शनिवार, 26 मार्च 2016

धर्म जीवन की शाश्वतता को आधार मानकर चलता है


धर्म तपस्या को ही सर्वोपरि नहीं मानता, न शारीरिक सुखों के निष्प्रयोजन, परित्याग को महत्त्व देता है ।

वह जीवन को आनन्दमय देखना चाहता है । आनन्द इन्द्रिय ग्राह्य भी हो सकता है और आत्मिक भी । इस तरह का कोई भी आनन्द धर्म की मर्यादा में निन्दनीय नहीं है ।

इसी तरह धन-सम्पत्ति आदि भी अपने आप में कोई पाप नहीं है । धर्म इसके लिए रोक नहीं लगता, लेकिन धन संग्रह करने के उपायों से किसी दूसरे का अहित होता हो तो वह धर्म की दृष्टी से निन्दनीय है । धर्म इस तरह के प्रयत्नों को बुरा बताकर उन पर रोक लगता है और सही मार्ग बताता है ।

इसी तरह उत्तम सन्तान लाभ के लिए विवाह करना, धर्म द्वारा अच्छा माना गया है । किसी भी रूप में धर्मपरायणता, सुखभोग, सम्पत्ति, विवाह आदि जीवन की पूर्णता के अवरोधक नहीं हैं, जब वे आत्म-कल्याण और समाज हित के लिए किये जाते हों, लेकिन जब इनका प्रयोजन जीवन की समृद्धि, विकास से दूर हटकर अपने आप में केन्द्रित हो जाता है, तभी ये अच्छे नहीं माने जाते ।

- पं श्रीराम शर्मा आचार्य
- धर्म तत्त्व का दर्शन और मर्म (वांग्मय 53)-1.21

1 टिप्पणी:

yashwant singh ने कहा…
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