रविवार, 31 दिसंबर 2023

👉 अहिंसा

अहिंसा एक रहस्यमय शब्द है, जिसे कम ही लोग समझते हैं। अधिकतर लोग यही मानते हैं कि शरीर से किसी की पिटाई मत करो, किसी को घायल मत करो, किसी की जान मत लो, यह अहिंसा है। अहिंसा का यह अर्थ तो प्रसिद्ध है ही। परंतु यह अधूरा अर्थ है। यह तो शारीरिक अहिंसा हुई।

इसके अतिरिक्त, यदि किसी निर्दोष व्यक्ति पर आप कठोर भाषा बोलते हैं, उसकी खिल्ली उड़ाते हैं, उस पर व्यंग्य कसते हैं, उसको व्यर्थ में अपमानित करते हैं, उसे छोटा सिद्ध करने की कोशिश करते हैं, तो यह भी हिंसा है। यह वाणी के द्वारा की गई हिंसा है। इसी प्रकार से दूसरों के प्रति मन में बुरी भावना रखना, यह भी हिंसा है। यह मानसिक स्तर की हिंसा है। जैसे कि कोई व्यक्ति मन में ऐसा सोचे, कि हे भगवान! मेरे पड़ोसी की टांग टूट जाए। इस का मकान गिर जाए, इसके गोदाम में आग लग जाए, इसका बेटा दुर्घटना में मर जाए, यह व्यक्ति न्यायालय में मुकद्दमा हार जाए, इत्यादि। इस प्रकार का अनिष्ट चिंतन मानसिक हिंसा कहलाती है। तो यह तीन प्रकार की हिंसा हुई शारीरिक, वाचनिक और मानसिक।

इन तीनों प्रकार की हिंसा को न करना, किसी पर शरीर से अन्याय न करना, वाणी से भी निर्दोष को न डाँटना, मन में भी किसी का बुरा ना सोचना, यह पूर्ण अहिंसा कहलाती है। जो अहिंसा का पालन करता है, वह सदा प्रसन्न रहता है। उसे ईश्वर का आशीर्वाद मिलता है। हां, यदि कोई आपके ऊपर आक्रमण करे, तो आप अपनी रक्षा अवश्य करें। यदि आप अपनी रक्षा नहीं करते और व्यर्थ में दूसरों से पिटते रहते हैं, तो यह अहिंसा नहीं है।

स्वामी विवेकानंद

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👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 31 Dec 2023

अनेक प्रकार के मन होते हैं। विचारने की शैली अनेक प्रकार की हुआ करती है विचारने के भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण हुआ करते हैं। अतएव हर एक दृष्टिकोण निर्दोष है, लोगों के मत के अनुकूल बनो। उनके मत को भी ध्यान तथा सहानुभूति पूर्वक देखो और उसका आदर करो। अपने अहंकार चक्र के क्षुद्र केन्द्र से बाहर निकलो और अपनी दृष्टि को विस्तृत करो। अपना मत सर्वग्राही और उदार बना सब के मत के लिए स्थान रखो। तभी आपका जीवन विस्तृत और हृदय उदार होगा। आपको धीरे-धीरे मधुर और नम्र होकर बातचीत करनी चाहिए। मितभाषी बनो।

अवाँछनीय विचारों और सम्वेदनाओं को निकाल दो। अभिमान या चिड़चिड़ेपन को लेश मात्र भी बाकी नहीं रहने दो। अपने आपको बिल्कुल भुला दो। अपने व्यक्तित्व का भी अंश या भाव न रहने पावे। सेवा कार्य के लिए पूर्ण आत्मसमर्पण की आवश्यकता है यदि आप में उपरोक्त सद्गुण मौजूद हैं तो आप संसार के लिये पथ प्रदर्शक और अमूल्य प्रसाद रूप हो। आप एक अलौकिक सुगन्धित पुष्प हो जिसकी सुगन्ध देश भर में व्याप्त हो जायेगी। आपने बुद्धत्व की उच्चतम अवस्था को प्राप्त कर लिया।

