बुधवार, 31 मई 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 31 May 2023

🔷 यह सोचना व्यर्थ है कि पारमार्थिक जीवन में हानि अधिक है। सच तो यह है कि पाप-पंक में फँसे रहने पर पग-पग पर, पल-पल पर जो आत्म-प्रताड़ना तथा बाहरी व्यथा-बाधाएँ सहनी पड़ती हैं। उनकी तुलना में दिव्य जीवन में आने वाली विपत्तियाँ नगण्य हैं। यदि कुछ हैं भी तो आदर्शों के लिए किये जाने वाले त्याग, बलिदान के फलस्वरूप मिलने वाले आत्म-संतोष, लोक-सम्मान एवं ईश्वरीय अनुग्रह की उपलब्धियों को देखते हुए अतीव नगण्य हैं।

🔶 यदि मनुष्यता को जीवित रहना है तो उसे एकता और आत्मीयता की दिशा में बढ़ना होगा। मतभेदों की दीवारें गिरानी पड़ेंगी तथा चिंतन और कर्तृत्व की एकरूपता प्रस्तुत कर सकने वाला राजमार्ग बनाना पड़ेगा। जीवन और मरण के बीच और कोई विकल्प नहीं। सद्भावनापूर्वक निर्वाह करने या मर-कट कर नष्ट हो जाने के अतिरिक्त शान्ति का और कोई मार्ग नहीं। मतभेद जितने भी बने रहेंगे विनाश का असुर उतना ही भयावह होता चलेगा।

🔷 सत्य-असत्य का भेद करने के लिए मनोभूमि निष्पक्ष होनी चािहए। उसमें किसी प्रकार के पूर्वाग्रह नहीं होने चाहिए। किसी मान्यता पर आग्रह जमा हो तो मनोभूमि पक्षपात से ग्रसित हो जाएगी, तब अपनी ही बात को किसी न किसी प्रकार सिद्ध करने के लिए बुद्धि-कौशल चलता रहेगा। बुरी से बुरी बात को भली सिद्ध करने के लिए तर्क ढूँढे जा सकते हैं और अपने पक्ष के समर्थन में कितने ही तथ्य तथा उदाहरण प्रस्तुत किये जा सकते हैं। इस तरह के विवादों का कभी अंत नहीं होता।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 सहृदयता में जीवन की सार्थकता (भाग 1)

रूखापन जीवन का सबसे बड़ा दुश्मन है। कई आदमियों का स्वभाव बड़ा नीरस, रूखा शुष्क, निष्ठुर, कठोर और अनुदार होता है। उनका आत्मीयता का दायरा बहुत ही छोटा और संकुचित होता है । उस दायरे से बाहर के व्यक्तियों तथा पदार्थों में उन्हें कुछ दिलचस्पी नहीं होती, किसी की हानि लाभ, उन्नति अवनति, खुशी रंज, अच्छाई बुराई से उन्हें कुछ मतलब नहीं होता। अपने अत्यन्त ही छोटे दायरे में स्त्री, पुत्र, तिजोरी, मोटर, मकान आदि में उन्हें थोड़ा रस जरूर होता है। बाकी की अन्य वस्तुओं के प्रति उनके मन में बहुत ही अनुदारता पूर्ण रुखाई होती है।

कोई कोई तो इतने कंजूस होते है कि अपने शरीर के अतिरिक्त अपनी छाया पर भी उदारता या कृपा नहीं दिखाना चाहते। इससे भी महान कंजूस इतने बड़े चढ़े होते है कि ये कंजूसी में ही तन्मय हो जाते है, आत्मा के साथ कृपा करना तो दूर शरीर के साथ में भी उदारता दिखाना नहीं चाहते। अच्छे भोजन, अच्छे वस्त्र, अच्छे मकान आदि आवश्यक वस्तुओं में भी आवश्यकता से अधिक कठोरता करते है। ऐसे रूखे आदमी यह समझ ही नहीं सकते कि मनुष्य जीवन में कोई आनन्द भी है, अपने रूखेपन के अत्युत्तर में दुनिया उन्हें बड़ी रूखी, नीरस, कर्कश, खुदगर्ज, कठोर और कुरूप मालूम पड़ती है।

रूखापन जीवन की बड़ी भारी कुरूपता है रूखी रोटी में क्या मजा है, रूखे बाल कैसे खराब लगते है, रूखी मशीन में बड़ी आवाज होती है और पुर्जे जल्दी ही टूट जाते है रूखे रेगिस्तान में जहाँ रेत का सूखा हुआ समुद्र पड़ा है कौन रहना पसंद करेगा। वैसे तो प्राणिमात्र ही विशेष रूप से ऐसे तत्वों से निर्मित है जिसके लिए सरसता की, स्निग्धता की, आवश्यकता है। मनुष्य का अन्तःकरण रसिक है, कवि है भावुक है सौंदर्य उपासक है, कला प्रिय है प्रेम मय है। हृदय का यही गुण है, सहृदयता का अर्थ कोमलता, मधुरता,आर्द्रता है जिसमें यह गुण नहीं उसे हृदय हीन कहा जाता है। हृदय हीन का तात्पर्य है जड़ पशुओं से भी नीचा। नीतिकार का कथन है कि “संगीत साहित्य कला विहीन साक्षात पशुः पुच्छविषाण हीनः” इस उक्ति में कला विहीन-नीरस मनुष्य को पशुओं से भी नीचा ठहराया गया है क्योंकि पशुओं में तो सींग पूछ की दो विशेषताएं तब भी है उस मनुष्य में तो इसका भी अभाव है। 

