गुरुवार, 30 नवंबर 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 30 Nov 2023

🔷 मानव-जीवन की सफलता, सौंदर्य और उपयोगिता में वृद्धि जिन नैतिक सद्गुणों से होती है, उनमें सहानुभूति का महत्व कम नहीं है। शक्ति, सत्यनिष्ठा, व्यवस्था, सच्चाई कर्म-निष्ठा, निष्पक्षता, मितव्ययिता और आत्म-विश्वास के आधार पर सम्मान मिलता है, समृद्धि प्राप्त होती है और जीवन के सभी क्षेत्रों में सफलता के दर्शन होते हैं, किन्तु लौकिक जीवन में जो मधुरता तथा सरसता अपेक्षित है, वह सहानुभूति के अभाव में सम्भव नहीं। सहानुभूति चरित्र की वह गरिमा है, जो दूसरों का मन मोह लेने की क्षमता रखती है। इससे पराये अपने हो जाते हैं। किसी तरह की रुकावट परेशानी मनुष्य जीवन में नहीं आती। सहानुभूति से मन निर्मल होता है, पवित्रता जागती है और बुद्धि-प्रखरता से व्यक्तित्व निखर उठता है।

🔶 दूसरों के दुःखों में अपने को दुःख जैसे भावों की अनुभूति हो तो हम कह सकते हैं कि हमारे अन्तःकरण में सच्ची सहानुभूति का उदय हुआ है। इससे व्यक्तित्व का विकास होता है और पूर्णता की प्राप्ति होती है। सभी में अपनापन समाया हुआ देखने की भावना सचमुच इतनी उदात्त है कि इसकी शीत छाया में बैठने वाला हर घड़ी अलौकिक सुख का आस्वादन करता है। दीनबन्धु परमात्मा की उपासना करनी हो तो आत्मीयता की उपासना करनी चाहिये।

🔷 मौन वाणी की शक्ति को संशोधित और संवर्धित करने की साधना है। वाणी के दुरुपयोग से हमारी शक्ति का एक बहुत बड़ा अंश नष्ट हो जाता है। इसलिए जिस तरह इन्द्रिय संयम के लिए ब्रह्मचर्य आदि का विधान है, उसी तरह वाणी के संयम के लिए मौन की साधना बताई गई है। महात्मा गाँधी ने कहा है “मौन सर्वोत्तम भाषण है, अगर बोलना ही हो तो कम-से-कम बोलो। एक शब्द से भी काम चल जाय तो दो न बोलो।” फैंकलिन के शब्दों में “चींटी से अच्छा कोई उपदेश नहीं देता और वह मौन रहती है।” कालाइल ने कहा है, “मौन में शब्दों की अपेक्षा अधिक वाक्शक्ति होती है।”

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 धर्म का प्रथम आधार और इसकी पृष्ठभूमि

धर्म का प्रथम आधार है - आस्तिकता, ईश्वर विश्वास। परमात्मा की सर्वव्यापकता, समदर्शिता और न्यायशीलता पर आस्था रखना, आस्तिकता की पृष्ठभूमि है। यह मान्यता मनुष्य की दुष्प्रवृत्तियों पर अंकुश रख सकने में पूर्णतया समर्थ होती है। सर्वव्यापी ईश्वर की दृष्टि में हमारा गुप्त-प्रकट कोई आचरण अथवा भाव छिप नहीं सकता। समाज की, पुलिस की आँखों में धूल झोंकी जा सकती है, पर घट-घटवासी परमेश्वर से तो कुछ छिपाया नहीं जा सकता ।

सत्कर्मों का या दुष्कर्मों का दण्ड आज नहीं तो कल मिलेगा ही, यह मान्यता वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन में नीति और कर्त्तव्य का पालन करते रहने की प्रेरणा देती है। सत्कर्म करने वाले को यदि प्रशंसा, मान्यता या सफलता नहीं मिली है तो ईश्वर भविष्य में देगा ही, यह आस्था उसे निराश नहीं होने देती और असफलताएँ मिलने पर भी वह सदाचरण के पथ पर आरूढ़ बना रहता है। इसी प्रकार कुकर्मी निर्भय नहीं हो पाता।

🔷 आस्तिकता धर्म का इसलिए प्रथम आवश्यक एवं अनिवार्य अंग माना गया है कि उससे हमारा सदाचरण अक्षुण्य बना रह सकता है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 युग निर्माण योजना - दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम-६६ (६.१०)


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बुधवार, 29 नवंबर 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 29 Nov 2023

