रविवार, 31 जुलाई 2016

👉 समाधि के सोपान (भाग 4) 31 July 2016 (In The Hours Of Meditation)


🔴 यदि दिव्यत्व है तो -तत त्वम् असि। अर्थात् तुम वही हो! तुम्हारे- भीतर तो सर्वोच्च है उसे जानो। सर्वोच्च की पूजा करो और पूजा का सर्वोच्च प्रकार है यह ज्ञान कि तुम और- सर्वशक्तिमान अभिन्न हो। यह सर्वोच्च क्या है? ओ आत्मन जिसे तुम ईश्वर कहते हो वही।

🔵 सभी स्वप्नों को भूल जाओ। तुम्हारे भीतर विराजमान आत्मा के संबंध में सुनने के पश्चात तुम्हीं वह आत्मा हो यह समझो। समझने के पश्चात् देखो, देखने के पश्चात् उसे जानो, जानने के पश्चात् उसका अनुभव करो! तत त्वम असि। तुम वही हो !!

🔴 संसार से विरत हो जाओ। यह स्वप्नों का मूर्त स्वरूप है। सचमुच शरीर और संसार मिल कर ही तो स्वप्नों का नीड़ है। क्या तुम एक स्वप्न- द्रष्टा बनोगे? क्या तुम स्वप्न के बंधन में सदैव के लिए बँधे रहोगे? उठो जागो और तब तक न रुको जब तक कि तुम लक्ष्य पर न पहुँच जाओ!

🔵 शांति में! गभीरशांति में! जब केवल उनके ही शब्द सुन पडते हैं तब प्रभु यही कहते है हरि ओम तत सत्। शांति में प्रवेश करो। सब के परे, हाँ सभी रूपों में भी वही आत्मा व्याप्त है। उसका स्वभाव शांति है! अनिर्वचनीय शांति!!

🌹 क्रमशः जारी
🌹 एफ. जे. अलेक्जेन्डर

शनिवार, 30 जुलाई 2016

👉 समाधि के सोपान (भाग 3) 30 July 2016


🔴 पुन: वह घडी समीप है। दिन संध्या में- समा रहा है। बाहर सब कुछ शांत है। और जब प्रकृति शांत होती है तब आत्मा अधिक शांतिपूर्वक, अधिक तत्परता से ह्र्दय की अन्तर्गुहा में समाहित होती है। इन्द्रिय तथा उसकी गतिविधियों को शांत होने दो। जीवन अपने आप में छोटा है, इच्छायें उच्छंखल है। अन्तत: थोड़ा समय तो ईश्वर को दो। वह थोड़ा ही चाहता है। केवल इतना ही कि तुम अपने आपको पहचानो क्योकि स्वयं को पहचान कर ही तुम- ईश्वर को पहचान पाते हो। क्योकि ईश्वर और आत्मा एक ही है। कुछ लौग कहते हैं कि है मानव, स्मरण रखो तुम धूलिकण के समान हो। यह शरीर तथा मन के संबंध में ही सत्य है। किन्तु- उच्चतर, अधिक बलवान, अधिक सत्य, अधिक पवित्र अनुभूति कहती है- हे मानव, स्मरण रख कि तू आत्मा है।

🔵 प्रभु कहते हैं तुम अविनाशी और अनश्वर आत्मा हो। अन्य सभी का नाश हो जाता है। रूप कितना भी सशक्त क्यों न हो उसका नाश होता ही है। मृत्यु और विनाश सभी रूपों को नियति है। विचार परिवर्तन के अधीन है। व्यक्तित्व विचार और रूप के ताने बाने से बना है। इसलिए हे आत्मन निरपेक्ष हो जाओ। स्मरण रखो कि तुम विचार और रूप के परे आत्मा हो। तुम ईश्वर के साथ एक रूप हो इसी बोध में सभी गुण सन्निहित हैं। मात्र इसी बोध में तुम अमर हो। इस बोध में ही तुम शुद्ध और पवित्र हो।

🔴 स्वामी बनने की चेष्टा न करो, तुम स्वयं स्वामी हो। तुम्हारे लिए बनने जैसी कोई बात नहीं है। तुम हो ही। होने की प्रक्रिया कितनी भी उदात्त क्यों न प्रतीत हो वह घड़ी अवश्य आयेगी जब तुम जानोगे कि प्रगति समय की सीमा में है, जबकि 'पूर्णता' शाश्वत में। और तुम समय के नहीं हो! तुम हो शाश्वतत्व के!

🌹 क्रमशः जारी
🌹 एफ. जे. अलेक्जेन्डर

शुक्रवार, 29 जुलाई 2016

👉 समाधि के सोपान (भाग 2) (In The Hours Of Meditation)


🔴  भयभीत न होओ! सभी भौतिक वस्तुएँ छाया के समान हैं। दृश्य जगत में मिथ्या का ही प्राधान्य है। तुम ही सत्य हो जिसमें कोई परिवर्तन नहीं। यह जान लो कि तुम अटल हो। प्रकति जैसा चाहे वैसा खेल तुम्हारे साथ करे। तुम्हारा रूप स्वप्नमात्र है। इसें जानो और संतुष्ट रहो। तुम्हारी आत्मा निराकार ईश्वर में ही अवस्थित है। मन को टिमटिमाते प्रकाश का अनुसरण करने दो। इच्छायें शासन करती हैं। सीमाओं का अस्तित्व है। तुम मन नहीं हो। इच्छायें तुम्हारा स्पर्श नहीं कर सकती।

🔵  तुम सर्वज्ञता एवं सर्वशक्तिमत्ता के अंतर्गत समाविष्ट हो। स्मरण रखो! जीवन एक खेल मात्र है। अपनी भूमिका निभाओ। अवश्य निभाओ। यही नियम है। किन्तु साथ ही तुम न तो खिलाडी हो, न खेल हो और न ही नियम। स्वयं जीवन भी तुम्हें सीमित नहीं कर सकता। क्या तुम असीम नहीं हो? जीवन तो स्वप्न के पदार्थ से बना है। तुम स्वप्न नहीं देखते। असत्य के स्पर्श और दोष से परे तुम स्वप्नरहित सत्ता हो। इसे अनुभव करो! अनुभव करो और मुक्त। हो जाओ! मुक्त!

🔴  शांति! शांति! मूक शाति।! श्रवणीय शांति! वह शांति जिसमें ईश्वर के शब्द सुने जाते हें। शांति और मौन! तब ईश्वरीय ध्वनि आती है। श्रवणीय मौन के भीतर श्रवणीय।

🔵  मैं तुम्हारे साथ हूँ! सदैव, सदैव के लिए। तुम मुझसे दूर कभी नहीं रहे और न ही कभी दूर हो सकते हो। मैं ही तुम्हारी आत्मा हूँ। ब्रह्माण्ड सै परे, सभी स्वप्नों से परे आप्तकाम हो अनंतता के मध्य मैं विराजमान हूँ। और तुम भी वही हो। क्योंकि मैं ही तुम हो और तुम ही मैं' हूँ। सभी स्वप्नों का त्याग कर मेरे पास आओ। मैं तुम्हें अज्ञान अंधकार के समुद्रं के उस पार प्रकाश और शाश्वत जीवन में ले जाऊँगा। क्योंकि मैं यह सब हूँ और तुम और मैं एक हैं। तू मैं हूँ और मैं तू हैं। जब मौन और शांति के क्षण पुन: आयेंगे तब तुम मेरी आवाज सुनोगे। ईश्वर की ध्वनि! ईश्वरीय ध्वनि!!

