शनिवार, 30 मई 2020

👉 युग परिवर्तन का आधार भावनात्मक नव निर्माण (भाग ४)

अगले दिनों ज्ञानतन्त्र ही धर्मतंत्र होगा। चरित्र निर्माण और लोक मंगल की गतिविधियाँ धार्मिक कर्मकाण्डों का स्थान ग्रहण करेंगी। तब लोग प्रतिमा पूजक देव मन्दिर बनाने को महत्त्व देंगे। तीर्थ- यात्राओं और ब्रह्मभोजों में लगने वाला धन लोक शिक्षण की भाव भरी सत्प्रवृत्तियों के लिए अर्पित किया जायेगा। कथा पुराणों की कहानियाँ तब उतनी आवश्यक न मानी जायेंगी जितनी जीवन समस्याओं को सुलझाने वाली प्रेरणाप्रद अभिव्यंजनाएँ। धर्म अपने असली स्वरूप में निखर कर आयेगा और उसके ऊपर चढ़ी हुई सड़ी गली केंचुली उतर कर कूड़े करकट के ढेर में जा गिरेगी।
    
ज्ञान तन्त्र वाणी और लेखनी तक ही सीमित न रहेगा, वरन् उसे प्रचारात्मक एवं संघर्षात्मक कार्यक्रमों के साथ बौद्धिक, नैतिक और सामाजिक क्रान्ति के लिए प्रयुक्त किया जायेगा। साहित्य, संगीत, कला के विभिन्न पक्ष विविध प्रकार से लोक शिक्षण का उच्चस्तरीय प्रयोजन पूरा करेंगे। जिनके पास प्रतिभा है, जिनके पास सम्पदा है वे उससे स्वयं लाभान्वित होने के स्थान पर समस्त समाज को समुन्नत करने के लिए समर्पित करेंगे।
    
(१) एकता (२) समता (३) ममता और (४) शुचिता। नव निर्माण के चार भावनात्मक आधार होंगे।
 
एक विश्व, एक राष्ट्र, एक भाषा, एक धर्म, एक आचार, एक संस्कृति के आधार पर समस्त मानव प्राणी एकता के रूप में बँधेंगे। विश्व बन्धुत्व की भावना उभरेगी और वसुधैव कुटुम्बकम् का आदर्श सामने रहेगा। तब देश, धर्म, भाषा, वर्ण आदि के नाम पर मनुष्य मनुष्य के बीच दीवारें खड़ी न की जा सकेंगी। अपने वर्ग के लिए नहीं, समस्त विश्व के हित साधन की दृष्टि से ही समस्याओं पर विचार किया जायेगा।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

गुरुवार, 28 मई 2020

👉 चन्दन का कोयला तो न बनायें

एक राजा वन विहार के लिए गया। शिकार का पीछा करते-करते राह भटक गया। घने जंगल में जा पहुँचा। रास्ता साफ नहीं दीख पड़ता था। साथी कोई रहा नहीं। रात हो गई। जंगल के हिंसक पशु दहाड़ने लगे। राजा डरा और रात्रि बिताने के लिए किसी आश्रय की तलाश करने लगा।

ऊँचे पेड़ पर चढ़कर देखा तो उत्तर दिशा में किसी झोंपड़ी में दीपक जलता दिखाई दिया। राजा उसी दिशा में चल पड़ा और किसी वनवासी की झोपड़ी में जा पहुँचा।

अपने को एक राह भूला पथिक बताते हुए राजा ने उस व्यक्ति से एक रात निवास कर लेने देने की प्रार्थना की। वनवासी उदार मन वाला था। उसने प्रसन्नता पूर्वक ठहराया और घर में जो कुछ खाने को था, देकर उसकी भूख बुझाई। स्वयं जमीन पर सोया और अतिथि को आराम से नींद लेने के लिए अपनी चारपाई दे दी।

राजा ने भूख बुझाई। थकान मिटाई और गहरी नींद सोया। वनवासी की उदारता पर उसका मन बहुत प्रसन्न था। सवेरा होने पर उस वनवासी ने सही रास्ते पर छोड़ आने के लिए साथ चलने की भी सहायता की।

दोनों एक दूसरे से विलग होने लगे। तो राजा को उस एक दिन के गान और आतिथ्य का बदला चुकाने का मन आया। परन्तु क्या दे? कुछ दे भी तो उस एकान्तवासी पर चोर रहने क्यों देंगे? इसलिए ऐसी भेंट देनी चाहिए जिसके चोरी होने का डर भी नहीं और आवश्यकतानुसार उसमें से आवश्यक राशि उपलब्ध होती रहे।

उसी जंगल में राजा का एक विशाल चंदन उद्यान था। उसमें बढ़िया चंदन के सैकड़ों पेड़ थे। राजा ने अपना पूरा परिचय वनवासी को दिया और अपने हाथ से लिखकर उसे चंदन उद्यान का स्वामी बना दिया। दोनों संतोष पूर्वक अपने-अपने घर चले गये।

वनवासी लकड़ी बेचकर गुजारा करता था। इसने लकड़ी का कोयला बना कर बेचने में कम श्रम पड़ने तथा अधिक पैसा मिलने की जानकारी प्राप्त कर ली थी। वही रीति-नीति अपनायी। पेड़ अच्छे और बड़े थे। आसानी से कोयला बनने लगा। उसने एक के बजाय दो फेरी निकट के नगर में लगानी आरंभ कर दी ताकि दूनी आमदनी होने लगे। वनवासी बहुत प्रसन्न था। अधिक पैसा मिल जाने पर उसने अधिक सुविधा सामग्री खरीदनी आरम्भ कर दी और अधिक शौक मौज से रहने लगा।

दो वर्ष में चन्दन का प्रायः पूरा उद्यान कोयला बन गया। एक ही पेड़ बचा। एक दिन वर्षा होने से कोयला तो न बन सका। कुछ प्राप्त करने के लिए पेड़ से एक डाली काटी और उसे ही लेकर नगर गया। लकड़ी में से भारी सुगंध आ रही थी। खरीददारों ने समझ लिया चह चंदन है। कोयले की तुलना में दस गुना अधिक पैसा मिला। सभी उस लकड़ी की माँग करने लगे। कहा कि- “भीगी लकड़ी के कुछ कम दाम मिले हैं। सूखी होने पर उसकी और भी अधिक कीमत देंगे।

वन वासी पैसे लेकर लौटा और मन ही मन विचार करने लगा। यह लकड़ी तो बहुत कीमती है। मैंने इसके कोयले बनाकर बेचने की भारी भूल की, यदि लकड़ी काटता बेचता रहता तो कितना धनाढ्य बन जाता और इतनी सम्पदा इकट्ठी कर लेता जो पीढ़ियों तक काम देती।

राजा के पास जाने व पुनः याचना कर अपनी मूर्खता दर्शाने में कोई सार न था। शरीर भी बुड्ढा हो गया था। कुछ अधिक पुरुषार्थ करने का उत्साह नहीं था। झाड़ियाँ काटकर कोयले बनाने और पेट पालने की वही पुरानी प्रक्रिया अपना ली और जैसे-तैसे गुजारा करने लगा।

मनुष्य जीवन चंदन उद्यान है इसकी एक-एक टहनी असाधारण मूल्यवान है। जो इसका सदुपयोग कर सकें, वे धन्य होंगे, जिनने प्रमाद बरता वे वनवासी की तरह पछतायेंगे।

👉 युग परिवर्तन का आधार भावनात्मक नव निर्माण (भाग ३)

यह हलचलें जन- जन में दृष्टिगोचर होंगी। समुन्नत आत्मा निजी सुख सुविधाओं को तिलाञ्जलि देकर विश्व के भावनात्मक नव निर्माण को इस युग की सर्वोत्तम साधना, उपासना, तपश्चर्या एवं आवश्यकता समझते हुए इसी में सर्वतो भावेन संलग्न होगी। साथ ही सामान्य स्तर के व्यक्तियों में इतना विवेक तो अनायास ही जागृत होगा कि वे अन्धकार और प्रकाश का अन्तर समझ सकें। अनुचित के लिए दुराग्रह छोड़कर न्याय और विवेक के आधार पर प्रतिदिन उचित को स्वीकार कर सकें। इस प्रकार उभय पक्षीय सुयोग संयोग उस प्रयोजन को अग्रगामी बनाता चला जायेगा जो युग परिवर्तन का मूलभूत आधार है।
    
आज की स्थिति को देखते हुए यह दोनों ही कार्य कठिन दीखते हैं। धर्म विडम्बना के सस्ते प्रलोभनों को तिरस्कृत कर धर्म प्रेमी लोग कष्ट साध्य परमार्थ में प्रवेश करेंगे यह कठिन है। बुद्धिजीवी अपनी अच्छी खासी सुविधाओं का परित्याग कर लोक मंगल के लिए दर- दर ठोकरें खायेंगे यह भी कठिन ही दीखता है। पर समय यह भी कराके छोड़ेगा। रीछ वानर अपने प्राण हथेली पर रख कर मौत से लड़ने गये थे। बुद्ध के ढाई लाख अनुयायी यौवन की उमंगों को कुचलते हुए भिक्षुक बनने की जटिल प्रक्रिया स्वीकार करने को सहमत हुए थे। गाँधी की पुकार पर लाखों ने अपनी बर्बादी को स्वीकार किया था। उसी प्रकरण को यदि इतिहास फिर दुहराए तो इसे न कठिन मानना चाहिए और न असंभव। जो भूतकाल में होता रहा है उसकी पुनरावृत्ति को कठिन या जटिल मानने का कोई कारण नहीं। समय की पुकार इस कष्टसाध्य प्रक्रिया को भी पूरा करके रहेगी। जीवन्त और जागृत आत्माओं का एक बड़ा वर्ग निकट भविष्य में ही आगे आवेगा और ज्ञान तंत्र का ऐसा विशालकाय शस्त्रागार खड़ा करेगा, जिसकी सहायता से अनाचार की लंका को ध्वस्त किया जा सके।
    
धर्म अपने वास्तविक स्वरूप में प्रकट होगा। उसके प्रसार प्रतिपादन का ठेका किसी वेश या वंश विशेष पर न रह जायेगा। सम्प्रदाय वादियों के डेरे उखड़ जायेंगे, उन्हें मुफ्त के गुलछर्रे उड़ाने की सुविधा छिनती दीखेगी तो कोई उपयोगी धंधा अपनाकर भले मानसों की तरह आजीविका उपार्जित करेंगे। तब चरित्र, परिष्कृत ज्ञान एवं लोक मंगल के लिए प्रस्तुत किया गया अनुदान ही किसी को सम्मानित या श्रद्धास्पद बना सकेगा। पाखण्ड पूजा के बल पर जीने वाले उलूक उस दिवा प्रकाश से भौंचक होकर देखेंगे और किसी कोटर में बैठे दिन गुजारेंगे। अज्ञानान्धकार में जो पौ बारह रहती थी उन अतीत की स्मृतियों को वे ललचाई दृष्टि से सोचते तो रहेंगे पर फिर समय लौटकर कभी आ न सकेगा।
    
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 You are the Architect of Your Destiny

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If you depend upon others or look for someone’s help in the moments of difficulty, you must be living under some illusion. Otherwise, you would identify the root-cause of the problems you are facing and analyze your own vices and flaws that might have been responsible for those troubles. By overcoming those drawbacks and weaknesses, you would be best equipped to resolve or get rid of most of your problems on your own.

With the aspiration of being progressive and successful, you should also begin adopting virtuous tendencies and sharpening and enhancing your potentials. Your destiny is indeed written according to your intrinsic nature, inner qualities. Intense impressions of your tendencies, sentiments and thinking and conduct, account for shaping of your inner personality, which is attributed to be the architect of your future evolution. God’s system works according to – “you harvest what you have sown”. If good qualities, abilities are not cultivated by you, and the seeds of virtues are left in a virgin (dormant) state within your self, and instead, negative tendencies, follies, untoward habits are allowed to accumulate and grow, God’s rule will formulate your destiny as full of sufferings; you will not have a good fate or hopes in future unless and until you refine yourself and inculcate the potentials of elevation. So it is in fact in your own hand to design your destiny.

If you awaken your self-confidence, set high ideals as your goal and sincerely endeavor to make yourself capable and deserving for that goal, God’s script will indeed destine you to have a bright and successful life accordingly. If you think wisely, know yourself and earnestly search for the illumined goal, you will certainly find the righteous path to achieve it at the right moment.

