शनिवार, 30 मार्च 2019

👉 Nari Abhuydha

Nari Abhuydha is 5th Annual Women Empowerment program by All World Gayatri Parivar Women Circle Mumbai. There is need for intellectual training, Scientific Education and Character Building Education. We have paid heavily for blindly imitating western ideals.There is a need for harmony of ideals between school & home. Ikkisvi Sadi is Nari Sadi and indian women needs to travel as much as to study for playing a larger role in national life. Education through Indian vernaculars and developing arts,culture, crafts and allied occupations needs to take centre stage.DIYA gives an awakening call for empowering women for a prosperous future. Come join us on 30th March Saturday 2019

Venue: Suraj Hanuman Mandir Ground,Anand Nagar Nr Mudraneshwar Temple, Dahisar East, Mumbai

Timings : Evening 5.00 pm onwards

Contact:
09821393345
09892722773
09892583224
09320922220

Email: mumbai@diya.net.in

Entry is free and open to all.
Pls pass message to all in your circle of influence

👉 मेरे पिता

शहर के एक प्रसिद्ध विद्यालय के बग़ीचे में तेज़ धूप और गर्मी की परवाह किये बिना, बड़ी लग्न से पेड़ - पौधों की काट छाँट में लगा था कि तभी विद्यालय के चपरासी की आवाज़ सुनाई दी, "गंगादास! तुझे प्रधानाचार्या जी तुरंत बुला रही हैं।"

गंगादास को आख़िरी के पांँच शब्दों में काफ़ी तेज़ी महसूस हुई और उसे लगा कि कोई महत्त्वपूर्ण बात हुई है जिसकी वज़ह से प्रधानाचार्या जी ने उसे तुरंत ही बुलाया है। शीघ्रता से उठा, अपने हाथों को धोकर साफ़ किया और  चल दिया, द्रुत गति से प्रधानाचार्या के कार्यालय की ओर।
     
उसे प्रधानाचार्या महोदया के कार्यालय की दूरी मीलों की लग रही थी जो ख़त्म होने का नाम नहीं ले रही थी। उसकी हृदयगति बढ़ गई थी।  सोच रहा था कि उससे क्या ग़लत हो गया जो आज उसको प्रधानाचार्या महोदया ने  तुरंत ही अपने कार्यालय में आने को कहा।
    
वह एक ईमानदार कर्मचारी था और अपने कार्य को पूरी निष्ठा से पूर्ण करता था। पता नहीं क्या ग़लती हो गयी। वह इसी चिंता के साथ प्रधानाचार्या के कार्यालय पहुँचा...... "मैडम, क्या मैं अंदर आ जाऊँ? आपने मुझे बुलाया था।"
     
"हाँ। आओ और यह देखो" प्रधानाचार्या महोदया की आवाज़ में कड़की थी और उनकी उंगली एक पेपर पर इशारा कर रही थी। "पढ़ो इसे" प्रधानाचार्या ने आदेश दिया। "मैं, मैं, मैडम! मैं तो इंग्लिश पढ़ना नहीं जानता मैडम!" गंगादास ने घबरा कर उत्तर दिया।
   
"मैं आपसे क्षमा चाहता हूँ मैडम यदि कोई गलती हो गयी हो तो। मैं आपका और विद्यालय का पहले से ही बहुत ऋणी हूँ। क्योंकि आपने मेरी बिटिया को इस विद्यालय में निःशुल्क पढ़ने की इज़ाज़त दी। मुझे कृपया एक और मौक़ा दें मेरी कोई ग़लती हुई है तो सुधारने का। मैं आप का सदैव ऋणी रहूंँगा।" गंगादास बिना रुके घबरा कर बोलता चला जा रहा था।
    
उसे प्रधानाचार्या ने टोका "तुम बिना वज़ह अनुमान लगा रहे हो। थोड़ा इंतज़ार करो, मैं तुम्हारी बिटिया की कक्षा-अध्यापिका को बुलाती हूँ।" वे पल जब तक उसकी बिटिया की कक्षा-अध्यापिका प्रधानाचार्या के कार्यालय में पहुँची बहुत ही लंबे हो गए थे गंगादास के लिए। सोच रहा था कि क्या उसकी बिटिया से कोई ग़लती हो गयी, कहीं मैडम उसे विद्यालय से निकाल तो नहीं रहीं। उसकी चिंता और बढ़ गयी थी।

कक्षा-अध्यापिका के पहुँचते ही प्रधानाचार्या महोदया ने कहा, "हमने तुम्हारी बिटिया की प्रतिभा को देखकर और परख कर ही उसे अपने विद्यालय में पढ़ने की अनुमति दी थी। अब ये मैडम इस पेपर में जो लिखा है उसे पढ़कर और हिंदी में तुम्हें सुनाएँगी, ग़ौर से सुनो।"

कक्षा-अध्यापिका ने पेपर को पढ़ना शुरू करने से पहले बताया, "आज मातृ दिवस था और आज मैंने कक्षा में सभी बच्चों को अपनी अपनी माँ के बारे में एक लेख लिखने को कहा। तुम्हारी बिटिया ने जो लिखा उसे सुनो।" उसके बाद कक्षा- अध्यापिका ने पेपर पढ़ना शुरू किया।

"मैं एक गाँव में रहती थी, एक ऐसा गाँव जहाँ शिक्षा और चिकित्सा की सुविधाओं का आज भी अभाव है। चिकित्सक के अभाव में कितनी ही माँयें दम तोड़ देती हैं बच्चों के जन्म के समय। मेरी माँ भी उनमें से एक थीं। उन्होंने मुझे छुआ भी नहीं कि चल बसीं। मेरे पिता ही वे पहले व्यक्ति थे मेरे परिवार के जिन्होंने मुझे गोद में लिया। पर सच कहूँ तो मेरे परिवार के वे अकेले व्यक्ति थे जिन्होंने मुझे गोद में उठाया था। बाक़ी की नज़र में तो मैं अपनी माँ को खा गई थी। मेरे पिताजी ने मुझे माँ का प्यार दिया। मेरे दादा - दादी चाहते थे कि मेरे पिताजी दुबारा विवाह करके एक पोते को इस दुनिया में लायें ताकि उनका वंश आगे चल सके। परंतु मेरे पिताजी ने उनकी एक न सुनी और दुबारा विवाह करने से मना कर दिया। इस वज़ह से मेरे दादा - दादीजी ने उनको अपने से अलग कर दिया और पिताजी सब कुछ, ज़मीन, खेती बाड़ी, घर सुविधा आदि छोड़ कर मुझे साथ लेकर शहर चले आये और इसी विद्यालय में माली का कार्य करने लगे। मुझे बहुत ही लाड़ प्यार से बड़ा करने लगे। मेरी ज़रूरतों पर माँ की तरह हर पल उनका ध्यान रहता है।"

"आज मुझे समझ आता है कि वे क्यों हर उस चीज़ को जो मुझे पसंद थी ये कह कर खाने से मना कर देते थे कि वह उन्हें पसंद नहीं है, क्योंकि वह आख़िरी टुकड़ा होती थी। आज मुझे बड़ा होने पर उनके इस त्याग के महत्त्व पता चला।"

"मेरे पिता ने अपनी क्षमताओं में मेरी हर प्रकार की सुख - सुविधाओं का ध्यान रखा और मेरे विद्यालय ने उनको यह सबसे बड़ा पुरस्कार दिया जो मुझे यहाँ निःशुल्क पढ़ने की अनुमति मिली। उस दिन मेरे पिता की ख़ुशी का कोई ठिकाना न था।"

"यदि माँ, प्यार और देखभाल करने का नाम है तो मेरी माँ मेरे पिताजी हैं।" "यदि दयाभाव, माँ को परिभाषित करता है तो मेरे पिताजी उस परिभाषा के हिसाब से पूरी तरह मेरी माँ हैं।"

"यदि त्याग, माँ को परिभाषित करता है तो मेरे पिताजी इस वर्ग में भी सर्वोच्च स्थान पर हैं।" "यदि संक्षेप में कहूँ कि प्यार, देखभाल, दयाभाव और त्याग माँ की पहचान है तो मेरे पिताजी उस पहचान पर खरे उतरते हैं और मेरे पिताजी विश्व की सबसे अच्छी माँ हैं।"
    
आज मातृ दिवस पर मैं अपने पिताजी को शुभकामनाएँ दूँगी और कहूँगी कि आप संसार के सबसे अच्छे पालक हैं। बहुत गर्व से कहूँगी कि ये जो हमारे विद्यालय के परिश्रमी माली हैं, मेरे पिता हैं।"
   
"मैं जानती हूँ कि मैं आज की लेखन परीक्षा में असफल हो जाऊँगी। क्योंकि मुझे माँ पर लेख लिखना था और मैंने पिता पर लिखा,पर यह बहुत ही छोटी सी क़ीमत होगी उस सब की जो मेरे पिता ने मेरे लिए किया। धन्यवाद"। आख़िरी शब्द पढ़ते - पढ़ते अध्यापिका का गला भर आया था और प्रधानाचार्या के कार्यालय में शांति छा गयी थी।
    
इस शांति में केवल गंगादास के सिसकने की आवाज़ सुनाई दे रही थी। बग़ीचे में धूप की गर्मी उसकी कमीज़ को गीला न कर सकी पर उस पेपर पर बिटिया के लिखे शब्दों ने उस कमीज़ को पिता के आँसुओं से गीला कर दिया था। वह केवल हाथ जोड़ कर वहाँ खड़ा था।  उसने उस पेपर को अध्यापिका से लिया और अपने हृदय से लगाया और रो पड़ा।
    
प्रधानाचार्या ने खड़े होकर उसे एक कुर्सी पर बैठाया और एक गिलास पानी दिया तथा कहा, "गंगादास तुम्हारी बिटिया को इस लेख के लिए पूरे 10/10 नम्बर दिए गए है। यह लेख मेरे अब तक के पूरे विद्यालय जीवन का सबसे अच्छा मातृ दिवस का लेख है। हम कल मातृ दिवस अपने विद्यालय में बड़े ज़ोर - शोर से मना रहे हैं। इस दिवस पर विद्यालय एक बहुत बड़ा कार्यक्रम आयोजित करने जा रहा है। विद्यालय की प्रबंधक कमेटी ने आपको इस कार्यक्रम का मुख्य अतिथि बनाने का निर्णय लिया है। यह सम्मान होगा उस प्यार, देखभाल, दयाभाव और त्याग का जो एक आदमी अपने बच्चे के पालन के लिए कर सकता है।

हमें गर्व है कि संसार का एक अच्छा पिता हमारे विद्यालय में पढ़ने वाली बच्ची का पिता है जैसा कि आपकी बिटिया ने अपने लेख में लिखा। गंगादास हमें गर्व है कि आप एक माली हैं और सच्चे अर्थों में माली की तरह न केवल विद्यालय के बग़ीचे के फूलों की देखभाल की बल्कि अपने इस घर के फूल को भी सदा ख़ुशबूदार बनाकर रखा जिसकी ख़ुशबू से हमारा विद्यालय महक उठा। तो क्या आप हमारे विद्यालय के इस मातृ दिवस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि बनेंगे?"
    