नम्र, दयालु, उपकारी और सहायक बनो। यही नहीं कि कभी-कभी यथावकाश इन गुणों का उपयोग किया जावे बल्कि सर्व काल में आपके सारे जीवन में इन्हीं गुणों का अभ्यास होना चाहिये। एक भी शब्द ऐसा मत कहो जिससे दूसरों को ठेस पहुँचे। बोलने से पहले भली प्रकार विचार करो और देख लो कि जो कुछ आप कहने लगे हो वह दूसरों के चित्त को दुखी तो नहीं करेगा-क्या वह बुद्धिसंगत मधुर सत्य तथा प्रिय तो है। पहले से ही ध्यानपूर्वक समझ लो कि आपके विचार शब्दों और कार्यों का क्या प्रभाव होगा। प्रारम्भ में आप कई बार भले ही असफल हो सकते हो परंतु यदि आप अभ्यास करते रहे तो अंतः में आप अवश्य सफल हो जाओगे।
                                        
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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शनिवार, 30 दिसंबर 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 30 Dec 2023

जो मनुष्य संसार की सेवा करता है वह अपनी ही सेवा करता है। जो मनुष्य दूसरों की मदद करता है वास्तव में वह अपनी ही मदद करता है। यह सदा ध्यान में रखने योग्य बात है। जब आप दूसरे व्यक्ति की सेवा करते हैं, जब आप अपने देश की सेवा करते हैं तब आप यह समझकर कि ईश्वर ने आपको सेवा द्वारा अपने को उन्नत तथा सुधारने का दुर्लभ अवसर दिया है। उस मनुष्य के आप कृतज्ञ हों जिसने आपको सेवा करने का अवसर दिया हो।

निष्काम सेवा करने से आप अपने हृदय को पवित्र बना लेते हैं। अहंभाव, घृणा, ईर्ष्या, श्रेष्ठता का भाव और उसी प्रकार के और सब आसुरी सम्पत्ति के गुण नष्ट हो जाते हैं। नम्रता, शुद्ध प्रेम, सहानुभूति, क्षमा, दया की वृद्धि होती है। भेद-भाव मिट जाते हैं। स्वार्थपरता निर्मूल हो जाती है। आपका जीवन विस्तृत तथा उदार हो जायेगा। आप एकता का अनुभव करने लगेंगे। अन्त में आपको आत्मज्ञान प्राप्त हो जायेगा। आप सब में “एक” और “एक” में ही सबका अनुभव करने लगेंगे। आप अत्यधिक आनन्द का अनुभव करने लगेंगे। संसार कुछ भी नहीं है केवल ईश्वर की ही विभूति है। लोक सेवा ही ईश्वर की सेवा है। सेवा को ही पूजा कहते हैं।

अधिकाँश साधक कुछ सेवा के बाद ही शीघ्र ही ईश्वर प्राप्ति के लिये अधीर हो जाते हैं यह निष्काम सेवा या कर्मयोग का लक्षण नहीं, कर्मयोगी वे हैं जो नम्रता तथा आत्मभाव से मनुष्यों की सेवा करते हैं। वही वास्तव में अखिल विश्व के नायक बन जाते हैं। सब लोग उनकी बड़ाई तथा आदर करते हैं। जितना ही आत्मभाव से सेवा करने जायें आप उतनी ही विशेष शक्ति, पौरुष, तथा योग्यता प्राप्त करेंगे। आप इसका अभ्यास करके ही स्वयं अनुभव प्राप्त करें।
                                        
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 धैर्य और सहनशीलता

कोई व्यक्ति धैर्यवान है, सहनशील है, तो अधिकांश लोग उसे मूर्ख, कमजोर या डरपोक मानते हैं। यह उन लोगों की भूल है। धैर्य और सहनशीलता, ये दो बहुत ही उत्तम गुण अथवा शक्तियां हैं, जो किसी किसी में होती है, सब में नहीं होती। ये कमजोरियां नहीं, बल्कि शक्तियां हैं। कमजोरी तो किसी में भी हो सकती है, पर शक्ति सबमें नहीं  होती। ये दोनों चीजें भी सब में नहीं होती, इससे पता चलता है कि ये कमजोरियां नहीं, बल्कि शक्तियां हैं।