📖 Akhand Jyoti, Sept. 1943

👉 अनाचार से कैसे निपटें? (भाग २)

आकर्षक लगने वाली सभी वस्तुएं उपयोगी नहीं होतीं। सर्प, बिच्छू, काँतर, कनखजूरे जैसे प्राणी देखने में सुन्दर लगते हैं पर उनके गुणों को देखने पर पता चलता है  कि वे समीप आने वाले को कितना त्रास देते हैं ? प्रथम पहचान में ही न किसी का मित्र बनना चाहिए और न किसी को बनाना चाहिए। चरित्र के बारे में बारीकी से देखना, समझना और परखना चाहिए। मात्र शालीनता के प्रति आशा रखने वाले और आदर्शों का दृढ़तापूर्वक अवलम्बन करने वाले ही इस योग्य होते हैं कि उनसे घनिष्टता का सम्बन्ध स्थापित किया जाए।   
   
बड़ी बात दुर्जनों को समझाकर सज्जनता के मार्ग पर लाना उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना कि उनके गिरोह को छिन्न-भ्न्न करने से लेकर घात लगाने की चलती प्रक्रिया में कारगर अवरोध खड़े कर देना। इसके लिए जनसाधारण को साहस जगाने वाला प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए, प्रतिरोध कर सकने वाली साहसिक मंडलियों का गठन किया जाना चाहिए और सरकरी तंत्र तक यह आवाज पहुँचाई जानी चाहिए कि उसके भागीदार अधिकारी कर्मचारी उस कर्तव्य का ईमानदारी से पालन करें जिसके लिए उन्होंने जिम्मेदारी कंधे पर उठाई है। इस कार्य में उन्हें जहाँ भी कठिनाई अनुभव हो रही हो, उसे दूर करने के लिए जागरूक नागरिकों को समुचित प्रयत्न करना चाहिए। जनता का साहस, सुरक्षा बलों का पराक्रम और सरकारी तंत्र का समुचित योगदान यदि मिलने लगे तो गुंडा गर्दी का उन्मूलन उतना कठिन न रहेगा जितना अब है।
   
हर व्यक्ति अपने को ऐसा चुस्त-दुरुस्त रखे जिससे प्रतीत हो कि वह किसी भी आक्रमण का सामना करने के लिए तैयार है। यह कार्य प्राय: एकाकी होने पर नहीं बन पड़ता, समूह में अपनी शक्ति होती है। मिल-जुलकर रहने और एक-दूसरे की क्षमता बनाए रहने पर आधी मुसीबत टल जाती है। आक्रमण अपना हाथ रोक लेते हैं और बढ़ते कदमों को पीछे हटा लेने पर विवश होते हैं। निजी हौसला बुलन्द रखने के अतिरिक्त अपने जैसे ही साहसी लोगों का संगठन बना लेना चाहिए और उनके साथ-साथ रहने,  साथ-साथ उठने-बैठने के अवसर बनाते रहने चाहिए। बर्रों के छत्ते में हाथ डालने में डर लगता है, पर यदि वह अकेली पास आ डटे तो उसका कचूमर निकालने के लिए कोई भी तैयार हो जाता है। मधुमक्खियों के छ्त्ते से आमतौर से लोग बचकर ही निकलते हैं। बन्दर समूह में रहते हैं और एक को छेड़ने पर दूसरे भी उनकी सहायता के लिए इकट्ठे हो जाते हैं – इस कारण लोग बन्दरों के झुंड को छेड़ते नहीं वरन् उससे बचकर ही निकलने में अपनी भलाई देखते हैं।         
 
.... समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

मंगलवार, 26 मई 2020

👉 उत्तरदायित्व व प्राथमिकता पर ध्यान

जंगल में एक गर्भवती हिरनी बच्चे को जन्म देने को थी। वो एकांत जगह की तलाश में घुम रही थी, कि उसे नदी किनारे ऊँची और घनी घास दिखी। उसे वो उपयुक्त स्थान लगा शिशु को जन्म देने के लिये।

वहां पहुँचते  ही उसे प्रसव पीडा शुरू हो गयी।
उसी समय आसमान में घनघोर बादल वर्षा को आतुर हो उठे और बिजली कडकने लगी।

उसने दाये देखा, तो एक शिकारी तीर का निशाना, उस की तरफ साध रहा था। घबराकर वह दाहिने मुडी, तो वहां एक भूखा शेर, झपटने को तैयार बैठा था। सामने सूखी घास आग पकड चुकी थी और पीछे मुडी, तो नदी में जल बहुत था।

मादा हिरनी क्या करती? वह प्रसव पीडा से व्याकुल थी। अब क्या होगा? क्या हिरनी जीवित बचेगी? क्या वो अपने शावक को जन्म दे पायेगी? क्या शावक जीवित रहेगा?

क्या जंगल की आग सब कुछ जला देगी? क्या मादा हिरनी शिकारी के तीर से बच पायेगी? क्या मादा हिरनी भूखे शेर का भोजन बनेगी?
वो एक तरफ आग से घिरी है और पीछे नदी है। क्या करेगी वो?

हिरनी अपने आप को शून्य में छोड, अपने बच्चे को जन्म देने में लग गयी। कुदरत का करिश्मा देखिये। बिजली चमकी और तीर छोडते हुए, शिकारी की आँखे चौंधिया गयी। उसका तीर हिरनी के पास से गुजरते, शेर की आँख में जा लगा, शेर दहाडता हुआ इधर उधर भागने लगा। और शिकारी, शेर को घायल ज़ानकर भाग गया। घनघोर बारिश शुरू हो गयी और जंगल की आग बुझ गयी। हिरनी ने शावक को जन्म दिया।

हमारे जीवन में भी कभी कभी कुछ क्षण ऐसे आते है, जब हम चारो तरफ से समस्याओं से घिरे होते हैं और कोई निर्णय नहीं ले पाते। तब सब कुछ नियति के हाथों सौंपकर अपने उत्तरदायित्व व प्राथमिकता पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। अन्तत: यश, अपयश, हार, जीत, जीवन, मृत्यु का अन्तिम निर्णय ईश्वर करता है। हमें उस पर विश्वास कर उसके निर्णय का सम्मान करना चाहिए।

कुछ लोग हमारी सराहना करेंगे,
कुछ लोग हमारी आलोचना करेंगे।

दोनों ही मामलों में हम फायदे में हैं,

एक हमें प्रेरित करेगा और
दूसरा हमारे भीतर सुधार लाएगा।।

👉 युग परिवर्तन का आधार भावनात्मक नव निर्माण (भाग २)

युग परिवर्तन के जिस अभियान में हमें दिलचस्पी है वह चेतनात्मक उत्कर्ष ही है। इसके लिए ज्ञान तन्त्र को समर्थ और परिष्कृत करना पड़ेगा। इसका अर्थ यह नहीं कि भौतिक प्रगति व्यर्थ है। वह भी आवश्यक है, पर वह दूसरे लोगों का काम है, जिसे वे शक्ति भर सम्पन्न कर भी रहे हैं। सरकारें पंच वर्षीय योजनाएँ बनाती हैं। वैज्ञानिक शोध कार्यों में जुटे हुए हैं, अर्थशास्त्री व्यवसाय उत्पादन और वितरण का ताना- बाना बुन रहे हैं। सैन्य तन्त्र आयुधों के निर्माण और योद्धाओं के प्रशिक्षण में लगा है। शिक्षा शास्त्री बौद्धिक क्षमता के अभिवर्धन में लगे हैं। उपेक्षित तो ज्ञान तन्त्र ही पड़ा है उस नाम पर जो खड़ा है उसे तो विदूषकों जैसी विडम्बना ही कहा जा सकता है। धर्म के नाम पर जो कहा और किया जा रहा है उससे ऐसी आस्तिकता की अपेक्षा नास्तिकता भली प्रतीत होती है। ज्ञान तन्त्र यदि मानवीय सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन को उपेक्षा कर्मकाण्डों में ही उलझाये रहे और सातवें आसमान के सपने दिखाता रहे, कर्म को व्यर्थ और भक्ति को प्रधान कहता रहे तो उससे मानव समाज का, विश्व का कोई हित साधन न हो सकेगा। धर्म व्यवसायियों की आजीविका भले ही चलती रहे।
  
नव निर्माण के अवतरण की किरणें अगले दिनों प्रबुद्ध एवं जीवन्त आत्माओं पर बरसेंगी, वे व्यक्तिगत लाभ में संलग्न रहने की लिप्सा को लोक उत्सर्ग करने की आन्तरिक पुकार सुनेंगे। यह पुकार इतनी तीव्र होगी कि चाहने पर भी वे संकीर्ण स्वार्थ परता भरा व्यक्तिवादी जीवन जी ही न सकेंगे। लोभ और मोह की जटिल जंजीरें वैसी ही टूटती दीखेंगी जैसे कृष्ण जन्म के समय बन्दी गृह के ताले अनायास ही खुल गये थे। यों माया वृद्ध नर कीटकों के लिए वासना और तृष्णा की परिधि तोड़कर परमार्थ के क्षेत्र में कदम बढ़ाना लगभग असंभव जैसा लगता है। पेट और प्रजनन की विडम्बनाओं के अतिरिक्त वे क्या आगे की और कुछ बात सोच या कर सकेंगे? पर समय ही बतायेगा कि इसी जाल जंजाल में जकड़े हुए वर्गों में से कितनी प्रबुद्ध आत्माएँ उछल कर आगे आती हैं और सामान्य स्थिति में रहते हुए कितने ऐसे अद्भुत क्रिया कलाप सम्पन्न करती हैं, जिन्हें देख कर आश्चर्य चकित रह जाना पड़ेगा। जन्मजात रूप से तुच्छ स्थिति में जकड़े हुए व्यक्ति अगले दिनों जब महामानवों की भूमिका प्रस्तुत करते दिखाई पड़े तो समझना चाहिए युग परिवर्तन का प्रकाश एवं चमत्कार सर्व साधारण को प्रत्यक्ष हो चला।

निस्सन्देह युग परिवर्तन का प्रधान आधार भावनात्मक नव निर्माण ही होगा। जन मानस में इन दिनों झूठ मान्यताओं की भरमार है। सोचने की सही पद्धति एक प्रकार से विस्मृत ही हो गयी है। स्थिति का सही मूल्यांकन कर सकने वाला दृष्टिकोण हाथ से चला गया है। उसके स्थान पर भ्रान्तियों की चमगादड़ें विचार भवन के गुम्बदों में उलटी लटक पड़ी हैं। इस सारे कूड़े करकट को एक बार झाड़ बुहार कर साफ करना होगा और चिन्तन की इस परिष्कृत प्रक्रिया को जन मानस में प्रतिष्ठापित करना पड़ेगा जो मानवीय गरिमा के अनुरूप है। किसी धर्म सम्प्रदाय, सन्त या ग्रन्थ को बुद्धि बेच कर किसी का भी अन्धानुकरण न करने की बात हर किसी के मन में घुसती चली जायेगी और जो न्याय, विवेक, सत्य एवं तथ्य की कसौटियों पर खरा सिद्ध होगा उसी को स्वीकारने की प्रवृत्ति बढ़ेगी। इस आधार के प्रबल होते ही न अनैतिकताओं के लिए कोई स्थान रह जायेगा और न मूढ़ मान्यताओं के लिए। निर्मल और निष्पक्ष चिन्तन किसी भी देश, धर्म या वर्ग के व्यक्ति को उसी स्थान पर पहुँचा देगा, जिसके लिए भारतीय अध्यात्म अनादि काल से अंगुलि निर्देश करता रहा है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 A blind boy

A blind boy sat on the steps of a building with a hat by his feet. He held up a sign which said: “I am blind, please help.”

There were only a few coins in the hat.

A man was walking by. He took a few coins from his pocket and dropped them into the hat. He then took the sign, turned it around, and wrote some words. He put the sign back so that everyone who walked by would see the new words.

Soon the hat began to fill up. A lot more people were giving money to the blind boy. That afternoon the man who had changed the sign came to see how things were.

The boy recognized his footsteps and asked, “Were you the one who changed my sign this morning? What did you write?”

The man said, “I only wrote the truth. I said what you said but in a different way.”

What he had written was: “Today is a beautiful day and I cannot see it.”

Do you think the first sign and the second sign were saying the same thing?

Of course both signs told people the boy was blind. But the first sign simply said the boy was blind. The second sign told people they were so lucky that they were not blind. Should we be surprised that the second sign was more effective?

Moral of the story: Be thankful for what you have. Be creative. Be innovative. Think differently and positively.

Invite others towards good with wisdom. Live life with no excuse and love with no regrets. When life gives you 100 reasons to cry, show life that you have 1000 reasons to smile. Face your past without regret. Handle your present with confidence. Prepare for the future without fear. Keep the faith and drop the fear.

Great men say, “Life has to be an incessant process of repair and reconstruction, of discarding evil and developing goodness…. In the journey of life, if you want to travel without fear, you must have the ticket of a good conscience.”

The most beautiful thing is to see a person smiling. And even more beautiful is, knowing that you are the reason behind it.