.... शेष कल
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति- जून 1944 पृष्ठ 5


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सोमवार, 29 मई 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 29 May 2023

गीता एक ऐसे समाज की कल्पना करती है, जिसमें प्रत्येक मानव को स्वतंत्रता और समानता का अधिकार है। मनुष्य और मनुष्य के बीच धर्म, जाति, वर्ण, लिंग और धन की दीवारें नहीं हैं। प्रत्येक मानव अपने स्वभाव के अनुसार अनासक्त और निष्काम होकर मानव जाति की सेवा में लगा रहना अपना कर्त्तव्य समझता है तथा अकर्मण्यता, आलस्य और असुरता को त्याज्य मानता है। उसकी अपनी कामनाएँ नहीं हैं। समाज की प्रगति और संपन्नता ही उसकी प्रगति और संपन्नता है।

परिवार का संतुलन सही रखना हो तो मोह से बचते हुए कर्त्तव्य तक सीमित रहना होगा। परिवार के लोगों के प्रति असाधारण मोह ही उनका स्तर गिराने और अपने कर्त्तव्य च्युत होने का प्रधान कारण होता है। यदि परिजनों की उचित-अनुचित माँगों को, प्रसन्नता-अप्रसन्नता को महत्त्व न दिया जाय और विवेक दृष्टि रखते हुए उनके कल्याण एवं अपने कर्त्तव्य भर की बात सोची जाय तो प्रत्येक परिवार का स्तर ऊँचा रह सकता है और उसमें से नर-रत्नों के उत्पन्न होने का आधार बन सकता है।

आदर्शवादी जीवन जीने का-महानता के प्रगति पथ पर चलने का हर किसी को अवसर मिल सकता है, यदि वासना, तृष्णा पर अंकुश रखा जाय और श्रेष्ठता अभिवर्धन की साध को जीवन्त, ज्योतिर्मय बनाया जाय। यह अति सरल है व कठिन भी। सरल इन अर्थों में कि निर्वाह के साधन सरल हैं, वे महानता के मार्ग पर चलते हुए भी सहज ही उपलब्ध होते रह सकते हैं। कठिन इसलिए कि पशु प्रवृत्तियों से पिण्ड छुड़ाना अति साहस का काम है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 जिन्दगी जीनी हो तो इस तरह जिये (अन्तिम भाग)

उत्साह और उल्लास बना रहने के लिए यह आवश्यक है कि अपने सामने कोई दूरगामी लक्ष्य रहे और यहाँ तक पहुँचने के लिए सोचने और करने के लिए बहुत कुछ काम सामने रहे। जीवन का आनन्द तभी तक है जब तक उसने सामने कुछ काम है। जिस दिन व्यक्ति पूर्णतया निश्चित होता है उस दिन या तो वह परमहंस होता है या जड़ मध्यवृत्ति के व्यक्ति के लिए यह स्थिति निरानन्द है और उसमें निराशा एवं निष्क्रियता मिश्रित थकान की ही अनुभूति होगी। उसे सोचना या करना भले ही कुछ न पड़े पर साथ ही आशा एवं तत्परता की ओर प्रेरित करने वाले उल्लास भरे प्रकाश से वंचित ही रहना पड़ेगा

जिम्मेदारियाँ दूसरों पर डालने की इच्छा इसलिए होती है कि उत्तरदायित्व का वजन उठाना कायर और कमजोरों को बहुत भारी प्रतीत होता है। वे पगडंडी ढूँढ़ते हैं और ऐसे सरल रास्ते बच निकलने की बात सोचते हैं जिसमें अपने ऊपर कुछ बोझ न पड़े पर वस्तुतः इसमें भटकाव के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं। उत्थान और पतन का ही नहीं।, सुख और दुःख का उत्तरदायित्व भी हमें अपने ऊपर लेना चाहिए और सफलता असफलता की अपनी ही जिम्मेदारी स्वीकार करनी चाहिए। हम अपने भाग्य के निर्माता स्वयं है।