🔶 मनुष्य के दुःख का प्रमुख कारण उसके निजत्व की अज्ञानता है। इस कारण मनुष्य का दृष्टिकोण ही भिन्न हो जाता है। जिस स्थिति में है उसी को आधार मानकर जीवन का सारा क्रिया व्यापार चलता है। इन व्यवसायों में जब विघ्न उत्पन्न होते हैं, तो भाग्य को दोष देते हैं। भगवान को कोसते, रोते बिलखते रहते हैं।

🔷 धन-दौलत, जिसे सुख का साधन मानते हैं, वह भी सुख कहाँ दे पाता है। ऐसा रहा होता तो हेनरी फोर्ड, राकफेलर आदि प्रमुख धनपति महा सुखी रहे होते। धन के कारण उत्पन्न होने वाला भय, आलस्य, भोग आदि से मनुष्य का हृदय हर घड़ी काँपता रहता है। धनिकों को थोड़ा घाटा लगा कि हार्टफेल हुआ। यह बात बताती है कि धन का साहसी भावनाओं से पूर्णतया सम्बन्ध-विच्छेद है। अतः भयदायक परिस्थितियों में रहकर, विपुल धन-सम्पत्ति का स्वामी होकर भी मनुष्य सुखी रह सकेगा, इसमें सन्देह ही है।

🔶 स्वतन्त्र बुद्धि की कसौटी पर जो सत्य लगे उसे अपने तक ही सीमित न रखकर, उसे स्वतन्त्रता पूर्वक व्यक्त करने, दूसरों को सिखाने की क्षमता और साहस का होना भी आवश्यक है। बहुत से लोग बड़े बुद्धिमान होते हैं, निर्णय पर भी पहुँच जाते हैं लेकिन वे साहस के साथ अपने अनुभव को प्रकट नहीं करते। उक्त प्रकार से बुद्धि को दबाने पर वह कुण्ठित हो जाती है, उसकी क्षमता नष्ट हो जाती है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 साधना

साधना किसे कहते हैं आपको मालूम नहीं? आप हनुमान जी की पूजा करते हैं, सन्तोषी माता की पूजा करते हैं। यह मन्त्र है, न यन्त्र है, न पूजा है। आप हनुमान जी या सन्तोषी माता को साधते हैं। अरे पहले अपने आपको तो साधिये न, पर यह जो जादूगरी आप करते हैं, वह बदमाशी के सिवा कुछ नहीं है। अगर आप पूजा- उपासना करते हैं, तो ठीक, यह आपकी मर्जी है, पर यह न तो कोई मन्त्र जप है, न भजन है, यह मात्र धूर्तगीरी है। पूजा के नाम पर यदि आप ऐसी बदमाशी करते हैं तो आपकी मर्जी, पर इससे कुछ होने वाला नहीं है। पहले आप समर्पण करना सीखिये, यह मोटी- मोटी बातें थीं जो हमने किसी तरह से आपसे कह दीं।

हमारे गुरुजी की यही मर्जी है कि हम आपमें से- हर आदमी में से ब्राह्मण तथा सन्त को जिन्दा करें और हम यही चाहते हैं कि अगर हमारे अन्दर बल हो तथा आपके अन्दर ब्राह्मणत्व तथा साधु हो तो वह जिन्दा हो जाए। इस विदाई के अवसर पर यही कहकर हम आप लोगों को विदा कर रहे हैं। मित्रों, गुरुजी ने हमेशा दिया है, आगे भी देते रहेंगे, शर्त एक ही है कि आप अपनी ब्राह्मण तथा सन्त की प्रवृत्ति जिन्दा करें। आप जाइये एवं अपने- अपने कामों में जुट जाइये।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 वाङमय- नं 68 पेज 1.13

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मंगलवार, 28 नवंबर 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 28 Nov 2023

🔶 बुराई, भ्रष्टाचार, अपराधों के सम्बन्ध में हमारी शिकायतें दिनों दिन बढ़ती जा रही हैं। प्रतिदिन एक बँधे हुए ढर्रे की तरह हम नित्य ही इस सम्बन्ध में टीका टिप्पणी करते हैं, तरह-तरह की आलोचनायें करते हैं। कभी सरकार को दोष देते हैं तो कभी प्रशासन व्यवस्था की छीछालेदार करते हैं। कभी किन्हीं व्यक्तियों को इसके लिए जिम्मेदार ठहराते हैं। इस तरह की शिकायतें एक सामान्य व्यक्ति से लेकर उच्च-स्थिति के लोगों तक से भी सुनी जा सकती हैं। इनमें बहुत कुछ ठीक भी हो सकती हैं। लेकिन कभी हमने यह भी सोचा है कि इनके लिए हम स्वयं कितने जिम्मेदार हैं।