👉 अनाचार से कैसे निपटें? (भाग १)

कीचड़ में कमल उगना एक सुयोग है। आमतौर से उसमें गंदे कीड़े ही कुलबुलाते रहते हैं। जिन्होंने लोकप्रवाह में बहने के लिए आत्म समर्पण कर दिया, समझना चाहिए उनके लिए नर-पशु स्तर का जीवनयापन ही भाग्य विधान जैसा बन गया। वे खाते, सोते, पाप बटोरते और रोते-कलपते मौत के मुँह में चले जाते हैं। स्रष्टा ने मनुष्य जीवन का बहुमूल्य जीवन धरोहर के रूप में दिया था, होना यह चाहिए था कि इस सुयोग का लाभ उठाकर अपनी अपूर्णता पूर्णता में बदली गयी होती और विश्वमानव की सेवा-साधना में संलग्न रहकर देवमानव की भूमिका में प्रवेश करके धन्य बना जाता, असंख्यों को सन्मार्ग में चलाकर सत्प्रवृत्तियों के संवर्धन का अजस्र पुण्य कमाया गया होता। यह तो बन नहीं पड़ता, उल्टे पाप का पिटारा सिर पर लादकर लंबे भविष्य को अन्धकारमय बनाया जाता है।

सत्य परायणों और न्यायनिष्ठों को समय-समय पर दूसरों की सहायता भी मिलती रही है, इतिहास इसका साक्षी है। यदि ऐसा न हुआ होता तो बहुसंख्यक कुकर्मियों ने इस संसार की समूची शालीनता का भक्षण कर लिया होता। सत्यनिष्ठ एकाकी होने के कारण सर्वत्र पराजित-पराभूत हो गए होते किन्तु ऐसा हुआ नहीं। प्रहलाद पथ के अनुयायी कष्ट सहकर भी अपनी विजय ध्वजा फहराते हैं। ईसा मरकर भी मरे नहीं, सुकरात की काया नष्ट होने पर भी उसका यश, वर्चस्व और दर्शन अपेक्षाकृत और भी प्रखर हुआ, व्यापक बना। गोवर्धन पर्वत उठाए जाने का संकल्प आरम्भ में असंभव लगता रहा होगा, पर समय ने सदुद्देश्य का साथ दिया और सत्संकल्प ने विजय दुंदुभी बजाई।
  
विलासिता, सज-धज और ठाट-बाट की आड़ में बढ़ता हुआ खर्च किसी को भी कुमार्ग पर ढकेल सकता है। सीमित और आवश्यक खर्च की पूर्ति तो सही हो सकती है, पर असाधारण खर्च की पूर्ति के लिए तो गलत तरीके ही अपनाने होते हैं।

अपराधी प्रवृत्ति एक प्रकार की छूत वाली बीमारी है जो पहले परिवार के नवोदित सदस्यों पर आक्रमण करती है। कुकर्मी लोगों की संतानें भी अनैतिक कार्यों में ही रुचि लेती हैं और उन्हीं की अभ्यस्त बनती हैं। इसके अतिरिक्त ऐसा भी होता है कि जिनके साथ उनकी घनिष्टता है, उन्हें भी उसी पतन के गर्त में गिरने का कुयोग बने। ऐसे लोग प्रयत्नपूर्वक अपना संपर्क क्षेत्र बढ़ाते हैं और उद्धत आचरणों के फलस्वरूप तत्काल बड़े लाभ मिलने के सब्जबाग दिखाते हैं। आरम्भ में हिचकने वालों की हिम्मत बढ़ाने के लिए कितने ही इस आधार पर बड़े-बड़े लाभ प्राप्त कर लेने के मन गढ़न्त वृतान्त सुनाते हैं। जिन्हें सच मानने और उस प्रकार का आचरण करने में अपनी भी उपयोगिता देखकर सहज ही तैयार हो जाते हैं। गिरोह बनता है और साथियों की सहायता से अपराधी लोगों का समुदाय बनता है। संगठित प्रयत्नों की सफलता सर्व विदित है। अनाचार पर उतारू लोग भी आक्रामक नीति अपनाकर आरम्भिक सफलता तो प्राप्त कर ही लेते हैं, पीछे भले ही उनके भयानक दुष्प्रिणाम भुगतने पड़ें।  

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

सोमवार, 25 मई 2020

👉 Man Ka Samadhan मन का समाधान

उपासना का अर्थ मात्र देवालय बना देना नहीं है। वैसा जीवन भी जीना होता है, तभी वह सफल है।

चित्रगुप्त अपनी पोथी के पृष्ठों को उलट रहे थे। यमदूतों द्वारा आज दो व्यक्तियों को उनके सम्मुख पेश किया गया था। यमदूतों ने प्रथम व्यक्ति का परिचय कराते हुए कहा, “यह नगर सेठ हैं। धन की कोई कमी इनके यहाँ नहीं। खूब पैसा कमाया है और समाज हित के लिये धर्मशाला, मन्दिर, कुआँ और विद्यालय जैसे अनेक निर्माण कार्यों में उसका व्यय किया है।” अब दूसरे व्यक्ति की बारी थी। उसे यमदूत ने आगे बढ़ाते हुए कहा, "यह व्यक्ति बहुत गरीब है। दो समय का भोजन जुटाना भी इसके लिए मुश्किल है।

एक दिन जब ये भोजन कर रहे थे, एक भूखा कुत्ता इनके पास आया। इन्होंने स्वयं भोजन न कर सारी रोटियाँ कुत्ते को दे दीं। स्वयं भूखे रहकर दूसरे की क्षुधा शान्त की। अब आप ही बतलाइये कि इन दोनों के लिये क्या आज्ञा है?" चित्रगुप्त काफी देर तक पोथी के पृष्ठों पर आँखें गड़ाये रहे। उन्होंने बड़ी गम्भीरता के साथ कहा-धनी व्यक्ति को नरक में और निर्धन व्यक्ति को स्वर्ग में भेजा जाये।"

चित्रगुप्त के इस निर्णय को सुनकर यमराज और दोनों आगन्तुक भी आश्चर्य में पड़ गये। चित्रगुप्त ने स्पष्टीकरण देते हुए कहा-धनी व्यक्ति ने निर्धनों और असहायों का बुरी तरह शोषण किया है। उनकी विवशताओं का दुरुपयोग किया है और उस पैसे से ऐश और आराम का जीवन व्यतीत किया। यदि बचे हुये धन का एक अंश लोकेषणा की पूर्ति हेतु व्यय कर भी दिया, तो उसमें लोकहित का कौन सा कार्य हुआ?

निर्माण कार्यों के पीछे यह भावना कार्य कर रही थी कि लोग मेरी प्रशंसा करें, मेरा यश गायें। गरीब ने पसीना बहाकर जो कमाई की, उस रोटी को भी समय आने पर भूखे कुत्ते के लिए छोड़ दी। यह साधन-सम्पन्न होता, तो न जाने अभावग्रस्त लोगों की कितनी सहायता करता? पाप और पुण्य का सम्बन्ध मानवीय भावनाओं से है, क्रियाओं से नहीं। अतः मेरे द्वारा पूर्व में दिया गया निर्णय ही अंतिम है।" सबके मन का समाधान हो चुका था।

अखण्ड ज्योति – अक्टूबर 1995 पृष्ठ 32

👉 Prem Aur Permeshwar प्रेम और परमेश्वर

प्रत्येक प्राणी में परमात्मा का निवास है। इस घट-घट वासी परमात्मा का जो दर्शन कर सके समझना चाहिए कि उसे ईश्वर का साक्षात्कार हो चुका। प्राणियों की सेवा करने से बढ़कर दूसरी ईश्वर भक्ति हो नहीं सकती। कल्पना के आधार पर धारणा-ध्यान द्वारा प्रभु को प्राप्त करने की अपेक्षा सेवा-धर्म अपना कर इसे साकार ब्रह्म-अखिल विश्व को सुन्दर बनाने के लिए संलग्न रहना-साधना का श्रेष्ठतम मार्ग है। अमुक भजन ध्यान से केवल ईश्वर को ही प्रसन्नता हुई या नहीं? इसमें सन्देह हो सकता है, पर दूसरों को सुखी एवं समुन्नत बनाने के लिए जिसने कुछ किया है उसे आत्म-सन्तोष, सहायता द्वारा सुखी हुए जीवों का आशीर्वाद और परमात्मा का अनुग्रह मिलना सुनिश्चित है।

प्रेम से बढ़कर इस विश्व में और कुछ भी आनन्दमय नहीं है। जिस व्यक्ति या वस्तु को हम प्रेम करते हैं वह हमें अतीव सुन्दर प्रतीत होने लगती है। इस समस्त विश्व को परमात्मा का साकार मान कर उसे अधिक सुन्दर बनाने के लिए यदि उदार बुद्धि से लोक मंगल के कार्यों में निरत रहा जावे तो यह ईश्वर के प्रति तथा उसकी पुण्य वृत्तियों के प्रति प्रेम प्रदर्शन करने का एक उत्तम मार्ग होगा। इस प्रकार की हुई ईश्वर उपासना कभी भी व्यर्थ नहीं जाती। इसकी सार्थकता के प्रमाणस्वरूप तत्काल आत्मसन्तोष मिलता है। श्रेय की भावनाओं से ओत-प्रोत उदार हृदय ही स्वर्ग है। जिसे स्वर्ग अभीष्ट हो उसे अपना अन्तःकरण प्रेम और सेवा धर्म से परिपूर्ण बना लेना चाहिए।

ऋषि तिरुवल्लुवर
अखण्ड ज्योति जुलाई 1964 पृष्ठ 1


http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1964/July/v1.3

शुक्रवार, 22 मई 2020

👉 युग परिवर्तन का आधार भावनात्मक नव निर्माण (भाग १)

सूर्योदय पूर्व दिशा से होता है। उषा काल की लालिमा उसकी पूर्व सूचना लेकर आती है। कुक्कुट उस पुण्य बेला की अग्रिम सूचना देने लगते हैं। तारों की चमक और निशा कालिमा की सघनता कम हो जाती है। इन्हीं लक्षणों से जाना जाता है कि प्रभात काल समीप आ गया और अब सूर्योदय होने ही वाला है।

नव जागरण का, युग परिवर्तन का सूर्योदय भी इसी क्रम से होगा। यह सार्वभौम प्रश्न है, विश्व मानव से सम्बन्धित समस्या है। एक देश या एक जाति की नहीं। फिर भी उदय का क्रम पूर्व से ही चलेगा। कुछ चिरन्तन विशेष परम्परा ऐसी चली आती है कि विश्व मानव ने जब भी करवट ली है तब उसका सूत्र संचालन सूर्योदय की भाँति ही पूर्व दिशा से हुआ है। यों पाश्चात्य देशवासी भारत को पूर्व मानते हैं, पर जहाँ तक आध्यात्मिक चेतना का प्रश्न है निस्संदेह यह श्रेय सौभाग्य इसी देश को मिला है, वह विश्व की चेतनात्मक हलचलों का उत्तरदायित्व अग्रिम पंक्ति में खड़ा होकर वहन करे, इस बार भी ऐसा ही होने जा रहा है। युग परिवर्तन का प्रकाश इसी पुण्य भूमि से आरंभ हो चुका अब वह कुछ ही समय में विश्व व्यापी बनने जा रहा है।
  
विश्व जड़ और चेतन दो भागों में विभक्त है। जड़ प्रकृति से सम्बन्धित प्रगति को सम्पदा के रूप में देखा जा सकता है और चेतन प्रकृति के विकास को विचारणा एवं भावना के रूप में समझा जायेगा। सुविधा और संपदा की अभिवृद्धि भौतिक प्रगति कहलाती है और चेतना की उत्कृष्टता को आत्मिक उत्कर्ष कहा जाता है, जहाँ तक भौतिक प्रगति का सम्बन्ध है वहाँ तक उसके लिए राजतन्त्र, अर्थतन्त्र, विज्ञान तन्त्र और शिक्षा तन्त्र का उत्तरदायित्व है कि वे अधिकाधिक सुविधा एवं सम्पदा उत्पन्न करके सुख साधनों को आगे बढ़ायें।

आत्मिक प्रगति के लिए ज्ञान तन्त्र उत्तरदायी है। इसे दूसरे शब्दों में दर्शन, धर्म, अध्यात्म एवं कला के नाम से जाना जा सकता है। चेतना की भूख इन्हीं से बुझती है, उसे इन्हीं से दिशा और प्रेरणा मिलती है। परिवर्तन एवं उत्कर्ष भी इन्हीं आधारों को लेकर सम्भव होता है। अस्तु यह अनिवार्य है कि यह चेतनात्मक प्रगति आवश्यक हो तो ज्ञान तन्त्र को प्रखर बनाना पड़ेगा। सच तो यह है जब कभी ज्ञान तन्त्र शिथिल पड़ता है, विकृत होता है तभी व्यक्ति का स्तर लड़खड़ाता है और उस अस्त- व्यस्तता में भौतिक जगत की समस्त गतिविधियाँ उलझ जाती हैं। तत्त्वदर्शी सदा से यह कहते रहे है कि सम्पदा नहीं विचारणा प्रमुख है। यदि विचारणा सही रही तो सम्पदा छाया की तरह पीछे- पीछे फिरेगी, पर यदि सम्पदा को ही सब कुछ माना गया और चेतना स्तर की उत्कृष्टता उपेक्षित की गई तो बढ़ी हुई सम्पदा दूध पीकर परिपुष्ट हुए सर्प की तरह सर्वनाश करने पर उतारू हो जायेगी। यह शाश्वत तथ्य है इसे इतिहास ने लाखों बार आजमाया है और करोड़ों बार आजमाया जा सकता है।
  
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 Do Not Panic or Perplex

Life is full of challenges and testing moments! Many a times the adverse circumstances are so intense that one just can’t bear them, he loses patience, gets anxious and panicked; cries on his destiny and helplessness… But this doesn’t solve the problem. The only source of definite support in such cases is – prudence and patience.

Ups and downs, good and bad experiences are natural phases of human life. We must remember this fact and convince ourselves of the truth that wisdom and pure knowledge (gyana) are the only keys to conquer the agonies caused by the tides of adversities or tragedies. Firm faith in God’s grace and justice is a must in such testing moments of sufferings. We must understand that our knowledge is too limited to grasp the system of God. Whether we realize it at that time or not, the circumstances and experiences that appear so painful to us also occur in fact for our welfare only.

Because of our half or illusory knowledge and narrow attitude, we cannot grasp the real cause or purpose behind the happenings in our life. We must accept it that major cause of our agonies and anxiety is our ignorance; we want everything to conform to our expectation, our favor. But the course of life has many dimensions, beyond our perception. Faith in absolute justice and mercy of the Omniscient God is all the more important in the moments of hardships and pains. This gives us instant courage and light and helps maintain our calm without which we can’t even think properly. All religious scriptures preach the importance of the feeling of content and peace in all circumstance. It is indeed the nectar source of annulling all worries and panics even in the difficult, tragic situations. Adoption of peace, patience and satisfaction does not mean that you should not transact your duties or progress in your life. Rather, it implies that you should complete all your tasks, all duties, with mental stability and calm and a sense of inner faith in all circumstances.