वर्तमान में जो परिस्थितियाँ सामने खड़ी है उनमें यत्किंचित् दूसरे भी निमित्त हो सकते हैं पर अधिकतर अपनी ही रीति-नीति और गतिविधियों की प्रतिक्रिया सामने रहती है। भविष्य में भी जो कुछ होना या बनना है उस में भी अपने ही क्रिया-कलापों के प्रतिफल सामने होगे। दूसरों का सहयोग अवरोध एक सीमा तक ही हमारा भला बुरा कर सकता है। तथ्य यह है कि अपना व्यक्तित्व ही हर दिशा में प्रतिध्वनि की तरह गूँजता है।

किन्हीं असफलताओं के लिए दूसरों को दोष देने की अपेक्षा यह अधिक लाभदायक है कि हम अपनी उन त्रुटियों को ढूँढ़े जिनके कारण सफलता से वंचित रहना पड़ा इसी तरह प्रगति की दिशा में जितने कदम बढ़ सके उनके पीछे उस सुव्यवस्थित रीति-नीति को समझे जिसे अपना कर हम स्वयं ही नहीं और भी कितने ही लोग आगे बढ़ सकने में समर्थ हुए हैं। सद्गुण ही किसी को ऊँचा उठा सकते ओर आगे बढ़ा सकते हैं। यह रहस्य जिन्हें विदित हो सका वे अपने को परिष्कृत करने में जुटते हैं ताकि एक के बाद दूसरी उत्कर्ष की परतें खुलती चलें।

.... समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति- जनवरी 1973 पृष्ठ 35

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रविवार, 28 मई 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 28 May 2023

मानवी साहसिकता और धर्मनिष्ठा का तकाजा है कि जहाँ भी अनीति पनपती देखें वहाँ उसके उन्मूलन का प्रयत्न करें। यह न सोचें कि जब अपने ऊपर सीधी विपत्ति आवेगी तब देखा जावेगा। आग अपने छप्पर में लगे तभी उसे बुझाया जाय, इसकी अपेक्षा यह अधिक उत्तम है कि जहाँ भी आग लगी है वहाँ बुझाने को-आत्म रक्षा का अग्रिम मोर्चा मानकर तुरन्त विनाश से लड़ पड़ा जाय। यदि सीधे टकराने की सामर्थ्य अथवा स्थिति न हो तो कम से कम असहयोग एवं विरोध की दृष्टि से जितना कुछ बन पड़े उतना तो करना ही चाहिए।

बुरे कार्य के कारण अपमानित होने का डर ही उन्नति का श्रीगणेश है। उन्नति करनी है तो अपने आपको अनन्त समझो और निश्चय करो कि मैं उन्नति पथ पर अग्रसर हूँ, परन्तु अपनी समझ और अपने निश्चय को यथार्थ बनाने के लिए कटिबद्ध हो जाओ। अपने उन्नत विचारों को शब्दों की अपेक्षा कार्य रूप में प्रकट करो। प्रयत्न करते हुए अपने आपको भूल जाओ। जब तुम अनन्त होने लगो तो अपने आपको महाशक्ति का अंश मानकर गौरव का अनुभव करो, परन्तु शरीर, बुद्धि और धन के अभिमान में चूर न हो जाओ।

भगवान् को इष्ट देव बनाकर उसे प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है। इष्ट का अर्थ है-लक्ष्य। हम भगवान् के समतुल्य बनें। उसी की जैसी उदारता, व्यापकता, व्यवस्था, उत्कृष्टता, तत्परता अपनाएँ, यही हमारी रीति-नीति होनी चाहिए। इस दिशा में जितना मनोयोगपूर्वक आगे बढ़ा जाएगा उसी अनुपात से ईश्वरीय संपर्क का आनंद और अनुग्रह का लाभ मिलेगा।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 जिन्दगी जीनी हो तो इस तरह जिये (भाग 3)

सहयोग देने की तरह सहयोग लेने की भी आवश्यकता रहती है। पर निर्भर अपने ही पक्षधर रहना चाहिए। इतनी बड़ी बात सोची ही क्यों जाय? इतना बड़ा स्वप्न देखा ही क्यों जाय जिसमें दूसरों का सहयोग न मिलने पर खीज़ या निराशा ही पल्ले बँधे?

कठिनाइयों से कोई बच नहीं सकता। जीवन इतना सरल नहीं है कि उसे गुप-चुप बिना किसी झंझट के जिया जा सके। हमें वह साहस एकत्रित करना ही होगा कि आये दिन नाम रूप बदल कर आने वाली कठिनाइयों का सामना और समाधान करने की सूझ-बूझ परिपक्व होती रहे। शान्ति की आकांक्षा अशान्ति को परास्त करके पाई गई विशय के रूप में की जानी चाहिए। बिना झंझट का सरल और सुख सुविधाओं से भरा पूरा जीवन क्रम एक मधुर कल्पना भर है व्यावहारिक वास्तविकता नहीं जीवन का निर्माण ही खुद इस तरह हुआ है कि उस्तरे की तरह उस पर बार-बार धार रखने की रगड़ से वास्ता पड़ता रहे।

