बुधवार, 31 मई 2017
नववर्ष का नया संकल्प
👉नववर्ष का नया संकल्प
🔵नववर्ष की पहली सुबह का सूर्य हिमालय के हिमशिखरों पर उदित हुआ। श्वेताभ शिखरों की शुभ्रता स्वर्णिम हो उठी। ध्यान में रत साधक के अंतर्जगत् में भी सविता देव उदित हुए। समूचा अंतःकरण उनके दिव्य आलोक से भर उठा। प्रेरक पुंज के प्रेरणास्वर गूँजने लगे-‘‘आलस्य और शिथिलता में पिछले काफी वर्ष बीत चुके। पिछला साल भी कुछ यूँ ही गुजरा। अब नए संकल्प की आवश्यकता है। अब तक तुम अपने चिंतन को पूर्णतः आचरण में नहीं ला सके। इसके लिए निराश होने की बजाय मन में वज्रसंकल्प करो। नया वर्ष तुम्हारे जीवन की नई राहें खोल रहा है, उन पर वीरतापूर्वक आगे बढ़ो। जिसने अपने जीवनलक्ष्य की प्राप्ति का दृढ़ संकल्प कर लिया है, उसके मार्ग में कौन बाधा डाल सकता है।’’
🔴‘‘जब तुम संकल्पवान् होओगे, तब महाकाल स्वयं तुम्हारा सहचर होगा। परमसत्ता मित्र होगी, सर्वस्व होगी। ईश्वर के सान्निध्य का और अधिक बोध हो सके, इसके लिए अन्य सभी प्रकार की दुर्बलताओं का त्याग कर देना ही अच्छा है। जब तुम अपनी निम्न प्रवृत्तियों का त्याग कर दोगे, तब प्रकृति स्वयं अपने सौंदर्य को तुम्हारे सामने प्रकट कर देगी। ऐसे में तुम्हारे लिए सभी कुछ आध्यात्मिक हो जाएगा। फिर घास का एक तिनका भी तुमसे आत्मा की ही बात कहेगा।’’
🔵‘‘दूसरों के मतों की चिंता क्यों करते हो? इस मनोवृत्ति से क्या लाभ? जब तुम दूसरों के मत की अपेक्षा करते हो, तब जान लो कि तुम्हारे अंदर संकल्प का अभाव है। सुदृढ़ संकल्प के स्वामी बनो। फिर दूसरे लोग कुछ भी कहें, तुम उनकी चिंता नहीं करोगे। दूसरों पर निर्भर मत रहो, अपने संकल्प की पूर्ति करो। जीवनलक्ष्य प्राप्ति का यह नया संकल्प ही तुम्हें राह दिखा सकता है। अपने समय को व्यर्थ की चर्चा में नष्ट न करो। इससे तुम्हें कुछ भी लाभ न होगा। मार्गदर्शन के लिए ध्यान की गहराई में उतरो, स्वयं अपनी ही आत्मा में निमग्न हो, यही सच्चा मार्ग है- भटकन से कोई लाभ नहीं।’’
🔴‘‘जीवनलक्ष्य को पाकर रहोगे। नववर्ष का यह नया संकल्प तुम्हें दृढ़ता प्रदान करेगा। तुम्हें लक्ष्य पर पहुँचा देगा। तुम्हारी संकल्पनिष्ठा तुम्हें दृढ़प्रतिज्ञा करेगी तथा तुम्हें सभी प्रकार की बाधाओं पर विजय प्रदान करेगी।’’ सवितादेव से उभरती प्रेरणा की इस अनुगूँज में नववर्ष का नया संकल्प आकार लेने लगा- जीवनलक्ष्य प्राप्ति का संकल्प- उसके लिए अपने सर्वस्व की आहुति का संकल्प- गुरुसत्ता के प्रति समग्र समर्पण का संकल्प।
🌹 डॉ प्रणव पंड्या
🌹जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 81
🌹जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 81
शनिवार, 27 मई 2017
👉 पूज्यवर का अनुरोध एवं आश्वासन
🔵 हमें अनेक जन्मों का स्मरण है। लोगों को नहीं जिनके साथ पूर्व जन्मों से सघन संबंध रहे हैं, उन्हें संयोगवश या प्रयत्न पूर्वक हमने परिजनों के रूप में एकत्रित कर लिया है और जिस- तिस कारण हमारे इर्द- गिर्द जमा हो गए हैं।
🔴 बच्चों को प्रज्ञा परिजनों के संबंध में चलते- चलाते हमारा इतना ही आश्वासन है कि वे यदि अपने भाव- संवेदना क्षेत्र को थोड़ा और परिष्कृत कर लें तो निकटता अब की अपेक्षा और भी अधिक गहरी अनुभव करने लगेंगे।
🔵 कठिनाइयों में सहयता करने और बालकों को ऊँचा उठाने, आगे बढ़ाने की हमारी प्रकृति में राई- रत्ती भी अन्तर नहीं होने जा रहा है। वह लाभ पहले की अपेक्षा और भी अधिक मिलता रह सकता है।
🔴 जो अपनी भाव- संवेदना बढ़ा सकेंगे वे भविष्य में हमारी निकटता अपेक्षाकृत और भी अच्छी तरह अनुभव करते रहेंगे।
🔴 बच्चों को प्रज्ञा परिजनों के संबंध में चलते- चलाते हमारा इतना ही आश्वासन है कि वे यदि अपने भाव- संवेदना क्षेत्र को थोड़ा और परिष्कृत कर लें तो निकटता अब की अपेक्षा और भी अधिक गहरी अनुभव करने लगेंगे।
🔵 कठिनाइयों में सहयता करने और बालकों को ऊँचा उठाने, आगे बढ़ाने की हमारी प्रकृति में राई- रत्ती भी अन्तर नहीं होने जा रहा है। वह लाभ पहले की अपेक्षा और भी अधिक मिलता रह सकता है।
🔴 जो अपनी भाव- संवेदना बढ़ा सकेंगे वे भविष्य में हमारी निकटता अपेक्षाकृत और भी अच्छी तरह अनुभव करते रहेंगे।
👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 107)
🌹 ब्राह्मण मन और ऋषि कर्म
🔵 अपने समय के विभिन्न ऋषिगणों ने अपने हिस्से के काम सँभाले और पूरे किए थे। उन दिनों ऐसी परिस्थितियाँ, अवसर और इतना अवकाश भी था कि समय की आवश्यकता के अनुरूप अपने-अपने कार्यों को वे धैर्यपूर्वक संचित समय में सम्पन्न करते रह सकें, पर अब तो आपत्तिकाल है। इन दिनों अनेक काम एक ही समय में द्रुतगति से निपटाने हैं। घर में अग्निकाण्ड हो तो जितना बुझाने का प्रयास बन पड़े उसे स्वयं करते हुए, बच्चों को, कपड़ों को, धनराशि को निकालने-ढोने का काम साथ-साथ ही चलता है।
🔴 हमें ऐसे ही आपत्तिकाल का सामना करना पड़ा है और ऋषियों द्वारा हमारी हिमालय यात्रा में सौंपे गए कार्यों में से प्रायः प्रत्येक को एक ही समय में बहुमुखी जीवन जीकर संभालना पड़ा है। इसके लिए प्रेरणा, दिशा और सहायता हमारे समर्थ मार्गदर्शक की मिली है और शरीर से जो कुछ भी हम कर सकते थे, उसे पूरी तरह तत्परता और तन्मयता के साथ सम्पन्न किया है। उसमें पूरी-पूरी ईमानदारी का समावेश किया है। फलतः वे सभी कार्य इस प्रकार सम्पन्न होते चले हैं मानों वे किए हुए ही रखे हों। कृष्ण का रथ चलाना और अर्जुन का गाण्डीव उठाना पुरातन इतिहास होते हुए भी हमें अपने संदर्भ में चरितार्थ होते दीखता रहा है।
🔵 युग परिवर्तन जैसा महान कार्य होता तो भगवान् की इच्छा, योजना एवं क्षमता के आधार पर ही है, पर उसका श्रेय वे ऋषि, कल्प जीवनमुक्त आत्माओं को देते रहते हैं। यही उनकी साधना का-पात्रता का सर्वोत्तम उपहार है। हमें भी इस प्रकार का श्रेय उपहार देने की भूमिका बनी और हम कृत-कृत्य हो गए। हमें सुदूर भविष्य की झाँकी अभी से दिखाई पड़ती है, इसी कारण हमें यह लिख सकने में संकोच रंचमात्र भी नहीं होता।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/hari/brahman
🔵 अपने समय के विभिन्न ऋषिगणों ने अपने हिस्से के काम सँभाले और पूरे किए थे। उन दिनों ऐसी परिस्थितियाँ, अवसर और इतना अवकाश भी था कि समय की आवश्यकता के अनुरूप अपने-अपने कार्यों को वे धैर्यपूर्वक संचित समय में सम्पन्न करते रह सकें, पर अब तो आपत्तिकाल है। इन दिनों अनेक काम एक ही समय में द्रुतगति से निपटाने हैं। घर में अग्निकाण्ड हो तो जितना बुझाने का प्रयास बन पड़े उसे स्वयं करते हुए, बच्चों को, कपड़ों को, धनराशि को निकालने-ढोने का काम साथ-साथ ही चलता है।
🔴 हमें ऐसे ही आपत्तिकाल का सामना करना पड़ा है और ऋषियों द्वारा हमारी हिमालय यात्रा में सौंपे गए कार्यों में से प्रायः प्रत्येक को एक ही समय में बहुमुखी जीवन जीकर संभालना पड़ा है। इसके लिए प्रेरणा, दिशा और सहायता हमारे समर्थ मार्गदर्शक की मिली है और शरीर से जो कुछ भी हम कर सकते थे, उसे पूरी तरह तत्परता और तन्मयता के साथ सम्पन्न किया है। उसमें पूरी-पूरी ईमानदारी का समावेश किया है। फलतः वे सभी कार्य इस प्रकार सम्पन्न होते चले हैं मानों वे किए हुए ही रखे हों। कृष्ण का रथ चलाना और अर्जुन का गाण्डीव उठाना पुरातन इतिहास होते हुए भी हमें अपने संदर्भ में चरितार्थ होते दीखता रहा है।
🔵 युग परिवर्तन जैसा महान कार्य होता तो भगवान् की इच्छा, योजना एवं क्षमता के आधार पर ही है, पर उसका श्रेय वे ऋषि, कल्प जीवनमुक्त आत्माओं को देते रहते हैं। यही उनकी साधना का-पात्रता का सर्वोत्तम उपहार है। हमें भी इस प्रकार का श्रेय उपहार देने की भूमिका बनी और हम कृत-कृत्य हो गए। हमें सुदूर भविष्य की झाँकी अभी से दिखाई पड़ती है, इसी कारण हमें यह लिख सकने में संकोच रंचमात्र भी नहीं होता।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/hari/brahman
👉 आदर्शोन्मुखी व्यक्तित्व
🔵 सृष्टि की प्रवाहमान जीवनधारा में अनंत व्यक्ति जन्मते हैं, जीते हैं और बह जाते हैं। लेकिन इस अंतविहीन इतिहास के पन्नों पर कुछ ऐसे व्यक्तित्व भी हैं, जिनके जीवन की स्याही कभी धुँधली नहीं पड़ती। वे सदा चमकते रहते हैं और वर्तमान से भी ज्यादा आने वाले कल के लिए सदैव अपना उजला प्रकाश बिखेरते होंगे। काल का प्रचंड प्रवाह जिनको बहा न सका, जिनके बीस-तीस वर्षों को हजार-हजार वर्ष भी ओझल व धूमिल न कर सकें, उन व्यक्तियों की आदर्शोन्मुखी आस्था का ही यह सुफल है।
🔴 व्यष्टि में समष्टि है। समष्टि की समग्रता का अहसास व्यक्ति की अंतश्चेतना में होता है। इस अहसास में जीने वाले को यह सहज समझ होती है कि बटोरने की अपेक्षा छोड़ने का मूल्य है। जलाने की अपेक्षा जलने का मूल्य है। शासक की अपेक्षा अकिंचन का मूल्य है। ये मूल्य आज भी हैं, कल भी थे और कल भी रहेंगे। जिन्होंने मूल्यों का आस्थापूर्वक आचरण किया, वे इतिहासपुरुष बन गए। जिन्होंने केवल इन मूल्यों पर प्रवचन किए, आचरण नहीं किया, वे इतिहास के गर्त में समा गए।
🔵 हालाँकि बटोरना सहज नहीं है, जलाने में साहस की अपेक्षा है, शासक बनने के लिए प्रचुर चतुराई की जरूरत है; पर जिनमें यह साहस है, चातुर्य है, क्षमता है और इसके बावजूद जो बटोरते नहीं, जलाते नहीं, राज्य नहीं करते, मूल्यों का विश्वास उन्हीं में दीप्तिमान् होता है। जिनमें क्षमता और साहस ही नहीं, उनमें मूल्यों का प्रकाश कहाँ से और कैसे प्रदीप्त होगा! उनमें क्लीवता का काला अँधेरा जो व्याप्त है।
🔴 मारने वाला वीर हो सकता है, लेकिन नहीं मारने वाला महावीर होता है। अपने हृदय की दृढ़ अहिंसा के साथ समस्त प्राणियों के प्रति सजल करुणा हो। मरने वाले तथा मारने वाले दोनों में समान प्राणों-अद्वैत का भाव हो, तभी इसकी सार्थकता है। लेकिन यदि मन में भय हो, स्वयं के प्राणों का व्यामोह एवं कायरता छाई हो, तब उसे अहिंसा का नाम देना आदर्श को पतनोन्मुख बनाना है।
🔵 ऊँचे आदर्शों को खींचकर मन के कमजोर भावों को छिपाने तथा संतुष्ट करने के लिए उन्हें नीचा न किया जाए, यह अत्यंत आवश्यक है। हर क्षेत्र के अपने कुछ शाश्वत मूल्य हैं। अपनी महत्त्वाकांक्षा तथा स्वार्थ की क्षुद्रता में उन मूल्यों का अवमूल्यन नहीं किया जाना चाहिए। मूल्यों के अवमूल्यन को इतिहास कभी क्षमा नहीं करता। इतिहासपुरुष बनने का गौरव तो सच्चे, सार्थक एवं शाश्वत मूल्यों के हिमालय के सर्वोच्च शिखर पर चढ़ने से ही प्राप्त होता है।
🌹 डॉ प्रणव पंड्या
🌹जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 80
🔴 व्यष्टि में समष्टि है। समष्टि की समग्रता का अहसास व्यक्ति की अंतश्चेतना में होता है। इस अहसास में जीने वाले को यह सहज समझ होती है कि बटोरने की अपेक्षा छोड़ने का मूल्य है। जलाने की अपेक्षा जलने का मूल्य है। शासक की अपेक्षा अकिंचन का मूल्य है। ये मूल्य आज भी हैं, कल भी थे और कल भी रहेंगे। जिन्होंने मूल्यों का आस्थापूर्वक आचरण किया, वे इतिहासपुरुष बन गए। जिन्होंने केवल इन मूल्यों पर प्रवचन किए, आचरण नहीं किया, वे इतिहास के गर्त में समा गए।
🔵 हालाँकि बटोरना सहज नहीं है, जलाने में साहस की अपेक्षा है, शासक बनने के लिए प्रचुर चतुराई की जरूरत है; पर जिनमें यह साहस है, चातुर्य है, क्षमता है और इसके बावजूद जो बटोरते नहीं, जलाते नहीं, राज्य नहीं करते, मूल्यों का विश्वास उन्हीं में दीप्तिमान् होता है। जिनमें क्षमता और साहस ही नहीं, उनमें मूल्यों का प्रकाश कहाँ से और कैसे प्रदीप्त होगा! उनमें क्लीवता का काला अँधेरा जो व्याप्त है।
🔴 मारने वाला वीर हो सकता है, लेकिन नहीं मारने वाला महावीर होता है। अपने हृदय की दृढ़ अहिंसा के साथ समस्त प्राणियों के प्रति सजल करुणा हो। मरने वाले तथा मारने वाले दोनों में समान प्राणों-अद्वैत का भाव हो, तभी इसकी सार्थकता है। लेकिन यदि मन में भय हो, स्वयं के प्राणों का व्यामोह एवं कायरता छाई हो, तब उसे अहिंसा का नाम देना आदर्श को पतनोन्मुख बनाना है।
🔵 ऊँचे आदर्शों को खींचकर मन के कमजोर भावों को छिपाने तथा संतुष्ट करने के लिए उन्हें नीचा न किया जाए, यह अत्यंत आवश्यक है। हर क्षेत्र के अपने कुछ शाश्वत मूल्य हैं। अपनी महत्त्वाकांक्षा तथा स्वार्थ की क्षुद्रता में उन मूल्यों का अवमूल्यन नहीं किया जाना चाहिए। मूल्यों के अवमूल्यन को इतिहास कभी क्षमा नहीं करता। इतिहासपुरुष बनने का गौरव तो सच्चे, सार्थक एवं शाश्वत मूल्यों के हिमालय के सर्वोच्च शिखर पर चढ़ने से ही प्राप्त होता है।
🌹 डॉ प्रणव पंड्या
🌹जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 80
👉 भगवान पर विश्वास:-
🔴 एक समय की बात है किसी गाँव में एक साधु रहता था, वह भगवान का बहुत बड़ा भक्त था और निरंतर एक पेड़ के नीचे बैठ कर तपस्या किया करता था। उसका भगवान पर अटूट विश्वास था और गाँव वाले भी उसकी इज्ज़त करते थे।
🔵 एक बार गाँव में बहुत भीषण बाढ़ आ गई। चारो तरफ पानी ही पानी दिखाई देने लगा, सभी लोग अपनी जान बचाने के लिए ऊँचे स्थानों की तरफ बढ़ने लगे। जब लोगों ने देखा कि साधु महाराज अभी भी पेड़ के नीचे बैठे भगवान का नाम जप रहे हैं तो उन्हें यह जगह छोड़ने की सलाह दी। पर साधु ने कहा तुम लोग अपनी जान बचाओ मुझे तो मेरा भगवान बचाएगा!
🔴 धीरे-धीरे पानी का स्तर बढ़ता गया, और पानी साधु के कमर तक आ पहुंचा, इतने में वहां से एक नाव गुजरी मल्लाह ने कहा- ” हे साधू महाराज आप इस नाव पर सवार हो जाइए मैं आपको सुरक्षित स्थान तक पहुंचा दूंगा, नहीं, मुझे तुम्हारी मदद की आवश्यकता नहीं है, मुझे तो मेरा भगवान बचाएगा, साधु ने उत्तर दिया।
🔵 कुछ देर बाद बाढ़ और प्रचंड हो गयी, साधु ने पेड़ पर चढ़ना उचित समझा और वहां बैठ कर ईश्वर को याद करने लगा। तभी अचानक उन्हें गड़गडाहट की आवाज़ सुनाई दी, एक हेलिकोप्टर उनकी मदद के लिए आ पहुंचा, बचाव दल ने एक रस्सी लटकाई और साधु को उसे जोर से पकड़ने का आग्रह किया, पर साधु फिर बोला मैं इसे नहीं पकडूँगा, मुझे तो मेरा भगवान बचाएगा।
🔴 उनकी हठ के आगे बचाव दल भी उन्हें लिए बगैर वहां से चला गया।
🔴 कुछ ही देर में पेड़ बाढ़ की धारा में बह गया और साधु की मृत्यु हो गयी, मरने के बाद साधु महाराज स्वर्ग पहुचे और भगवान से बोले हे प्रभु मैंने तुम्हारी पूरी लगन के साथ आराधना की, तपस्या की पर जब मै पानी में डूब कर मर रहा था तब तुम मुझे बचाने नहीं आये, ऐसा क्यों प्रभु?
🔵 भगवान बोले हे साधु महात्मा मै तुम्हारी रक्षा करने एक नहीं बल्कि तीन बार आया पहला, ग्रामीणों के रूप में, दूसरा नाव वाले के रूप में और तीसरा हेलीकाप्टर बचाव दल के रूप में किन्तु तुम मेरे इन अवसरों को पहचान नहीं पाए।
🔵 एक बार गाँव में बहुत भीषण बाढ़ आ गई। चारो तरफ पानी ही पानी दिखाई देने लगा, सभी लोग अपनी जान बचाने के लिए ऊँचे स्थानों की तरफ बढ़ने लगे। जब लोगों ने देखा कि साधु महाराज अभी भी पेड़ के नीचे बैठे भगवान का नाम जप रहे हैं तो उन्हें यह जगह छोड़ने की सलाह दी। पर साधु ने कहा तुम लोग अपनी जान बचाओ मुझे तो मेरा भगवान बचाएगा!