📖 Akhand Jyoti, April 1943

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👉 Akhand Jyoti Pariwar अखण्ड-ज्योति परिवार

कष्ट पीड़ित, कामनाग्रस्त, ऋद्धि सिद्धि के आकाँक्षी, स्वर्ग मुक्ति के फेर में पड़े हुए, विरक्त , निराश व्यक्ति भी हमारे संपर्क में आते रहते हैं। ऐसे कितने ही लोगों से हमारे सम्बन्ध भी हैं, पर उनसे कुछ आशा हमें नहीं रहती। जो अपने निजी गोरखधन्धे में इतने अधिक उलझे हुए हैं कि ईश्वर, देवता, साधु, गुरु किसी का भी उपयोग अपने लाभ के लिए करने का ताना-बाना बुनते रहते हैं, वे बेचारे सचमुच दयनीय हैं। जो लेने के लिए निरन्तर लालायित हैं, उन गरीबों के पास देने के लिए है ही क्या? देगा वह—जिसका हृदय विशाल है, जिसमें उदारता और परमार्थ की भावना विद्यमान है। समाज, युग, देश, धर्म, संस्कृति के प्रति अपने उत्तरदायित्व की जिसमें कर्तव्य-बुद्धि जम गई होगी—वही लोक-कल्याण की बात सोच सकेगा और वही वैसा कुछ कर सकेगा। आज के व्यक्ति वादी, स्वार्थ परायण युग में ऐसे लोग चिराग लेकर ढूँढ़ने पड़ेंगे। पूजा उपासना के क्षेत्र में अनेक व्यक्ति अपने आपको अध्यात्म-वादी कहते मानते रहते हैं पर उनकी सीमा अपने आप तक ही सीमित है। इसलिए तत्वतः वे भी संकीर्ण व्यक्ति वादी ही कहे जा सकते हैं।

हमारी परम्परा पूजा उपासना की अवश्य है पर व्यक्ति बाद की नहीं। अध्यात्म को हमने सदा उदारता, सेवा और प्रस्ताव की कसौटी से कसा है और स्वार्थी को खोटा एवं परमार्थी को खरा कहा है। अखण्ड-ज्योति परिवार में दोनों ही प्रकार के खरे-खोटे लोग मौजूद हैं। अब इनमें से उन खरे लोगों की तलाश की जा रही है जो हमारे हाथ में लगी हुई मशाल को जलाये रखने में अपना हाथ लगा सकें, हमारे कंधे पर लदे हुए बोझ को हलका करने में अपना कंधा लगा सकें। ऐसे ही लोग हमारे प्रतिनिधि या उत्तराधिकारी होंगे। इस छाँट में जो लोग आ जावेंगे उनसे हम आशा लगाये रहेंगे कि मिशन का प्रकाश एवं प्रवाह आगे बढ़ाते रहने में उनका श्रम एवं स्नेह अनवरत रूप से मिलता रहेगा। हमारी आशा के केन्द्र यही लोग हो सकते हैं। और उन्हें ही हमारा सच्चा वात्सल्य भी मिल सकता है। बातों से नहीं काम से ही किसी की निष्ठा परखी जाती है और जो निष्ठावान् हैं उनको दूसरों का हृदय जीतने में सफलता मिलती है। हमारे लिए भी हमारे निष्ठावान् परिजन ही प्राणप्रिय हो सकते हैं।

लोक सेवा की कसौटी पर जो खरे उतर सकें, ऐसे ही लोगों को परमार्थी माना जा सकता है। आध्यात्मिक पात्रता इसी कसौटी पर परखी जाती है। हमारे उस देव ने अपनी अनन्त अनुकम्पा का प्रसाद हमें दिया है। अपनी तपश्चर्या और आध्यात्मिक पूँजी का भी एक बड़ा अंश हमें सौंपा है। अब समय आ गया जब कि हमें भी अपनी आध्यात्मिक कमाई का वितरण अपने पीछे वालों को वितरित करना होगा। पर यह क्रिया अधिकारी पात्रों में ही की जायगी, यह पात्रता हमें भी परखनी है और वह इसी कसौटी पर परख रहे हैं कि किस के मन में लोक सेवा करने की उदारता विद्यमान है। इसी गुण का परिचय देकर किसी समय हमने अपनी पात्रता सिद्ध की थी अब यही कसौटी उन लोगों के लिए काम आयेगी जो हमारी आध्यात्मिक पूँजी के लिए अपनी दावेदारी प्रस्तुत करना चाहेंगे।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति दिसम्बर 1964 पृष्ठ 50-51


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गुरुवार, 21 मई 2020

👉 कलंक और आक्रमण से निष्कलंक की सुरक्षा (अंतिम भाग)

प्रज्ञावतार ही निष्कलंक अवतार हैं। उसके प्रतिपादनों और समर्थकों को लोक श्रद्धा कैसे मिले? इसके रचनात्मक आधार तो कितने ही हैं, पर एक विरोधात्मक आधार भी हैं .. आसुरी आक्रमण। इसके पश्चात् ही किसी महान् व्यक्ति या आन्दोलन को प्रौढ़ता का पता चलता हैं। कलंक कालिका का दौर और अवरोध आक्रमणों का क्रम ही वह स्थिति उत्पन्न करेगा। जिससे निष्कलंक भगवान का सर्वत्र जय-जयकार होने लगे।

यह क्रम अपने अभियान में भी निश्चित रूप से चलेगा। चलता भी रहा है। प्रतिगामी निहित स्वार्थ द्वारा तरह-तरह के आक्षेप लगाये जाते रहे हैं। बदनाम करने का कोई अवसर उन्होंने नहीं छोड़ा। अश्रद्धा उत्पन्न करने के लिए जो कुछ कहा जा सकता था - जो कुछ किया या कराया जा सकता था, उसमें की कुछ कमी नहीं रहने दी गई हैं। यह सारा उत्पात उन आसुरी तत्वों हैं जो अवांछनियताओं की सड़ी कीचड़ में ही डाँस, मच्छरों की तरह अपनी जिन्दगी देखते हैं। कुछ ईर्ष्यालु हैं, जिन्हें अपने अतिरिक्त किसी अन्य का यश वर्चस्व सहन ही नहीं होता। इसके अतिरिक्त सड़े टिमाटरों का भी एक वर्ग हैं जो पेट में रहने वाले कीड़ों की-चारपाई पर साथ सोने वाले खटमलों की-आस्तीन में पलने वाले साँपों की तरह आश्रय पाते हैं वहीं खोखला भी करते हैं। बिच्छू अपनी माँ के पेट का माँस खाकर ही बढ़ते और पलते हैं, माता का प्राण हरण करने के उपरान्त ही जन्म धारण करते हैं। कृतघ्नों और विश्वासघातियों का वर्ग इस युग में जिस तेजी से पनपा हैं उतना संभवतः इतिहास भी इससे पहले कभी भी नहीं देखा गया।

अवाँछनीयता हर क्षेत्र में अड्डा डाले और जड़ जमाये बैठी हैं। युग परिवर्तन की प्रक्रिया भी उसे उखाड़ने की उसी क्रम अनुपात से चलेगी जिससे कि सृजनात्मक सत्प्रवृत्तियों का संवर्धन। ऐसी दिशा में दुष्प्रवृत्तियों के सामने जीवन-मरण का प्रश्न उपस्थित होगा। अभियान को जब तक दुर्बल समझा जायगा तब तक उसे उपहास उपेक्षा का पात्र बने रहने दिया जायगा। व्यंग तिरस्कार बरसते रहेंगे। किन्तु जब उसकी समर्थता और सफलता का आभास होने लगेगा तो विरोध एवं आक्रमण का सिलसिला चल पड़ेगा। अन्ततः वह देवासुर संग्राम उतना ही प्रचण्ड हो जायगा जितना कि सृजन प्रत्यावर्तन। इसके लिए प्रत्येक सृजन शिल्पी को पहले से ही तैयार रहना होगा। किसान का मुख्य काम अन्न उपजाना है, विभुक्षा का समाधान करना हैं। तो भी उसे इस कार्य क्षेत्र में आये दिन सर्प, बिच्छुओं, दीमकों, सुअर, भेड़ियों से मुठभेड़ के साधन सँजोकर रखने होते हैं। स्वयं श्रेष्ठ कर्म से निरत हैं। यह इस बात की गारंटी नहीं कि दुष्ट दुरात्माओं के आक्रमण होंगे ही नहीं। सज्जनता सामने से ही अनाक्रम दीखती है, पर परोक्ष रूप से उसमें भी दुष्टता की विघातक सामर्थ्य परिणाम में भरी पड़ी है। असुर वस्तुस्थिति को समझता हैं इसलिए देव पर कुछ प्रत्यक्ष कारण न रहने पर भी आक्रमण करने से चूकता नहीं। प्रकाश के उदय में अन्धकार की मृत्यु है। इसलिए सूर्योदय से पूर्व एक बार सघन तमिस्रा जमा होती है और प्रकाश से जूझने का उपक्रम करती हैं, भले ही उसे अन्ततः मुँह की ही क्यों न खानी पड़े।

युग निर्माण अभियान की प्रज्ञावतार प्रक्रिया उन समस्त सम्भावनाओं से भरी हुई है। सहयोग उसे प्रचुर परिणाम में मिलना हैं किन्तु ऐसी घटनाएँ भी कम नहीं होंगी जा प्रत्यक्ष आक्रमण में कठिनाई और परोक्ष दुरभिसन्धि रचने में सरलता देखकर उसी मार्ग को अपनाये। अन्तः क्षेत्र से उभरने वाले और बाहरी क्षेत्र से आक्रमण करने वाली दोनों ही स्तर की दुरभिसन्धियों से अभियान की सुरक्षा का प्रबन्ध करना चाहिए। इस संदर्भ में बरती जाने वाली जागरूकता, साहसिकता एवं शूर-वीरता उतनी ही आवश्यक हैं जितनी कि सृजन प्रयोजनों के लिए बरती जाने वाली उदार सेवा-साधना एवं भाव भरी परमार्थ परायणता।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति अगस्त 1979 पृष्ठ 55

👉 Learn to Share

You are really fortunate if God has endowed you with vigor, brilliance, knowledge, power, prosperity and glory. Then your life must be progressive and joyful in the worldly sense. But this success or joy would be momentary and won’t be fulfilling, if you keep your resources and belongings closed to your chest and use them only for your selfish interests. Your joy, your satisfaction would expand exponentially if you learn to distribute them and share whatever you have with many others.

Try to spend at least a fraction of your wealth, your resources for the needy. Your help will not only give them support to rise and progress, more importantly, it will bestow the spiritual benefits of being kind and altruistic. This will augment your happiness manifold. Those being helped by you will also be happy and thus the stock of joy in the world will also expand.

Distributing and sharing with a sight of altruistic wisdom and a feel of compassion provide the golden key to unalloyed joy. God has been so kind to you; you should also be kind to others. God is defined as the eternal source of infinite bliss because HIS mercy pervades everywhere for all creatures, for everything; HIS divine powers are omnipresent; every impulse of joy is an expression of HIS beatitude.

You should see the dignity of HIS divine creation in this world. God has also given you an opportunity to glorify your life by selflessly spreading HIS auspicious grace…

📖 Akhand Jyoti, April 1943

👉 अपेक्षा ही दुःख का कारण

किसी दिन एक मटका और गुलदस्ता साथ में खरीदा हों और घर में लाते ही ५० रूपये का मटका अगर फूट जाएं तो हमें इस बात का दुःख होता हैं। क्योंकि मटका इतनी जल्दी फूट जायेगा ऐसी हमें कल्पना भी नहीं थीं। परंतु गुलदस्ते के फूल जो २०० रूपये के हैं, वो शाम तक मुर्झा जाएं, तो भी हम दुःखी नहीं होते। क्योंकि ऐसा होने वाला ही हैं, यह हमें पता ही था।
 
मटके की इतनी जल्दी फूटने की हमें अपेक्षा ही नहीं थीं, तो फूटने पर दुःख का कारण बना। परंतु​ फूलों से अपेक्षा नहीं थीं, इसलिए​ वे दुःख का कारण नहीं बनें। इसका मतलब साफ़ हैं कि जिसके लिए जितनी अपेक्षा ज़्यादा, उसकी तरफ़ से उतना दुःख ज़्यादा और जिसके लिए जितनी अपेक्षा कम, उसके लिए उतना ही दुःख भी कम।

👉 विचार करें........

माँ एक-एक भिंडी को प्यार से धोते पोंछते हुये वह काट रही थी छोटे-छोटे टुकड़ों में, फिर अचानक एक भिंडी के ऊपरी हिस्से में छेद दिख गया, शायद सोचा,  भिंडी खराब हो गई, वह फेंक देगी लेकिन नहीं, उसने ऊपर से थोड़ा काटा, कटे हुये हिस्से को फेंक दिया। फिर ध्यान से बची भिंडी को देखा, शायद कुछ और हिस्सा खराब था, उसने थोड़ा और काटा और फेंक दिया फिर तसल्ली की, बाक़ी भिंडी ठीक है कि नहीं। तसल्ली होने पर काट के सब्ज़ी बनाने के लिये रखी भिंडी में मिला दिया।

मैं मन ही मन बोला, वाह क्या बात है, पच्चीस पैसे की भिंडी को भी हम कितने ख्याल से, ध्यान से सुधारते हैं, प्यार से काटते हैं. जितना हिस्सा सड़ा है उतना ही काट के अलग करते हैं, बाक़ी अच्छे हिस्से को स्वीकार कर लेते हैं, ये तो क़ाबिले तारीफ है ।

लेकिन अफसोस!

इंसानों के लिये कठोर हो जाते हैं एक ग़लती दिखी नहीं कि उसके पूरे व्यक्तित्व को काट के फेंक देते हैं, उसके सालों के अच्छे कार्यों को दरकिनार कर देते हैं,महज अपने अहम को संतुष्ट करने के लिए उससे हर नाता तोड़ देते हैं ।

क्या पच्चीस पैसे की एक भिंडी से भी कमतर हो गया है आदमी❓ विचार करें........