जो इस यथार्थता का सामना नहीं करना चाहता, सरलता को ही शान्ति मानता है उसे खाली हाथ ही रहना पड़ेगा अपना शरीर और मन भी क्या कम अशान्ति उत्पन्न करते हैं। नगर निवासियों की तरह ही वनवासी और सक्रियों की तरह ही निष्क्रिय भी क्षुब्ध रहते हैं। उलझनों का स्वरूप बदला जा सकता है पर उनसे न ता कोई गृही बच सकता है और न वैरागी। शान्ति तो उन्हें ही मिल सकती है जो अशान्ति से टकराने की कला के अभ्यस्त और पारंगत बन चुके  है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति- जनवरी 1973 पृष्ठ 35


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शनिवार, 27 मई 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 27 May 2023

जो लोग पिछले जीवन में कुमार्गगामी रहे हैं, वे भूले हुए, पथ भ्रष्ट तो अवश्य हैं, पर इस गलत प्रक्रिया द्वारा भी उन्होंने अपनी चैतन्यता, बुद्धिमत्ता, जागरूकता और क्रियाशीलता को बढ़ाया है। यह बढ़ोत्तरी एक अच्छी पूँजी है। पथ-भ्रष्टता के कारण जो पाप उनसे बन पड़े हैं, वे नष्ट हो सकते हैं उनके लिए निराशा की कोई बात नहीं, केवल अपनी रुचि और क्रिया सत्कर्म की ओर मोड़ने भर की देर  है। यह परिवर्तन होते ही बड़ी तेजी से सीधे मार्ग पर प्रगति होने लगेगी।

प्रलोभनों को देखकर मत फिसलो। पाप का आकर्षण आरंभ में बड़ा लुभावना प्रतीत होता है, पर अंत में धोखे की टट्टी सिद्ध होता है। जो चंगुल में फँस गया उसे तरह-तरह की शारीरिक और मानसिक यातनाएँ सहनी पड़ती हैं। इसलिए प्रलोभनों में न फँसो। चाहे कितनी ही कठिनाई का सामना करना पड़े, पर कर्त्तव्य पर दृढ़ रहो। कर्त्तव्य पर दृढ़ रहने वाले मनुष्य ही सच्चे मनुष्य कहलाने के अधिकारी हैं।

मतभेदों की दीवारें गिराये बिना एकता, आत्मीयता, समता, ममता जैसे आदर्शों की दिशा में बढ़ सकना संभव नहीं हो सकता। विचारों की एकता जितनी अधिक होगी स्नेह, सद्भाव एवं सहकार का क्षेत्र उतना ही विस्तृत होगा। परस्पर खींचतान में नष्ट होने वाली शक्ति को यदि एकता में-एक दिशा में प्रयुक्त किया जा सके तो उसका सत्परिणाम देखते ही बनेगा।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 जिन्दगी जीनी हो तो इस तरह जिये (भाग 2)

दूसरों के दुःख दर्द में हिस्सा बटाना चाहिए पर वह उतना भावुकता पूर्ण न हो कि अपने साध नहीं नष्ट हो जाये और अपना अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाय। आमतौर से उदार व्यक्तियों को ऐसी ही ठगी का शिकार होना पड़ता है। दूसरों को उबारने के लिये किया गया दुस्साहस सराहनीय है पर वह इतना आवेश ग्रस्त न हो कि डूबने वाला तो बच न सके उलटे अपने को भी दूसरे बचाने वालों की ओर निहारना पड़े उदारता के साथ विवेक की नितान्त आवश्यकता है। मित्रता स्थापित करने के साथ वह सूक्ष्म बुद्धि भी सचेत रहनी चाहिए जिससे उचित और अनुचित का सही और गलत का वर्गीकरण किया जाता है।

भावुक आतुरता के साथ यदि उदारता को जोड़ दिया जाये तो उससे केवल धूर्त ही लाभान्वित होगे और उन्हें ढूँढ़ सकना संभव ही न होगा जो इस प्रयोग के लिये सर्वोत्तम हो सकते थे। जीवन का आनन्द मैत्री रहित नीरस और स्वार्थी व्यक्ति नहीं ले सकते इस तथ्य के साथ यह परिशिष्ट और जुड़ा रहना चाहिए कि सज्जनता के आवरण में छिपी हुई धूर्तता की परख की क्षमता भी उपार्जित की जाय। ऐसा न हो कि उदारता का कोई शोषण कर ले और फिर अपना मन सदा के लिये अश्रद्धालु बन जाये।

दूसरों के लिये हमें बहुत कुछ करना चाहिए यह ठीक है। पर यह भी कम सही नहीं कि हमें दूसरों से प्रतिदान की अधिक आशाएँ नहीं करनी चाहिए हर किसी को अपने ही पैरों पर खड़ा होना होता है और अपनी ही टाँगों से चलना पड़ता है। सवारियाँ भी समय समय पर मिलती है दूसरों का सहयोग भी प्राप्त होता है। पर वह इतना कम होता है कि उससे जीवन रथ को न तो दूरी तक खींचा जा सकता है और वह तेज चाल से चल सकता है। काम तो अपनी ही टाँगे आती है। खड़ा होने के लिए अपनी ही नस नाड़ियों माँसपेशियों और हड्डियों पर वजन पड़ता है। यदि वे चरमराने लगे तो फिर दूसरे आदमी कब तक कितनी दूर तक हमें खड़ा होने या चलने में सहायता कर सकेंगे?