रो पड़ा गंगादास और दौड़ कर बिटिया की कक्षा के बाहर से आँसू भरी आँखों से निहारता रहा , अपनी प्यारी बिटिया को।

👉 आज का सद्चिंतन 30 March 2019


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 March 2019


👉 सद्भावना ही श्रेष्ठ है।

आपरा की सद्भावना अनिवार्य है। हर परस्पर सन्देह और संशय करके तो भय को ही उत्पन्न करेंगे और एक दूसरे का हास और अन्ततः नाश ही करेंगे। हमें आपस में विचार करना सीखना होगा। विश्वास की भित्ति पवित्रता है और पवित्र हृदयों में ही विश्वास उत्पन्न होता है। पवित्र हृदय और निर्मल बुद्धि में सद्भावना का उदय होता है। सद्भावना परम आवश्यक है। सद्भावना से ही आपस का दृष्टिकोण सम्यक् बनता है। सद्भावना के अभाव में तो एक दूसरे में सन्देह और भय की ही उत्पत्ति है। हम आपस में क्यों एक दूसरे से भय करें।

भय की जाँच की जाय तो इसका छिपा हुआ कारण निजी या सामूहिक स्वार्थ ही होता है, और जब वह स्वार्थ किसी देश और जाति भर में फैल जाता है तो एक दूसरे राष्ट्र पर सन्देह होने लगता है। जब राष्ट्र आपस में एक दूसरे की उन्नति और प्रगति को सन्देह की दृष्टि से देखने लगते हैं तो वास्तव में उनकी सम्यक् दृष्टि रहती ही नहीं, वे रंगी हुई ऐनक से ही देखते हैं और चाहे वह रंग उनका अपना ही चढ़ाया हुआ हो, जब तक वह रंग ऐनक के आइनों पर चढ़ा रहेगा, सभी उसी रंग में रंगे दीखेंगे और जब हम दूसरे राष्ट्र को सन्देह की दृष्टि से देखेंगे तो वह हमें क्यों न सन्देह की दृष्टि से देखे? इस प्रकार संदेह और भय का एक चक्र बन जाता है। क्या आजकल राष्ट्र इस प्रकार एक दूसरे से दूर नहीं होते जा रहे?

छिपी हुई दूषित अथवा विशुद्ध मनोवृत्ति व्यवहार में प्रकट हो जाती है। मनोवृत्ति को छिपा कर ऊपर से शिष्टता का व्यवहार भी बहुत देखने में आ रहा है, पर वास्तविकता छिपाये नहीं छिप सकती। हमें सबको मित्र दृष्टि से देखना चाहिए, मन में किसी प्रकार की मलिनता का स्थान नहीं देना चाहिए, पर साथ ही सचेत और सावधान भी रहना चाहिये कि कहीं हमारी सरलता से ही लाभ न उठाया जाये। सतर्क रहना सावधान रहना चाहिए, पर मनोमालिन्य अच्छा नहीं।

📖 अखण्ड ज्योति फरवरी 1956 पृष्ठ 15

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1956/February/v1.15

👉 Amrit Chintan

■ Four habits constitute human nature – mind, nature, instinct and ego. Mind’s job is to decide yes or no to the proposals of thoughts. Chit is memory chip and ego which covers self. These four factors always keep man in body sense and does allow to be conscious of soul. Hence, the only way to become soul conscious is through process of self rectification and selfless love which permits soul radiation to come out.
 
□ The aim of sadhana is realization. Most of the devotees do all their worship for worldly gains and for that they do Anusthan – a – disciplined package of enchanting. This intense to become a type of ritual oriented results of material things. Such way of worship does not help to grow spiritual power. Sadhana can only bring result when a long steady practice is done under the guidance of a Guru in most disciplined way.

◆ Every one who has chosen the field for spiritual developments, a wave of that discipline must spread. Diet control, chasticity in life, income, daily routine of life, expense, reading of good books, help to become soul conscious. Worship, exercise, helping others and like activities will have to be imposed on our-self strictly. Vices must be controlled. Restrain in life and adopting of good virtues must be the aim of everyone in this field of spirituality.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya

👉 बुद्ध शव देख कर हँसे

सुजाता ने खीर दी, बुद्ध ने उसे ग्रहण कर परम सन्तोष का अनुभव किया। उस दिन उनकी जो समाधि लगी तो फिर सातवें दिन जाकर टूटी। जब वे उठे, उन्हें आत्म- साक्षात्कार हो चुका था।

निरंजना नदी के तट पर प्रसन्न मुख आसीन भगवान् बुद्ध को देखने गई सुजाता बड़ी विस्मित हो रही थी कि यह सात दिन तक एक ही आसन पर कैसे यै बैठे रहे? तभी सामने से एक शव लिए जाते हुए कुछ व्यक्ति दिखाई दिये। उस शव कों देखते ही भगवान बुद्ध हँसने लगे।

सुजाता ने प्रश्न किया- ''योगिराज! कल तक तो आप शव को देखकर दुःखी हो जाते थे, आज वह दुःख कहाँ चला गया ?

भगवान् बुद्ध ने कहा- ''बालिके। सुख- दुःख मनुष्य की कल्पना मात्र है। कल तक जड़ वस्तुओं में आसक्ति होने के कारण यह भय था कि कहीं यह न छूट जाय,वह न बिछुड़ जाय। यह भय ही दु:ख का कारण था, आज मैंने जान लिया कि जो जड़ है, उसका तो गुण ही परिवर्तनशील है, पर जिसके लिए दुःख करते हैं, वह न तो परिवर्तनशील, न नाशवान्।  अब तू ही बता जो सनातन वस्तु पा ले, उसे नाशवान् वस्तुओं का क्या दुःख' ?

आत्मावलम्बन की उपेक्षा व्यक्ति को कहाँ से कहाँ पहुंचा देती है, इसके कई उदाहरण देखने को मिलते है। सद्गति का लक्ष्य समीप होते हुए भी ये अपने इस परम पुरुषार्थ की अवहेलना कर पतन के गर्त में भी जा पहुंचते है। अहंकार की उत्पत्ति व उसका उद्धत प्रदर्शन इसी आत्म तत्व की उपेक्षा की फलश्रुति है।

📖 प्रज्ञा पुराण भाग 1

👉 प्रज्ञा पुराण (भाग 1) श्लोक 78 से 80

जागृतात्मवतामेतं सन्देशं प्रापयास्तु मे।
नोपेक्ष्मोऽनुपम: काल: क्रियतां साहसं महत्॥७८॥
महान्तं प्रतिफलं लब्ध्वा कृतकृत्या भवन्तु ते।
जन्मन इदमेवास्ति फलमुद्देश्यरूपकम्॥७१॥
अग्रगामिन एवात्र प्रज्ञासंस्थान निर्मिती।
प्रज्ञाभियान सूत्राणां योग्या: संचालने सदा॥८०॥

टीका- अस्तु जागृत आत्माओं तक मेरा यह सन्देश पहुँचाना कि वे इस अनुपम अवसर की उपेक्षा न करें बड़ा साहस करें, बड़ा प्रतिफल अर्जित करके कृतकृत्य बनें। यही उनके जन्म का उद्देश्य है। जो अग्रगामी हों उन्हें प्रज्ञा संस्थानों के निर्माण तथा प्रज्ञा-अभियान के सूत्र संचालन में जुटाना ॥७८-८०॥

व्याख्या- जागृत आत्माएँ कभी अवसर नहीं चूकतीं। वे जिस उद्देश्य को लेकर अवतरित होती हैं, उसे पूरा किये बिना उन्हें चैन नहीं पड़ता। जागृत वे जो अदृश्य जगत में बह रहे प्रकृति प्रवाह को पहचानते हैं, परिवर्तन में सहायक बनते हैं। दूसरे जब आगे चलकर उन परिणामों को देखते हैं तो पछताते हैं कि हमने अवसर की उपेक्षा क्यों कर दी।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 प्रज्ञा पुराण (भाग १) पृष्ठ 33

👉 आत्मचिंतन के क्षण 30 March 2019

★ जो लोग सुखी हैं, सन्मार्गगामी और सदाचारी हैं, उन्हें किसी की सेवा की क्या जरूरत पड़ेगी? सहायता करने का पुण्य-परमार्थ तो आप उन्हीं व्यक्तियों के माध्यम से प्राप्त कर सकते हैं, जो पिछड़े हैं, दुःखी या पीड़ित हैं। वे अपने आपके लिए अभागे हो सकते हैं, पर आपका सौभाग्य ही है कि उन पीड़ितों के कारण आपके दयाभाव को विकसित होने और सेवा कार्य करने का अवसर मिला।

◆ हमें क्या अधिकार है कि पीड़ितों से इसलिए घृणा करें कि उनने कभी कोई भूल की होगी, जिसका दण्ड उन्हें मिल रहा है। हमें तो इतना ही सोचना चाहिए कि पीड़ितों के रूप में ईश्वर हमारी परीक्षा के लिए सामने आया है कि देखें हममें कुछ उदारता, दया, सहृदयता और नेक भावना शेष है या नहीं?

◇ अच्छाई इसलिए पनप नहीं पाती कि उसका शिक्षण करने वाले ऐसे लोग नहीं निकल पाते, जो अपनी एक निष्ठा के द्वारा दूसरों की अंतरात्मा पर अपनी छाप छोड़ सकें। अपने अवगुणों को छिपाने के लिए या सस्ती प्रशंसा प्राप्त करने के लिए धर्म का आडम्बर मात्र ओढ़ लेते हैं।

■ भूलकर भी मन में यह विचार मत आने दीजिए कि मनुष्य हाड़-मांस का एक पुतला है। पाप से उत्पन्न हुआ है और पाप में ही प्रवृत्त रहता है। यह विचार स्वयं ही एक बड़ा पाप है। अपने प्रति निकृष्ट दृष्टिकोण रखने वाला कभी भी उन्नतिशील नहीं हो सकता। उन्नति का आधार है अपने प्रति ऊँचा और पवित्र विचार रखना। मनुष्य की वास्तविकता यह है कि वह अखण्ड अगणित चेतना, अणु-परमाणुओं का सजीव तेज पुञ्ज है। असीम और अक्षय शक्तियों से भरा हुआ है। उसके आंतरिक कोषों और चक्रों में सारी सिद्धियाँ सोयी हुई हैं। ईश्वर का पुत्र और उसका प्रतिनिधि है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

शुक्रवार, 29 मार्च 2019

👉 आज का सद्चिंतन 29 March 2019


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 29 March 2019


👉 यज्ञ संस्कृति के पिता

जहाँ गायत्री को विश्वमाता कहा गया है वहाँ यज्ञ को देव संस्कृति-धर्म का पिता कहा गया है। दोनों के समन्वय-सहयोग से ही देव संस्कृति का जन्म, विकास एवं परिपोषण सम्भव हुआ।

