे, नंगा रहे, दवादारू के बिना भाग्य भरोसे बीमारी से निपटे, बच्चों को शिक्षा न दे या फिर कहीं से बेईमानी करके लावे।

इन उपायों के अतिरिक्त सामान्य श्रेणी के नागरिक के लिए उतना धन जमा करना कैसे संभव हो सकता है, जितने कि कन्या के विवाह में जरूरत पड़ती है—माँगा जाता है। यह संकट कौन कन्या का पिता किस पीड़ा और चिन्ता के साथ पार करता है, इसके पीछे लम्बी करुण कहानी छिपी रहती है। कर्ज का ब्याज, भावी जीवन में अँधेरा शेष बच्चों की शिक्षा एवं प्रगति में गतिरोध जैसी आपत्तियों को कन्या का विवाह अपने पिता और छोटे भाई−बहिनों के लिए छोड़ जाता है। विवाह का पत्थर छाती पर से हटा तो अर्थ संकट का आरा अपनी काट शुरू कर देता है। कई कन्याएँ हैं तब तो जीवित ही मृत्यु है। मृत्यु एक दिन कष्ट देकर शाँति की गोद में सुला देती है पर यह जीवित मृत्यु तो पग-पग पर काटती, नोचती, छेदती और चीरती रहती है।

हमारे हिन्दू समाज में विवाह शादी के अवसर पर जैसा अन्धापन और बावलापन छा जाता है उसे देखकर हैरत होती है। पृथ्वी के एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक घूम जाइए, कोई भी देश, कोई भी धर्म, कोई भी समाज ऐसा न मिलेगा। जहाँ विवाह-शादियों के अवसर पर पैसे की ऐसी होली जलाई जाती हो जैसी हमारे यहाँ जलाई जाती है। बरात की निकासी, आतिशबाजी, बाजे, नाच, स्वाँग, दावत, जाफत देखकर ऐसा लगता है कि यह शादी वाले कोई लखपती, करोड़पती हैं और अपने अनाप-शनाप पैसे का कोई उपयोग न देखकर उसकी होली जला देने पर उतर आये हैं। जिन्हें अपने बच्चों का लालन-पालन और शिक्षण दुर्लभ है वे यदि ऐसे स्वाँग बनावें जैसे कि विवाह के दिनों में आमतौर से बनाये जाते हैं तो उसे समझदारी की कसौटी पर केवल ‘उन्माद’ ही कहा जा सकता है। सारी दुनियाँ में कही भी ऐसा ‘सत्यानाशी विवाहोन्माद’ नहीं देखा जाता। मामूली-सी रस्म की तरह, एक बहुत छोटे घरेलू उत्सव की तरह लोग विवाह-शादी कर लेते हैं। भार किसी को नहीं पड़ता, तैयारी किसी को नहीं करनी पड़ती। पर एक हम हैं जिनके जीवन में बच्चों का विवाह ही जीवन भर भारी समस्या बना रहता है, और इसी उलझन को सुलझाते-सुलझाते मर खप जाते हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1962

👉 Whatever we have, is it less ?

A person went to a Mahatma and said, “Life is short. What all activities to do in such duration? You don’t have knowledge in childhood, old age is worse. You don’t get proper sleep and the diseases also bother. In the youth, we have to look after the family then how do we get the real knowledge? When do we do social service? Getting time in this life doesn’t seem happening.” Saying this he gets depressed and starts crying. 

Seeing him, the Mahatma also starts crying. The man asked, “Why are you crying?” The Mahatma said, “Son, what to do, I need food grains to eat. But I don’t have the land to grow grains. I am dying of hunger. One part of God is Maya (illusion). One part of Maya has three qualities. One part of the qualities is the sky. Sky has air and the air has fire. One part of the fire has water. One hundredth of water is earth. Mountains cover half of the earth. Then there are so many rivers and forests here and there. God has not even left a small piece of land for me. Different people have already occupied whatever little land was there. Tell me will I not starve then?” 

The person said to him,”In spite of all this you are alive, right? Then why do you cry?” The Mahatma said instantaneously, “You also have time and this invaluable life then why are you complaining that you don’t have enough time and life is getting spent away. From now on don’t complain about lack of time. At least use whatever you have.” 

It doesn’t suit human being, the prince of God’s kingdom, to complain about lack of resources. The desire of converting one’s incompleteness into the complete is only acceptable and desirable if it pertains to the inner spiritual space. But such a complaint is uncalled for when the external resources are in plenty. 

Pragya Puran Part 1

मंगलवार, 25 अगस्त 2020

👉 अनलहंक, अहं ब्रह्मास्मि!

अलहिल्लज मंसूर एक प्रसिद्ध सूफी हुआ, जिसका अंग-अंग काट दिया मुसलमानों ने, क्योंकि वह ऐसी बातें कह रहा था जो कुरान के खिलाफ पड़ती थीं। धर्म के खिलाफ नहीं। मगर किताबें बड़ी छोटी हैं, उनमें धर्म समाता नहीं। अलहिल्लज मंसूर की एक ही आवाज थी--- अनलहंक, अहं ब्रह्मास्मि! और यह मुसलमानों के लिए बरदाश्त के बाहर था कि कोई अपने को ईश्वर कहे। उन्होंने उसे जिस तरह सताकर मारा है, उस तरह दुनिया में कोई आदमी कभी नहीं मारा गया। उस दिन दो धटनाएं घटी। मंसूर का गुरू जुन्नैद, सिर्फ गुरू ही रहा होगा। गुरू जो कि दर्जनों में खरीदे जा सकते हैं, हर जगह मौजूद हैं, गांव-गांव में मौजूद हैं। कुछ भी कान में फूंक देते हैं और गुरू बन जाते हैं।

जुन्नैद उसको कह रहा था कि देख, भला तेरा अनुभव सच हो कि तू ईश्वर है, मगर कह मत। अलहिल्लज कहता कि यह मेरे बस के बाहर है। क्योंकि जब मैं मस्ती मे छाता हूं और जब मौज की घटनाएँ मुझे घेर लेती है, तब न तुम मुझे याद रहते हो न मुसलमान याद रहते हैं, न दुनिया याद रहती हैं, न जीवन न मौत। तब मैं अनलहक का उदघोष करता हूं ऐसा नहीं है। उदघोष हो जाता है। मेरी सांस-सांस में वह अनुभव व्याप्त है।

अंततः वह पकड़ा गया। जिस दिन वह पकड़ा गया, वह अपनी ही परिक्रमा कर रहा था। लोगों ने पूछा, यह तुम क्या कर रहे हो? ये दिन तो काबा जाने के दिन हैं। और जाकर काबा के पवित्र पत्थर के चक्कर लगाने के दिन हैं। तुम खड़े होकर खुद ही अपने चक्कर दे रहे हो? मंसूर ने कहा, कोई पत्थर अहं ब्रह्मास्मि का अनुभव नहीं कर सकता, जो मैं अनुभव करता हूं। अपना चक्कर दे लिया, हज हो गईं। बिना कहीं गए, घर बैठे अपने ही आंगन में ईश्वर को बुला लिया। ऐसी सच्ची बातें कहने वाले आदमी को हमेशा मुसीबत में पड़ जाना है। उसे सुली पर लटकाया गया, पत्थर फेंके गए, वह हंसता रहा। जुन्नैद भी भीड़ में खड़ा था। जुन्नैद डर रहा था कि अगर उसने कुछ भी न फेंका तो भीड़ समझेगी कि वह मंसूर के खिलाफ नहीं है। तो वह एक फूल छिपा लाया था। पत्थर तो वह मार नहीं सकता था। वह जानता था कि मंसूर जो भी कह रहा है, उसकी अंतर-अनुभूति है। हम नहीं समझ पा रहे हैं; यह हमारी भूल है। उसने फूल फेंककर मारा।

उस भीड़ मे जहां पत्थर पड़ रहे थे...जब तक पत्थर पड़ते रहे, मंसूर हंसता रहा। और जैसे ही फूल उसे लगा, उसकी आंखों से आंसू टपकने लगे! किसी ने पूछा कि क्यों पत्थर तुम्हें हंसते हैं, फूल तुम्हें रूलाते हैं? मंसूर ने कहा, पत्थर जिन्होंने मारे थे वे अनजान थे। फूल जिसने मारा है, उसे वहम है कि वह जानता है। उस पर मुझे दया आती है। मेरे पास उसके लिए देने को आंसूओं के सिवाय और कुछ भी नहीं है। और जब उसके पैर काटे गए और हाथ काटे गए, तब उसने आकाश की ओर देखा और जोर से खिलखिलाकर हंसा। लहूलुहान शरीर, लाखों की भीड़। लोगों ने पूछा, तुम क्यों हंस रहे हो? तो उसने कहा, मै ईश्वर को कह रहा हूं कि क्या खेल दिखा रहे हो! जो नहीं मर सकता उसे मारना का इतना आयोजन...। नाहक इतने लोगों का समय खराब कर रहे हो। और इसलिए हंस रहा हूं कि तुम जिसे मार रहे हो, वह मैं नहीं हूं। और जो मैं हूं, उसे तुम छू भी नहीं सकते। तुम्हारी तलवारें उसे नहीं काट सकती। और तुम्हारी आगे उसे नहीं जला सकती। एक बार अपने जीवन की धारा से थोड़ा सा परिचय हो जाए, मौत का भय मिट जाता है।

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ११)

परम पूज्य गुरुदेव के जीवन में इस सूत्र का जागरण अपने सद्गुरु से प्रथम मिलन में ही हो गया। वह जन्मों-जन्मों की योग साधना से सिद्ध थे। महात्मा कबीर, समर्थ रामदास, श्रीरामकृष्ण परमहंस के रूप में उन्होंने योग के सभी तत्त्वों का सम्यक् बोध प्राप्त किया था। इस बार तो उन्हीं की भाषा में- ‘सिर्फ पिसे को पीसना था, कुटे को कूटना था, बने को बनाना था। यानि कि किए हुए का पुनरावलोकन करना था। सद्गुरु की कृपा की किरण उतरी बस एक पल में हो गया।’ अपनी इस अनुभूति को गुरुदेव यदा-कदा हँसते हुए बता देते थे। वह कहते- ‘तुम लोग एक बार यदि बहुत अच्छी तरह से साइकिल चलाना सीख जाओ, तुम्हें खूब ढंग से साइकिल चलाना आ जाए। फिर तुम्हारी साइकिल यदि किसी तरह बदल जाय या बदल दी जाय, तो नई साइकिल में किसी तरह की कठिनाई नहीं आती है। बस थोड़ी देर बाद नयी साइकिल भी पुरानी वाली की तरह अच्छे से चलने लगती है।’
  