🔷 बुराइयों को मिटाने के लिए हमारा सर्व-प्रथम कर्तव्य है-हम दूसरों के साथ ऐसा व्यवहार न करें, जिसे हम स्वयं अपने लिए न चाहते हों। भगवान मनु ने इसी तथ्य का प्रतिपादन करते हुए अपनी प्रजा को बताया था- “आत्मनः प्रतिकूलिति परेषाँ न समाचरेत्” जिस बात को तुम अपने लिए नहीं चाहते, उसे दूसरों के लिए मत करो।

🔶 स्मरण रहे, सहज मौन ही हमारे ज्ञान की कसौटी है। “जानने वाला बोलता नहीं और बोलने वाला जानता नहीं।” इस कहावत के अनुसार जब हम सूक्ष्म रहस्यों को जान लेते हैं तो हमारी वाणी बन्द हो जाती है। ज्ञान की सर्वोच्च भूमिका में सहज मौन स्वयमेव पैदा हो जाता है। स्थिर जल बड़ा गहरा होता है। उसी तरह मौन मनुष्य के ज्ञान की गम्भीरता का चिन्ह है। वाचालता पांडित्य की कसौटी नहीं है, वरन् गहन गम्भीर मौन ही मनुष्य के पण्डित, ज्ञानी होने का प्रमाण है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 उपासना और आत्म-निरीक्षण

मित्रो ! उपासना का तात्पर्य अपने आपको महानता के आदर्श के अधिकाधिक निकट लाना तथा आग और ईधन की तरह तादात्म्य स्थापित कर लेना है। साधना का तात्पर्य है संचित कुसंस्कारों और कषाय-कल्मषों की छाती पर चढ़ बैठना, उन्हें बेरहमी के साथ कुचल-मसल कर रख देना। इंद्रिय संयम, समय संयम, अर्थ संयम और विचार संयम की चतुर्विध तपश्चर्या के सहारे ही जीवन की वरिष्ठïता उभरती है और उस आत्मबल का उदय होता है जिसे संसार का सबसे बड़ा सामर्थ्य स्त्रोत कहा जाता है। आराधना वह है जिसमें 'आत्मवत् सर्वभूतेषु की, 'वसुधैव कुटुंबकम् की अनुभूति होती है। उपासना, साधना और आराधना का अवलंबन करके ही कोई वास्तविक आत्मिक प्रगति कर सका है। आत्मिक प्रगति का वास्तविक मार्ग एक ही है समूची जीवन- चर्या में उत्कृष्टता का समावेश। जिसने यह समझ लिए उसने अध्यात्म का सारतत्व समझ लिया।

मित्रो ! आत्म-निरीक्षण करके गुण, कर्म, स्वभाव में भरे हुये दोष दुर्गुणों को ढूंढा जा सकता है और उन्हें निरस्त करने का प्रयास आरम्भ किया जा सकता है। लोहे से लोहा कटता है और विचारों से विचारों की काट की जाती है। हेय आदतें, इच्छायें और मान्यतायें जो अपने मन: क्षेत्र में जड़ जमाये बैठी हों, उन्हें आत्म- निरीक्षण की टार्च जलाकर बारीकी से तलाश करना चाहिए और निश्चय करना चाहिए कि उनका उन्मूलन करके ही रहेंगे। प्रत्येक निकृष्टï विचार के विरोधी विचारों की एक सुसज्जित सेना खड़ी करनी चाहिए।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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सोमवार, 27 नवंबर 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 27 Nov 2023

🔶 भाग्य का रोना रोने का अर्थ तो इतना ही समझ में आता है कि हम अपने कर्म के लिये सचेत नहीं हो पाये हैं। अपनी शक्तियों का दुरुपयोग ‘अब’ नहीं तो ‘तब’ किया था, जिसका कटु आघात भोगना पड़ रहा है। पर प्राकृतिक विधान के अनुसार तो यह भाग्य अपनी ही रचना है। अपने ही किए हुए का प्रतिफल है। मनुष्य भाग्य के वश में नहीं है, उसका निर्माता मनुष्य स्वयं है। परमात्मा के न्याय में अभेद देखें तो यही बात पुष्ट होती है कि भाग्य स्वयं हमारे द्वारा अपने को सम्पन्न करता है। उसका स्वतंत्र अस्तित्व कुछ भी नहीं है।