बुधवार, 20 मई 2020

👉 कलंक और आक्रमण से निष्कलंक की सुरक्षा (भाग ३)

दुरभिसंधियों के रचने वाले हर सफलता के बाद साहस के साथ अपने दुष्कर्मों को निर्द्वंद्व होकर बढ़ाते है। निष्ठावानों से टकराने पर उनके दाँत खट्टे होते है। आक्रमण महंगा पड़ता है और भविष्य के लिए उनकी हिम्मत टूट जाती हैं। लोक तिरस्कार के कारण वे मुँह दिखाने लायक नहीं रहते। यह उदाहरण दूसरों के सामने भी प्रस्तुत होता हैं और श्रेष्ठता से अकारण टकराने का प्रतिफल क्या होता हैं इसका पता न केवल आततायियों को वरन् उस वर्ग के अन्य लोगों का साहस तोड़ने के लिए भी पर्याप्त होता हैं। अपयश और तिरस्कार का दण्ड जेल फाँसी से भी महंगा पड़ता है। ऐसी स्थिति श्रेष्ठ व्यक्तियों या आन्दोलनों से ही टकराने पर बनती हैं। सामान्य लोगों के बीच तो आक्रमण प्रत्याक्रमण के क्रम आये दिन चलते ही रहते हैं।

अन्ध श्रद्धाओं का समर्थन भी जोखिम भरा हैं। किसी के साथ अनगढ़ अधकचरे, अपरिपक्वों की मण्डली हो तो वह उसे जन-शक्ति समझने की भूल करता रहता है। किसकी श्रद्धा एवं आत्मीयता कितनी गहरी है, इसका पता चलाने का एक मापदण्ड यह भी हैं कि अफवाहों या आरोपों पर तो विश्वास कर लिया जाय, किन्तु सदाशयता पक्षधर अनेकानेक घटनाओं का क्षण भर में भुला दिया जाय। जो अफवाहों की फूँक से उड़ सकते हैं वे वस्तुतः बहुत ही हलके और उथले होते है। ऐसे लोगों का साथ किसी बड़े ही प्रयोजन के लिए कभी कारगर सिद्ध नहीं हो सकता। उन्हें कभी भी, कोई भी, कुछ भी कहकर विचलित कर सकता है। ऐसे विवेकहीन लोगों की छँटनी कर देने के लिए कुचक्रियों द्वारा लगाये गये आरोप या आक्रमण बहुत ही उपयोगी सिद्ध होते है।

योद्धाओं की मण्डली में शूरवीरों का स्तर ही काम आता है, शंकालु, अविश्वास, कायर प्रकृति के सैनिकों की संख्या भी पराजय का एक बड़ा कारण होती हैं। ऐसे मूढ़मतियों को अनाज में से भूसा अलगकर देने की तरह यह आक्रमणकारिता बहुत ही सहायक सिद्धा होती हैं। दूरभिसंधियां के प्रति जन-आक्रोश उभरने से सहयोगियों का समर्थन और भी अधिक बढ़ जाता हैं उस उभार से सुधारात्मक आन्दोलनों का पक्ष सबल ही होता है। कुसमय पर ही अपने पराये की परीक्षा होती हैं। इस कार्य को आततायी जितनी अच्छी तरह सम्पन्न करते हैं उतना कोई और नहीं। अस्थिर मति और प्रकृति के साथियों से पीछा छूट जाना और विवेकवानों का समर्थन सहयोग बढ़ना जिन प्रतिरोधों के कारण सम्भव होता हैं वह आक्रमणों को उत्तेजना उत्पन्न हुए सम्भव ही नहीं होता।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति अगस्त 1979 पृष्ठ 54

सोमवार, 18 मई 2020

👉 कलंक और आक्रमण से निष्कलंक की सुरक्षा (भाग २)

ईसा को अपराधी ठहराया और शूली पर लटकाया गया। सुकरात को जहर का प्याला पीना पड़ा। दयानन्द को विष दिया गया। गाँधी को गोली से उड़ाया गया। व्याध ने कृष्ण के प्राण हरण किये। गुरु गोविंद सिंह के अबोध बालकों को जल्लादों के सुपुर्द किया गया। मीरा निर्दोष होते हुए भी उत्पीड़न सहती रहीं। जहाँ तक अपराधों, आक्रमणों और प्रताड़नाओं का सम्बन्ध हैं वहाँ तक जो जितना उच्चस्तरीय आत्मवेत्ता हुआ है उसे उतना ही अधिक भार सहन करना पड़ा है। भगवान बुद्ध की जीवन गाथा पढ़ने से पता चलता है कि पुरातन पंथी और ईर्ष्यालु उनके प्राणघाती शत्रु बने हुए थे। उन्होंने अंगुलिमाल को आक्रमण के लिए उकसाया था। चरित्र हनन के लिए ढेरों दुरभिसंधियाँ रची थी। समर्थकों में अश्रद्धा उत्पन्न करने के लिए जो षड़यन्त्र रचे जा सकते थे उसमें कुछ कसर नहीं छोड़ी गई थी। गाँधी को विरोध होता रहा। उन पर पैसा बटोरने और हड़पने का लांछन लगाने वालों की संख्या आरम्भ में तो अत्यधिक थी, प्रताप बढ़ने के बाद ही वह घटने लगी थी। अन्ततः उन्हें गोली से ही उड़ा दिया गया। मध्यकाल में सन्तों में से प्रायः प्रत्येक को शत्रुओं की प्रताड़नाएं सहनी पड़ी हैं। आद्य शंकराचार्य, चैतन्य महाप्रभु, नामदेव, एकनाथ, तुकाराम, ज्ञानेश्वर, रामदास, गुरु गोविंदसिंह, बन्दा वैरागी आदि इसके जी-जागते प्रमाण हैं।

संसार के सुधारकों में प्रत्येक को प्रायः ऐसे ही आक्रमण न्यूनाधिक मात्रा में सहने पड़े है। संगठित अभियानों को नष्ट करने के लिए कार्यकर्त्ताओं में फूट डालने, बदनाम करने, बल प्रयोग से आतंकित करने, जैसे प्रयत्न सर्वत्र हुए है। ऐसा क्यों होता है यह विचारणीय हैं। सुधारक पक्ष को अवरोधों का सामना करने पर उनकी हिम्मत टूट जाने, साधनों के अभाव से प्रगति क्रम शिथिल या समाप्त हो जाने जैसे प्रत्यक्ष खतरे तो हैं, किन्तु परोक्ष रूप से इसके लाभ भी बहुत हैं। व्यक्ति की श्रद्धा एवं निष्ठा कितनी सच्ची और कितनी ऊँची हैं इसका पता इसी कसौटी पर कसने से लगता हैं कि आदर्शों का निर्वाह कितनी कठिनाई सहन करने तक किया जाता रहा। अग्नि तपाये जाने और कसौटी पर कसे जाने से कम में, सोने के खरे-खोटे होने का पता चलता ही नहीं। आदर्शों के लिए बलिदान से ही महा-मानवों की अन्तःश्रद्धा परखी जाती है और उसी अनुपात से उनकी प्रामाणिकता को लोक-मान्यता मिलती हैं। जिसे कोई कठिनाई नहीं सहनी पड़ी ऐसे सस्ते नेता सादा सन्देह और आशंका का विषय बने रहते हैं। श्रद्धा और सहायता किसी पर कभी पर तभी बरसती हैं जब वह अपनी निष्ठा का प्रभाव प्रतिकूलताओं से टकरा कर प्रस्तुत करता हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति अगस्त 1979 पृष्ठ 53

👉 यदि कोई आप को महत्त्व न दे, तो भी आप दुखी न हों

इस संसार में व्यक्ति अकेला नहीं जी  सकता, क्योंकि उसमें इतना शक्ति सामर्थ्य नहीं है, कि वह अपने सारे काम स्वयं सुख पूर्वक कर लेवे। उसे समाज का सहयोग तो लेना ही पड़ता है। इसीलिए मनुष्य सामाजिक प्राणी कहलाता है। आपके परिवार के लोग, आपके संबंधी रिश्तेदार, आपके मित्र, और देश विदेश के लोग भी आपको अनेक क्षेत्रों में सहयोग देते हैं।
     
जब आप समाज में एक दूसरे के साथ व्यवहार करते हैं, तो आपको एक दूसरे को सम्मान या महत्त्व भी देना होता है।
     
इस सम्मान या महत्त्व देने के व्यवहार से परस्पर प्रेम संगठन विश्वास आनंद उत्साह आदि गुणों की वृद्धि होती है। जब आप किसी दूसरे व्यक्ति को उसके गुणों और योग्यता के आधार पर कुछ महत्त्व देते हैं, तो आप उससे भी वैसी ही आशा रखते हैं, कि वह भी आपके गुणों और योग्यता के आधार पर आपको सम्मान देगा, महत्त्व देगा। ऐसी आशा रखना, स्वाभाविक ही है।
       
परंतु कभी कभी, कोई व्यक्ति, जो कुछ अधिक ही अभिमानी होता है, वह आपकी योग्यता को या तो समझता नहीं अथवा  समझते हुए भी जानबूझकर आपको उचित सम्मान या महत्त्व नहीं देता। ऐसी स्थिति में आपको कष्ट होता है। उस स्थिति में भी आप दुखी न हों। इसका उपाय यह है कि मान लिया, 10 में से 1 व्यक्ति ने आपके साथ कुछ ठीक व्यवहार नहीं किया। आपको उचित महत्त्व नहीं दिया, तो उस एक व्यक्ति की आप भी उपेक्षा करें। आप भी उस पर ध्यान न दें। (उससे द्वेष नहीं करना है। उपेक्षा करनी है।) शेष 9 व्यक्ति जो आपको सम्मान और महत्त्व देते हैं, उनके साथ अपना व्यवहार रखें, और आनंद से जिएं।

याद रहे, आप का रिमोट कंट्रोल आपके हाथ में ही रखें, दूसरे के हाथ में न दें। अर्थात् ऐसा न हो, कि सामने वाला व्यक्ति एक बटन दबाए, और आपको क्रोध आ जाए; आपका जीवन अस्त-व्यस्त हो जाए। बल्कि ऐसे अनुचित व्यवहारों का समाधान (उपेक्षा करना) अपने पास तैयार रखें। ऐसा अवसर आते ही उस समाधान का प्रयोग करें। क्रोध, लोभ, अभिमान और तनाव मुक्त होकर आनंदित जीवन जिएं।

👉 When is a Prayer Granted?

Our prayers deserve to be heard by the Almighty only when we take care of making use of the potentials he has already bestowed upon us. Accumulation of negative tendencies of lethargy, dullness, escapism from duties, ignorance, etc makes one hazardous – for his own life – like a balloon full of concentrated acid, which is most likely to explode anytime or ruin due to the acidic burning.

The rules in the system of God work like a vigilant gardener who uproots the useless and harmful wild growth and carefully nurses the saplings of the useful vegetation. If a field is not ploughed and is full of useless grass or shrubs etc, how can it yield a crop (even if the soil is fertile)? Who will praise a farmer, who lets his field be destroyed without bothering to clean it? The system of God certainly can’t allow its field of Nature to be left unguarded. The rules of the Omnipresent are such that the vices, the evils, the futile, get eliminated continuously so that the perfection and eternal beauty of HIS creation remains unperturbed. If you expect your calls to be heard, you will also have to constantly strive for self-refinement.

The best way to get the response to your prayers is to awaken your self confidence and follow the path of duties. Then alone your inner self will awake. The opening to the path to the Light Divine lies deep within the realm of soul and enlightened inner self provides the only bridge to reach this sublime source.

Those who don’t have faith in the dignity of their own souls, who keep ignoring the inner voice and hunt in the external world to quench their wishes are lost in the smog of passions and confusions and invite adversities for themselves. Those who scorn their own (inner) selves are also rebuked at God’s end and their prayers evaporate in the void…

📖 Akhand Jyoti, March 1943

रविवार, 17 मई 2020

👉 कलंक और आक्रमण से निष्कलंक की सुरक्षा (भाग १)

प्रगति के मार्ग में अवरोध का- विशेषतया श्रेष्ठ सम्भावनाओं में अड़चने आने का अपना इतिहास है, जिसकी पुनरावृत्ति अनादिकाल से होती रहीं हैं। जिस प्रकार आसुरी सक्रमणों को निरस्त करने के लिए दैवी सन्तुलन की सृजन शक्तियों का अवतरण होता हैं उसी प्रकार श्रेष्ठता की अभिवृद्धि को आसुरी तत्व सहन नहीं कर पाते। उसमें अपना पराभव देखते हैं और बुझते समय दीपक के अधिक तेजी के साथ जलने की तरह अपनी दुष्टता का परिचय देते हैं। मरते समय चींटी के पंख उगते हैं। पागल कुत्ता जब मरने को होता हैं तो तालाब में डूबने को दौड़ता हैं। पागल हाथी पर्वत पर आक्रमण करता हैं और उससे टकरा-टकराकर अपना सिर फोड़ लेता हैं। आसुरी तत्व भी जब अन्तिम साँस लेते हैं और एक वारगी मरणासन्न की तरह उच्छास खींचकर अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते है। अवतारों में पुष्प-प्रक्रियाओं भी निर्बाध रीति से बिना किसी अड़चन के सम्पन्न नहीं हो तो जाती, उसमें पग-पग पर अवरोध और आक्रमण आड़े आते है।

भगवान कृष्ण पर जन्म काल से ही एक के बाद एक आक्रमण हुए। वसुदेव जब उन्हें टोकरी में रखकर गोकुल ले जा रहें थे तो सिंह गर्जन, घटाओं का वर्षण, सर्पों का आक्रमण जैसे व्यवधान उत्पन्न हुए। इसके बाद पूतना, वृत्तासुर, तृणावत, कालिया, सर्प आदि द्वारा उनके प्राण हरण की दुरभिसन्धियाँ रची जाती रही। कस, जरासंध, शिशुपाल जैसे अनेकों शत्रु बन गये। चारुढ़, मुष्टिकासुर आदि ने उन पर अकारण आक्रमण बोले। अन्ततः भीलों ने गोपियों का हरण-व्याध द्वारा प्रहार करने जैसी घटनाएं घटित हुई।