🌹 एफ. जे. अलेक्जेन्डर

गुरुवार, 28 जुलाई 2016

👉 समाधि के सोपान (भाग 1)


🔴 कुछ क्षण ऐसे होते हैं जब व्यक्ति संसार को भूल जाता है ।। ऐसी घड़ियाँ होती हैं जब व्यक्ति धन्यता की उस सीमा में पहुँच जाता है जहाँ आत्मा स्वयं तृप्त तथा सर्वशक्तिमान के सान्निध्य में होती है। तब वासनाओं के सभी सम्मोहंन निरस्त हो जाते हैं इन्द्रियों की सभी ध्वनियाँ स्थिर हो जाती हैं। केवल परमात्मा वर्तमान होता है।

🔵 ईश्वर में शुद्ध तथा एकाग्र मन से अधिक पवित्र और कोई उपासना- गृह नहीं है। ईश्वर में एकाग्र हो कर मन शांति के जिस क्षेत्र में प्रवेश करता है उस क्षेत्र से अधिक पवित्र और कोई स्थान नहीं है। ईश्वर की ओर विचारों के उठने से अधिक पवित्र कोई धूप नहीं है, उससे मधुर कोई सुगंध नहीं है।

🔴 पवित्रता, आनंद, धन्यता, शांति!! पवित्रता, आनंद, धन्यता, शांति!! ये ही ध्यानावस्था के परिवेश का निर्माण करते हैं ।

🔵 आध्यात्मिक चेतना इन्हीं शांत और पवित्र घड़ियों में उदित होती है। आत्मा अपने स्रोत के समीप होती है। इन घड़ियों में शुद्ध अहं का यह झरना खरस्रोता महान् नदी हो कर सत्य और स्थायी उस अहं की ओर बहता है जो ईश्वर चेतना का महासागर है तथा वह एकं अद्वितीय है। ध्यान की घड़ियों में जीवात्मा सर्वशक्तिमान से अभय, अस्तित्वबोध तथा अमरत्व लाभ करता है, जो कि उसका स्वाभाविक गुण है।

🔴 ओ मेरी आत्मा अपने आप में समाहित हो जाओ। सत्य के साथ शांति की घड़ियों को खोजो। स्वयं अपनी आत्मा को ही सत्य का सार जानो! ईश्वरत्व का सार जानो! वस्तुत: ईश्वर हृदय में ही निवास करते  हैं।

🌹 एफ. जे. अलेक्जेन्डर

मंगलवार, 26 जुलाई 2016

🌞 शिष्य संजीवनी (अन्तिम भाग) 👉 परमशान्ति की भावदशा


🔴 भगवान् बुद्ध कहते हैं जो आघात से, संघात से पैदा होता है, आहत होने से जिसकी उत्पत्ति होती है, वह मरणशील है। उसे मरना ही है। इसके विपरीत जो अनाहत है, वह शाश्वत है। मंत्र शास्त्र ने इसके श्रवण की व्यवस्था की है। इन पंक्तियों में हम अपने पाठकों को एक अनुभव की बात बताना चाहते हैं। बात गायत्री मंत्र की है, जिसे हम रोज बोलते हैं। यह बोलना दो तरह का होता है, पहला- जिह्वा से, दूसरा विचारों से। इन दोनों अवस्थाओं में संघात है। परन्तु जो निरन्तर इस प्रक्रिया में रमे रहते हैं, उनमें एक नया स्रोत पैदा होता है। निरन्तर के संघात से एक नया स्रोत फूटता है। अन्तस् के स्वर। ऐसा होने पर हमें गायत्री मंत्र बोलना नहीं पड़ता, बस सुनना पड़ता है।
     
🔵 फिर तो हमारा रोम- रोम गायत्री जपता है। हवाओं, फिजाओं में गायत्री की गूंज उठती है। सारी सृष्टि गायत्री का गायन करती है। यह अनुभव की सच्चाई है। इसमें बौद्धिक तर्क की या फिर किताबी ज्ञान की कोई बात नहीं है। ऐसा होने पर गायत्री का जीवन का स्वर बन जाता है, जो निरन्तर साधना कर रहे हैं, उन्हें एक दिन यह अनुभव अवश्य होता है। यह अनुभव दरअसल अपनी साधना के पकने की पहचान है। इन अनाहत स्वरों को जो सुनता है, वह शाश्वत में प्रवेश करता है। थोड़ा सा अलंकारिक भाषा में कहें तो ये स्वर प्रभु के परम मन्दिर में घण्टा ध्वनि है, जो इस मंदिर में प्रवेश करते हैं, वे इस मधुर ध्वनि को भी सुनते हैं।
   
🔴 इस सूत्र की आखिरी बात है, जो बाहरी और आन्तरिक दोनों चक्षुओं से अदृश्य है, उसका दर्शन करो। इस सूत्र का सच यह है कि हमारी आँखें दो है और दृश्य भी दो हैं। पहली आँख हमारी दृश्येन्द्रिय है, जो घटनाओं को देखती है। वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ, संसार इससे दिखाई देता है। जबकि दूसरी आँख हमारे मन की है- यह विचारों को देखती है। तर्क और निर्णय की साक्षी होती है। भगवान् का सच, अध्यात्म का अन्तिम छोर इन घटनाओं और विचारों दोनों के ही पार है। इसके लिए हमें मन के पार जाना पड़ता है। जो मन के पार जाते हैं, वहाँ उस अदृश्य का दर्शन करते हैं। और अनुभव तो यह कहता है कि अपना मन ही उस अदृश्य में विलीन हो जाता है।

इस विलीनता में ही शान्ति की अनुभूति है, जो शिष्य को अपने गुरु के कृपा- प्रसाद से मिलती है। यह सब कुछ स्वयमेव शान्त हो जाता है। साधना के सारे संघर्ष, जीवन के सभी तूफान यहाँ आकर शान्त हो जाते हैं। बस यहाँ तक शिष्य और गुरु का द्वैत भी समाप्त हो जाता है। शिष्य दिखता है होता नहीं है। अस्तित्त्व तो उसी परम सद्गुरु का होता है। यह परम शान्ति की भावदशा शिष्य, सद्गुरु एवं परमेश्वर को परम एकात्म होने की भाव दशा है। यह अकथ कथा कही नहीं जा सकती बस इसका अनुभव किया जा सकता है। बड़भागी हैं वे जो इस अनुभव में जीते हैं और अपने शिष्यत्व की सार्थकता, कृतार्थता का अनुभव करते हैं।

🌹 समाप्त
🌹 डॉ. प्रणव पण्डया
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Devo/bhav

🌞 शिष्य संजीवनी (भाग 65) 👉 परमशान्ति की भावदशा


🔴 बात भी सही है, जो सीखा गया था, जो जाना गया था, वह तो संसार के लिए था। अब जब चेतना का आयाम ही बदल गया तो सीखे गए, जाने गए तत्त्वों की जरूरत क्या रही। इसीलिए यहाँ कोई नहीं है और न ही पथ प्रदर्शन की जरूरत। यह तो मंजिल है, और मंजिल में तो सारे पथ विलीन हो जाते हैं। जब पथ ही नहीं तब किस तरह का पथ- प्रदर्शन। यहाँ तो स्वयं को प्रभु में विलीन कर देने का साहस करना है। बूंद को समुद्र में समाने का साहस करना है। जो अपने को सम्पूर्ण रूप से खोने का दुस्साहस करता है, वही प्रवेश करता है। इसीलिए सूत्र कहता है कि यहाँ न तो कोई नियम है और न कोई पथ प्रदर्शक।
      