🔴 धीरे-धीरे पानी का स्तर बढ़ता गया, और पानी साधु के कमर तक आ पहुंचा, इतने में वहां से एक नाव गुजरी मल्लाह ने कहा- ” हे साधू महाराज आप इस नाव पर सवार हो जाइए मैं आपको सुरक्षित स्थान तक पहुंचा दूंगा, नहीं, मुझे तुम्हारी मदद की आवश्यकता नहीं है, मुझे तो मेरा भगवान बचाएगा, साधु ने उत्तर दिया।
🔵 कुछ देर बाद बाढ़ और प्रचंड हो गयी, साधु ने पेड़ पर चढ़ना उचित समझा और वहां बैठ कर ईश्वर को याद करने लगा। तभी अचानक उन्हें गड़गडाहट की आवाज़ सुनाई दी, एक हेलिकोप्टर उनकी मदद के लिए आ पहुंचा, बचाव दल ने एक रस्सी लटकाई और साधु को उसे जोर से पकड़ने का आग्रह किया, पर साधु फिर बोला मैं इसे नहीं पकडूँगा, मुझे तो मेरा भगवान बचाएगा।
🔴 उनकी हठ के आगे बचाव दल भी उन्हें लिए बगैर वहां से चला गया।
🔴 कुछ ही देर में पेड़ बाढ़ की धारा में बह गया और साधु की मृत्यु हो गयी, मरने के बाद साधु महाराज स्वर्ग पहुचे और भगवान से बोले हे प्रभु मैंने तुम्हारी पूरी लगन के साथ आराधना की, तपस्या की पर जब मै पानी में डूब कर मर रहा था तब तुम मुझे बचाने नहीं आये, ऐसा क्यों प्रभु?
🔵 भगवान बोले हे साधु महात्मा मै तुम्हारी रक्षा करने एक नहीं बल्कि तीन बार आया पहला, ग्रामीणों के रूप में, दूसरा नाव वाले के रूप में और तीसरा हेलीकाप्टर बचाव दल के रूप में किन्तु तुम मेरे इन अवसरों को पहचान नहीं पाए।
शुक्रवार, 26 मई 2017
👉 सर्वसमर्थ गायत्री माता
🔵 यह मई १९७० की बात है। मैं अपने छोटे भाई महावीर सिंह के साथ चार दिन के शिविर में मथुरा गया हुआ था। उस दौरान गुरुदेव ने मुझसे कहा कि तेरी कोई पीड़ा हो तो मुझे बतला। मैंने कहा- गुरुदेव मेरा एक छोटा भाई है। उसके हाथ पैर में जान नहीं है। हिलते डुलते भी नहीं है। पूज्यवर ने कहा- बेटा वह उसके पिछले जन्म का प्रारब्ध है। जिसका परिणाम भुगत रहा है। मैंने कहा- गुरुदेव अगर वह अच्छा नहीं हो सकता है तो ऐसी कृपा करें कि वह मर जाय। हम लोगों से उसका कष्ट देखा नहीं जाता। गुरुदेव बोले- मैं तो ब्राह्मण हूँ, किसी को मार कैसे सकता हूँ! फिर कुछ सोचते हुए धीरे से बोले- जब मनुष्य किसी को जिन्दा नहीं कर सकता तो मारने का अधिकार उसे कैसे मिल सकता है? मैंने कहा- कम से कम चलने फिरने लग जाय.....। गुरुदेव कुछ देर मौन हो गए। उसके पश्चात् बोले बेटा गायत्री माता से कहूँगा, वह ठीक हो जाएगा। भस्मी ले जा, भस्मी से उसकी मालिश करना और मेरा काम करना।
🔴 मैंने भस्मी ले जाकर अपनी माँ को दी और बताया कि गुरुदेव की कृपा से भैय्या ठीक हो जाएगा। इस बात पर ज्यादा विश्वास किसी को नहीं हुआ। मेरे पिताजी को तो बिल्कुल विश्वास नहीं था। उन्होंने कहा- अगर यह लड़का ठीक हो जाएगा तो हम गुरुजी की शक्ति को मानेंगे। आसपास के लोगों में यह बात फैल गई थी। सभी लोग उसको देखने आते। डॉक्टर लोग भी बच्चे की स्थिति जानने के लिए आते। मेरी माँ ने भस्म को भाई के अविकसित हाथ पैर में रोजाना लगाना शुरु किया और महामृत्युंजय मंत्र का जप उसने निमित्त शुरू किया। थोड़े ही दिनों में उसके मसल्स बनने लगे।
🔵 इस तरह देखते- देखते करीब चार महीने बीत गए। लोगों की उत्सुकता बढ़ रही थी। हाथ पैरों में धीरे- धीरे जान आने लगी। धीरे- धीरे वह चारपाई पकड़कर उठने- बैठने लगा और कुछ ही महीनों में वह एकदम सामान्य बच्चे की तरह हो गया। किसी को विश्वास नहीं होता था कि यह वही बच्चा है। हम लोगों की खुशी का ठिकाना न रहा। पिताजी गाँव भर घूमते, लोगों को बताते कि गुरुदेव ने मेरे बच्चे को हाथ पैर दे दिए हैं। उन दिनों गायत्री यज्ञ के लिए कोई तैयार नहीं होता था, पर इस घटना ने हमें यज्ञ करने हेतु बाध्य कर दिया। ठाठरिया (चूरू) राजस्थान में ६ से ९ मई १९७२ तक एक विशाल यज्ञ का निर्धारण किया गया। उस यज्ञ में दूर- दूर से लोग आए। जो भी आता वह व्यक्ति पूज्यवर की सिद्धियों से अधिक गायत्री यज्ञ के तत्वदर्शन से प्रभावित होता। हजारों लोग दीक्षा लेकर गए। हजारों का साहित्य बिका। उस क्षेत्र में करीब पचास शाखाएँ खुल गईं।
🔴 इस घटना के बाद मेरा पूरा परिवार गुरुदेव से गहराई से जुड़ गया। मैंने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर २२ अगस्त १९९८ को स्थायी रूप से सेवा दे दी। तब से उनके चरणों में रहकर उन्हीं का कार्य कर रहा हूँ।
🌹 रामसिंह राठौर -शान्तिकुञ्ज (उत्तराखण्ड)
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Samsarn/a/mata
🔴 मैंने भस्मी ले जाकर अपनी माँ को दी और बताया कि गुरुदेव की कृपा से भैय्या ठीक हो जाएगा। इस बात पर ज्यादा विश्वास किसी को नहीं हुआ। मेरे पिताजी को तो बिल्कुल विश्वास नहीं था। उन्होंने कहा- अगर यह लड़का ठीक हो जाएगा तो हम गुरुजी की शक्ति को मानेंगे। आसपास के लोगों में यह बात फैल गई थी। सभी लोग उसको देखने आते। डॉक्टर लोग भी बच्चे की स्थिति जानने के लिए आते। मेरी माँ ने भस्म को भाई के अविकसित हाथ पैर में रोजाना लगाना शुरु किया और महामृत्युंजय मंत्र का जप उसने निमित्त शुरू किया। थोड़े ही दिनों में उसके मसल्स बनने लगे।
🔵 इस तरह देखते- देखते करीब चार महीने बीत गए। लोगों की उत्सुकता बढ़ रही थी। हाथ पैरों में धीरे- धीरे जान आने लगी। धीरे- धीरे वह चारपाई पकड़कर उठने- बैठने लगा और कुछ ही महीनों में वह एकदम सामान्य बच्चे की तरह हो गया। किसी को विश्वास नहीं होता था कि यह वही बच्चा है। हम लोगों की खुशी का ठिकाना न रहा। पिताजी गाँव भर घूमते, लोगों को बताते कि गुरुदेव ने मेरे बच्चे को हाथ पैर दे दिए हैं। उन दिनों गायत्री यज्ञ के लिए कोई तैयार नहीं होता था, पर इस घटना ने हमें यज्ञ करने हेतु बाध्य कर दिया। ठाठरिया (चूरू) राजस्थान में ६ से ९ मई १९७२ तक एक विशाल यज्ञ का निर्धारण किया गया। उस यज्ञ में दूर- दूर से लोग आए। जो भी आता वह व्यक्ति पूज्यवर की सिद्धियों से अधिक गायत्री यज्ञ के तत्वदर्शन से प्रभावित होता। हजारों लोग दीक्षा लेकर गए। हजारों का साहित्य बिका। उस क्षेत्र में करीब पचास शाखाएँ खुल गईं।
🔴 इस घटना के बाद मेरा पूरा परिवार गुरुदेव से गहराई से जुड़ गया। मैंने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर २२ अगस्त १९९८ को स्थायी रूप से सेवा दे दी। तब से उनके चरणों में रहकर उन्हीं का कार्य कर रहा हूँ।
🌹 रामसिंह राठौर -शान्तिकुञ्ज (उत्तराखण्ड)
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Samsarn/a/mata
👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 106)
🌹 ब्राह्मण मन और ऋषि कर्म
🔵 इस प्रश्न का उत्तर प्राप्त करने में बहुत देर नहीं लगती। देव मानवों का पुरातन इतिहास इसके लिए प्रमाण उदाहरणों की एक पूरी शृंखला लाकर खड़ी कर देता है। उनमें से जो भी प्रिय लगे, अनुकूल पड़े, अपने लिए चुना, अपनाया जा सकता है। केवल दैत्य ही हैं जिनकी इच्छाएँ आवश्यकताएँ पूरी नहीं होतीं। कामनाएँ, वासनाएँ, तृष्णाएँ कभी किसी की पूरी नहीं हुई हैं। साधनों के विपुल भण्डार जमा करने और उन्हें अतिशय मात्रा में भोगने की योजनाएँ तो अनेकों ने बनाईं, पर हिरण्याक्ष से लेकर सिकंदर तक कोई उन्हें पूरी नहीं कर सका।
🔴 आत्मा और परमात्मा का मध्यवर्ती एक मिलन-विराम है, जिसे देवमानव कहते हैं। इसके और भी कई नाम हैं-महापुरुष, संत, सुधारक और शहीद आदि। पुरातन काल में इन्हें ऋषि कहते थे। ऋषि अर्थात वे-जिनका निर्वाह न्यूनतम में चलता हो और बची हुई सामर्थ्य सम्पदा को ऐसे कामों में नियोजित किए रहते हों, जो समय की आवश्यकता पूरी करें। वातावरण में सत्प्रवृत्तियों का अनुपात बढ़ाएँ। जो श्रेष्ठता की दिशा में बढ़ रहे हैं, उन्हें मनोबल अनुकूल मिले। जो विनाश को आतुर हैं, उनके कुचक्रों को सफलता न मिले। संक्षेप में यही हैं वे कार्य निर्धारण जिनके लिए ऋषियों के प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रयास अनवरत गति से चलते रहते हैं। निर्वाह से बची हुई क्षमता को वे इन्हीं कार्यों में लगाते रहते हैं। फलतः जब कभी लेखा-जोखा लिया जाता है, तो ऐसा प्रतीत होता है कि वे कितना कार्य कर चुके, कितनी लम्बी मंजिल पार कर ली। यह एक-एक कदम चलते रहने का परिणाम है। एक-एक बूँद जमा करते रहने की गति की ही परिणति है।
🔵 अपनी समझ में वह भक्ति नहीं आई, जिसमें मात्र भावोन्माद ही हो, आचरण की दृष्टि से सब कुछ क्षम्य हो। न उनका कोई सिद्धांत जँचा, न उस कथन के औचित्य को विवेक ने स्वीकारा। अतएव जब-जब भक्ति उमंगती रही ऋषियों का मार्ग ही अनुकरण के योग्य जँचा और जो समय हाथ में था, उसे पूरी तरह ऋषि परम्परा में खपा देने का प्रयत्न चलता रहा। पीछे मुड़कर देखते हैं कि अनवरत प्रयत्न करते रहने वाले कण-कण करके मनों जोड़ लेते हैं। चिड़िया तिनका-तिनका बीनकर अच्छा-खासा घोंसला बना लेती है। अपना भी कुछ ऐसा ही सुयोग्य सौभाग्य है कि ऋषि परम्परा का अनुकरण करने के लिए कुछ कदम बढ़ाए तो उनकी परिणति ऐसी हुई कि जिसे समझदार व्यक्ति शानदार कहते हैं।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/hari/brahman
🔵 इस प्रश्न का उत्तर प्राप्त करने में बहुत देर नहीं लगती। देव मानवों का पुरातन इतिहास इसके लिए प्रमाण उदाहरणों की एक पूरी शृंखला लाकर खड़ी कर देता है। उनमें से जो भी प्रिय लगे, अनुकूल पड़े, अपने लिए चुना, अपनाया जा सकता है। केवल दैत्य ही हैं जिनकी इच्छाएँ आवश्यकताएँ पूरी नहीं होतीं। कामनाएँ, वासनाएँ, तृष्णाएँ कभी किसी की पूरी नहीं हुई हैं। साधनों के विपुल भण्डार जमा करने और उन्हें अतिशय मात्रा में भोगने की योजनाएँ तो अनेकों ने बनाईं, पर हिरण्याक्ष से लेकर सिकंदर तक कोई उन्हें पूरी नहीं कर सका।
🔴 आत्मा और परमात्मा का मध्यवर्ती एक मिलन-विराम है, जिसे देवमानव कहते हैं। इसके और भी कई नाम हैं-महापुरुष, संत, सुधारक और शहीद आदि। पुरातन काल में इन्हें ऋषि कहते थे। ऋषि अर्थात वे-जिनका निर्वाह न्यूनतम में चलता हो और बची हुई सामर्थ्य सम्पदा को ऐसे कामों में नियोजित किए रहते हों, जो समय की आवश्यकता पूरी करें। वातावरण में सत्प्रवृत्तियों का अनुपात बढ़ाएँ। जो श्रेष्ठता की दिशा में बढ़ रहे हैं, उन्हें मनोबल अनुकूल मिले। जो विनाश को आतुर हैं, उनके कुचक्रों को सफलता न मिले। संक्षेप में यही हैं वे कार्य निर्धारण जिनके लिए ऋषियों के प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रयास अनवरत गति से चलते रहते हैं। निर्वाह से बची हुई क्षमता को वे इन्हीं कार्यों में लगाते रहते हैं। फलतः जब कभी लेखा-जोखा लिया जाता है, तो ऐसा प्रतीत होता है कि वे कितना कार्य कर चुके, कितनी लम्बी मंजिल पार कर ली। यह एक-एक कदम चलते रहने का परिणाम है। एक-एक बूँद जमा करते रहने की गति की ही परिणति है।
🔵 अपनी समझ में वह भक्ति नहीं आई, जिसमें मात्र भावोन्माद ही हो, आचरण की दृष्टि से सब कुछ क्षम्य हो। न उनका कोई सिद्धांत जँचा, न उस कथन के औचित्य को विवेक ने स्वीकारा। अतएव जब-जब भक्ति उमंगती रही ऋषियों का मार्ग ही अनुकरण के योग्य जँचा और जो समय हाथ में था, उसे पूरी तरह ऋषि परम्परा में खपा देने का प्रयत्न चलता रहा। पीछे मुड़कर देखते हैं कि अनवरत प्रयत्न करते रहने वाले कण-कण करके मनों जोड़ लेते हैं। चिड़िया तिनका-तिनका बीनकर अच्छा-खासा घोंसला बना लेती है। अपना भी कुछ ऐसा ही सुयोग्य सौभाग्य है कि ऋषि परम्परा का अनुकरण करने के लिए कुछ कदम बढ़ाए तो उनकी परिणति ऐसी हुई कि जिसे समझदार व्यक्ति शानदार कहते हैं।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 प्रेरणा का स्रोत
🔴 दोस्तों, जिंदगी है तो संघर्ष हैं, तनाव है, काम का दबाब है, ख़ुशी है, डर है! लेकिन अच्छी बात यह है कि ये सभी स्थायी नहीं हैं! समय रूपी नदी के प्रवाह में से सब प्रवाहमान हैं! कोई भी परिस्थिति चाहे ख़ुशी की हो या ग़म की, कभी स्थाई नहीं होती, समय के अविरल प्रवाह में विलीन हो जाती है!
🔵 ऐसा अधिकतर होता है की जीवन की यात्रा के दौरान हम अपने आप को कई बार दुःख, तनाव,चिंता, डर, हताशा, निराशा, भय, रोग इत्यादि के मकडजाल में फंसा हुआ पाते हैं हम तत्कालिक परिस्थितियों के इतने वशीभूत हो जाते हैं कि दूर-दूर तक देखने पर भी हमें कोई प्रकाश की किरण मात्र भी दिखाई नहीं देती, दूर से चींटी की तरह महसूस होने वाली परेशानी हमारे नजदीक आते-आते हाथी के जैसा रूप धारण कर लेती है और हम उसकी विशालता और भयावहता के आगे समर्पण कर परिस्थितियों को अपने ऊपर हावी हो जाने देते हैं, वो परिस्थिति हमारे पूरे वजूद को हिला डालती है, हमें हताशा,निराशा के भंवर में उलझा जाती है…एक-एक क्षण पहाड़ सा प्रतीत होता है और हममे से ज्यादातर लोग आशा की कोई किरण ना देख पाने के कारण हताश होकर परिस्थिति के आगे हथियार डाल देते हैं!
🔴 अगर आप किसी अनजान, निर्जन रेगिस्तान मे फँस जाएँ तो उससे निकलने का एक ही उपाए है, बस -चलते रहें! अगर आप नदी के बीच जाकर हाथ पैर नहीं चलाएँगे तो निश्चित ही डूब जाएंगे! जीवन मे कभी ऐसा क्षण भी आता है, जब लगता है की बस अब कुछ भी बाकी नहीं है, ऐसी परिस्थिति मे अपने आत्मविश्वास और साहस के साथ सिर्फ डटे रहें क्योंकि- हर चीज का हल होता है,आज नहीं तो कल होता है।
🔵 एक बार एक राजा की सेवा से प्रसन्न होकर एक साधू नें उसे एक ताबीज दिया और कहा की राजन इसे अपने गले मे डाल लो और जिंदगी में कभी ऐसी परिस्थिति आये की जब तुम्हे लगे की बस अब तो सब ख़तम होने वाला है, परेशानी के भंवर मे अपने को फंसा पाओ, कोई प्रकाश की किरण नजर ना आ रही हो, हर तरफ निराशा और हताशा हो तब तुम इस ताबीज को खोल कर इसमें रखे कागज़ को पढ़ना, उससे पहले नहीं!
🔴 राजा ने वह ताबीज अपने गले मे पहन लिया! एक बार राजा अपने सैनिकों के साथ शिकार करने घने जंगल मे गया! एक शेर का पीछा करते करते राजा अपने सैनिकों से अलग हो गया और दुश्मन राजा की सीमा मे प्रवेश कर गया, घना जंगल और सांझ का समय, तभी कुछ दुश्मन सैनिकों के घोड़ों की टापों की आवाज राजा को आई और उसने भी अपने घोड़े को एड लगाई, राजा आगे आगे दुश्मन सैनिक पीछे पीछे! बहुत दूर तक भागने पर भी राजा उन सैनिकों से पीछा नहीं छुडा पाया! भूख प्यास से बेहाल राजा को तभी घने पेड़ों के बीच मे एक गुफा सी दिखी, उसने तुरंत स्वयं और घोड़े को उस गुफा की आड़ मे छुपा लिया! और सांस रोक कर बैठ गया, दुश्मन के घोड़ों के पैरों की आवाज धीरे धीरे पास आने लगी! दुश्मनों से घिरे हुए अकेले राजा को अपना अंत नजर आने लगा, उसे लगा की बस कुछ ही क्षणों में दुश्मन उसे पकड़ कर मौत के घाट उतार देंगे! वो जिंदगी से निराश हो ही गया था, की उसका हाथ अपने ताबीज पर गया और उसे साधू की बात याद आ गई! उसने तुरंत ताबीज को खोल कर कागज को बाहर निकाला और पढ़ा! उस पर्ची पर लिखा था —यह भी कट जाएगा
🔴 राजा को अचानक ही जैसे घोर अन्धकार मे एक ज्योति की किरण दिखी, डूबते को जैसे कोई सहारा मिला! उसे अचानक अपनी आत्मा मे एक अकथनीय शान्ति का अनुभव हुआ! उसे लगा की सचमुच यह भयावह समय भी कट ही जाएगा, फिर मे क्यों चिंतित होऊं! अपने प्रभु और अपने पर विश्वासरख उसने स्वयं से कहा की हाँ, यह भी कट जाएगा!