अनेक बार कार्यों को करने में बहुत धैर्य रखना पड़ता है, जल्दबाजी करने से काम बिगड़ जाता है। जब लोगों में धैर्य नहीं होता, और वे जल्दबाजी करते हैं, तब उनके काम भी बिगड़ते हैं , और आपस में झगड़े भी होते हैं। इसी प्रकार से कभी कभी कोई व्यक्ति, किसी को डांट देता है; कभी-कभी दोष होने पर डांट लगती है और कभी-कभी बिना दोष होते हुए भी डांट खानी पड़ जाती है।

जब बिना दोष के डांट खानी पड़ती है, उस समय सहनशक्ति का पता चलता है। तब बहुत से लोग इस परीक्षा में असफल हो जाते हैं , और तुरंत प्रतिक्रिया करते हैं, जिसका परिणाम यह होता है कि वे लोग झगड़ने लगते हैं। इसलिए सहनशीलता एक शक्ति है। धैर्य भी एक शक्ति है। ये दोनों गुण या शक्तियाँ बड़ी दुर्लभ हैं। इन गुणों या शक्तियों को अवश्य धारण करना चाहिए, तथा अपने जीवन को सुंदर सफल और आनंदित बनाना चाहिए।

स्वामी विवेकानंद

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बुधवार, 27 दिसंबर 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 27 Dec 2023

🔸 डर तभी हो सकता है जब हृदय कमजोर हो। हृदय कमजोर करने वाली एक ही वस्तु है संसार में चाहे उसे अविश्वास, अपघात, धोखेबाजी, बेईमानी कह लो अथवा पाप। मुख्य बात यह है कि हमें किसी से भय न हो इसके लिये यह भी आवश्यक है कि हम किसी के साथ क्षुद्रता न करें। जब कोई बुरी बात मन में आती है तभी मनःस्थिति कमजोर होती है और छुपाने का स्थान ढूँढ़ना पड़ता है। हमारे मन में उठने वाली भावनायें पवित्र हों योजनायें और विचार धारायें ऐसी हों जिनसे जीवन सुव्यवस्थित बनता हो, प्रगति होती हो, हमारे कार्य इतने स्वच्छ हों कि कभी किसी को ॐ गली उठाने का अवसर न मिले तो फिर डर भी किस लिये होगा? डर का घर नहीं रहेगा तो वह बसेगा कहाँ?

🔹 संसार में सब मित्र ही नहीं होते शत्रु भी होते हैं। विसंगतियाँ प्रत्येक क्षेत्र में पाई जाती हैं। आप अच्छे व्यक्ति हैं। आपकी भावनायें सदैव दूसरों का कल्याण चाहती हैं परोपकार, परमार्थ और पुण्य को जीवन का लक्ष्य मान कर चलने वाले लोगों के साथ भी खरपेंच लगाने वालों की कमी नहीं रहती। भलमनसाहत जितनी है दुष्टता भी उससे कम नहीं। इन्हीं को शत्रु कहा गया है।

🔸 मन की शक्तियाँ विलक्षण हैं। मनुष्य का सुख-दुख बन्धन और मोक्ष मन के अधीन है। संसार में ऐसा कोई स्थल नहीं जहाँ मन न जा सके, लोक और परलोक में भी मन एक पल में जा सकता है। जिसे आंखें देख नहीं सकतीं, जो कान सुन नहीं सकते, मन उसे भी सरलता से ग्रहण कर सकता है उसकी चंचलता को रोका जा सके और पारदर्शी काँच की तरह स्वच्छ बनाया जा सके तो आत्म साक्षात्कार का नित्य निरतिशय सुख भी मन के आधीन है। “मन सैवानुद्रष्टव्यम्” आत्मसाक्षात्कार के लिए मन ही नेत्रवान् है ऐसा श्रुति में कहा गया है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 सुस्थिरता का एकमात्र अवलम्बन