कृष्ण की चरित्र-निष्ठा और न्याय-निष्ठा उच्च स्तरीय थी तो भी उन्हें रुक्मिणी चुराने का दोष लगाया गया। चरित्र हनन की चोट भगवान राम को भी सहनी पड़ी। सीता जैसी सती को लोगों ने दुराचारिणी कहा और अग्नि परीक्षा देने के लिए विवश किया। अपवादियों के दोषारोपण फिर भी समाप्त नहीं हुए और स्थिति यहाँ तक आ पहुंची कि सीता परित्याग जैसी दुःखदायी दुर्घटना सामने आई। जयंती ने सीताजी पर अश्लील आक्रमण किया। सूर्पणखा राम के स्तर को गिरा कर असुरों के समतुल्य ही बनाना चाहती है। चाहना अस्वीकार करने पर उसने जो विपत्ति ढाई वह सर्वविदित है। सत्यता और कर्त्तव्यों के प्रति राम के व्यवहार में कहीं अनौचित्य नहीं था। फिर भी उसने वह षड़यंत्र रचा जिससे उन्हें चौदह वर्ष के एकाकी वनवास में प्राण खो बैठने जैसा ही त्रास सहना पड़ा। खरदूषण, मारीच, अहिरावण, रावण, कुम्भकरण ने आक्रमण पर आक्रमण किये इनमें से किसी से भी राम की ओर से पहल नहीं हुई थी। वे तो मात्र आत्म-रक्षा की ही लड़ाई लड़ते रहे।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति अगस्त 1979 पृष्ठ 53

👉 Chintan Ke Kshan चिंतन के क्षण 17 May 2020

■ जीवन के आधार स्तम्भ सद्गुण है। अपने गुण, कर्म, स्वभाव को श्रेष्ठ बना लेना, अपनी आदतों को श्रेष्ठ सज्जनों की तरह ढाल लेना वस्तुतः ऐसी बड़ी सफलता है, जिसकी तुलना किसी भी अन्य सांसारिक लाभ से नहीं की जा सकती। इसलिए सबसे अधिक ध्यान हमें इस बात पर देना चाहिए कि हम गुणहीन ही न बने रहें। सद्गुणों की शक्ति और विशेषताओं से अपने को सुसज्जित करने का प्रयत्न करें।

□ इस संसार की रचना कल्पवृक्ष के समान नहीं है कि जो कुछ हम चाहें वह तुरन्त ही मिल जाया करे। यह कर्मभूमि है, जहाँ हर किसी को अपना रास्ता आप बनाना पड़ता है। अपनी योग्यता और विशेषता का प्रमाण प्रस्तुत किये बिना कोई किसी महत्त्वपूर्ण स्थान पर नहीं पहुँच सकता । यहाँ हर किसी को परीक्षा की अग्नि में तपाया जाता है और जो इस कसौटी पर खरा उतरता है, उसी को प्रामाणिक एवं विश्वस्त माना जाता है।

◆ बुराइयों का दोष मन के मत्थे मढ़ना ठीक नहीं। मनुष्य स्वयं इसका अपराधी होता है और इसी में उसका कल्याण है कि वह अपना दोष स्वीकार कर ले और उसका परिमार्जन करने का प्रयत्न करे। जिस प्रकार मन को उसने बलात् पूर्वक अधोगामी बनाया है, उसी प्रकार उसे सन्मार्गगामी बनाने का भी प्रयत्न करें।

◇ उन्नति कोई उपहार नहीं है, जो छत फाड़कर अनायास ही हमारे घर में बरस पड़े। उसके लिए मनुष्य को कठोर प्रयत्न करने पड़ते हैं और एक मार्ग अवरुद्ध हो जाय तो दूसरा सोचना पड़ता है। गुण, योग्यता और क्षमता ही सफलता का मूल्य है। जिसमें जितनी क्षमता होगी उसे उतना ही लाभ मिलेगा।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 पात्रता एक चमत्कारी शक्ति

पात्रता के अभाव में सांसारिक जीवन में किसी को शायद ही कुछ विशेष उपलब्ध हो पाता है। अपना सगा होते हुए भी एक पिता मूर्ख गैर जिम्मेदार पुत्र को अपनी विपुल सम्पत्ति नहीं सौंपता। कोई भी व्यक्ति निर्धारित कसौटियों पर खरा उतरकर ही विशिष्ट स्तर की सफलता अर्जित कर सकता है। मात्र माँगते रहने से कुछ नहीं मिलता, हर उपलब्धि के लिए उसका मूल्य चुकाना पड़ता है। बाजार में विभिन्न तरह की वस्तुएँ दुकानों में सजी होती हैं, पर उन्हें कोई मुफ्त में कहाँ प्राप्त कर पाता है? अनुनय विनय करने वाले तो भीख जैसी नगण्य उपलब्धि ही करतलगत कर पाते हैं। पात्रता के आधार पर ही शिक्षा, नौकरी, व्यवसाय आदि क्षेत्रों में भी विभिन्न स्तर की भौतिक उपलब्धियाँ हस्तगत करते सर्वत्र देखा जा सकता है।
  
अध्यात्म क्षेत्र में भी यही सिद्धान्त लागू होता है। भौतिक क्षेत्र की तुलना में अध्यात्म के प्रतिफल कई गुना अधिक महत्त्वपूर्ण, सामर्थ्यवान् और चमत्कारी हैं। किन्हीं-किन्हीं महापुरुषों को देख एवं सुनकर हर व्यक्ति के मुँह में पानी भर आता है तथा उन्हें प्राप्त करने के लिए मन ललचाता है, पर अभीष्ट स्तर का आध्यात्मिक पुरुषार्थ न कर पाने के कारण उस ललक की आपूर्ति नहीं हो पाती। पात्रता के अभाव में अधिकांश को दिव्य आध्यात्मिक विभूतियों से वंचित रह जाना पड़ता है जबकि पात्रता विकसित हो जाने पर बिना माँगें ही वे साधक पर बरसती हैं। उन्हें किसी प्रकार का अनुनय विनय नहीं करना पड़ता है। दैवी शक्तियाँ परीक्षा तो लेती हैं, पर पात्रता की कसौटी पर खरा सिद्ध होने वालों को मुक्तहस्त से अनुदान भी देती हैं।
  
यह सच है कि अध्यात्म का, साधना का चरम लक्ष्य सिद्धियाँ-चमत्कारों की प्राप्ति नहीं है, पर जिस प्रकार अध्यवसाय में लगे छात्र को डिग्री की उपलब्धि के साथ-साथ  बुद्धि की प्रखरता का अतिरिक्त अनुदान सहज ही मिलता रहता है, उसी तरह आत्मोत्कर्ष की प्रचण्ड साधना में लगे साधकों को उन विभूतियों का भी अतिरिक्त अनुदान मिलता रहता है, जिसे लोक-व्यवहार की भाषा में सिद्धि एवं चमत्कार के रूप में जाना जाता है। पर चमत्कारी होते हुए भी ये प्रकाश की छाया जैसी ही हैं। प्रकाश की ओर चलने पर छाया पीछे-पीछे अनुगमन करती है। अन्धकार की दिशा में बढ़ने पर छाया आगे आ जाती है, उसे पकड़ने का प्रयत्न करने पर भी वे पकड़ में नहीं आतीं। इसी प्रकार अर्थात् दिव्यता की ओर-श्रेष्ठता की ओर परमात्म पथ की ओर बढ़ने पर छाया अर्थात् ऋद्धि-सिद्धियाँ साधक के पीछे-पीछे चलने लगती हैं। इसके विपरीत उन्हीं की प्राप्ति को लक्ष्य बनाकर चलने पर तो आत्म-विकास की साधना से वंचित बने रहने से वे पकड़ में नहीं आतीं।
  
दिव्यता की ओर बढ़ने का अर्थ है- अपने गुण, कर्म, स्वभाव को इतना परिष्कृत, परिमार्जित कर लेना कि आचरण में देवत्व प्रकट होने लगे। इच्छाएँ, आकांक्षाएँ देवस्तर की बन जाएँ। संकीर्णता, स्वार्थपरता हेय और तुच्छ लगने लगे। समष्टि के कल्याण की इच्छा एवं उमंग उठे और उसी में अपना भी हित दिखाई दे। दूसरों का कष्ट, दुःख अपना ही जान पड़े और उनके निवारण के लिए मन मचलने लगे। सभी मनुष्य समस्त प्राणी अपनी ही सत्ता के अभिन्न अंग लगने लगें। आत्म विकास की इस स्थिति पर पहुँचे हुए साधक की, ऋद्धियाँ-सिद्धियाँ सहचरी बन जाती हैं। पर इन अलौकिक विभूतियों को प्राप्त करने के बाद वे उनका प्रयोग कभी भी अपने लिए अथवा संकीर्ण स्वार्थों के लिए नहीं करते। संसार के कल्याण के लिए ही वे उन शक्तियों का सदुपयोग करते हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

शुक्रवार, 15 मई 2020

👉 Hriday Parivartan हृदय परिवर्तन

एक राजा को राज भोगते काफी समय हो गया था। बाल भी सफ़ेद होने लगे थे। एक दिन उसने अपने दरबार में उत्सव रखा और अपने गुरुदेव एवं मित्र देश के राजाओं को भी सादर आमन्त्रित किया। उत्सव को रोचक बनाने के लिए राज्य की सुप्रसिद्ध नर्तकी को भी बुलाया गया।

राजा ने कुछ स्वर्ण मुद्रायें अपने गुरु जी को भी दीं, ताकि नर्तकी के अच्छे गीत व नृत्य पर वे उसे पुरस्कृत कर सकें। सारी रात नृत्य चलता रहा। ब्रह्म मुहूर्त की बेला आयी। नर्तकी ने देखा कि मेरा तबले वाला ऊँघ रहा है, उसको जगाने के लिए नर्तकी ने एक दोहा पढ़ा - "बहु बीती, थोड़ी रही, पल पल गयी बिताई। एक पलक के कारने, ना कलंक लग जाए।"

अब इस दोहे का अलग-अलग व्यक्तियों ने अपने अनुरुप अर्थ निकाला। तबले वाला सतर्क होकर बजाने लगा।

जब यह बात गुरु जी ने सुनी। गुरु जी ने सारी मोहरें उस नर्तकी के सामने फैंक दीं।

वही दोहा नर्तकी ने फिर पढ़ा तो राजा की लड़की ने अपना नवलखा हार नर्तकी को भेंट कर दिया।

उसने फिर वही दोहा दोहराया तो राजा के पुत्र युवराज ने अपना मुकट उतारकर नर्तकी को समर्पित कर दिया।

नर्तकी फिर वही दोहा दोहराने लगी तो राजा ने कहा - "बस कर, एक दोहे से तुमने वेश्या होकर सबको लूट लिया है।"

जब यह बात राजा के गुरु ने सुनी तो गुरु के नेत्रों में आँसू आ गए और गुरु जी कहने लगे - "राजा! इसको तू वेश्या मत कह, ये अब मेरी गुरु बन गयी है। इसने मेरी आँखें खोल दी हैं। यह कह रही है कि मैं सारी उम्र जंगलों में भक्ति करता रहा और आखिरी समय में नर्तकी का मुज़रा देखकर अपनी साधना नष्ट करने यहाँ चला आया हूँ, भाई! मैं तो चला।" यह कहकर गुरु जी तो अपना कमण्डल उठाकर जंगल की ओर चल पड़े।

राजा की लड़की ने कहा - "पिता जी! मैं जवान हो गयी हूँ। आप आँखें बन्द किए बैठे हैं, मेरी शादी नहीं कर रहे थे और आज रात मैंने आपके महावत के साथ भागकर अपना जीवन बर्बाद कर लेना था। लेकिन इस नर्तकी ने मुझे सुमति दी है कि जल्दबाजी मत कर कभी तो तेरी शादी होगी ही। क्यों अपने पिता को कलंकित करने पर तुली है?"