गुरुदेव बताते थे, बस कुछ ऐसा ही मेरे साथ हुआ। अपने स्वरूप में स्थिति तो सदा से थी। पिछले जन्मों से थी। इस नए शरीर में भी उसके लिए कोई खास कठिनाई नहीं हुई। लेकिन हम सब साधकगण इसे किस रीति से पाएँ? इसके जवाब में वह एक बात कहा करते थे- सारा परदा मन का है। मन के इस परदे को हटा दो, फिर सब कुछ साफ-साफ नजर आने लगता है। द्रष्टा भाव भी वही है, आत्मस्वरूप में स्थिति भी वही है। बस, मन की झिलमिल के कारण नजर नहीं आ पाती। बात पते की है। समझ में भी आती है। लेकिन यह हो कैसे? मन का परदा हटे, तो कैसे हटे। महर्षि पतंजलि भी यही कहते हैं कि चित्तवृत्तियों का निरोध हो, तो योग सध जाय। योग साधना का सुफल मिल जाय। अपने स्वरूप में अवस्थित हो जाय। लेकिन सवाल है कि यह सब हो तो कैसे हो?
  
इस कठिन सवाल का बड़ा आसान सा जवाब गुरुदेव देते थे। वह कहते मैंने अपने मन को अपने मार्गदर्शक का गुलाम बना दिया। तुम अपने मन को अपने सद्गुरु का गुलाम बना दो। उन्हें अर्पित और समर्पित कर दो। तुम ऐसा कर सके-इसकी एक ही कसौटी है कि अब तुम अपने लिए नहीं सोचोगे। न अतीत के लिए परेशान होगे, न वर्तमान के लिए विकल होगे और न ही भविष्य की चिन्ता करोगे। तुम्हारे लिए जो कुछ जरूरी होगा, वह सद्गुरु स्वयं करेंगे। तुम्हें तो बस अपने गुरु का यंत्र बनना है। इस संकल्प के कार्यरूप में परिणत होते ही महर्षि पतंजलि के इस सूत्र का अर्थ प्रकट होने लगता है। चित्त की वृत्तियों का निरोध होने, मन का परदा हटने व स्वरूप में अवस्थित होने का सत्य अपने आप ही उजागर हो जाता है।
  
इस सूत्र की साधना अन्तर्चेतना में कुछ इस तरह से स्वरित होती है-
महर्षि पतंजलि का सूत्र
बना अपने सद्गुरु का स्वर
इसका समग्र अर्थ
अन्तर्चेतना में तब होता भास्वर
जब हमारा मन
उसका हर स्पन्दन
करता गुरुदेव को समर्पण
न बचती कोई कल्पना
न कामना, न याचना
होती बस एक ही प्रार्थना
प्रभु, बनें हम आपके यंत्र
समर्पण की वर्णमाला
एकमात्र मंत्र
इसका सुफल
होता जीवन में अविकल
आत्मस्वरूप में अवस्थिति
तब बनती जीवन स्थिति!

समर्पण हुआ है, इसका मतलब यही है कि अब मन सद्गुरु के चिन्तन एवं उनके कार्यों में संलग्न हो गया। किसी भी तरह के स्वार्थ का मोह छूटा, अहंता के सारे बन्धन टूटे। ऐसे में आत्मस्वरूप में अवस्थिति सहज है। इस भाव दशा में मन रूपान्तरित हो जाता है। उसकी दृष्टि एवं दिशा बदल जाती है। समर्पण की इस साधना के द्वारा अपने स्वरूप को जानने, पाने एवं अवस्थित होने में मन अनेकों विघ्न खड़े करता हैं।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ २५
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 सभ्य नागरिक का पवित्र कर्त्तव्य

समाज शास्त्र के अनुसार प्रत्येक सभ्य नागरिक का यह पवित्र कर्तव्य है कि बुराइयों से वह स्वयं बचे और दूसरों को बचावे। जो स्वयं तो पाप नहीं करता पर पापियों का प्रतिरोध नहीं करता वह एक प्रकार से पाप को पोषण ही करता है। क्योंकि जब कोई बाधा देने वाला ही न होगा तो पाप और भी तीव्र गति से बढ़ेगा? हम सब एक नाव में बैठे हैं यदि इन बैठने वालों में से कोई नाव के पेंदे में छेद करे या उछलकूद मचाकर नाव को डगमगाये तो बाकी बैठने वालों का कर्तव्य है कि उसे ऐसा करने से रोकें। यदि न रोका जाएगा तो नाव का डूबना और सब लोगों का संकट में पड़ना संभव है। यदि उस उपद्रवी व्यक्ति को अन्य लोग नहीं रोकते हैं तो उन्हें यह कहने का अधिकार नहीं है कि क्या करें, हमारा क्या कसूर है, हमने नाव में छेद थोड़े ही किया था। छेद करने वाले को न रोकना भी स्वयं छेद करने के समान ही घातक है। मनुष्य समाज परस्पर इतनी घनिष्ठता से जुड़ा हुआ है कि दूसरों को भुगतना पड़ता है। जयचन्द और मीरजाफर की गद्दारी से सारे भारत की जनता को कितने लम्बे समय की गुलामी की यातनाएँ सहनी पड़ीं।

हमारे समाज में यदि चारों ओर अज्ञान, अविवेक, कुसंस्कार, अन्धविश्वास, अनैतिकता, अशिष्टता का वातावरण फैला रहेगा तो उसका प्रभाव हमारे अपने ऊपर न सही तो अपने परिवार के अल्प विकसित लोगों पर अवश्य पड़ेगा। जिस स्कूल के बच्चे गंदी गालियाँ देते हैं उसमें पढ़ने जाने पर हमारा बच्चा भी गालियाँ देना सीखकर आएगा। गंदे गीत, गंदे फिल्म, गंदे प्रदर्शन, गंदी पुस्तकें, गंदे चित्र कितने असंख्य अबोध मस्तिष्कों पर अपना प्रभाव डालते हैं और उन्हें कितना गंदा बना देते हैं, इसे हम प्रत्यक्ष अपनी आँखों से देख सकते हैं। दो वेश्याएँ किसी मुहल्ले में आकर रहती हैं और वे सारे मुहल्ले में शारीरिक या मानसिक व्यभिचार के कीटाणु फैला देती हैं। शारीरिक न सही, मानसिक व्यभिचार तो उस मुहल्ले के अधिकाँश निवासियों के मस्तिष्क में घूमने लगता है। यदि मुहल्ले वाले उन वेश्याओं को हटाने का प्रयत्न न करें तो उनके अपने नौजवान लड़के बर्बाद हो जावेंगे। बुराई की उपेक्षा करना पर्याप्त नहीं है, पाप की ओर से आँखें बंद किये रहना सज्जनता की निशानी नहीं है। इससे तो अनाचार की आग ही फैलेगी और उसकी लपेटों से हम स्वयं भी अछूते न रह सकेंगे।

समाज में पनपने वाली दुष्प्रवृत्तियों को रोकना केवल सरकार का ही काम नहीं है, वरन् उसका पूरा उत्तरदायित्व सभ्य नागरिकों पर है। प्रबुद्ध और मनस्वी लोग जिस बुराई के विरुद्ध आवाज उठाते हैं वह आज नहीं तो कल मिटकर रहती हैं। अँग्रेजों के फौलादी चंगुल में जकड़ी हुई भारत की स्वाधीनता को मुक्त कराने के लिए−गुलामी के बंधन तोड़ने के लिए जब प्रबुद्ध लोगों ने आवाज उठाई तो क्या वह आवाज व्यर्थ चली गई! देर लगी, कष्ट आये पर वह मोर्चा सफल ही हुआ। समाजगत अनैतिकता, अविवेक, अन्धविश्वास और असभ्यता इसलिए जीवित है कि उनका विरोध करने के लिए वैसी जोरदार आवाजें नहीं उठतीं जैसी राजनैतिक गुलामी के विरुद्ध उठी थीं। यदि उसी स्तर का प्रतिरोध उत्पन्न किया जा सके तो हमारी सामाजिक गंदगी निश्चय ही दूर हो सकती है, सभ्य समाज के सभ्य नागरिक कहलाने का गौरव हम निश्चय ही प्राप्त कर सकते हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1962

👉 Cost of body parts

A person went to a saint. ”I am unlucky. I don’t have anything. It’s better to die than to live such a life.” The saint said, “Do you have any idea of the things you have? If not then I’ll give you. What are you willing to take in return of your one arm, one leg and one eye? I am ready to give 100 gold coins for each of the parts.” The person said, “I can’t give them, how will I live without them?” The saint said, “Fool, you already have property worth crores, then also you are crying for having nothing”. 

There are many such people who don’t recognize their true worth and consider themselves unlucky. They realize when some enlightened one teaches them lesson. 