🔷 विपत्ति मनुष्य को शिक्षा देने आती है। इससे हृदय में जो पीड़ा, आकुलता और छटपटाहट उत्पन्न होती है, उससे चाहें तो अपना सद्ज्ञान जागृत कर सकते हैं। भगवान को प्राप्त करने के लिए जिस साहस और सहनशीलता की आवश्यकता होती है, दुःख उसकी कसौटी मात्र है। विपत्तियों की तुला पर जो अपनी सहन-शक्तियों को तौलते रहते हैं, वही अन्त में विजयी होते हैं, उन्हीं को इस संसार में कोई सफलता प्राप्त होती है।

🔶 मनुष्य! तुम्हें शरीर इसलिए नहीं मिला कि तुम उस पर अत्याचार करते हुए उसकी मिट्टी खराब कर दो! तुम्हें संसार के भोग इसलिए नहीं दिये गए कि तुम उन पर वुभुक्षित पशुओं की भाँति टूट पड़ो। तुम्हें मन, बुद्धि और आत्मा इसलिए नहीं मिली कि तुम उनमें द्वन्द्व कराओ। तुम्हें रात और दिन, आलोक और अन्धकार इसलिए नहीं दिये गए कि तुम उनको जैसे चाहो प्रयोग में लाओ। तुम्हारे साथ विवेक और सदाशयता को इसलिए नहीं भेजा गया कि तुम उन्हें धोखा दो। संसार में तुम्हारा अवतरण इसलिये नहीं हुआ कि तुम उसे धधकता नरक कुण्ड बना दो।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 एकान्त सेवन

प्रतिदिन प्रातःकाल अथवा सांयकाल एकान्त स्थान में चले जाओ। तुम्हारा चित्त चंचल या आकर्षित करने का कोई साधन न हो। शान्तचित से नेत्र मूँद कर बैठ जाओ। क्रमशः अपने मने की क्रियाओं का निरीक्षण करो। इन सब विचारों को एक-एक करके निकाल डालो, यहाँ तक कि तुम्हारे मन में कुछ भी न रहे। वह बिल्कुल साफ हो जाये। अब दृढ़तापूर्वक निम्न विचारों की पुनरावृति करो-

‘‘मैं आज से एक नवीन र्माग का अनुसरण कर रहा हूँ, पुराने त्रुटियों से भरे हुए जीवन को सदा र्सवदा के लिए छोड़ रहा हूँ। दोषपूर्ण जीवन से मेरा कोई सरोकार नहीं। वह मेरा वास्तविक स्वरूप कदापि नहीं था।’’

‘‘अब तक मैं शृंगार, देह पूजा, टीप-टाप में ही संलग्र रहता था। दूसरों के दोष निकालने, मजाक उड़ाने, त्रुटियों, कमजोरियों के निरीक्षण तथा आलोचना करने में रस लेता था, पर अब मैं इस अन्धकारमय कूप से निकल गया हूँ। अब मैं इन क्षुद्र उलझनों में नही पड़ सकता। ये अभद्र भ्रांतियाँ, रोग, दुःख, शोक आदि मेरी आत्मा में प्रवेश नहीं कर सकतीं। संसार की क्षणभंगुर वासना तरंगे अब मुझे पथ विचलित नहीं कर सकतीं।’’

‘‘मैं मिथ्या अभिमान में दूसरों की कुछ परवाह नहीं करता था, मदहोश था, अपने को ही कुछ समझता था, किन्तु आत्मा के अन्दर प्रवेश करने से मेरा मिथ्या गर्व चूर्ण हो गया है। मुझे अपने पूर्व कृत्यो पर हँसी आती है।’’

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
साधना से सिद्धि वाङमय क्रमांक-5 पृष्ठ-8.32

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रविवार, 26 नवंबर 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 26 Nov 2023

🔶 अपने मन की चिन्तायें हटाइये, जीवन की जटिलताओं में प्रवेश पाने की कामना का परित्याग कर दीजिए, आप निश्चय ही अपनी सुन्दरता प्राप्त कर सकेंगे। सुखद विचारों की भाव-तरंगें, सादगी के उपकरण मिलकर सौंदर्य का निर्माण करते हैं। प्रेम और कर्त्तव्य-भावना से सुन्दरता का विकास होता है। मन को सद्गुणों से आरोपित करने में ही मनुष्य का सच्चा सौंदर्य सन्निहित है। इस सुन्दरता पर दुर्भावनाओं, ईर्ष्या, छिद्रान्वेषण की मलिनता न पड़ने दीजिए। इस कुरूपता से सदैव दूर ही रखने का प्रयत्न करते रहिये। प्रसन्नता और आशापूर्ण सुखद विचारों को जितना अधिक अपने मस्तिष्क में स्थान देंगे उतना ही आपके शरीर और मन में तेजस्विता बनी रहेगी, यही सौंदर्य का गुण है।