जो भी योजना बनाये उसमें आत्म निर्भरता का ही प्रधान भाग रहना चाहिए। दूसरों की सहायता के आधार पर जो क्रिया-कलाप खड़े किये जाते हैं वे आमतौर पर अधूरे और असफल ही रहते हैं। दूसरों का सहयोग भी मिलता ही है पर वह आगे तब आता है जब अपनी पात्रता और प्राथमिकता सिद्ध कर दी जाय। ऐसा स्वावलम्बी लोग ही कर सकते हैं वे ऐसी व्यावहारिक गतिविधियाँ अपनाते हैं जो आज की परिस्थितियों, आज के साधनों से अपने बलबूते खड़ी की जा सकती हो। भले ही इस प्रकार का शुभारम्भ छोटे रूप में हो पर उसमें यह संभावना भरी पड़ी है कि उस छोटे काम में बरती गई तत्परता और सावधानी के आधार पर अपनी प्रामाणिकता सिद्ध की जा सके। यही से दूसरों का सहयोग द्वार खुलता है। भला कोई कैसे पसन्द करेगा कि किसी हवाई कल्पना की उड़ान में उड़ने वाले शेखचिल्ली के नीचे अपनी उँगली फँसा दे और अपनी कीमती सहायता को जोखिम में डालने का खतरा अंगीकार करे।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति- जनवरी 1973 पृष्ठ 34

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शुक्रवार, 26 मई 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 26 May 2023

शारीरिक स्वास्थ्य की रक्षा हेतु जिस प्रकार पथ्य और परहेज अत्यावश्यक है, उसी प्रकार मानसिक स्वास्थ्य के हेतु सद्विचार और आत्म-संयम हैं। मानसिक स्वास्थ्य का आनंद कहकर नहीं बताया जा सकता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, शोक, अहंकार, घृणा आदि मनोविकारों से रहित जब आपका मन अकारण ही स्वाभाविक रूप से प्रसन्न तथा शान्त रहता हो बस वही मन के स्वस्थ रहने की अवस्था है। क्या ऐसी सहज प्रसन्नता सदैव के लिए पा लेना वांछनीय नहीं है?

प्रशंसा और यश के लिए अधिक उत्सुक न रहिए, क्योंकि यदि आप प्रतिभावान हैं, तो आपको बढ़ने से कोई भी आलोचना नहीं रोक सकेगी। दूसरे की आलोचना को आंतरिक सच्ची प्रेरणा के सम्मुख कोई महत्त्व न दीजिए, वरन् जितनी भी आलोचना हो उससे दुगुनी इच्छा शक्ति लगाकर कार्य को आगे बढ़ाते चलिए।

 
ईश्वर सर्वत्र है, इसका यह गलत अर्थ नहीं लगा लेना चाहिए कि जहाँ जो कुछ भी हो रहा है ईश्वर की इच्छा से हो रहा है। बुराइयाँ, बुरे काम, ईश्वर की इच्छा से कदापि नहीं होते। पाप कर्म तो मनुष्य अपनी स्वतंत्र कर्तृत्व शक्ति का दुरुपयोग करके करते हैं। इस दुरुपयोग का नाम ही शैतान है। शैतान की सत्ता को हटाकर ईश्वरीय सत्ता को प्रकाश में लाना यह मनुष्य मात्र का धर्म है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 जिन्दगी जीनी हो तो इस तरह जिये (भाग 1)

जीवन अपने लिए एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। जिसके प्रत्येक पृष्ठ से एक से एक बढ़ कर काम शिक्षायें हमें पढ़ने को मिल सकती है।

कल क्या बीती और कल का दिन कैसे गुजरा इन पर गहराई से विचार करे तो उसमें अनेकों शिक्षाप्रद अनुभव ऐसे मिल सकते हैं जो दूसरों के उपदेश सुनने या विद्वानों को पुस्तकें पढ़ने से भी अधिक कारगर सिद्ध हो सकते है?