Pragya Puran Part 1

शनिवार, 22 अगस्त 2020

👉 मन के पार जाना

मन के पार जाना, उन्मन होना। जिसको झेन सन्त नो माइंड कहते हैं।

एक ऐसी दशा अपने भीतर खोज लेनी है जहां कुछ भी स्पर्श नहीं करता। और वैसी दशा भीतर छिपी पड़ी है। वही है आत्मा। और जब तक उसे न जाना तब तक उस एक को नहीं जाना, जिसे जानने से सब जान लिया जाता है। उस एक को जानने से फिर द्वंद्व मिट जाता है। फिर दो के बीच चुनाव नहीं रह जाता, अचुनाव पैदा होता है। उस अचुनाव में ही आनंद है, सच्चिदानंद है।

जनक के जीवन में एक उल्लेख है।

जनक रहते तो राजमहल में थे, बड़े ठाठ— बाट से। सम्राट थे और साक्षी भी। अनूठा जोड़ था। सोने में सुगंध थी। भगवान बुद्ध साक्षी हैं यह कोई बड़ी महत्वपूर्ण बात नहीं। भगवान महावीर साक्षी हैं यह कोई बड़ी महत्वपूर्ण बात नहीं, सरल बात है। सब छोड़ कर साक्षी हैं। जनक का साक्षी होना बड़ा महत्वपूर्ण है। सब है और साक्षी हैं।

एक गुरु ने अपने शिष्य को कहा कि तू वर्षों से सिर धुन रहा है और तुझे कुछ समझ नहीं आती। अब तू मेरे बस के बाहर है। तू जा, जनक के पास चला जा। उसने कहा कि आप जैसे महाज्ञानी के पास कुछ न हुआ तो यह जनक जैसे अज्ञानी के पास क्या होगा? जो अभी महलों में रहता, नृत्य देखता है। आप मुझे कहां भेजते हैं? लेकिन गुरु ने कहा, तू जा।

गया शिष्य। बेमन से गया। न जाना था तो भी गया, क्योंकि गुरु की आज्ञा थी तो आज्ञानवश गया। था तो पक्का कि वहां क्या मिलेगा। मन में तो उसके निंदा थी। मन में तो वह सोचता था, उससे ज्यादा तो मैं ही जानता हूं।

जब वह पहुंचा तो संयोग की बात, जनक बैठे थे, नृत्य हो रहा था। वह तो बड़ा ही नाराज हो गया। उसने जनक को कहा, महाराज, मेरे गुरु ने भेजा है इसलिए आ गया हूं। भूल हो गई है। क्यों उन्होंने भेजा है, किस पाप का मुझे दंड दिया है यह भी मैं नहीं जानता। लेकिन अब आ गया हूं तो आपसे यह पूछना है कि यह अफवाह आपने किस भांति उड़ा दी है कि आप ज्ञान को उपलब्ध हो गए हैं?

यह क्या हो रहा है यहां? यह राग—रंग चल रहा है। इतना बड़ा साम्राज्य, यह महल, यह धन—दौलत, यह सारी व्यवस्था, इस सबके बीच में आप बैठे हैं तो ज्ञान को उपलब्ध कैसे हो सकते हैं? त्यागी ही ज्ञान को उपलब्ध होते हैं।

सम्राट जनक ने कहा, तुम जरा बेवक्त आ गए। यह कोई सत्संग का समय नहीं है। तुम एक काम करो, मैं अभी उलझा हूं। तुम यह दीया ले लो। पास में रखे एक दीये को दे दिया और कहा कि तुम पूरे महल का चक्कर लगा आओ। एक—एक कमरे में हो आना। मगर एक बात खयाल रखना, इस महल की एक खूबी है; अगर दीया बुझ गया तो फिर लौट न सकोगे, भटक जाओगे।

बड़ा विशाल महल था। दीया न बुझे इसका खयाल रखना। सब महल को देख आओ। तुम जब तक लौटोगे तब तक मैं फुरसत में हो जाऊंगा, फिर सत्संग के लिए बैठेंगे। वह गया युवक उस दीये को लेकर। उसकी जान बड़ी मुसीबत में फंसी। महलों में कभी आया भी नहीं था। वैसे ही यह महल बड़ा तिलिस्मी, इसकी खबरें उसने सुनी थीं कि इसमें लोग खो जाते हैं, और एक झंझट। और यह दीया अगर बुझ जाए तो जान पर आ बने। ऐसे ही संसार में भटके हैं, और संसार के भीतर यह और एक झंझट खड़ी हो गई। अभी संसार से ही नहीं छूटे थे और एक और मुसीबत आ गई।

लेकिन अब महाराजा जनक ने कहा है और गुरु ने भेजा है तो वह दीये को लेकर गया बड़ा डरता—डरता। महल बड़ा सुंदर था; अति सुंदर था। महल में सुंदर चित्र थे, सुंदर मूर्तियां थीं, सुंदर कालीन थे, लेकिन उसे कुछ दिखाई न पड़ता।

वह तो इसे ही देख रहा है कि दीया न बुझ जाए। वह दीये को सम्हाले हुए है। और सारे महल का चक्कर लगा कर जब आया तब निश्चित हुआ। दीया रख कर उसने कहा कि महाराज, बचे। जान बची तो लाखों पाए,लौट कर घर को आए। यह तो जान पर ऐसी मुसीबत हो गई, हम सन्यासी आदमी और यह महल जरूर उपद्रव है, मगर दीये ने बचाया।

सम्राट ने कहा, छोड़ो दीये की बात; तुम यह बताओ, कैसा लगा? उसने कहा, किसको फुरसत थी देखने की? जान फंसी थी। जान पर आ गई थी। दीया देखें कि महल देखें? कुछ देखा नहीं।

सम्राट ने कहा, ऐसा करो, अब आ गए हो तो रात रुक जाओ। सुबह सत्संग कर लेंगे। तुम भी थके हो और यह महल का चक्कर भी थका दिया है। और मैं भी थक गया हूं। बड़े सुंदर भवन में बड़ी बहुमूल्य शय्या पर उसे सुलाया। और जाते वक्त सम्राट कह गया कि ऊपर जरा खयाल रखना। ऊपर एक तलवार लटकी है। और पतले धागे में बंधी है—शायद कच्चे धागे में बंधी हो। जरा इसका खयाल रखना कि यह कहीं गिर न जाए। और इस तलवार की यह खूबी है कि तुम्हारी नींद लगी कि यह गिरी।

उसने कहा, क्यों फंसा रहे हैं मुझको झंझट में? दिन भर का थका—मादा जंगल से चल कर आया, यह महल का उपद्रव और अब यह तलवार! सम्राट ने कहा, यह हमारी यहां की व्यवस्था है। मेहमान आता है तो उसका सब तरह का स्वागत करना।

रात भर वह पड़ा रहा और तलवार देखता रहा। एक क्षण को पलक झपकने तक में घबडाए कि कहीं तलवार भ्रांति से भी समझ ले कि सो गया और टपक पड़े तो जान गई। सुबह जब सम्राट ने पूछा तो वह तो आधा हो गया था सूखकर, कि कैसी रही रात? बिस्तर ठीक था?

उसने कहा, कहा की बातें कर रहे हैं! कैसा बिस्तर? हम तो अपने झोपड़े में जहां जंगल में पड़े रहते थे वहीं सुखद था। ये तो बड़ी झंझटों की बातें हैं। रात एक दीया पकड़ा दिया कि अगर बुझ जाए तो खो जाओ। अब यह तलवार लटका दी। रात भर सो भी न सके, क्योंकि अगर यह झपकी आ जाए.. .उठ—उठ कर बैठ जाता था रात में। क्योंकि जरा ही डर लगे कि झपकी आ रही है कि तलवार टूट जाए। कच्चे धागे में लटकी है।

गरीब आदमी हूं कहां मुझे फंसा दिया! मुझे बाहर निकल जाने दो। मुझे कोई सत्संग नहीं करना। सम्राट ने कहा, अब तुम आ ही गए हो तो भोजन तो करके जाओ। सत्संग भोजन के बाद होगा। लेकिन एक बात तुम्हें और बता दूं कि तुम्हारे गुरु का संदेश आया है कि अगर सत्संग में तुम्हें सत्य का बोध न हो सके तो जान से हाथ धो बैठोगे। शाम को सूली लगवा देंगे। सत्संग में बोध होना ही चाहिए।

उसने कहा, यह क्या मामला है? अब सत्संग में बोध होना ही चाहिए यह भी कोई मजबूरी है? हो गया तो हो गया, नहीं हुआ तो नहीं हुआ। यह मामला...। सम्राट जनक ने कहा तुम्हें राजाओं—महाराजाओं का हिसाब नहीं मालूम। तुम्हारे गुरु की आज्ञा है। हो गया बोध तो ठीक, नहीं हुआ बोध तो शाम को सूली लग जाएगी। अब वह भोजन करने बैठा। बड़ा सुस्वादु भोजन है, सब है, मगर कहां स्वाद? अब यह घबड़ाहट कि तीस साल गुरु के पास रहे तब बोध नहीं हुआ, इसके पास एक सत्संग में बोध होगा कैसे?

किसी तरह भोजन कर लिया। सम्राट ने पूछा, स्वाद कैसा— भोजन ठीक—ठाक? उसने कहा, आप छोड़ो। किसी तरह यहां से बच कर निकल जाएं, बस इतनी ही प्रार्थना है। अब सत्संग हमें करना ही नहीं है।

सम्राट ने कहा, बस इतना ही सत्संग है कि जैसे रात तुम दीया लेकर घूमे और बुझने का डर था, तो महल का सुख न भोग पाए, ऐसा ही मैं जानता हूं कि यह दीया तो बुझेगा, यह जीवन का दीया बुझेगा यह बुझने ही वाला है।

रात दीये के बुझने से तुम भटक जाते। और यह जीवन का दीया तो बुझने ही वाला है। और फिर मौत के अंधकार में भटकन हो जाएगी। इसके पहले कि दीया बुझे, जीवन को समझ लेना जरूरी है। मैं हूं महल में, महल मुझमें नहीं है।

रात देखा, तलवार लटकी थी तो तुम सो न पाए। और तलवार प्रतिपल लटकी है। तुम पर ही लटकी नहीं, हरेक पर लटकी है। मौत हरेक पर लटकी है। और किस भी दिन, कच्चा धागा है, किसी भी क्षण टूट सकता है। और मौत कभी भी घट सकती है। जहां मौत इतनी सुगमता से घट सकती है वहां कौन उलझेगा राग—रंग में न: बैठता हूं राग—रंग में; उलझता नहीं हूं।

अब तुमने इतना सुंदर भोजन किया लेकिन तुम्हें स्वाद भी न आया। ऐसा ही मुझे भी। यह सब चल रहा है, लेकिन इसका कुछ स्वाद नहीं है। मैं अपने भीतर जागा हूं। मैं अपने भीतर के दीये को सम्हाले हूं। मैं मौत की तलवार को लटकी देख रहा हूं। फांसी होने को है। यह जीवन का पाठ अगर न सीखा, अगर इस सत्संग का लाभ न लिया तो मौत तो आने को है।