युवराज ने कहा - "पिता जी! आप वृद्ध हो चले हैं, फिर भी मुझे राज नहीं दे रहे थे। मैंने आज रात ही आपके सिपाहियों से मिलकर आपका कत्ल करवा देना था। लेकिन इस नर्तकी ने समझाया कि पगले! आज नहीं तो कल आखिर राज तो तुम्हें ही मिलना है, क्यों अपने पिता के खून का कलंक अपने सिर पर लेता है। धैर्य रख ।"

जब ये सब बातें राजा ने सुनी तो राजा को भी आत्म ज्ञान हो गया। राजा के मन में वैराग्य आ गया। राजा ने तुरन्त फैंसला लिया - "क्यों न मैं अभी युवराज का राजतिलक कर दूँ।" फिर क्या था, उसी समय राजा ने युवराज का राजतिलक किया और अपनी पुत्री को कहा - "पुत्री ! दरबार में एक से एक राजकुमार आये हुए हैं। तुम अपनी इच्छा से किसी भी राजकुमार के गले में वरमाला डालकर पति रुप में चुन सकती हो।" राजकुमारी ने ऐसा ही किया और राजा सब त्याग कर जंगल में गुरु की शरण में चला गया।

यह सब देखकर नर्तकी ने सोचा - "मेरे एक दोहे से इतने लोग सुधर गए, लेकिन मैं क्यूँ नहीं सुधर पायी?" उसी समय नर्तकी में भी वैराग्य आ गया। उसने उसी समय निर्णय लिया कि आज से मैं अपना बुरा धंधा बन्द करती हूँ और कहा कि "हे प्रभु! मेरे पापों से मुझे क्षमा करना। बस, आज से मैं सिर्फ तेरा नाम सुमिरन करुँगी।"

समझ आने की बात है, दुनिया बदलते देर नहीं लगती। एक दोहे की दो लाईनों से भी हृदय परिवर्तन हो सकता है। बस, केवल थोड़ा धैर्य रखकर चिन्तन करने की आवश्यकता है।

प्रशंसा से पिंघलना मत, आलोचना से उबलना मत, नि:स्वार्थ भाव से कर्म करते रहो, क्योंकि इस धरा का, इस धरा पर, सब धरा रह जायेगा।

👉 Kuritiyon Ke Viruddh कुरीतियों के विरूद्ध पुरुषार्थ की आवश्कता

बुराइयों में कितनी ही ऐसी हैं जिन्हें एक दिन भी सहन नहीं किया जाना चाहिए। नशेबाजी इनमें प्रमुख है। स्वास्थ्य, पैसा, इज्जत और अक्ल यह चारों ही वस्तुएँ इस कारण बर्बाद होती हैं। पीढ़ियाँ खराब होती हैं और रुग्णता बढ़ती है। नशा न कोई उगाए न कोई पिए इसके लिए प्रायः गाँधीजी के सत्याग्रह आन्दोलन जैसा ही रोकथाम कर सकने वाला मोर्चा खड़ा करना होगा।

विवाह-शादियों में होने वाला अपव्यय-दहेज अपने देश में एक बुरी किस्म का अभिशाप है। उसी से मिलती-जुलती मृतक-भोज जैसी अन्य कुरीतियाँ प्रचलित हैं। इन सबको एक बार में ही एक साथ उखाड़ फेंकने की आवश्यकता है। भिक्षा-व्यवसाय भी एक ऐसी ही लानत है जिसके कारण समर्थ व्यक्ति भी स्वाभिमान खोकर वेश्या वेष की आड़ में भिखारियों की पंक्ति में जा बैठता है। तलाश करने पर हर क्षेत्र में अपने अपने ढंग की चित्र-विचित्र कुरीतियों का प्रचलन है। आलस्य और प्रमाद ऐसा दुर्गुण है जिसके कारण अच्छे-खासे प्रगतिशील मनुष्य भी अपंग असमर्थों की स्थिति में जा पहुँचते हैं और दरिद्रता का पिछड़ेपन का अभिशाप भुगतते हैं। इन मुद्दतों से जन-जीवन में घुसी हुई बुराइयों की जड़ उखाड़ फेंकना एक व्यक्ति का काम नहीं है। इसके लिए मोर्चा बंदी करनी होगी और देखना होगा कि इस कुचक्र में फँसे हुए जन-जीवन को किस तरह मुक्त कराया जाए।

सृजन से संबंधित हजारों काम हैं और उससे भी अधिक उन्मूलन स्तर के। इन्हें कर सकना मात्र जीभ चलाने या विरोध व्यक्त करने भर से नहीं हो सकता। कितने लोगों द्वारा व्यवहार में लाए जाने पर यह कुरीतियाँ प्रथा बन चुकी हैं। इन्हें स्थानांतरित करने के लिए उससे कम नहीं वरन् अधिक ही पुरुषार्थ की अपेक्षा होगी।

अपने भारत की तरह ही हर देश की हर क्षेत्र की अपने-अपने ढंग की अनगिनत समस्याएँ हैं। उनके समाधान में आगे आगे कदम बढ़ा सकने वाले शूरवीरों की पग-पग पर आवश्यकता पड़ेगी। यह कहाँ से आएँ? आज तो उनका अभाव दीखता है। रात्रि के सन्नाटे को चीरती हुई प्रातःकाल में जिस प्रकार चिड़ियों की चहचहाट सुनाई पड़ती है वैसा ही कुछ अगले दिनों सर्वत्र माहौल बनेगा। जन-जन को इसका पाठ कौन पढ़ायेगा? हर किसी को स्वार्थ में कटौती करके परमार्थ में हाथ डालने के लिए कौन विवश करेगा? इसका उत्तर आज तो नहीं दिया जा सकता। किन्तु कल-परसों ऐसा समय अवश्य ही आवेगा जिसमें सत्प्रवृत्ति संवर्धन और दुष्प्रकृति उन्मूलन की आँधी-तूफान जैसी हवा चलेगी। आँधी चलती है तो तिनके, पत्ते और धूल कण तक आकाश चूमने लगते हैं। अगले ही दिनों ऐसी बासंती बयार चलेगी जिससे ठूंठ कोपलें फोड़ने लगें और कोपलों पर फूल आने लगें।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति- फरवरी 1984 पृष्ठ 21

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1984/July/v1.26

👉 Generous Like the Clouds

Stingy fellows, who keep their resources only to themselves and remain apathetic to others’ sufferings, are in fact accounting sins for their future destiny. Those who have stocked heaps of wealth in their possession but never use it are mere ‘guards’ of money. Such fellows are burden on this earth that can do nothing for anyone. Even materialistically, they don’t enjoy anything; the thirst of gaining more, the worries and tensions of safeguarding the possession and the miserly attitude do not let them live in peace; they neither eat well nor can give anything to others. Despite having millions or billions of riches, they remain poor, beggars… Thirst for more and more of selfish possession does not even let one see what are the right or wrong means of piling the stocks of wealth. Prosperity earned by unfair means cannot let one prosper… One dies empty handed and later one all that ‘dead property’ possessed by him does no good to even to those who grabs it afterwards…

On the contrary, those who earn honestly and spend magnanimously and wisely in good, constructive and auspicious activities are always prospering. They are like clouds, which enshower generously; even if emptied today, the clouds are filled again and return back tomorrow with same dignity.

Integrity, benevolence, caring and helping sociability – are virtues of greatness, which can make the entire world your own. No one can forget the warmth of meeting such amicable personalities. But, the selfish fellows, howsoever talented and affluent they might be, remain aloof and virtually isolated; their state is like that of milk kept in a dirty pot, which is thrown without use…

📖 Akhand Jyoti, Feb. 1943

👉 Chintan Ke Kshan चिंतन के क्षण 15 May 2020

■ हमें सफलता के लिए शक्ति भर प्रयत्न करना चाहिए, पर असफलता के लिए जी में गुंजाइश रखनी चाहिए। प्रगति के पथ पर चलने वाले हर व्यक्ति को इस धूप-छाँव का सामना करना पड़ा है। हर कदम सफलता से ही भरा मिले, ऐसी आशा केवल बाल बुद्धि वालों को शोभा देती है, विवेकशीलों को नहीं।  जीवन विद्या का एक महत्त्वपूर्ण पाठ यह है कि हम न छोटी-मोटी सफलताओं से हर्षोन्मत्त हों और न असफलताओं को देखकर हिम्मत हारें।

□ हर आदमी की अपनी मनोभूमि, रुचि, भावना और परिस्थिति होती है। यह उसी आधार पर सोचता, चाहता और करता है। हमें इतनी उदारता रखनी ही चाहिए कि  यदि दूसरों की भावनाओं का आदर न कर सकें तो कम से कम उन्हें सहन कर ही लें। असहिष्णुता मनुष्य का एक नैतिक दुर्गुण है  जिसमें अहंकार की गंध आती है।  हर किसी को अपनी मर्जी का बनाना-चलाना चाहें तो यह एक मूर्खता भरी बात ही होगी।

◆ अपने को असमर्थ, अशक्त एवं असहाय मत समझिये। ऐसे विचारों का परित्याग कर दीजिए कि साधनों के अभाव में हम किस प्रकार आगे बढ़ सकेंगे। स्मरण रखिए, शक्ति का स्रोत साधन में नहीं, भावना में है। यदि आपकी आकाँक्षाएँ आगे बढ़ने के लिए व्यग्र हो रही हैं, उन्नति करने की तीव्र इच्छाएँ बलवती हो रही हैं, तो विश्वास रखिये साधन आपको प्राप्त होकर रहेंगे।

◇ बड़प्पन की इच्छा सबको होती है, पर बहुत कम लोग यह जानते हैं कि उसे कैसे प्राप्त किया जाय। जो जानते हैं वे उस ज्ञान को आचरण में लाने का साहस नहीं करते। आमतौर से यह सोचा जाता है कि जिसका ठाटबाट जितना बड़ा है वह उसी अनुपात से बड़ा माना जाएगा। मोटर, बंगला, सोना, जायदाद, कारोबार, सत्ता, पद आदि के अनुसार किसी को बड़ा मानने का रिवाज चल पड़ा है। इससे प्रतीत होता है कि लोग मनुष्य के व्यक्तित्व को नहीं, उसकी दौलत को बड़ा मानते हैं- यह दृष्टिदोष ही है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 Aatmavalamban Apnayen परावलम्बन छोड़, आत्मावलम्बन अपनाएँ

प्रगति के पथ पर चलते हुए यदि दूसरों का सहयोग मिल सकता है, तो उसे प्राप्त करने में हर्ज नहीं। सहयोग दिया जाना चाहिए और आवश्यकतानुसार लेना भी चाहिए। पर इस तथ्य को ध्यान में रखना चाहिए कि हमारी मूलभूत आवश्यकता हमें स्वयं ही पूरी करनी पड़ती है, दूसरों के सहयोग से थोड़ा ही सहारा मिलता है।
  
बाह्य सहयोग को आकर्षित करने और उससे समुचित लाभ उठाने के लिए यह नितांत आवश्यक है कि अपनी निज की मनःस्थिति सही और संतुलित हो। इसलिए प्रथम महत्त्व दूसरों का नहीं रहता, अपना ही होता है। दूसरों के सहयोग की आशा करने में उससे लाभ उठाने की बात सोचने से पूर्व आत्म-निरीक्षण किया जाना चाहिए कि हम सहयोग के अधिकारी भी है या नहीं? कुपात्र तक पहुँचने के बाद विभूतियाँ भी बेकार हो जाती हैं। पत्थर की चट्टान जल प्रवाह में पड़ी रहने पर भी भीतर से सूखी ही निकलती है। मात्र बाहरी सहयोग से न किसी का कुछ काम चल सकता है और न भला हो सकता है।
  
दूसरों का सहारा तकने की अपेक्षा हमें अपना सहारा तकना चाहिए, क्योंकि वे सभी साधन अपने भीतर प्रचुर मात्रा में भरे पड़े हैं, जो सुव्यवस्था और प्रगति के लिए आवश्यक हैं। यदि सूझ-बूझ की वस्तुस्थिति समझ सकने योग्य यथार्थवादी बनाने की साधना जारी रखी जाय, तो सबसे उत्तम परामर्श दाता सिद्ध हो सकती है। मस्तिष्क में वह क्षमता मौजूद है, जिसे थोड़ा-सा सहारा देकर उच्च कोटि के विद्वान् अथवा बुद्धिमान् कहलाने का अवसर मिल जाय। हाथों की संरचना अद्भुत है। यदि उन्हें सही रीति से उपयुक्त काम करने के लिए सधाया जा सके, तो वे अपने कर्तृत्व से संसार को चमत्कृत कर सकते हैं। मनुष्य का पसीना इतना बहुमूल्य खाद है, जिसे लगाकर हीरे-मोतियों की फसल उगाई जा सकती है।
  
शरीर विज्ञान और मनोविज्ञान के ज्ञाता आश्चर्य चकित हैं कि विशाल ब्रह्माण्ड की तरह ही इस छोटे से मानव पिण्ड में भी एक से एक बढ़कर कैसी अद्भुत क्षमताओं को किसी कलाकार ने किस कारीगरी के साथ सँजोया है? कोशिकाओं और ऊतकों की क्षमताओं और हलचलों को देखकर लगता है कि जादुई-देवदूतों की सत्ता प्रत्येक जीवाणु में ठूँस-ठूँसकर भर दी गयी है। कायिक क्रियाकलाप और मानसिक चिंतन तंत्र किस जटिल संरचना और किस संरक्षण, संतुलन का प्रदर्शन करता है? उसे देखकर हतप्रभ रह जाना पड़ता है।
  
पिण्ड की आंतरिक संरचना जैसी अद्भुत है, उससे असंख्य गुनी क्षमता बाह्य जीवन में अग्रगामी और सफल हो सकने की भरी पड़ी है। मनोबल का यदि सही दिशा में प्रयोग हो सके तो फिर कठिनाई नहीं रह जाएगी।
  
अस्त-व्यस्तता और अव्यवस्था ही है, जो हमें दीन-हीन और लुंज-पुंज बनाये रखती है। दूसरों का सहारा इसलिए तकना पड़ता है कि हम अपने को न तो पहचान सके और न अपनी क्षमताओं को सही दिशा में, सही रीति से प्रयुक्त करने की कुशलता प्राप्त कर सके। शारीरिक आलस्य और मानसिक प्रमाद ने ही हमें इस गई-गुजरी स्थिति में रखा है कि आत्म-विश्वास करते न बन पड़े और दूसरों का सहारा ताकना पड़े। यदि आत्मावलम्बन की ओर मुड़  पड़ें, तो फिर परावलम्बन की कोई आवश्यकता ही प्रतीत न होगी।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

बुधवार, 13 मई 2020

👉 मन को सदा सद्विचारों में संलग्न रखिये?