आध्यात्मिकता मानव जीवन की रीढ़ है। रीढ़ की हड्डी टूट जाय तो फिर जिन्दगी बेकार हो जाती है। इसी प्रकार जिसमें आध्यात्मिक आस्था न रहेगी वह व्यक्ति अन्य किसी आधार पर इस प्रलोभन भरी दुनियाँ में धर्म कर्तव्य पर टिका न रह सकेगा। वह गड़बड़ में पड़ेगा और गड़बड़ियाँ करेगा। सचाई, नीति और भलाई की नीति चिरकाल तक अपनाये रहना केवल उसी के लिए संभव हो सकता है जो ईश्वर की सर्वज्ञता और न्यायशीलता पर विश्वास करता है। गाँधीजी कहा करते थे—‛प्रार्थना जीवन का ध्रुवतारा है।’ रात्रि के गहन अन्धकार में ध्रुवतारे का अवलम्बन छोड़ देने वाला भटकता ही फिरेगा। आज हमने आस्तिकता और उपासना का मार्ग छोड़ दिया है और सचमुच हम बुरी तरह बीहड़ बन में भटकते रहे हैं। भटकते−भटकते वहाँ आ पहुँचे हैं जहाँ से सर्वनाश अत्यन्त समीप दीखने लगा है। हमें पीछे लौटना होगा। जीवन के ध्रुवतारे की ओर दृष्टि डालनी होगी। आस्तिकता और उपासना का जन−जीवन में कोई स्थान होना ही चाहिए। ‘अखण्ड ज्योति’ का पहला कार्यक्रम यही है। हम में से प्रत्येक व्यक्ति आस्तिक एवं उपासक बने, गायत्री आन्दोलन के पीछे यही भावना सन्निहित है। भारतीय धर्म की सब से प्राचीन, सब से श्रेष्ठ, सबसे वैज्ञानिक, सबसे महत्वपूर्ण उपासना ‘गायत्री’ ही मानी गई है। ऋषियों और शास्त्रों ने जैसा कि इसे अत्याधिक आवश्यक एवं अनिवार्य माना है वैसा ही हम भी मानते हैं और प्रत्येक विचारशील को इसे अपनाने के लिए प्रेरणा देते हैं।

✍🏻 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
📖 *अखण्ड ज्योति फरवरी 1962*

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मंगलवार, 26 दिसंबर 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 26 Dec 2023

यदि तुम एक विद्वान बनने की चेष्टा कर रहे हो तो अपने आपको एक विद्वान की ही भाँति रखो वैसा ही वातावरण एकत्रित करो, निराशा निकाल कर यह उम्मीद रखो कि मूर्ख कालिदास की भाँति हम भी महान बनेंगे। निराशा निकाल कर तुम इस एकटिंग को पूर्ण करने की चेष्टा करो। तुम अनुभव करो कि मैं विद्वान हूँ, सोचो कि मैं अधिकाधिक विद्वान बन रहा हूँ। मेरी विद्वता की निरंतर अभिवृद्धि हो रही है। तुम्हारे व्यवहार से लोगों को यह ज्ञात होना चाहिए कि तुम सचमुच विद्वान हो। तुम्हारा आचरण भी पूर्ण विश्वास युक्त हो शंका, शुबाह या निराशा का नाम निशान भी न हो। अपने इस विश्वास पर तुम्हें पूरी दृढ़ता का प्रदर्शन करना उचित है। यह अभिनय करते-करते एक दिन तुम स्वयमेव अपने कार्य को पूर्ण करने की क्षमता प्राप्त कर लोगे।