मौत के पहले कुछ ऐसा पा लेना है जिसे मौत न छीन सके। कुछ ऐसा पा लेना है जो अमृत हो। इसलिए यहां हूं सब, लेकिन इससे कुछ भेद नहीं पड़ता।

यह जो सम्राट जनक ने कहा : महल में हूं महल मुझमें नहीं है; संसार में हूं संसार मुझमें नहीं है, यह ज्ञानी का परम लक्षण है। वह कर्म करते हुए भी किसी बात में लिप्त नहीं होता। लिप्त न होने की प्रक्रिया है, साक्षी होना। लिप्त न होने की प्रक्रिया है, निस्तर्षमानस:। मन के पार हो जाना।

जैसे ही मन के पार हुए,एकरस हुए। मन में अनेक रस हैं, मन के पार एकरस। क्योंकि मन अनेक है इसलिए अनेक रस हैं। भीतर एक मन थोड़े ही है,जैसा सभी सोचते हैं। भगवान महावीर ने कहा है, मनुष्य बहुचित्तवान है। एक चित्त नहीं है मनुष्य के भीतर, बहुत चित्त हैं। क्षण— क्षण बदल रहे हैं चित्त। सुबह कुछ, दोपहर कुछ, सांझ कुछ। चित्त तो बदलता ही रहता है। इतने चित्त हैं।

आधुनिक मनोविज्ञान कहता है, मनुष्य पोलीसाइकिक है। वह ठीक भगवान महावीर का शब्द है। पोलीसाइकिक का अर्थ होता है, बहुचित्तवान। बहुत चित्त हैं।

गुरजिएफ कहा करते थे, मनुष्य भीड़ है, एक नहीं। सुबह बड़े प्रसन्न हैं, तब एक चित्त था। फिर जरा सी बात में खिन्न हो गए और दूसरा चित्त हो गया। फिर कोई पत्र आ गया मित्र का, बड़े खुश हो गए। तीसरा चित्त हो गया। पत्र खोला, मित्र ने कुछ ऐसी बात लिख दी, फिर खिन्न हो गए; फिर दूसरा चित्त हो गया।

चित्त चौबीस घंटे बदल रहा है। तो चित्त के साथ एक रस तो कैसे उपलब्ध होगा? एक रस तो उसी के साथ हो सकता है, जो एक है। और एक भीतर जो साक्षी है; उस एक को जान कर ही जीवन में एकरसता पैदा होती है। और एकरस आनंद का दूसरा नाम है।

'सर्वदा आकाशवत निर्विकल्प ज्ञानी को कहां संसार है, कहां आभास है, कहां साध्य है, कहां साधन है?' वह जो अपने भीतर आकाश की तरह साक्षीभाव में निर्विकल्प होकर बैठ गया है उसके लिए फिर कोई संसार नहीं है।

संसार है मन और चेतना का जोड़। संसार है साक्षी का मन के साथ तादात्म्य। जिसका मन के साथ तादात्म्य टूट गया उसके लिए फिर कोई संसार नहीं। संसार है भ्रांति मन की; मन के महलों में भटक जाना। वह दीया बुझ गया साक्षी का तो फिर मन के महल में भटक जाएंगे। दीया जलता रहे तो मन के महल में न भटक पाएंगे।

इतनी सी बात है। बस इतनी सी ही बात है सार की, समस्त शास्त्रों में। फिर कहां साध्य है, कहां साधन है। जिसको साक्षी मिल गया उसके लिए फिर कोई साध्य नहीं, कोई साधन नहीं। न उसे कुछ विधि साधनी है, न कोई योग, जप—तप; न उसे कहीं जाना है, कोई मोक्ष, कोई स्वर्ग, कोई परमात्मा;न ही उसे कहीं जाना, न ही उसे कुछ करना। पहुंच गया।

साक्षी में पहुंच गए तो मुक्त हो गए। साक्षी में पहुंच गए तो पा लिया फलों का फल। भीतर ही जाना है। अपने में ही आना है।

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग १०)

क्या होगा मंजिल पर?

इस जिज्ञासा का अंकुरण सहज है कि चित्तवृत्तियों का निरोध करने वाले योगी की क्या भाव दशा होती है? इसका समाधान करते हुए महर्षि तीसरा सूत्र प्रकट करते हैं। यह तीसरा सूत्र है-
तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्॥ १/३॥
  
इस सूत्र का शब्दार्थ कुछ यूँ होगा- तदा=तब (वृत्तियों का निरोध होने पर); द्रष्टुः= द्रष्टा की; स्वरूपे=स्वरूप में; अवस्थानम्=अवस्थिति (होती है)।
  
यह योगी की भावदशा है। चित्तवृत्ति निरोध की योग साधना का सुफल है। किसी भी योग साधक की साधना का लक्ष्य है। महर्षि पतंजलि विश्व भर के मानव इतिहास में सर्वाधिक अनूठे व्यक्तित्व हैं। उन्हें मानव चेतना का सम्यक् ज्ञान है। उनको मनुष्य की कमियों, कमजोरियों, अच्छाइयों व विशेषताओं के बारे में भली प्रकार पता है। उन्हें मानव चेतना की सीमाएँ मालूम हैं, तो सम्भावनाएँ भी ज्ञात हैं। योग सूत्रकार महर्षि इस सच्चाई को अच्छी तरह जानते हैं कि गन्तव्य पता हो, तो ही चलने वाले के पाँवों में गति आती है। उसके मन में हर पल उत्साह उमगता रहता है। लक्ष्य का स्वरूप स्पष्ट होने से ही पथ अर्थवान् होता है, राहें गुणवान् बनती हैं। मंजिल का ही पता न हो, तो भला राही किधर जाएगा? उसके पाँवों की सारी मेहनत मंजिल के अभाव में भटकन की थकन बन कर रह जाएगी।
  
यही वजह है कि महर्षि योग साधक के सामने सबसे पहले उसका लक्ष्य स्पष्ट करते हैं। साधकों को बताते हैं कि तुम्हारा मकसद क्या है? तुम्हारी मंजिल कौन सी है? योग क्या है? और योगी कैसा होता है? यह लक्ष्य ही तो साधना की दिशा है। योग साधक का प्राप्तव्य एवं गन्तव्य है। पहले मंजिल का पता, फिर राह की बातें महर्षि की यही नीति है। इसी कारण वह पहले समाधिपाद के सूत्रों का बयान करते हैं, बाद में साधन- पाद के सूत्र बताते हैं। अन्य दोनों पादों का क्रम इनके बाद आता है। समाधिपाद के इस तीसरे सूत्र में महायोगी महर्षि बताते हैं, चित्त वृत्ति का निरोध हुआ यानि कि मन का शासन मिटा। और तब साधक-सिद्ध हो जाता है। वह योगी बनता है, द्रष्टा बनता है, साक्षी भाव को उपलब्ध होता है। वह स्वयं में, अपने अस्तित्व के केन्द्र में, अपनी आत्मचेतना में अवस्थित हो जाता है।
  
यही बुद्धत्व का अनुभव है। योगियों का कैवल्य है। जीवन में समस्त प्रश्नों का समाधान करने वाली समाधि है। ज्ञानियों की चरम दशा है। विभिन्न साधनाओं के नाना पथ इसी एक लक्ष्य की ओर जाते हैं। योगिवर स्वामी विवेकानन्द ने इसी गन्तव्य पर पहुँचकर गाया था-

सूर्य भी नहीं है, ज्योति-सुन्दर शशांक नहीं,
छाया सा यह व्योम में यह विश्व नजर आता है।
मनोआकाश अस्फुट, भासमान विश्व वहाँ,
अहंकार स्रोत ही में तिरता डूब जाता है।
धीरे-धीरे छायादल लय में समाया जब,
धारा निज अहंकार मन्दगति बहाता है।
बन्द वह धारा हुई, शून्य से मिला है शून्य,
‘अवाङ्गमनसगोचरम्’ वह जाने जो ज्ञाता है।
  
मन के पार यही है—बोध की स्थिति। यही है अपने स्वरूप में अवस्थिति। इसी में स्थित होकर साधक द्रष्टा बनता है, योगी बनता है। कर्म और जीवन का, भाव और विचारों का, देह, प्राण, मन, सृष्टि और समष्टि की समस्त हलचलों का साक्षी बनता है।
  
.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ २३
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 न अपराध करें न करने दें

बुरे लोगों के बीच रहते हुए सज्जनों को भी कष्ट ही होता है। जहाँ नर बलि चढ़ाने की प्रथा है उन निर्दय, अविवेकी, जंगली, असभ्य लोगों की बस्ती में रहने वाले भले मानुस को भी अपनी सुरक्षा कहाँ अनुभव होगी? बेचारा डरता ही रहेगा कि किसी दिन मेरा ही नम्बर न आ जाय। गन्दे लोगों के मुहल्ले में रहने वाले सफाई पसंद व्यक्ति का भी कल्याण कहाँ है। चारों ओर गन्दगी सड़ रही होगी बदबू उठ रही होगी तो अपने एक घर की सफाई रखने से भी क्या काम चलेगा? दूसरों के द्वारा उत्पन्न की हुई गन्दगी हवा के साथ उड़कर उस स्वच्छ प्रकृति मनुष्य को भी प्रसन्न न रहने देगी। बाज़ार में हैजा फैले तो स्वास्थ्य के नियमों का पालन करने वाले भी उसकी चपेट में आते हैं। मुहल्ले में आग लगे तो अपना छप्पर भी उसकी लपेटों में आता है।

एक गाँव में कुछ लोग साम्प्रदायिक दंगा करें या कोई और उपद्रव करें तो सरकार उसका सामूहिक जुर्माना सारे गाँव पर करती है और शान्तिप्रिय लोगों को भी वह दंड चुकाना होता है। तब शान्तिप्रिय लोगों को भी कानून में निर्दोष नहीं माना जाता। क्योंकि किसी व्यक्ति का इतना ही कर्तव्य नहीं है कि वह शान्ति के साथ सभ्यतापूर्वक स्वयं रहे वरन् यह भी उसका कर्तव्य है कि जो दूसरे उपद्रवकारी हैं उन्हें समझावे या रोके, न रुकते हों तो प्रतिरोध करे। यदि किसी ने अपने तक ही शान्ति को सीमित रखा है, दूसरे उपद्रवियों को नहीं रोका है तो यह न रोकना भी नागरिक शास्त्र के अनुसार, मानवीय कर्तव्य शास्त्र के अनुसार एक अपराध है और उस अपराध का दंड यदि सामूहिक जुर्माने के रूप में वसूल किया जाता है तो उस शान्तिप्रिय व्यक्ति की यह दलील निकम्मी मानी जायगी कि मैं क्या करूँ? मेरा क्या कसूर है? कोई मैंने थोड़े ही अपराध किया है।