🔵 यहाँ खड़े होकर- जो मूर्त नहीं है और अमूर्त भी नहीं है, उसका अवलम्बन लो। मूर्त यानि कि पदार्थ अर्थात् साकार। और अमूर्त अर्थात् यानि कि निराकार। सूत्र कहता है कि इन दोनों को छोड़ो। और दोनों से पार चले जाओ। यह सूत्र थोड़ा समझने में अबूझ है। परन्तु बड़ा गहरा है। मूर्त और अमूर्त ये दोनों एक दूसरे के विपरीत है। इन विरोधो में द्वन्द्व है। और शिष्य को अब द्वन्द्वों से पार जाना है। इसलिए उसे इन दोनों के पार जाना होगा। सच तो यह है कि मूर्त और अमूर्त में बड़ा भारी विवाद छिड़ा रहता है। कोई कहता है कि परमात्मा साकार है तो कोई उसे निराकार बताता है। और साकारवादी और निराकारवादी दोनों झगड़ते रहते हैं। जो अनुभवी हैं- वे कहते हैं कि परमात्मा इस झगड़े के पार है। वह बस है, और जो है उसे अनुभव किया जा सकता है। उसे जिया जा सकता है, पर उसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता है। जो नहीं कहा जा सकता, उसी में लय होना है।
    
🔴 अगली बात इस सूत्र की और भी गहरी है। इसमें कहा गया है- केवल नाद रहित वाणी सुनो। बड़ा विलक्षण सच है यह। जो भी वाणी हम सुनते हैं, वह सब आघात से पैदा होती है। दो चीजों की टक्कर से, द्वन्द्व से पैदा होती है। हवाओं की सरसराहट में वृक्षों के झूमने, पत्तियों के टकराने का द्वन्द्व है। ताली बजाने में दोनों हाथों की टकराहट है। हमारी वाणी भी कण्ठ की टकराहट का परिणाम है। जहाँ- जहाँ स्वर है, नाद है, वहाँ- वहाँ आहत होने का आघात है। परन्तु सन्तों ने कहा है कि एक नाद ऐसा भी है, जहाँ कोई किसी से आहत नहीं होता। यहाँ नाद तो है, पर अनाहत है।

🌹 अगले अंक में समाप्त
🌹 डॉ. प्रणव पण्डया
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Devo/bhav

👉 अट्ठाईस बरस बाद


🔴 उस समय दूसरा विश्व युद्ध चल रहा था। अमेरिका और जापान की सेनाएँ मोर्चों पर आमने-सामने डटी हुई थीं। जापान की सरकार ने अपने एक छोटे से टापू गुआम को बचाने के लिए 13 हजार सैनिक तैनात कर दिये थे और अमेरिका जल्दी से जल्दी इस टापू पर अपना अधिकार देखना चाहता था क्योंकि गुआम सैनिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण था। यहाँ से दुश्मन पर सीधे वार किया जा सकता था।

🔵 गुआम पर कब्जा बनाये रखने और उस पर अधिकार करने के लिए दोनों देशों की सेनाएं घमासान लड़ाई लड़ रही थीं। जब जापानी सैनिकों के हारने का मौका आया तो उन्होंने आत्म-समर्पण करने के स्थान पर लड़ते-लड़ते मर जाना श्रेयस्कर समझा। संख्या और साधन बल में अधिक शक्तिशाली होने के कारण अमेरिकी सैनिकों को जल्दी विजय मिल गई और गुआम का पतन हो गया। सैकड़ों जापानी सैनिक निर्णायक युद्ध की अन्तिम घड़ियों तक लड़ते रहने के बाद, कुछ बस न चलता देख जंगलों में भाग गये क्योंकि सामने रहते हुए उन्हें हथियार डालने पड़ते, समर्पण करना पड़ता, पर उन्हें यह किसी कीमत पर स्वीकार नहीं था।

🔴 सन् 1973 में इन्हीं सैनिकों में से सैनिक सार्जेण्ट शियोर्चा योकोई वापस लौटा, जिसे जापान ने सर्वोच्च राष्ट्रीय सम्मान से सम्मानित किया। योकोई अट्ठाईस वर्षों तक जंगल की खाक छानता हुआ, पेड़-पौधों को अपना साथी मानते हुए, प्रगति की दौड़ दौड़ रही दुनिया से बेखबर सभ्य संसार में लौटा था। उसके इस वनवास की कहानी बहुत ही रोमाँचकारी है। योकोई को किन-किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा? और उसने इन सबको किस सहजता से स्वीकार किया। उसके मूल में है- आत्म सम्मान और राष्ट्रीय गौरव की अक्षुण्ण बनाये रखने की भावना। ‘टूट’ जायेंगे पर झुकेंगे नहीं, यह निष्ठा।

🔵 अट्ठाईस वर्षों तक जंगल में रहते हुए योकोई को यह पता ही नहीं चला कि दूसरा विश्व युद्ध समाप्त हो गया है। इस सम्बन्ध में वह क्या सोचता था? पत्रकारी ने योकोई से यह प्रश्न किया तो उसने बताया, मैंने यह सीखा था कि जीतेजी बन्दी बनने की अपेक्षा मर जाना अच्छा है। गुआम की लड़ाई में आसन्न पराजय को देखते हुए सैकड़ों सैनिकों के साथ में भी जंगल में भाग गया। मेरे साथ आठ सैनिक और थे। हमें लगा कि सबका एक साथ रहना खतरे से खाली नहीं है। इसलिए हम टोलियों में बँट गये। मेरी टोली में दो सैनिक और थे। हम तीनों टोलोफोफोखिर किले की आरे चले गये। यहीं पर हमें पता चला कि जापान हार गया है। अब तो नगर में जाने की सम्भावना और भी समाप्त हो गई।

🔴 अट्ठाईस वर्षों तक योकोई ने आदिम जीवन बिताया। उसके पास केवल एक कैंची थी, जिससे वह पेड़ों की शाखाएँ काटता और उनका उपयोग भोजन पकाने तथा छाया करने के लिए करता। कपड़े सीने के लिए उसने अपने बढ़े हुए नाखूनों का सुई के रूप में इस्तेमाल किया। रहने के लिए उसने जमीन में गुफा खोद ली और वह बिछौने के लिए पेड़ों की पत्तियों का उपयोग करता। भोजन के काम जंगली फल काम आते।

🔵 समय की जानकारी तो कैसे रखता? परन्तु महीने और वर्ष की गणना तो वह रखता ही था। पूर्णिमा का चाँद देखकर वह पेड़ के तने पर एक निशान बना देता। वह गुफा से बाहर बहुत कम निकलता था। प्रायः रात को ही वह बाहर भोजन की तलाश में आता था। कभी कभार बाहर आना उसे पुनः सभ्य संसार में ले आया।

🔴 एक बार टोलोफोको नहीं के किनारे घूम रहा था कि जो मछुआरों ने उसे देख लिया और सन्देह होने के कारण वे उसे पकड़ कर ले आये तथा पुलिस को सौंप दिया। वहाँ पूछताछ करने पर पता चला कि वह जापान की शाही सेना की 38 वीं इन्फैक्ट्री रेजीमेंट का सिपाही है। जापान की सरकार ने उसे करीब 350 सेन वेतन और सहायता के रूप में काफी रकम देने की घोषणा की है।