'यज्ञ' में यज्ञीय भावनाओं के अभिवर्धन को बहुत महत्व दिया गया है। यज्ञ शब्द का भावार्थ है- पवित्रता, प्रखरता एवं उदारता। यह तत्वदर्शन व्यक्तिगत जीवन में भी समाविष्ट रहना चाहिए और उसे लोक व्यवहार में भी उत्कृष्टता की प्रथा-परम्परा जैसा प्रश्रय मिलना चाहिए। जीवन यज्ञ की चर्चा शास्त्रों में स्थान-स्थान पर हुई है। ब्रह्म यज्ञ, विश्वयज्ञ आदि नामों से समाज में यज्ञीय प्रचलन की प्रमुखता पर बल दिया है। पशु-प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाने, पतनोन्मुख प्रवाह को उत्कृष्टता की ओर मोड़ने के अनुबन्ध निर्धारण यज्ञ कहलाते हैं। इसी अवलम्बन के सहारे मानवी प्रगति सम्भव हुई है। वर्तमान की स्थिरता एवं उज्जवल भविष्य की सम्भावना भी इसी सदाशयता के अवलम्बन पर निर्भर रहेगी।

यज्ञ दर्शन को अपनाकर ही आज की संकीर्ण स्वार्थपरता से प्रचण्ड मोर्चा ले सकना सम्भव है। यज्ञ के साथ यही प्रेरणा जुड़ी है कि मन:क्षेत्र में घुसी निकृष्टता का निराकरण हो, व्यक्ति महान् एवं समाज सुसंस्कृत बने।

यज्ञ का अर्थ मात्र अग्निहोत्र नहीं, शास्त्रों में जीवन अग्नि की दो शक्तियाँ मानी गई है - एक 'स्वाहा' दूसरी 'स्वधा'। 'स्वाहा' का अर्थ है- आत्म-त्याग और अपने से लड़ने की क्षमता। 'स्वधा' का अर्थ है- जीवन व्यवस्था में 'आत्म-ज्ञान' को धारण करने का साहस।

लौकिक अग्नि में ज्वलन और प्रकाश यह दो गुण पाये जाते हैं। इसी तरह जीवन अग्नि में उत्कर्ष की उपयोगिता सर्वविदित है। आत्मिक जीवन को प्रखर बनाने के लिए उस जीवन अग्नि की आवश्यकता है। जिसे 'स्वाहा' और 'स्वधा' के नाम से, प्रगति के लिए संघर्ष और आत्मनिर्माण के नाम से पुकारा जाता है।

✍🏻 पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 प्रज्ञा पुराण भाग 1

👉 Amrit Chintan

■ The motto of our life our action and reaction must not be self centered but others welfare must also be considered. It must be constructive ans should not hurt others – anyway. Our life is a part of society and we owe society for its big share to develop the present civilization. Our development depends on the growth of the society we live. If we participate in the development of society with our utmost sincerity at individual level – we will create heaven on earth.
 
□ Society grows and develops it’s– culture and establish its civilization by a collective efforts of the individuals of the society. But our all abilities status, position must also be used to help downtrodden people and impart help to those who are trying to stand on their feet. Only then we are making proper use of our life given by the creator. This way our all habits and actions should not be individualistic but for others too. The philosophy of our life must be so that we are for others too. The interest and welfare of masses must be the aim of our life.

◆ To develop greatness in life is to leave an example on the hearts of people for ages, we will have to develop own will power. A constant divine light in yourself must guide you. It is that divine light which every man has. One can successfully overpower all sorts of hurdles in life. A firm believes on self – the purest and sacred most consciousness of yours – is the secret to lead you the true success is life and also to achieve greatness – the excellence of life.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya

👉 प्रज्ञा पुराण (भाग 1) श्लोक 72 से 75

प्रज्ञापीठस्वरूपेषु युगदेवालया भुवि।
भवन्तु तत एतासां सृज्यानामथ नारद ॥७२॥
सूत्रं संस्कारयोग्यानां प्रवृत्तीनां च सञ्चलेत्।
नृणां येन स्वरूपं च भविष्यत्संस्कृतं भवेत् ॥७३॥
सहैव पृष्ठभूमिश्च परिवर्तनहेतवे।
निर्मिता स्याद् युगस्यास्तु संधिकालस्तु विंशति: ॥७४॥
वर्षाणां, सुप्रभातस्य वेलाऽऽवर्तनं हेतुका।
अवाञ्छनीयताग्लानि: सदाशयविनिर्मिति" ॥७५॥

टीका- हे नारद ! युग देवालय, प्रज्ञापीठों के रूप में बनें। वहाँ से सृजनात्मक और सुधारात्मक सभी प्रवृत्तियों का सूत्र-संचालन हो, जिससे मनुष्य का स्वरूप एवं भविष्य सुधरे, साथ ही महान् परिवर्तन के लिए आवश्यक पृष्ठभूमि भी बनने लगे। युग-सन्धि के ये वर्ष प्रभात की परिवर्तन बेला की तरह है। इसमें अवाञ्छनीयता की गलाई और सदाशयता की ढलाई होगी।

व्याख्या- नये युग में इन्हीं प्रज्ञा की अधिष्ठात्री गायत्री के मन्दिर और यज्ञ शालाएँ बननी चाहिए। उन्हीं के माध्यम से रचनात्मक कार्य चलने चाहिए। महामना मदनमोहन मालवीय कहा करते थे-

ग्रामें ग्रामे सभाकार्या: ग्रामेग्रामे कथाशभा:। पाठशाला, मल्लशला, प्रतिपर्वा महोत्सवा:॥

अर्थात् गाँव-गाँव ऐसे देवमन्दिर रहे जहाँ से न्याय, पर्व-संस्कार मनाने, विद्याध्ययन, आरोग्य सम्वर्धन के क्रिया कृत्य चलते रहें। केवल मन्दिरों से काम चलेगा नहीं।

आद्य शंकराचार्य ने जब मान्धाता से यही बात कही तो उन्होंने चार धामों की स्थापना के लिए अपना अंदाय भण्डार खोल दिया। इन तीर्थो के माध्यम से धर्म-धारणा विस्तार की कितनी बड़ी सेवा हुई है-
इसका मूल्यांकन नहीं किया जा सकता।

मन्दिर मात्र पलायनवादी श्रद्धा नहीं, कर्म योगी निष्ठा जगायें तो ही उनकी सार्थकता है।

जब इन देवालयों से, जनजागृति केन्द्रों के माध्यम से सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन की गतिविधियाँ चलने लगेंगी, तो जन-जन में प्रखरता का उदय होगा तथा परिवर्तन के दृश्य सुनिश्चित रूप से दिखाई पड़ने लयोंगे। प्रस्तुत समय संधिवेला का है। आज संसार के सभी विद्धान, ज्योतिर्विद, अतीन्द्रिय दृष्टा इस सम्बन्ध में एक मत हैं कि युग परिवर्तन का समय आ पहुँचा। परिस्थितियों की विषमता अपनी चरम सीमा पर है। ऐसे में इन युग देवालयों की भूमिका अपनी जगह बड़ी महत्वपूर्ण है।

सूरदास ने लिखा है-
'एक सहस्र नौ सौ के ऊपर ऐसी योग परै। सहस्र वर्ष लौं सतयुग बीते धर्म की बेलि बढ़े ॥'

अर्थात् ११ वीं शताब्दी के अन्त में ऐसा ही परिवर्तन होगा जिसके बाद सहस्रों वर्षों के लिए धर्म का, सुख-शांति का राज्य स्थापित होगा।

संक्रमण वेला में किस प्रकार की परिस्थितियाँ बनती और कैसे घटनाक्रम घटित होते हैं, इसका उल्लेख महाभारत के वन पर्व में इस प्रकार आता है-

ततस्तु भूले संघाते वर्तमाने युग क्षये। यदा चन्द्रस्य सूर्यस्य तया तस्य बृहस्पति: ॥ एकराशौ समेष्यन्ति प्रयत्स्यति तदा कृतम्। कालवर्षी च पर्जन्यो नक्षत्राणि शुभानि च ॥ क्षेमं सुभिक्षमारोग्यं भविष्यति निरामयम्॥

अर्थात्- जब एक युग समाप्त होकर दूसरे युग का प्रारम्भ होने को होता है, तब संसार में संघर्ष और तीव्र हलचल उत्पन्न हो जाती है। जब चन्द्र, सूर्य, बृहस्पति तथा पुष्य नक्षत्र एक राशि पर जायेंगे तब सतयुग का शुभारम्भ होगा। इसके बाद शुभ नक्षत्रों की कृपा वर्षा होगी। पदार्थो की वृद्धि से सुख-समृद्धि, लोग स्वस्थ और प्रसन्न होने लगेंगे।

इस प्रकार का ग्रह योग अभी कुछ समय पहले ही आ चुका है। अन्याय गणनाओं के आधार पर भी यही समय है।

विशिष्ट अवसरों को आपत्तिकाल कहते हैं और उन दिनों आपत्ति धर्म निभाने की आवश्यकता पड़ती है। अग्निकाण्ड, दुर्घटना, दुर्भिदा, बाढ़, भूकम्प, युद्ध, महामारी जैसे अवसरों पर सामान्य कार्य छोड़कर भी सहायता के लिए दौड़ना पढ़ता है। छप्पर उठाने, धान रोपने, शादी-खुशी में साथ रहने, सत्प्रयोजनों का समर्थन करने के लिए भी निजी काम छोड़कर उन प्रयोजनों में हाथ बँटाना आवश्यक होता है। युग सन्धि में जागरूकों को युग धर्म निभाना चाहिए। व्यक्तिगत लोभ, मोह को गौण रखकर विश्व संकट की इन घड़ियों में उधस्तरीय कर्त्तव्यों के परिपालन को प्रमुख प्राथमिकता देनी चाहिए। यही है परिवर्तन की इस प्रभात वेला में दिव्य प्रेरणा, जिसे अपनाने में हर दृष्टि से हर किसी का कल्याण है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 प्रज्ञा पुराण (भाग १) पृष्ठ 31

गुरुवार, 28 मार्च 2019

👉 आज मानवता रो रही है। (अन्तिम भाग)

जातिवाद

हिन्दू समाज का जातिवाद शोषण का एक और कारण है। इसका प्रारम्भ वर्ण व्यवस्था से किया गया था। वर्ण व्यवस्था पेशों को दृष्टि में रखकर सुविधा के कारण हुई थी। उसमें ऊँच नीच, छूतछात, ऊँचाई निचाई की संकुलित भावनाएँ न थीं। धीरे-धीरे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र जन्मजात वर्ण बन गए और प्रत्येक वर्ण की अनेक उपजातियाँ बन गई। धीरे धीरे एक जाति के लोगों ने दूसरी जाति के खानपान, रोटी बेटी के व्यवहार बन्द किए। एक दूसरे के प्रति घृणा, वैर, ऊँच नीच के विचार आ गए। ऊँची कहलाने वाली जातियाँ नीची कहलाने वाली जातियों पर अत्याचार, आर्थिक शोषण और छूतछात के विचार रखने लगीं। जाति वाद के अत्याचारों, संकुचिता, शोषण, बहिष्कार के कारण हमारा देश हजारों वर्ष तक गुलाम रहा। एक जाति और वर्ण के व्यक्ति दूसरी जाति या वर्ण के लोगों को नीचा दिखाने में ही शान समझते रहे। जातिवाद के अत्याचारों के कारण हिंदू समाज का छोटा, नीच, दबा, पिसा और शोषित हिंदू शूद्र हिंदू तिरस्कार छूतछात, हीनत्व तथा हेटेपन का जीवन व्यतीत कर रहा है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि मानव समूहों में हो रहे कठोर तम शोषण और संघर्षों के प्रधान कारण तीन रहे हैं। (1) अर्थनीतिक, (2) वर्ग या जातिगत और (3) मत या धर्म गत। प्रथम महायुद्ध में अर्थनीतिक कारण था, दूसरे में अर्थनीतिक के साथ साथ मत सम्बन्धी भी कारण संयुक्त हो रहे थे। यदि भविष्य में तृतीय महायुद्ध हुआ तो उसमें अर्थनीतिक, जाति तथा मत वैषस्य-ये तीनों ही कारण मौजूद होंगे।