हमें स्मरण रखना चाहिए कि स्वयं अपराध न करना ही हमारी निर्दोषिता का प्रमाण नहीं है। अपराधों और बुराइयों को रोकना भी प्रत्येक सभ्य एवं प्रबुद्ध नागरिक का कर्तव्य है। यदि किसी की आँखों के आगे हत्या, लूट, चोरी, बलात्कार, आदि नृशंस कृत्य होते रहें और वह मौन पत्थर की तरह चुपचाप खड़े देखते रहें, कोई प्रतिरोध न करें तो यह निष्क्रियता एवं अकर्मण्यता भी कानूनन अपराध मानी जायगी और न्यायाधीश इस जड़ता के लिए भी दंड देगा। इसे कायरता और मानवीय कर्त्तव्यों की उपेक्षा माना जाएगा। गाँवों में जिनके पास बन्दूकें रहती हैं उनका यह कर्तव्य भी हो जाता है कि यदि गाँव में दूसरों के यहाँ डकैती पड़े तो डाकुओं से मुकाबला करने के लिए उन बन्दूकों का उपयोग करें। यदि वे बन्दूक वाले डर के मारे अपने घरों में चुपचाप जान बचाये बैठे रहें और डकैती बिना प्रतिरोध पड़ती रहे तो इस काण्ड में डकैतों की तरह उन डरपोक बन्दूकधारियों को भी अपराधी माना जाएगा और सरकार उनकी बन्दूकें जब्त कर लेगी।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1962

👉 ENLIGHTENED FAITH IS THE NEED OF THE HOUR

We are living in one of the most crucial periods of history, when humanity is passing through a momentous inner churning and transition into a new era of unitary consciousness. The voices of unrest, the sighs of disappointment, which we see throughout the entire world, demand a revolutionary change in our outlook and behavior, exemplifying the noblest ideals of humanity – understanding, compassion, mutual sharing and caring.  

If we do not consciously live these noble virtues and resolutely throw out of our psyches the devils of hatred, anger, avarice, etc, we will be committing collective suicide. We have acquired enough knowledge to create a great civilization and a bright future, but have not gained enough wisdom to apply this knowledge for the good of all. In the form of ideals, thoughts and principles, we have the rich treasures of the ages, but lack the wisdom, foresight and will to put them into practice. 

Our achievements in terms of fathoming and discovering the underlying principles of nature and its workings are mind-boggling, but we need more earnestness, nobility, courage and discipline to harness them for positive ends. Man is in agonizing search of the purpose of his life – which is enlightened awareness of his identity with the immutable and eternal Supreme substratum of the cosmic foam and flux of creation. Despite all our material progress, the degree of insecurity, the worthlessness and futility of life that we experience today were never felt by the preceding generations – because of an all-pervading loss of faith in our Divine origin. Such a firm faith has ever been the force that kept common people dedicated to nobility and goodwill. Lack of such a living and unwavering faith is the root cause of our plight.  

What we need today is an all-encompassing faith in Divinity for the entire humanity, to which all existing religions can make their contributions. We direly need such a redeeming and unifying faith; otherwise our very existence as a species is in mortal peril. Let us listen to the wakeup call of the scriptural admonishment – What doth it profit a man if he gains the whole world but loses his own soul?

~ Pandit Shriram Sharma Acharya

शुक्रवार, 21 अगस्त 2020

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ९)

मन मिटे तो मिले चित्तवृत्ति योग का सत्य

परम पूज्य गुरुदेव कहा करते थे- मनुष्य का अभ्यास, उसकी आदतें अपनी समूची ऊर्जा को सोच-विचार बनाने में लगी रहती है। वह जन्मों-जन्मों से, हो सकता है लाखों जन्मों से यही करता रहा है। उसके इस सहयोग से, लगातार ऊर्जा देने से मन की नदी आज बड़े ही वेगपूर्ण ढंग से प्रवाहित हो रही है। अपने अतीत के संवेग के कारण मन भारी वेग और आश्चर्यजनक जादुई समर्थता के साथ बहा जा रहा है। जो योग साधना करना चाहते हैं, उन्हें यह बात भली प्रकार समझ लेनी है।
  
योग साधना का अर्थ है- अपने को इससे अलग करना। मन की क्रिया से अपने जुड़ाव-लगाव को खत्म करना। यदि मन के साथ, उसकी क्रियाशीलता के साथ अपनी आसक्ति समाप्त हो जाए, तो मन को ऊर्जा मिलना बन्द हो जाती है। फिर तो मन बस थोड़ी देर बहेगा, ऊर्जा के अभाव में स्वयं ही थम जाएगा। जब पिछला संवेग चुक जाएगा, जब पिछली ऊर्जा समाप्त हो जायगी, तब मन अपने आप ही रुक जाएगा। और जब मन रुक जाएगा, तब हम योग साधक से योगी होने की ओर कदम बढ़ाते हैं। तब फिर पतंजलि की परिभाषा, परम पूज्य गुरुदेव के द्वारा कराया गया बोध, हमारी खुद की अपनी अनुभूति बन जाएगा। हम समझ जाएँगे कि ‘मन की समाप्ति योग है।’
  
दैनिक जीवन में १५ मिनट से ३० मिनट का समय निकाल कर इसकी अनुभूति पायी जा सकती है। नियत समय एवं नियत स्थान के अनुशासन को स्वीकार कर अपने आसन पर स्थिर होकर बैठें। स्वयं की गहराई में टिकें। पहले ही क्षण मन के वेगपूर्ण प्रवाह की, भारी लहरों की अनुभूति होगी। इस प्रवाह, इसकी लहरों से आकर्षित न हों। स्वयं को इससे असम्बद्ध करें। यह अनुभव करें आप अलग हैं और मन का वेगपूर्ण प्रवाह अलग। जैसे-जैसे यह अनुभव गाढ़ा होगा, मन का वेगपूर्ण  प्रवाह थमता जाएगा। लेकिन ध्यान रहे, बार-बार मुड़-मुड़ कर यह देखना नहीं है कि मन का वेग थमा या नहीं। क्योंकि ऐसा करने से आप फिर से अपनी ऊर्जा मन को देंगे, और वह फिर से प्रचण्ड हो उठेगा। मन से अलग अपने में स्वयं की स्थिरता की अनुभूति का अंकुर जितनी तेजी से बढ़ेगा, उतनी ही ‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः’ की अनुभूति साकार होती जाएगी।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ २१
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 सर्वनिंदक महाराज

एक थे सर्वनिंदक महाराज। काम-धाम कुछ आता नहीं था पर निंदा गजब की करते थे।हमेशा औरों के काम में टाँग फँसाते थे।
  
अगर कोई व्यक्ति मेहनत करके सुस्ताने भी बैठता तो कहते, 'मूर्ख एक नम्बर का कामचोर है। अगर कोई काम करते हुए मिलता तो कहते, 'मूर्ख जिंदगी भर काम करते हुए मर जायेगा।'
   
कोई पूजा-पाठ में रुचि दिखाता तो कहते, 'पूजा के नाम पर देह चुरा रहा है। ये पूजा के नाम पर मस्ती करने के अलावा कुछ नहीं कर सकता।' अगर कोई व्यक्ति पूजा-पाठ नहीं करता तो कहते, 'मूर्ख नास्तिक है! भगवान से कोई मतलब ही नहीं है। मरने के बाद पक्का नर्क में जायेगा।'
   
माने निंदा के इतने पक्के खिलाड़ी बन गये कि आखिरकार नारदजी ने अपने स्वभाव अनुसार.. विष्णु जी के पास इसकी खबर पहुँचा ही दिया। विष्णु जी ने कहा 'उन्हें विष्णु लोक में भोजन पर आमंत्रित कीजिए।'
   
नारद तुरंत भगवान का न्योता लेकर सर्वनिंदक महाराज के पास पहुँचे और बिना कोई जोखिम लिए हुए उन्हें अपने साथ ही विष्णु लोक लेकर पहुँच गये कि पता नहीं कब महाराज पलटी मार दे।
   
उधर लक्ष्मी जी ने नाना प्रकार के व्यंजन अपने हाथों से तैयार कर सर्वनिंदक जी को परोसा। सर्वनिंदक जी ने जमकर हाथ साफ किया। वे बड़े प्रसन्न दिख रहे थे। विष्णु जी को पूरा विश्वास हो गया कि सर्वनिंदक जी लक्ष्मी जी के बनाये भोजन की निंदा कर ही नहीं सकते। फिर भी नारद जी को संतुष्ट करने के लिए पूछ लिया, 'और महाराज भोजन कैसा लगा?'
   