🔵 और हुआ भी यही, दुश्मन के घोड़ों के पैरों की आवाज पास आते आते दूर जाने लगी, कुछ समय बाद वहां शांति छा गई! राजा रात मे गुफा से निकला और किसी तरह अपने राज्य मे वापस आ गया!
🔴 दोस्तों, यह सिर्फ किसी राजा की कहानी नहीं है यह हम सब की कहानी है! हम सभी परिस्थिति,काम,नाव के दवाव में इतने जकड जाते हैं की हमे कुछ सूझता नहीं है, हमारा डर हम पर हावी होने लगता है, कोई रास्ता, समाधान दूर दूर तक नजर नहीं आता, लगने लगता है की बस, अब सब ख़तम, है ना?
🔵 जब ऐसा हो तो 2 मिनट शांति से बेठिये,थोड़ी गहरी गहरी साँसे लीजिये! अपने आराध्य को याद कीजिये और स्वयं से जोर से कहिये –यह भी कट जाएगा! आप देखिएगा एकदम से जादू सा महसूस होगा, और आप उस परिस्थिति से उबरने की शक्ति अपने अन्दर महसूस करेंगे!
🔵 ऐसा अधिकतर होता है की जीवन की यात्रा के दौरान हम अपने आप को कई बार दुःख, तनाव,चिंता, डर, हताशा, निराशा, भय, रोग इत्यादि के मकडजाल में फंसा हुआ पाते हैं हम तत्कालिक परिस्थितियों के इतने वशीभूत हो जाते हैं कि दूर-दूर तक देखने पर भी हमें कोई प्रकाश की किरण मात्र भी दिखाई नहीं देती, दूर से चींटी की तरह महसूस होने वाली परेशानी हमारे नजदीक आते-आते हाथी के जैसा रूप धारण कर लेती है और हम उसकी विशालता और भयावहता के आगे समर्पण कर परिस्थितियों को अपने ऊपर हावी हो जाने देते हैं, वो परिस्थिति हमारे पूरे वजूद को हिला डालती है, हमें हताशा,निराशा के भंवर में उलझा जाती है…एक-एक क्षण पहाड़ सा प्रतीत होता है और हममे से ज्यादातर लोग आशा की कोई किरण ना देख पाने के कारण हताश होकर परिस्थिति के आगे हथियार डाल देते हैं!
🔴 अगर आप किसी अनजान, निर्जन रेगिस्तान मे फँस जाएँ तो उससे निकलने का एक ही उपाए है, बस -चलते रहें! अगर आप नदी के बीच जाकर हाथ पैर नहीं चलाएँगे तो निश्चित ही डूब जाएंगे! जीवन मे कभी ऐसा क्षण भी आता है, जब लगता है की बस अब कुछ भी बाकी नहीं है, ऐसी परिस्थिति मे अपने आत्मविश्वास और साहस के साथ सिर्फ डटे रहें क्योंकि- हर चीज का हल होता है,आज नहीं तो कल होता है।
🔵 एक बार एक राजा की सेवा से प्रसन्न होकर एक साधू नें उसे एक ताबीज दिया और कहा की राजन इसे अपने गले मे डाल लो और जिंदगी में कभी ऐसी परिस्थिति आये की जब तुम्हे लगे की बस अब तो सब ख़तम होने वाला है, परेशानी के भंवर मे अपने को फंसा पाओ, कोई प्रकाश की किरण नजर ना आ रही हो, हर तरफ निराशा और हताशा हो तब तुम इस ताबीज को खोल कर इसमें रखे कागज़ को पढ़ना, उससे पहले नहीं!
🔴 राजा ने वह ताबीज अपने गले मे पहन लिया! एक बार राजा अपने सैनिकों के साथ शिकार करने घने जंगल मे गया! एक शेर का पीछा करते करते राजा अपने सैनिकों से अलग हो गया और दुश्मन राजा की सीमा मे प्रवेश कर गया, घना जंगल और सांझ का समय, तभी कुछ दुश्मन सैनिकों के घोड़ों की टापों की आवाज राजा को आई और उसने भी अपने घोड़े को एड लगाई, राजा आगे आगे दुश्मन सैनिक पीछे पीछे! बहुत दूर तक भागने पर भी राजा उन सैनिकों से पीछा नहीं छुडा पाया! भूख प्यास से बेहाल राजा को तभी घने पेड़ों के बीच मे एक गुफा सी दिखी, उसने तुरंत स्वयं और घोड़े को उस गुफा की आड़ मे छुपा लिया! और सांस रोक कर बैठ गया, दुश्मन के घोड़ों के पैरों की आवाज धीरे धीरे पास आने लगी! दुश्मनों से घिरे हुए अकेले राजा को अपना अंत नजर आने लगा, उसे लगा की बस कुछ ही क्षणों में दुश्मन उसे पकड़ कर मौत के घाट उतार देंगे! वो जिंदगी से निराश हो ही गया था, की उसका हाथ अपने ताबीज पर गया और उसे साधू की बात याद आ गई! उसने तुरंत ताबीज को खोल कर कागज को बाहर निकाला और पढ़ा! उस पर्ची पर लिखा था —यह भी कट जाएगा
🔴 राजा को अचानक ही जैसे घोर अन्धकार मे एक ज्योति की किरण दिखी, डूबते को जैसे कोई सहारा मिला! उसे अचानक अपनी आत्मा मे एक अकथनीय शान्ति का अनुभव हुआ! उसे लगा की सचमुच यह भयावह समय भी कट ही जाएगा, फिर मे क्यों चिंतित होऊं! अपने प्रभु और अपने पर विश्वासरख उसने स्वयं से कहा की हाँ, यह भी कट जाएगा!
🔵 और हुआ भी यही, दुश्मन के घोड़ों के पैरों की आवाज पास आते आते दूर जाने लगी, कुछ समय बाद वहां शांति छा गई! राजा रात मे गुफा से निकला और किसी तरह अपने राज्य मे वापस आ गया!
🔴 दोस्तों, यह सिर्फ किसी राजा की कहानी नहीं है यह हम सब की कहानी है! हम सभी परिस्थिति,काम,नाव के दवाव में इतने जकड जाते हैं की हमे कुछ सूझता नहीं है, हमारा डर हम पर हावी होने लगता है, कोई रास्ता, समाधान दूर दूर तक नजर नहीं आता, लगने लगता है की बस, अब सब ख़तम, है ना?
🔵 जब ऐसा हो तो 2 मिनट शांति से बेठिये,थोड़ी गहरी गहरी साँसे लीजिये! अपने आराध्य को याद कीजिये और स्वयं से जोर से कहिये –यह भी कट जाएगा! आप देखिएगा एकदम से जादू सा महसूस होगा, और आप उस परिस्थिति से उबरने की शक्ति अपने अन्दर महसूस करेंगे!
👉 आओ! हम भी युगज्योति का स्पर्श पाएँ
🔵 सब तरफ हाहाकार-चीत्कार-चारों ओर अंधकार-ही-अंधकार। साधन बहुत, शक्ति बहुत, किंतु अंधकार में उनका उपयोग कैसे हो? जिन्हें कुछ चाहिए, कुछ-का-कुछ उठा ले रहे हैं। जिनके पास कुछ देने को है, उन्हें पता नहीं किसे देना है। हर कार्य और उसके लिए हर वस्तु, पर इससे क्या-सभी बेठिकाने-अनर्थ तो होगा ही-कारण अंधकार। इस अंधकार को दूर करो, इसे निकाल बाहर करो, चारों ओर यही चीख-पुकार। यही हमें सब ओर से घेरे है।
🔴 एक नन्हा-सा दीपक मुसकराया- कहाँ है अंधकार? हर तरफ से आवाजें उठीं-यहाँ-यहाँ। दीपक पहुँचा-पूछा, कहाँ? उत्तर मिला-हर तरफ। दीपक ने कहा- पर अभी तो कहा जा रहा था ‘यहाँ’! पर यहाँ तो कहीं नहीं है। लोगों ने चारों ओर देखा, सारी स्थिति साफ-साफ दीख रही थी। अपनी बात सही न साबित होते देख सभी दीपक पर ही बिगड़ उठे-तुम हमें झूठ साबित करने आए हो। हमारी चोटें देखो, हमारी हालत देखो, यह क्या बिना अंधकार के संभव है? दीपक शांतभाव से बोला- तुम्हे झूठा सिद्ध करने का नहीं, अपना सत्य समझाने का विचार है, पर जो समझे, उसी को तो समझाऊँ। तुमने अपनी चोटें देख लीं- उनमें मलहम लगाओ, मैं अन्य स्थान देखूँ।
🔵 दीपक हर आवाज पर गया, पर कहीं अंधकार नहीं मिला। सब जगह वही क्रम दोहराया गया। लोगों ने देखा, अरे सचमुच अंधकार तो दीपक के पहुँचते ही भाग जाता है। जहाँ दीपक होता है, वहाँ साफ-साफ दिखाई पड़ने लगता है। दीपक के चारो ओर भीड़ लग गई। सब प्रसन्नचित्त अपना-अपना काम करने लगे।
🔴 एक ने पूछा-अंधकार किसने भगाया? उत्तर मिला- इस ज्योति ने। एक बोला- तो ज्योति हमें दे दो, अपने घर ले जाएँगे। दूसरा बोला- नहीं, मुझे दो और मुझे-मुझे का शोर मच गया। दीपक ने कहा- ज्योति सभी के साथ जा सकती है, पर उसकी अपनी शर्त है, कीमत है। लोग हर्ष से पुकार उठे- हम कीमत देंगे, शर्त पूरी करेंगे, ज्योति लेंगे।
🔵 तो सुनो, ज्योति वर्तिका पर ठहरती है, पर उसे स्नेहसिक्त होना चाहिए और हाँ उसे धारण करने के लिए ऐसा पात्र जो सीधा रह सके और स्नेह को स्वयं ही न पी जाए। यह सब कर सको, तो फिर करो ज्योति पाने की तैयारी। कुछ ने सार्थक प्रयास किया, दीपक ने उन्हें स्पर्श किया, वे प्रकाशित हुए और चल पड़े। शेष शिकायत करते रहे।
🔴 आज भी हर व्यक्ति के लिए कुछ ऐसा ही अवसर है। युगज्योति हममें से हर एक का आह्वान कर रही है। पर हम हैं कि लाभ उठाने की कोशिश कम, शिकायतें अधिक कर रहे हैं। अच्छा हो, इसके लिए जीवन में साधन जुटाएँ, युगज्योति के संपर्क में आने की साधना करे। फिर तो युगज्योति का स्पर्श पाते ही, जीवन में अंधकार खोजने पर भी नहीं मिलेगा।
🌹 डॉ प्रणव पंड्या
🌹जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 79
🔴 एक नन्हा-सा दीपक मुसकराया- कहाँ है अंधकार? हर तरफ से आवाजें उठीं-यहाँ-यहाँ। दीपक पहुँचा-पूछा, कहाँ? उत्तर मिला-हर तरफ। दीपक ने कहा- पर अभी तो कहा जा रहा था ‘यहाँ’! पर यहाँ तो कहीं नहीं है। लोगों ने चारों ओर देखा, सारी स्थिति साफ-साफ दीख रही थी। अपनी बात सही न साबित होते देख सभी दीपक पर ही बिगड़ उठे-तुम हमें झूठ साबित करने आए हो। हमारी चोटें देखो, हमारी हालत देखो, यह क्या बिना अंधकार के संभव है? दीपक शांतभाव से बोला- तुम्हे झूठा सिद्ध करने का नहीं, अपना सत्य समझाने का विचार है, पर जो समझे, उसी को तो समझाऊँ। तुमने अपनी चोटें देख लीं- उनमें मलहम लगाओ, मैं अन्य स्थान देखूँ।
🔵 दीपक हर आवाज पर गया, पर कहीं अंधकार नहीं मिला। सब जगह वही क्रम दोहराया गया। लोगों ने देखा, अरे सचमुच अंधकार तो दीपक के पहुँचते ही भाग जाता है। जहाँ दीपक होता है, वहाँ साफ-साफ दिखाई पड़ने लगता है। दीपक के चारो ओर भीड़ लग गई। सब प्रसन्नचित्त अपना-अपना काम करने लगे।
🔴 एक ने पूछा-अंधकार किसने भगाया? उत्तर मिला- इस ज्योति ने। एक बोला- तो ज्योति हमें दे दो, अपने घर ले जाएँगे। दूसरा बोला- नहीं, मुझे दो और मुझे-मुझे का शोर मच गया। दीपक ने कहा- ज्योति सभी के साथ जा सकती है, पर उसकी अपनी शर्त है, कीमत है। लोग हर्ष से पुकार उठे- हम कीमत देंगे, शर्त पूरी करेंगे, ज्योति लेंगे।
🔵 तो सुनो, ज्योति वर्तिका पर ठहरती है, पर उसे स्नेहसिक्त होना चाहिए और हाँ उसे धारण करने के लिए ऐसा पात्र जो सीधा रह सके और स्नेह को स्वयं ही न पी जाए। यह सब कर सको, तो फिर करो ज्योति पाने की तैयारी। कुछ ने सार्थक प्रयास किया, दीपक ने उन्हें स्पर्श किया, वे प्रकाशित हुए और चल पड़े। शेष शिकायत करते रहे।
🔴 आज भी हर व्यक्ति के लिए कुछ ऐसा ही अवसर है। युगज्योति हममें से हर एक का आह्वान कर रही है। पर हम हैं कि लाभ उठाने की कोशिश कम, शिकायतें अधिक कर रहे हैं। अच्छा हो, इसके लिए जीवन में साधन जुटाएँ, युगज्योति के संपर्क में आने की साधना करे। फिर तो युगज्योति का स्पर्श पाते ही, जीवन में अंधकार खोजने पर भी नहीं मिलेगा।
🌹 डॉ प्रणव पंड्या
🌹जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 79
👉 आत्मचिंतन के क्षण 27 May
🔴 कर्म और कर्मफल में आसक्ति रहने से मनुष्य को अनुकूल-प्रतिकूल स्थितियों से गुजरना पड़ता है और इसी के अनुसार आशा-निराशा का भी सामना करना पड़ता है और इससे मनुष्य की शक्ति यों का काफी क्षय होता है। अपने कर्म और कर्मफल को ईश्वर पर छोड़ देने से निराशा, चिन्ता, असन्तोष का कोई स्थान नहीं रह जाता, मनुष्य का आशावाद ही एकमेव अजर-अमर रहता है । तत्ववेत्ता अरस्तू ने लिखा है—”अपने कर्मों और उसके फल को ईश्वर पर छोड़ देने से आशावाद अजर-अमर बनता है। ईश्वर सभी तरह आशावाद का केन्द्र है। आशावाद और ईश्वरवाद एक ही है।”
🔵 मनुष्य की अपनी विशेष अनुभूतियां, मानसिक स्थिति में ही सुख-दुःख का जन्म होता है। बाह्य परिस्थितियों से इसका कोई सम्बन्ध नहीं। क्योंकि जिन परिस्थितियों में एक दुःखी रहता है तो दूसरा उनमें खुशियाँ मनाता है, सुख अनुभव करता है। वस्तुतः सुख-दुःख मनुष्य की अपनी अनुभूति के निर्णय हैं, और इन दोनों में से किसी एक के भी प्रवाह में बह जाने पर मनुष्य की स्थिति असन्तुलित एवं विचित्र-सी हो जाती है। उसके सोचने समझने तथा मूल्याँकन करने की क्षमता नष्ट हो जाती है।
🔴 किसी भी परिस्थिति में सुख का अनुभव करके अत्यन्त प्रसन्न होना, हर्षातिरेक हो जाना तथा दुःख के क्षणों में रोना बुद्धि के मोहित हो जाने के लक्षण हैं। कई लोग व्यक्ति विशेष को अपना अत्यन्त निकटस्थ मान लेते हैं। फिर अधिकार- भावनायुक्त व्यवहार करते हैं। विविध प्रयोजनों का आदान-प्रदान होने लगता है। एक दूसरे से कुछ न कुछ अपेक्षायें रखने लगते हैं। जब तक गाड़ी भली प्रकार चलती रहती है तो लोग सुख का अनुभव करते हैं। लेकिन जब दूसरों से अपनी अपेक्षायें पूरी न हों या जैसा चाहते हैं वैसा प्रतिदान उनसे नहीं मिले तो मनुष्य दुःखी होने लगता है।
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔵 मनुष्य की अपनी विशेष अनुभूतियां, मानसिक स्थिति में ही सुख-दुःख का जन्म होता है। बाह्य परिस्थितियों से इसका कोई सम्बन्ध नहीं। क्योंकि जिन परिस्थितियों में एक दुःखी रहता है तो दूसरा उनमें खुशियाँ मनाता है, सुख अनुभव करता है। वस्तुतः सुख-दुःख मनुष्य की अपनी अनुभूति के निर्णय हैं, और इन दोनों में से किसी एक के भी प्रवाह में बह जाने पर मनुष्य की स्थिति असन्तुलित एवं विचित्र-सी हो जाती है। उसके सोचने समझने तथा मूल्याँकन करने की क्षमता नष्ट हो जाती है।
🔴 किसी भी परिस्थिति में सुख का अनुभव करके अत्यन्त प्रसन्न होना, हर्षातिरेक हो जाना तथा दुःख के क्षणों में रोना बुद्धि के मोहित हो जाने के लक्षण हैं। कई लोग व्यक्ति विशेष को अपना अत्यन्त निकटस्थ मान लेते हैं। फिर अधिकार- भावनायुक्त व्यवहार करते हैं। विविध प्रयोजनों का आदान-प्रदान होने लगता है। एक दूसरे से कुछ न कुछ अपेक्षायें रखने लगते हैं। जब तक गाड़ी भली प्रकार चलती रहती है तो लोग सुख का अनुभव करते हैं। लेकिन जब दूसरों से अपनी अपेक्षायें पूरी न हों या जैसा चाहते हैं वैसा प्रतिदान उनसे नहीं मिले तो मनुष्य दुःखी होने लगता है।
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 भक्ति की साधना
🔵 सतत समर्पण ही भक्ति है। आत्मा का परमात्मा के प्रति, व्यक्ति का समाज के प्रति, शिष्य का गुरु के प्रति समर्पण में भक्ति की यथार्थता और सार्थकता है। निष्काम और निःस्वार्थ भक्ति ही फलती है। तभी भक्त भगवान् का साक्षात्कार प्राप्त करता है, तभी व्यक्ति जनचेतना अथवा राष्ट्रभावना का पर्याय बन जाता है और तभी शिष्य में गुरुत्व कृतार्थ हो उठता है। भक्ति कभी अकारथ होती ही नहीं, जितना निष्फल अंश लोगों को उसमें दिखाई देता है, वह भक्ति का नहीं, भक्त की न्यूनता का प्रतिबिंब होता है। भक्त में जितने अंशों में भी स्वार्थ, आकांक्षा एवं लिप्सा का भाव शेष रहता है, वही भाव उतने ही अंशों में भक्ति को निष्फल करता है।
🔴 साधक और सिद्धि की एकरूपता ही भक्ति है। इस सायुज्य में दो एक हो जाते हैं- शरीर, मन, प्राण और आत्मा से। जो तू है वह मैं हूँ, जो मैं हूँ वह तू है। तेरे-मेरे का भेद जहाँ जितने अंशों में समाप्त होता है, भक्ति की सिद्धि उतनी ही निकट आती है। यह सिद्धि भक्त को प्रभुदर्शन के रूप में मिलती है। भक्त अपने भगवान् से तदाकार हो जाता है। भक्ति; भक्ति है। वह आध्यात्मिक हो सकती है और उसका रंग सामाजिक, राजनैतिक और पारिवारिक भी। प्रभुभक्त, जनभक्त, समाजभक्त, राष्ट्रभक्त के साथ पितृभक्त, मातृभक्त, आदर्श पति-पत्नी, सद्गृहस्थ आदि बहुत से प्रचलित शब्द इसके संकेत हैं। भक्ति एक योग है, एक साधना है। दूसरे के प्रति-संतान तथा माता-पिता से लेकर राष्ट्र-समाज एवं परमेश्वर तक जितना समर्पण है वह भक्ति है। हाँ, इसका क्रमिक विकास अवश्य है। इसका प्रारंभिक रूप जहाँ मातृ-पितृ भक्ति है, तो यही अपने विकसित रूप में समाजभक्ति, राष्ट्रभक्ति और अंततः प्रभुभक्ति के रूप में स्वयं को प्रकट करती है।
🔵 मार्ग अनेक हैं, मंजिल एक है। भक्त न उलझता है, न चिंतित होता है। वह सहज रूप में अनेक और अनंत को भी अपना एक बना लेता है और वह एक कपड़ा बुनते हुए कबीर को, कपड़ा सिलते हुए नामदेव को, जूते गाँठते हुए रैदास को, हजामत बनाते हुए सेना नाई को भी मिल जाता है। उस एक को प्राप्त करने वाला व्यक्ति न मोची है, न जुलाहा, वह न राजा है न रंक। वह तो सहजता, सच्चाई, प्रेम, विश्वास अपनाने वाला भक्त होता है।