🔷 विपत्तियाँ केवल कमजोर, कायर, डरपोक और निठल्ले व्यक्तियों को ही डराती, चमकाती और पराजित करती हैं और उन लोगों के वश में रहती हैं जो उनसे जूझने के लिए कमर कसकर तैयार रहते हैं। ऐसे व्यक्ति भली-भाँति जानते हैं कि जीवन यह फूलों की सेज नहीं वरन् रणभूमि है, जहाँ हमें प्रतिक्षण दुर्भावनाओं, दुष्प्रवृत्तियों और आपत्ति से निडर होकर जूझना है। वे इस संघर्ष में सूझबूझ से काम लेते हुए अपना जीवन-क्रम तदनुसार ढाँचे में ढालने का प्रयास करते रहते हैं और हमेशा इस बात का स्मरण रखते हैं कि किसी भी तात्कालिक पराजय को पराजय न माना जाय बल्कि हर हार से उचित शिक्षा ग्रहण कर नये मोर्चे पर युद्ध जारी रखा जाय और अन्तिम विजयश्री का वरण किया जाय।

🔶 मानव! तुम्हें संसार में इसलिए भेजा गया है कि अणु-अणु में छिपे भगवान को पहचानो, उसका साक्षात्कार करो और दूसरों को कराओ। इसके लिए तुम्हें परमात्मा के असंख्य रूपों का ज्ञान करा दिया गया है। उसका मार्ग बतला दिया गया है। उसके साधन दे दिए गये हैं। किन्तु क्या तुमने कभी स्वप्न में भी उसे खोजने की जिज्ञासा की है? क्या उपलब्ध साधनों को अपने परम उद्देश्य की ओर लगाया है? यदि नहीं—तो यह एक प्रकार से कृतघ्नता ही तो रही।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 पवित्र जीवन

मानव जीवन में व्यवहृत जितने अनुष्ठान (नियम, व्रत) सत्य, पूर्ण पवित्रता स्थापित कर सकते हैं, उनमें सबसे सरल, मीठा अनुष्ठान “ईश्वर पर विश्वास कर लेना है।” मनुष्य को यदि अपने चरित्र को ऊँचा उठाना है तो ईश्वरी नियमों को साथ-साथ आत्मिक बल बढ़ाकर स्वाध्याय, संतोष और तप को भी अपना एक मात्र लक्ष्य रखना है, इसी लक्ष्य के सहारे हम अपने अन्तिम लक्ष्य और ईश्वर के आत्मस्वरूप गुणों को प्राप्त करने की क्षमता उत्पन्न कर सकेंगे।

जैसे-जैसे हमारा स्वाध्याय बढ़ेगा, हमारी आत्मा संतोष व्रतधारी बनेगी और जब संतोष का पूर्ण रूपेण समावेश हो चुकेगा तो हमारा तप पवित्र मानव का स्वरूप लोकोपकारी वृत्तियों को जीवन देकर हमें हमारे एक मात्र लक्ष्य की पूर्ति में सहायक होगा। बस यही रूप मानव जाति का विश्व शान्तिदायक पवित्र जीवन है।

📖 अखण्ड-ज्योति अक्टूबर 1943 पृष्ठ 6


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शनिवार, 25 नवंबर 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 25 Nov 2023

🔷 भावनाओं का विस्तार अपने आप से करना है। व्यक्तिगत चरित्र निर्माण से यह प्रक्रिया प्रारम्भ होती है, धीरे-धीरे परिवार, गाँव, समाज, राष्ट्र और विश्व के साथ उसका सामंजस्य बढ़ता जाता है। इसी क्रम में व्यक्ति का निज का ज्ञान, बौद्धिक विकास और ईश्वर अनुभूति की सिद्धि प्राप्त होती है। यह आत्मयोग ही ब्रह्म ज्ञान का सबसे सीधा और सरल रास्ता है।

🔶 मन बड़ा शक्तिशाली है। पर उससे कोई विशिष्ट लाभ तभी प्राप्त किया जा सकता है जब उसे पूर्ण नियंत्रण में रखा जाय। जीवन लक्ष्य की प्राप्ति, साँसारिक सुख सुविधायें प्राप्त करने के लिए भी यह शर्त अनिवार्य है। हमारा मन वश में हो जाय तो इस जीवन को स्वस्थ व समुन्नत बना सकते हैं और पारलौकिक जीवन का भी मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं।