जिस वस्तु को हमें प्राप्त करना है उसके लिए जितनी मानसिक क्रिया होगी, जितना उसकी प्राप्ति का विचार किया जायगा, उतनी ही शीघ्रता से वह वस्तु हमारी ओर आकर्षित होगी। प्रत्येक वस्तु पहले मन में उत्पन्न की जाती है फिर वस्तु जगत में उसकी प्राप्ति होती है। तुम अपने विषय में अयोग्यता की भावना रखते हो अतः उसी प्रकार की तुम्हारे अन्तःकरण की सृष्टि होती जाती है। तुम्हारी भय की डरपोक कल्पनाएं ही तुम्हारे मन में निराशा के काले बादलों की सृष्टि कर रही है। मनःस्थिति के ही अनुसार अन्य व्यक्ति तुमसे द्वेष अथवा प्रेम करते हैं। और संसार की, समस्त वस्तुएं तुम्हारे पास आकर्षित होकर आती या मुड़कर दूर भागती हैं।

जब तुम निश्चय कर लोगे कि मेरा निराशा से जीवन का कोई संबंध नहीं होगा। मुझे नाउम्मीदों से कोई सरोकार नहीं है, मैं अब से वस्त्रभूषा पर शरीर पर, व्यवहार में, अपने कार्यों में निराशा का कोई चिन्ह भी न रहने दूँगा मैं पूर्ण शक्ति और मनोरथ सिद्धि में प्रवृत्त हूँगा, निराशापूर्ण वातावरण से मेरा कुछ लेना देना नहीं है। मैंने तो अपनी प्रवृत्ति ही उत्तम पदार्थों की ओर कर दी है। लता और मनोरथ सिद्धि मेरे बाएं हाथ का खेल है मुझे संसार की कठिनाई अपने श्रेय के मार्ग विचलित नहीं कर सकतीं तब याद रखो तुम्हारे हृदय में एक दिव्य शक्ति-शासनकर्ता शक्ति प्रसन्न होगी।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 शुभ विचारों का प्रभाव

दूषित विचारों से वातावरण की सारी सुंदरता नष्ट हो गई है। अब मनुष्य-जीवन का कुछ मूल्य नहीं रहा है; क्योंकि कुविचारों के फेर में इतनी अधिक अशांति उत्पन्न कर ली गई है कि उसमें थोड़े से से विचारवान व्यक्तियों को भी चैन से रहने का अवसर नहीं मिलता। इस संसार की सुखद रचना और इसके सौंदर्य को जाग्रत करना चाहते हो, तो वैयक्तिक तथा सामाजिक जीवन में सद्विचारों की प्रतिष्ठा करनी ही पड़ेगी। इसके लिए केवल कुछ व्यक्तियों को नहीं, वरन बुराइयों की तुलना कुछ अधिक प्रभावशाली सामूहिक प्रयास करने पड़ेंगे; तभी सबके हित संरक्षित रह सकेंगे।

यह कल्पना तभी साकार हो सकेगी; जब अपने विचारों के :परिवर्तन से सभ्य-सुसंस्कृत समाज की रचना का प्रयत्न करोगे। तुम उसी पदार्थ को अपनी ओर आकृष्ट करते हो; जिसके लिए अंतर में विचार होते हैं। अब तक बुरे विचार उठ रहे थे। अत: वातावरण भी कुरूप-सा, अशांत-सा लग रहा है। भ्रम और द्वेषपूर्ण विचारों से दुर्भावनाओं को मार्ग मिलता रहा। अब इसे छोड़ने का क्रम अपनाना चाहिए और शुभ विचारों की परंपरा डालनी चाहिए।

प्रेममय विचारों से हम अपने प्रेमास्पद को आकृष्ट करते हैं। ये विचार भी अप्रकट न रह सकेंगे। शीघ्र ही स्वभाव रूप में प्रकट होंगे और शीघ्र ही स्वभाव, क्रिया तथा कर्म के रूप में परिणत होकर वैसे ही परिणाम उपस्थित कर देंगे।


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रविवार, 24 दिसंबर 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 24 Dec 2023

दूसरों की निन्दा सुनना हानिकारक है। क्योंकि वह झूठी हो तो व्यर्थ ही मन में भ्रम और दुर्भाव पैदा होकर अपनी मनः स्थिति की निंदा करते हैं और यदि वह निन्दा सच्ची हो तो न विचारने लायक तुच्छ मनुष्य के संबंध में विचारने से अपनी समय-क्षति होती है।

