प्रज्ञापीठस्वरूपेषु युगदेवालया भुवि।
भवन्तु तत एतासां सृज्यानामथ नारद ॥७२॥
सूत्रं संस्कारयोग्यानां प्रवृत्तीनां च सञ्चलेत्।
नृणां येन स्वरूपं च भविष्यत्संस्कृतं भवेत् ॥७३॥
सहैव पृष्ठभूमिश्च परिवर्तनहेतवे।
निर्मिता स्याद् युगस्यास्तु संधिकालस्तु विंशति: ॥७४॥
वर्षाणां, सुप्रभातस्य वेलाऽऽवर्तनं हेतुका।
अवाञ्छनीयताग्लानि: सदाशयविनिर्मिति" ॥७५॥
टीका- हे नारद ! युग देवालय, प्रज्ञापीठों के रूप में बनें। वहाँ से सृजनात्मक और सुधारात्मक सभी प्रवृत्तियों का सूत्र-संचालन हो, जिससे मनुष्य का स्वरूप एवं भविष्य सुधरे, साथ ही महान् परिवर्तन के लिए आवश्यक पृष्ठभूमि भी बनने लगे। युग-सन्धि के ये वर्ष प्रभात की परिवर्तन बेला की तरह है। इसमें अवाञ्छनीयता की गलाई और सदाशयता की ढलाई होगी।
व्याख्या- नये युग में इन्हीं प्रज्ञा की अधिष्ठात्री गायत्री के मन्दिर और यज्ञ शालाएँ बननी चाहिए। उन्हीं के माध्यम से रचनात्मक कार्य चलने चाहिए। महामना मदनमोहन मालवीय कहा करते थे-
ग्रामें ग्रामे सभाकार्या: ग्रामेग्रामे कथाशभा:। पाठशाला, मल्लशला, प्रतिपर्वा महोत्सवा:॥
अर्थात् गाँव-गाँव ऐसे देवमन्दिर रहे जहाँ से न्याय, पर्व-संस्कार मनाने, विद्याध्ययन, आरोग्य सम्वर्धन के क्रिया कृत्य चलते रहें। केवल मन्दिरों से काम चलेगा नहीं।
आद्य शंकराचार्य ने जब मान्धाता से यही बात कही तो उन्होंने चार धामों की स्थापना के लिए अपना अंदाय भण्डार खोल दिया। इन तीर्थो के माध्यम से धर्म-धारणा विस्तार की कितनी बड़ी सेवा हुई है-
इसका मूल्यांकन नहीं किया जा सकता।
मन्दिर मात्र पलायनवादी श्रद्धा नहीं, कर्म योगी निष्ठा जगायें तो ही उनकी सार्थकता है।
जब इन देवालयों से, जनजागृति केन्द्रों के माध्यम से सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन की गतिविधियाँ चलने लगेंगी, तो जन-जन में प्रखरता का उदय होगा तथा परिवर्तन के दृश्य सुनिश्चित रूप से दिखाई पड़ने लयोंगे। प्रस्तुत समय संधिवेला का है। आज संसार के सभी विद्धान, ज्योतिर्विद, अतीन्द्रिय दृष्टा इस सम्बन्ध में एक मत हैं कि युग परिवर्तन का समय आ पहुँचा। परिस्थितियों की विषमता अपनी चरम सीमा पर है। ऐसे में इन युग देवालयों की भूमिका अपनी जगह बड़ी महत्वपूर्ण है।
सूरदास ने लिखा है-
'एक सहस्र नौ सौ के ऊपर ऐसी योग परै। सहस्र वर्ष लौं सतयुग बीते धर्म की बेलि बढ़े ॥'
अर्थात् ११ वीं शताब्दी के अन्त में ऐसा ही परिवर्तन होगा जिसके बाद सहस्रों वर्षों के लिए धर्म का, सुख-शांति का राज्य स्थापित होगा।
संक्रमण वेला में किस प्रकार की परिस्थितियाँ बनती और कैसे घटनाक्रम घटित होते हैं, इसका उल्लेख महाभारत के वन पर्व में इस प्रकार आता है-
ततस्तु भूले संघाते वर्तमाने युग क्षये। यदा चन्द्रस्य सूर्यस्य तया तस्य बृहस्पति: ॥ एकराशौ समेष्यन्ति प्रयत्स्यति तदा कृतम्। कालवर्षी च पर्जन्यो नक्षत्राणि शुभानि च ॥ क्षेमं सुभिक्षमारोग्यं भविष्यति निरामयम्॥
अर्थात्- जब एक युग समाप्त होकर दूसरे युग का प्रारम्भ होने को होता है, तब संसार में संघर्ष और तीव्र हलचल उत्पन्न हो जाती है। जब चन्द्र, सूर्य, बृहस्पति तथा पुष्य नक्षत्र एक राशि पर जायेंगे तब सतयुग का शुभारम्भ होगा। इसके बाद शुभ नक्षत्रों की कृपा वर्षा होगी। पदार्थो की वृद्धि से सुख-समृद्धि, लोग स्वस्थ और प्रसन्न होने लगेंगे।
इस प्रकार का ग्रह योग अभी कुछ समय पहले ही आ चुका है। अन्याय गणनाओं के आधार पर भी यही समय है।
विशिष्ट अवसरों को आपत्तिकाल कहते हैं और उन दिनों आपत्ति धर्म निभाने की आवश्यकता पड़ती है। अग्निकाण्ड, दुर्घटना, दुर्भिदा, बाढ़, भूकम्प, युद्ध, महामारी जैसे अवसरों पर सामान्य कार्य छोड़कर भी सहायता के लिए दौड़ना पढ़ता है। छप्पर उठाने, धान रोपने, शादी-खुशी में साथ रहने, सत्प्रयोजनों का समर्थन करने के लिए भी निजी काम छोड़कर उन प्रयोजनों में हाथ बँटाना आवश्यक होता है। युग सन्धि में जागरूकों को युग धर्म निभाना चाहिए। व्यक्तिगत लोभ, मोह को गौण रखकर विश्व संकट की इन घड़ियों में उधस्तरीय कर्त्तव्यों के परिपालन को प्रमुख प्राथमिकता देनी चाहिए। यही है परिवर्तन की इस प्रभात वेला में दिव्य प्रेरणा, जिसे अपनाने में हर दृष्टि से हर किसी का कल्याण है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 प्रज्ञा पुराण (भाग १) पृष्ठ 31