🔴 भक्त के लिए तो जीवन का हर कर्म पूजा होती है, सृष्टि का हर प्राणी भगवान् होता है, धरती का कण-कण मंदिर होता है। मंदिर में भगवान् की पूजा करते हुए जितने शुद्ध भाव अनिवार्य होते हैं, उतने ही शुद्ध भाव जीवन में हर कर्म करते हुए रहें, यही भक्ति की साधना है।
🌹 डॉ प्रणव पंड्या
🌹 जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 78
🔴 साधक और सिद्धि की एकरूपता ही भक्ति है। इस सायुज्य में दो एक हो जाते हैं- शरीर, मन, प्राण और आत्मा से। जो तू है वह मैं हूँ, जो मैं हूँ वह तू है। तेरे-मेरे का भेद जहाँ जितने अंशों में समाप्त होता है, भक्ति की सिद्धि उतनी ही निकट आती है। यह सिद्धि भक्त को प्रभुदर्शन के रूप में मिलती है। भक्त अपने भगवान् से तदाकार हो जाता है। भक्ति; भक्ति है। वह आध्यात्मिक हो सकती है और उसका रंग सामाजिक, राजनैतिक और पारिवारिक भी। प्रभुभक्त, जनभक्त, समाजभक्त, राष्ट्रभक्त के साथ पितृभक्त, मातृभक्त, आदर्श पति-पत्नी, सद्गृहस्थ आदि बहुत से प्रचलित शब्द इसके संकेत हैं। भक्ति एक योग है, एक साधना है। दूसरे के प्रति-संतान तथा माता-पिता से लेकर राष्ट्र-समाज एवं परमेश्वर तक जितना समर्पण है वह भक्ति है। हाँ, इसका क्रमिक विकास अवश्य है। इसका प्रारंभिक रूप जहाँ मातृ-पितृ भक्ति है, तो यही अपने विकसित रूप में समाजभक्ति, राष्ट्रभक्ति और अंततः प्रभुभक्ति के रूप में स्वयं को प्रकट करती है।
🔵 मार्ग अनेक हैं, मंजिल एक है। भक्त न उलझता है, न चिंतित होता है। वह सहज रूप में अनेक और अनंत को भी अपना एक बना लेता है और वह एक कपड़ा बुनते हुए कबीर को, कपड़ा सिलते हुए नामदेव को, जूते गाँठते हुए रैदास को, हजामत बनाते हुए सेना नाई को भी मिल जाता है। उस एक को प्राप्त करने वाला व्यक्ति न मोची है, न जुलाहा, वह न राजा है न रंक। वह तो सहजता, सच्चाई, प्रेम, विश्वास अपनाने वाला भक्त होता है।
🔴 भक्त के लिए तो जीवन का हर कर्म पूजा होती है, सृष्टि का हर प्राणी भगवान् होता है, धरती का कण-कण मंदिर होता है। मंदिर में भगवान् की पूजा करते हुए जितने शुद्ध भाव अनिवार्य होते हैं, उतने ही शुद्ध भाव जीवन में हर कर्म करते हुए रहें, यही भक्ति की साधना है।
🌹 डॉ प्रणव पंड्या
🌹 जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 78
गुरुवार, 25 मई 2017
👉 हृदयद्वार खुले तो सच्ची शिक्षा मिले
🔵 मैं उन्हीं के बीच जाकर बैठ गया। लगा जैसे मैं भी एक फूल हूँ। यदि ये पौधे मुझे भी अपना साथी बना लें, तो मुझे भी अपने खोए बचपन को पाने का सुअवसर मिल जाए। भावना आगे बढ़ी। जब अंतराल हुलसता है, तो कुतर्की विचार भी ठंढे पड़ जाते हैं। भावों में प्रबल रचनाशक्ति है, वे अपनी दुनिया आप बना लेते हैं-काल्पनिक नहीं, पूरी तरह से शक्तिशाली और सजीव। देवों की रचना भावनाओं के बल पर ही हुई है। अपनी श्रद्धा को पिरोकर ही उन्हें महान बनाया गया है। अपने भाव फूल बनने को मचले, तो वैसा ही बनने में देर न थी। लगा कि इन पंक्ति बनाकर बैठे हुए पुष्प बालकों ने मुझे भी सहचर मानकर अपने में सम्मिलित कर लिया है।
🔴 एक गुलाबी फूल वाला पौधा बड़ा हँसोड़ और बातूनी था। अपनी भाषा में उसने कहा-दोस्त! तुम मनुष्यों में बेकार आ जन्मे। उनकी भी कोई जिंदगी है, हर समय चिंता, तनाव, उधेड़बुन, कुढ़न। अबकी बार तुम पौधे बनना और हमारे साथ रहना। देखते नहीं, हम सब कितने प्रसन्न हैं, कितने खिलखिलाते रहते हैं? जिंदगी को हँसी-खेल मानकर जीने में कितनी शांति है, यह हम लोग जानते हैं। देखते नहीं हमारे भीतर का आंतरिक उल्लास हमारी सुगंध के रूप में चारों ओर फैल रहा है। हम सबको प्यार करते हैं, सभी को प्रसन्नता प्रदान करते हैं। आनंद से जीते हैं और जो पास आता है, उसी को आनंदित कर देते हैं। यही तो जीवन जीने की कला है। इनसान बेकार में अपनी बुद्धिमानी पर घमंड करता एवं चिंता, तनाव, घुटन ही तो पाता है।
🔵 मेरा मस्तक उस खिलखिलाते हुए फूल के प्रति श्रद्धा से नत हो गया। मैं कहने लगा-पुष्प-मित्र तुम धन्य हो। स्वल्प साधन होते हुए भी जीवन कैसे जीना चाहिए-तुम यह जानते हो। एक हम हैं-जो उपलब्ध सौभाग्य को कुढ़न में ही व्यतीत करते रहते हैं। सखा, तुम सच्चे उपदेशक हो, वाणी से नहीं जीवन से सिखाते हो।
🔴 हँसोड़ गुलाबी फूल वाला पौधा खिलखिलाकर हँस पड़ा। सीखने की इच्छा रखने वाले के लिए पग-पग पर शिक्षक मौजूद हैं। पर आज सीखना कौन चाहता है? सभी तो अपनी उथली जानकारी के अहंकार के मद में ऐंठे-ऐंठे फिरते हैं। सीखने के लिए हृदय का द्वार खोल दिया जाए, तो बहती हुई वायु की तरह शिक्षा, सही अर्थों में विद्या स्वयं ही हमारे अंतःकरण में प्रवेश करने लगेगी।
🌹 डॉ प्रणव पंड्या
🌹 जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 77
🔴 एक गुलाबी फूल वाला पौधा बड़ा हँसोड़ और बातूनी था। अपनी भाषा में उसने कहा-दोस्त! तुम मनुष्यों में बेकार आ जन्मे। उनकी भी कोई जिंदगी है, हर समय चिंता, तनाव, उधेड़बुन, कुढ़न। अबकी बार तुम पौधे बनना और हमारे साथ रहना। देखते नहीं, हम सब कितने प्रसन्न हैं, कितने खिलखिलाते रहते हैं? जिंदगी को हँसी-खेल मानकर जीने में कितनी शांति है, यह हम लोग जानते हैं। देखते नहीं हमारे भीतर का आंतरिक उल्लास हमारी सुगंध के रूप में चारों ओर फैल रहा है। हम सबको प्यार करते हैं, सभी को प्रसन्नता प्रदान करते हैं। आनंद से जीते हैं और जो पास आता है, उसी को आनंदित कर देते हैं। यही तो जीवन जीने की कला है। इनसान बेकार में अपनी बुद्धिमानी पर घमंड करता एवं चिंता, तनाव, घुटन ही तो पाता है।
🔵 मेरा मस्तक उस खिलखिलाते हुए फूल के प्रति श्रद्धा से नत हो गया। मैं कहने लगा-पुष्प-मित्र तुम धन्य हो। स्वल्प साधन होते हुए भी जीवन कैसे जीना चाहिए-तुम यह जानते हो। एक हम हैं-जो उपलब्ध सौभाग्य को कुढ़न में ही व्यतीत करते रहते हैं। सखा, तुम सच्चे उपदेशक हो, वाणी से नहीं जीवन से सिखाते हो।
🔴 हँसोड़ गुलाबी फूल वाला पौधा खिलखिलाकर हँस पड़ा। सीखने की इच्छा रखने वाले के लिए पग-पग पर शिक्षक मौजूद हैं। पर आज सीखना कौन चाहता है? सभी तो अपनी उथली जानकारी के अहंकार के मद में ऐंठे-ऐंठे फिरते हैं। सीखने के लिए हृदय का द्वार खोल दिया जाए, तो बहती हुई वायु की तरह शिक्षा, सही अर्थों में विद्या स्वयं ही हमारे अंतःकरण में प्रवेश करने लगेगी।
🌹 डॉ प्रणव पंड्या
🌹 जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 77
बुधवार, 24 मई 2017
👉हम श्रेष्ठ योद्धा की भूमिका निबाहें
🔵 जीवन एक संग्राम है, जिसमें हर मोर्चे पर उसी सावधानी से लड़ना होता है, जैसे कोई स्वल्प साधनसंपन्न सेनापति शत्रु की विशाल सेना का मुकाबला करने के लिए तनिक-भी प्रमाद किए बिना आत्मरक्षा के लिए पुरुषार्थ करता है। गीता को इसी आध्यात्मिक परिस्थिति की भूमिका कहा जा सकता है। पांडव पाँच थे, किंतु उनका आदर्श ऊँचा था। कौरव सौ थे, किंतु उनका मनोरथ निकृष्ट था। दोनों एक ही घर में पले और बड़े हुए थे। इसलिए निकटवर्ती संबंधी भी थे। अर्जुन लड़ाई से बचना चाहता था और अनीति का वर्चस्व सहन कर लेना चाहता था। भगवान् ने उसे उद्बोधित किया और कहा-लड़ाई के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं। असुरता को परास्त किए बिना देवत्व का अस्तित्व ही संभव न होगा। असुरता विजयी होगी तो सारे संसार का नाश होगा। इसलिए अपना ही नहीं, समस्त संसार के हित का भी ध्यान रखते हुए असुरता से लड़ना चाहिए। भगवान् के आदेश को शिरोधार्य कर अर्जुन लड़ा और विजयी हुआ। यही गीता की पृष्ठभूमि है।
🔴 गीताकाल का महाभारत अभी भी समाप्त नहीं हुआ। हमारे भीतर कुविचार रूपी कौरव अभी भी अपनी दुष्टता का परिचय देते रहते हैं। दुर्योधन और दुःशासन के उपद्रव आए दिन खड़े रहते हैं। मानवीय श्रेष्ठताओं की द्रौपदी वस्त्रविहीन होकर लज्जा से मरती रहती है। इन परिस्थितियों में भी जो अर्जुन लड़ने को तैयार न हो, उसे क्या कहा जाए? भगवान् ने इसी मनोभूमि के पुरुषों को नपुंसक, कायर, ढोंगी आदि अनेक कटुशब्द कहकर धिक्कारा था। हममें से वे सब जो अपने बाह्य एवं आंतरिक शत्रुओं के विरुद्ध संघर्ष करने से कतराते हैं, वस्तुतः ऐसे ही व्यक्ति धिक्कारने योग्य हैं।
🔵 जो लोग अपनी जिंदगी को चैन और शांति से काट लेने की बात सोचते हैं, वस्तुतः वे बहुत भोले हैं। संघर्ष के बाद विजयी होने के पश्चात् ही शांति मिल सकती है। जीवन-निर्माण का धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र के रूप में हुआ है। यहाँ दोनों सेनाएँ एक-दूसरे के सम्मुख अड़ी खड़ी हैं। देवासुर संग्राम का बिगुल यही बज रहा है। ऐसी स्थिति में किसी योद्धा को लड़ने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं मिल सकता। सावधान सेनापति की तरह हमें भी अपने अंतर-बाह्य दोनों क्षेत्रों में मजबूत मोर्चाबंदंी करनी चाहिए। गाण्डीव पर प्रत्यंचा चढ़ाने और पांचजन्य बजाने के सिवाय और किसी प्रकार हमारा उद्धार नहीं।
🌹 डॉ प्रणव पंड्या
🌹 जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 79
🔴 गीताकाल का महाभारत अभी भी समाप्त नहीं हुआ। हमारे भीतर कुविचार रूपी कौरव अभी भी अपनी दुष्टता का परिचय देते रहते हैं। दुर्योधन और दुःशासन के उपद्रव आए दिन खड़े रहते हैं। मानवीय श्रेष्ठताओं की द्रौपदी वस्त्रविहीन होकर लज्जा से मरती रहती है। इन परिस्थितियों में भी जो अर्जुन लड़ने को तैयार न हो, उसे क्या कहा जाए? भगवान् ने इसी मनोभूमि के पुरुषों को नपुंसक, कायर, ढोंगी आदि अनेक कटुशब्द कहकर धिक्कारा था। हममें से वे सब जो अपने बाह्य एवं आंतरिक शत्रुओं के विरुद्ध संघर्ष करने से कतराते हैं, वस्तुतः ऐसे ही व्यक्ति धिक्कारने योग्य हैं।
🔵 जो लोग अपनी जिंदगी को चैन और शांति से काट लेने की बात सोचते हैं, वस्तुतः वे बहुत भोले हैं। संघर्ष के बाद विजयी होने के पश्चात् ही शांति मिल सकती है। जीवन-निर्माण का धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र के रूप में हुआ है। यहाँ दोनों सेनाएँ एक-दूसरे के सम्मुख अड़ी खड़ी हैं। देवासुर संग्राम का बिगुल यही बज रहा है। ऐसी स्थिति में किसी योद्धा को लड़ने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं मिल सकता। सावधान सेनापति की तरह हमें भी अपने अंतर-बाह्य दोनों क्षेत्रों में मजबूत मोर्चाबंदंी करनी चाहिए। गाण्डीव पर प्रत्यंचा चढ़ाने और पांचजन्य बजाने के सिवाय और किसी प्रकार हमारा उद्धार नहीं।
🌹 डॉ प्रणव पंड्या
🌹 जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 79
सोमवार, 22 मई 2017
👉 पथ प्रभु प्रेम का
🔵 आखिर भयभीत क्यों हो? न तो इहलोक में, न परलोक में ही भय का कोई कारण है। सभी जीवों को आलोकित करता हुआ प्रेम का महाभाव विद्यमान है और उस प्रेम के लिए ईश्वर के अतिरिक्त और कोई दूसरा नाम नहीं है। ईश्वर तुमसे दूर नहीं है। वह देश की सीमा में बद्ध नहीं है, क्योंकि वह निराकार एवं अंतर्यामी है। स्वयं को पूर्णतः उसके प्रति समर्पित कर दो। शुभ तथा अशुभ तुम जो भी हो सर्वस्व उसको समर्पित कर दो। कुछ भी बचा न रखो। इस प्रकार के सर्वस्व समर्पण के द्वारा तुम्हारा संपूर्ण चरित्र बन जाएगा। विचार करो प्रेम कितना महान है। यह जीवन से भी बड़ा तथा मृत्यु से भी अधिक सशक्त है। ईश्वरप्राप्ति के सभी मार्गों में यह सर्वाधिक शीघ्रगामी है।
🔴 ज्ञान का पथ कठिन है। प्रेम का पथ सहज है। शिशु के समान सरल-निश्छल बनो। विश्वास और प्रेम रखो, तब तुम्हें कोई हानि नहीं होगी। धीर आशावान बनो, तभी तुम सहज रूप से जीवन की सभी परिस्थतियों का सामना करने में समर्थ हो सकोगे। उदार हृदय बनो। क्षुद्र अहं तथा अनुदारता के सभी विचारों को निर्मूल कर दो। पूर्ण विश्वास के साथ स्वयं को ईश्वर के प्रति समर्पित कर दो। वे तुम्हारी सभी बातों को जानते हैं। उनके ज्ञान पर विश्वास करो। वे कितने पितृतुल्य हैं, सर्वोपरि वे कितने मातृतुल्य हैं। अनंत प्रभु अपनी अनंतता में तुम्हारे दुख के सहभागी हैं। उनकी कृपा असीम है। यदि तुम हजार भूलें करो तो भी प्रभु तुम्हें हजार बार क्षमा करेंगे। यदि दोष तुम पर आ पड़े, तो वह दोष नहीं रह जाएगा। यदि तुम प्रभु से प्रेम करते हो तो अत्यंत भयावह अनुभव भी तुम्हें तुम्हारे प्रेमास्पद प्रभु के सन्देशवाहक ही प्रतीत होंगे।
🔵 निश्चित ही प्रेम के द्वारा तुम ईश्वर को प्राप्त करोगे। क्या माँ सर्वदा प्रेममयी नहीं होती? वह, अपना ईश्वर, आत्मा का प्रेमी भी कुछ उसी प्रकार है, विश्वास करो! केवल प्रेमपूर्ण विश्वास करो!! फिर तुम्हारे लिए सब कुछ ठीक हो जाएगा। तुमसे जो भूलें हो गयी हैं, उनसे तनिक भी भयभीत न होओ। मनुष्य बनो-सच्चे अर्थों में मनुष्य-वह मनुष्य जिसके पास प्रेम से लबालब भरा हुआ हृदय है। जीवन का साहसपूर्वक सामना करो। जो भी हो, उसे होने दो। प्रभु प्रेम की शक्ति से ही तुम शक्तिशाली बन सकते हो। स्मरण रखो कि तुम्हारे पास अनंत शक्ति है। तुम्हारे परम प्रेमास्पद प्रभु स्वयं तुम्हारे साथ हैं। फिर तुम्हें क्या भय हो सकता है? प्रभु प्रेम के इस पथ पर निर्भीक हो बढ़े चलो, सब कुछ वह स्वतः होता चला जाएगा, जो तुम्हारे लिए परम कल्याणकारी एवं प्रीतिकर है।
🌹 डॉ प्रणव पंड्या
🌹 जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 78
🔴 ज्ञान का पथ कठिन है। प्रेम का पथ सहज है। शिशु के समान सरल-निश्छल बनो। विश्वास और प्रेम रखो, तब तुम्हें कोई हानि नहीं होगी। धीर आशावान बनो, तभी तुम सहज रूप से जीवन की सभी परिस्थतियों का सामना करने में समर्थ हो सकोगे। उदार हृदय बनो। क्षुद्र अहं तथा अनुदारता के सभी विचारों को निर्मूल कर दो। पूर्ण विश्वास के साथ स्वयं को ईश्वर के प्रति समर्पित कर दो। वे तुम्हारी सभी बातों को जानते हैं। उनके ज्ञान पर विश्वास करो। वे कितने पितृतुल्य हैं, सर्वोपरि वे कितने मातृतुल्य हैं। अनंत प्रभु अपनी अनंतता में तुम्हारे दुख के सहभागी हैं। उनकी कृपा असीम है। यदि तुम हजार भूलें करो तो भी प्रभु तुम्हें हजार बार क्षमा करेंगे। यदि दोष तुम पर आ पड़े, तो वह दोष नहीं रह जाएगा। यदि तुम प्रभु से प्रेम करते हो तो अत्यंत भयावह अनुभव भी तुम्हें तुम्हारे प्रेमास्पद प्रभु के सन्देशवाहक ही प्रतीत होंगे।
🔵 निश्चित ही प्रेम के द्वारा तुम ईश्वर को प्राप्त करोगे। क्या माँ सर्वदा प्रेममयी नहीं होती? वह, अपना ईश्वर, आत्मा का प्रेमी भी कुछ उसी प्रकार है, विश्वास करो! केवल प्रेमपूर्ण विश्वास करो!! फिर तुम्हारे लिए सब कुछ ठीक हो जाएगा। तुमसे जो भूलें हो गयी हैं, उनसे तनिक भी भयभीत न होओ। मनुष्य बनो-सच्चे अर्थों में मनुष्य-वह मनुष्य जिसके पास प्रेम से लबालब भरा हुआ हृदय है। जीवन का साहसपूर्वक सामना करो। जो भी हो, उसे होने दो। प्रभु प्रेम की शक्ति से ही तुम शक्तिशाली बन सकते हो। स्मरण रखो कि तुम्हारे पास अनंत शक्ति है। तुम्हारे परम प्रेमास्पद प्रभु स्वयं तुम्हारे साथ हैं। फिर तुम्हें क्या भय हो सकता है? प्रभु प्रेम के इस पथ पर निर्भीक हो बढ़े चलो, सब कुछ वह स्वतः होता चला जाएगा, जो तुम्हारे लिए परम कल्याणकारी एवं प्रीतिकर है।
🌹 डॉ प्रणव पंड्या
🌹 जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 78
👉 आवश्यकता है दृढ़ विवेकयुक्त आस्था की