कल के समय का जिस प्रकार उपयोग किया गया, और उससे जो पाया गया उससे अच्छा उपयोग नहीं हो सकता था? जिन नासमझियों के कारण कल कई झंझटों में फँसना पड़ा क्या उनसे बचा नहीं जा सकता था? कल किस अवसर पर क्या ऐसे अदूरदर्शी कदम उठ गये जो समझदारी का समय रहते उपयोग करने से टल सकते थे और कुछ किया जा सकता था जो अधिक सुखद और श्रेयस्कर होता? इस प्रकार के प्रश्न यदि अपने आप से पूछे तो सहज ही वे उत्तर सामने आयेंगे जो आगे के लिए ध्यान में रखे जाने पर भावी उन्नति का पथ प्रशस्त कर सकते हैं।

जीवन का रसास्वादन वे लोग नहीं कर पाते जो अपने लिए ही जीते हैं। खुदगर्जी के तंग दायरे में जीना एक प्रकार की लानत है जो आदमी पर हर घड़ी आत्म ग्लानि की तरह बरसती रहती है। कई व्यक्ति खुदगर्जी की राह अपना कर अधिक सुख साधन इकट्ठे कर लेते हैं दूसरों की तुलना में ज्यादा मालदार लगते हैं। इतना होने पर भी ऐसे लोगों को एक ऐसे अभाव से दुखी रहना ही पड़ेगा जो सामूहिक और पारमार्थिक गतिविधियाँ अपनाये बिना मिल ही नहीं सकता। अपने लिए ही जीना अपनी सुख सुविधाओं की ही बात सोचना वस्तुतः मनुष्य का मानसिक बौनापन है। ओछे और उपहासास्पद ही गिने जाते रहेंगे जहाँ व्यक्तित्व की परख होगी वहाँ उन्हें फिसड्डी ही ठहराया जायेगा। जिन्दगी को प्यार करने वाले लोग अपनी सुव्यवस्था के साधन जुटाने के साथ-साथ यह भी करते हैं कि उन्हें दूसरों के लिए कुछ सोचने और करने का अवसर भी मिलता रहे।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति- जनवरी 1973 पृष्ठ 34


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गुरुवार, 25 मई 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 25 May 2023

आत्म-विश्वास अनियंत्रित भावुकता का नाम नहीं है, वरन् उस दूरदर्शिता का नाम है, जिसके साथ संकल्प और साहस जुड़ा रहता है। ऐसे आत्म-विश्वासी जो भी काम करते हैं उसमें न तो ढील-पोल होती है, न उपेक्षा और न गैर जिम्मेदारी। वे जो काम करते हैं उसे पूरी भावना, विचारणा और तत्परता के साथ करते हैं। अंततः वे अपने ध्येय में कामयाब हो ही जाते हैं।

प्रायश्चित का अर्थ है- स्वेच्छापूर्वक दण्ड भुगतना। इसके लिए तैयार हो जाने से यह सिद्ध होता है कि अपराधी को सच्ची सद्बुद्धि उपजी है, उसे वस्तुतः अपनी भूल पर दुःख है। जो किया है, उसका दण्ड बहादुरी से भुगतने की तैयारी है। ऐसा बहादुर ही भविष्य में वैसा न करने की प्रतिज्ञा को निभा सकता है। जिसमें इतना साहस नहीं है, मात्र शब्दाडम्बर से ही अपना बचाव करना चाहता है, उसकी सच्चाई सर्वथा संदिग्ध है।

पाप एवं पतन के सामने कभी भी आत्म समर्पण नहीं करना चाहिए। उसके प्रति घृणा और प्रतिरोध का भाव सदा जारी रहे। कोई बुराई अपने में हो और छूट नहीं पा रही हो तो भी उसे अपनी कमजोरी या भूल समझकर पश्चाताप ही करें और उससे छुटकारा पाने के लिए यथाशक्ति प्रयत्न जारी रखें। बुराई को भलाई के रूप में स्वीकार करना, उसका समर्थन करना, उसका विरोध छोड़ देना और उसमें रस लेना यह पशुता का चिह्न है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 समर्थ और प्रसन्न जीवन की कुँजी (अन्तिम भाग)

शारीरिक रोगों के मूल्य में भी इन दो को गिना जा सकता है। डरपोक आदमी अपनी भीरुता और कुकल्पना के कारण ही बेमौत मरते है। एक बार ब्रह्माजी ने मौत को दो हजार आदमी मार लाने का आदेश दिया। जब वह वापस लौटी तो चार हजार साथ थे। जवाब तलब किया गया तो मौत ने सफाई दी कि उसने तो दो हजार ही मारे। शेष तो मरने के डर से भयभीत होकर अपने आप मर गये और उसके साथ साथ चल दिये। आवेश ग्रस्तों के बारे में यह बात और भी बढ़ा चढ़ा कर सही जा सकती है।

ठंडक लगने से जितने समय में मौत होती है आग में झुलसने पर उससे कहीं जल्दी प्राण निकल जाते है। क्रोधी अपने रक्तमांस को ही नहीं जीवनी शक्ति को भी निरन्तर जलता है और अपने को खोखला बनाता रहता है। फिर कोई नाम मात्र का बनाहा मिलने पर बीमारियों से ग्रसित होकर स्वेच्छापूर्वक मौत के मुँह में घुस पड़ता है। ऐसे लोग निश्चित रूप से अकाल मृत्यु मरते हैं। अपने आपको निरंतर जलाते रहने का और क्या परिणाम हो सकता है?