🌹 अखण्ड ज्योति 1981 जनवरी

रविवार, 24 जुलाई 2016

🌞 शिष्य संजीवनी (भाग 64) 👉 परमशान्ति की भावदशा

 🔴 शिष्य संजीवनी की यह सूत्र- माला एक लम्बे समय से शिष्यों को शिष्यत्व की साधना का मर्म समझाती आयी है। उन्हें अपने सद्गुरु की कृपा का अधिकारी बनाती आयी है। अब इस सूत्र- माला का आखिरी छोर आ पहुँचा है। माला के सुमेरू तक हम आ पहुँचे हैं। केवल अन्तिम सूत्र कहा जाना है। यह अन्तिम सूत्र पहले गये सभी सूत्रों का सार है, उनकी चरम परिणति है। इस सूत्र में शिष्यत्व की साधना का चरम है। इसमें साधना के परम शिखर का दर्शन है। इसे समझ पाना केवल उन्हीं के बूते की बात है। जो इस साधना में रमे हैं, जिन्होंने पिछले दिनों शिष्यों संजीवनी को बूंद- बूंद पिया है, इस औषधि पान के अनुभव को पल- पल जिया है। इस सूत्र को समझने के लिए वे ही सुपात्र हैं, जिन्होंने अपने शिष्यत्व को सिद्ध करने के लिए अपने सब कुछ को दांव पर लगा रखा है।
     
🔵 इस अन्तिम सूत्र में पथ की नहीं मन्दिर की झलक है। पथ तो समाप्त हुआ, अब मंगलमय प्रभु के महाअस्तित्त्व में समा जाना है। बूंद- समुद्र में समाने जा रही है। सभी द्वन्द्वों को यहाँ विसॢजत होकर द्वन्द्वातीत होना है। शिष्यत्व के इस परम सुफल को जिन्होंने चखा है, जो इस स्वाद में डूबे हैं, ऐसे महासाधकों का कहना है- ‘जो दिव्यता के द्वार तक पहुँच चुका है, उसके लिए कोई भी नियम नहीं बनाया जा सकता। और न कोई पथ प्रदर्शक ही उसके लिए हो सकता है। फिर भी शिष्यों को संकेत देने के लिए कुछ संकेत दिए गए हैं, कुछ शब्द उचारे गए हैं- ‘जो मूर्त नहीं है और अमूर्त भी नहीं है, उसका अवलम्बन लो। केवल नाद रहित वाणी ही सुनो। जो बाह्य और अन्तर दोनों चक्षुओं से अदृश्य है, केवल उसी का दर्शन करो। तुम्हें शान्ति प्राप्त हो।
        
🔴 शिष्यत्व की साधना का यह अन्तिम छोर अतिदिव्य है। यहाँ किसी भी तरह के सांसारिक ज्ञान, भाव या बोध की तनिक भी गुंजाइश नहीं है। यहाँ शुद्ध अध्यात्म है। यहां केवल शुद्धतम चेतना का परम विस्तार है। यहाँ अस्तित्त्व के केन्द्र में प्रवेश है। यहाँ न तो विधि है, न निषेध। कोई नियम- विधान यहाँ नहीं है। हो भी कैसे सकते हैं, कोई नियम यहाँ पर? नियम तो वहाँ लागू किए जाते हैं, जहाँ द्वैत और द्वन्द्व होते हैं। और द्वैत और द्वन्द्व का स्थान परिधि है, केन्द्र नहीं। उपनिषद् में यही अवस्था नेति- नेति कही गयी है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 डॉ. प्रणव पण्डया
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Devo/bhav

शनिवार, 23 जुलाई 2016

🌞 शिष्य संजीवनी (भाग 63) 👉 व्यवहारशुद्धि, विचारशुद्धि, संस्कारशुद्धि


🔴 इस सम्बन्ध में गौर करने वाली विशेष बात यह है कि लोग व्यवहार शुद्धि को ही सब कुछ मान लेते हैं। सांसारिक प्रचलन भी इसका साथ देता है। जो व्यवहार में ठीक है उसे नैतिक एवं उत्कृष्ट माना जा सकता है। पर सत्य इतने तक ठीक नहीं है। नैतिकता की उपयोगिता केवल सामाजिक दायरे तक है। आध्यात्मिक प्रयोगों के लिए यह निरी अर्थहीन है। इसका मतलब यह नहीं है कि आध्यात्मिक व्यक्ति अनैतिक होते हैं। अरे नहीं, वे तो केवल अतिनैतिक होते हैं। वे नैतिकता की पहली कक्षा पास करके अन्य उच्च स्तरीय कक्षाओं को पास करने लगते हैं। ये उच्चस्तरीय कक्षाएँ विचार शुद्धि एवं संस्कार शुद्धि तक हैं। जो इन्हें कर सका वही अन्तरतम में छुपे हुए परम रहस्य को जानने का अधिकारी होती है।
     
🔵 शुद्धि व्यवहार की, यह केवल पहला कदम है, जो नैतिक नियमों को मानने से हो जाती है। शुद्धि विचारों की, यह किसी पवित्र विचार, भाव, सूत्र अथवा अपने आराध्य या परमवीतराग गुरुसत्ता का ध्यान व चिन्तन करने से हो जाती है। यदि कोई व्यक्ति किसी परम वीतराग व्यक्ति का ध्यान- चिन्तन करते रहे तो उसे विचार शुद्धि की कक्षा पास करने में कोई भी कठिनाई न होगी। इसके बाद संस्कार शुद्धि का क्रम है। यह प्रक्रिया काफी जटिल और दुरूह है। इसे ध्यान की दुर्गम राह पर चल कर ही पाया जा सकता है। इसमें वर्षों का समय लगता है। संक्षेप में इसकी कोई भी समय सीमा नहीं है। सब कुछ साधक के द्वारा किए जाने वाले आध्यात्मिक प्रयोगों की समर्थता व तीव्रता पर निर्भर करता है।
        
🔴 मां गायत्री का ध्यान व गायत्री मंत्र का जप इसके लिए एक सर्वमान्य उपाय है। जो इसे करते हैं उनका अनुभव है कि गायत्री सर्व पापनाशिनी है। इससे सभी संस्कारों का आसानी से क्षय हो जाता है। यदि कोई निरन्तर बारह वर्षों तक भी यह साधना निष्काम भाव से करता रहे तो उसे अन्तरतम में छुपे हुए रहस्य की पहली झलक मिलने की सम्भावना बढ़ जाती है। लेकिन इस प्रयोग में एक सावधानी भी है कि इन पूरे बारह वर्षों तक गायत्री साधना के विरोधी भाव को अंकुरित नहीं होना चाहिए। यदि इस साधना में भक्ति और अनुरक्ति का अभिसिंचन होता रहा तो सफलता सर्वथा निश्चित रहती है। इस सफलता से अदृश्य के दर्शन का द्वार खुलता है। इसकी प्रक्रिया क्या है इसे अगले सूत्र में पढ़ा जा सकेगा।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 डॉ. प्रणव पण्डया
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Devo/vyav

शुक्रवार, 22 जुलाई 2016

🌞 शिष्य संजीवनी (भाग 62) 👉 व्यवहारशुद्धि, विचारशुद्धि, संस्कारशुद्धि

 🔵 शिष्य संजीवनी के सभी सूत्रों में यह सूत्र अतिदुर्लभ है। इसके रहस्य को जान पाना, इसे प्रयोग कर पाना सबके बस की बात नहीं है। इसकी सही समझ एवं इसका सही प्रयोग केवल वही कर सकते हैं, जो अपने आप को वासनाओं से मुक्त कर चुके हैं। वासनाओं की कीचड़ से सना, इस कालिख से पुता व्यक्ति अपने अन्तरतम की गहराइयों में प्रवेश ही नहीं कर सकता। उसके पल्ले तो भ्रम- भुलावे और भटकनें ही पड़ती हैं। वह हमेशा भ्रान्तियों की भूल- भुलैया में ही भटका करता है। इससे उबरना तभी सम्भव है, जब अन्तःकरण में वासनाओं का कोई भी दाग न हो। अन्तर्मन अपनी सम्पूर्णता में शुभ्र- शुद्ध एवं पवित्र हो।