मनुष्य जब तक जीवित रहता है सर्वदा कार्य में संलग्न रहता है, चाहे कार्य शुभ हो या अशुभ। कुछ न कुछ कार्य करता ही रहता है और अपने कर्मों के फलस्वरूप दुःख सुख पाता रहता है, बुरे कर्मों से दुःख एवं शुभ कर्मों से सुख।

जब हम ईश्वर की आज्ञानुसार कर्म करते हैं तो हमें किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता है क्योंकि वे कार्य शुभ होते हैं परन्तु जब हम उनकी आज्ञा के विरुद्ध कार्य करते हैं तभी दुःखी होते हैं, दुःख से छुटकारा पाने के लिये हमें सदैव यह प्रयत्न करना चाहिए कि हम बुराइयों से बचें।

ईश्वर आज्ञा देता है कि “हे मनुष्यों! इस संसार में सत्कर्मों को करते हुए 100 वर्ष तक जीने की इच्छा करो। सत्कर्म में कभी आलसी और प्रमादी मत बनो, जो तुम उत्तम कर्म करोगे तो तुम्हें इस उत्तम कर्म से कभी भी दुःख नहीं प्राप्त हो सकता है। अतः शुभ कार्य से कभी वंचित न रहो।”

हम लोगों का सबसे बढ़कर सही कर्त्तव्य है कि हम मन को किसी क्षण कुविचारों के लिए अवकाश न दें क्योंकि जिस समय हमें शुभ कर्मों से अवकाश मिलेगा उसी समय हम विनाशकारी पथ की ओर अग्रसर होंगे।

मनुष्य का जीवन इतना बहुमूल्य है कि बार-बार नहीं मिलता, यदि इस मनुष्य जीवन को पाकर हम ईश्वर की आज्ञा न मानकर व्यर्थ कर्मों में अपने समय को बरबाद कर रहे हैं तो इससे बढ़कर और मूर्खता क्या है? इससे तो पशु ही श्रेष्ठ है जिनसे हमें परोपकार की तो शिक्षा मिलती है।

हमारे जीवन का उद्देश्य सर्वदा अपनी तथा दूसरों की भलाई करना है। क्योंकि जो संकुचित स्वार्थ से ऊंचे उठकर उच्च उद्देश्यों के लिए उदार दृष्टि से कार्य करते हैं वे ही ईश्वरीय ज्ञान को पाते हैं और वही संसार के बुरे कर्मों से बचकर शुभ कर्मों को करते हुए आनन्द को उपलब्ध करते हैं। जो प्रत्येक जीव के दुःख को अपना दुःख समझता है तथा प्रत्येक जीव में आत्मभाव रखता है अथवा परमपिता परमात्मा को सदैव अपने निकट समझता है वह कभी पाप कर्म नहीं करता जब पाप कर्म नहीं तो उसका फल दुःख भी नहीं। इसलिए हमें सदा ईश्वर परायण होना चाहिए और सद्विचारों में निमग्न रहना चाहिए जिससे मानव जीवन का महान लाभ उपलब्ध किया जा सके।

📖  अखण्ड ज्योति-मार्च 1949 पृष्ठ 19

मंगलवार, 12 मई 2020

👉 Icchapurti Vriksh इच्छापूर्ति वॄक्ष

एक घने जंगल में एक इच्छा पूर्ति वृक्ष था, उसके नीचे बैठ कर कोई भी इच्छा करने से वह तुरंत पूरी हो जाती थी। यह बात बहुत कम लोग जानते थे क्योंकि उस घने जंगल में जाने की कोई हिम्मत ही नहीं करता था।

एक बार संयोग से एक थका हुआ व्यापारी उस वृक्ष के नीचे आराम करने के लिए बैठ गया उसे पता ही नहीं चला कि कब उसकी नींद लग गयी। जागते ही उसे बहुत भूख लगी, उसने आस पास देखकर सोचा- 'काश कुछ खाने को मिल जाए!' तत्काल स्वादिष्ट पकवानों से भरी थाली हवा में तैरती हुई उसके सामने आ गई। व्यापारी ने भरपेट खाना खाया और भूख शांत होने के बाद सोचने लगा.. काश कुछ पीने को मिल जाए.. तत्काल उसके सामने हवा में तैरते हुए अनेक शरबत आ गए।
 
शरबत पीने के बाद वह आराम से बैठ कर सोचने लगा-  कहीं मैं सपना तो नहीं देख रहा हूँ। हवा में से खाना पानी प्रकट होते पहले कभी नहीं देखा न ही सुना..जरूर इस पेड़ पर कोई भूत रहता है जो मुझे खिला पिला कर बाद में मुझे खा लेगा ऐसा सोचते ही तत्काल उसके सामने एक भूत आया और उसे खा गया।

इस प्रसंग से आप यह सीख सकते है कि हमारा मस्तिष्क ही इच्छापूर्ति वृक्ष है आप जिस चीज की प्रबल कामना करेंगे  वह आपको अवश्य मिलेगी।

अधिकांश लोगों को जीवन में बुरी चीजें इसलिए मिलती हैं.....

क्योंकि वे बुरी चीजों की ही कामना करते हैं।

इंसान ज्यादातर समय सोचता है- कहीं बारिश में भीगने से मै बीमार न हों जाँऊ.. और वह बीमार हो जाता हैं..!
                    
इंसान सोचता है - मेरी किस्मत ही खराब है .. और उसकी किस्मत सचमुच खराब हो जाती हैं ..!
        
इस तरह आप देखेंगे कि आपका अवचेतन मन इच्छापूर्ति वृक्ष की तरह आपकी इच्छाओं को ईमानदारी से पूर्ण करता है..! इसलिए आपको अपने मस्तिष्क में विचारों को सावधानी से प्रवेश करने की अनुमति देनी चाहिए।

यदि गलत विचार अंदर आ जाएगे तो गलत परिणाम मिलेंगे। विचारों पर काबू रखना ही अपने जीवन पर काबू करने का रहस्य है..!

आपके विचारों से ही आपका जीवन या तो स्वर्ग बनता है या नरक उनकी बदौलत ही आपका जीवन सुखमय या दुख:मय बनता है।

विचार जादूगर की तरह होते है, जिन्हें बदलकर आप अपना जीवन बदल सकते है..!
        
इसलिये सदा सकारात्मक सोच रखें।

हम बदलेंगे, युग बदलेगा

👉 Sankhya Nahi Samrthta संख्या नहीं समर्थता चाहिए

जिनकी आस्था दुर्बल है, उनके लिए तिल भर बोझ भी पर्वत जैसा भारी पड़ेगा। ऐसे लोगों से किस प्रकार आशा करें कि वे हमारे प्रयोजन में दो-चार कदम चलने का साथ देंगे जो हमारे जीवन का एकमात्र लक्ष्य है। व्यक्ति और समाज की उत्कृष्टता—साँस्कृतिक एवं भौतिक पुनरुत्थान-भावनात्मक नव निर्माण आज के युग की महानतम माँग है। प्रबुद्ध व्यक्तियों के लिए इन उत्तरदायित्वों से विमुख होना या इनकार कर सकना अशक्य है। हमें स्वयं इसी दिशा में जिस सत्ता ने बलपूर्वक लगाया है, वह अन्यान्य भावनाशील लोगों के अन्तःकरण में भी वैसी ही प्रेरणा कर रही है और वे सच्चे आध्यात्मिक व्यक्तियों की तरह इसके लिए कटिबद्ध हो रहे हैं। पर जिन्हें यह सब कुछ व्यर्थ दीखता है, जिन्हें इतने महत्वपूर्ण कार्य में कोई आकर्षण, कोई उत्साह, कोई साहस उत्पन्न नहीं हो रहा है, उनके सम्बन्ध में हमें निराशा हो सकती है।

अपनी तपश्चरण और ईमानदारी में कहीं कोई कमी ही होगी जिसके कारण जिन व्यक्तियों के साथ पिछले ढेरों वर्षों से सम्बन्ध बनाया, उनमें कोई आध्यात्मिक साहस उत्पन्न न हो सका। वह भजन किस काम का, जिसके फलस्वरूप आत्मनिर्माण एवं परमार्थ के लिए उत्साह उत्पन्न न हो । किन्हीं को हमने भजन में लगा भी दिया है पर उनमें भजन का प्रभाव बताने वाले उपरोक्त दो लक्षण उत्पन्न न हुए हों तो हम कैसे माने कि उन्हें सार्थक भजन करने की प्रक्रिया समझाई जा सकी? हमारा परिवार संगठन तभी सफल कहा जा सकता था जब उसमें ये सम्मिलित व्यक्ति उत्कृष्टता और आदर्शवादिता की कसौटी पर खरे सिद्ध होते चलते। अन्यथा संख्या वृद्धि की विडम्बना से झूँठा मन बहलाव करने से क्या कुछ बनेगा?

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति, अक्टूबर 1966 पृष्ठ 47

👉 Nischayatmak Swabhav निश्चयात्मक स्वभाव बनायें

बिजली के बारे में जानकार व्यक्ति जानते हैं कि ऋण (निगेटिव) और  धन (पॉजीटिव) दो प्रकार की धाराएँ मिलकर स्फुरण उत्पन्न करती हैं। मनुष्य शरीर में यह दोनों प्रकार की धाराएँ विद्यमान् हैं और उन्हीं के आधार पर जीवन के सारे कायों का संचालन होता है।
  
किसी मनुष्य को देखकर, उसके गुणों को जानकर हम आसानी से मालूम कर सकते हैं कि उसमें किस धारा का बाहुल्य है। निगेटिव को अनिश्चयात्मक और पॉजिटिव को निश्चयात्मक कहा जाता है। बाह्य प्रभावों से तुरन्त प्रभावित हो जाना और हर प्रकार की हवा के प्रवाह में बहने लगना यह अनिश्चयात्मक स्वभाव हुआ और अपने निश्चय को दृढ़ रखना, बिना विचारे किसी वाचाल की बातों में न फँसना, विपत्ति बाधाओं के होते हुए भी अपने पथ पर दृढ़ बने रहना, यह निश्चयात्मक स्वभाव कहा जाता है।
  
मनुष्यों के शरीरों की बनावट एक सी दिखाई देने पर भी उनमें छोटे बड़े का जो असाधारण अन्तर देखा जाता है, उसका कारण और कुछ नहीं, केवल इन धाराओं की भिन्नता और उनकी मात्रा की न्यूनाधिकता है। जिस व्यक्ति का निश्चयात्मक स्वभाव है, जिसके अन्दर धन विद्युत् का बाहुल्य है, वह हर प्रकार की कठिनाइयों का मुकाबिला करता हुआ, सुख-दुःख को बराबर समझता हुआ, कर्त्तव्य पथ पर आरूढ़ रहेगा और मनको गिरने न देगा, किन्तु जो ऋण विद्युत् वाला है, उस अनिश्चित स्वभाव के मनुष्य को अपना  छोटा सा कद पहाड़ के समान दिखाई देगा, और जरा सी विपत्ति आने पर किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो जायगा। आज एक इरादा किया है, कल उसे बदल देगा और तीसरे दिन नया प्रोग्राम बना लेगा।
  
हर प्रकार की उन्नति और सफलता एवं पतन और विफलता के बीज इन्हीं ऋण-धन स्वभावों में निहित हैं। क्या व्यापार, क्या नौकरी, क्या स्वकीय धर्म सभी कामों में उत्साही पुुरुष संतोषजनक फल प्राप्त करेगा। किन्तु निराशा और निर्बलता के चंगुल में फँसा हुआ व्यक्ति प्राप्त की हुई सफलताओं को भी गँवा देगा। इसीलिए जो मनुष्य अपने जीवन को तेजस्वी और प्रतिभाशाली बनाना चाहते हैं, उनके लिए आवश्यक है कि अपने अन्दर धन विद्युत् की मात्रा में वृद्धि करें, इच्छा शक्ति को बढ़ायें।
  
बीमारी से बचने और उसे जल्द अच्छा कर लेने में भी यही नियम काम करता है। जिन्हें आत्म-विश्वास है और इच्छा शक्ति को बलवान् बनाये हुए हैं वे अपनी मानसिक दृढ़ता के  द्वारा ही छोटे मोटे रोगों को मार भगायेंगे और बीमारी से बचे रहेंगे। कदाचित् बीमार भी पड़े, तो बहुत जल्द अच्छे हो जायेंगे, जबकि निराशावादी मामूली बीमारी को अपने आप इतनी बढ़ा लेते हैं कि वही प्राण घातक तक बन जाती है।
  
स्वभाव की निर्बलता को दूर करने का सबसे उत्तम उपाय है- ईश्वर प्रार्थना करना। प्रार्थना हृदय के अन्तस्थल से होनी चाहिए, क्योंकि अदृश्य जगत् में से उपयोगी तत्त्वों को खींचने की चुम्बक शक्ति उसी स्थान में है। सच्चे हृदय से, पूर्ण मनोयोग के साथ की गयी प्रार्थना कभी निष्फल नहीं जा सकती, उसका फल अवश्य ही मिलेगा। प्रार्थना की वैज्ञानिक विवेचना यह है कि जिस वस्तु की हमें आवश्यकता है उसे अदृश्य भण्डार से प्राप्त करना। प्रभु का अक्षय भण्डार अपने पुत्रों के लिए सदैव खुला हुआ है, उसमें से हर कोई अपनी इच्छित वस्तु मनमानी मात्रा में ले सकता है, बशर्ते कि वह लेना चाहे और लेने के लिए प्रयत्न करे। इस चाहने और प्रयत्न करने का नाम ही प्रार्थना है।
  
तुम्हें ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए कि- ‘प्रभो! हमें ऐसी शक्ति दीजिए, जिसके द्वारा सत्य का पालन और पाप का संहार कर सकें। आप सच्चिदानन्द हैं, हमें भी अपने समान बनाइये, जिससे अपना और दूसरों का कल्याण कर सकें।’ हमें अपनी त्रुटियों को हटाने और सर्वतोमुखी उन्नति प्राप्त करने के लिए प्रार्थना को अपनाना चाहिए।     जिन्हें निश्चयात्मक स्वभाव प्राप्त करने की इच्छा है, उन्हें चाहिए कि निष्ठापूर्वक ईश्वर की प्रार्थना करते रहें। विशुद्ध भाव से की हुई प्रार्थना इच्छित फल देने की परिपूर्ण योग्यता रखती है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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