आज विश्व की विचित्र दशा है। शैतानी, आसुरी, पैशाचिक शक्तियों ने मनुष्य को उसके दैवी स्वभाव तथा जन्म सिद्ध पवित्र अधिकारों से वंचित कर दिया है। अज्ञान, अविवेक, प्रलोभन, स्वार्थ, नैराश्य, संकीर्णता, ने उसकी दिव्य दृष्टि का अपहरण करके उसे क्रूर, कुकर्मी, हिंसक, हत्यारा, धूर्त, मूर्ख, पाखण्डी, एवं मोहग्रस्त बना दिया है। सृष्टि का मुकुटमणि, धर्म को धारण करने वाला महा मानव-आज निरीह एवं असहाय की तरह दुख दारिद्र की शैतानी षड़यंत्र की चक्की में पिस रहा है। हा, हन्त!

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1953 पृष्ठ 6
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1953/January/v1.6

👉 आज का सद्चिंतन 28 March 2019

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 28 March 2019


👉 Amrit Chintan

■ When one’s Soul attain oneness with super-consciousness or God, it means that beastile behavior (selflessness) gets change into divinity, the beggar becomes a donor and so on. This type of change in human nature is known as unity with God – vilay, visarjan and sharnagati or total surrender to God. At that level the devotee and God become one or adwait i.e. oneness (no two).
 
□ The Omnipresent God - is a law, a system, which controls the entire creation, Existence of all – animates and in-animates are under that system. Any one who does not follow – gets destroyed. If we can assure our-self to this law and follow we are true devotee to God.

◆ Love is a great force of attraction which moves a man towards God. Then he will love every creature of the universe. It means now he truly believe presence of invisible God visible in every body. God is always with him. Love is God and God is love, that is all you know and you need to know. This practice of love for all is easiest and blissful worship of God.

◇ Science of Spirituality is the way to achieve the true wisdom of life. It is that path which leads to make the proper use of this finest gift of the creator. If God’s worship does not take care of his own life – it is a waste of time in – worship.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya

👉 प्रज्ञा पुराण (भाग 1) श्लोक 69 से 71


धर्मस्य चेतनां भूयो जीवितां कर्तुमद्य तु।
अधिष्ठात्रीं युगस्यास्य महाप्रज्ञामृतम्भराम्॥६९॥
गायत्रीं लोकचित्ते तां कुरु पूर्णाप्रतिष्ठिताम् ।
पराक्रमं च प्रखरं कर्तुं सर्वत्र नारद ॥७०॥
पवित्रतोदारतां तु यज्ञजां च प्रचण्डताम्।
प्रखरां कर्तुमेवाद्यानिवार्यं मन्यतां त्वया ॥७१॥

टीका- आज धर्मचेतना को पुनर्जीवित करने के लिए इस युग की अधिष्ठात्री महाप्रज्ञा ऋतम्भरा गायत्री को लोकमानस में प्रतिष्ठित किया जाय। हे नारद! पराक्रम की प्रखरता के लिए सर्वत्र यज्ञीय पवित्रतार उदारता एवं प्रचंडता को प्रखर करने की आवश्यकता है॥६९-७१॥

व्याख्या- महाप्रज्ञा को अध्यात्म की भाषा में गायत्री कहते हैं, इसके दो पथ हैं-एक दर्शन अर्थात् तत्वचिंतन-अध्यात्म, दूसरा व्यवहार अर्थात् शालीनता युक्त आचरण-धर्म। महाप्रज्ञा की परिणति अन्त:क्षेत्र में प्रतिष्ठित होने पर साधक के व्यक्तित्व में आमूल-चूल परिवर्तन ला देती है। आत्मिक विभूतियाँ-ऋद्धियाँ तथा लोक व्यवहार में प्राप्त सम्पदा-सिद्धियाँ इसी के तत्व चिन्तन का प्रतिफल हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 प्रज्ञा पुराण (भाग १) पृष्ठ 26-27

बुधवार, 27 मार्च 2019

👉 संघर्ष करना सिखाइए

बाज पक्षी जिसे हम ईगल या शाहीन भी कहते है। जिस उम्र में बाकी परिंदों के बच्चे चिचियाना सीखते है उस उम्र में एक मादा बाज अपने चूजे को पंजे में दबोच कर सबसे ऊंचा उड़ जाती है। पक्षियों की दुनिया में ऐसी Tough and tight training किसी भी ओर की नही होती।

मादा बाज अपने चूजे को लेकर लगभग 12 Km ऊपर ले जाती है। जितने ऊपर अमूमन जहाज उड़ा करते हैं और वह दूरी तय करने में मादा बाज 7 से 9 मिनट का समय लेती है।

यहां से शुरू होती है उस नन्हें चूजे की कठिन परीक्षा।

उसे अब यहां बताया जाएगा कि तू किस लिए पैदा हुआ है?

तेरी दुनिया क्या है?

तेरी ऊंचाई क्या है?

तेरा धर्म बहुत ऊंचा है

और फिर मादा बाज उसे अपने पंजों से छोड़ देती है।

धरती की ओर ऊपर से नीचे आते वक्त लगभग 1 Km उस चूजे को आभास ही नहीं होता कि उसके साथ क्या हो रहा है।

6 Km के अंतराल के आने के बाद उस चूजे के पंख जो कंजाइन से जकड़े होते है, वह खुलने लगते है।

लगभग 8 Km आने के बाद उनके पंख पूरे खुल जाते है। यह जीवन का पहला दौर होता है जब बाज का बच्चा पंख फड़फड़ाता है।

अब धरती से वह लगभग 1000 मीटर दूर है ,लेकिन अभी वह उड़ना नहीं सीख पाया है। अब धरती के बिल्कुल करीब आता है जहां से वह देख सकता है उसके स्वामित्व को।

अब उसकी दूरी धरती से महज 700/800 मीटर होती है लेकिन उसका पंख अभी इतना मजबूत नहीं हुआ है की वो उड़ सके।

धरती से लगभग 400/500 मीटर दूरी पर उसे अब लगता है कि उसके जीवन की शायद अंतिम यात्रा है। फिर अचानक से एक पंजा उसे आकर अपनी गिरफ्त मे लेता है और अपने पंखों के दरमियान समा लेता है।
यह पंजा उसकी मां का होता है जो ठीक उसके उपर चिपक कर उड़ रही होती है और उसकी यह ट्रेनिंग निरंतर चलती रहती है जब तक कि वह उड़ना नहीं सीख जाता।

यह ट्रेनिंग एक कमांडो की तरह होती है। तब जाकर दुनिया को एक बाज़ मिलता है अपने से दस गुना अधिक वजनी प्राणी का भी शिकार करता है।

हिंदी में एक कहावत है... "बाज़ के बच्चे मुँडेर पर नही उड़ते।"

बेशक अपने बच्चों को अपने से चिपका कर रखिए पर... उसे दुनियां की मुश्किलों से रूबरू कराइए, उन्हें लड़ना सिखाइए। बिना आवश्यकता के भी संघर्ष करना सिखाइए।

अपने बच्चे को राष्ट्र व धर्म की रक्षा के लिए सदैव तैयार रहना.. सिखाईये .. आसान रास्तों के लिए गद्दार मुंडेरो पर नहीं .. देशभक्ति का संकल्प लेकर एक अनन्त  ऊंचाई तक ले जायें ...

ये TV के रियलिटी शो और अंग्रेजी स्कूल की बसों ने मिलकर आपके बच्चों को "ब्रायलर मुर्गे" जैसा बना दिया है जिसके पास मजबूत टंगड़ी तो है पर चल नही सकता। वजनदार पंख तो है पर उड़ नही सकता क्योंकि...

"गमले के पौधे और जंगल के पौधे में बहुत फ़र्क होता है।"

👉 आज का सद्चिंतन 27 March 2019


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 27 March 2019


👉 आज मानवता रो रही है।

अपने समस्त ज्ञान, वैज्ञानिक अनुसंधान, खोज, बड़े-बड़े इंजीनियरिंग, चिकित्साशास्त्र तथा भौतिक समृद्धि के साधनों के बावजूद हम देखते हैं कि आधुनिक मनुष्यों में से मनुष्यत्व का पतन हो रहा है। उनकी मानवता का क्रमशः ह्रास होता जा रहा है। जिस चीज को हम “आदमीयत” कह कर गर्व करते हैं, वह निरन्तर क्षय होती जा रही है। मनुष्य “मनुष्य” का शत्रु हो गया है। सभ्यता का ढोंग चढ़ा कर, सफेद कपड़ों की आड़ में, वह ऐसे दुष्कर्म कर रहा है, जिन्हें देखकर उसे शैतान या हैवान ही कहना पड़ता है। मनुष्य के अन्दर बर्बर युग से सोया हुआ हैवान या शैतान जैसे आज जागृत हो गया है।

आज के दो वर्ग
आज का सम्पूर्ण संसार मोटे तौर पर दो बड़े भागों में विभक्त किया जा सकता है। (1) शोषक अर्थात् वह वर्ग जो आध्यात्मिक नैतिक, ज्ञान-विज्ञान की शक्तियों से शासन का आनन्द भोग रहा है। यह वर्ग हर प्रकार की ऐश-आराम, विलास का जीवन व्यतीत करता है, आज के अन्य सदस्यों द्वारा अर्जित खाद्य पदार्थों, भौतिक साधनों दैनिक व्यवहारों की चीजों की प्रचुरता का आनन्द लेता है। कल कारखाने, वायुयान, रेल, जहाज, लोहे के हथियार और औद्योगिक संस्थाओं, जमींदारों की बागडोर हाथ में है। उसे रुपये का घमण्ड है, विज्ञान द्वारा दिये गये भौतिक आनन्दों, प्रभुता, मद, ज्ञान विज्ञान का अभिमान है, मशीनों पर विश्वास है, एटम की शक्ति है। यह पूँजी पतियों का वर्ग है। इस वर्ग में बड़े बड़े अमीर, सत्ताधारी, ब्रह्मवादी, रूढ़िवादी क्षत्रिय, जागीरदार अमीर वैश्य, मठाधारी, मन्दिरों के पुरोहित, पंचायत के पंच लोग, बड़े अफसर पूँजीवादी राजनैतिक पार्टियों के प्रतिनिधि आदि सम्मिलित हैं।