सर्वनिंदक जी बोले, 'महाराज भोजन का तो पूछिए मत, आत्मा तृप्त हो गयी। लेकिन... भोजन इतना भी अच्छा नहीं बनना चाहिए कि आदमी खाते-खाते प्राण ही त्याग दे।'
   
विष्णु जी ने माथा पीट लिया और बोले, 'हे वत्स, निंदा के प्रति आपका समर्पण देखकर मैं प्रसन्न हुआ। आपने तो लक्ष्मी जी को भी नहीं छोडा़, वर माँगो।'
   
सर्वनिंदक जी ने शर्माते हुए कहा -- 'हे प्रभु मेरे वंश में वृध्दि होनी चाहिए।' तभी से ऐसे निरर्थक सर्वनिंदक बहुतायत में पाए जाने लगे।

सार : हम चाहे कुछ भी कर लें.. इन सर्वनिंदकों की प्रजाति को संतुष्ट नहीं कर सकते! अतः ऐसे लोगों की परवाह किये बिना अपने कर्तव्य पथ पर हमें अग्रसर रहना चाहिए।

👉 उत्थान और आनन्द का मार्ग

इन थोड़ी सी पंक्तियों में यह विस्तारपूर्वक नहीं बताया जा सकता कि मन की मलीनता को हटा देने पर हम पतन और संताप से कितने बचे रह सकते हैं, और मन को स्वच्छ रखकर उत्थान और आनन्द का कितना अधिक लाभ प्राप्त हो सकता है। यह लिखने−पढ़ने और कहने−सुनने की नहीं, करने और अनुभव में लाने की बात है। लौकिक जीवन को आनन्द और उत्थान की दिशा में गतिवान करने का प्रमुख उपाय यह है कि हम अपने मन को स्वच्छ कर उसकी मलीनताओं को हटावें। मनन करने वाले को ही मनुष्य कहते हैं। अपनी भीतरी मलीनताओं को खोजना और उन्हें सुधारने का प्रयत्न करना इस संसार का सबसे बड़ा पुरुषार्थ है। संसार के प्रत्येक महापुरुष को अनिवार्यतः यह पुरुषार्थ करना पड़ा है। क्या यह कोई ऐसा कठिन काम है जो हम नहीं कर सकते? दूसरों को सुधारना कठिन हो सकता है, वह अपना मन अपनी बात न माने, यह कैसे हो सकता है। हम अपने आपको तो सुधार ही सकते हैं, अपने आपको तो समझा ही सकते हैं, अपने को तो सन्मार्ग पर चला ही सकते हैं। इसमें दूसरा कोई क्या बाधा देगा? हम ऊँचे उठना भी चाहते हैं और उसका साधन भी हमारे हाथ में है तो फिर उसके लिए पुरुषार्थ क्यों न करें? आत्म−सुधार के लिए, आत्म निर्माण के लिए, आत्म विकास के लिए क्यों कटिबद्ध न हों?

हमारे आध्यात्मिक लक्ष की आधारशिला मन की स्वच्छता है। जप, तप, भजन, ध्यान, व्रत, उपवास, तीर्थ, हवन, दान, पुण्य, कथा, कीर्तन सभी का महत्व है पर उनका पूरा लाभ उन्हीं को मिलता है जिनने मन की स्वच्छता के लिए भी समुचित श्रम किया है। मन मलीन हो, दुष्टता एवं नीचता की दुष्प्रवृत्तियों से मन गन्दी कीचड़ की तरह सड़ रहा हो तो भजन, पूजन का भी कितना लाभ मिलने वाला है? अन्तरात्मा की निर्मलता अपने आप में एक साधन है जिसमें किलोल करने के लिए भगवान स्वयं दौड़े आते हैं। थोड़ी साधना से भी उन्हें आत्म−दर्शन का मुक्ति एवं साक्षात्कार का लक्ष सहज ही प्राप्त हो जाता है। स्वल्प साधना भी उनके लिए सिद्धि दायिनी बन जाती है।

“अखण्ड−ज्योति” निर्माण का मिशन लेकर अग्रसर होती है। अपने परिवार के प्रत्येक सदस्य को इस ओर ध्यान देना होगा। हम अपने मनों को स्वच्छ करें, अपनी मलीनता को बुहारें और अपने समीपवर्ती, संबंधित, परिचित लोगों को भी वैसी ही प्रेरणा करे। अपना आदर्श उपस्थित करके दूसरों को अनुकरण करने के लिए उदाहरण उपस्थित करना प्रचार का सबसे प्रभावशाली तरीका है, पर शिक्षा, उपदेश, प्रचार, अध्ययन, शिक्षण, पठन, श्रवण आदि का भी कुछ तो प्रभाव पड़ता ही है। दोनों ही माध्यमों से हमें लोक शिक्षण के लिए प्रवृत्त होना चाहिए। जन−मानस की स्वच्छता का अभियान संसार की उत्कृष्ट धर्म सेवा और ईश्वर की सच्ची पूजा ही मानी जायगी। इस दिशा में हमारा उत्साह उठना ही चाहिये। हमारा पुरुषार्थ जागना ही चाहिए, हमारा कदम उठना ही चाहिए।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1962

👉 Supreme Aim of Human Life is Attainment of Life Eternal

Just as passing through the cycles of days and nights we do not die, we retain our identity; similarly, life does not end with dissolution of the physical body. It is eternal.

Everyday the Sun rises in the East and sets in the West. Moon becomes invisible on the no-moon day and can be seen in its full glow on the full moon day. In between, its phases of brightness go on increasing or decreasing. In spite of this visible change, there is no change in Moon’s original form. The process of birth and death too is similar. This may be called a game of hide and seek between awakening and deep sleep. For the body, the cycle of childhood, youth, old age and death is  natural. Even after bodily death, the self-identity of the soul remains firm like a steady axle.

Why fear death? It is a pleasant change akin to the process of changing old clothes and putting on new ones. No one can stop this process of continuous change . One who takes on mortality through birth in the body will definitely die. In view of this inexorable Law of Nature, there is no need of any fear, grief or sorrow. Wisdom lies in realizing this eternal truth of life and in trying to make each link of this series more organized.

Today’s efforts ought to be directed towards making the tomorrow more joyful and progressive. The aim of our present cycle of physical embodiment should be to consciously and constantly strive to tread on the righteous path towards realization of our true identity as sparks of the Supreme Light and Life Eternal.

~ Pandit Shriram Sharma Acharya

गुरुवार, 20 अगस्त 2020

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ८)

मन मिटे तो मिले चित्तवृत्ति योग का सत्

योग की इस सच्चाई को बताने के लिए गुरुदेव यदा-कदा एक कथा सुनाया करते थे। वह कहते थे कि वाराणसी में रहने वाले महान् सन्त तैलंग स्वामी के पास एक किसी बड़ी रियासत के राजा गए और उन राजा ने तैलंग स्वामी से कहा, महाराज, मेरा मन बहुत बेचैन है, बहुत अशान्त-परेशान है। आप महान् सन्त हैं, मुझे बताएँ कि मैं क्या करूँ, जिससे कि मेरा मन शान्त हो जाय।
  
तैलंग स्वामी वैसे तो बड़े कोमल स्वभाव के थे, पर कभी-कभी उनका रुख बड़ा अक्खड़ हो जाता। उस दिन भी उन्होंने बड़े अक्खड़पने से कहा, कुछ भी मत करो। पहले अपना मन मेरे पास लाओ। उस राजा को कुछ भी समझ में नहीं आया। उसने कहा, महाराज आप क्या कह रहे हैं? मुझे तो कुछ समझ में नहीं आ रहा। तैलंग स्वामी ने उसकी बातों की अनसुनी करके उससे कहा, ऐसा करो, सुबह चार बजे मेरे पास यहाँ कोई नहीं होता, तब आना और अकेले आना। और ध्यान रखना, अपना मन भी अपने साथ लेते आना, भूलना मत।
  
वह राजा सारी रात सो नहीं पाया। कई बार उसने सोचा कि वह उनके पास नहीं जाएगा। बार-बार वह अपने आप से कहता- इन स्वामी जी को लोग बेकार इतना बड़ा ज्ञानी मानते हैं, यह तो बहकी-बहकी बातें करते हैं। आखिर क्या मतलब है उनका यह कहने से भूलना नहीं, अपना मन भी अपने साथ लेकर आ जाना।
  
उस राजा को उस रोज ऊहापोह भारी रही। परन्तु चाहकर भी वह उस भेंट को रद्द न कर सके। तैलंग स्वामी थे ही इतने मोहक एवं चुम्बकीय। राजा को रात भर यही लगता रहा कि कोई अद्भुत चुम्बक उन्हें अपनी ओर खींच रहा है। चार बजने से कुछ पहले ही वह बिस्तर से उठ बैठा और कहने लगा, मैं उनके पास जाऊँगा जरूर। वे थोड़ी सी बहकी हुई बातें करते हैं, तो क्या हुआ, पर उनकी आँखें कहती हैं कि उनके पास कुछ अवश्य है।
  
ऐसे ही सोच-विचार करते हुए वह तैलंग स्वामी के पास पहुँच गया। पहुँचते ही उन्होंने कहा, आ गए तुम, कहाँ है तुम्हारा मन? राजा बोला, आप भी कैसी बातें करते हैं स्वामी जी! मेरा मन भला और कहाँ होगा, वह तो मुझमें ही है।
  
तैलंग स्वामी बोले, अच्छा तो पहले तो इस बात का निर्णय हो गया कि तुम्हारा मन तुममे ही है। तो अब दूसरी बात मेरी कही हुई करो, अब आँखें बन्द करके खोजो जरा कि मन कहाँ है? तुम उसे ढूँढ लो कि वह कहाँ है, तो फिर उसी क्षण मुझे बता देना। मैं उसे शान्त कर दूँगा।
  
उस राजा ने तैलंग स्वामी का कहा मानकर आँखें बन्द कर ली और कोशिश करता गया देखने की और देखने की। जितना ही वह भीतर झाँकता गया, उतना ही उसे होश आता गया कि वहाँ कोई मन नहीं है, बस एक क्रिया मात्र है- सोचने की क्रिया, आशाओं, अभिलाषाओं, कामनाओं, कल्पनाओं की क्रिया। उसे समझ में आ गया कि मन कोई ऐसी चीज नहीं, जिसकी ओर ठीक से इशारा किया जा सके। लेकिन जिस क्षण उसने जाना कि मन कोई वस्तु नहीं, उसी क्षण उसे अपनी खोज का बेतुकापन भी खुलकर प्रकट हो गया। बात साफ हो गयी कि जब मन कुछ है ही नहीं, तो फिर इसके बारे में कुछ किया ही नहीं जा सकता। यदि यह केवल एक क्रिया है, तो बस उस क्रिया को क्रियान्वित न करो। यदि वह गति की भाँति चाल है, तो मत चलो।
  
यही सोचकर राजा ने अपनी आँखें खोल दी। तैलंग स्वामी मुस्कराने लगे और बोले—आ गयी बात समझ में! अब आगे से जब भी तुम महसूस करो कि तुम अशान्त हो, बस जरा भीतर झाँक लेना। यह झाँकना, यह अवलोकन ही मन की गति को थाम देता है। यदि तुम पूरी उत्कटता से झाँकों, तो तुम्हारी सारी ऊर्जा एक दृष्टि बन जाती है। सामान्य क्रम में वही ऊर्जा गति और सोच-विचार बनी रहती है।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १९
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 अच्छाई और बुराई

संसार में अच्छाई और बुराई दोनों आपके सामने हैं। हमको विचार करना है की हमें उनसे क्या सीखना है?