🔴 बंगाल के महान् सन्त विजयकृष्ण गोस्वामी इन भ्रमों के प्रति हमेशा अपने शिष्यों को सावधान करते रहते थे। उनका कहना था कि साधना की सर्वोच्च सिद्धि पवित्रता है। न तो इससे बढ़कर कुछ है और न इसके बराबर कुछ है। इसलिए प्रत्येक साधक को इसी की प्राप्ति के लिए सतत यत्न करना चाहिए। महात्मा विजयकृष्ण का कथन है कि साधक के शरीर और मन ही उसके अध्यात्म प्रयोगों की प्रयोगशाला है। उसका अन्तःकरण ही इस प्रयोगशाला के उपकरण हैं। अगर यह प्रयोगशाला और प्रयोग में आने वाले उपकरण ही सही नहीं है तो फिर प्रयोग के निष्कर्ष कभी सही नहीं आ सकते। इतना ही नहीं, ऐसी स्थिति में आध्यात्मिक प्रयोगों की सफलता और सार्थकता भी संदिग्ध बनी रहेगी।
   
🔵 इस पथ पर एक बड़ा खतरा और भी है। और यह खतरा है अन्तरात्मा की आवाज का। आमतौर पर जिसे लोग अन्तरात्मा की आवाज कहते हैं वह केवल उनके मन की कल्पनाएँ होती हैं। अपने मन के कल्पना जाल को ही वे अन्तरात्मा की आवाज अथवा अन्तरतम की वाणी कहते हैं। इस मिथ्या छलावे में फँसकर वे हमेशा अपने लक्ष्य से दूर रहते हैं। उनकी भटकने अन्तहीन बनी रहती हैं। ध्यान रहे यदि मन में अभी भी कहीं आसक्तियाँ हैं तो अन्तरतम की आवाज नहीं सुनी जा सकती है। वासनामुक्त हुए बिना जीवन के परम रहस्य को नहीं जाना जा सकता।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 डॉ. प्रणव पण्डया
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Devo/vyav

गुरुवार, 21 जुलाई 2016

🌞 शिष्य संजीवनी (भाग 61) 👉 व्यवहारशुद्धि, विचारशुद्धि, संस्कारशुद्धि

  
🔴 शिष्य संजीवनी के सूत्र शिष्यों को अपने अन्तरतम में छुपे जीवन के परम रहस्य को अनुभव करने का अवसर देते हैं। यह अवसर अतिदुर्लभ है। युगों की साधना और सद्गुरु कृपा के बल पर कोई विरला शिष्य इसे जानने का अधिकारी हो पाता है। सामान्यतया तो शिष्य और साधक अहंकार की भटकन भरी भूल भुलैया में उलझते- फंसते और फिसलते रहते हैं। शिष्यों का अहं उन्हें सौ चकमे देता है, सैकड़ों भ्रम खड़े करता है। कभी- कभी तो इन भ्रमों व भुलावों में पूरी जिन्दगी ही चली जाती है। अहं के इन्हीं वज्रकपाटों की वजह से अपना ही अन्तरतम अनदेखा रह जाता है। इसके भीतर झांकने और जानने की कौन कहे- इसका स्पर्श तक दुर्लभ रहता है। जबकि जीवन के परम रहस्य इसी में संजोये और समाए हैं। इसी में गूंथे और पिरोये गए हैं।
     
🔵 यह अनुभव उन सभी का है जो शिष्यत्व की कठिन कसौटियों पर कसे गए हैं। जिन्होंने अनगिनत साहसिक परीक्षाओं में अपने को खरा साबित किया है। वे सभी कहते हैं- ‘पूछो अपने अन्तरतम से, उस एक से, जीवन के परम रहस्य को, जो कि उसने तुम्हारे लिए युगों से छिपा रखा है। अनुभव कहता है कि जीवात्मा की वासनाओं को जीत लेने का कार्य बड़ा कठिन है। इसमें युगों लग जाते हैं। इसलिए उसके पुरस्कार को पाने की आशा मत करो, जब तक कि वासनाओं को जीत लेने का दुष्कर कार्य पूरा न हो जाए। इस कार्य के पूरा हो जाने पर ही इस नियम की उपयोगिता सिद्ध होती है। तभी मानव- अतिमानव अवस्था की ड्योढ़ी पर पहुँच पाता है।

🔴 इस अवस्था में जो ज्ञान मिलता है वह इसी कारण मिल पाता है कि अब तुम्हारी आत्मा सभी शुद्धतम आत्माओं में से एक है। और उस परम तत्त्व से एक हो गयी है। यह ज्ञान तुम्हारे पास उस परमात्मा की धरोहर है। उन प्रभु के साथ तनिक सा भी विश्वासघात अथवा इस दुर्लभ ज्ञान का दुरुपयोग अथवा अवहेलना शिष्य या साधक के पतन का कारण भी हो सकता है। कई बार ऐसा होता है कि परमात्मा की ड्योढ़ी तक पहुँच जाने वाले लोग भी नीचे गिर जाते हैं। इसलिए इस क्षण के प्रति श्रद्धा एवं भय के साथ सजग रहो।’

🌹 क्रमशः जारी
🌹 डॉ. प्रणव पण्डया
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Devo/vyav

मंगलवार, 19 जुलाई 2016

👉 गुरु पूर्णिमा विशेष- (अन्तिम भाग ) 👉 जनम-जनम के साक्षी व साथी हैं हमारे गुरुदेव


🔴 दीक्षा की प्रार्थना लेकर जब दिलीप राय उन सन्त के पास पहुँचे। तो वह इस पर बहुत हँसे और कहने लगे- तो तुम हमें श्री अरविन्द से बड़ा योगी समझते हो। अरे वह तुम पर शक्तिपात नहीं कर रहे, यह भी उनकी कृपा है। दिलीप को आश्चर्य हुआ- ये सन्त इन सब बातों को किस तरह से जानते हैं। पर वे महापुरुष कहे जा रहे थे, तुम्हारे पेट में भयानक फोड़ा है। अचानक शक्तिपात से यह फट सकता है, और तुम्हारी मौत हो सकती है। इसलिए तुम्हारे गुरु पहले इस फोड़े को ठीक कर रहे हैं। इसके ठीक हो जाने पर वह तुम्हें शक्तिपात दीक्षा देंगे। अपने इस कथन को पूरा करते हुए उन योगी ने दिलीप से कहा- मालूम है, तुम्हारी ये बातें मुझे कैसे पता चली? अरे अभी तुम्हारे आने से थोड़ी देर पहले सूक्ष्म शरीर से महर्षि अरविन्द स्वयं आए थे। उन्होंने ही मुझे तुम्हारे बारे में सारी बातें बतायी।

🔵 उन सन्त की बातें सुनकर दिलीप तो अवाक् रह गये। अपने शिष्य वत्सल गुरु की करुणा को अनुभव कर उनका हृदय भर आया। पर ये बातें तो महर्षि उनसे भी कह सकते थे, फिर कहा क्यों नहीं? यह सवाल जब उन्होंने वापस पहुँच कर श्री अरविन्द से पूछा, तो वह हँसते हुए बोले, यह तू अपने आप से पूछ, क्या तू मेरी बातों पर आसानी से भरोसा कर लेता। दिलीप को लगा, हाँ यह बात भी सही है। निश्चित ही मुझे भरोसा नहीं होता। पर अब भरोसा हो गया। इस भरोसे का परिणाम भी उन्हें मिला निश्चित समय पर श्री अरविन्द ने उनकी इच्छा पूरी की।