🔷 क्रोध के आवेग में जो कुछ भी हो जाय कम ही है। यह व्यक्ति के सर्वनाश का संकेत है क्योंकि इसका आवेग आने पर मनुष्य की सोचने विचारने की शक्ति क्षीण हो जाती है और वह आवेग में कुछ भी कर सकता है। मार पीट, कत्ल, आत्महत्या, नृशंस घटनायें क्रोध के आवेग में ही घटती हैं। सन्त तिरुवल्लरु के शब्दों में “आवेग उसे ही जलाता है जो उसके पास जाता है किन्तु क्रोध तो पूरे परिवार, समाज को संतप्त कर देता है। क्रोध एक प्रकार की आँधी है, जब वह आती है तो विवेक को ही नष्ट कर देती है और अविवेकी व्यक्ति ही समाज में अपराध तथा बुराइयों के कारण बनते हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 झूठा वैराग्य

कितने ऐसे मनुष्य हैं जो संसार के किसी पदार्थ से प्रेम नहीं करते, उनके भीतर किसी भी मौलिक वस्तु के प्रति सद्भाव नहीं होता। वे निर्दय, निर्भय, निष्ठुर होते हैं। निस्संदेह वे अनेक प्रकार की कठिनाइयों से, मुसीबतों से, बच जाते हैं, किन्तु वैसे तो निर्जीव पत्थर की चट्टान को भी कोई शोक नहीं होता, कोई वेदना नहीं होती, लेकिन क्या हम सजीव मनुष्य की तुलना पत्थर से कर सकते हैं? जो वज्र वत कठोर हृदय होते हैं, नितान्त एकाकी होते हैं, वे चाहे कष्ट न भोगें पर जीवन के बहुत से आनन्दों का उपभोग करने से वे वंचित रह जाते हैं। ऐसा जीवन भी भला कोई जीवन है? वैरागी वह है जो सब प्रकार से संसार में रह कर, सब तरह के कार्यक्रम को पूरा कर, सब की सेवा कर, सबसे प्रेम कर, फिर भी सबसे अलग रहता है।

हम लोगों को यह एक विचित्र आदत सी पड़ गई है कि जो भी दुष्परिणाम हमको भोगने पड़ते हैं, जो भी कठिनाइयाँ आपत्तियाँ हमारे सामने आती हैं, उनके लिए हम अपने को दोषी न समझ कर दूसरे के सर दोष मढ़ दिया करते हैं। संसार बुरा है, नारकीय है, भले लोगों के रहने की यह जगह नहीं है, यह हम लोग मुसीबत के समय कहा करते हैं। यदि संसार ही बुरा होता और हम अच्छे होते तो भला हमारा जन्म ही यहाँ क्यों होता? यदि थोड़ा सा भी आप विचार करो तो तुरन्त विदित हो जायेगा कि यदि हम स्वयं स्वार्थी न होते तो स्वार्थियों की दुनिया में आप का वास असंभव था। हम बुरे हैं तो संसार भी बुरा प्रतीत होगा लेकिन लोग वैराग्य का झूठा ढोल पीटकर अपने को अच्छा और संसार को बुरा बताने की आत्म वंदना किया करते हैं।

✍🏻 स्वामी विवेकानन्द
📖 अखण्ड-ज्योति मार्च 1943 पृष्ठ 5

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शुक्रवार, 24 नवंबर 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 23 Nov 2023

जब क्रोध का आवेग आता है तो उसका एक ही लक्ष्य होता है, जो अपनी कामनाओं में बाधक बना है उसे नुकसान पहुँचाना। मार-पीट कर, सामान को नष्ट कर, काम में रोड़ा अटकाकर जैसे भी बने क्रोध का लक्ष्य दूसरे को हानि पहुँचाना ही होता है। वह भले ही किसी भी रूप में पहुँचाई जाय। कभी-कभी लोग क्रोध से प्रेरित होकर अपना ही सिर फोड़ने लगते हैं। अंग भंग, आत्महत्या तक कर लेने को उद्यत हो जाते हैं, ऐसे लोग। किन्तु इसका आधार भी अपने कुटुम्बियों, स्नेह, सम्बन्धियों को वर्तमान या भविष्य में हानि पहुँचाना ही होता है। स्मरण रहे ऐसी हरकतें बेगानों के साथ कभी नहीं की जातीं। ऐसा मनुष्य तभी करता है जब दूसरों को इस प्रपंच की परवाह होती है वे इस क्रोध प्रदर्शन से प्रभावित होते हैं।