हमने अपने आस-पास, अपने मिलने जुलने वालों को ऐसी शिकायत करते हुए खूब सुना होगा, और हो सकता है हम भी अनेक बार लोगों से यह शिकायत करते होंगे, कि देखो साहब, चारों ओर वातावरण बहुत खराब हो गया है। देश और दुनियाँ बिगड़ रही है। बच्चे बिगड़ रहे हैं, जवान बिगड़ रहे हैं, स्त्रियाँ बिगड़ रही हैं, पुरुष बिगड़ रहे हैं। और तो और, बूढ़े तक बिगड़ रहे हैं। कहीं कोई सभ्यता नहीं दिखाई देती। चारों ओर झूठ छल कपट लूट झपट फैशन नंगापन कामुकता चोरी डकैती रिश्वतखोरी लूटमार हत्याएं अपहरण भ्रष्टाचार, बस यही दिखता है।
     
क्या संसार में केवल बुरा काम ही हो रहा है, या कुछ अच्छा काम भी होता है? यदि संसार में कुछ अच्छा काम भी होता है। कुछ अच्छे लोग भी हैं, जो सेवा परोपकार दान दया धर्मार्थ चिकित्सालय गौशाला अनाथालय फ्रीट्यूशन रोगियों की सेवा विकलांगों अनाथों की सेवा वेद विद्या का प्रचार आदि उत्तम कर्मों को करते हैं।  यदि ऐसे अच्छे काम भी संसार में होते हैं, तो हम या अन्य लोग, केवल बुरे कर्मों का ही रोना क्यों रोते रहते हैं? अच्छे कर्मों की चर्चा क्यों नहीं करते?
      
मनोविज्ञान की बात है कि व्यक्ति जैसा देखता सुनता विचार करता और बोलता है, उसका वैसा ही प्रभाव मन पर पड़ता है, और वैसा ही उसका जीवन बनता जाता है। यदि हम और आप बुराइयों की ही चर्चा करते और सुनते रहेंगे, बुरे ही दृश्य, फोटो और वीडियो में देखते रहेंगे, तो आपका जीवन भी वैसा ही अर्थात् बुरा बनेगा। यदि अच्छी बातें सोचेंगे, अच्छे आचरण करेंगे, अच्छे फोटो वीडियो देखेंगे, उन पर चिंतन करेंगे, और उन पर चर्चा करेंगे, तो आपका जीवन भी वैसा ही अर्थात् अच्छा बनता जाएगा।
         
अब दोनों रास्ते हमारे सामने हैं। यह हमारी इच्छा है, कि हम कौन सा रास्ता चुनते  हैं। बुराई की शिकायत न करें, वह तो सबको मालूम है, किसी से कुछ भी छिपा नहीं है। सारा दिन अखबार रेडियो  टेलीविजन कम्प्यूटर और मोबाइल फोन पर बुराई ही तो देखते हैं लोग। फिर उस पर क्या चर्चा करनी?
     
यदि कुछ चर्चा करनी ही है, तो अच्छी घटनाओं की चर्चा करें। अच्छे कर्मों की चर्चा करें। स्वयं अच्छे बनें, और दूसरों को अच्छाई की ओर प्रेरित करें। तभी हमारा और आप का  जीवन अच्छा बनेगा, और यह संसार भी जीने लायक बना रहेगा।

👉 Awaken Your Indwelling Divinity

All sub-human life forms are born with specific instincts and usually live within its confines right till the end. The Creator has endowed only the human species with the faculty of freewill, based in the shadowy ego-self. Man has mostly used this freewill for exploitation of other life-forms and disturbance of the harmonies of Nature, instead of nurturing them, ignoring the nudgings of his soul, which is latent within him and is a spark of the Supreme Soul. All the potentialities and all the light of the individual soul are just reflections of the Supreme Soul.

All the divine powers exist within the Supreme Soul. When Agni Dev gets awakened hunger is felt, Varun Dev generates thirst for water. To each divine power, a direction and a task are well assigned. To ensure that these divine powers do not work at cross-purposes a proper control and balance is maintained by the Supreme Soul which has merged Itself into the creation in the form of individualized souls in the evolutionary process of consciousness.

It is thus that the fascinating, extraordinary human life came into existence in the universe. From then on till date man has been like a living laboratory, exercising his freewill for ill or good. Whenever he commits mistakes he gets punished, and when he performs good deeds he is rewarded and given greater responsibilities. Misdeeds result in sorrow, good deeds like benevolence and righteousness result in happiness. This is the principle of ‘Karma’ – ‘As you sow so shall you reap.’

🌹 ~Pandit Shriram Sharma Acharya

👉 सुख दुःख में समस्वरता

लाभ की तरह हानि का, संयोग की तरह वियोग का, दिन की तरह रात का आना बिलकुल स्वाभाविक है। कपड़े के ताने−बाने की तरह यह जीवन भी सुख और दुख, उतार और चढ़ाव के ताने−बाने से बुना हुआ है। यहाँ बुरा और भला सब कुछ है। बुरा इसलिए है कि उसमें सुधारने का प्रयत्न करते हुए हम अपने को अधिक पुरुषार्थी अधिक पुण्यवान बनावें, शुभ इसलिए है कि उसे देखकर हम प्रमुदित हों और उस उपलब्धि का वितरण दूसरों को भी करें। दोनों ही प्रकार की—भली और बुरी परिस्थितियों से हँसते−खेलते भी निपटा जा सकता है तो फिर रोते कलपते उनसे क्यों निपटें?

ताश खेलने में बाजी हार जाने पर, खेल खेलते हुए परास्त हो जाने पर, नाटक करते हुए आपत्तिग्रस्त हो जाने पर कौन रोता कलपता है? उस हानि को हलके मन से, उपेक्षा भाव से देखने पर उसका प्रभाव मन पर जरा−सी देर हलका−सा रहता है और फिर हम अपना आगे का काम स्वस्थ चित्त से करने लगते हैं। यदि हमारा मन विवेकी हो तो शोक, वियोग, हानि, कष्ट, परेशानी, दुर्व्यवहार आदि के अप्रिय प्रसंगों को हँसकर सहन कर सकते हैं, और फिर सन्तुलित मन को उन समस्याओं का हल खोजने में लगाकर आगत कठिनाई से पार होने का मार्ग भी आसानी से प्राप्त कर सकते हैं। मन की स्वच्छता से विवेक जागृत होता है, सोचने का सही तरीका अभ्यास में आता है और तब प्रायः सभी उलझी हुई समस्यायें शान्तिपूर्वक सुलझ जाती हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1962

बुधवार, 19 अगस्त 2020

👉 संगठन का महत्व : -

एक क्षेत्र में भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा। निर्धन परिवार ने कहीं सुविधा के अन्य क्षेत्र में जाने की तैयारी की आवश्यक सामान साथ में बाँध लिया।

रात में एक पेड़ के नीचे विश्राम किया। तीन लड़के थे। एक को आदेश मिला ईंधन ढूंढ़ कर लाओ। दूसरे को आग और तीसरे को पानी लाने का आदेश मिला तीनों ही तुरन्त चल पड़े और अपनी जिम्मे की वस्तुएँ ले आये। चूल्हा जलाया गया। पर प्रश्न था कि इसमें पकाया क्या जाय।

परिवार के स्वामी ने पेड़ की तरफ इशारा किया कि चढ़ जाओ और जो कुछ मिले उसे लाओ।

तीनों लड़के पेड़ पर चढ़ गये। उस पर एक देव रहता था। उसने समझा यह अनुशासित परिवार मिलजुल कर हर काम पूरे कर लेता है तो मुझे पकड़ेंगे और चूल्हे में पकायेंगे। उसने डर कर पेड़ की जड़ में गढ़ा हुआ अशर्फियों का एक घड़ा दे दिया और कहा मुझे मत पकड़ो। इस धन से अपना गुजारा करो।

दूसरे दिन परिवार अपने घर लौट आया और प्राप्त धन के सहारे आनन्दपूर्वक अपना गुजारा करने लगा।

यह बात पड़ोस वालों ने भी सुन ली। पड़ोसी ने भी यह तरकीब काम में लाने का प्रयत्न किया। वह भी अपने परिवार को लेकर उसी पेड़ के नीचे आ बैठा। उसके भी तीन लड़के थे। तीनों को काम सौंपे तो वे जाने को तैयार न हुए आपस में लड़ने झगड़ने लगे। चूल्हा जलाने की नौबत न आई।

परिवार का स्वामी पेड़ पर देव पकड़ने चढ़ा। देवता ने कहा तुम लोगों में आपस में एकता तो है नहीं। मुझे पकड़ने पकाने की व्यवस्था तो कर ही कैसे सकोगे। धन मिल गया तो उसके लिए ही लड़ मरोगे।

यह कहकर देव ने उस परिवार को भगा दिया। वे निराश घर वापस लौट आये।

📖 अखण्ड ज्योति, मई १९९३

👉 धर्म और श्रम की कमाई

ईमानदारी और मेहनत से जो धर्म की कमाई की जाती है उसी से आदमी फलता−फूलता है, यह बात यदि मन में बैठ जाय तो हम सादगी और किफायतशारी का जीवन व्यतीत करते हुए सन्तोषपूर्वक अपना निर्वाह क्यों न करने लगेंगे? और फिर धर्म उपार्जित कमाई का अनीति से अछूता अन्न हमारी नस−नाड़ियों में रक्त बनकर घूमेगा तो हमारा आत्मसम्मान और आत्मगौरव क्यों आकाश को न चूमने लगेगा? क्यों हम हिमालय जैसा ऊँचा मस्तक न रख सकेंगे? और क्यों हमें हमारी महानता का—श्रेष्ठता का—उत्कृष्टता का अनुभव होने से अन्तःकरण में सन्तोष एवं गर्व भरा न दीखेगा?

