👉होली की हिलोरें
🔵होली आई है, तो इसकी हिलोरें भी उठेंगी ही। इनकी छुअन हर एक के मन को अपने रस में भिगो देती है, डुबो देती है। अंतराल में स्नेहानुभूति के अक्षय स्रोत से खुलने लगते हैं। ये हिलोरे जिन्हें भी छूती हैं उन्हीं को लगता है कि वे किसी हिंडोले में झूल रहे हैं। होली के उल्लास के महासिंधु में खुद भी हिलोरें ले रहे हैं। कुछ ऐसा लगता है जैसे जीवन के हर अँखुवे से नई शाख फूट पड़ी हो। उमंग में उमगते हुए मन आतुर-आकुल होने लगता है, इस उल्लास को बाँटने के लिए। बस क्या दे डालूँ? यही व्याकुलता-व्याकुल करने लगती है सभी को।
🔴प्रेमानुभूति में सनी-मस्ती में डूबी यह व्याकुलता अति दुर्लभ है। जीवन में अनेकों भाव पनपते हैं और तिरोहित हो जाते हैं। इनके प्रभाव व सीमाएँ भी सीमित होती हैं। खुशियाँ अन्य दिनों में भी आती हैं, प्रेमरस से अन्य दिनों में भी मन भीगता है, पर इसकी परिधि प्रायः व्यक्तिगत और पारिवारिक जीवन तक सिमटी-सिकुड़ी रहती है। पर होली में तो जैसे प्रेमभरी मस्ती का महासिंधु हिलोरें लेता है। जिसकी प्रत्येक लहर के छूने भर से जाति, धर्म, वंश, ऊँच-नीच, अमीर-गरीब आदि सभी भेद-भाव की दीवारें टूटती-ढहती-विनष्ट होती चली जाती हैं। होली की उमंगें बढ़ें और विकसित हों, यह आवश्यक है, पर जितनी प्रबल वह हो, उतनी ही सबल जीवनसाधना भी होनी चाहिए। प्रबल धारा को सबल किनारे ही दिशा दे सकते हैं। धारा धीमी हो अथवा कूल कमजोर, दोनों ही अभीष्ट उद्देश्य की प्राप्ति में बाधक हैं। दोनों सबल और सशक्त हों, तो प्रेम की महाशक्ति का महाप्रयोग हो सकने की व्यवस्था बनती है।
🔵प्रेम की महाशक्ति का अमर्यादित उपयोग अथवा सीमाबद्ध रह जाना अकल्याणकारी प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न करता है। होली की हिलोरें जीवनसाधना के स्पर्श से सुनियोजित और सुव्यवस्थित हो जाती हैं। फिर उन्हें जहाँ जितनी मात्रा में प्रवाहित करना हो, किया जा सकता है। ऐसा यदि बन सके, तो संसार की विविधता-विषमता के रूप में नहीं, होली की रंग-रँगीली मस्ती के रूप में सामने आएगी। मन के मलाल धुल जाएँगे, स्नेह का गुलाल सब पर छा जाएगा, बस आनंद आ जाएगा। जो सामने आए, मन का मैल मिटाकर उसी पर अपना प्रेम उँड़ेल दें। दोनों सराबोर हो जाएँ, होली की हिलोरें यदि इस तरह हमें भिगो दें, तो जीवन पहेली नहीं एक रँगोली बन जाए।
🔵होली आई है, तो इसकी हिलोरें भी उठेंगी ही। इनकी छुअन हर एक के मन को अपने रस में भिगो देती है, डुबो देती है। अंतराल में स्नेहानुभूति के अक्षय स्रोत से खुलने लगते हैं। ये हिलोरे जिन्हें भी छूती हैं उन्हीं को लगता है कि वे किसी हिंडोले में झूल रहे हैं। होली के उल्लास के महासिंधु में खुद भी हिलोरें ले रहे हैं। कुछ ऐसा लगता है जैसे जीवन के हर अँखुवे से नई शाख फूट पड़ी हो। उमंग में उमगते हुए मन आतुर-आकुल होने लगता है, इस उल्लास को बाँटने के लिए। बस क्या दे डालूँ? यही व्याकुलता-व्याकुल करने लगती है सभी को।
🔴प्रेमानुभूति में सनी-मस्ती में डूबी यह व्याकुलता अति दुर्लभ है। जीवन में अनेकों भाव पनपते हैं और तिरोहित हो जाते हैं। इनके प्रभाव व सीमाएँ भी सीमित होती हैं। खुशियाँ अन्य दिनों में भी आती हैं, प्रेमरस से अन्य दिनों में भी मन भीगता है, पर इसकी परिधि प्रायः व्यक्तिगत और पारिवारिक जीवन तक सिमटी-सिकुड़ी रहती है। पर होली में तो जैसे प्रेमभरी मस्ती का महासिंधु हिलोरें लेता है। जिसकी प्रत्येक लहर के छूने भर से जाति, धर्म, वंश, ऊँच-नीच, अमीर-गरीब आदि सभी भेद-भाव की दीवारें टूटती-ढहती-विनष्ट होती चली जाती हैं। होली की उमंगें बढ़ें और विकसित हों, यह आवश्यक है, पर जितनी प्रबल वह हो, उतनी ही सबल जीवनसाधना भी होनी चाहिए। प्रबल धारा को सबल किनारे ही दिशा दे सकते हैं। धारा धीमी हो अथवा कूल कमजोर, दोनों ही अभीष्ट उद्देश्य की प्राप्ति में बाधक हैं। दोनों सबल और सशक्त हों, तो प्रेम की महाशक्ति का महाप्रयोग हो सकने की व्यवस्था बनती है।
🔵प्रेम की महाशक्ति का अमर्यादित उपयोग अथवा सीमाबद्ध रह जाना अकल्याणकारी प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न करता है। होली की हिलोरें जीवनसाधना के स्पर्श से सुनियोजित और सुव्यवस्थित हो जाती हैं। फिर उन्हें जहाँ जितनी मात्रा में प्रवाहित करना हो, किया जा सकता है। ऐसा यदि बन सके, तो संसार की विविधता-विषमता के रूप में नहीं, होली की रंग-रँगीली मस्ती के रूप में सामने आएगी। मन के मलाल धुल जाएँगे, स्नेह का गुलाल सब पर छा जाएगा, बस आनंद आ जाएगा। जो सामने आए, मन का मैल मिटाकर उसी पर अपना प्रेम उँड़ेल दें। दोनों सराबोर हो जाएँ, होली की हिलोरें यदि इस तरह हमें भिगो दें, तो जीवन पहेली नहीं एक रँगोली बन जाए।
🌹 डॉ प्रणव पंड्या
🌹 जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 79
🌹 जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 79
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