युग निर्माण आंदोलन अगले दिनों जिस प्रचंड रूप से मूर्तिमान होगा उसकी रहस्यमय भूमिका कम ही लोगो को विदित होगी, पर यह निश्चित है की वह आंदोलन बहुत ही प्रखर और प्रचंड रूप से उठेगा और पूर्ण सफल होगा । सफलता का श्रेय किन व्यक्तियों को, किन संस्थाओं को मिलेगा इससे कुछ बनता बिगड़ता नहीं । पर होना यह निश्चित रूप से है ।

सच्ची बात अच्छी नहीं लगती और अच्छी लगने वाली बात सच्ची नहीं होती। अच्छाई कभी झगड़ा नहीं करती और झगड़ा कभी अच्छा नहीं होता । बुद्धिमान कभी ज्यादा बकवाद नहीं करते और ज्यादा बकवाद करने वाले कभी बुद्धिमान नही होते।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 मनोविकारों के दुष्परिणाम

दीन, हीन, दरिद्र, अभागे, पतित, क्षुद्र, निराश प्रकृति के लोग सदा दुख और पतन की ही बात सोचते हैं, उन्हें दुर्भाग्य का ही रोना रोते और भविष्य के निराशा पूर्ण चित्र बनाते हुए ही देखा जायेगा। इन्हें संयोगवश कुछ सुख साधन मिल भी जाय तो भी उनकी वेषभूषा, मुखाकृति, भावभंगिमा निराश और दीन मनुष्यों जैसी ही मिलेगी। चोर, उठाईगीरे व्यभिचारी लम्पट, प्रकृति के लोग दूसरों के धन पर, रूप यौवन पर ही लार टपकाते रहते हैं। बेईमान, रिश्वतखोर, ठग, धोखेबाज, डाकू प्रकृति के लोग दूसरों के खीसे पर ऐसे ही घात लगाये रहते हैं जैसे बगुला मछली को ताकता रहता है। ऐसे लोगों का मलीन मन भला कहीं चैन पा सकता है? वे अभागे यह नहीं जानते कि मानसिक स्वच्छता की भी कोई स्थिति इस संसार में होती है और उसे प्राप्त करने वाला स्वर्गीय सुख शान्ति का अनुभव कर सकता है।

मनोविकार अगणित प्रकार के हैं और वे सभी अपने-अपने ढंग के रोग हैं। शरीर के रोग को दूसरे भी जान सकते हैं पर मन का रोग भीतर छिपा होने से वह केवल रोगी को ही दीखता है। इतना अन्तर तो अवश्य है बाकी कष्टों में कोई अन्तर नहीं। सच तो यह है कि शरीर के कष्ट से मन का कष्ट अधिक दुखदायी होता है। बुखार में पड़े रोगी को जितनी पीड़ा है, पुत्र शोक से संतप्त व्यक्ति को उससे कहीं अधिक है। सिर दर्द की तुलना में अपमान और असफलता का दुख गहरा है। क्रुद्ध और कामासक्त मनुष्य जितना असंतुलित दीखता है उतना जुकाम खाँसी का मरीज नहीं। लोभी और स्वार्थी जितना पाप प्रवृत्त रहता है उतना भूखा और दरिद्र नहीं। रोगी मनुष्य स्वयं जितना व्यथित रहता है, और दूसरों को जितना दुख देता है उसकी अपेक्षा मनोविकार ग्रस्त का क्षेत्र अधिक विस्तृत है। वह स्वयं भी अधिक दुख पाता है और दूसरे अधिक लोगों को अधिक मात्रा में सताता भी है। इसलिए शारीरिक आरोग्य की जितनी आवश्यकता अनुभव की जाती है, मानसिक आरोग्य पर उससे भी अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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शनिवार, 23 दिसंबर 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 23 Dec 2023