दूसरा वर्ग शोषितों का है। इस वर्ग में दीन हीन गरीब मजदूर, किसान, मिलों फैक्ट्रियों में मजदूरी करने वाले, शूद्र, भंगी, चाण्डाल, चमार, होटलों, रेस्टोराँ, मोटर, रेल, सिनेमा में काम करने वाले नौकर इत्यादि अनेक प्रकार के व्यक्ति सम्मिलित हैं। पहले वर्ग की अपेक्षा इस वर्ग में अधिक व्यक्ति आते है। इसमें अछूत जातियों के लोग भी सम्मिलित हैं, जिनका कार्य उच्च वर्ग की चाकरी कर पेट पालना है। इन लोगों की गुलामी दो कारणों से हुई है-एक तो ये आर्थिक दृष्टि से दीन हीन हैं, दूसरे धर्म ग्रन्थों की आड़ में शिक्षा और सुविधाएं न देकर तलवार, लाठी, डंडों के बल इन्हें पनपने नहीं दिया गया है। उच्च वर्ग के इन्हें गुलाम बना कर इन्हें नौकरी चाकरी, घरों की सफाई, मल विष्ठा मूत्र से भरी नालियों की सफाई, उनकी स्त्रियों को विलास और मनोरंजन की वस्तु समझ कर सदियों इन्हें पशुत्व की कोटि में रखा है। इस वर्ग का निरन्तर शोषण होता रहा है। इस प्रकार हमारे समाज का आधा अंग पशुवत् अज्ञान, अशिक्षा, रूढ़िवादिता, भेदभाव, अहंकार असमर्थता में पड़ा हुआ शोषित हो रहा है।

अज्ञानान्धकार का पाप
आज के युग के भौतिक सुखों, आश्चर्यचकित कर देने वाली सुविधाओं, विलास और आराम की वस्तुओं की चर्चा की जाती है। किन्तु खेद है कि इतनी प्रचुरता में भी शोषित वर्ग में गरीबी, दुःख, अज्ञान और भयंकर भुखमरी है, इतने विस्तार और मुक्त वायु के बीच भी रोग, अशुचिता, गंदगी दयनीयता और बेबसी है, इतनी शिक्षा सुविधाओं के मध्य भी रूढ़ि जाति पांति, धर्मान्धता, दुराचार, अपहरण और अज्ञानान्धकार का साम्राज्य फैला हुआ है। हम सब मनुष्य कहलाते हुए भी दूसरे मनुष्य को छूने, प्यासे को पानी पिलाने में भूखे को अन्न देने में, बीमार की सुश्रूषा करने में सकुचाते हैं।

बिल्ली, कुत्ते का मुख चूमने में हमें कोई संकोच नहीं होता, किन्तु मनुष्य रूप में करोड़ों भारत संतानों का-शूद्र, चाण्डाल, म्लेच्छ, भंगी, चमार का स्पर्श करते हुए हमारा धर्म नष्ट होने लगता है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1953 पृष्ठ 5
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1953/January/v1.5

👉 Amrit Chintan

■ Your character is reflected in the reaction of people around you. One’s progress depends on this reaction of your sub-ordinates, officers, clients and those who get concerned to you. Because the persons and society observes your all actions and reactions. The true personality is not only your courteous behavior but the personality waves radiate both from your subtler body also, which they read.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 Vangmay-42, P-2.19
 
□ The path followed by great men of the time show us the right way of living. If we follow them we will also attain the same aim of life as they could. Success of our life and wisdom can be attained on their guidance. Our life should not be like depressed, pessimistic or like those who are totally materialistic. We should not be hippocratic either in our talks and actions. That is our show of life totally different then what we are.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 Akhandjyoti, May, 1976

◆ We should work hard for our progress in life, but should not disturbed in our present situation. Money is not everything in life. If we develop our nature and behavior and create an atmosphere of happiness by sharing and caring for other. We can enjoy the bliss of life.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 Akhandjyoti 1986, Jan

👉 झरने तक उतरकर प्यास बुझाई

तीन पथिक पहाड़ी की ऊपरी चोटी पर लम्बा रास्ता पार कर रहे थे। धूप और थकान से उनका मुँह सूखने लगा। प्यास से व्याकुल हो उनने चारों और देखा पर वहाँ पानी न था। एक झरना बहुत गहराई में नीचे बह रहा था।  एक पथिक ने आवाज लगाई- ' हे ईश्वर। सहायता कर हम तक पानी पहुँचा। दूसरे ने पुकारा -'हे इन्द्र। '' मेघ माला ला और जल वर्षा।'' तीसरे पथिक ने किसी से कुछ नहीं माँगा और चोटी से नीचे उतर तलहटी में बहने वाले झरने पर जा पहुँचा और भरपूर प्यास बुझायी। दो प्यासे की आवाजें अभी भी सहायता के लिए पुकारती हुई पहाड़ी को प्रतिध्वनित कर रही थीं, पर जिसने आत्मावलम्बन का साहस किया वह तृप्ति लाभ कर फिर आगे बढ़ चलने में समर्थ हो गया।

आत्मज्ञान की प्राप्ति के बाद ऐसी स्थिति आती है जिसे शाश्वत आनन्द की चरम उपलब्धि कहा जा सकता हैं।

📖 प्रज्ञा पुराण भाग 1

👉 प्रज्ञा पुराण (भाग 1) श्लोक 65 से 68

उवाच विष्णुर्ज्ञानार्थं कथा प्रज्ञापुराणजा।
विवेच्या, कर्मणे प्रज्ञाभियानस्य विधिष्वलम्॥६५॥
विधयोऽस्य च स्वीकर्तुं प्रगल्भान्प्रेरयानिशम्।
युगस्य सृजने सर्वे सहयोगं ददत्वलम् ॥६६॥
यथातथा विवोध्यास्ते भावुका अंशदायिन।
समयस्य च दातार: सोत्साहा उस्फुरन्तु यत् ॥६७॥
संयुक्तशक्त्या श्रेष्ठानां दुर्गावतरणोज्ज्वला।
प्रचण्डता समुत्पन्ना समस्या दूरयिष्यति॥६८॥

टीका- विष्णु भगवान् ने कह-ज्ञान के लिए प्रज्ञा पुराण का कथा विवेचन उचित होगा और कर्म के लिए प्रज्ञा अभियान की बहुमुखी गतिविधियों में से प्रगल्भों को उन्हें अपनाने की प्रेरणा निरन्तर देनी चाहिए। युग सृजन में सहयोग करने के लिए सभी भावनाशीलों में समय दान, अंशदान की उमंग उभारनी चाहिए। वरिष्ठों की इस संयुक्त शक्ति से ही दुर्गावतरण जैसी प्रचण्डता उत्पन्न होगी और युग समस्याओं के निराकरण में समर्थ होगी॥६५-६८॥

व्याख्या- युग चेतना को व्यापक करने के बाद कर्म में प्रवृत्त होने के लिए भगवान प्रगल्भों की चर्चा करते हैं। प्रगल्भ अर्थात् साहसी। ऐसे शूरवीर जो सत्प्रयोजनों के लिए कमर कस कर तैयार हो जायें।

अवतारों में उच्चस्तरीय वे ही माने जाते हैं जिनमें सन्त सी पवित्रता, सुधारक सी प्रखरता के साथ ऋषियों जैसी तत्व दृष्टि होती है। वे उत्कृष्टता को समर्पित होते हैं। अहंता के परिपोषण में लगने वाली शक्ति समर्पण के बाद उनके पास इतनी अधिक मात्रा में बच जाती है जिसके आधार पर सामान्य व्यक्ति भी असामान्य काम कर दिखाते हैं। भगवान कृष्ण, राम, ईसा, दयानन्द, गाँधी, गुरुगोविन्दसिंह, बुद्ध, मीरा, शंकराचार्य, ज्ञानेश्वर, समर्थ रामदास ऐसे जीते जागते प्रमाणों में से हैं, जिन्होंने प्रतिकूलता से जूझने का साहस दिखाया व सत्प्रयोजन में लगने के लिए असंख्यों को प्रेरित किया।

ऐसे व्यक्तियों का संगठन तो वह प्रचण्ड चमत्कार कर दिखाता है जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकी।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 प्रज्ञा पुराण (भाग १) पृष्ठ 26-27

सोमवार, 25 मार्च 2019

👉 तैरिये यही जीवन है:-

एक दिन एक लड़का समुद्र के किनारे बैठा हुआ था। उसे दूर कहीं एक जहाज लंगर डाले खड़ा दिखाई दिया। वह जहाज तक तैर कर जाने के लिए मचल उठा। तैरना तो जानता ही था, कूद पड़ा समुद्र में और जहाज तक जा पहुंचा।

उसने जहाज के कई चक्कर लगाए। विजय की खुशी और सफलता से उसका आत्मविश्वास और बढ़ गया लेकिन जैसे ही उसने वापस लौटने के लिए किनारे की तरफ देखा तो उसे निराशा होने लगी। उसे लगा कि किनारा बहुत दूर है।

वह सोचने लगा, वहां तक कैसे पहुंचेगा? हाल में मिली सफलता के बाद अब निराशा ऐसी बढ़ रही थी कि स्वयं पर अविश्वास-सा हो रहा था। जैसे-जैसे उसके मन में ऐसे विचार आते रहे, उसका शरीर शिथिल होने लगा। फुर्तीला होने के बावजूद बिना डूबे ही वह डूबता-सा महसूस करने लगा ।

लेकिन जैसे ही उसने संयत होकर अपने विचारों को निराशा से आशा की तरफ मोड़ा, क्षण भर में ही जैसे कोई चमत्कार होने लगा। उसे अपने भीतर त्वरित परिवर्तन अनुभव होने लगा। शरीर में एक नई ऊर्जा का संचार हो गया। वह तैरते हुए सोच रहा था कि किनारे तक न पहुंच पाने का मतलब है, मर जाना और किनारे तक पहुंचने का प्रयास है, डूब कर मरने से पहले का संघर्ष।

इस सोच से जैसे उसे कोई संजीवनी ही मिल गई। उसने सोचा कि जब डूबना ही है तो फिर सफलता के लिए संघर्ष क्यों न किया जाए।

उसके भीतर के भय का स्थान विश्वास ने ले लिया। इसी संकल्प के साथ वह तैरते हुए किनारे तक पहुंचने में सफल हो गया। इस घटना ने उसे जीवन की राह में आगे चल कर भी बहुत प्रेरित किया। यही लड़का आगे चल कर विख्यात ब्रिटिश लेखक मार्क रदरफोर्ड के नाम से जाना गया।

👉 ईश्वर प्राप्ति कठिन नहीं, सरल है।

ईश्वर की प्राप्ति सरल है क्योंकि वह हमारे निकटतम है। जो वस्तु समीप ही विद्यमान है, उसे उपलब्ध करने में कोई कठिनाई क्यों होनी चाहिए? ईश्वर इतना निष्ठुर भी नहीं है जिसे बहुत अनुनय विनय के पश्चात् ही मनाया या प्रसन्न किया जा सके। जिस करुणामय प्रभु ने अपनी महत्ती कृपा का अनुदान पग-पग पर दे रखा है, वह अपने किसी पुत्र को अपना साक्षात्कार एवं सान्निध्य प्राप्त करने में वंचित रखना चाहे, उसकी आकाँक्षा में विघ्न उत्पन्न करे वह हो ही नहीं सकता।