🔵 इस समय हम इतिहास के उन महायुगों में से एक युग में हैं, जबकि मानवता भविष्य में छलाँग लगा रही है। हम संक्रमण काल के व्यक्तित्व हैं, जो इतिहास की नयी स्थिति में कार्यरत हैं। व्याकुलता के स्वर-निराशा के चिह्न, जिन्हें हम समूचे विश्व में देख रहे हैं, वे जीवन के दृष्टिकोणों में और व्यवहार में आमूल परिवर्तन की माँग कर रहे हैं, जिससे कि आदर्शों की गरिमा एवं मनुष्यत्व को पहचाना जा सके।
🔴 अगर हम अब तक चले आ रहे मृत रूपों को छोड़ने और नए आदर्शों वाली संस्था की रचना करने में सक्षम नहीं होते, तो हम समाप्त हो जाएँगे। हमने एक महान सभ्यता के निर्माण के लिए, उज्ज्वल भविष्य की संरचना के लिए पर्याप्त ज्ञान प्राप्त कर लिया है, लेकिन इसे नियंत्रित करने और सुरक्षित रखने के लिए पर्याप्त बुद्धि अर्जित नहीं की है। विचारों और सिद्धांतों के रूप में हमारे पास युगों-युगों की धरोहर है, लेकिन यह सब तब तक व्यर्थ है, जब तक हम इसे युगानुरूप बनाकर अपने व्यवहार में न ले आएँ, स्वयं आत्मसात् न कर लें।
🔵 हमारी उपलब्धियाँ अगणित और गौरवास्पद हो सकती हैं। फिर भी हमें अधिक प्रखरता, साहस एवं अनुशासन की आवश्यकता है। अगर अपने आदर्शों एवं उद्देश्य के गौरव की रक्षा करनी है, तो अपने व्यक्तित्व का नवीनीकरण करना होगा। आदमी अपनी पहचान की, जीवन के अर्थ की और उस हार के महत्त्व की खोज कर रहा है, जो उसे एक ऐसे यथार्थ का पल्ला पकड़ने से मिलती है, जो उसके हाथों टुकड़े-टुकड़े हो जाता है। अपनी शक्ति एवं समृद्धि के शिखर पर हम असुरक्षा के गहरे क्षणों का अनुभव कर रहे हैं। अपनी सभी प्रगतियों के बावजूद हम आज जितनी अर्थहीनता और निरर्थकता का अनुभव कर रहे हैं, उतना पहले कभी नहीं किया।
🔴 समर्थ सत्ता पर विश्वास आम इनसान को अनुशासित करने वाली शक्ति रहा है। शायद इस विश्वास की कमी ही वर्तमान दुरावस्था के लिए उत्तरदायी है। आज हमें एक ऐसी आस्था की आवश्यकता है, जो विवेकशील हो, जिसे हम बौद्धिक निष्ठा और सौन्दर्यशास्त्रीय विश्वास के साथ अपना सकें, एक बड़ी लचीली आस्था समूची मानवजाति के लिए, जिसमें प्रत्येक जीवित धर्म अपना योगदान कर सकता है। हमें एक ऐसी आस्था की आवश्यकता है, जो समूची मानव जाति में निष्ठा रखे, इसके इस या उस टुकड़े पर नहीं। एक ऐसी आस्था, जिसका पल्ला निरपेक्ष और प्रबुद्ध मस्तिष्क सम्मुख विनाश के समय भी पकड़े रह सके।
🌹 डॉ प्रणव पंड्या
🌹 जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 77
🔴 अगर हम अब तक चले आ रहे मृत रूपों को छोड़ने और नए आदर्शों वाली संस्था की रचना करने में सक्षम नहीं होते, तो हम समाप्त हो जाएँगे। हमने एक महान सभ्यता के निर्माण के लिए, उज्ज्वल भविष्य की संरचना के लिए पर्याप्त ज्ञान प्राप्त कर लिया है, लेकिन इसे नियंत्रित करने और सुरक्षित रखने के लिए पर्याप्त बुद्धि अर्जित नहीं की है। विचारों और सिद्धांतों के रूप में हमारे पास युगों-युगों की धरोहर है, लेकिन यह सब तब तक व्यर्थ है, जब तक हम इसे युगानुरूप बनाकर अपने व्यवहार में न ले आएँ, स्वयं आत्मसात् न कर लें।
🔵 हमारी उपलब्धियाँ अगणित और गौरवास्पद हो सकती हैं। फिर भी हमें अधिक प्रखरता, साहस एवं अनुशासन की आवश्यकता है। अगर अपने आदर्शों एवं उद्देश्य के गौरव की रक्षा करनी है, तो अपने व्यक्तित्व का नवीनीकरण करना होगा। आदमी अपनी पहचान की, जीवन के अर्थ की और उस हार के महत्त्व की खोज कर रहा है, जो उसे एक ऐसे यथार्थ का पल्ला पकड़ने से मिलती है, जो उसके हाथों टुकड़े-टुकड़े हो जाता है। अपनी शक्ति एवं समृद्धि के शिखर पर हम असुरक्षा के गहरे क्षणों का अनुभव कर रहे हैं। अपनी सभी प्रगतियों के बावजूद हम आज जितनी अर्थहीनता और निरर्थकता का अनुभव कर रहे हैं, उतना पहले कभी नहीं किया।
🔴 समर्थ सत्ता पर विश्वास आम इनसान को अनुशासित करने वाली शक्ति रहा है। शायद इस विश्वास की कमी ही वर्तमान दुरावस्था के लिए उत्तरदायी है। आज हमें एक ऐसी आस्था की आवश्यकता है, जो विवेकशील हो, जिसे हम बौद्धिक निष्ठा और सौन्दर्यशास्त्रीय विश्वास के साथ अपना सकें, एक बड़ी लचीली आस्था समूची मानवजाति के लिए, जिसमें प्रत्येक जीवित धर्म अपना योगदान कर सकता है। हमें एक ऐसी आस्था की आवश्यकता है, जो समूची मानव जाति में निष्ठा रखे, इसके इस या उस टुकड़े पर नहीं। एक ऐसी आस्था, जिसका पल्ला निरपेक्ष और प्रबुद्ध मस्तिष्क सम्मुख विनाश के समय भी पकड़े रह सके।
🌹 डॉ प्रणव पंड्या
🌹 जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 77
रविवार, 21 मई 2017
शनिवार, 20 मई 2017
👉 शांतिकुंज का वातावरण -- अमृत, पारस और कल्पवृक्ष
🔴 आप कैसे सौभाग्यशाली हैं? आपको तो सहारा भी मिल गया। आमतौर से लोग अकेले ही मंजिल पार करते हैं, अकेले ही चलते हैं; पर आपको तो अकेले चलने के साथ लाठी का सहारा भी है, आप उस सहारे का क्यों नहीं लाभ उठाते? आप लोग पैदल सफर करते हैं, आपके लिए तो यहाँ सवारी भी तैयार खड़ी है, फिर आप लाभ क्यों नहीं उठाते? शान्तिकुञ्ज के वातावरण को केवल यह आप मत मानिये कि यहाँ दीवारें ही खड़ी हुईं हैं, आप यह मत सोचिये कि यहाँ शिक्षण का कुछ क्रम ही चलता रहता है, यह मत सोचिये कि यहाँ कुछ व्यक्ति विशेष ही रहते हैं।
🔵 आप यह भी मानकर चलिये कि यहाँ एक ऐसा वातावरण आपके पीछे-पीछे लगा हुआ है, जो आपकी बेहद सहायता कर सकता है। उस वातावरण से निकली प्राण की कुछ धाराओं को, जिसने खींचकर आपको यहाँ बुलाया है और आप जिसके सहारे उज्ज्वल भविष्य का निर्माण कर सकते हैं, उस वातावरण, प्रेरणा और प्रकाश को चाहें तो आप एक नाम यह भी दे सकते हैं—पारस।
🔴 पारस उस चीज का नाम है, जिसको छू करके लोहा भी सोना बन जाता है। आप लोहा रहे हों, पहले से; आपके पास एक पारस है, जिसको आप छुएँ, तो देख सकते हैं किस तरीके से काया बदलती है? आप अभावग्रस्त दुनिया में भले ही रहे हों पहले से, आपको सारी जिंदगी यह कहते रहना पड़ा हो कि हमारे पास कमियाँ बहुत हैं, अभाव बहुत हैं, कठिनाइयाँ बहुत हैं; लेकिन यहाँ एक ऐसा कल्पवृक्ष विद्यमान है कि जिसका आप सच्चे अर्थों में सहारा लें, तो आपकी कमियाँ, अभावों और कठिनाइयों में से एक भी जिंदा रहने वाला नहीं हैं, उसका नाम कल्पवृक्ष है। कल्पवृक्ष कोई पेड़ होता है कि नहीं, मैं नहीं जानता।
🔵 न मैंने कल्पवृक्ष देखा है और न मैं आपको कल्पवृक्ष के सपने दिखाना चाहता हूँ; लेकिन अध्यात्म के बारे में मैं यकीनन कह सकता हूँ कि वह एक कल्पवृक्ष है। अध्यात्म कर्मकाण्डों को नहीं, दर्शन को कहते हैं, चिंतन को कहते हैं। जीवन में हेर-फेर कर सके, ऐसी प्रेरणा और ऐसे प्रकाश का नाम अध्यात्म है। ऐसा अध्यात्म अगर आपको मिल रहा हो तो यहाँ मिल जाए या मिलने की जो संभावनाएँ हैं, उससे आप लाभ उठा लें, तो आप यह कह सकेंगे कि हमको कल्पवृक्ष के नीचे बैठने का मौका मिल गया है। यहाँ का वातावरण कल्पवृक्ष भी है, यहाँ का वातावरण-पारस भी है और यहाँ का वातावरण अमृत भी है।
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 वांग्मय न. 68 पृष्ट 3.12
🔵 आप यह भी मानकर चलिये कि यहाँ एक ऐसा वातावरण आपके पीछे-पीछे लगा हुआ है, जो आपकी बेहद सहायता कर सकता है। उस वातावरण से निकली प्राण की कुछ धाराओं को, जिसने खींचकर आपको यहाँ बुलाया है और आप जिसके सहारे उज्ज्वल भविष्य का निर्माण कर सकते हैं, उस वातावरण, प्रेरणा और प्रकाश को चाहें तो आप एक नाम यह भी दे सकते हैं—पारस।
🔴 पारस उस चीज का नाम है, जिसको छू करके लोहा भी सोना बन जाता है। आप लोहा रहे हों, पहले से; आपके पास एक पारस है, जिसको आप छुएँ, तो देख सकते हैं किस तरीके से काया बदलती है? आप अभावग्रस्त दुनिया में भले ही रहे हों पहले से, आपको सारी जिंदगी यह कहते रहना पड़ा हो कि हमारे पास कमियाँ बहुत हैं, अभाव बहुत हैं, कठिनाइयाँ बहुत हैं; लेकिन यहाँ एक ऐसा कल्पवृक्ष विद्यमान है कि जिसका आप सच्चे अर्थों में सहारा लें, तो आपकी कमियाँ, अभावों और कठिनाइयों में से एक भी जिंदा रहने वाला नहीं हैं, उसका नाम कल्पवृक्ष है। कल्पवृक्ष कोई पेड़ होता है कि नहीं, मैं नहीं जानता।
🔵 न मैंने कल्पवृक्ष देखा है और न मैं आपको कल्पवृक्ष के सपने दिखाना चाहता हूँ; लेकिन अध्यात्म के बारे में मैं यकीनन कह सकता हूँ कि वह एक कल्पवृक्ष है। अध्यात्म कर्मकाण्डों को नहीं, दर्शन को कहते हैं, चिंतन को कहते हैं। जीवन में हेर-फेर कर सके, ऐसी प्रेरणा और ऐसे प्रकाश का नाम अध्यात्म है। ऐसा अध्यात्म अगर आपको मिल रहा हो तो यहाँ मिल जाए या मिलने की जो संभावनाएँ हैं, उससे आप लाभ उठा लें, तो आप यह कह सकेंगे कि हमको कल्पवृक्ष के नीचे बैठने का मौका मिल गया है। यहाँ का वातावरण कल्पवृक्ष भी है, यहाँ का वातावरण-पारस भी है और यहाँ का वातावरण अमृत भी है।
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 वांग्मय न. 68 पृष्ट 3.12
शुक्रवार, 19 मई 2017
👉 सिद्ध हुआ माँ का आशीर्वाद
🔵 वंदनीया माताजी के आशीर्वाद से ३ दिसम्बर १९९२ को मेरे छोटे भाई बैजनाथ की शादी कलकत्ता आवास पर निश्चित हुई। शादी की तैयारी बड़े जोर- शोर से चल रही थी। घर में हँसी- खुशी का माहौल था। विवाह के १८ दिन पहले १५ नवम्बर ९२ को सबसे छोटे भाई रामनाथ को चिरकुण्डा स्थित फैक्ट्री के अन्दर दिन में २ बजे किसी अज्ञात व्यक्ति ने गोली मार दी। गोली लगने के बावजूद रामनाथ स्वयं पेट में गमछा बाँधकर स्कूटर चलाकर १ किलोमीटर पर स्थित एक प्राइवेट नर्सिंग होम पहुँचे थे लेकिन वहाँ उपचार की समुचित सुविधा न होने पर भाइयों द्वारा उन्हें अस्पताल धनबाद ले जाया गया। माताजी गुरुदेव की कृपा थी, जिसके कारण रविवार अवकाश होने पर भी सभी डॉक्टर अस्पताल में मौजूद थे। डॉक्टरों ने केस की गम्भीरता से हमारे पिताजी श्री राम प्रसाद जायसवाल को अवगत कराया तथा न बचने की बात कही।
🔴 डॉक्टर की बात सुनकर सभी लोग बहुत परेशान हो उठे। लेकिन मेरे पिताजी को वंदनीया माताजी के आशीर्वाद पर पूरा भरोसा था। इसलिए डॉक्टर से ऑपरेशन करने को कह दिया। डॉक्टरों ने ऑपरेशन शुरू किया। इधर हम सभी लोग बैठकर माताजी से प्रार्थना करने लगे। मन में बार- बार भाव उठता, कुछ भी हो जाए माताजी ने घर में मांगलिक कार्यक्रम के लिए आशीर्वाद दिया है तो अमंगल कैसे हो सकता है? हम सभी के मन में यही भाव थे कि माताजी अवश्य ही अपना आशीर्वाद फलीभूत करेंगी।
🔵 हम सभी बैठकर माताजी का ध्यान कर मन ही मन गायत्री मंत्र जप कर रहे थे। करीब ४ घंटे के अथक प्रयास के बाद गोली निकाली जा सकी। सभी डॉक्टर बहुत अचंभित थे। डॉक्टरों ने मेरे पिताजी को बधाई देते हुए कहा कि इस ऑपरेशन में किसी अदृश्य शक्ति का संरक्षण मिल रहा था। इतने दुरूह ऑपरेशन के लिए काफी अधिक दक्षता की जरूरत थी। डॉक्टर साहब ने कहा कि गोली पेट को चीरते हुए किडनी के रास्ते रीढ़ की हड्डी में जा घुसी थी, जिसे निकालना आसानी से संभव नहीं था, लेकिन किसी अदृश्य शक्ति ने उस काम को बहुत आसानी से सम्पन्न करा दिया। इसके पश्चात् शक्तिपीठ से वन्दनीया माताजी द्वारा अभिमंत्रित जल की एक बूँद मुँह में डालने के ठीक दो घंटे बाद रामनाथ को होश आ गया। गुरु कृपा से मात्र १८ दिन में ही सारे उपचार हो गए। विवाह में उसे देखकर लोगों को विश्वास नहीं हो रहा था कि जो लड़का विवाह की सारी व्यवस्था देख रहा है, उसे ही गोली लगी थी।
🔴 इस प्रकार माताजी के आशीर्वाद से घर में अमंगल भी मांगलिक कार्य में विघ्न नहीं डाल सका।
🌹 विश्वासनाथ प्रसाद जायसवाल चिरकुंडा, धनबाद (झारखण्ड)
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Samsarn/a/aad
🔴 डॉक्टर की बात सुनकर सभी लोग बहुत परेशान हो उठे। लेकिन मेरे पिताजी को वंदनीया माताजी के आशीर्वाद पर पूरा भरोसा था। इसलिए डॉक्टर से ऑपरेशन करने को कह दिया। डॉक्टरों ने ऑपरेशन शुरू किया। इधर हम सभी लोग बैठकर माताजी से प्रार्थना करने लगे। मन में बार- बार भाव उठता, कुछ भी हो जाए माताजी ने घर में मांगलिक कार्यक्रम के लिए आशीर्वाद दिया है तो अमंगल कैसे हो सकता है? हम सभी के मन में यही भाव थे कि माताजी अवश्य ही अपना आशीर्वाद फलीभूत करेंगी।
🔵 हम सभी बैठकर माताजी का ध्यान कर मन ही मन गायत्री मंत्र जप कर रहे थे। करीब ४ घंटे के अथक प्रयास के बाद गोली निकाली जा सकी। सभी डॉक्टर बहुत अचंभित थे। डॉक्टरों ने मेरे पिताजी को बधाई देते हुए कहा कि इस ऑपरेशन में किसी अदृश्य शक्ति का संरक्षण मिल रहा था। इतने दुरूह ऑपरेशन के लिए काफी अधिक दक्षता की जरूरत थी। डॉक्टर साहब ने कहा कि गोली पेट को चीरते हुए किडनी के रास्ते रीढ़ की हड्डी में जा घुसी थी, जिसे निकालना आसानी से संभव नहीं था, लेकिन किसी अदृश्य शक्ति ने उस काम को बहुत आसानी से सम्पन्न करा दिया। इसके पश्चात् शक्तिपीठ से वन्दनीया माताजी द्वारा अभिमंत्रित जल की एक बूँद मुँह में डालने के ठीक दो घंटे बाद रामनाथ को होश आ गया। गुरु कृपा से मात्र १८ दिन में ही सारे उपचार हो गए। विवाह में उसे देखकर लोगों को विश्वास नहीं हो रहा था कि जो लड़का विवाह की सारी व्यवस्था देख रहा है, उसे ही गोली लगी थी।
🔴 इस प्रकार माताजी के आशीर्वाद से घर में अमंगल भी मांगलिक कार्य में विघ्न नहीं डाल सका।
🌹 विश्वासनाथ प्रसाद जायसवाल चिरकुंडा, धनबाद (झारखण्ड)
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Samsarn/a/aad
👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 105)
🌹 ब्राह्मण मन और ऋषि कर्म
🔵 अन्तरंग में ब्राह्मण वृत्ति जगते ही बहिरंग में साधु प्रवृत्ति का उभरना स्वाभाविक है। ब्राह्मण अर्थात् लिप्सा से जूझ सकने योग्य मनोबल का धनी। प्रलोभनों और दबावों का सामना करने में समर्थ। औसत भारतीय स्तर के निर्वाह के काम चलाने से सन्तुष्ट। इन परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने के लिए आरम्भिक जीवन में मार्गदर्शक का समर्थ प्रशिक्षण मिला। वही ब्राह्मण जन्म था, माता-पिता तो एक मांस पिण्ड को जन्म इससे पहले ही दे चुके थे।
🔴 ऐसे नर पशुओं का कलेवर न जाने कितनी बार पाप के पोटले, कमाने, लादने, ढोने और भुगतने पड़े होंगे। पर सन्तोष और गर्व इसी जन्म पर है। जिसे ब्राह्मण जन्म कहा जा सकता है। एक शरीर नर-पशु का दूसरा नर-नारायण का प्राप्त करने का सुयोग इसी बार मिला है।
🔵 ब्राह्मण के पास सामर्थ्य का भण्डार बच रहता है क्योंकि शरीर यात्रा का गुजारा तो बहुत थोड़े में निबट जाता है। हाथी, ऊंट, भैंसे आदि के पेट बड़े होते हैं, उन्हें उसे भरने के लिए पूरा समय लगे तो बात समझ में आती है। पर मनुष्य के सामने वैसी कठिनाई नहीं है। बीस उंगली वाले दो हाथ- कमाने की हजार तरकीबें ढूंढ़ निकालने वाला मस्तिष्क- सर्वत्र उपलब्ध विपुल साधन- परिवार सहकार का अभ्यास इतनी सुविधाओं के रहते किसी को भी गुजारे में न कमी पड़नी चाहिए न असुविधा।
🔴 फिर पेट की लम्बाई-चौड़ाई भी तो मात्र छः इन्च की है। इतना तो मोर कबूतर भी कमा लेते हैं। मनुष्य के सामने निर्वाह की कोई समस्या नहीं। वह कुछ ही घण्टे के परिश्रम में पूरी हो जाती है। फिर सारा समय खाली ही खाली बचता है। जिनके अन्तराल में सन्त जाग पड़ता है, वह एक ही बात सोचता है कि समय, श्रम, मनोयोग की जो प्रखरता, प्रतिभा हस्तगत हुई है, उसका सदुपयोग कहां किया जाय? कैसे किया जाय?