सेवा करने का अपना महत्व है किन्तु सेवा के स्वरूप का भी महत्व कम नहीं है। कौन सेवा, जनता जनार्दन के माध्यम से, परमात्मा की वास्तविक सेवा है और कौन सी नहीं? वह सेवा जिसमें मनुष्य का कोई स्वार्थ निहित होता है, चाहे वह स्वार्थ स्थूल हो अथवा सूक्ष्म, प्रत्यक्ष हो अथवा परोक्ष, सेवा की उस कोटि में नहीं आती जिसे भगवद्भक्ति कहा जाता है।

श्रद्धा का अर्थ है आत्म-विश्वास, ईश्वर पर विश्वास। इसके सहारे मनुष्य अभाव में, तंगी में, निर्धनता में, कष्ट में, एकान्त में भी घबड़ाता नहीं। जीवन के अन्धकार में श्रद्धा प्रकाश बन कर मार्गदर्शन करती है और मनुष्य को उस शाश्वत लक्ष्य से विलग नहीं होने देती। आत्मदेव के प्रति, ईश्वर के प्रति जीवन लक्ष्य के प्रति हृदय में कितनी प्रबल जिज्ञासा है, जीवन की इस विशालता को जानना हो तो मनुष्य के अन्तःकरण की श्रद्धा को नापिये। यह वह दैवी मार्ग-दर्शन है जिसे प्राप्त कर साँसारिक बाधाओं का विरोध कर लेना सहज हो जाता है।

“संसार दुखों का सागर है”-यह उक्ति केवल उन्हीं पर चरितार्थ होती है जो दुखों से भयभीत और प्रत्येक क्षण सुख के लिये लालायित रहते हैं। सुख-सुविधा की अतिशय चाह भी दुख का एक विशेष कारण है। इस निरन्तर परिवर्तनशील और द्वन्द्व प्रधान जगत में जो सदा अपने मनोनुकूल परिस्थितियों की अपेक्षा करता है उसके लिये संसार की लघु से लघु प्रतिकूलता भी एक बड़ा दुःख बन जाती है। हम क्यों चाहते हैं कि हमें केवल शीतल मंद सुगन्ध समीर ही प्राप्त होती रहे, गर्म वायु का कोई झोंका हमारे पास होकर न निकले। ऐसा किस प्रकार सम्भव हो सकता है। जब संसार में दोनों प्रकार की वायु चलती हैं तो क्रम से वे हमारे पास आयेंगी ही। यदि हम छाँह की कामना करते हैं तो धूप सहन ही करनी होगी।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 बर्बादी की दुष्प्रवृत्ति

समय की बर्बादी को यदि लोग धन की हानि से बढ़कर मानने लगें, तो क्या हमारा जो बहुमूल्य समय यों ही आलस में बीतता रहता है क्या कुछ उत्पादन करने या सीखने में न लगे? विदेशों में आजीविका कमाने के बाद बचे हुए समय में से कुछ घंटे हर कोई व्यक्ति अध्ययन के लिए लगाता है और इसी क्रम के आधार पर जीवन के अन्त तक वह साधारण नागरिक भी उतना ज्ञान संचय कर लेता है जितना कि हम में से उद्भट विद्वान समझे जाने वाले लोगों को भी नहीं होता। जापान में बचे हुए समय को लोग गृह−उद्योगों में लगाते हैं और फालतू समय में अपनी कमाई बढ़ाने के अतिरिक्त विदेशों में भेजने के लिए बहुत सस्ता माल तैयार कर देते हैं जिससे उनकी राष्ट्रीय भी बढ़ती है। एक ओर हम हैं जो स्कूल छोड़ने के बाद अध्ययन को तिलाञ्जलि ही दे देते हैं और नियत व्यवसाय के अतिरिक्त कोई दूसरी सहायक आजीविका की बात भी नहीं सोचते। क्या स्त्री क्या पुरुष सभी इस बात में अपना गौरव समझते हैं कि उन्हें शारीरिक श्रम न करना पड़े।