भय के लिये कारण निर्दिष्ट होना जरूरी नहीं है। मानसिक कमजोरी, दुःख या हानि की काल्पनिक आशंका से ही प्रायः लोग भयभीत रहते हैं। सही कारण तो बहुत थोड़े होते हैं। कोई सह-कर्मचारी इतना कह दे कि आप नौकरी से निकाल दिये जायेंगे, इतने ही से आप डरने लगते हैं। कोई मूर्ख पण्डित कह दे कि अमुक नक्षत्र में अति वृष्टि योग है बस फसल नष्ट होने की आशंका से किसानों का दम फूलने लगता है। नौकरी छूट ही जायेगी या जल गिरेगा ही यह बात यद्यपि निराधार है केवल अपनी कल्पना में ऐसा सत्य मान लिया है, इसी के कारण भयभीत होते हैं। इस अवास्तविक भय का कारण मनुष्य की मानसिक कमजोरी है, इसका निराकरण भी संभव है। मनुष्य इसे मिटा भी सकता है।

जो मनुष्य सामाजिक जीवन में रहकर मन और इन्द्रियों पर नियंत्रण नहीं रखता वन में जीने या घर बार छोड़ देने से उसका मन भी बदल जायगा। वहाँ भी वह अपने पाप के नये-नये तरीके ढूंढ़ लेगा। और नहीं कुविचारों के रहते हुए भला उसे आत्म-शान्ति कैसे मिलेगी ? इधर घर वालों की कलपती हुई आत्माओं से निकली हुई दुर्भावनायें भी क्या उसे चैन से रहने देंगी। सामाजिक जीवन कर्त्तव्य के अनेकों रास्ते होते हैं जिनमें लगा रहकर मनुष्य मन और इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर सकता है और आसानी से अपना पारमार्थिक लक्ष्य पूरा कर सकता है। अन्यत्र रह कर पाप के कीचड़ में फिसल जाने का भी खतरा हो सकता है किन्तु उपयुक्त गृहस्थ जीवन में ऐसी तो कोई भी आशंका नहीं होती।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 क्या कर्म क्या अकर्म?

जो बात एक देश में नीति की समझी जाती है, वही बात दूसरे देश में नीति की बिलकुल विघातक समझी जाती है। कुछ देशों में चचेरी बहिन से विवाह करना साधारण व्यवहार की बात है, किन्तु अन्य कई देशों में यही चाल नीति के बिलकुल विरुद्ध मानी जाती है। कई देशों में साली से विवाह करना पाप समझते हैं, कई में उसे ऐसा नहीं समझते। कई देशों में एक पुरुष के एक समय में एक ही पत्नी होना नीति की बात मानी जाती है- परन्तु दूसरे कई देशों में एक ही समय में चार पाँच अथवा सौ पचास स्त्रियों का होना भी एक साधारण चाल है।

इसी प्रकार नीति के अन्य सिद्धान्तों का भी अव्यवहार्य रूप प्रत्येक देश में भिन्न-भिन्न पाया जाता है, कर्त्तव्य का भी यही हाल है। कई जगह ऐसा समझा जाता है कि मनुष्य यदि कोई एक काम नहीं करता तो वह कर्त्तव्यच्युत हो जाता है। परन्तु अन्य देशों में वही कार्य करने वाला मूर्ख समझा जाता है। यद्यपि वास्तविक दशा ऐसी है, तथापि हम लोग सदैव यही समझते हैं कि साधारणतया नीति और कर्त्तव्य के विचार सम्पूर्ण मानव जाति में एक ही हैं। अब हमारे सामने प्रश्न खड़ा होता है कि, हम अपनी उपर्युक्त समझ और उपर्युक्त बातों के व्यवहार्थ स्वरूप की भिन्नता के अनुभव का मेल कैसे मिलावें। बस परस्पर विरोधी अनुभवों की एक वाक्यता करने के लिये दो मार्ग खुले हुए हैं।

एक मार्ग यह है कि यह समझा जाय कि “मैं जो कुछ कहता अथवा करता हूँ वही ठीक है और वैसा न करने वाले अन्य लोग मूर्ख तथा अनीतिवान है।” परन्तु यह मार्ग मूर्खों का है। चतुरों का मार्ग इससे भिन्न है। वे कहते हैं कि भिन्न-भिन्न देश काल और भिन्न-भिन्न परिस्थितियों के कारण एक ही सिद्धाँत के व्यवहार में भेद दिखाई देते हैं। परन्तु वास्तविक में यह बाहर से दीख पड़ने वाले भेद भाव सच्चे नहीं है। इस सिद्धाँत की निरर्थकता न दिखला कर केवल परिस्थिति की भिन्नता मात्र दिखलाते हैं। पंडितों का मत यह है कि, सिद्धान्त चाहे एक ही हो तो भी उसका व्यावहारिक स्वरूप परिस्थिति के अनुसार बदलना संभव है, न सिर्फ संभव है वरन् आवश्यक भी है।