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/hari/brahman
🔵 अन्तरंग में ब्राह्मण वृत्ति जगते ही बहिरंग में साधु प्रवृत्ति का उभरना स्वाभाविक है। ब्राह्मण अर्थात् लिप्सा से जूझ सकने योग्य मनोबल का धनी। प्रलोभनों और दबावों का सामना करने में समर्थ। औसत भारतीय स्तर के निर्वाह के काम चलाने से सन्तुष्ट। इन परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने के लिए आरम्भिक जीवन में मार्गदर्शक का समर्थ प्रशिक्षण मिला। वही ब्राह्मण जन्म था, माता-पिता तो एक मांस पिण्ड को जन्म इससे पहले ही दे चुके थे।
🔴 ऐसे नर पशुओं का कलेवर न जाने कितनी बार पाप के पोटले, कमाने, लादने, ढोने और भुगतने पड़े होंगे। पर सन्तोष और गर्व इसी जन्म पर है। जिसे ब्राह्मण जन्म कहा जा सकता है। एक शरीर नर-पशु का दूसरा नर-नारायण का प्राप्त करने का सुयोग इसी बार मिला है।
🔵 ब्राह्मण के पास सामर्थ्य का भण्डार बच रहता है क्योंकि शरीर यात्रा का गुजारा तो बहुत थोड़े में निबट जाता है। हाथी, ऊंट, भैंसे आदि के पेट बड़े होते हैं, उन्हें उसे भरने के लिए पूरा समय लगे तो बात समझ में आती है। पर मनुष्य के सामने वैसी कठिनाई नहीं है। बीस उंगली वाले दो हाथ- कमाने की हजार तरकीबें ढूंढ़ निकालने वाला मस्तिष्क- सर्वत्र उपलब्ध विपुल साधन- परिवार सहकार का अभ्यास इतनी सुविधाओं के रहते किसी को भी गुजारे में न कमी पड़नी चाहिए न असुविधा।
🔴 फिर पेट की लम्बाई-चौड़ाई भी तो मात्र छः इन्च की है। इतना तो मोर कबूतर भी कमा लेते हैं। मनुष्य के सामने निर्वाह की कोई समस्या नहीं। वह कुछ ही घण्टे के परिश्रम में पूरी हो जाती है। फिर सारा समय खाली ही खाली बचता है। जिनके अन्तराल में सन्त जाग पड़ता है, वह एक ही बात सोचता है कि समय, श्रम, मनोयोग की जो प्रखरता, प्रतिभा हस्तगत हुई है, उसका सदुपयोग कहां किया जाय? कैसे किया जाय?
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/hari/brahman
👉 कठिनाइयों से डरो मत, प्रयासरत रहो
🔵 यदि तुम कोई दोष सुधारना चाहते हो या कोई कठिनाई दूर करना चाहते हो, तो बस एक ही प्रक्रिया है-स्वयं को पूर्णतः चैतन्य बनाए रखो, पूर्णरूप से जाग्रत् रहो। सबसे पहले तुम्हें अपने लक्ष्य को साफ-साफ देखना होगा; परंतु इसके लिए अपने मन पर निर्भर न रहो, क्योंकि वह बार-बार इतस्ततः करता है। संदेह, भ्रम एवं हिचकिचाहटों के अंबार पैदा करता है। इसलिए एकदम आरंभ में ही तुम्हें यह ठीक-ठीक जानना चाहिए कि तुम क्या चाहते हो? मन से नहीं जानना चाहिए, बल्कि एकाग्रता के द्वारा, अभीप्सा के द्वारा और पूर्णतः संकल्पशक्ति के द्वारा जानना चाहिए। यह बहुत ही आवश्यक बात है।
🔴 दूसरे, धीरे-धीरे निरीक्षण के द्वारा, सतत और स्थायी जागरूकता के द्वारा, तुम्हें एक पद्धति ढूँढ़ निकालनी चाहिए, जो तुम्हारे अपने लिए व्यक्तिगत हो, केवल तुम्हारे लिए ही उपयुक्त हो। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी निजी प्रक्रिया ढूँढ़ निकालनी चाहिए, जो व्यवहार में लाने पर धीरे-धीरे अधिकाधिक स्पष्ट और सुनिश्चित होती जाए। तुम एक विषय को सुधारते हो, दूसरे को एकदम सरल बना देते हो और क्रमशः इस तरह आगे बढ़ते रहते हो। इस प्रकार कुछ समय तक सब ठीक-ठीक चलता रहता है।
🔵 परंतु एक सुहावने प्रातःकाल में तुम्हारे सामने कठिनाई आ उपस्थित होगी, एकदम अकल्पनीय और तुम निराश होकर सोचोगे कि सब कुछ व्यर्थ हो गया। पर बात ऐसी बिलकुल नहीं है, यह तुम निश्चित रूप से जान लो कि जब तुम अपने सामने इस तरह की कोई दीवाल देखते हो तो यह किसी नई चीज का प्रारंभ होता है। इस तरह बार-बार होगा और कुछ समय बाद तुम्हें इसकी आदत पड़ जाएगी। निरुत्साहित होने और प्रयास छोड़ देने की बात तो दूर, तुम प्रत्येक बार अपनी एकाग्रता, अपनी अभीप्सा एवं अपने विश्वास को बढ़ाते जाओगे और जो नई सहायता तुम्हें प्राप्त होगी, उसके सहारे तुम दूसरे साधनों को विकसित करोगे और जिन साधनों को तुम पार कर चुके हो, उनके स्थान पर उन्हें बैठाओगे।
🔴 सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि जो कुछ तुम जानो उसे व्यवहार में ले आओ और यदि तुम सतत प्रयास करते रहोगे, तो अवश्य सफल होगे। कठिनाई बार-बार आएगी। जब तुम अपने लक्ष्य पर पहुँच जाओगे तत्क्षण सभी कठिनाइयाँ केवल एक ही बार में सदा के लिए विलीन हो जाएँगी।
🌹 डॉ प्रणव पंड्या
🌹 जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 76
🔴 दूसरे, धीरे-धीरे निरीक्षण के द्वारा, सतत और स्थायी जागरूकता के द्वारा, तुम्हें एक पद्धति ढूँढ़ निकालनी चाहिए, जो तुम्हारे अपने लिए व्यक्तिगत हो, केवल तुम्हारे लिए ही उपयुक्त हो। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी निजी प्रक्रिया ढूँढ़ निकालनी चाहिए, जो व्यवहार में लाने पर धीरे-धीरे अधिकाधिक स्पष्ट और सुनिश्चित होती जाए। तुम एक विषय को सुधारते हो, दूसरे को एकदम सरल बना देते हो और क्रमशः इस तरह आगे बढ़ते रहते हो। इस प्रकार कुछ समय तक सब ठीक-ठीक चलता रहता है।
🔵 परंतु एक सुहावने प्रातःकाल में तुम्हारे सामने कठिनाई आ उपस्थित होगी, एकदम अकल्पनीय और तुम निराश होकर सोचोगे कि सब कुछ व्यर्थ हो गया। पर बात ऐसी बिलकुल नहीं है, यह तुम निश्चित रूप से जान लो कि जब तुम अपने सामने इस तरह की कोई दीवाल देखते हो तो यह किसी नई चीज का प्रारंभ होता है। इस तरह बार-बार होगा और कुछ समय बाद तुम्हें इसकी आदत पड़ जाएगी। निरुत्साहित होने और प्रयास छोड़ देने की बात तो दूर, तुम प्रत्येक बार अपनी एकाग्रता, अपनी अभीप्सा एवं अपने विश्वास को बढ़ाते जाओगे और जो नई सहायता तुम्हें प्राप्त होगी, उसके सहारे तुम दूसरे साधनों को विकसित करोगे और जिन साधनों को तुम पार कर चुके हो, उनके स्थान पर उन्हें बैठाओगे।
🔴 सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि जो कुछ तुम जानो उसे व्यवहार में ले आओ और यदि तुम सतत प्रयास करते रहोगे, तो अवश्य सफल होगे। कठिनाई बार-बार आएगी। जब तुम अपने लक्ष्य पर पहुँच जाओगे तत्क्षण सभी कठिनाइयाँ केवल एक ही बार में सदा के लिए विलीन हो जाएँगी।
🌹 डॉ प्रणव पंड्या
🌹 जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 76
👉 नर और नारी के मध्यवर्ती अनुदान प्रतिदान (भाग 1)
🔵 स्त्री के व्यक्तित्व की बनावट ऐसी है, कि अपने पति, बच्चे एवं परिवार के साथ घुल-मिल जाती है। पुरुष के लिए इसमें जितनी कठिनाई पड़ती है, स्त्री को उतनी नहीं। इसका अर्थ है, आत्मीयता का विस्तार। जिस घर में बचपन, किशोरावस्था पार कर यौवन की देहली पर पहुँचती है, जिन सहेलियों के साथ खेलती और जिन कुटुम्बियों के साथ इतनी आयु बिताती है, उसे छोड़कर सर्वथा नये परिवार में जा पहुँचना और सर्वथा अपरिचित लोगों को अपना बना लेना, सर्वथा अपने को उनमें घुला देना, असाधारण बात है। पति का एक दिन का परिचय दूसरे दिन इतनी घनिष्ठता में बदल जाना, मानो उसी के साथ पालन-पोषण हुआ हो, वस्तुतः आश्चर्य की बात है। पुरुष को उस सीमा तक इतनी जल्दी जा पहुँचना कठिनाई की बात है। आत्मीयता के क्षेत्र में इतनी जल्दी इतनी प्रगति करना पुरुष के लिए कठिन है।
🔴 यदि परिचय न हो और पिछले दिनों से घनिष्ठता न चल रही हो, तो स्त्री के प्रति पुरुष के मन में कौतूहल आश्चर्य अजनबीपन और अविश्वास बना रहता है। उसे दूर करने में देर लगती है।
🔵 नारी का निर्माण कुछ ऐसे तत्वों से हुआ है कि वह समर्थ और सुयोग्य होते हुए भी समर्पण कर सकती है। यह समर्पण परावलम्बन नहीं है। बच्चों को वह प्राणप्रिय मानने लगती है। इसका अर्थ यह नहीं, कि वह उनके आश्रित है या उनसे कोई प्रतिदान प्राप्त करती है। यही बात पति या समूचे परिवार के प्रति है। उसका श्रम, समर्पण इतना बहुमूल्य है कि उसका मूल्याँकन पैसों में नहीं किया जा सकता है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1966 पृष्ठ 46
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1984/November/v1.46
🔴 यदि परिचय न हो और पिछले दिनों से घनिष्ठता न चल रही हो, तो स्त्री के प्रति पुरुष के मन में कौतूहल आश्चर्य अजनबीपन और अविश्वास बना रहता है। उसे दूर करने में देर लगती है।
🔵 नारी का निर्माण कुछ ऐसे तत्वों से हुआ है कि वह समर्थ और सुयोग्य होते हुए भी समर्पण कर सकती है। यह समर्पण परावलम्बन नहीं है। बच्चों को वह प्राणप्रिय मानने लगती है। इसका अर्थ यह नहीं, कि वह उनके आश्रित है या उनसे कोई प्रतिदान प्राप्त करती है। यही बात पति या समूचे परिवार के प्रति है। उसका श्रम, समर्पण इतना बहुमूल्य है कि उसका मूल्याँकन पैसों में नहीं किया जा सकता है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1966 पृष्ठ 46
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1984/November/v1.46
👉 इक्कीसवीं सदी का संविधान - हमारा युग निर्माण सत्संकल्प (भाग 7)
🌹 शरीर को भगवान् का मंदिर समझकर आत्मसंयम और नियमितता द्वारा आरोग्य की रक्षा करेंगे।
🔵 आस्तिकता और कर्तव्य परायणता की सत्प्रवृत्ति का प्रभाव पहले अपने सबसे समीपवर्ती स्वजन पर पड़ना चाहिए। हमारा सबसे निकटवर्ती संबंधी हमारा शरीर है। उसके साथ सद्व्यवहार करना, उसे स्वस्थ और सुरक्षित रखना अत्यावश्यक है। शरीर को नश्वर कहकर उसकी उपेक्षा करना अथवा उसे ही संजोने-सँवारने में सारी शक्ति खर्च कर देना, दोनों ही ढंग अकल्याणकारी हैं। हमें संतुलन का मार्ग अपनाना चाहिए।
🔴 हमारा सदा सहायक सेवक शरीर है। वह चौबीसों घंटे सोते-जागते हमारे लिए काम करता रहता है। वह जिस भी स्थिति में हो, अपनी सामर्थ्य भर आज्ञा पालन के लिए तत्पर रहता है। सुविधा-साधनों के उपार्जन में उसी का पुरुषार्थ काम देता है। इतना ही नहीं, वरन् समय-समय पर अपने-अपने ढंग से अनेक प्रकार के रसास्वादन भी कराती रहती हैं। नेत्र, कान, नाक, जिह्वा ज्ञानेन्द्रियों द्वारा ज्ञान तंतु अपने-अपने ढंग के रसास्वादन कराते रहते हैं। इन विशेषताओं के कारण ही आत्मा उसकी सेवा-साधना का मुग्ध हो जाती है और अपने सुख ही नहीं अस्तित्व तक को भूल कर उसी में पूरी तरह रम जाती है। उसका सुख-दुःख मानापमान आदि अपनी निज की भाव-संवेदना में सम्मिलित कर लेती है। यह घनिष्ठता इतनी अधिक सघन हो जाती है कि व्यक्ति, आत्मा की सत्ता, आवश्यकता तक को भूल जाता है और शरीर को अपना ही आपा मानने लगता है। उसका अंत हो जाने पर तो जीवन की इतिश्री ही मान ली जाती है।
🔵 ऐसे वफादार सेवक को समर्थ, निरोग एवं दीर्घजीवी बनाए रखना प्रत्येक विचारशील का कर्तव्य है। चाहते तो सभी ऐसा ही हैं, पर जो रहन-सहन आहार-विहार अपनाते हैं, वह विधा ऐसी उल्टी पड़ जाती है कि उसके कारण अपने प्रिय पात्र को अपार हानि उठानी पड़ती है, इतना अत्याचार सहना पड़ता है कि उसका कचूमर तक निकल जाता है और रोता-कलपता दुर्बलता और रुग्णता से ग्रसित होकर व्यक्ति असमय में ही दम तोड़ देता है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Sankalpaa/body
http://literature.awgp.org/book/ikkeesaveen_sadee_ka_sanvidhan/v1.13
🔵 आस्तिकता और कर्तव्य परायणता की सत्प्रवृत्ति का प्रभाव पहले अपने सबसे समीपवर्ती स्वजन पर पड़ना चाहिए। हमारा सबसे निकटवर्ती संबंधी हमारा शरीर है। उसके साथ सद्व्यवहार करना, उसे स्वस्थ और सुरक्षित रखना अत्यावश्यक है। शरीर को नश्वर कहकर उसकी उपेक्षा करना अथवा उसे ही संजोने-सँवारने में सारी शक्ति खर्च कर देना, दोनों ही ढंग अकल्याणकारी हैं। हमें संतुलन का मार्ग अपनाना चाहिए।
🔴 हमारा सदा सहायक सेवक शरीर है। वह चौबीसों घंटे सोते-जागते हमारे लिए काम करता रहता है। वह जिस भी स्थिति में हो, अपनी सामर्थ्य भर आज्ञा पालन के लिए तत्पर रहता है। सुविधा-साधनों के उपार्जन में उसी का पुरुषार्थ काम देता है। इतना ही नहीं, वरन् समय-समय पर अपने-अपने ढंग से अनेक प्रकार के रसास्वादन भी कराती रहती हैं। नेत्र, कान, नाक, जिह्वा ज्ञानेन्द्रियों द्वारा ज्ञान तंतु अपने-अपने ढंग के रसास्वादन कराते रहते हैं। इन विशेषताओं के कारण ही आत्मा उसकी सेवा-साधना का मुग्ध हो जाती है और अपने सुख ही नहीं अस्तित्व तक को भूल कर उसी में पूरी तरह रम जाती है। उसका सुख-दुःख मानापमान आदि अपनी निज की भाव-संवेदना में सम्मिलित कर लेती है। यह घनिष्ठता इतनी अधिक सघन हो जाती है कि व्यक्ति, आत्मा की सत्ता, आवश्यकता तक को भूल जाता है और शरीर को अपना ही आपा मानने लगता है। उसका अंत हो जाने पर तो जीवन की इतिश्री ही मान ली जाती है।
🔵 ऐसे वफादार सेवक को समर्थ, निरोग एवं दीर्घजीवी बनाए रखना प्रत्येक विचारशील का कर्तव्य है। चाहते तो सभी ऐसा ही हैं, पर जो रहन-सहन आहार-विहार अपनाते हैं, वह विधा ऐसी उल्टी पड़ जाती है कि उसके कारण अपने प्रिय पात्र को अपार हानि उठानी पड़ती है, इतना अत्याचार सहना पड़ता है कि उसका कचूमर तक निकल जाता है और रोता-कलपता दुर्बलता और रुग्णता से ग्रसित होकर व्यक्ति असमय में ही दम तोड़ देता है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Sankalpaa/body
http://literature.awgp.org/book/ikkeesaveen_sadee_ka_sanvidhan/v1.13
👉 इक्कीसवीं सदी का संविधान - हमारा युग निर्माण सत्संकल्प (भाग 6)
🌹 हम ईश्वर को सर्वव्यापी, न्यायकारी मानकर उसके अनुशासन को अपने जीवन में उतारेंगे।
🔵 भगवान् को हम सर्वव्यापक एवं न्यायकारी समझकर गुप्त या प्रकट रूप से अनीति अपनाने का कभी भी, कहीं भी साहस न करें। ईश्वर के दंड से डरें। उसका भक्तवत्सल ही नहीं भयानक रौद्र रूप भी है। उसका रौद्र रूप ईश्वरीय दंड से दंडित असंख्यों रुग्ण, अशक्त, मूक, बधिर, अंध, अपंग, कारावास एवं अस्पतालों में पड़े हुए कष्टों से कराहते हुए लोगों की दयनीय दशा को देखकर सहज ही समझा जा सकता है। केवल वंशी बजाने वाले और रास रचाने वाले ईश्वर का ही ध्यान न रखें, उसका त्रिशूलधारी भी एक रूप है, जो असुरता और निमग्न दुरात्माओं का नृशंस दमन, मर्दन भी करता है।
🔴 न्यायनिष्ठ जज को जिस प्रकार अपने सगे संबंधियों, प्रशंसक मित्रों तक को कठोर दंड देना पड़ता है, फाँसी एवं कोड़े लगाने की सजा देने को विवश होना पड़ता है, वैसे ही ईश्वर को भी अपने भक्त-अभक्त का, प्रशंसक-निंदक का भेद किए बिना उसके शुभ-अशुभ कर्मों का दंड पुरस्कार देना होता है। ईश्वर हमारे साथ पक्षपात करेगा। सत्कर्म न करते हुए भी विविध-विध सफलताएँ देगा या दुष्कर्मों के करते रहने पर भी दंड से बचे रहने की व्यवस्था कर देगा, ऐसा सोचना नितांत भूल है। उपासना का उद्देश्य इस प्रकार ईश्वर से अनुचित पक्षपात कराना नहीं होना चाहिए, वरन, यह होना चाहिए कि वह हमें अपनी प्रसन्नता के प्रमाणस्वरूप सद्भावनाओं से ओत-प्रोत रहने, सत्प्रवृत्तियों में संलग्न रहने की प्रेरणा, क्षमता एवं हिम्मत प्रदान करें, भय एवं प्रलोभन के अवसर आने पर वे भी सत्पथ से विचलित न होने की दृढ़ता प्रदान करें यही ईश्वर की कृपा का सर्वश्रेष्ठ चिह्न है। पापों से डर और पुण्य से प्रेम, यही तो भगवद्-भक्त के प्रधान चिह्न हैं।