समय की बर्बादी शारीरिक नहीं मानसिक दुर्गुण है। मन में जब तक इसके लिए रुचि, आकाँक्षा एवं उत्साह पैदा न होगा, जब तक इस हानि को मन हानि ही नहीं मानेगा तब तक सुधार का प्रश्न ही कहाँ पैदा होगा? टाइम टेबल बनाकर—कार्यक्रम निर्धारित कर, कितने लोग अपनी दिनचर्या चलाते हैं? फुरसत न मिलने की बहानेबाजी हर कोई करता है पर ध्यानपूर्वक देखा जाय तो उसका बहुत सा समय, आलस, प्रमाद, लापरवाही और मंदगति से काम करने में नष्ट होता है। समय के अपव्यय को रोककर और उसे नियमित दिनचर्या की सुदृढ़ श्रृंखला में आबद्ध कर हम अपने आज के सामान्य जीवन को असामान्य जीवन में बदल सकते हैं। पर यह होगा तभी न जब मन का अवसाद टूटे? जब लक्षहीनता, अनुत्साह एवं अव्यवस्था से पीछा छूटे?

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1962 पृष्ठ 23


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गुरुवार, 21 दिसंबर 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 21 Dec 2023

🔷 मनुष्य बड़ा उतावला प्राणी है। तत्काल लाभ प्राप्त करने की उसकी बड़ी इच्छा होती है। सफलता के परिपाक के लिये जितने घड़ी-घण्टे अभीष्ट होते हैं, वह उन्हें लाँघना चाहता है, पर ऐसी आशा दुराशा-मात्र है। हथेली में सरसों जमाने की बाल कल्पना कभी फलवती नहीं होती। नौ माह गर्भ में पकने वाला बालक एक-दो माह में पैदा हो जाना कठिन ही नहीं, असम्भव भी है। सफलता की अन्तिम मंजिल तक पहुँचने के लिये प्रतीक्षा करनी ही पड़ती है। इसके लिये धैर्य चाहिए, ध्रुव-धैर्य चाहिए।

🔶 मनुष्य आनन्द की खोज में है। आनन्द में ही उसे तृप्ति मिलती है, पर यह आनन्द मिलता उन्हीं को है, जिन्होंने सुख और दुःख की वास्तविकता को समझ लिया है अर्थात् जिन्होंने संसार और उसके प्रपंच, आत्मा और उसके स्वरूप को जान लिया है। यह स्थिति बन जाने पर वह मोह ग्रसित नहीं होता, संसार की किसी वस्तु से उसे लगाव नहीं रहता। लोकोपकारी कर्मों का सम्पादन करना ही उसका ध्येय बन जाता है। इस तरह के कर्त्तव्य पालन में ही सर्वांगीण व्यवस्था रहती है और व्यवस्था रहते हुए दुःख का कोई नाम नहीं रहता। कर्मयोग का इतना ही रहस्य है कि मनुष्य कर्म को पा कर्त्तापन का अभिमान न करे। इसमें साँसारिक सुख भी है और पारलौकिक हित भी। अनासक्त जीवन ही शुद्ध और सच्चा जीवन है।

🔷 सुख-शान्ति की उपलब्धि किन्हीं बाहरी साधनों तथा उपकरणों में नहीं होती। सुख-शान्ति का निवास मनुष्य की मानसिक वृत्तियों में ही होता है। जिसके हृदय की वृत्ति प्रसन्न है, प्रफुल्ल तथा प्रमोदमयी है उसे बात-बात में हर्ष और प्रसन्नता की ही उपलब्धि होगी। जिसका मन विषादि, प्रमादी और असंतुष्ट है उसे जलन-घुटन, असंतोष तथा कुँठाओं की विभीषिका में पड़ना होगा। जिसने अपने मन का परिष्कार कर लिया है, उसे अपने वश में कर लिया है, उसको संसार में किसी भी सहायक की आवश्यकता नहीं रहती। स्वाधीन मन मनुष्य का सबसे बड़ा और सच्चा सहायक होता है। मन का परिमार्जन स्वयं ही एक बहुत बड़ा तप है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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