🔴 यह सत्य कथा सुनाकर गुरुदेव बोले- बेटा! गुरु को अपने हर शिष्य के बारे में सब कुछ मालूम होता है। वह प्रत्येक शिष्य के जन्मों-जन्मों का साक्षी और साथी है। किसके लिए उसे क्या करना है, कब करना है वह बेहतर जानता है। सच्चे शिष्य को अपनी किसी बात के लिए परेशान होने की जरूरत नहीं है। उसका काम है सम्पूर्ण रूप से गुरु को समर्पण और उन पर भरोसा। इतना कहकर वह हँसने लगे, तू यही कर। मैं तेरे लिए उपयुक्त समय पर सब कर दूँगा। जितना तू अपने लिए सोचता है, उससे कहीं ज्यादा कर दूँगा।

🔵 मुझे अपने हर बच्चे का ध्यान है। अपनी बात को बीच में रोककर अपनी देह की ओर इशारा करते हुए बोले- बेटा! मेरा यह शरीर रहे या न रहे, पर मैं अपने प्रत्येक शिष्य को पूर्णता तक पहुँचाऊँगा। समय के अनुरूप सबके लिए सब करूंगा। किसी को भी चिन्तित-परेशान होने की जरूरत नहीं है। गुरुदेव के यह वचन गुरु पूर्णिमा पर प्रत्येक शिष्य के लिए महामंत्र के समान हैं। अपने गुरु के आश्रय में बैठे किसी शिष्य के लिए कोई चिन्ता और भय नहीं है।

🌹 अखण्ड ज्योति जुलाई 2003 पृष्ठ 38
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/2003/July.38

👉 गुरु पूर्णिमा विशेष- (भाग 3 ) 👉 जनम-जनम के साक्षी व साथी हैं हमारे गुरुदेव

🔵 इतना कहकर वह फिर से ठहर गए। और उनकी आँखों में करुणा छलक आयी। वह करुणा जो माँ की आँखों में अपने कमजोर-दुर्बल शिशु को देखकर उभरती है। इस छलकती करुणा के साथ वह बोले- यदि इसी समय तुझे ब्रह्मज्ञान करा दूँ, तो जानता है तेरा क्या होगा? बेटा! तू विक्षिप्त और पागल होकर नंगा घूमेगा। छोटे-छोटे लड़के तुझे पत्थर मारेंगे। सुनने वाले को यह बात बड़ी अटपटी सी लगी। इसका भेद उसे समझ में न आया। करुणा की घनीभूत मूर्ति गुरुदेव उसे समझाते हुए बोले- बेटा! तू इसे इस तरह से समझ। दि 220 वोल्ट वाले पतले तार में 11,000 वोल्ट की बिजली गुजार दी जाय, तो जानता है क्या होगा? अपने ही इस सवाल का जवाब देते हुए वह बोले- न केवल वह पतला तार उड़ जाएगा, बल्कि दीवारें तक फट जायगी।

🔴 ब्रह्म चेतना 11,000 वोल्ट की प्रचण्ड विद्युत् धारा की तरह है। और सामान्य मनुष्य चेतना 220 वोल्ट की भाँति दुर्बल है। इसलिए ब्रह्मज्ञान पाने के लिए पहले तप करके अपने शरीर और मन को बहुत मजबूत बनाना पड़ता है। इन्हें ऐसा फौलादी बनाना होता है, ताकि ये ब्रह्म चेतना की अनुभूति का प्रबल वेग सहन कर सकें। इसके बिना भारी गड़बड़ हो जायगी। जबरदस्ती ब्रह्मज्ञान कराने के चक्कर में शरीर और मन बिखर जाएँगे। भक्त की चाहत को ठुकराते हुए भी भगवान् के मन में केवल निष्कलुष करुणा का निर्मल स्रोत ही बह रहा था। सदा वरदायी प्रभु वरदान न देकर अपनी कृपा ही बरसा रहे थे।

🔵 इस स्थिति को स्पष्ट करते हुए उन्होंने एक सत्य घटना का विवरण सुनाया। यह घटना महर्षि अरविन्द और उनके शिष्य दिलीप कुमार राय के बारे में थी। विश्व विख्यात संगीतकार दिलीप राय उन दिनों श्री अरविन्द से दीक्षा पाने के लिए जोर जबरदस्ती करते थे। वह ऐसी दीक्षा चाहते थे, जिसमें श्री अरविन्द दीक्षा के साथ ही उन पर शक्तिपात करें। उनके इस अनुरोध को महर्षि हर बार टाल देते थे। ऐसा कई बार हो गया। निराश दिलीप ने सोचा कि इनसे कुछ काम बनने वाला नहीं है। चलो किसी दूसरे गुरु की शरण में जाएँ। और उन्होंने एक महात्मा की खोज कर ली। ये सन्त पाण्डिचेरी से काफी दूर एक सुनसान स्थान में रहते थे।

🌹 अखण्ड ज्योति जुलाई 2003 पृष्ठ 39
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/2003/July.39

सोमवार, 18 जुलाई 2016

👉 गुरु पूर्णिमा विशेष- (भाग 2) 👉 जनम-जनम के साक्षी व साथी हैं हमारे गुरुदेव


🔴 इस विश्वास का खाद-पानी पाकर कई चाहतें भी मन में बरबस अंकुरित हो जाती थी। उस दिन उनके सान्निध्य में एक शिष्य के मन में बरबस यह भाव जागा कि परम समर्थ गुरुदेव क्या कृपा करके उसे जीवन की पूर्णता का वरदान नहीं दे सकते? वही पूर्णता जिसे शास्त्रों ने कैवल्य, निर्वाण, ब्रह्मज्ञान आदि अनेकों नाम दिये हैं। परम पूज्य गुरुदेव अपने पलंग पर बैठे हुए थे। और वह उनके चरणों के पास जमीन पर बिछे एक टाट के टुकड़े पर बैठा हुआ था।

🔵 इस विचार को कहा कैसे जाय, बड़ी हिचकिचाहट थी उसके मन में। सकुचाहट, संकोच और हिचक के बीच उसकी अभीप्सा छटपटा रही थी। सब कुछ समझने वाले अन्तर्यामी गुरुदेव उसके मन की भाव दशा को समझते हुए मुस्करा रहे थे। आखिर में उन्होंने ही हँसते हुए कहा- जो बोलना चाहता है, उसे बेझिझक बोल डाल।

🔴 अपने प्रभु का सम्बल पाकर उसने थोड़ा अटकते हुए कह डाला- गुरुदेव! क्या मुझे आप ब्रह्मज्ञान करा सकते हैं? इस कथन पर गुरुदेव पहले तो जोर से हँसे फिर चुप हो गए। उनकी हँसी से ऐसा लग रहा था- जैसे किसी छोटे बच्चे ने अपने पिता से कोई खिलौना माँग लिया हो या फिर उसने किसी मिठाई की माँग की हो। पर उनकी चुप्पी रहस्यमय थी। इसका भेद पता नहीं चल रहा था।

🔵 आखिर वह हँसते हुए चुप क्यों हो गए? इसी दशा में पल-क्षण गुजरे। फिर वह कमरे में छायी नीरवता को भंग करते हुए बोले- तू ब्रह्मज्ञान चाहता है। मैं अभी इसी क्षण तुझे ब्रह्मज्ञान करा सकता हूँ। ऐसा करने में मुझे कोई परेशानी नहीं है। मैं इसमें पूरी तरह से समर्थ हूँ।
🌹 अखण्ड ज्योति जुलाई 2003 पृष्ठ 38
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/2003/July.38