प्यार, आत्मीयता, ममता की आँखों से जब हम दूसरों की देखेंगे तो वे हमें अपने ही दिखाई पड़ेंगे। अपने छोटे से कुटुम्ब को देखकर हमें आनन्द होता है। फिर यदि हम दूसरों को बाहर वालों को भी उसी आँख से देखने लगें तो वे भी अपने ही प्रतीत होंगे। अपने कुटुम्बियों के जब अनेक दोष दुर्गुण हम बर्दाश्त करते हैं, उन्हें भूलते, छिपाते और क्षमा करते हैं तो बाहर वालों के प्रति वैसा क्यों नहीं किया जा सकता? उदारता, सेवा, सहयोग, स्नेह, नेकी और भलाई की प्रवृत्ति को यदि हम विकसित कर लें तो देवता की योनि प्राप्त होने का आनन्द हमें इसी मनुष्य जन्म में मिल सकता है। हो सकता है कि हमारी भलमनसाहत और सज्जनता का कोई थोड़ा दुरुपयोग कर ले, उससे अनुचित लाभ उठा ले, इतने पर भी उसके ठगने वाले के मन पर भी अपनी सज्जनता की छाप पड़ी रहेगी और वह कभी न कभी उसके लिए पश्चात्ताप करता हुआ सुधार की ओर चलेगा। अनेक सन्तों और सज्जनों के ऐसे उदाहरण हैं जिनने दुष्टता को अपनी सज्जनता से जीता है। फिर चालाक आदमी भी तो दूसरे अधिक चालाकों द्वारा ठग लिये जाते हैं, वे भी कहाँ सदा बिना ठगे रहते हैं। फिर यदि हमें अपनी भलमनसाहत के कारण कभी कुछ ठगा जाना पड़ा तो इसमें कौन बहुत बड़ी बात हो गई, जिसके लिए पछताया जाय। छोटा बच्चा जिसे हम अपना मानते हैं जन्म से लेकर वयस्क होने तक हमें ठगता ही तो रहता है। उस पर जब हम नहीं झुँझलाते तो प्रेम से परिपूर्ण हृदय हो जाने पर दूसरों पर भी क्यों झुँझलाहट आवेगी?

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1962

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ७)

मन मिटे तो मिले चित्तवृत्ति योग का सत्य

पतंजलि की इस बात को गुरुदेव एक नयी वैज्ञानिक अनुभूति देते हैं। वे कहते हैं सारा कुछ मन का जादू, इन्द्रजाल है। यह हटा कि समझो सारा भ्रम मिटा। उनके अनुसार यह शब्द ‘मन’ सब कुछ को अपने में समेट लेता है- अहंकार, इच्छाएँ, कामनाएँ, कल्पनाएँ, आशाएँ, तत्त्वज्ञान और शास्त्र। जहाँ कुछ जो भी सोचा जा सकता है, सोचा जा रहा है, वह मन है। जो भी जाना गया है, जो भी जाना जा सकता है, जो भी जानने लायक समझा जाता है, वह सब का सब मन के दायरे में है। मन की समाप्ति का मतलब है—जो जाना है, उसकी समाप्ति और जो जानना है उसकी समाप्ति। यह तो छलांग है-ज्ञानातीत में। जब मन न रहा, तो जो बचा वह ज्ञानातीत है।
  
मन के इसी सत्य को गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने अपनी रामायण में गाया है- ‘गो गोचर जहाँ लगि मन जाई। सो सब माया जानेहु भाई॥’ अर्थात् इन्द्रियाँ, इन्द्रियों की पहुँच और जहाँ-जहाँ तक मन जाता है, हे भाई, तुम उस सब को माया जानना, मिथ्या समझना। महर्षि पतंजलि के अनुसार इसी माया का मिटना, मिथ्या का हटना यानि कि मन का समाप्त होना योग है।
  
मन की परेशानी, मन से परेशानी, साधकों का सबसे अहम् सवाल है, सबसे जरूरी और महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। इस उलझन को सुलझाने के लिए सबसे पहले यह जान लें कि आखिर मन अपने आप में है क्या? यह हमारे भीतर बैठा हुआ क्या कर रहा है, क्या-क्या कर रहा है? आमतौर पर सब यही सोचते रहते हैं कि मन सिर में पड़ी या रखी हुई कोई भौतिक चीज है। पर परम पूज्य गुरुदेव इस बात को नहीं स्वीकारते। वह कहते हैं कि जिसने भी मन को अन्दर से पहचान लिया है, वह ऐसी बातें नहीं स्वीकारेगा। आज-कल का विज्ञान भी ऐसी बातों से इन्कार करता है। गुरुदेव कहते हैं मन एक वृत्ति, क्रियाशीलता है।
  
अब जैसे कि कोई चलता हुआ आदमी बैठ जाय, तो बैठने पर उसका चलना कहाँ भाग गया? तो बात इतनी सी है कि चलना कोई वस्तु या पदार्थ तो थी नहीं, वह तो एक क्रिया है। इसलिए कोई किसी के बैठने पर यह नहीं पूछा करता कि तुमने अपना चलना कहाँ छुपा कर रख दिया? यदि कोई किसी से ऐसा पूछने लगे, तो सामने वाला जोर से हँस पड़ेगा। वह यही कहेगा कि यह तो क्रिया है। मैं चाहूँ, तो फिर से चल सकता हूँ, बार-बार चल सकता हूँ। चाहने पर चलना रोक भी सकता हूँ। बस, कुछ इसी तरह मन भी एक तरह का क्रियाकलाप है। बस, मन या ‘माइण्ड’ शब्द से किसी तत्त्व या पदार्थ के होने का भ्रम होता है। यदि इस माइण्ड को माइण्डिंग कहा जाय, तो सत्य शायद ज्यादा साफ हो जाय। जैसे बोलना टाकिंग है, ठीक वैसे ही सोचना माइण्ंिडग। यह सक्रियता थमे, तो मन का अवसान हो और साधक योगी बने।
  
.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १८
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 Some Thoughts on Religion and Spirituality

Spirituality is the science of consciousness; and religion is the art of living.

Spirituality is the ‘knowledge’ aspect of creation; and religion is the ‘activity’ aspect of it.

Spirituality is idealism; and religion is the method of imbibing it in real life.

Spirituality leads to self-realization; and religion shows the way to attain it.

The focus of spirituality is the Supreme Spirit; and that of religion is the individual soul.

Religion is the sadhana (ritualistic modes / methods / traditions) of uplifting the human consciousness. The ultimate aim of all the methods of sadhana is same.

Religion is a sky which is open to all to fly in their own way irrespective of caste, color, creed, nationality, etc.
Those, who know the essence of spirituality and follow the righteous path of religion, are sure to achieve the boons of peace and prosperity at the individual level; and contribute to social harmony at large.

Pandit Shriram Sharma Acharya

मंगलवार, 18 अगस्त 2020

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ६)

मन मिटे तो मिले चित्तवृत्ति योग का सत्य

जिनकी अन्तर्चेतना में शिष्यत्व जन्म ले चुका है, उन्हें महर्षि पतंजलि समाधिपाद के दूसरे सूत्र में योग के सत्य को समझाते हैं। इस दूसरे सूत्र में महर्षि कहते हैं-
योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः॥ १/२॥
  
यही योग की मूलभूत एवं मौलिक परिभाषा है। इस सूत्र के शब्दों का अर्थ है- योगः= योग, चित्तवृत्तिनिरोधः= चित्त की वृत्तियों को रोकना (है)। लेकिन साधकों की दृष्टि में इस सूत्र का अर्थ है- योग मन की समाप्ति है। परम पूज्य गुरुदेव योग साधना के इस सत्य को समझाते हुए कहा करते थे- ‘साधक का मन मिटे, तो उसे योग की सच्चाई समझ में आए।’ महर्षि पतंजलि एवं गुरुदेव दोनों ही खरे वैज्ञानिक हैं, एकदम गणितज्ञ। वे इधर-उधर की बातें करके न अपना समय खराब करते हैं और न ही साधकों का।
  
उन्होंने पहले भी प्रथम सूत्र में एक वाक्य कहा था- ‘अब योग का अनुशासन’- और बस बात समाप्त। इस एक वाक्य में उन्होंने परख लिया कि साधकों में सच्चाई कितनी है, उनमें खरापन कितना है। यदि वे सच्चे और खरे हैं, योग में उनकी सचमुच में रुचि है- आशा, अभिलाषा के रूप में नहीं, अनुशासन के रूप में, जीवन के रूपान्तरण के रूप में, अभी और यहाँ। ऐसे खरे और सच्चे साधकों को वे योग की परिभाषा देते हैं, योग मन की समाप्ति है। मन मिटे, तो बात बने।
  
यही योग की परिभाषा है, सही और सटीक। अलग-अलग आचार्यों ने, शास्त्रों ने योग को कई तरह से परिभाषित किया है। उन्होंने अनेकों परिभाषाएँ ढूँढी और बतायी हैं। कुछ का मत है—योग दिव्य सत्ता के साथ मिलन है। इनके अनुसार योग का मतलब ही मिलना, दो का जुड़ना। कई कहते हैं—योग का मतलब है—अहंकार का ढह जाना। उनके अनुसार अहंकार बीच में दीवार है, जिस क्षण यह दीवार ढह जाती है, साधक दिव्य सत्ता से जुड़ जाता है। दरअसल यह जुड़ाव, तो पहले से ही था वह अहंकार के कारण भेद लगता रहा।
  
ऐसी और भी अनेकों व्याख्याएँ हैं, परिभाषाएँ हैं। जैसे श्रीमद्भगवद्गीता में ‘समत्वं योग उच्यते’ तथा ‘योगः कर्मसुकौशलम्’ कहकर योग को परिभाषित किया गया है, लेकिन महर्षि पतंजलि इन सभी आचार्यों-शास्त्रकारों से कहीं ज्यादा वैज्ञानिक हैं। वे पत्ते और टहनियाँ नहीं, सीधे जड़ पकड़ते हैं। गीता में बतायी गयी समता एवं कर्मकुशलता मिलेगी कैसे? दिव्य सत्ता से साधक के अस्तित्व का जुड़ाव होगा किस तरह? महर्षि पतंजलि की परिभाषा में इन सभी सवालों का सटीक जवाब है। वे कहते हैं, जब मन का अवसान हो जाएगा, जब मन मिट जाएगा। उनके अनुसार योग अ-मन की दशा है।
  
.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १७
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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