🔵 कोई व्यक्ति आस्तिक है या नास्तिक, इसकी पहचान किसी तिलक, जनेऊ, कंठी, माला, पूजा-पाठ स्नान, दर्शन आदि के आधार पर नहीं वरन् भावनात्मक एवं क्रियात्मक गतिविधियों को देखकर ही की जा सकती है। आस्तिक की मान्यता प्राणिमात्र में ईश्वर की उपस्थिति देखती है। इसलिए उसे हर प्राणी के साथ उदारता, आत्मीयता एवं सेवा सहायता से भरा मधुर व्यवहार करना पड़ता है। भक्ति का अर्थ है-प्रेम जो प्रेमी है, वह भक्त है। भक्ति भावना का उदय जिसके अंतःकरण में होगा, उसके व्यवहार में प्रेम की अजस्र निर्झरिणी बहने लगेगी। वह अपने प्रियतम को सर्वव्यापक देखेगा और सभी से अत्यंत सौम्यता पूर्ण व्यवहार करके अपनी भक्ति भावना का परिचय देगा। ईश्वर दर्शन का यही रूप है। हर चर-अचर में छिपे हुए परमात्मा को जो अपनी ज्ञान दृष्टि से देख सका और तदनुरूप अपने कर्तव्य का निर्धारण कर सका, मानना चाहिए कि उसे ईश्वर दर्शन का लाभ मिल गया। अपने में परमेश्वर को और परमेश्वर में अपने को देखने की दिव्य दृष्टि जिसे प्राप्त हो गई, समझना चाहिए कि उसने पूर्णता का जीवन लक्ष्य प्राप्त कर लिया।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Sankalpaa/hum
🔵 भगवान् को हम सर्वव्यापक एवं न्यायकारी समझकर गुप्त या प्रकट रूप से अनीति अपनाने का कभी भी, कहीं भी साहस न करें। ईश्वर के दंड से डरें। उसका भक्तवत्सल ही नहीं भयानक रौद्र रूप भी है। उसका रौद्र रूप ईश्वरीय दंड से दंडित असंख्यों रुग्ण, अशक्त, मूक, बधिर, अंध, अपंग, कारावास एवं अस्पतालों में पड़े हुए कष्टों से कराहते हुए लोगों की दयनीय दशा को देखकर सहज ही समझा जा सकता है। केवल वंशी बजाने वाले और रास रचाने वाले ईश्वर का ही ध्यान न रखें, उसका त्रिशूलधारी भी एक रूप है, जो असुरता और निमग्न दुरात्माओं का नृशंस दमन, मर्दन भी करता है।
🔴 न्यायनिष्ठ जज को जिस प्रकार अपने सगे संबंधियों, प्रशंसक मित्रों तक को कठोर दंड देना पड़ता है, फाँसी एवं कोड़े लगाने की सजा देने को विवश होना पड़ता है, वैसे ही ईश्वर को भी अपने भक्त-अभक्त का, प्रशंसक-निंदक का भेद किए बिना उसके शुभ-अशुभ कर्मों का दंड पुरस्कार देना होता है। ईश्वर हमारे साथ पक्षपात करेगा। सत्कर्म न करते हुए भी विविध-विध सफलताएँ देगा या दुष्कर्मों के करते रहने पर भी दंड से बचे रहने की व्यवस्था कर देगा, ऐसा सोचना नितांत भूल है। उपासना का उद्देश्य इस प्रकार ईश्वर से अनुचित पक्षपात कराना नहीं होना चाहिए, वरन, यह होना चाहिए कि वह हमें अपनी प्रसन्नता के प्रमाणस्वरूप सद्भावनाओं से ओत-प्रोत रहने, सत्प्रवृत्तियों में संलग्न रहने की प्रेरणा, क्षमता एवं हिम्मत प्रदान करें, भय एवं प्रलोभन के अवसर आने पर वे भी सत्पथ से विचलित न होने की दृढ़ता प्रदान करें यही ईश्वर की कृपा का सर्वश्रेष्ठ चिह्न है। पापों से डर और पुण्य से प्रेम, यही तो भगवद्-भक्त के प्रधान चिह्न हैं।
🔵 कोई व्यक्ति आस्तिक है या नास्तिक, इसकी पहचान किसी तिलक, जनेऊ, कंठी, माला, पूजा-पाठ स्नान, दर्शन आदि के आधार पर नहीं वरन् भावनात्मक एवं क्रियात्मक गतिविधियों को देखकर ही की जा सकती है। आस्तिक की मान्यता प्राणिमात्र में ईश्वर की उपस्थिति देखती है। इसलिए उसे हर प्राणी के साथ उदारता, आत्मीयता एवं सेवा सहायता से भरा मधुर व्यवहार करना पड़ता है। भक्ति का अर्थ है-प्रेम जो प्रेमी है, वह भक्त है। भक्ति भावना का उदय जिसके अंतःकरण में होगा, उसके व्यवहार में प्रेम की अजस्र निर्झरिणी बहने लगेगी। वह अपने प्रियतम को सर्वव्यापक देखेगा और सभी से अत्यंत सौम्यता पूर्ण व्यवहार करके अपनी भक्ति भावना का परिचय देगा। ईश्वर दर्शन का यही रूप है। हर चर-अचर में छिपे हुए परमात्मा को जो अपनी ज्ञान दृष्टि से देख सका और तदनुरूप अपने कर्तव्य का निर्धारण कर सका, मानना चाहिए कि उसे ईश्वर दर्शन का लाभ मिल गया। अपने में परमेश्वर को और परमेश्वर में अपने को देखने की दिव्य दृष्टि जिसे प्राप्त हो गई, समझना चाहिए कि उसने पूर्णता का जीवन लक्ष्य प्राप्त कर लिया।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Sankalpaa/hum
👉 नारी को समुचित सम्मान एवं उत्थान दीजिए। (अन्तिम भाग)
🔵 यदि मनुष्य सच्ची सुख-शान्ति चाहता है और चाहता है कि उसकी उसकी नारी अन्नपूर्णा बनकर उसकी कमाई में प्रकाण्डता भरे, उसके मन को माधुर्य और प्राणों को प्रसन्नता दे! उसके परिश्रान्त जीवन में श्री बनकर हँसे और संसार-समर में शक्ति बनकर साहस दे, तो उसे पैरों से उठाकर अर्धांग में सम्मान देना ही होगा। अन्यथा टूटे पहिये की गाड़ी के समान उसकी जिन्दगी धचके खाती हुई ही घिसटेगी। घरबार उसे बेकार का बोझ बनकर त्रस्त करता रहेगा। अयोग्य एवं अनाचारी बच्चों की भीड़ दुश्मन की तरह उसके पीछे पड़ी रहेगी।
🔴 इस प्रकार देश, समाज, घर-गृहस्थी तथा वैयक्तिक विकास तथा सुख-शान्ति के लिये नारी की इस आवश्यकता जानकर भी जो उसे अधिकारहीन करके पैर की जूती बनाये रखने की सोचता है, वह उसे समाज का ही नहीं, अपनी आत्मा का भी हितैषी नहीं कहा जा सकता।
🔵 अपने राष्ट्र का मंगल, समाज का कल्याण और अपना वैयक्तिक हित ध्यान में रखते हुए नारी को अज्ञान के अन्धकार से निकाल कर प्रकाश में लाना होगा। चेतना देने के लिये उसे शिक्षित करना होगा। सामाजिक एवं नागरिक प्रबोध के लिये उसके प्रतिबंध हटाने होंगे और भारत की भावी सन्तान के लिये उसे ठीक-ठीक जननी का आदर देना ही होगा। समाज के सर्वांगीण विकास और राष्ट्र की समुन्नति के लिए यह एक सबसे सरल, सुलभ और समुचित उपाय है जिसे घर-घर में प्रत्येक भारतवासी को काम में लाकर अपना कर्त्तव्य पूर्ण करना चाहिये। यही आज की सबसे बड़ी सभ्यता सामाजिकता, नागरिकता और मानवता है। वैसे घर में नारी के प्रति संकीर्ण होकर यदि कोई बाहर समाज में उदारता और मानवता का प्रदर्शन करता है तो वह दम्भी है, आडम्बरी और मिथ्याचारी है।
🌹 समाप्त
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 अखण्ड ज्योति अप्रैल 1966 पृष्ठ 28
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1966/April/v1.28
🔴 इस प्रकार देश, समाज, घर-गृहस्थी तथा वैयक्तिक विकास तथा सुख-शान्ति के लिये नारी की इस आवश्यकता जानकर भी जो उसे अधिकारहीन करके पैर की जूती बनाये रखने की सोचता है, वह उसे समाज का ही नहीं, अपनी आत्मा का भी हितैषी नहीं कहा जा सकता।
🔵 अपने राष्ट्र का मंगल, समाज का कल्याण और अपना वैयक्तिक हित ध्यान में रखते हुए नारी को अज्ञान के अन्धकार से निकाल कर प्रकाश में लाना होगा। चेतना देने के लिये उसे शिक्षित करना होगा। सामाजिक एवं नागरिक प्रबोध के लिये उसके प्रतिबंध हटाने होंगे और भारत की भावी सन्तान के लिये उसे ठीक-ठीक जननी का आदर देना ही होगा। समाज के सर्वांगीण विकास और राष्ट्र की समुन्नति के लिए यह एक सबसे सरल, सुलभ और समुचित उपाय है जिसे घर-घर में प्रत्येक भारतवासी को काम में लाकर अपना कर्त्तव्य पूर्ण करना चाहिये। यही आज की सबसे बड़ी सभ्यता सामाजिकता, नागरिकता और मानवता है। वैसे घर में नारी के प्रति संकीर्ण होकर यदि कोई बाहर समाज में उदारता और मानवता का प्रदर्शन करता है तो वह दम्भी है, आडम्बरी और मिथ्याचारी है।
🌹 समाप्त
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 अखण्ड ज्योति अप्रैल 1966 पृष्ठ 28
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1966/April/v1.28
👉 साधना की गहराइयों से आता संदेश
🔵 मौन साधना की गहराइयों में एक अनुभूति मुखर हो उठी। ईश्वर से प्रतिध्वनित होकर आवाज आई। उसने कहा, ‘‘अहो! एक ऐसा प्रेम है, जो सभी को अपने में समा लेता है, जो जीवन से भी महान है, मृत्यु से भी महान है, जो सीमा नहीं जानता, जो सर्वत्र है, जो मृत्यु की उपस्थिति में है तथा जो केवल भावसंवेदना है। मैं वही प्रेम हूँ। वह प्रेम जो अनिर्वचनीय मधुरता है, जो सभी वेदनाओं का, सभी भयों का स्वागत करता है, जो सभी प्रकार की उदासीनता को दूर करता है। मैं वही प्रेम हूँ।’’
🔴 ‘‘अहो! यह एक सर्वग्राही सौंदर्य है। यह सौंदर्य सुगंधित ऊषा तथा अरुणिम संध्या में प्रस्फुटित होता है। पक्षी के कलरव तथा बाघ की गर्जना में भी यही विद्यमान है। तूफान और शांति में यही सौंदर्य विद्यमान है; किंतु यह इन सबसे अतीत है। ये सब इसके पहलू हैं। मैं सौंदर्य हूँ, एक ऐसा सौंदर्य, जो सुख तथा दुःख से अधिक गहन गंभीर है। यह आत्मा का सौंदर्य है। मैं ही वह सौंदर्य हूँ। मैं ही वह आकर्षण हूँ तथा आनंद ही मेरा स्वरूप है।’’
🔵 ‘‘अहो! एक जीवन है, जो प्रेम है, आनंद है! मैं वही जीवन हूँ। उस जीवन को कोई सीमित नहीं कर सकता, परिमित नहीं कर सकता। वही अनंत जीवन है, वही शाश्वत जीवन है और वह जीवन मैं ही हूँ। उसका स्वभाव शांति है और मैं स्वयं शांति हूँ-मौन की गहन गहराइयों से उपजी शांति। उसकी समग्रता में कहीं कलह नहीं है त्वरित आवागमन नहीं है। मैं वही जीवन हूँ। सूर्य और तारे इसे धारण नहीं कर सकते। इस ज्योति से अधिक प्रकाशवान और कोई ज्योति नहीं है। यह स्वयं प्रकाशित है। मैं ही वह जीवन हूँ तथा तुम मुझमें और मैं तुममें हूँ।’’
🔴 ‘‘मैं सभी भ्रांतियों के मध्य में एक ही सत्य देखता हूँ। यह दृश्य सत्य मैं ही हूँ। काल के गर्भ से उत्पन्न होकर सभी रूपधारियों में मैं ही रूप धारण करता हूँ। मैं काल का भी जन्मस्थान हूँ। इसलिए शाश्वत हूँ तथा जीव तू वही है जो मुझमें है-वही अंतरात्मा। इसलिए उठो, जागो और सभी बंधनों को छिन्न-भिन्न कर दो, तुम ही जाग्रत आत्मा हो। उठो! उठो! और जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाए, रुको मत। लक्ष्य जो कि प्रेम है, जो मुक्त आत्मा का आनंद है, शाश्वत ज्ञान है।’’
🌹 डॉ प्रणव पंड्या
🌹 जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 76
🔴 ‘‘अहो! यह एक सर्वग्राही सौंदर्य है। यह सौंदर्य सुगंधित ऊषा तथा अरुणिम संध्या में प्रस्फुटित होता है। पक्षी के कलरव तथा बाघ की गर्जना में भी यही विद्यमान है। तूफान और शांति में यही सौंदर्य विद्यमान है; किंतु यह इन सबसे अतीत है। ये सब इसके पहलू हैं। मैं सौंदर्य हूँ, एक ऐसा सौंदर्य, जो सुख तथा दुःख से अधिक गहन गंभीर है। यह आत्मा का सौंदर्य है। मैं ही वह सौंदर्य हूँ। मैं ही वह आकर्षण हूँ तथा आनंद ही मेरा स्वरूप है।’’
🔵 ‘‘अहो! एक जीवन है, जो प्रेम है, आनंद है! मैं वही जीवन हूँ। उस जीवन को कोई सीमित नहीं कर सकता, परिमित नहीं कर सकता। वही अनंत जीवन है, वही शाश्वत जीवन है और वह जीवन मैं ही हूँ। उसका स्वभाव शांति है और मैं स्वयं शांति हूँ-मौन की गहन गहराइयों से उपजी शांति। उसकी समग्रता में कहीं कलह नहीं है त्वरित आवागमन नहीं है। मैं वही जीवन हूँ। सूर्य और तारे इसे धारण नहीं कर सकते। इस ज्योति से अधिक प्रकाशवान और कोई ज्योति नहीं है। यह स्वयं प्रकाशित है। मैं ही वह जीवन हूँ तथा तुम मुझमें और मैं तुममें हूँ।’’
🔴 ‘‘मैं सभी भ्रांतियों के मध्य में एक ही सत्य देखता हूँ। यह दृश्य सत्य मैं ही हूँ। काल के गर्भ से उत्पन्न होकर सभी रूपधारियों में मैं ही रूप धारण करता हूँ। मैं काल का भी जन्मस्थान हूँ। इसलिए शाश्वत हूँ तथा जीव तू वही है जो मुझमें है-वही अंतरात्मा। इसलिए उठो, जागो और सभी बंधनों को छिन्न-भिन्न कर दो, तुम ही जाग्रत आत्मा हो। उठो! उठो! और जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाए, रुको मत। लक्ष्य जो कि प्रेम है, जो मुक्त आत्मा का आनंद है, शाश्वत ज्ञान है।’’
🌹 डॉ प्रणव पंड्या
🌹 जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 76
गुरुवार, 18 मई 2017
👉 ...और मुझे दर्शन हो गये
🔵 जब मैं घुटनों के बल चला करती थी, तभी से घर में होने वाले पूजन, हवन तथा मंत्रोच्चार के प्रति मेरे मन में एक जिज्ञासा का भाव था। कुछ और बड़ी होने पर मेरी माँ ने मुझे गायत्री मंत्र का अभ्यास करा दिया था और मैं भी घर के अन्य सदस्यों के साथ हवन में शामिल होने लग गई थी।
🔴 घर के लोग प्रायः शान्तिकुञ्ज तथा पूज्य गुरुदेव के बारे में बातें किया करते थे। मैं जब भी माँ से पूछती कि पूज्य गुरुदेव कौन हैं, तो उनकी तस्वीर की ओर इशारा करके वह हमेशा यही कहती- उनके बारे में मैं तुम्हें क्या बताऊँ? वे कोई आदमी थोड़े ही हैं। वे तो भगवान हैं, भगवान!
🔵 माँ की ऐसी बातें सुन- सुन कर मेरा मन पूज्य गुरुदेव से मिलने के लिए बेचैन होने लगा। मैं बार- बार शान्तिकुञ्ज आने की जिद करने लगी।
🔴 यह उन दिनों की बात है जब मैं चौथी कक्षा में पढ़ती थी। बहुत जिद करने पर भी घर से अनुमति नहीं मिली और लाख चाहने पर भी मैं गुरुदेव के दर्शन नहीं कर सकी। आठवीं कक्षा में आते- आते मैंने पहली दूसरी कक्षा के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया था।
🔵 सन् १९९०ई. में अचानक एक दिन पता चला कि बोकारो शक्तिपीठ से कुछ परिजन शान्तिकुञ्ज जा रहे हैं। गुरुदेव से मिलने की मेरी उत्कंठा अब तक चरम पर पहुँच चुकी थी। मैंने तत्काल शान्तिकुञ्ज जाने का मन बना लिया और वहाँ जाने वाले एक परिजन से मिलकर उनके साथ चलने का कार्यक्रम तय कर लिया। इस बात की मैंने घर में किसी को भनक तक नहीं लगने दी, डर था कि वे सभी फिर मना कर देंगे।
🔴 परिजनों की टोली के साथ मैं शान्तिकुञ्ज पहुँची। अगले दिन सुबह से ही मैं यह सोचकर खुशी से पागल हुई जा रही थी कि आज गुरुदेव के दर्शन होंगे। ऊपर के कक्ष में जाकर पहले मैंने माताजी को प्रणाम किया, तो उन्होंने सिर सहलाते हुए आशीर्वाद दिया। इसके बाद गुरुदेव को प्रणाम करने पर उन्होंने मुझे आधा पुष्प देकर आधा स्वयं रख लिया। आधा फूल देने का अर्थ मेरी समझ में नहीं आया। वापसी में सीढ़ियों से उतरती हुई मैं इसी बात पर सोचती जा रही थी कि एक अद्भुत् अनुभूति हुई। ऐसा लगा कि मेरे कानों में कोई कुछ कह रहा है।
🔵 मैंने आवाज पहचानने की कोशिश की तो बड़ा आश्चर्य हुआ, वह गुरुदेव की ही आवाज थी। वे मुझसे कह रहे थे- तुम्हें मेरे बहुत सारे काम करने हैं। तुम जब किसी काम के लिए आगे बढ़ोगी तो मैं कदम- कदम पर तुम्हारा काम आसान करता चलूँगा।
पूज्य गुरुदेव द्वारा आधा फूल देकर आधा अपने पास रख लेने का अर्थ अब कुछ- कुछ मेरी समझ में आने लगा था।
🔴 अगले ही दिन वसंत पंचमी पर मैंने गुरुदीक्षा ले ली। जब विदाई का समय आया तो वंदनीया माता जी से मिलने गई। सोचकर तो चली थी कि मैं उनसे बहुत कुछ कहूँगी लेकिन कुछ भी नहीं कह सकी। एक ही साथ मन में इतनी बातें आ रही थीं कि कुछ कहते नहीं बना। इस ऊहापोह में आँखों से आँसू बहने लगे। मेरी सबसे बड़ी चिन्ता तो यह थी कि मैं किसी को बताये बिना घर से चली आई थी। साथ की महिलाओं ने भी मुझे पूरी तरह से डरा रखा था। मन कह रहा था कि अगर माताजी आशीर्वाद दे दें, तो घर पहुँचने पर मुझे कोई कुछ नहीं कहेगा।
🔵 माताजी ने मेरे मन का भाव बिना कुछ कहे समझ लिया। उन्होंने मेरी पीठ थपथपाते हुए कहा- बेटा चिन्ता मत कर, सब कुछ ठीक हो जाएगा, घर के लोग तुम्हें कुछ भी नहीं कहेंगे। .....और आश्चर्य! घर पहुँचते ही डाँट- फटकार और पिटाई की आशंकाएँ निर्मूल सिद्ध हुईं। घर में सबको पहले ही पता चल चुका था कि मैं शान्तिकुञ्ज गई हूँ। माँ- पिताजी ने एक शब्द भी नहीं कहा। उल्टे सभी इस बात को लेकर खुश हो रहे थे कि मैं वन्दनीया माताजी और पूज्य गुरुदेव का आशीर्वाद लेकर लौटी हूँ।
🔴 उसी वर्ष जब २ जून को गुरुदेव ने शरीर छोड़ दिया तो हम सभी शोकाकुल हो गए। मेरे माता- पिता दुःखी मन से आपस में बातें कर रहे थे। माँ कह रही थी- हम दोनों से अच्छी किस्मत लेकर तो हमारी अन्जु ही आई है। हम कई सालों तक सोचते ही रह गए और यह लड़की अकेली जाकर भगवान के दर्शन कर आई। पिताजी ने कहा- तुम सच कह रही हो। अन्जु अपनी मर्जी से थोड़े ही गई थी। उसे तो पूज्य गुरुदेव ने शान्तिकुञ्ज बुलाकर स्वयं दर्शन दिए थे। पर, हमारा ऐसा भाग्य कहाँ!