Guru Purnima Sandesh | Pujy Pandit Shri Ram Sharma Acharya & Mata Bhagwati devi Sharma 2016

https://youtu.be/_pE-xn4r_jI

 
गुरु पूर्णिमा महा पर्व 2016  का सीधा प्रसारण दिशा टीवी चैनल पर..
प्रातः 07:00  से 10:00 तक | 19 July 2016


Watch Live Guru Poornima Parv Celebration @ Shantikunj Haridwar on
18 July (6:30 PM) & 19 July, 2016 (6:15 AM ) 

गुरु पूर्णिमा महा पर्व 2016 सीधा प्रसारण देखने हेतु नीचे लिंक्स पर क्लिक करें
http://www.ustream.tv/channel/awgp-live

👉 गुरु पूर्णिमा विशेष- (भाग 1) 👉 जनम-जनम के साक्षी व साथी हैं हमारे गुरुदेव

🔵 आषाढ़ महीने की हल्की फुहारें अंतर्मन को अनायास ही भिगो रही हैं। नील-गगन पर छाए उमड़ते-घुमड़ते मेघों से झरती बूँदों की ही तरह अंतर्गगन में परम पूज्य गुरुदेव की यादों की मेघमालाएँ छायी हुई हैं। और उनसे अनगिन भाव भरी यादों की झड़ी लगी हुई है। जिस तरह से वृक्ष-वनस्पतियों सहित भीगती धरती की ही तरह अन्तर्चेतना का कोना-कोना भीग रहा है।

🔴 आषाढ़ की पूर्णिमा यह मुखर सन्देशा लेकर आयी है, मनुष्य के अधूरेपन को, उसकी अतृप्ति को केवल गुरु ही पूर्णता का वरदान देता है। इसलिए आषाढ़ पूर्णिमा- गुरु पूर्णिमा है। गुरु जो करते हैं वह शिष्य की पूर्णता के लिए ही करते हैं। कभी तो वह ऐसा शिष्य की इच्छा को पूर्ण करके करते हैं, तो कभी वह ऐसा शिष्य की चाहत को ठुकरा कर करते हैं।

🔵 गुरु पूर्णिमा पर बरसती यादों की झड़ी में गुरुदेव की शिष्य वत्सलता के ऐसे रूप भी हैं। उस दिन भी वह नित्य की भाँति प्रसन्नचित्त लग रहे थे। पूर्णतया खिले हुए अरुण कमल की भाँति उनका मुख मण्डल तप की आभा से दमक रहा था। उनके तेजस्वी नेत्र समूचे वातावरण में आध्यात्मिक प्रकाश बिखेर रहे थे। उनकी ज्योतिर्मय उपस्थिति थी ही कुछ ऐसी जिससे न केवल शान्तिकुञ्ज का प्रत्येक अणु-परमाणु बल्कि उनसे जुड़े हुए प्रत्येक शिष्य व साधक की अन्तर्चेतना ज्योतिष्मान होती थी।

🔴 उनके द्वारा कहा गया प्रत्येक शब्द शिष्यों के लिए अमृत-बिन्दु था। वे कृपामय अपने प्रत्येक हाव-भाव में, शिष्यों के लिए परम कृपालु थे। उनके सान्निध्य में शिष्यों एवं भक्तों को कल्पतरु के सान्निध्य का अहसास होता था। सभी को विश्वास था कि उनके आराध्य सभी कुछ पूरा करने में समर्थ हैं।

🌹 अखण्ड ज्योति जुलाई 2003 पृष्ठ 38
http://literature.awgp.in/magazine/AkhandjyotiHindi/2003/July.38

मंगलवार, 12 जुलाई 2016

👉 अखंड ज्योति का प्रधान उद्देश्य (भाग 2)


🔴 हम प्रत्येक धर्मप्रेमी से करबद्ध प्रार्थना करते हैं कि धर्म के वर्तमान विकृत रूप में संशोधन करें और उसको सुव्यवस्थित करके पुनरुद्धार करें। धर्माचार्यों और आध्यात्म शास्त्र के तत्वज्ञानियों पर इस समय बड़ा भारी उत्तरदायित्व है, देश को मृत से जीवित करने का, पतन के गहरे गर्त में से उठाकर समुन्नत करने की शक्ति उनके हाथ में है, क्योंकि जिस वस्तु से-समय और धन से-कौमों का उत्थान होता है, वह धर्म के निमित्त लगी हुई हैं। जनता की श्रद्धा धर्म में है। उनका प्रचुर द्रव्य धर्म में लगता है, धर्म के लिये छप्पन लाख साधु संत तथा उतने ही अन्य धर्मजीवियों की सेना पूरा समय लगाये हुए है।

🔵 करीब एक करोड़ मनुष्यों की धर्म सेना, करीब तीन अरब रुपया प्रतिवर्ष की आय, कोटि-कोटि जनता की आन्तरिक श्रद्धा, इस सब का समन्वय धर्म में है। इतनी बड़ी शक्ति यदि चाहे तो एक वर्ष के अन्दर-अन्दर अपने देश में रामराज्य उपस्थित कर सकती है, और मोतियों के चौक पुरने, घर-घर वह सोने के कलश रखे होने तथा दूध दही की नदियाँ बहने के दृश्य कुछ ही वर्षों में दिखाई दे सकते हैं। आज के पददलित भारतवासियों की सन्तान अपने प्रातः स्मरणीय पूर्वजों की भाँति पुनः गौरव प्राप्त कर सकती है।

🔴 अखंड ज्योति धर्माचार्यों को सचेत करती है कि वे राष्ट्र की पंचमाँश शक्ति के साथ खिलवाड़ न करें। टन-टन पों-पों में, ताता थइया में, खीर-खाँड़ के भोजनों में, पोथी पत्रों में, घुला-घुला कर जाति को और अधिक नष्ट न करे, वरन् इस ओर से हाथ रोककर इस शक्ति को देश की शारीरिक, आर्थिक, सामाजिक, मानसिक शक्तियों की उन्नति में नियोजित कर दें। अन्यथा भावी पीढ़ी इसका बड़ा भयंकर प्रतिशोध लेगी।

🔵 आज के धर्माचार्य कल गली-गली में दुत्कारे जायेंगे और भारत-भूमि की अन्तरात्मा उन पर घृणा के साथ थूकेगी कि मेरी घोर दुर्दशा में भी यह ब्रह्मराक्षस कुत्तों की तरह अपने पेट पालने में देश की सर्वोच्च शक्ति को नष्ट करते रहे थे। साथ ही अखंड-ज्योति सर्वसाधारण से निवेदन करती है कि वे धर्म के नाम पर जो भी काम करें उसे उस कसौटी पर कस लें कि “सद्भावनाओं से प्रेरित होकर आत्मोद्धार के लिये लोकोपकारी कार्य होता है या नहीं।” जो भी ऐसे कार्य हों वे धर्म ठहराये जावें इनके शेष को अधर्म छोड़ कर परित्याग कर दिया जाय।

🌹 अखण्ड ज्योति सितंबर 1942 पृष्ठ 7
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1942/September.7

शुक्रवार, 8 जुलाई 2016

क्या हम ईश्वर को मानते है ?


