शुक्रवार, 7 दिसंबर 2018

दे प्रभो! वरदान ऐसा (kavita)

दे प्रभा! वरदान ऐसा,दे विभो वरदान ऐसा।
भूल जाऊँ भेद सब, अपना पराया मान वैसा॥

मुक्त होऊँ बंधनों से मोह माया पाश टूटे|
स्वार्थ, ईर्ष्या, द्वेष आदिक दुर्गुणों का संग छूटे॥

प्रेम मानस में भरा हो, हो हृदय में शान्ति छाई।
देखता होऊँ जिधर मैं, दे उधर तू ही दिखाई॥

नष्ट हो सब भिन्नता, फिर बैर और विरोध कैसा।
दे प्रभो! वरदान ऐसा, दे विभो! वरदान ऐसा॥

ज्ञान के आलोक से उज्ज्वल बने यह चित्त मेरा।
लुप्त हो अज्ञान का, अविचार का छाया अंधेरा॥

हो प्रभो, परमार्थ के शुभ कार्य में रुचि नित्य मेरी।
दीन दुखियों की कुटी में ही मिले अनुभूति तेरी॥

दूसरों के दुःख को समझूँ सदा मैं आप जैसा।
दे प्रभो! वरदान ऐसा, दे विभो! वरदान ऐसा॥

हो अभय, अविवेक तज, शुचि सत्य पथगामी बनूँ मैं।
आपदाओं से भला क्या, काल से भी ना डरूं मैं॥

सत्य को ही धर्म मानूं, सत्य को ही साधना मैं।
सत्य के ही रूप में तेरी करूं आराधना मैं॥

भूल जाऊँ भेद सब अपना पराया मान तैसा।
दे प्रभो! वरदान ऐसा, दे विभो! वरदान ऐसा॥

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