🌹 अंजू उपाध्याय डी. एस. पी. (अरुणांचल प्रदेश
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Samsarn/a/aur
🔴 घर के लोग प्रायः शान्तिकुञ्ज तथा पूज्य गुरुदेव के बारे में बातें किया करते थे। मैं जब भी माँ से पूछती कि पूज्य गुरुदेव कौन हैं, तो उनकी तस्वीर की ओर इशारा करके वह हमेशा यही कहती- उनके बारे में मैं तुम्हें क्या बताऊँ? वे कोई आदमी थोड़े ही हैं। वे तो भगवान हैं, भगवान!
🔵 माँ की ऐसी बातें सुन- सुन कर मेरा मन पूज्य गुरुदेव से मिलने के लिए बेचैन होने लगा। मैं बार- बार शान्तिकुञ्ज आने की जिद करने लगी।
🔴 यह उन दिनों की बात है जब मैं चौथी कक्षा में पढ़ती थी। बहुत जिद करने पर भी घर से अनुमति नहीं मिली और लाख चाहने पर भी मैं गुरुदेव के दर्शन नहीं कर सकी। आठवीं कक्षा में आते- आते मैंने पहली दूसरी कक्षा के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया था।
🔵 सन् १९९०ई. में अचानक एक दिन पता चला कि बोकारो शक्तिपीठ से कुछ परिजन शान्तिकुञ्ज जा रहे हैं। गुरुदेव से मिलने की मेरी उत्कंठा अब तक चरम पर पहुँच चुकी थी। मैंने तत्काल शान्तिकुञ्ज जाने का मन बना लिया और वहाँ जाने वाले एक परिजन से मिलकर उनके साथ चलने का कार्यक्रम तय कर लिया। इस बात की मैंने घर में किसी को भनक तक नहीं लगने दी, डर था कि वे सभी फिर मना कर देंगे।
🔴 परिजनों की टोली के साथ मैं शान्तिकुञ्ज पहुँची। अगले दिन सुबह से ही मैं यह सोचकर खुशी से पागल हुई जा रही थी कि आज गुरुदेव के दर्शन होंगे। ऊपर के कक्ष में जाकर पहले मैंने माताजी को प्रणाम किया, तो उन्होंने सिर सहलाते हुए आशीर्वाद दिया। इसके बाद गुरुदेव को प्रणाम करने पर उन्होंने मुझे आधा पुष्प देकर आधा स्वयं रख लिया। आधा फूल देने का अर्थ मेरी समझ में नहीं आया। वापसी में सीढ़ियों से उतरती हुई मैं इसी बात पर सोचती जा रही थी कि एक अद्भुत् अनुभूति हुई। ऐसा लगा कि मेरे कानों में कोई कुछ कह रहा है।
🔵 मैंने आवाज पहचानने की कोशिश की तो बड़ा आश्चर्य हुआ, वह गुरुदेव की ही आवाज थी। वे मुझसे कह रहे थे- तुम्हें मेरे बहुत सारे काम करने हैं। तुम जब किसी काम के लिए आगे बढ़ोगी तो मैं कदम- कदम पर तुम्हारा काम आसान करता चलूँगा।
पूज्य गुरुदेव द्वारा आधा फूल देकर आधा अपने पास रख लेने का अर्थ अब कुछ- कुछ मेरी समझ में आने लगा था।
🔴 अगले ही दिन वसंत पंचमी पर मैंने गुरुदीक्षा ले ली। जब विदाई का समय आया तो वंदनीया माता जी से मिलने गई। सोचकर तो चली थी कि मैं उनसे बहुत कुछ कहूँगी लेकिन कुछ भी नहीं कह सकी। एक ही साथ मन में इतनी बातें आ रही थीं कि कुछ कहते नहीं बना। इस ऊहापोह में आँखों से आँसू बहने लगे। मेरी सबसे बड़ी चिन्ता तो यह थी कि मैं किसी को बताये बिना घर से चली आई थी। साथ की महिलाओं ने भी मुझे पूरी तरह से डरा रखा था। मन कह रहा था कि अगर माताजी आशीर्वाद दे दें, तो घर पहुँचने पर मुझे कोई कुछ नहीं कहेगा।
🔵 माताजी ने मेरे मन का भाव बिना कुछ कहे समझ लिया। उन्होंने मेरी पीठ थपथपाते हुए कहा- बेटा चिन्ता मत कर, सब कुछ ठीक हो जाएगा, घर के लोग तुम्हें कुछ भी नहीं कहेंगे। .....और आश्चर्य! घर पहुँचते ही डाँट- फटकार और पिटाई की आशंकाएँ निर्मूल सिद्ध हुईं। घर में सबको पहले ही पता चल चुका था कि मैं शान्तिकुञ्ज गई हूँ। माँ- पिताजी ने एक शब्द भी नहीं कहा। उल्टे सभी इस बात को लेकर खुश हो रहे थे कि मैं वन्दनीया माताजी और पूज्य गुरुदेव का आशीर्वाद लेकर लौटी हूँ।
🔴 उसी वर्ष जब २ जून को गुरुदेव ने शरीर छोड़ दिया तो हम सभी शोकाकुल हो गए। मेरे माता- पिता दुःखी मन से आपस में बातें कर रहे थे। माँ कह रही थी- हम दोनों से अच्छी किस्मत लेकर तो हमारी अन्जु ही आई है। हम कई सालों तक सोचते ही रह गए और यह लड़की अकेली जाकर भगवान के दर्शन कर आई। पिताजी ने कहा- तुम सच कह रही हो। अन्जु अपनी मर्जी से थोड़े ही गई थी। उसे तो पूज्य गुरुदेव ने शान्तिकुञ्ज बुलाकर स्वयं दर्शन दिए थे। पर, हमारा ऐसा भाग्य कहाँ!
🌹 अंजू उपाध्याय डी. एस. पी. (अरुणांचल प्रदेश
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
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बुधवार, 17 मई 2017
👉 सब कुछ करता तू ही...
🔵 एक बार मेरी धर्मपत्नी बहुत गम्भीर रूप से बीमार हो गईं। उन्हें दमा की बीमारी थी। हालत इतनी खराब थी कि पानी में हाथ डालना भी मुश्किल था। कोई भी काम अपने हाथ से नहीं कर पातीं। केवल हम दो व्यक्तियों के परिवार में घर के काम- काज के लिए दो लड़कियों को रखना पड़ा। अपनी दोनों बेटियों का विवाह हो चुका था। वे अपने परिवार की जिम्मेदारियों को छोड़कर हमारे पास आकर मॉँ की सेवा नहीं कर सकतीं थी। इधर यह बीमारी थी जो छूटती ही नहीं थी। पाँच साल तक इलाज चलता रहा। मगर हालत सुधरने के बजाय बिगड़ती ही चली गई।
🔴 मैं स्वयं एक होमियोपैथ चिकित्सक हूँ। होमियोपैथिक,एलोपैथी,आयु़र्वेद सब तरह का इलाज कराकर थक चुका था। हर रात किसी न किसी डॉक्टर को बुलाकर लाना पड़ता था। हुगली जिले में ऐसे कोई प्रतिष्ठित डॉक्टर नहीं बचे थे जिन्हें न दिखाया गया हो, लेकिन यह सिलसिला कभी समाप्त होता नहीं दिखता था। रात- रात भर पत्नी के बिस्तर के पास बैठकर बीतता। कभी रोते- रोते गुरु देव से प्रार्थना करता- हे गुरु देव! उनकी यह असह्य पीड़ा हमसे नहीं सही जाती। या तो ठीक ही कर दीजिए या जीवन ही समाप्त कर दीजिए।
🔵 दिन पर दिन बीतते गए। हमारे आँसुओं का कोई अंत नहीं दिखता था। एक दिन आधी रात को इसी उधेड़बुन में बैठा था कि किस नए डॉक्टर को दिखाया जाए। दिखाने से कोई लाभ है भी या नहीं। अचानक किसी की आवाज आई- इतनी चिन्ता क्यों करते हो? एक अंतिम प्रयास खुद भी तो करके देखो। मैंने चौंककर इधर- उधर देखा। यह अन्तरात्मा की आवाज थी। जैसे गुरु देव ही इलाज की नई दिशा की ओर इंगित कर रहे हों। मैंने तत्काल निर्णय कर लिया, अब जो कुछ हो उन्हीं के निर्देश पर इलाज करूँगा। किसी डॉक्टर को नहीं बुलाऊँगा।
🔴 यह निर्णय लेते ही मन में उत्साह की लहर आई। मन की सारी दुश्चिंताए मिट गईं। भोर होते- होते मैंने धर्मपत्नी को भी यह बात बता दी कि अब मेरे घर कोई डॉक्टर नहीं आएँगे। मैं ही इलाज करूँगा। उन्होंने भी सहमति जताई। कहा- ‘मर तो जाऊँगी ही, यह मरण अगर आपके ही हाथों लिखा हो, तो कौन टाल सकता है? पत्नी की इन निराशा भरी बातों से भी मेरा उत्साह कम नहीं हुआ। बल्कि अन्दर से जोरदार कोई प्रेरणा उठी और मैं होमियोपैथी की किताब लेकर बैठ गया।
🔵 गहन अध्ययन कर सारे लक्षणों को मिलाकर सटीक दवा खोजने का प्रयास करता। इसी तरह एक के बाद एक कई दवाएँ चलाईं; लेकिन स्थिति दिन- पर बुरी होती गई। बेटियाँ मुझ पर लांछन लगाने लगीं। आस- पड़ोस के लोग भी कंजूस कहकर ताने देने लगे। बेटियों ने तो यहाँ तक कह दिया कि यदि हमारी माँ को कुछ हो गया, तो हम आपको जेल भी पहुँचाने में नहीं चूकेंगी। फिर भी इस काम में गुरु देव का निर्देश समझकर मैं जुटा रहा।
🔴 गुरु देव को स्मरण कर एक पर एक दवा मिला- मिलाकर प्रयोग परीक्षण करता रहा। कुछ लाभ न होता देख जब मन विचलित हो उठा, हिम्मत जवाब देने लगी, तब फिर एक बार वही आवाज सुनाई पड़ी- चिन्ता मत कर, कल तू जरूर सही दवा खोज निकालेगा। मैं चारों ओर से ध्यान हटाकर किताब लेकर बैठा। सारे लक्षणों को सूचीबद्ध किया। पहले दी गई दवाओं के परिणामों को देखते हुए दुबारा अच्छी तरह अध्ययन कर दवा चुनी। गुरु देव का स्मरण कर दवा देते समय मन ही मन कहा- गुरुदेव! यह दवा मैं नहीं दे रहा। यह आपकी दी हुई दवा है। अब आप जानिए और आपका काम जाने।
🔵 गुरु देव की बात सच हुई। दवा सही निकली। इसी दवा से धीरे- धीरे मेरी पत्नी स्वस्थ होने लगी। हमारे घर में फिर से खुशियाँ लौट आईं। इसके बाद से पूज्य गुरु देव को स्मरण कर जब- जब रोगियों को दवा दी है, रोगी को अवश्य ही आराम पहुँचा है। गुरुदेव की बड़ी कृपा रही है मुझ पर।
🌹 डॉ.टी० के० घोष हुगली (पं.बंगाल)
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Samsarn/a/sfg
🔴 मैं स्वयं एक होमियोपैथ चिकित्सक हूँ। होमियोपैथिक,एलोपैथी,आयु़र्वेद सब तरह का इलाज कराकर थक चुका था। हर रात किसी न किसी डॉक्टर को बुलाकर लाना पड़ता था। हुगली जिले में ऐसे कोई प्रतिष्ठित डॉक्टर नहीं बचे थे जिन्हें न दिखाया गया हो, लेकिन यह सिलसिला कभी समाप्त होता नहीं दिखता था। रात- रात भर पत्नी के बिस्तर के पास बैठकर बीतता। कभी रोते- रोते गुरु देव से प्रार्थना करता- हे गुरु देव! उनकी यह असह्य पीड़ा हमसे नहीं सही जाती। या तो ठीक ही कर दीजिए या जीवन ही समाप्त कर दीजिए।
🔵 दिन पर दिन बीतते गए। हमारे आँसुओं का कोई अंत नहीं दिखता था। एक दिन आधी रात को इसी उधेड़बुन में बैठा था कि किस नए डॉक्टर को दिखाया जाए। दिखाने से कोई लाभ है भी या नहीं। अचानक किसी की आवाज आई- इतनी चिन्ता क्यों करते हो? एक अंतिम प्रयास खुद भी तो करके देखो। मैंने चौंककर इधर- उधर देखा। यह अन्तरात्मा की आवाज थी। जैसे गुरु देव ही इलाज की नई दिशा की ओर इंगित कर रहे हों। मैंने तत्काल निर्णय कर लिया, अब जो कुछ हो उन्हीं के निर्देश पर इलाज करूँगा। किसी डॉक्टर को नहीं बुलाऊँगा।
🔴 यह निर्णय लेते ही मन में उत्साह की लहर आई। मन की सारी दुश्चिंताए मिट गईं। भोर होते- होते मैंने धर्मपत्नी को भी यह बात बता दी कि अब मेरे घर कोई डॉक्टर नहीं आएँगे। मैं ही इलाज करूँगा। उन्होंने भी सहमति जताई। कहा- ‘मर तो जाऊँगी ही, यह मरण अगर आपके ही हाथों लिखा हो, तो कौन टाल सकता है? पत्नी की इन निराशा भरी बातों से भी मेरा उत्साह कम नहीं हुआ। बल्कि अन्दर से जोरदार कोई प्रेरणा उठी और मैं होमियोपैथी की किताब लेकर बैठ गया।
🔵 गहन अध्ययन कर सारे लक्षणों को मिलाकर सटीक दवा खोजने का प्रयास करता। इसी तरह एक के बाद एक कई दवाएँ चलाईं; लेकिन स्थिति दिन- पर बुरी होती गई। बेटियाँ मुझ पर लांछन लगाने लगीं। आस- पड़ोस के लोग भी कंजूस कहकर ताने देने लगे। बेटियों ने तो यहाँ तक कह दिया कि यदि हमारी माँ को कुछ हो गया, तो हम आपको जेल भी पहुँचाने में नहीं चूकेंगी। फिर भी इस काम में गुरु देव का निर्देश समझकर मैं जुटा रहा।
🔴 गुरु देव को स्मरण कर एक पर एक दवा मिला- मिलाकर प्रयोग परीक्षण करता रहा। कुछ लाभ न होता देख जब मन विचलित हो उठा, हिम्मत जवाब देने लगी, तब फिर एक बार वही आवाज सुनाई पड़ी- चिन्ता मत कर, कल तू जरूर सही दवा खोज निकालेगा। मैं चारों ओर से ध्यान हटाकर किताब लेकर बैठा। सारे लक्षणों को सूचीबद्ध किया। पहले दी गई दवाओं के परिणामों को देखते हुए दुबारा अच्छी तरह अध्ययन कर दवा चुनी। गुरु देव का स्मरण कर दवा देते समय मन ही मन कहा- गुरुदेव! यह दवा मैं नहीं दे रहा। यह आपकी दी हुई दवा है। अब आप जानिए और आपका काम जाने।
🔵 गुरु देव की बात सच हुई। दवा सही निकली। इसी दवा से धीरे- धीरे मेरी पत्नी स्वस्थ होने लगी। हमारे घर में फिर से खुशियाँ लौट आईं। इसके बाद से पूज्य गुरु देव को स्मरण कर जब- जब रोगियों को दवा दी है, रोगी को अवश्य ही आराम पहुँचा है। गुरुदेव की बड़ी कृपा रही है मुझ पर।
🌹 डॉ.टी० के० घोष हुगली (पं.बंगाल)
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Samsarn/a/sfg
👉 आइए! आत्म शक्ति द्वारा अपने अभावों की पूर्ति करें
🔴 आपको अपने जीवन में अनेक प्रकार की आवश्यकताएँ अनुभव होती हैं, अनेक अभाव प्रतीत होते हैं और अनेक इच्छाएँ अतृप्त दशा में अन्तःकरण में कोलाहल कर रही हैं। इस प्रकार का अशान्त एवं उद्विग्न जीवन जीने से क्या लाभ? विचार कीजिए कि इनमें कितनी इच्छाएँ वास्तविक हैं और कितनी अवास्तविक? जो तृष्णाएँ मोह ममता और भ्रम अज्ञान के कारण उठ खड़ी हुई हैं उनका विवेक द्वारा शयन कीजिए। क्योंकि इन अनियंत्रित वासनाओं की पूर्ति, तृप्ति और शान्ति संभव नहीं। एक को पूरा किया जायेगा कि दस नई उपज पड़ेंगीं।
🔵 जो आवश्यकताएँ वास्तविक हैं। उनको प्राप्त करने के लिए अपने पुरुषार्थ को एकत्रित करके इसे उचित उपयोग कीजिए। पुरुष का पौरुष इतना शक्तिशाली तत्व है कि उसके द्वारा जीवन की सभी वास्तविक आवश्यकताएँ आसानी से पूरी हो सकती हैं। इसमें से अधिकाँश का पौरुष सोया हुआ रहता है। क्योंकि उसे प्रेरणा देने वाली अग्नि आत्म शक्ति- मंद पड़ी रहती है। उस चिंगारी को जगाकर अपने शक्ति भण्डार को चैतन्य किया जा सकता है। यह सचेत पौरुष हमारी प्रत्येक सच्ची आवश्यकता को पूरी करने में पूर्णतया द्वारा समर्थ है। आइए, अभावग्रस्त चिन्तातुर स्थिति से छुटकारा पाने के लिए तृष्णाओं का विवेक द्वारा शमन करें और आवश्यकता को पूर्ण करने वाले पौरुष को जगाने के लिए आत्मशक्ति की चिंगारी को जगावें।
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 अखण्ड ज्योति -अगस्त 1948 पृष्ठ 1
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1948/August/v1.1
🔵 जो आवश्यकताएँ वास्तविक हैं। उनको प्राप्त करने के लिए अपने पुरुषार्थ को एकत्रित करके इसे उचित उपयोग कीजिए। पुरुष का पौरुष इतना शक्तिशाली तत्व है कि उसके द्वारा जीवन की सभी वास्तविक आवश्यकताएँ आसानी से पूरी हो सकती हैं। इसमें से अधिकाँश का पौरुष सोया हुआ रहता है। क्योंकि उसे प्रेरणा देने वाली अग्नि आत्म शक्ति- मंद पड़ी रहती है। उस चिंगारी को जगाकर अपने शक्ति भण्डार को चैतन्य किया जा सकता है। यह सचेत पौरुष हमारी प्रत्येक सच्ची आवश्यकता को पूरी करने में पूर्णतया द्वारा समर्थ है। आइए, अभावग्रस्त चिन्तातुर स्थिति से छुटकारा पाने के लिए तृष्णाओं का विवेक द्वारा शमन करें और आवश्यकता को पूर्ण करने वाले पौरुष को जगाने के लिए आत्मशक्ति की चिंगारी को जगावें।
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 अखण्ड ज्योति -अगस्त 1948 पृष्ठ 1
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1948/August/v1.1
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