क्रोधी आदमी समझता है कि वह सत्य का पक्षपाती है। जो लोग गलती करते है, उन पर गुस्सा आता है। यह शब्द कहने सुनने से निर्दोष मालूम पड़ते है, पर है तथ्यों से विपरीत। गलती करने वाले को क्रोध करने से कैसे दंडित किया जा सकता है या सुधारा जा सकता है। सह समझ से परे ही उसके विरोधी बन जाते है। इस प्रकार वह अनायास ही जीती बाजी हारता है।

जिस कारण क्रोध किया गया था। उसका निराकरण हुआ या नहीं, यह बहुत पीछे की बात है। इससे पहले ही अपने स्वभाव की बदनामी, जीवनी शक्ति की घटोत्तरी और समस्या को सुझा सकने की मानसिक दक्षता में कमी आदि अनेकों हानियाँ पहले ही हो लेती है। इसी प्रकार संकोची, डरपोक व्यक्ति भी अपनी बात स्पष्ट न कर पाने के कारण निर्दोष होते हुए भी दोषी बनते रहते है।

शरीर की स्थिरता, आर्थिक सुव्यवस्था, परिवार की सुख शान्ति, गुत्थियों का समाधार, प्रगति का सुनियोजन आदि कितनी ही बातें जीवन की सफलता के लिए आवश्यक मानी जाती है। उन सब के मूल में मानसिक संतुलन की आवश्यकता है। हंसती हंसाती आदतें बनाकर ही हम जीवन रथ को प्रगति पथ पर सही रीति से अग्रगामी कर सकते हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति मार्च 1988 पृष्ठ 57

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बुधवार, 24 मई 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 24 May 2023

प्रगति, समृद्धि की पगडण्डी कोई नहीं, केवल एक ही राजमार्ग है कि अपने व्यक्तित्व को समग्र रूप से सुविकसित किया जाय। ‘धूर्तता से सफलता’ का भौंडा खेल सदा से असफल होता रहा है और जब तक ईश्वर की विधि-व्यवस्था इस संसार में कायम है, तब तक यह क्रम बना रहेगा कि धूर्तता कुछ दिन का चमत्कार दिखाकर अंततः औंधे मुँह गिरे और अपनी दुष्टता का असहनीय दण्ड भुगते।

चापलूसों की प्रशंसा शत्रु की निन्दा से अधिक हानिकारक है। शत्रु निन्दा करके हमें हमारी त्रुटियों की याद दिलाते हैं और उन्हें सुधारने का प्रकारान्तर से प्रकाश देते हैं, जबकि खुश करने के फेर में पड़े हुए लोग जान या अनजान में हमें त्रुटि रहित बताते और मिथ्या अहंकार बढ़ाते हैं। हमें स्वयं ही अपना निष्पक्ष समीक्षक होना चाहिए तथा आलस्य, प्रमाद, कटुता, अपव्यय, असंयम, अधीरता, भीरुता आदि दुर्गुणों का जितना अंश पाया जा सके उसे ढूँढना चाहिए और उसके निराकरण की तैयारी करनी चाहिए।

आत्म-विश्वास बिना पंखों के आसमान पर उड़ने का नाम नहीं है। उसमें अपनी सामर्थ्य तौलनी पड़ती है, अनुभव, योग्यता और साधनों का मूल्यांकन करना पड़ता है और समीक्षापूर्वक इस नतीजे पर पहुँचना पड़ता है कि आज की स्थिति में किस हद तक साहस किया जा सकता है और कितनी ऊँची छलांग लगाई जा सकती है। जो वस्तुस्थिति की उपेक्षा करके हवाई महल चुनते हैं, उन्हें शेखचिल्ली की तरह उपहासास्पद बनना पड़ता है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 समर्थ और प्रसन्न जीवन की कुँजी (भाग 4)

किसी मित्र या सहयोगी से आड़े वक्त में आप सहायता की आशा करते थे पर उसने सहानुभूति तक न दिखाई। इसमें भी आवेश क्रोध करने की आवश्यकता नहीं। किन्हीं से आपके अच्छे सम्बन्ध रहे हो, इसे आप अपनी सज्जनता का तकाजा समझे। जितने अधिक लोगों के साथ आपके सद्भाव रहे उतना ही अच्छा पर इसका मूल्य कोई आपकी सहायता करके चुकाये यह आवश्यक नहीं। आप अपने निज के बल पर विश्वास कीजिए। इतना साहस रखिये कि अपनी गुत्थियों को अपने बलबूते सुलझा लेंगे न सुलझेगी तो उस अन सुलझा स्थिति से भी काम चलायेंगे आपकी इच्छानुरूप सारी समस्याओं का हल निकलता रहे यह आवश्यक नहीं। गुत्थियाँ और भी अधिक उलझ सकती है।