✍🏻 स्वामी विवेकानन्द
📖 अखण्ड-ज्योति अक्टूबर 1941 पृष्ठ 16

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👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 24 Nov 2023

आत्म-ज्ञान का सम्पादन और आत्म केन्द्र में स्थिर रहना मनुष्य मात्र का पहला और प्रधान कर्तव्य है। आत्मा का ज्ञान चरित्र के विकास से मिलता है। अपनी बुराइयों को छोड़कर सन्मार्ग की ओर चलने की प्रेरणा इसी से दी जाती है कि आत्मा का आभास मिलने लगे। आत्म सिद्धि का एक मात्र उपाय पारमार्थिक भाव से जीव मात्र की सेवा करना है। इन सद्गुणों का विकास न हुआ तो आत्मा की विभूतियाँ मलिनताओं में दबी हुई पड़ी रहेंगी।

क्रोध अन्धा होता है। वह केवल उस ओर देखता है जिसे दुख का कारण समझता है, या अपनी कामनाओं का बाधक मानता है। और उसका नाश हो, उसे हानि, दुःख पहुँचे, क्रोधी का यही लक्ष्य होता है। क्रोधी व्यक्ति कभी अपने बारे में नहीं सोचता। मेरी भी कोई भूल है, कुछ मैंने भी किया है, या जो मैं करने जा रहा हूँ, उसके क्या परिणाम होंगे? इनके बारे में कुछ भी नहीं सोचता। इसके कारण बड़े-बड़े अनर्थ हो जाते हैं।

परिस्थितियों पर विचार करने के लिये मनुष्य को सदैव गंभीरता से काम लेना चाहिये। आज जैसी स्थिति कल भी रहेगी यह सोचना अबुद्धिमत्तापूर्ण है। हम साहस, शौर्य और कर्मठता से काम करें तो असफलता को सफलता में, निर्धनता को धन प्राप्ति में, अस्वस्थता को उत्तम स्वास्थ्य में क्यों नहीं बदल सकते? थोड़ा समय ही तो लगेगा। एक दिन में किसी को सफलता मिली भी हैं? फिर आप ही उतावले क्यों होते है। धैर्य रखिये और कठिनाइयों से लड़ पड़िये। आपका खराब समय जरूर टल जायेगा। गरीबी दूर होगी। जरूर आपके स्वास्थ्य में परिवर्तन होगा।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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बुधवार, 22 नवंबर 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 22 Nov 2023

🔶 उत्कृष्ट या निकृष्ट जीवन यथार्थतः मनुष्य के विचारों पर निर्भर है। कर्म हमारे विचारों के रूप हैं। जिस बात की मन में प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है, वह अपनी पसन्द या दृढ़ इच्छा के कारण गहरी नींव पकड़ लेती है, उसी के अनुसार बाह्य जीवन का निर्माण होने लगता है।

🔷 संसार में कोई भी वस्तु ऐसी दुर्लभ नहीं है जिसे आप प्राप्त न कर सकते हों, पर इसके लिये आपका हृदय परमात्मा जितना विशाल होना चाहिये। आपको अपनी आत्म-स्थिति घुलाकर परमात्मा के साथ तादात्म्य की अवस्था बनाने में देर है। इतना उदार दृष्टिकोण आप का हुआ कि सारी धरती पर आपका अधिकार हुआ। सबको प्यार कीजिये, सब आपके हैं, जी चाहे जहाँ विचरण कीजिये, सारी धरती आपके पिता परमात्मा की है। सबको अपना समझने, सबको पवित्र दृष्टि से देखने, जीव मात्र के प्रति प्रेम और आत्मीयता का व्यवहार करने से आप यह उत्तराधिकार पा सकेंगे।

🔶 कमजोरी और कायरता का कारण लोगों में सही दृष्टिकोण का अभाव है। मनुष्य शरीर के अभिमान में पड़कर आत्मा के वास्तविक स्वरूप को भूल जाने के कारण ही व्यवहार में इतना संकीर्ण हो रहा है। जाति-पाँति, भाषा-भाव के भेद के कारण हमने पारस्परिक विलगाव पैदा कर लिया है, इसी से हम छोटे हैं, हमारी शक्तियाँ अल्प हैं। किन्तु जब आत्म-ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं तो संसार का स्वरूप ही बदल जाता है। भेदभाव की नासमझी निजत्व के ज्ञान के प्रकाश में मिट जाती हैं। सब अपने ही समान, अपने ही भाई और एक ही परमात्मा के अंश होंगे तो फिर किसी के साथ धृष्टता करने का साहस किस तरह पैदा होगा।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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