हमारे और ईश्वर के बीच में संकीर्णता एवं तुच्छता का एक छोटा-सा पर्दा है। जिसे माया का अज्ञान कहते हैं- प्रभु प्राप्ति में एक मात्र अड़चन यही है। इस अड़चन को दूर कर लेना ही विविध आध्यात्म साधनाओं का उद्देश्य है। तृष्णा और वासनाओं के तूफान में मनुष्य की आध्यात्मिक आकाँक्षाएं धूमिल हो जाती हैं। अस्तु वह जीवन-निर्माण एवं आत्म-विकास के लिए न तो ध्यान दे पाता है और न प्रयत्न कर पाता है। आज के तुच्छ स्वार्थों में निमग्न लोभी मनुष्य भविष्य को उज्ज्वल बनाने के लिए तत्पर नहीं होता। अहंकार और अदूरदर्शिता को यदि छोड़ा जा सके, अपने-पन का दायरा बड़ा बनाकर यदि लोक हित को अपना हित मानने का साहस किया जा सके तो इतने- से ही ईश्वर प्राप्ति हो सकती है। ओछी आकाँक्षाएँ और संकीर्ण कामनाओं से ऊँचे उठकर यदि इस विशाल विश्व में अपनी आत्मा का दर्शन किया जा सके-औरों को सुखी बनाने के लिये भी यदि आत्म-सुख की तरह प्रयत्नशील रहा जा सके तो ईश्वर की प्राप्ति किसी को भी हो सकती है कठिन आत्म-चिन्तन ही ईश्वर साक्षात्कार नहीं।

महर्षि रमण
📖 अखण्ड ज्योति दिसम्बर 1964 पृष्ठ 1

👉 आज का सद्चिंतन 25 March 2019


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 25 March 2019


👉 Amrit Chintan

■ Try to visualize your own thoughts of mind. Analyze them. It’s most sacred form is covered by some evil and polluted coats. Try to work on them. You will be able to find the sacred component and an eternal peace in it. It is something like water; any pollution in water can be separated out as it is always outside the molecule of water. H2O, the Fractional distillation will always remove pollution and clear colorless, tasteless, odorless, specific gravity on water will be collected by cooked steam. The thoughts should be directed towards God- Who is embodiment of truth and ideality. It needs constant vigilance and practice. This is true divine nature of man. Which is true spirituality, religion is sectism which we have created. 
 
□ The true happiness is in which mind becomes one with soul. Mind is operation of brain and soul is purest form of mind or sacred consciousness. In the language of Yoga that is when mind acts as a soul the God consciousness. This is true yoga. This union of soul and mind is known as highest bliss. Salvation, God realization, ultimate the highest pleasure and bliss beyond any imagination of material pleasure of the world.

◆ We must love our younger and pay our respects and regards to elders. Our attitude can keep your position safe. Every man at the lowest level of society keeps an impression of highest esteem for the self-disrespect of his vices and weakness. A feeling of his own honesty, sacredness, nobility and sincerity always exists in his mind. Really that proves the concept of solid water molecule H2O is always conscious of its purity inside. Remove pollution outside the molecule configuration.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya

👉 बढ़ता चल

''एक लकड़हारा जंगल से लकड़ी काटकर किसी प्रकार दु :ख और कष्ट सहते हुए अपने दिन व्यतीत करता था। एक दिन वह जंगल से पतली-पतली लकड़ी सिर पर ला रहा था की अकस्मात् कोई मनुष्य उसी रास्ते सें जाते- जाते उसे पुकार कर बोला- "बच्चा, आगे बढ़ जा।'' दूसरे दिन वह लकड़हारा उस मनुष्य की बात याद कर कुछ आगे बढ़ा तो मोटी- मोटी लकड़ियों का जंगल उसको दीख पड़ा। उस दिन उससे जहाँ तक बना लकड़ी काट लाया और बाजार में बेचकर उसने पहले दिन से अधिक पैसा कमाया। तीसरे दिन फिर मन में विचार करने लगा- "उस महात्मा ने तो मुझे आगे बढ जाने 'को कहा था। भला आज और थोड़ा आगे बढ़कर तो 'देखूं।'' यह सोचकर वह आगे बढ़ गया और उसे एक चन्दन का वन दिखाई पड़ा। उस दिन उसने चन्दन की लकड़ी बेचकर बहुत रुपये कमाये। दूसरे दिन उसने फिर मन में विचार किया कि मुझे तो उन्होंने आगे ही जाने को कहा है, यह विचार कर और आगे जाकर उस दिन उसने तांबे की खान पाई। वह यहाँ पर न रुककर प्रतिदिन आगे ही बढ़ता गया, और क्रमश: चांदी, सोने और हीरे की खान पाकर बड़ा धनवान् हो गया। धर्म मार्ग में भी इसी प्रकार होता है।

''आत्मिक क्षेत्र में आदमी को कभी भी रुकना नहीं चाहिए। उस साधु ने जो आगे बढ़ने की शिक्षा दी थी, उसका मर्म था- रुक मत, चलता जा, जब तक गन्तव्य तक न पहुँच जाय। अपने अन्दर झाँक व तब तक आत्मावलोकन, विश्लेषण, मनन कर जब तक प्रगति की राह न दिखाई पड़े। थोड़ी- बहुत ज्योति आदि का दर्शन कर यह मत समझो कि तुम्हें सिद्धि मिल गयी, मोक्ष प्राप्त हो गया। इस सम्बन्ध में सन्त कबीर का कथन सही है-

कस्तूरी कुण्डल बसे, मृग दूँढ़े वन माँहि। ऐसे सट- सट राम हैं, दुनियाँ देखे नाँहि।
तेरा साईं तुझ्झ में, जस पुहुपन  में वास। कस्तूरी का हिरण ज्यों, फिर- फिर ढूँढ़त घास।
आत्मावलम्बी किसी अनुग्रह, वरदान की प्रतीक्षा नहीं करते, न ही याचना। वरन् प्रगति का पथ स्वयं बनाते है, अपनी सहायता आप करते है।

📖 प्रज्ञा पुराण भाग 1

👉 प्रज्ञा पुराण (भाग 1) श्लोक 63 से 64

उवाच नारदो देव ! वाच्य: श्राव्यस्लयं मत:।
ज्ञानपक्ष: पूरकं तं कर्मपक्षं विवोधय॥६३॥
कर्त्तव्यं यद्यदन्यैश्चाप्यनुष्ठेयं, समग्रता ।
उत्पद्यते द्वयोर्ज्ञानकर्मणोस्तु समन्वयात्॥६४॥

टीका- नारद बोले-'यह ज्ञान पक्ष हुआ, जिसे कहा या सुना जाता है। अब इसका पूरक कर्मपक्ष बताइये, जो करना और कराना पड़ेगा। ज्ञान और कर्म के समन्वय से ही समग्रता उत्पन्न होती है ॥६३-६४॥'

व्याख्या- कोई सिद्धान्त अपने आप में अकेला पूर्ण नहीं। प्रयोगपक्ष जाने बिना सारा ज्ञान अधूरा हैं। फिर क्रिया पक्ष, ज्ञान पक्ष का पूरक है। ब्रह्म ज्ञान-तत्व चिन्तन अपनी जगह है, अनिवार्य भी है, परन्तु उसका व्यवहार पदा जिसे साधना-तपश्चर्या के रूप में जाने बिना एक मात्र मानसिक श्रम और ज्ञान वृद्धि तक ही सीमित रहने से उद्देश्य की पूर्ति नहीं होगी। चिकित्सकों को अध्ययन भी करना होता है एवं व्यावहारिक ज्ञान भी प्राप्त करना होता है। यह समग्रता लाये बिना वे चिकित्सक की पात्रता-पदवी नहीं पाते।

ऐसा अधूरापन अध्यात्म क्षेत्र में बड़े व्यापक रूप में देखने को मिलता है। ब्रह्म की, सद्मुणों की, आदर्शवादिता की चर्चा तो काफी लोग करते पाये जाते हैं परन्तु उसे व्यवहार में उतारने, जीवन का अंग बना लेने वाले कम ही होते हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 प्रज्ञा पुराण (भाग १) पृष्ठ 26

रविवार, 24 मार्च 2019

👉 मौन बैठने से बदल सकता है आपका जीवन

अगर आप अपनी इच्छा से कुछ समय के लिए बोलना छोड़ दें, मौन धारण कर लें तो इससे आपको बहुत फायदे हो सकते हैं।

➡ मौन के लाभ
मौन की शुरुआत जुबान के चुप होने से होती है। धीरे-धीरे जुबान के बाद आपका मन भी चुप हो जाता है। मन में चुप्पी जब गहराएगी तो आंखें, चेहरा और पूरा शरीर चुप और शांत होने लगेगा। तब आप इस संसार को नए सिरे से देखना शुरू कर पाएंगे। बिल्कुल उस तरह से जैसे कोई नवजात शिशु संसार को देखता है। जरूरी है कि मौन रहने के दौरान सिर्फ श्वांसों के आवागमन को ही महसूस करते हुए उसका आनंद लें। मौन से मन की शक्ति बढ़ती है। शक्तिशाली मन में किसी भी प्रकार का भय, क्रोध, चिंता और व्यग्रता नहीं रहती। मौन का अभ्यास करने से सभी प्रकार के मानसिक विकार समाप्त हो जाते हैं। आइये जानते हैं मौन के सात महत्वपूर्ण फायदों के बारे में।

➡ संतुष्टि
कुछ न बोलना, यानि अपनी एक सुविधा से मुंह मोड़ना। जी हां, बोलना आपके लिए एक बहुत बड़ी सुविधा ही होती है। जो आपके मन में चल रहा होता है उसे आप तुरंत बोल देते हैं। लेकिन, मौन रहने से चीजें बिल्कुल बदल जाती हैं। मौन अभाव में भी खुश रहना सिखाता है।

➡अभिव्यक्ति
जब आप सिर्फ लिखकर बात कर सकते हैं तो आप सिर्फ वही लिखेंगे जो बहुत जरूरी होगा। कई बार आप बहुत बातें करके भी कम कह पाते हो। लेकिन ऐसे में आप सिर्फ कहते हो, बात नहीं करते। इस तरह से आप अपने आपको अच्छी तरह से व्यक्त कर सकते हैं।

➡प्रशंसा
हमारे बोल पाने की वजह से हमारा जीवन आसान हो जाता है, लेकिन जब आप मौन धारण करेंगे तब आपको ये अहसास होगा कि आप दूसरो पर कितना निर्भर हैं। मौन रहने से आप दूसरों को ध्यान से सुनते हैं। अपने परिवार, अपने दोस्तों को ध्यान से सुनना, उनकी प्रशंसा करना ही है।