प्रतिकूलताओं का दबाव और भी अधिक बढ़ सकता है। यह अनुमान लगाकर चलेंगे तो आप जीवन संग्राम के सच्चे खिलाड़ी कहे जा सकते है। खिलाड़ी का पहला और आवश्यक गुण यह है कि वह हारती हुई मुख मुद्रा में भी संतुलित मन स्थिर और निश्चय वाला होना चाहिए। उसके लिए तैश, आवेश किन्हीं भी परिस्थितियों में क्षम्य नहीं है। हर आदमी खिलाड़ी तो नहीं हो सकता, पर उसे समझदार तो होना ही चाहिए। समझदारी की जिम्मेदारियाँ खिलाड़ी जिम्मेदारी से किसी भी प्रकार कम नहीं है। उसका स्वभाव उससे भी घटिया नहीं होना चाहिए। उसका मानसिक स्वास्थ्य सही रहना चाहिए।

बीमारियों को यदि दो भागों में विभक्त करना पड़े तो उनमें एक आवेशजन्य और दूसरी अवसादजन्य होगी। रक्तचाप के उदाहरण से इसे और भी अच्छी तरह समझा जा सकता है। एक हाई ब्लड प्रेशर दूसरा लो ब्लड प्रेशर। मानसिक रोगियों में एक किस्म उत्तेजितों की है। दूसरी अवसाद ग्रस्तों की। अवसाद ग्रस्त अर्थात् निराश, उदास, आलसी, अकर्मण्य, डरपोक, कायर आदि। उत्तेजितों में क्रोधी, आवेश ग्रस्त, जल्दबाज, झगड़ालू आदि दुःस्वभाव ग्रस्त। दो ही प्रकृति वाले अस्वाभाविक जीवन जीते है और अर्ध विक्षिप्त कहलाते है। यदि उनके सामने कोई गुत्थी या कठिनाई आए तो वे उसे हल करना तो दूर अपनी मानसिक अस्त–व्यस्तता के कारण दूनी बढ़ा लेंगे। सफलता के अवसर सामने होंगे तो उन्हें जल्दी ही गंवा देंगे। ऐसे लोग इस या उस प्रकार असफल ही रहेंगे। हैरानी उन्हें हर घड़ी घेरे रहेगी

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति मार्च 1988 पृष्ठ 57

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सोमवार, 22 मई 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 22 May 2023

यौवन कोई अवधि नहीं, वरन् एक मानसिक स्थिति है। उसकी परख रक्त के उभार के आधार पर नहीं, इच्छा, कल्पना एवं भावना के आधार पर ही की जानी चाहिए। आदमी तब तक जवान रहता है, जब तक उसमें उत्साह, साहस और निष्ठा बनी रहती है। बुढ़ापा और कुछ नहीं, आशा का परित्याग, उज्ज्वल भविष्य के प्रति संदेह और अपने आप पर अविश्वास का ही दूसरा नाम है। जब जीवन में अनन्त सुंदरता, महानता, सामर्थ्य और प्रकाश पूर्ण संभावना की ओर से मन सिकोड़ लिया जाएगा तो वृद्धता की काली छाया ग्रसित कर लेगी, भले ही ऐसा व्यक्ति आयु की दृष्टि से नवयुवक ही क्यों न हो।

पुरुषार्थ कभी निष्फल नहीं जाता। उससे जो क्रिया कुशलता बढ़ती है वह अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि है। संसार के समस्त पुरुषार्थों में आत्म निर्माण की दिशा में किया गया प्रयास सर्वोपरि बुद्धिमत्ता का परिचायक है। उससे जीवन की जड़ें मजबूत होती है। यह सुदृढ़ता समूचे व्यक्तित्व को निखारती है। मानवी प्रखरता का दिव्य चुम्बकत्व शक्तिशाली बनता है। उसकी बढ़ी हुई सामर्थ्य भौतिक जगत् से समृद्धि की-प्राणी जगत् से सद्भावना की और दिव्य लोक से ईश्वरीय अनुकम्पा को इतनी अधिक मात्रा में खींच लाती है कि आत्म निर्माण की साधना में निरत मनुष्य जीवन को हर दृष्टि से सार्थक बनाता है।

अंतरंग जितना ही निर्मल, निष्पाप होगा, अंतर्द्वन्द्वों के कारण नष्ट होने वाली मेधा उसी परिमाण में बची रह सकेगी और उस निर्द्वन्द्व, निश्चिन्त मनःस्थिति में अनेकानेक प्रतिभाएँ उभरती रहेंगी। प्रसुप्त दिव्य क्षमताओं के जागरण का सुयोग बनेगा। यही है वह सार तत्त्व जिसके आधार पर प्रतिभा दिन-दिन तीक्ष्ण बनती जाती है और उसके फलस्वरूप जो भी लक्ष्य हो, उसमें द्रुत गति से सफलता का पथ प्रशस्त होता जाता है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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