ईश्वर और परलोक आदि के मानने की बात मुँह से न कहिये। जीवन से न कहकर मुँह से कहना अपने को और दुनिया को धोखा देना है। हममें से अधिकांश ऐसे धोखेबाज ही हैं। इसलिये हम कहा करते है कि हजार में नौ- सौ निन्यानवे व्यक्ति ईश्वर को नहीं मानते। मानते होते तो जगत में पाप दिखाई न देता। 

अगर हम ईश्वर को मानते तो क्या अँधेरे में पाप करते ? समाज या सरकार की आँखों में धूल झोंकते? उस समय क्या यह न मानते कि ईश्वर की आँखों में धूल नहीं झोंकी गई? हममें से कितने आदमी ऐसे हैं जो दूसरों को धोखा देते समय यह याद रखते हों कि ईश्वर की आँखें सब देख रही हैं ? अगर हमारे 
जीवन में यह बात नहीं है, तो ईश्वर की दुहाई देकर दूसरों से झगड़ना हमें 
शोभा नहीं देता। 

धर्म तत्त्व का दर्शन एवं मर्म (53)- 2.70




मंगलवार, 5 जुलाई 2016

👉 आत्मिक प्रगति के तीन अवरोध (अन्तिम भाग)


🔴 लोकेषणा का उन्माद यदि मन पर से उतर सके तो सार्वजनिक जीवन में ऐसे असंख्य लोकसेवी मिल सकते हैं जो नींव के पत्थर बनकर चिरस्थायी ठोस काम कर सकें और साथियों के लिए अपनी नम्र निस्पृहता के कारण प्राण प्रिय बने रह सकें। लोकेषणा ही उन्हें अनेकानेक प्रपंच सिखाती है। जिस प्रकार वित्तेषणा से प्रेरित लोग अनेकानेक दुष्कर्म अपनाकर अनीति की कमाई करते हैं, ठीक उसी प्रकार लोकेषणा प्रेरित तथा-कथित लोक सेवी साथियों को गिराने, उखाड़ने से लेकर अनेकों भ्रष्ट तरीके अपनाते और अपने तनिक से यश, स्वार्थ के कारण सार्वजनिक जीवन में नाक को सड़ा देने वाली दुर्गन्ध गन्दगी पैदा करते हैं।

🔵 व्यक्तिगत जीवन में बड़प्पन की छाप छोड़ने के लिए आतुर व्यक्ति उद्धत प्रदर्शनों में ठाठ-बाठ में, सज-धज में, शेखीखोरी में समय और धन का बुरी तरह अपव्यय करते हैं। यदि लोकेषणा का उन्माद मस्तिष्कों पर से उतारा जा सके और नम्रता, सज्जनता, सादगी, शालीनता का महत्त्व समझाया जा सके तो उपयोगी कार्यों में लगाई जा सकते योग्य ढेरों शक्ति बच सकती हैं और उससे ठोस परिणाम प्रस्तुत करने वाले रचनात्मक कार्य सम्भव हो सकते हैं। सादगी और नम्रता से भरा हुआ निरहंकारी स्वभाव हर किसी के प्राण प्रिय लगता है, ऐसे व्यक्ति की प्रशंसा विरोधियों के मुख से भी निकलती है। वे अपने लिए हर किसी के मन में अपना स्थान बनाते हैं। उच्चस्तरीय श्रद्धा, सम्मान एवं सहयोग के अधिकारी बनते हैं। उद्धत प्रदर्शनों से बड़प्पन की धाक जमाने वाले प्रपंचियों की तुलना में विनम्र सज्जनता कितनी सस्ती और कितनी प्रभावशाली सिद्ध होती है; इसे कोई भी दूरदर्शी व्यक्ति दूसरे सज्जनों की गतिविधियों के तथा अपने अनुभव के आधार पर सहज ही जान सकता है।

🔴 वासना, तृष्णा और अहंता के क्षेत्र में बरता गया अतिवाद मनःक्षेत्र को कलुषित करने में संक्रामक रोगों की तरह विघातक सिद्ध होता है। पुत्रेषणा, वित्तेषणा और लोकेषणा की दुष्प्रवृत्तियाँ चिन्तन तन्त्र को बुरी तरह लड़खड़ा देती है। यदि जीवन को सार्थक बना सकने के योग्य उच्चस्तरीय मनोभूमि का निर्माण आवश्यक समझा जाय तो उसे इन त्रिविध विनाशकारी विपत्तियों से बचाये रहना ही उचित है।

🌹 समाप्त
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 अखण्ड ज्योति अक्टूबर 1977 पृष्ठ 19
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1977/October.19

शनिवार, 2 जुलाई 2016

👉 आत्मिक प्रगति के तीन अवरोध (भाग 4)


🔴आपाधापी, छीना-झपटी, लूट-खसोट, जितनी धन के क्षेत्र में होती हैं, उससे भी अधिक सम्मान के लिए मचती है। लोग श्रेय सम्मान पाने के लिए आतुर रहते हैं, पर उसके सीधे मार्ग आदर्श चरित्र और सेवा क्षेत्र में किये जाने वाले त्याग, बलिदान की कष्ट साध्य प्रक्रिया अपनाने में कतराते हैं। सस्ते हथकण्डों से उसे अपनाना चाहते हैं। किसी प्रकार प्रवचन वेदी पर जा बैठने और वहाँ दूसरों को बढ़ी-चढ़ी नसीहतें देने की कला प्रवीणता तो सम्मान पाने का सस्ता तरीका मान लिया गया है। येन−केन प्रकारेण लोगों की आँखों में अपना बड़प्पन और जानकारी में परिचय उतार देने की व्याकुलता में अनेक लोगों को नेतागिरी का ढोंग बनाते और शोक पूरा करते देखा जाता है। ऐसे लोग जिस-तिस संस्था में घुसने और किसी प्रकार उसका बड़ा पद हथियाने के जोड़-तोड़ मिलाते रहते हैं।

🔵 यह चतुरता जितनी सफल होती है- उतना ही परिचय क्षेत्र बढ़ता है और उस सम्पर्क द्वारा प्रकारान्तर से अनेक प्रकार के परोक्ष लाभ उठाये जाते हैं। चन्दा डकार जाने और हिसाब किताब में गोलमाल करने की संस्थाओं में पूरी गुँजाइश रहती है। व्यक्तिगत हानि न होने से जाँच पड़ताल भी कड़ी नहीं होती। ऐसी दशा में संस्थाओं पर जिनके अधिकार होते हैं उन्हें पैसे सम्बन्धी गोलमाल करने का भी लाभ मिलता रहता है। यश, सम्मान, परिचय का परोक्ष लाभ मिलता रहता है। यश, सम्मान, परिचय का परोक्ष लाभ और पैसा जैसे लाभों को यदि मात्र स्टेज-कौशल, वाचालता, संस्था बाजी, नेतागिरी के आधार पर सस्ते मोल में खरीदा जा सकता है तो उसे कौन छोड़ना चाहेगा।

🔴 इसी लूट के माल पर आपा-धापी और हाथापाई होती है। गुटबंदी खड़ी होती है। झूठे सच्चे इल्जामों की बाढ़ आती है और उस रस्सा कसी में उपयोगी संस्थाएँ भी बदनाम तथा नष्ट होती देखी गई है। किसी समय जो अमुक संस्था के प्रमुख कार्यकर्ता थे वे ही उसकी जड़ें काटते देखे गये हैं। यह सार्वजनिक जीवन का अभिशाप है। सेवा क्षेत्र को कलुषित करने में सबसे विघातक प्रवृत्ति कार्यकर्ताओं की पद लिप्सा, अधिकार लिप्सा और सस्ती वाहवाही लूटने की हेय मनोवृत्ति ही प्रधान कारण होती है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 अखण्ड ज्योति अक्टूबर 1977 पृष्ठ 18
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1977/October.18

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 4 Jan 2025

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