भक्तों का संग है सर्वोच्च साधना
(अतएव) उस (महत्सङ्ग-भक्तसङ्ग) की ही साधना करो, उसी की साधना करो।’’ देवर्षि का यह सूत्र सुनकर ऋषि रुक्मवर्ण बरबस बाले उठे, ‘‘सुखद! सुन्दर!! सुमनोहर!!!’’ इतना कहने के साथ वह फिर से मौन होकर कहीं खो ग। देवर्षि द्वारा किए गए सूत्र उच्चारण के साथ ऋषि रुक्मवर्ण की प्रसन्नता का अतिरेक सभी ने देखा। उनके उल्लास की आभा सबने निहारी। इसे देखकर सबके अन्तर्भावों में एक ही बात आयी कि महर्षि रुक्मवर्ण की कुछ विशेष स्मृतियाँ अवश्य ही इस सूत्र में पिरोयी हैं। ऋषि रुक्मवर्ण, अवस्था एवं ज्ञान दोनों में ही ज्येष्ठ थे। उनसे कौन आग्रह करे यह तय न हो सका। आखिर सभी विशिष्टजनों ने महर्षि पुलह की ओर देखा। महर्षि पुलह ने सभी का यह दृष्टि प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। उन्होंने विनम्र स्वर में कहा- ‘‘महर्षि! हम सभी का समवेत आग्रह है कि देवर्षि के इस सूत्र की व्याख्या आज आप करें।’’ महर्षि पुलह के इस कथन पर रुक्मवर्ण ने सहजता से हामी भर दी।
कुछ देर उन्होंने अनन्त अन्तरिक्ष की ओर निहारा फिर कहने लगे- ‘‘दरअसल देवर्षि का यह सूत्र मेरी आत्मकथा है। मेरे अपने जीवन की सभी घटनाएँ इस अनूठे सूत्र में स्वाभाविक ढंग से पिरोयी हुई हैं। मेरे जीवन में यदि कुछ भी श्रेष्ठ एवं श्रेयस्कर हो सका है तो वह इसी विधि से हुआ है। देवर्षि ने सम्पूर्णतया सत्य कहा है कि महत्सङ्ग की साधना-भक्तसङ्ग की साधना अकेले ही परम समर्थ है। दैवयोग से बचपन में मेरे माता-पिता न रहे। पड़ोस के लोगों ने तरस खाकर मुझे एक भगवद्भक्त के आश्रम में दे दिया। उन उदारहृदय का आश्रम मेरे लिए जीवन का सबसे बड़ा वरदान बन गया। उनसे मैंने अपने जीवन का सबसे पहला पाठ यह सीखा कि जीवन में कोई भी घटना न तो बुरी है और न व्यर्थ। बुरा तो हमारा अपना मन होता है जो भगवान के मंगलमय विधान में बुराई ढूँढने लगता है।
भगवान तो परम कृपालु हैं, वे तो जीवात्मा की उन्नति के लिए, उसे निखारने-संवारने के लिए, उसके उत्तरोत्तर विकास के लिए उचित, उपयुक्त, आवश्यक एवं अनिवार्य घटनाओं की शृंखला रचते हैं। जिसके लिए जो सही है, उसके जीवन में वही घटित होता है। भगवद्विधान तो हमारे लिए सब कुछ जुटा देता है, बस हम ही अपनी नकारात्मक, निषेधात्मक वृत्तियों के कारण उनका सदुपयोग नहीं कर पाते। इनके सदुपयोग की कला का विकास भक्तसङ्ग से होता है क्योंकि भक्त के जीवन में कुछ नकारात्मक-निषेधात्मक होता ही नहीं है। सच में भक्त तो वही है जो भाव में, विचार में, कर्म में, प्रत्येक पल में सकारात्मक होता है। हमें अपने जीवन की प्रारम्भिक अवस्था में जिन भगवद्भक्त महामानव का आश्रय मिला, उनसे मैंने यही सीखा कि प्रत्येक पल एवं प्रत्येक घटनाक्रम का सकारात्मक एवं सार्थक उपयोग करो।
उनके इस उपदेश को मानकर मैं जीवनप्रवाह के साथ बहता गया। जीवन की हर चोट, हर पीड़ा हमें गढ़ती गयी, संवारती गयी। भक्तसङ्ग की साधना से एक बात मैंने यह भी सीखी कि कभी कुछ मत मांगो, क्योंकि मांगने वाले को यह पता नहीं है कि यथार्थ में उसे क्या चाहिए? जबकि देने वाले परमेश्वर को यह पता है कि उसके भक्त को सचमुच में कब, क्या आवश्यकता है। सम्पूर्ण शरणागति ही तो भक्ति है, जो संकटों में, विषमताओं में, विपरीतताओं में विकसित होती है। मेरे जीवन में यही घटित होता रहा और भगवान अपने विभिन्न रूपों में मुझे सम्हालते रहे। उनकी ही प्रेरणा से मुझे भक्तों का दुर्लभ सान्निध्य मिलता रहा।
यदा-कदा ऐसा भी हुआ कि विषम घड़ियों में किसी भी भक्त का सान्निध्य न मिला। पर उन पलों में अन्तर्यामी मेरी अन्तर्चेतना में मुखर रहे। मनःस्थिति में कभी वह भाव एवं विचार बनकर प्रकट हुए तो परिस्थिति में सहृदय भक्त बनकर जीवन की राह दिखाते रहे। भक्तों के सङ्ग ने ही मुझे गढ़ा-निखारा। मेरी अपनी अनुभूति यही कहती है कि भक्तों का सङ्ग-साथ तो भक्तिशास्त्र का महाविद्यालय है। यह वह महागुरुकुल है, जहाँ स्वतः जीवनविद्या, भक्तिविद्या का शिक्षण मिल जाता है। भक्तों के संङ्ग में भगवान की सम्पूर्ण चेतना, उनकी अनन्त कृपा स्वाभाविक रीति से प्रकट होती है। इसलिए प्रयत्नपूर्वक भक्तों का सङ्ग करना चाहिए। यही श्रेष्ठतम साधना है।’’
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १७१