➡ध्यान देना
जब आप बोल पाते हैं तो आपका फोन आपका ध्यान भटकाने का काम करता है। मौन आपको ध्यान भटकाने वाली चीजों से दूर करता है। इससे किसी एक चीज या बात पर ध्यान लगाना आसान हो जाता है।

➡विचार
शोर से विचारों का आकार बिगड़ सकता है। बाहर के शोर के लिए तो शायद हम कुछ नहीं कर सकते, लेकिन अपने द्वारा उत्पन्न शोर को मौन जरूर कर सकते हैं। मौन विचारों को आकार देने में हमारी मदद करता है। हर रोज अपने विचारों को बेहतर आकार देने के लिए मौन रहें।

➡प्रकृति
जब आप हर मौसम में मौन धारण करना शुरू कर देंगे तो आप जान पाएंगे कि बसंत में चलने वाली हवा और सर्दियों में चलने वाली हवा की आवाज भी अलग-अलग होती है। मौन हमें प्रकृति के करीब लाता है। मौन होकर बाहर टहलें। आप पाएंगे कि प्रकृति के पास आपको देने के लिए काफी कुछ है।

➡शरीर
मौन आपको आपके शरीर पर ध्यान देना सिखाता है। अपनी आंखें बंद करें और अपने आप से पूछें, "मुझे अपने हाथ में क्या महसूस हो रहा है?" अपने शरीर को महसूस करने से आपका अशांत मन भी शांत हो जाता है। शांत मन स्वास्थ्य के लिए बहुत अच्छा होता है।

👉 आज का सद्चिंतन 24 March 2019


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 24 March 2019


👉 Amrit Chintan

■ All dimensions of development and progress are the vision of “Yug Nirman Yojna.” (Transformation of the Era) We are inspired by the almighty for that. Who so ever will share this project will be properly gifted by the almighty. They will be blessed and feel so is mentioned in the scripture of “Kalki-Puran”.
 
□ To develop deep impression on the mind of family members and to develop moral codes life of great men of the history must be discussed in event and story forms. This solves the most of the negative reactions of daily happenings in life.

◆ It is through self-discipline and self-restrain that one develops control on his treasure mind. A firm believe on the ideality of life develops courage to act on those lines. This self introspection develops respect for others and develops gentlemen ship and responsibility of a good citizen. Without constant vigilance on self. True culture can not develop; only outward show of few courteous words will not hide your true nature for a long time.

◇ As it is said that man creates his own destiny. It means that every man have given a choice for self-growth in all dimensions. One must select his own ideal goal of life. If others don’t help he should works hard alone. This royal road may create obstructions and resistance but man have power with in to overcome that and attain excellence in any field of life.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya

👉 सूर्यकान्त मणि का उपयोग

महात्मा के पास ''सूर्यकान्त मणि'' थी। जब उनका अन्तकाल समीप आया तो बड़े प्रयत्न से अर्जित यह मणि उन्होने अपने पुत्र  सौमनस को दे दी और कहा- ' यह कामधेनु के समान मनोवाँछा प्रदान करने वाली है। इसको सम्भाल कर रखना। इससे तुम्हारी सब आवश्यकताएँ सहज में पूर्ण हो सकेगी और तुम्हें कभी किसी चीज का अभाव नहीं हो सकेगा।''

सौमनस ने मणि तो ले ली पर पिता के उपदेशों पर कुछ ध्यान नहीं दिया। रात्रि के समय दीपक के स्थान पर वह उसका उपयोग करने लगा। एक दिन उसकी प्रेयसी वेश्या ने उपहार में वह मणि माँगी और सौमनस ने उसे बिना किसी संकोच के दे डाली।'

वेश्या ने कुछ समय बाद एक जौहरी के हाथ उसे बेच दिया और उस धन से शृंगार की सामग्री खरीद ली। जौहरी ने मणि की परीक्षा ली और रासायनिक प्रयोगों द्वारा उसकी सहायता से बहुत- सा सोना बना लिया। इससे वह बड़ा वैभवशाली बन गया और अपना जीवन राजा- महाराजाओं की तरह व्यतीत करने लगा। अनेक दीन- दुखियों की भी उसने उस स्वर्ण राशि से बहुत सहायता की।

आनन्द ने' अपने शिष्य बिद्रुथ को यह कथा सुनाते हुए कहा- ' वत्स। यह जीवन सूर्यकान्त मणि के समान है। इसका सदुपयोग करना कोई- कोई पारखी जौहरी ही जानते हैं, अन्यथा सौमनस और गणिका की तरह उसे कौड़ी मील गँवा देने वाले ही अधिक होते हैं। ''

📖 प्रज्ञा पुराण भाग 1

👉 प्रज्ञा पुराण (भाग 1) श्लोक 60 से 62





समाधिस्थो नारदोऽभूत्तस्मिन्नेव क्षणे प्रभु:।
प्रज्ञापुराणमेतत्तद्हृदयस्थम कारयत् ॥६०॥
उवाच च महामेघमण्डलीव समन्तत:।
कुरू त्वं मूसलाधारं वर्षां तां युगचेतनाम्॥६१॥
अनास्थाऽऽतपश्रष्कां च महर्षे धर्मधारणाम् ।
जीवयैतदिदं कार्यं प्रथमं ते व्यवस्थितम् ॥६२॥

टीका- नारद समाधिस्थ हो गये। भगवान् ने उस समय प्रज्ञापुराण कण्ठस्थ करा दिया और कहा-'इस युगचेतना की वर्षा मेघों की तरह सर्वत्र बरसाओ। अनास्था के आतप से सूखी धर्म-धारणा को फिर से हरी-भरी बना-दो तुम्हारा प्रथम काम यही है॥६०-६२॥

व्याख्या- बादलों का काम है बरसना तथा जल अभिसिंचन द्वारा सारी विश्व मानवता को तृप्त करना। जहाँ अकाल पड़ा हो वहाँ वर्षा की थोड़ी-सी बूंदें गिरते ही चारों और प्रसन्नता का साम्राज्य छा जाता है-कुछ ही समय में हरियाली फैली दिखाई पड़ती है। समुद्र सें उठने वाली भाप जब बादल बनती है तो उसका एक ही उद्देश्य रहता हैं-वनस्पति जगत तथा सारे जीव जगत में प्राण भर देना।

चेतना विस्तार की यही भूमिका अवतार, महामानव, अग्रदूत, जागृत आत्माएँ निभाती हैं। उनका उद्देश्य भी यही होता है। आस्था संकट का जो मूल उद्गम है-अन्त:करण, वहाँ वे व्यक्ति-व्यक्ति तक पहुँचकर उसके अन्दर हलचल मचाते हैं। मरुस्थल बन गये अन्तस्थल में संवेदनाएँ उभारते हैं, आदर्शवादी उत्कृष्टता के प्रति-समर्पण की भविष्य-जगाते हैं। अवतार की प्रक्रिया यही है। भगवान ने नारद ऋषि को वही काम सौंपा ताकि प्रस्तुत परिस्थितियों में परिव्रज्या द्वारा वे जन-जन में प्रज्ञावतार की प्रेरणा भर सकें। परिवर्तन-विचारणा में परिष्कार तथा संवेदनाओं में उत्कृष्टता परायण उभार की ही परिणति है। युग परिवर्तन की प्रक्रिया जो अगले दिनों सम्पादित होने जा रही है, उसका प्रथम चरण यही है।

महाकाल ने हमेशा बीज रूप में उपयुक्त पात्र को यह संदेश दिया हैं, वही कालान्तर में फला और मेघ की भूमिका उसनें निभाई है। इसी तथ्य को रामायणकार ने इस तरह समझाया है-

'राम सिंधु धन सज्जन धीरा । चन्दन तरु हरि सन्त समीरा॥'

अर्थात्- 'भगवान समुद्र हैं तो सज्जन व्यक्ति बादल के समान । चन्दन वृक्ष यदि भगवान है तो सन्त पवन की तरह मलयज सुगन्ध को फैलाने वाले। ' भगवान से अर्थ है आदर्शवादिता का समुचय। मेघ व पवन की ही भाँति संत व सज्जन उस युगचेतना को विस्तारित करते हैं, असंख्यों को धन्य बनाते हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 प्रज्ञा पुराण (भाग १) पृष्ठ 24-25

शनिवार, 23 मार्च 2019

👉 'यार' की तौहीन

एक बार एक संत अपने चेले के साथ किसी कीचड़ भरे रास्ते पर जा रहा था, उसी रास्ते पर एक अमीरजादा अपनी प्रेमिका के साथ जा रहा था, जब संत उस के पास से गुजरा तो कुछ छींटे अमीरजादे की प्रेमिका पर पड़ गए।

अमीरजादे ने गुस्से में दो तीन चांटे उस संत को जड़ दिए, संत चुपचाप आगे चला गया, संत के चेले ने पूछा आप ने उसे कुछ कहा क्यों नहीं, इस पर भी संत चुप रहे, पीछे चलता अमीरजादा अचानक फिसल कर कीचड़ में गिर गया और बुरी तरह से लिबड़ गया, साथ ही उसकी एक बाजु भी टूट गई, तब संत ने अपने चेले से कहा देख:- जैसे वो 'अमीरजादा' अपनी 'यार' की तौहीन नहीं देख सका, ठीक उसी तरह ऊपर बैठा "वो ऊपर वाला" भी अपने 'यार' की तौहीन नहीं देख सकता।

👉 आज का सद्चिंतन 23 March 2019


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 23 March 2019


👉 Amrit Chintan

■ Family life is best for most of us. But it is so, subject to condition that one develops and gives a proper decorum to all the members. Parents will have to bear the responsibility of mutual harmony, education, manners. Love and affection and also observe proper development of children. Marriage is not simply a atmosphere of  physical relation but a team for moral and spiritual progress in a blissful way.

□ What are needed for a happy blissful life are good health, ability and high moral values. One should develop all this by constant practice. Instead of planning for high ambitions, one should go on earning virtues and distributing side by side to other needy. Self satisfaction in the availing – circumstances is an art in life. Beyond sensual pleasures, there are other higher dimensions for growth in life, which can easily be attained under discipline and ethos.

◆ Man has control on his destiny. Based on practice of virtues and velour. Nothing is beyond his reach. There is along history that man has earned great height through his hard work and intellect, why you can not. Be sure you have every thing in you in a seed form. But you will have to grow that. That is the royal path which leads historic people to their summits. Thoughts are the power to push you up to great success of life. 

◇ Enchanting mantra is a vocal ritual, but this is one dimension of spiritual growth, other important dimensions are of self-development and self-rectification. Rituals are good but behind that are actuals, which should be cultivated in life. Rituals only show results when these dimensions are also taken care-of for a blissful life.

👉 जीवन वीणा बजे तो ही सार्थक

मन्दिर के जिस प्रकोष्ठ में भगवान् सुब्रह्मण्यम की मूर्ति थी, उसी के सामने वाले भाग में एक सुन्दर वीणा रखी हुई थी। मन्दिर में कई लोग तो वीणा के दर्शन कर लेते और चले जाते। कुछ उसे बजाने की इच्छा करते, पर वहाँ बैठा हुआ मन्दिर का रक्षक उनसे मना करता और वे वहाँ से चल देते है।। इस प्रकार सुन्दर स्वरों वाली यह वीणा जहाँ थी वहीं रखी रहती थी, उसका कभी कोई उपयोग न होता था।

एक दिन एक व्यक्ति आया। उसने वीणा बजाने की इच्छा व्यक्त की, पर उस व्यक्ति ने उसे भी मना कर दिया। वह व्यक्ति वही चुपचाप खड़ा रहा। थोड़ी देर में सब लोग मन्दिर से निकल कर बाहर चेले गये तो उस व्यक्ति ने वीणा उठाली और उसका लयपूर्वक वादन करने लगा। वीणा का मधुर स्वर लोगों के कानों तक पहुँचा तो लोग पीछे लौटने लगे और उस मधुर संगीत का रसास्वादन करने लगे। वाद्य घण्टों चला और लोग मन्त्र मुग्ध सुनते रहे। जब वह बन्द हुआ तब भी लोग ईश्वरीय आनन्द की अनुभूति करते रहे। लोगों ने कहा- ''आज वीणा सार्थक हो गई।''

भावार्थ यह है कि भगवान् काया तो सबको देता है पर कुछ लोग अज्ञानवश व कुछ अभिमान वश इस वीणा रूपी यन्त्र का सदुपयोग नहीं कर पाते। यदि इन दो दोषों से दूर रहकर कोई शरीररूपी वीणा से मधुर लहरियाँ निकाले तो उस आनन्द से न केवल वह स्वयं वरन् सम्पर्क के सैकड़ों लोग उसमें ईश्वरीय आनन्द की झलक पाते है। ऐसी जीवन- वीणा सभी बजा सकें यही तत्ववेत्ताओं का निर्देश है, महामानवों का उपदेश है एवं प्रत्यक्ष अनुभत सत्य है। पर दूसरा पक्ष भी ऐसा हठी है कि उस पर काबू पाना, अन्त : की दुष्प्रवृत्तियों से संघर्ष कर जीवन रूपी मणि का उपयोग कर पाना हर किसी के लिए सम्भव नहीं हो पाता।

📖 प्रज्ञा पुराण भाग 1

शुक्रवार, 22 मार्च 2019

Raajtantra Ko Aadhyatmaik Margdarshan | Dr Chinmay Pandya

Look to yourself for Guidance | मार्गदर्शन के लिए अपनी ही ओर देखो | हारि...

👉 समस्या का समाधान

एक चिंताग्रस्त महिला डोक्टर के पास जाती है: 'डॉक्टर, मुझे एक प्रॉब्लम है, और आपकी मदद चाहिए! मेरा बच्चा अभी एक साल का भी नहीं हुआ और मै फिर से pregnant हूँ. I don't want kids so close together.

तब डॉक्टर पूछता है: 'ठीक है, तो मै क्या कर सकता हूँ आपके लिए?' महिला: 'मै चाहती हूँ के आप मेरी प्रेग्नंच्य रोक दो.. मै आपकी शुक्रगुज़ार रहूंगी.' डॉक्टर ने थोड़ी देर सोचा और कुछ शांतता के बाद उसने महिला से कहा: 'मेरे पास इस से अच्छा solution है आपकी प्रॉब्लम के लिए. जिसमे आपको खतरा भी कम है.' वो मुस्कुराई, उसे लगा के डॉक्टर उसका काम कर ही देगा अब.

डॉक्टर बोला: "देखो जैसे तुमने कहा की तुम एक समय पर दो बच्चो की देखभाल नहीं कर सकती, तो वही बच्चा मार देते है जो अभी तुम्हारे पास है. इस तरह तुम्हे आराम के लिए दूसरा बच्चा पैदा होने से पहले और भी वक्त मिल जायेगा. अगर हमें दोनों में से किसी को मरना ही है तो क्या फर्क पड़ता है 'पहला या दूसरा' से."

महिला थोड़ी घबराई और बोली: "नहीं डॉक्टर, कितना भयानक है ऐसा करना. 'I agree'," डॉक्टर बोला. "लेकिन तुम तो कुछ ऐसे ही कह रही थी, इसलिए मैंने सोचा की यही बेहतर उपाय होगा." डॉक्टर हँसा, उसने उसकी बात समझा दी थी.

उसने उस माँ को इस बात से सहमत कराया था के, "पैदा बच्चे को मरना और पैदा होने वाले बच्चे को मरना इसमें कोई फर्क नहीं है. The crime is the same!

"प्यार माने खुद की ज़िन्दगी दुसरो के हित के लिए sacrifice करना" Abortion माने किसी और की ज़िन्दगी अपने हित के लिए sacrifice करना.

👉 प्रज्ञा पुराण (भाग 1) श्लोक 52 से 59

नारद उवाच-

पप्रच्छ नारदो भगवन् स्पष्टतो विस्तरादपि।
किं नु कार्यं मया ब्रूहि मानवै: कारयामि किम्॥५२॥

श्री भगवानुवाच-
उवाच भगवाँस्तात ! हिमाच्छादित एकदा।
उत्तराखण्ड संशोभिन्यारण्यक शुभस्थले॥५३॥
तत्वावधाने प्राज्ञस्य पिप्पलादस्य नारद।
प्रज्ञासत्रसमारम्भो जात: पञ्चदिनात्मक:॥५४॥
अष्टावक्र : श्वेतकेतुरुद्दालकशृङ्गिणौ।
दुर्वासाश्चेति जिज्ञासा: पञ्चाकुर्वन् क्रमादिमे॥५५॥
तत्वदर्शी महाप्राज्ञस्तेषां संमुख एव स:।
संक्षिप्तं ब्रह्मविद्याया: प्रास्तौत्सारं सममृषि:॥५६॥
सर्वसाधारणोऽप्येनं ज्ञातुं बोधयितुं क्षम:।
इह लोके परे चायमृद्धिसिद्धिप्रद: स्मृत:॥५७॥
तं प्रसङ्ग स्मारयामि ध्यानेन हृदये कुरु।
प्रज्ञा पुरगारूपे च योजितं यन्त्रतस्तु तम्॥५८॥
वरिष्ठानामात्मानं तु पूर्व साधारणस्य च।
हृदयगंममेनं त्वं कारयाद्य महामुने ॥५९॥

टीका:- नारद ने पूछा-"भगवन्! और भी स्पष्ट करें कि क्या करना और क्या कराना है। "
भगवान् बोले-"हे तात्! एक बार उत्तराखण्ड के हिमाच्छादित एक शुभ आरण्यक में महाप्राज्ञ पिप्पलाद के तत्वाधान में पाँच दिवसीय 'प्रज्ञा-सत्र' हुआ था। उसमें क्रमश: अष्टावक्र, श्वेतकेतु, शृंगी, उद्दालक और दुर्वासा ने पाँच जिज्ञासाएँ की थीं। तत्वदर्शी महाप्राज्ञ ऋषि ने उनके समक्ष ब्रह्मविद्या का सार-संक्षेप प्रस्तुत किया था वह सर्वसाधारण के समझने-समझाने योग्य है साथ ही लोक- परलोक में उभय-पक्षीय ऋद्धि-सिद्धियाँ प्रदान करने वाला भी है। उस प्रसंग का तुम्हें स्मरण दिलाता हूँ। ध्यान-मग्न होकर हृदयंगम करो सुनियोजित करो और 'प्रज्ञा पुराण' के रूप में सर्वप्रथम वरिष्ठ आत्माओं को तदुपरान्त सर्वसाधारण को हृदयंगम कराओ॥५२-५९॥

व्याख्या:- अध्यात्म विज्ञान के व्यावहारिक शिक्षण की विस्तृत कार्य प्रणाली जानने को उत्सुक देवर्षि को भगवान् एक विशिष्ट प्रज्ञासत्र का स्मरण दिलाते हैं। यह ऋषि प्रणाली है कि किसी भी तथ्य का समर्थन, प्रतिपादन प्रत्यक्ष उदाहरणों द्वारा किया जाय। ध्यान मग्न नारद को भगवान ने ज्ञान सत्रों में हुई चर्चा को संक्षेप में अपनी परावाणी, विचार सम्प्रेषण द्वारा समझा दिया एवं अग्रदूतों तक इसे पहुँचाने, उन्हें इस ज्ञान आलोक से प्रकाशित करने का निर्देश भी दिया।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 प्रज्ञा पुराण (भाग १) पृष्ठ 24

👉 Amrit Chintan

■ As you sow, so you reap.
Seed will give its own fruit.
Our evil acts respond in the same coin. We can not blame any power. If our planting is of Cactus we can not get fruiting of mangoes. Law of action is that reaction is equal and opposite.

Mahatma Kabir

□ Our celebration of festival, occasions and commitment must be shared with others in a way. That they follow the moral code of conduct and establish harmony and peace in social life.

📖 Vangmay No. 36, p 3.18

◆ In every field of life love and sacrifice play a important role. If you took into the history of great men on this earth, we will always find that these two virtues of love and sacrifice make than great.

~Dr Anivesent

◇ To save the human destiny from great disaster there is only one way and that is to extend the field a common welfare, love and sincerity among ourselves, the mission of Yug-Nirman.

👉 स्वार्थी इक्कड़ की दुर्गति

एक हाथी बड़ा स्वार्थी और अहंकारी था। दल के साथ रहने की अपेक्षा वह अकेला रहने लगा। अकेले में दुष्टता उपजती है, वे सब उसमें भी आ गयीं। एक बटेर ने छोटी झाड़ी में अंडे दिए। हाथियों का झुंड आते देखकर बटेर ने उसे नमन किया और दलपति से उसके अंडे बचा देने की प्रार्थना की। हाथी भला था। उसने चारों पैरों के बीच झाड़ी छुपा ली और झुंड को आगे बढ़ा दिया। अंडे तो बच गए परं उसने बटेर को चेतावनी दी कि एक इक्कड़ हाथी पीछे आता होगा, जो अकेला रहता है और दुष्ट हैं उसने अंडे बचाना तुम्हारा काम है। थोड़ी देर में वह आ ही पहुँचा। उसने बटेर की प्रार्थना अनसुनी करके जान- बूझ कर अंडे कुचल डाले। 

बटेर ने सोचा कि दुष्ट को मजा न चखाया तो वह अन्य अनेक का अनर्थ करेगा। उसने अपने पड़ोसी कौवे तथा मेढक से प्रार्थना की। आप लोग सहायता करें तो हाथी को नीचा दिखाया जा सकता है। योजना बन गई। कौवे ने उड़-उड़ कर हाथी की आँखें फोड़ दी। वह प्यासा भी था।

मेढक पहाड़ी की चोटी पर टर्राया। हाथी ने वहाँ पानी होने का अनुमान लगाया और चढ़ गया । अब मेढक नीचे आ गया और वहाँ टर्राया। हाथी ने नीचे पानी होने का अनुमान लगाया और नीचे को उतर चला। पैर फिसल जाने से वह खड्ड में गिरा और मर गया।

एकाकी स्वार्थ-परायणों को इसी प्रकार नीचा देखना पड़ता है ।

📖 प्रज्ञा पुराण भाग 2 पृष्ठ 8

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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